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* ( सहन ) यह राजारूप पुरुष, हजारों शिरों पाला, हजारों श्रखिों वाला, हजारों पैरों वाला है।" __ इसी प्रकार सम्पूर्ण मन्त्रों के अर्थ राजा, व राजसभा, परक किये हैं । तथा च सामवेदमें; एयं अथर्ववेदमें आपने इन मन्त्रों के अथ जीवात्मा परक भी किये हैं। अतः यहां ईश्वरका कथन इन विद्वानों को भी सन्देहास्पद है। तथा च भारतीय ईश्वरवादमें, पाण्डेय रामावतार शर्मा लिखते हैं कि
"ऋग्वेद के पुरुष व नासदीय सूक्त विद्वानों द्वारा सांख्यमसके मूल कहे गये हैं। और वेदान्ती भी वेदान्त के मूलभं जन सूक्तोंको स्वीकार करते हैं।" ___ (१) मूर्त (२) अमूर्त, (द्वा थेव ब्रह्मणो रूपे मूर्त वैवा ! भूत' च मर्य चामृतं च ) इस शुक्षिके दो अर्थ किये गये हैं एक अधिदैवत दूसरे अध्यात्म अनियतमें आकाश और वायु को ब्रह्म । पुरुष ) कहा गया है और उन्हींको अमूर्त और अमृत, आदि कहा गया है । तथा श्री शंकराचाचायने अपने भाष्यमें लिखा है कि-"पक्ष पुच्छादि विशिष्ट स्यैव लिंगस्य पुरुष शन्द दर्शनात्" । अर्थात् तेतिीय श्रुति में लिंग शरीर को ही पुरुष कहा गया है । तथा च यहाँ एक श्रुति को भी उद्धृत किया गया है (न वा इयं मन्सः शक्ष्यामः प्रजाः प्रजनवितु भिमान् सप्त पुरुषा ने पुरुष कर बामति त तान् सप्त पुकानेक पुरुषम कुर्वन | अर्थात्, "इस प्रकार हम पृथक ६ रहते हुए प्रजा उत्पन्न नहीं कर सकते अतः इन सात पुरुपोंको (श्चोत्र, त्व, चक्षु, जिला, प्राण, वाक, और मनको) इभ एक करवे । ऐसा विचार कर उन्होंने इन सात पुरुषोंको एक कर दिया ।" वहां स्पष्ट रूपसे इन्द्रियोंका और मनका ही नाम पुरुष कह कर अन्य कल्पित घों का खंडन कर दिया है । अतः यह सिद्ध है कि पैदिक साहित्य में पुरुष शरुन कायु श्रादि के लिये तथा इन्द्रियों व मन अथवा जीवात्मा के लिये ही प्रयुक हुआ। है |