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यह निश्चित है कि सांख्यवादी विद्वान पुरुषको कर्ता नहीं मानते तथा ईश्वरका वे प्रवल युक्तियों से खंडन करते हैं । यहीं अवस्था मीमांसा दर्शनकी है। जैमुनि ऋषिके मत से भी वेदों में सृष्टिकर्त्ता ईश्वरका कथन नहीं है।
उनके मत में यह कथन केवल यजमान व देवताकी स्तुति मात्र है । वा परिचय पं० सालकरजी लिखते हैं कि
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अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्ध्वं छतं ते प्राणा सह स्रं व्यानाः | यजु० १७/७१
"इस मन्त्रका सहस्राक्ष अनि आत्मा है । शतक्रतु, इन्द्र, सहस्राक्ष आदि शब्द आत्मा वाचक ही हैं । सहस्रा तेजो का धारण करने वाला आत्मा ही सहस्राक्ष अभि है।
प्राण, उदान व्यान आदि सत्र प्राण सैकड़ों प्रकार के हैं । प्रारण का स्थान शरीर में निश्चित हैं। हृदय में प्राण हैं, गुदाके प्रान्त में अपान हैं. नाभिस्थान में समान है, और कंटमें प्रदान है, और सब शरीरमें व्यान है प्रत्येक स्थानमें छोटे र भेद सहस्रों हैं ।"
इसी लिये जीवात्माको 'सहस्राक्ष' आदि कहा गया है। तथा चब्राह्मण ग्रन्थों में लिखा है कि
श्रात्मा हि एवं प्रजापतिः । शत० ४/६ |१| १
इसी प्रकार अन्य अनेक स्थानों पर भी इसी आत्माको प्रजापति कहा है इसी प्रकार, हिरण्यगर्भ, ब्रह्म, पुरुप विश्वकर्मा आदि सब नाम आत्मा के ही हैं। तथा च क्र. उ० (२।३ । ) में पुरुष (ब्रह्म) के दो रूपों का वर्णन है।