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( ११६ ) व्यापी, सर्वत्मक, अपरिमिस हैं। ये सब पररपर परिणत होतं हैं। (४) देवता मूल 'सत्ता' द्वारा भी भिन्न नहीं है । एक ही मौलिक ब्रह्म शक्ति विविध आकारोंसे विविध नामोंसे, नाना
दों में किया कर रही इस काम मेघवालाकी स्वतन्त्रता, कथनमात्र ही रह जानी है, इनकी मूल गत ससा एक है। इस मालोचना द्वार सहदय पाठक अवश्य ही समझ सकगे कि ऋग्वेद जड़ वस्तुओंके प्रति प्रयुक्त स्तुतियोंका संग्रह प्रन्थ नहीं है।
(२) हम पहले यही दिखाते हैं किं. देवताओंके कार्योंमें कोई भिन्नता नहीं इन्द्रदेव जो काम करते हैं. अग्नि देव भी वाह काम करते हैं। और अग्नि जिन क्रियाओंमें समर्थ हैं. सोमादि सकल देव भी उनमें समर्थ हैं। सभी देवता इसी प्रकार हैं। सोमदेवता के लिये कहा गया है कि सोम--
(क) श्राकाश और पृथिवीको स्तंभित कर रहा है । अन्तरिक्ष आदिका विस्तारक है, सूर्यका उत्पादक है । और सोमने ही सूर्यमें ज्योति निहित की. आकाशादिको पूर्ण किया है । । अयं धावा पृथिवी विस्कभात् विसृम्भो दिवो धरुणो प्रथिव्याः। है ।।६ स्कंभो दिवः, १६ । ४६ थियो तस्तंभ रोदसी, ११.१ । १५ । स्वमाततंथ ऊन्तरिक्षम् | अनुद्यावा पृथिवीं श्रात्ततंथ, ८।४८।१३. अजनयत् सूर्यज्योतिः अद्धान् इन्द्रे उर्ज है । ६७।४ अयं सूर्य अधात् ज्योतिरन्तः, ६ । १४ । २३ अजीजनोहिसूर्यम् ह । ११ । ३ सूर्य रोहयो दिवि, ह|१०७७ तर ज्योतीषि पवमान सूर्यः ।।८६ । २६