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fert हुआ नहीं ब्रह्मके ही हुआ। इसलिये ब्रह्मको सर्वरूप माना भ्रम है । छटा प्रकार यह है कि जैसे श्राकारा सर्वव्यापी है वैसे ब्रह्म भी सर्वत्र्य पी है तब इसका अथ यह हुआ कि प्रकाशकी तरह ब्रह्म भी उतना ही बड़ा है और घटपटादिकमें
काश जैसे रहता है वैसे भी उनमें रहता है लेकिन जैसे शद और आकाशको एक नहीं कह सकते वैसे ही ब्रा और लोक को भी एक नहीं कहा जा उकता। दूसरी बात यह है कि आकाश का तो लक्षण यंत्र दिखाई देता है इसलिये उसका सच जगद सद्भाव माना जा सकता है लेकिन ब्रह्मका लक्षण सब जगह नहीं दिखाई देगा इसलिये कैसे बनता है ? इस तरह विचार करने पर किसी भी तरह एक ब्रह्म संभव नहीं होता । सम्पूर्ण पदार्थ भिन्न भिन्न ही मालूम पड़ते हैं । यहाँ प्रतिवादका कहना है कि पदार्थ हैं तो सब एक हो लेकिन भ्रम से वे एक मालूम नहीं पड़ते। इसमें युक्ति देना भी ठीक नहीं है क्योंकि ब्रह्म का स्वरूप युक्तिगम्य नहीं है. वचन अगोचर है एक भी है अनेक भी है, जुदा भो हैं मिला भी है उसकी महिमा हो ऐसी हैं ।
परन्तु उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसे और सबको जो प्रत्यक्ष प्रतिभ नित होता है उसे वह भ्रम कहता है और युक्ति अनुमान करो तो कहता है कि रुघा स्वरूप युक्तिगम्य नहीं हैं वचन अगोचर हैं परन्तु जब वह बचन गर है तो उसका निर्णय कैसे हो ' यह कहना कि एक भी हैं. अनेक भी है जुड़ा भी हैं मिला मो है तब ठीक होता जब किन किन अपेक्षा से ऐसा हैं ? यह बताया जाता । अन्यथा वह पागलोंका अल . प हैं ।
कहा जाता है कि ब्रह्मके पहले ऐसी इच्छा हुई कि 'एकोऽहं