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शब्दोंसे ईश्वरका अर्थ या अभिप्राय निकाला है, अतः आवश्यक है, कि इस पर जरा विशप विचार किया जाये । वेदोंके स्वाध्यायसे यह ज्ञात होता है कि, पहले ये प्रजापति आदि शब्द अन्य अग्नि
आदि देवताओंके विशेषण मात्र थे। तत्पश्चात् कालान्तरमें यह एक मुख्य देवता माने जाने लगे।
तथा च अथर्ववेद में लिखा है कि
ये पुरुष ब्रह्मविदुस्त विदुः परमष्टिनम् । यो वेद परमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम् । ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुस्ते स्कम मनु सं विदुः ।। १० । ७ । १७ ।
अर्थात्-जो ज्ञानी पुरुष शरीरमें प्रा (आत्मा)को जानता है वह परमेष्ठी, (हिरण्यगर्भ) को जानता है। जो परमेष्ठीको आनता है, वह प्रजापतिको जानता है। वह ज्येष्ठ ब्रह्माको तथा स्कभको जानता है । अभिप्राय यह है कि ये सब उस अन्तरात्मा के ही नाम या शक्तियाँ हैं। अतः यात्माको ही प्रजापति आदि कहते हैं। अथवा यहाँ प्रजापति आदि मन व बुद्धि प्रादिके नाम हैं। और मात्मा जिसका नाम यहाँ स्कंभ' है यह इनसे परे है। आगे इसी प्रकरण में लिखा है कि
हिरण्यगर्भ परमपन्त्युर्घ जनाविदुः । स्कंभस्तदने प्रासिंच द्धिरण्यं लोके अन्तरा ।। २८ ।
श्रीमान् पं. राजाराम जी इसका अर्थ करते हैं कि-'लोग हिरण्यगर्भको ही सबसे ऊँचा और वाणीसी पहुंचसे परे मानते