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से मुयने आँखोंमें, बनस्पतियों ने ले म-रूपसे त्वचामें प्रवेश किया । चद्रमाने मनरूपसे उदयमें प्रवेश किया, मृत्युने अपानरूपसे, प्रवेश किया, जलने रेतापसे शिश्नमें प्रवेश किया, तब परमात्माने देखा कि बिना मर यह देह किस तरह रह सकती है? वह सोचने लगा कि मैं प्रवेश किस तरह करूँ। वह इस सीमा ( मस्तक) को चीरकर. उसी द्वार होकर, प्रविष्ट होगया। उस द्वारका नाम विरति (मझरन्ध ) है। उससे उक्तपुरुषने महाको (शरीरमें स्थित देख लिया।
इस विवरण से मालूम हो जायगा कि ब्रहा ही जीव रूप से पुर में प्रवेश करता है। यह पुर का स्वामी है। इसके द्वारा जीव और ईश्वर तात्विक ऐक्य प्रतिपन्न होता है इस संबंध में गीता ने साफ साफ कह दिया है कि जीव ब्रह्म का ही अंश है ।
ममाशो जीवलोके जीवभूरः सनातनः । मीता १५७ सनातन जॉब ब्रह्म का ही अश है। गीता में अन्यत्र कहा गया हैश्रहमात्मा गुडाकेश सभृताशय स्थितः । गीता १०२०
हे अर्जन : सबभूतों की बुद्धि में स्थित श्रात्मा(जीव) मैं ही (भगवान) हूँ।
क्षेत्रज्ञश्चापि मा रिद्धि सई क्षेत्रेषु भारत । गीता १३,२ हे अर्जुन सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे (आत्मा को जानना । .. कर्पयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममवेतसः । माञ्चकान्त- शरीरस्थं तान् विद्यासुर निश्चयान् ।।
गीता १७.६