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जो लोग श्रारिक साधक हैं, शरीर के भूतग्राम ( इन्द्रिय समूह ) को और शरीरस्थ इस आत्माको लेस देते हैं । यहाँ पर 'भूत ग्राम' शब्द इन्द्रिय समूहके लिये ही प्रयुक्त हुआ है। अतः भूतोंका अर्थ इन्द्रियाँ करना युक्तियुक्त हैं। इसलिये वैदिक साहित्य में जहाँ जहाँ पंच भूतोंकी उत्पत्तिका कथन है वहाँ वहाँ 'पाँच इन्द्रियों की उत्पत्तिसे अभिप्राय समझना चाहिये ।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्त्ता भोका महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युको देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ गीता १३/२३
इस देह में परमपुरुष परमात्मा महेश्वर विराजमान है, ओ साक्षी अनुमन्ता, भर्त्ता और भोक्ता भी है। परमात्मा, व महेश्वर आदि कहा गया है ।
यहाँ जीवको ही
यथा सुदीप्तात् पावकाद् विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः । तथाचरात् विविधाः सोम्यभावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति || मुण्डक २ १११
यथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्प्येव मेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्व्वे लोकाः सर्व्वे देवाः सर्व्वाणि भूतानि व्युच्चरन्ति । ( बृह० २।१।२० )
* यहाँ भाष्यकारोंने 'भाषा' शब्दका अर्थ जीव ही किया है। इससे सिद्ध है कि वैदिक साहित्य में विचारोंको भी जीव कहते हैं। श्रतः जहाँ जहाँ ब्रह्मसे जीवों की उत्पत्तिका वर्णन है वहाँ वहाँ श्रात्मासे भावोंकी उनका वर्णन है ।