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'योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् ।'
यहां श्री ऋषभदेवजीको (जिनका नाम हिरण्यगर्भ भी है) योगका प्रवर्तक ही माना है । तथा प यही पात योगके अन्य मन्यों में भी है। यथा--
श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै येनोपदिष्ठा हठयोगविद्या । इठयोगप्रदीपिका।
यहां भी श्री वादिनाथ (ऋषभदेव ) को ही योगका प्रालि प्रचारक माना है।
सथा अनेक योगके भाष्यकारोंने भी महाभारतके उपर्युक्त श्लोक उद्धृत करके वही सिद्ध किया है। अतः यह सर्व सम्मत सिद्धान्त है कि हिरण्यगर्भ ऋषि हुये हैं, जिसका वर्णन वेदों में है। अमरकोषमें इनके निमलिम्वित नाम लिखे हैं।
प्रमामभूः स्वरः श्रेष्ठः परमेष्ठी पितामहः । हिरण्यगर्मो लोकेशः स्वयंभूचतुराननः ॥
अर्थात्-प्रशा, आत्मभूः, स्वरः श्रेष्ठ,परमेष्टी. पितामह हिरण्यगर्भ, लोकेश, स्वयंभू, चतुरामन आदि प्रजापति के नाम हैं।
वेदान्त मत में श्री शंकर मलके अनुसार'अविद्योपाधिको जीवः, मायोपाधिक ईश्वरः ।। पर्थान-प्रविधायुक्त जीव और माया लिसा ईश्वर है (माया