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( २५७ ) मात्र है वास्तविक नहीं । अथवा उपदेश द्वारा सृष्टिके खांन कराने को मृति-सुजन कहा गया है।
सथा च महाभारत में लिखा है किहिरण्यगनों ये.गस्य वक्ता नान्यः पुरातनः ।
शान्तिपर्व, १०३४६ 'हिरण्यगर्भो द्युतिमान् य एषः छन्दसि स्तुतः ।'
प्र० ३४२। योगैः सं पूज्यते नित्यं स च लोके विभुः स्मृतः।१६।
अर्थात्-योगमार्ग के प्रथम प्रचारक हिरण्यगर्भ ऋषि हुए है। उनसे पुरातन अन्य नहीं । अरसे पूर्व योग-मार्ग प्रचलित नहीं था।
यह वही हिरण्यगर्भ ऋषि है जिनकी योगी लोग नित्य पूजा करतेहैं। तथा जो लोकमें विभु के नाम से प्रसिद्ध है । तथा जिनकी महिमाका बखान बेद करता है।
श्रीमद्भागवत् स्कन्द. ५।१९।१३ में भी इसी का समर्थन है। तथा वायुपुराण,४। ७० में भी उपरोक्त कथन ही है । पपरोक्त श्लोक में, "छन्दसि स्तुतः", और "सच लोके विभुः स्मृतः" ये दो पद बड़े महत्व के हैं। क्योंकि इनसे सिद्ध होगया है कि जिसको संसार विभु, परमात्मा श्रादि कहता है; तथा जिसकी हिरण्यगर्म सूक्तमें अथवा प्रजापति आदिके नामसे वेदोंमें महिमा गाई गई है वह हिरण्यगर्भ ऋषि है। अर्थात्-इन नामोंसे वेदोंमें ईश्वरका कथन नहीं अपितु महापुरुषोंकी स्तुति है । सथा च जैन मुनि योगी शुभचन्द्राचार्यने अपने शानाधके आदिमें कहा है कि