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प्राकृत नहीं होता। वह तो पाइगुण्यमग. दिव्य और अप्राकृत होता है अतस्य वह ईश्वरका स्वरूप' शुद्धतत्वमय और सच्चिदानन्दमय कहलाना है।
देव-शरीरके मम न ईश्वरका शरीर जड़ नहीं होना । यह रोगनस्वयंप्रकाश और तानात्मक होना है।
देवताओंको जिस प्रकार स्पादि साात्कार के लिय चक्षुरादि इन्द्रियों के साहाय्यकी अपेक्षा है. उस प्रकार ईश्वरको नहीं होती। उसका रूपादि-माशात्कार स्वयमेव होता है। .
देवताम जिस प्रकार देह और दहीका भेद होता है, उस प्रकार ईश्वरमें नहीं होता। ईश्वरमें जो देह है, वही देही है, और जो देही है वही देह है ।। . ..
'देवदेहिभिदा चात्र नेश्वरे विद्यने वरिन् ।' षय
देव-शरीरका जिस प्रकार हानांपादान होता है. उम प्रकार ईश्वर-शरीरका नहीं। यह नित्य और हानापादानहीन है -
सर्वे नित्याः शाश्वताश्च देहास्तस्य परात्मनः । हानोपादानरहिता नैव प्रकृतिजाः कचित् ॥
ईश्वर के लिये शरीर-शब्दका प्रयोग औपचारिक है। शरीरका अर्थ है शीण होने वाला। ईश्वर कभी शार्ण नहीं होता, इसलिये ईश्वरका शरीर न कह कर विद्वान लोग ईश्वरको व्यक्ति अथवा विग्रह श्रादि कहा करते हैं। व्यक्ति शब्दका प्रयोग प्राचीन है। महाभारतका वचन है--
एषोऽहं व्यक्तिमास्थाय तिष्ठामि दिवि शाश्वतः।