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की महत्वपूर्ण विद्या प्रत्यक्ष अनुभव करना हो तो इन चार अवस्थाओं का विचार करके आत्मानुभव करना चाहिए. इन चार अवस्थाओं में भी तीन विनाशी हैं। और चतुर्थ अवस्था ही शुद्ध है. इस विषय में प्रश्नोपनिषद्का कथन मननीय है
तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्त अन्योन्यक्ता अनुचेद्रयुक्ता: । ( प्रश्न० उ५० ५ | ६ )
ॐ
“ॐकारकी तीन मात्राएँ ( अर्थात अ+उ+म ये तीन मात्राएँ ) मरण धर्म वालो हैं, ये एक दूसरेके साथ मिली-जुली भी हैं।" तीनों अक्षरोंका मेल हानेसे ही शब्द बनता है. और यह ॐ शब्द 'जागृति- स्वप्न सुपुप्ति के मिश्रित अनुभवका घोधक है। जागृति स्वप्न और सुषुप्तिका भी अनुभव होता ही है। अर्थात् तीनों अवस्थाओं का मेल जागृति में होता है. स्वप्रका संबंध एक ओर जागृति के साथ और दूसरी ओर सुपुत्री के साथ होता है तथा सुषुप्त अवस्था उत्तम व्यतीत होगई. तो आगे जागृत करनेके कार्य उत्तम हो सकते हैं. इत्यादि विचार करनेसे इन तीनों अवस्थाओं का एक दूसरेके साथ कितना घनिष्ठ संबंध है, यह स्पष्ट हो जाता है, और यह घनिष्ठ संबंध व्यक्त करने के लिये ही उम्' की मिश्रित ध्वनि "ॐ" बनाया गया है। उक्त श्रवस्थाओं में आत्माका अभिन्न मंत्र है। यह गुप्त बात इसप्रकार व्यक्त की गई है। पाठक इसका विचार करें और जानें कि ॐकार किस प्रकार आत्माका वाचक है। और उनकी तीनों अवस्थाएँ मर धर्म वाली होने पर भी वह तीनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला होनेक कार कैसा अज और अमर है । पतु इस प्रकार ॐकार जीवात्माका वाचक निश्चित सिद्ध हुआ । यही ॐॐ शब्द यजुर्वेद अन्तिम मन्त्रमें आ गया है