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ब्राह्मणों में साक्षात् ब्रह्मवादके कहने वाले अनेक मन्त्र भिन्न २ कर्म में विनियुक्त किये गये हैं 1 अर्थ उनका चाहे और पदार्थों में "" भी घटे पर ब्रह्मपरक तो है ही। श० ३ । ६ ! ३ । ११ । मैं । कहा है
अम्नेनय सुपथारायेऽस्मान " यजु० ४० ! १७ !
अर्थात्-हे प्रकाश-स्वरूप-परमात्मन हमें भले मार्गसे मुक्तिके ऐश्वर्य के लिये ले चल ।
अतः इस मन्त्रक इस प्रकरणमें श्राजानेसे यह निश्चित है कि ब्राह्मणों वाले ब्रह्मवादके मन्त्रोंका भी विनियोग अपने २ कर्नामें कर लेते थे। अब देखो, ब्राह्मण प्रजापति ताम्रसे ननका ही कथन करता है__ अष्टोत्रमयः । एकादशरुद्रा द्वादशादित्या इमेऽएव द्यावा पृथिवी त्रयस्त्रिश्यो त्रयसिधशब्द देवाः प्रजापतिश्चतुनि, शस्तदेन प्रजापति कगेत्ये तद्वाऽअस्त्येतद्धशमनं तद्धयम्त्येनदु तन्मत्य स एष प्रजापतिः सर्व चै प्रजापतिस्तदेनं प्रजापतिं करोति । श० ४ । ५। ७ । २ ॥
अर्थात-आठ वसु. ग्यारह मद्र. बारह आदित्य.यह भी दोनों यौ और पृथ्वी लेनीसवें हैं । तेतीम ही देव है । प्रजापति चौतीसवां है । तो इस ( यजमान ) को प्रजापनिका : जानने वाला बनाता है । यही वह है जो अमूत है, और जो अमृत है. वही ग्रह है। जो मरणधर्म है. यह भी प्रजापति ( का ही काम ) है । सब कुछ प्रजापनि है। ना इस (यजमान) को प्रजापति (का जानने वाला) बनाता है।