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मनसेचानुद्रष्टव्यम् । वृ० उप० ४ । ११ । अर्थात्-मन से ही ( उस ब्रह्मको ) देखना चाहिये । प्रजापतिर्वाऽयमतः । श० ६ | ३ | ६ | १७ |
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श्रर्थात् परमात्मा अमृत, अजन्मा, अनादि, अनन्त है। इसी प्रजापति परमात्माकी रखी हुई यह विविध प्रकार की सृष्टि है । समीक्षा - त्राह्मण ग्रंथों से भी वर्तमान ईश्वरको खोज निकालने में भगवदद जी नितान्त असफल रहे हैं। जिन श्रुतियों के अर्थो में आपने परमेश्वर का कथन किया है, वे ही श्रुतियाँ आप के सिद्धान्त का खंडन कर रही हैं। प्रथम तो आपने वे श्रुतियां लिखी हैं कि जिनमें प्रजापति को चौंतीसवां देवता माना है । आप कहते हैं कि यह चौंतीसवां देवता परमेश्वर है । परन्तु
पका यह कथन वैदिक वांगमय के सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि वैदिक साहित्य ( जिसमें ब्राह्मण ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं ) में कहीं भी ईश्वरका कथन नहीं है । तथा यहां चौंतीसवाँ देवता आत्मा माना गया है । आपने यहां एक बात स्पष्ट करदी इसके लिये आपको धन्यवाद देते हैं ।
आपने यहां सिद्ध कर दिया कि आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य पृथिवी और य ये तेतीस देव परमेश्वर नहीं हैं, अपितु प्रजापति ही चौतीसवां परमेश्वर है । अतः अथ जो भाई, वसु, रुद्र, आदित्य आदि नामों का भी ईश्वर अर्थ करते हैं, यह उनकी भारी मूल है। वास्तव में तो चौंतीसवां देवता मानना ही अवैदिक है। क्योंकि मन्त्र संहिताओं में कहीं भी चौतीस देवोंका कथन नहीं है. श्रपितु नेतीस ही देवता माने गये हैं। यथा
नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह । ऋ० १३४ । ११ हे अश्विनी ! आप मधुपानके लिये १३ देवोंके साथ भावें ।