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! इसी भाव का विस्तार श० ४१ | ६ | ३ | ४१ – १० । और श० १४ । ६ १ ६ । १० । में है। इन दोनों स्थानों में प्रजापति यश का है । परन्तु इस अर्थ में यह ३३ देवा के अन्तर्गत है । ३४ वां देव ब्रह्म परमात्मा है। वही ३४ वा देव पूर्वोक्त प्रमाण में प्रजापति हैं । तां प्रा०२७ । ११ । ३ । में भी कहा है
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प्रजापतिश्चतुस्त्रिंशो देवतानाम् ।
अर्थात् देवताओंका प्रजापति चौतीसवां है। तै ० ० १ । ८ । ११ । में भी कहा हैं-
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त्रयत्रिशब्देदेवताः । प्रजापतिश्चतुस्त्रिं शः ।
अर्थात्---तेतीस देवता हैं। प्रजापति चौतीसषां हैं। फिर एक स्थल में प्रजापति और पुरुष दोनों शब्द पर्याय रूपसे आये हैं । और ब्रह्म अर्थात् परमात्माके वाचक हैं-
सोऽयं पुरुषः प्रजापति कामयत् । भ्रूयान्त्स्य प्रजायेयेति सोऽश्राम्यत्स तपोऽतप्यत स श्रान्तस्ते पानोत्रह्म व प्रथममसृजत त्रयमेव विद्यासेवास्मै प्रतिष्ठा भवत्तस्मादाहुस्य सर्वस्य प्रतिष्ठेति । श० ६ । १ । १ । ।
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अर्थात- वह जो यह (पूर्ण) पुरुष प्रजापति है. उसने कामना की। मैं बहुत अर्थात् महिमा वाला हो जाऊँ, प्रजा बाला होऊँ । उसने जगतके परमाणुओं को किया देनेका) श्रम किया . उसने (ज्ञान रूप ) तप तथा । उसके थकने पर ( क्रियाका चल पड़ने पर ) और ( ज्ञानरूप ) तप होने पर ब्रह्म वेद को उसने सबसे पहले उत्पन्न किया, इसी नयी विधाको । बही उसकी प्रतिष्ठा है ( अर्थात आधार है । व्याहृतियों और वेद मन्त्रों परसे
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