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इसी आत्माके श्रात्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुलध्यानसे अथवा जागृत स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्य (मोक्ष ) भेदसे, इसको चतुष्पाद कहा है, तथा च संसारी और मुक्त भेदसे इसीके दो भेद किये हैं।
यथाद्वाचेव ब्रह्मणो रूपे मूसं चामूर्त च ।
अर्थात्-मूर्त, ससारी और अमूर्त मुक्तात्मा। इसी मूर्तको वहिरास्मा कहा गया है।
स श्रोतः प्रोतः विभु प्रजासु। यह विभु, बहिरात्मा संसारमें ओत प्रोत हो रहा है।
अर्थात्-संसार रूप ही होरहा है। जिस प्रकार पानी और दूध एकमेक हो रहे हैं, उसी प्रकार यह प्रात्मा ससार-मय हो रहा है।
इसी वहिरात्माको गीतामें क्षर तथा शुद्धात्माको "अक्षर" नामसे कहा गया है।
इसीको साम श्रङ्ग तथा शवल ब्राह्म भी कहते हैं।
उसी आत्माको निश्वयनयकी दृष्टि से, "एक. शिवं शान्त,सत्यं शिवं सुन्दरम्" श्रादि शब्दोंसे कहा जाता है। अभिप्राय यह है. कि इस ॐकार द्वारा धात्माके तीनों रूपोंका कथन किया जाता है, इस ॐ में तीन मानाएँ हैं।
'अ' से अजर, अमर, अभय. अजन्मा, अविकारी आदि शुद्धात्मा का ग्रहण होता है। अकार के उच्चारण में सम्पूर्ण मुख खुल आता है, यह इस बातका घोतक है कि, अकार वाच्य आत्मापूर्ण स्वतन्त्र अर्थात मुक्त है. अर्थात अस से मुक्त श्रात्मा का ग्रहण होला है. तथा उकार के उच्चारण में आधा मुख स्थुलता है। अतः