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{ २२५ ) 'यत्ते रूपं कल्याणसमं सत्त पश्यामि। कह कर उसके दिव्यरूपका प्रतिपादन किया है। अतिने जहाँ ईश्वर के लिये शरीर शब्दका प्रयोग किया है, वहाँ साथमें प्राण शब्द जोड़ दिया है । इस प्रकार ईश्वरको
'प्राणशरीर
(छान्दोग्योपनिषद् ) कहा गया है । जिसका आशय है. कि ईश्वर-विग्रह उपचारसे ही शरीर कहा जामकता है, साक्षात् नहीं, क्योंकि वह तो स्वयं प्राण-जीवन-चैतन्यमय है । ईश्वरविग्रहकी सत्ता के लिये बाखवायु की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं प्राणरूप है।
भौतिक शरीरके समान ईश्वर-विग्रहमें न बृद्धि है और न हास | उसका संवर्धन-संरक्षण उन रसादि शुक्रान्त धातुओं पर निर्भर नहीं है, जो यकृत-सीहादि यन्त्रोंमें चना करते हैं। .
भक्तोंकी भावनासे परिमादित पत्र-पुष्प-फल-जलको श्रीभगमान् अङ्गीकार करते हैं अवश्य, किन्तु वह नैवैद्य, भौतिक शरीरान्तर्गत द्रव्यके समान रुधिरादि धातुओंमें परिणत न होकर, मूमरूपसे उनके श्रीविग्रहमें ही क्लिीन रहता है। इसमें आश्चर्य क्यों होयुगान्तकालप्रतिसंहतात्मनो
__जगन्ति यस्यां सविकाशमासत । और उनके उदरेन्दीवरदलसम्पृक्त श्रीनाभिसे जगदुदयवेलामें वित्र्य सुगन्धमय पायकमलके रूपमें विकसित हो जाता है।
ईश्वरका आकार भी पुरुपविध ही है