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वे धर्म-निरय के साधन हैं। वैदिक लोगों के रीति-रिवाज तक वेदमूलक होने से प्रमाण है, ऐसा मीमांसक मानते हैं।
शचर, कुमारिल और शंकरकी प्रमाशीषति
शबरस्वामी व कुमारिल भट्ट ने जैमिनीय सूत्रों की विस्तार के साथ टीका की है। ऐतिहासिकोंका अनुमान है कि जैमिनीय सूत्र ई० पूर्व पहिली शताब्दी के लगभग बने होंगे। शबर स्वामी का काल चौथी और कुमारिल भट्ट का सातवीं शताब्दी माना जाता है।
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इन आचार्यों के मत से मनुष्य बुद्धि द्वारा अगम्य ऐसे कार्य-कारण भाव कहने के लिए वेद प्रवृत्त हुए हैं। उन्हें डर था कि यदि हम यह मान लेंगे कि मानव-बुद्धिगम्य तत्व ही वेद कहते हैं, तो वैदिक संस्थाका उन्मूलन हो जायगा । कुमारिलभट्ट कहते हैं। (तंत्र वार्तिक, २०१३) कि मनुष्य बुद्धि को एक बार भी वेद में स्थान दिया, तो नास्तिक विचारों का प्रावल्य होकर वैदिक मार्ग नष्ट होजायेगा। ऐसा न हो इसलिए वेदों का
यद्रष्ट ही मानना चाहिए. कुमारिल और शंकराचार्य के पहिले ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, श्रद्रष्ट इत्यादि धर्मकी मूलभूत कल्पनाओं को युक्ति से समर्थन करने वाले बहुत से आचार्य थे । परन्तु ये तत्व मानव-बुद्धि, गम्य नहीं है, इस बात को कुमारिल और शंकराचार्य ने ही बुद्धिवादके व्यापक और सूक्ष्म तत्वों के आधार से सिद्ध किया। उन्होंने इस मुद्दे पर बहुत अधिक
वैदिक देवताका वास्तविक स्वरूप |
विद्वान् वने वहां स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि प्रथम अवस्था में वैदिक देवता जडात्मक ही थे । श्राध्यात्मिक श्रादि रूप उनको बहुत काल के पश्चात प्राप्त हुआ | तथा उसके बाद ईश्वरकी कल्पना की गई ।