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न संत्रक बहुत बड़ी हानि होती है। इसे संघका प्रत्येक मनुष्य बड़ी महसूस करता है। और इसके कारण उसके हमेशा के लिये सम्पूर्ण नाशकी कल्पना असा होती है। स्त्रमें और एकान्त में उनके अस्तित्वका भास होता है. संघ पर किसी प्रकारका संकट आनेपर ऐसा मालूम होने लगता है कि उक्त मरे हुए बड़े, बूढ़ों की असन्तुष्ट वासना की बाधा है. तब उन पितरोंकी वासना तृप्त करने या पूजा करने की इच्छा पीछे रहने वाले लोगों को होती हैं । मृतके मरणोत्तर अस्तित्व की भावना की उपपत्ति पहले मूर्तिपुरुषबाद (animism ) शीर्षक के नीचे बतलाई जा चुकी है। जड़देह में देहकी अपेक्षा निराला देह सरीखा वेतन पुरुष अथवा चेतन द्रव्य हैं. और वह मृत्युके अनन्तर भी रहता है, इस कल्पनाक आधारसे भूत-पूजा अथवा पितृ पूजा अस्तित्वमें आती हैं. इस कल्पना में भूत-प्रेत, पिशान, बेताल आदिकी कल्पनाएँ अभूत हैं देवता और पुर्नजन्मकी कल्पना भी इसी मूर्त पुरुषचादसे उत्पन्न हुई हैं। पहाड़, नदी वृक्ष भूमि क्षेत्रको पेट्रोम अलौकिक प्रासारयकी पदवी पर पहुंचाया गया। समाज संस्थाका प्राण उसके नियमों रीति-रिवाजों, आचारों, कर्मकरडा और विचार - पद्धति की स्थिरता पर ही अवलम्बित था । उनकी पूर्णता और बाध्यता स्थापित करनेके लिये आर्याने उन्हें वेदमूलक ठहराया और वेदोंको अनादि-नित्यत्व और स्वतः प्रामारय अर्पण किया।
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जैमिनीने पूर्व-मीमांसाके प्रारम्भ में धर्म-प्रमाणका निर किया है। उन्होंने पहले कहा कि प्रत्यक्ष और अनुमानसे प्रमाण नहीं है. फिर कहा कि वेद-रूप उपदेश ही धर्मका स्वत सिद्ध इतर निरपेक्ष प्रमाण हैं, और त्रह्म सूत्रकार वादराय का भी यही मत है। स्मृतियों तक वेदानुवादक हैं. और इसलिये