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जीवकी चेतना भिन्न २ मानी जायगी तो ब्रह्म और जीव मैत्र २ ठहरे। इस प्रकार ज.व की चेतनाको ब्रह्मको मारना भ्रम है ।
शरीर मायाका स्वरूप है इसका खण्डन
शरीरादिको यदि मायाका कहा जाता है तो माया हो हाइ मसादिक रूप होती है या माया निमित्तसे और कोई हा मांस रूप होता है ? अगर माया हो हा मांसरूप होती है तो मया व गंधादिक पहले से हो थे या नवीन हुए ? यदे पहले से ही थे तो पहले तो माय की थी और ब्रह्म अमूर्ति है कि कैसे संभव हो सकते है ? अगर नवीन गुप
तो
भाव
नहीं रहा । अगर कहा जायगा कि मायके निमित्तसे और कोई ही मांसादि रूप होता है तो माया के सिवाय और कोई पदाथ तो
यदियों
के यहाँ है हो नहीं तब होगा कौन ? अगर यह कहा जायगा कि नाश हुए है तो माय से भिन्न पैदा हुए हैं या भन्न पैदा हुए है? यदि भिन्न पैदा हुए तो शारीरिक मायामयी कैसे हुए? वे तो उन नवोन उत्पन्न पदमय हुए । यदि अभिन पैदा हुए तो माया हो तर हुई। नवीन पत्र का उत्पन्न होना क्यों कहो हो ? इस तरह शरारादिकको मायाका स्वरूप कहना भ्रम हैं ।
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प्रतिवादी फिर कहता है कि-- मायासे तीन गुण पैदा होते हैं राजस नाम और सात्विक परन्तु यह मां का कहना ठीक नहीं है क्योंकि मानादि कपान रूप भावको राजस कहते हैं, कोधादि ऋष रूप भावकी तामस कहते हैं मंद कपय रूप भाव को साविक कहते हैं. यह भाव प्रत्यक्ष चेतनामयी है और मायाका स्वरूप जड़ कहा जाता है सो जइसे चेतनामया भाव कैसे पैदा हो