________________
:
( १७३ )
ततोऽसौ प्राहरद्वत्रं घोररूपं शचीपतिः । तस्य प्रहरतो चाहुं स्तम्भयामास भार्गवः ॥ १७ ॥ म० भा० बन १२४
इन्द्र बोले- यह दोनों अश्विनीकुमार स्वर्ग में देवताओंकी दवा करते है, इसलिये इनको सेमवाल करना उचित नहीं है। च्यवन ऋषि बोले - हे इन्द्र ! यह दोनों अश्विनीकुमार बड़े महात्मा, बड़े उत्साही, रूप और धनसे युक्त हैं. इन्होंने मुके देवताओंके समान वृद्धावस्था रहित तरुण बनाया है। हे इन्द्र ! तुम और सब देवता यज्ञ भाग पावें, पर ये क्यों न पावें ? यह भी देवता हैं ? इन्द्र बोले- हे च्यवन ऋषि ! यह दोनों चिकित्सा करने वाले मनुष्य लोक में घूमने वाले हैं, तब किस रीति से साम के योग्य हैं ? लोमश मुनि बोले- ज्यों ही इस वचनको इन्द्र दूसरी बार कहना चाहते थे, त्यों ही भृगपुत्र स्यंवनने इन्द्रका अनादर करके अश्विनीकुमारोंको साम प्रदान किया । तब इन्द्र ने कहाइनके लिये तुम सेम दोगे तो मैं तुम्हारे ऊपर घोर व मारूँगा ऐसा कहने पर भी इन्द्रकी तरफ देखके कुछ हँसकर व्यवनने अश्विनीकुमारोंकोसोम दिया। तब इन्द्रने च्यवन ऋषि पर व चलाया. उस समय च्यवनने इन्द्र के हाथको स्तंभित किया ।"
यह कथा देखनेसे स्पष्ट होता है कि इन्द्रादि देव स्वयं भारतवर्षमें आते थे, यज्ञमें स्वयं उपस्थित होते थे. अपनी मानमान्यता में अथवा अपने श्रादरमें न्यूनाधिक होने पर परस्पर लड़ते भी थे। और पश्चात् अपने लिये प्राप्त होने योग्य अन्नभाग साथ लेकर चले जाते थे । श्रर्थात् जिस प्रकार हम मनुष्योंका व्यवहार होता है वैसा ही उनका व्यवहार उस प्राचीन कालमें होता था ।
अश्विनीकुमार वैद्य होने से वे हर एक रोगी के घर में जाते थे