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स्पष्टतासे यता रहे हैं कि यही गंगानदी देवोंक राष्ट्रसे बहती हुई यहाँ श्रागई है । यह प्रारम्भमेंदयोंकी नदी थी, भारतवर्ष में आकर यही नदी भााँको सुख देने लगी है । यह गंगानदी वाचक शब्द भी तिब्बत देवांका लोक है यही भाव व्यक्त कर रहे हैं। नदी वाचक शब्द स्थानका निर्देश स्पष्टरांतिसे करते हैं इसलिये देवाके राष्ट्रका निश्चय करने के लिये ये शब्द बड़े सहायक हो सकते हैं।
देवों का अन्न भाग। .. अस्तु, इस प्रकार देवनामक मानवजाति। त्रिविष्ट्रप) लिव्धत में रहती थी. अपने अन्नके लिये भारतीय लोगों पर निर्भर रहती थी। भारतीय आर्य लोग यज्ञ याग करते थे और इन्द्रादि देवता के नामसे अन्नकी मुष्टियाँ अथवा अधिक भाग अलग रखते थे, जैसे अाजकल मुष्टिकंड होते हैं। देवोंके लिये अन्न भाग अलग रखनेके बिना वे आर्य लोग किसी भी अन्न का सेवन नहीं करते थे। इस प्रकार देवोंके लिये श्रावश्यक अन्नभाग भारतसे मिलता था । देवोंको अनभाग पहुंचानेकी व्यवस्था सब छोटे और बड़े यागोंमें यागके प्रमाणसे तथा यजमानके धनके अनुसार होती थी।
यज्ञ का पारितोषिक । इस प्रकार यज्ञके द्वारा देवोंको अनभाग देने के कारण देव भारतीय आर्योकी रक्षा करते थे, यह तो स्पष्ट ही है परन्तु इसके अतिरिक्त भी यज्ञकर्ताओं को एक बड़ा भारी पारनोषिक मिलता था, वह "स्वर्गवास" के नाभसे प्रसिद्ध है, आज कल · स्वर्गवास" का अर्थ विपरीत ही हुआ है, स्वर्गवास, कैलाशवास, बैकुंठवास आदि शब्द आजकल मरणोत्तरकी स्थिति दर्शाने वाले शब्द समझ जाते हैं, परन्तु जिस समय देवजाति जीवित थी. और