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इस कारण इनको यज्ञ भाग लेनेमें अयोग्य माना गया था, परन्तु च्यवन ऋषिके प्रयत्नसे उनको अन्न भाग मिलने लगा। इससे स्पष्ट होता है कि कई देवोंका यज्ञमें अधिकार कम, कइयोंका अधिक और कइयोंका बिल्कुल नहीं था।
यह भाग, हविर्भाग, अन्नभाग, इसका तात्पर्य इतना ही नहीं है कि वहाँ यज्ञके सबर की सामाका भारुण करना, परन्तु उसका तात्पर्य इतना है कि धान्यादि पदार्थोका भाग भी यहाँसे ले जाना। क्योंकि इन यक्षोंमें जो धान्यादि उनको प्राप्त होता था. उससे देवोंका गुजारा साल भर चलता था। यदि वहाँ ही पेट भर अन्न उनको मिला, तो उससे उनका गुजारा संभवतः केवल एक दिनके लिये ही होगा, इससे उनका कुछ बनता नहीं।
देवता लोग यज्ञसे जीवित रहने वाले थे इसका तात्पर्य इतने विचारसे पाठकोंके मनमें ठीक प्रकार श्रा सकता है और निम्न लोकका भी आशय स्पष्ट होजाता है।
देवान्भाचयताऽनेन ते देवा भावयन्तुवः । . . परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।
भ. गीता० ३ | ११ "तुम इस यज्ञमें देवताओंको संतुष्ट करते रहो. और वे देवता तुम्हें संतुष्ट करते रहें। इस प्रकार एक दूसरेको संतुष्ट करते हुए दोनों परमश्रेय अर्थात् कल्याण प्राप्त करलो।"
अर्थान इस यन्त्र द्वारा देवोंकी सहायता आर्योको और पार्यो की देवोंको प्राप्त होती है और परस्पर सहायताके कारण दोनोंका कल्याण हो सकता है । यह यज्ञ इस प्रकार दोनोंको संतुष्टि बढ़ाने वाला होता था । यह सब बातें विचारकी दृष्टिसे देखनी चाहिये. क्योंकि यह बात इतने प्राचीन कालकी है कि जो समय महाभारत