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पंक्ति में बैठने नहीं दिया । पश्चात माध्यंदिन सवरमें ग्यारह रुद्रोंने उनको अपनी पंक्ति में बैंठने नहीं दिया. इसी तरह प्रजापति
मामुओंगे शादियोंकी नाटिल ने वता, तृतीय सवन में किया. पर सभी देवांने उनको अपनी पंक्तिमें बिठलानेसे इन्कार किया। (नेह पास्यन्ति नेहेति ) यह ऋभु यहाँ बैठ कर सोमपान नहीं करेगे. कदापि यह बात नहीं होगी, एसा सब देवों ने कहा। तब प्रजापति सयिताके पास गया और उन्होंने उससे कहा कि हे सविता। ये तेरे साथ रहने वाले और अकछे कार्य करने वाले हैं, अत: तू अपने साथ इंनको बिठला कर सोमपान करो और इनको करने दो। सविताने कहा कि इन आभुओंमें (मनुष्य मान्धात् ) मनुष्योंकी व भा रही है. इस लिये यह देवों में कैसे बैठ सकते हैं ? पर यदि हे प्रजापते ! तुम स्वयं इनके साथ बैठ कर सोमपान करोगे. तो में भी ऐसा करूंगा । और एक बार यह प्रथा चल पड़ी तो चलती रहेगी। प्रजापतिने केला ही किया, तब से ऋगु देवत्वको प्राप्त हुए । __ यह कथा ऐतरेय ब्राह्मण में है। इस में यदि कुछ अलंकार होगा, तो उसका अन्वेषण करना चाहिये । ऋ १ । ११० १४ में कहा है
विष्टवी शमी तरणित्वेन बाधतो मासः सन्तो अमृतत्व पानशुः सौधन्वना ऋभवः मूरचदसः संवत्सरे समपच्यन्त धीतिभिः ॥
'शान्ति पूर्वक शीघ्र कार्य करनेमें कुशल और ज्ञानी से ये ऋभु, प्रथम मयं होने पर भी देवत्वको प्राप्त हुये। ये सुधन्वाके पुत्र मूर्यके समान तेजस्वी ऋभुदेव सांवत्सरिक यज्ञमें अपनी कर्म कुशलताके कारण संमिलित हो गये।