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श्रह तबादके विषयमें जैनियोंका उत्तरपक्ष
अजाप्यन्ये बदन्त्येच, मविद्या नसतः पृथक सञ्च तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ।।
(शा. वा० स० स्तवक ८४) अर्थ-अद्वैतपक्षके विषयों वेदान्ती ऐसा कहते हैं कि अविना ब्रह्मसे अलग नहीं है। ब्रह्मसे अविद्या अलग मानने पर अद्वैत सिद्धान्त नहीं टिक सकता । सत् यह ब्रह्ममात्र है अर्थात् ब्रह्म की ही सत्ता है। अविद्याकी पृथक सत्ता नहीं है। यदि ऐसी बात है तो घट, पट. स्त्री, पुरुष, पिता, पुत्र, मेठ,नौकर पसि. पत्नी, इत्यादि जो भेदका आभास होता है उसका क्या कारण है ? कारणके बिना कार्य नहीं जान सकता।
संचाथाऽभेदरूपापि भेदाभासनिबन्धनम् प्रमाखमन्तरेणत-दवगन्तुं न शक्यते ॥
(शा० वा० स०८।५) अर्थ-पूर्वपक्षी कहता है कि ब्रह्मके साथ अपने भाषको प्राप्त हुई बही विद्या भेदाभावका कारण होगी। उतरपक्षी कहता है कि अविद्या तभी कारण बन सकती है. जब वह स्वयं प्रमाणसे सिद्ध होजाय । अविद्या प्रमेय है और प्रमेय प्रमाणके बिना नहीं जाना जा सकता।
भावेऽपि च प्रमाणस्य, प्रमेयव्यतिरेकतः ननु नाद्वैतमेवेति, तदभावेऽप्रमाणकम् ॥
(शा० वा० स०.८।६) अर्थ-अविद्या का निश्चय करने वाला प्रमाण कदाचिन्