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(१६६ ) स्वीकार कर लिया जाय किन्तु जब तक प्रमाणमे प्रमयकी सत्ता का स्वीकार न किया जाय तब तक कार्य कारण भावका निर्वाह नहीं हो सकता । वेदान्ती कहते हैं कि हम ऐसा नहीं कहते हैं कि केवल अद्वैत ही है। यों तो प्रमाण और प्रमेय दोनाकी व्यवस्था की हुई है। यदि प्रमाणको भी स्वीकार न करें तो अद्वैततत्व भी अप्रमाण होजायगा। उत्तर पक्षी कहना है कि एक और हूँत और दूसरी ओर अद्वैत इस प्रकारके परस्पर विरोधी कथन जन्मत्तके विना अन्य कौन स्वीकार कर सकता है ?
विद्याविद्यादिभेदाच्च, स्वतन्त्रेणैव वाध्यते । तन्संशयादियोगाच, प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ।।
(शाचा स०८।७) अर्थ--विद्यां चा विद्या च. अस्तदंदोमयं सहाविद्य या मान्य तीत्वा विद्यायाऽमृतमन्धुते यह एक श्रुति है। इसमें विद्या और अविद्याका भेद स्पष्ट बताया हुआ है। विद्याका फल अमन प्राप्ति और अविधाका फल मृत्युतरण है। कार्यभेदसे कार में भी भेद होता है । इसलिये उक्त अतिसे स्वतन्त्ररूपसे अद्वततत्वका निरास होजाता है . दूसरी बात यह है कि "तत्त्वमसि' इत्यादि श्रति अद्वैत छोधक है तु ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं च" परं चापर च ब्रह्म पदोङ्करः" इत्यादि अति सच्ची है या दूसरी ? इस प्रकार भागमप्रमाणसे बाधा और संशय उत्पन्न होनेका संभव होनेसे अद्वैतवाद दूषित ठहरता है। तीसरी बात है प्रत्यक्ष प्रतीतिकी । घट, पट आदि भिन्न भिन्न वस्तुएँ प्रत्यक्षसे दिखाई देती है। घटपटादि भेद की प्रत्यक्ष प्रतीति होती है वह भी अद्वैततत्व ग्बएउन करती है। वेदान्तियोंका इष्टि सृष्टिबाद भी बौद्धाले शून्यबादके बराबर है। कहा भी है कि