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आदि साधनांकी आवश्यकता नहीं दी। योगाभ्यास आदि साधनका बन्धकी निवृत्तिके लिये उपदेश किया है वे सब निष्फल होजायेंगे । इसलिये बन्धश्रसत नहीं माना जा
सकता ।
वस्तुत्वे सिद्धान्त हानिः ( ० ० १ । २१ ) भावार्थ – सांख्यकार कहते हैं कि यदि विद्याको वस्तुरूप अर्थात् सद्रूप मानोगे तो तुम्हारे सिद्धान्तको हानि पहुंचेगी। क्योंकि तुम विद्याको मिल्या मानते हो, तो यह सिद्धान्त बदल
जायगा ।
'विजातीय द्वेतापत्तिश्व' (सा० द० १ | २२ )
भावार्थ - योगाचार बौद्ध सजातीय क्षणिक विज्ञानकी अनेक aक्तियाँ तो मानते ही हैं इसलिये सजातीय छैन उनके लिए अापत्तिरूप नहीं होसकता किन्तु विजातीय द्वैत तो उनके लिये आपत्तिरूप होगा | अविद्या ज्ञानरूप नहीं है किन्तु वासनारूप है और वासना विज्ञान से विजातीय है। अविद्याको सत मानने पर विज्ञान और श्रविद्या यह दो पदार्थ सिद्ध होने पर विजातीय द्वैतता प्राप्त होगी । वेदान्तियोंके लिये द्वैतना मानना दोषापत्तिरूप है।
'चिरुको भयरूपा चेत्' ( सां० ० १ | २३ )
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भावार्थ - सांख्य कहते हैं कि अविद्याको सन् या असन् मानने में दोषापत्ति प्राप्त होनेसे विरुद्ध उभयरूप मान लो अर्थात सन् असत् सदसत् और ससदससे विलक्षण ये चार कोटियाँ हैं। इनमें से पहिली दो सन् और असत्का तो निषेध हो चुका। तीसरी सम असत् रूप कोटि परस्पर विरोधी हैं । सत् से विरुद्ध असन और सतसे विरुद्ध सत यह तीसरी कोटि तो परस्पर विरुद्ध होनेसे नहीं मानी जा सकती। तब विलक्षण सदसद्रूप कोटि मानोगे तो उसका उत्तर नीचे दिया जाता है।