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की अपेक्षा है. लेकिन यह पत्र पदाध का कोई एक जत नहीं. कोई चेतन" कोई अचनन है इत्यादि अनेक कप है उनको एक जाति कसे कह सको? जानि जपेक्षा कर पाना कल्पना मात्र है यह पहले कहा ही है। पहले एक था पीछे भिन्न दानो से एक पत्र अादि फूट कर टुकड़े टुकड़े होजाता है यसे ही ब्रह्म खण्ड खण्ड होगया। जब वे एक हुए तो उनका स्थलप भिन्न भिन्न रहा या एक होगया । यदि भिन्न भिन्न रहा तो अपने अपने स्वापसे मंय भिन्नं ही कहलाये। यदि एक होगया है नो जड़ भी चेतन हो जायगा और चेतन जड़ होजायगा और इस नरह यदि अनेक वस्तु की एक वस्तु हुई तो कभी एक वस्तु अनेक यस्तु कहना ह गा। फिर अनादि अनन्त एक ब्रा है. यह नहीं कहा जा सकता । गदि यह कहा जायगा कि लोकरचना हो या न हो ब्रह्म जैसेका तैसा रहता है इसलिये वह अनादि अनन्त है प्रश्न यह होता है कि लोको पात्री जलादिक वस्तु पालग नवीन उत्पन्न हुई हैं या ब्रह्म ही इन स्वरूप
श्रा है । अगर अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं तो यह अलग हुश्रा ब्रह्म अलग रहा सर्वव्यापी अद्वन ब्रह्म न कहलाया । अगर ब्रह्म ही इन स्वरूप हुश्रा तो कभी लोक हुश्रा कभी ब्रह्म हुआ जैसे का तैसा कहाँ रहा ? अगर ऐसी मान्यता है कि सारा ब्राझ, लोक स्वाप नहीं होता उसका कोई अंश होता है जैसे समुद्र का विन्दु विषरूप होने पर भले ही स्थूल दृष्टिसे उमका अन्यथापना न जाना जाय लेकिन सूक्ष्म दृष्टिसे एक विन्दुकी अपेक्षा समुद्र में अन्यधारना श्राजाता है वसे ही ब्रह्माका एक अंश भिन्न होकर जब लोकरूप हुआ तब स्थूल विचारसे उसका अन्यथापन भले ही न जाना जाय परन्तु सूक्ष्म विबारसे एक अंशकी अपेक्षा जसमें अन्ययापन हुधा ही क्योंकि वह अन्यथापन और तो