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( अ )
इस विषय में पड़ी मत था कि वेदोंमें अध्यात्म विद्या नहींके बराबर हैं। जा है वह याज्ञिक आडम्बर अथवा देवताओंकी लंकारिक स्तुति से तिरोभूत होकर प्रभाव हीन और निःसार सी दीव पड़ती है ।
तथा च जो विद्वान प्रत्येक मन्त्रका श्राध्यात्मिक अर्थ करते हैं ये लोग निरु आदि सम्पूर्ण शास्त्रोंके विरुद्ध अपनी एक नई नीति का प्रचार करना चाहते हैं, उनकी विरास की होना पड़ हैं । सारांश यह है कि आध्यात्मिक मन्त्रों में भी. आत्मा (जीवात्मा) का वर्णन है, वर्तमान कल्पित ईश्वर का नहीं |
क्योंकि निरुक्तकारने स्पष्ट घोषणा की है कि अध्यात्म प्रतिपादक मन्त्र अत्यल्प हैं । यदि प्रत्येक मन्त्र के अर्थ अनेक प्रकारके होते तो निरुक्तकार को ऐसा लिखनेकी कुछ भी आवश्यक्ता न थी । तथा च स्वयं आर्य समाजके प्रख्यात विद्वान महामहोपाध्याय प शार्य मुनिजी अपनी पुस्तक वैदिक काल का इतिहास" में लिखते हैं कि जो लोग केवल आध्यात्मिक अर्थ करके वेदोंको दृषिर करते हैं"
यहाँ विवश होकर पं० जी ने बढ़ों में इतिहास भी समान लिया है। जिसका वर्णन हम यथा प्रकरण करेंगे। यहाँ तो यह दिखाना है कि स्वयं आर्यसमाज के ही सर्व मान्य विद्वान भी वेदोंके प्रत्येक मन्त्र के आध्यात्मिक अर्थ करनेको वेदोंको दूषित करना मानते हैं। इसी बात की पुष्टि ऐतरेयालोचन' में श्रीमान पं सत्यव्रत सामाश्रमीजीने की हैं. आप लिखते हैं कि
" अथापि तान्याध्यात्मादीनि नामतस् त्रिविधानि वस्तुतः पंचविधानि व्याख्यानानि नहि सर्वेषां मन्त्राणामुपपद्यते "