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विष्णु के त्रिपद, त्रि अग्निरूप यक्ष-रक्षक, विगु-विष्णु के यज्ञरूप व विष्णु के सामशरीर रूप के वर्णन मिलते हैं। अथर्ववेद में भी विष्णु को संसार रक्षक व यन्त्ररक्षक कह कर उनकी स्तुतियाँ की गई, और उनमें स्थापित गुणों के कारण उन्हें कुचर. गिरिष्ठ. त्रिविकम, गोपा. महोत. मिमिति पनि सजाय से भी वर्णित किया गया और इन उपाधियों के महत्व पूर्ण अर्थों के अनुकूल विष्णु का मान उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया | परम पूज्य अग्नि के सम्बन्ध में उनके द्वार बनों के भस्म होने के भी उल्लेख हैं तो भी अग्नि के सम्मान में कोई अन्तर नहीं पाया जाता । इससे विदित होता है कि प्राकृतिक रहस्य का यथाथ अनुभव उपासकोंका ध्येय था । वे प्राकृतिक शक्तियों में होने वाली बुराइयों से बचने के लिये भी उन शक्तियों की स्तुने किया करते
. और चाहत | कि उनक कोप द्वारा उनका कोई अहित न हो। इसी भाव से रुद्र की स्तुतियों की जाती थीं. अनाप रुद्र की प्रारम्भिक स्तुतियों में उनसे होने वाली क्षतियों का ही विवरण है। ऋग्वेद में उनके कोष से वनपान होने और जीव-जन्तुमा के नाश का वर्णन हैं। उनका न'म ऋहन भी दिया गया है और उनका साथ मातों में भी कथित है। अथर्व वेद व बजुर्वेद में उनके शरीर का जो रूप रंग कहा गया है. वह भी विचित्र है. अथर्थ वेद में उनका पेट नीला पीठ लाल और प्रीव नीला कहा गया है। और यजुर्वेद में शरीर का रंग ताम्र वर्ण बता कर नील ग्रीव व शिचितकण्ठ नाम दिए गये हैं । अनेक अनुपम औषधियां से भी उनका सम्बन्ध कहा गया है और उनमें जलाप एक विशेष
औषधि है । रुद्र के से भयकारी होने पर भी उपासकों में कद्र के प्रति अक्की धारणा भाड़ होती गई और धीरे-धीरे रुद्र शिव नाम से विख्यात होने लगे । सम्भन है, कि वर्षा के समाप्त हो