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के साथ वीणा-स्वर-संयुक्त मंगीत में विनोद करते हैं। पीछे विश्व, सप्तधामों में विभाजित जाना गया । पृथ्वी के इतर लोक स्वर्ग का विवरण भी उनके मंत्रों में पाया जाता हैं और वह देवताओं तथा पितरों का निवास स्थान कहा गया है। मरने पर वह स्वर्ग उन्हीं को प्राप्य बतलाया गया है जो कठिन तप करते हैं, जो धर्मात्मा हैं. जो युद्ध स्थल में अपनी जान की चिन्ता नहीं करते है योर जो याज्ञिक क्रियाएँ और दान करते हैं । स्वर्ग तीसरा लोक हैं. विष्णु का परमोन पद है, पितरों व यम के रहने का स्थान है
और नित्य प्रकाश-समन्वित हैं । वहाँ पहुंचने पर कोई भी मनोरंथ शेष नहीं रह जाता, जराबर या दूर हो जाती है, दिव्य देहः की प्राप्ती होतीह, माता-पिता-पुत्र-त्री श्रादि स्वजनों से संयोग होता है, शरीर की कुरूपता जाती रहती है. और रोगादि पलायमान हो जाते हैं । यहाँ के प्रकाश का अन्त नहीं होता, जलस्रोत निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं, श्रानन्द की कमी नहीं होती, पृथ्वी के सर्वोत्तम सुखों से भी सैंकड़ों गुणा श्रेष्ठ सुख यहाँ प्राप्त होता है, घी-मधु-दूध-मुरा का वहाँ प्राचुर्य है, काम दुग्धा गाएँ सहज लभ्य है और धनी दरिद्र का कोई भी अन्तर नहीं है । धर्मात्माओं के लिये स्वर्ग की कल्पना कर लेने पर नरक या दण्ड के स्थान की कल्पना स्वाभाविक ही थी और अवेस्ता के सदृश श्रव वेद में स्वर्ग लोक के प्रति कूल 'नरकलोक' का चित्रण मिलता है । यह घोर अन्धकारमय कष्ट अद स्थान. हत्यारों के लिये है, पापी-पाखंडी-मूठे उसी को प्राप्त होते हैं और इन्द्र-सोम द्वारा बुरे कर्म करने वाले जसी स्थान को भेजे जाते हैं। .
प्रथिवी स्वर्ग और नरकके उपर्युक्त विधारोके रहते भी संहिता में मुष्टि -परक स्पष्ट वितरणा नहीं मिलने। इस सम्बन्ध के जो