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( ११४ ) कुछ वर्णन रूपकों में कथित हैं, उनके शास्टिक मलिक अभिप्राय निकालना आज कठिन है । मंत्र में माता पिता द्वारा मृजन के सदृश उल्लेख हैं और जिन देवताओं से विश्व का धारण किया जाना चागत है उनकी भी उत्पत्ति के संकेत दिये गए हैं । इन्द्र, त्वष्टा. वरुण, विष्णु. अग्नि, मरुन श्रादि देवता विश्व को धारण करने वाले कहे गये हैं। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में मृष्टि रहस्य पर प्रकाश डाला गया है. पर वह भी अलंकारिक वर्णन है उसमें कथित विराट पुरुषही सृटि-कता प्रजापति स्वीकृत हैं और नक्षत्र-पृथिवी-वायु आदि तत्य उसी से उत्पन्न कहे. गये हैं। उस सूत के अतिरिक्त अन्य सूक्तों में भी हिरण्य गर्भ प्रजापति उत्तानपाद आदि के सम्बन्ध में जो बिखरी राएँ हैं, उनमें सृष्टि-विषयक अस्कुद बान हैं जिनको श्राधार बना कर ब्राह्मण काल में पृथिवी के बनने के सम्बन्ध में बराह. कच्छप श्रादि के श्राख्यान उपन्यस्त किये गए.
विश्व वाद तथा प्रकृति-रहस्य पर निरन्तर विचार करते गहने के कारण आर्य ऋषियों में दार्शनिक विचारों पर जैसा विकास हुमा उसका क्रम भी उन्हीं स्तुतियों से स्थूलतः स्थिर किया जा सकता है। अनुभव व ज्ञान के लिए किये गए प्रश्न व शवदाह के अवसर पर उत्पन्न विचारों से प्राचीनत्तम काल के पार्यों में दार्शनिक मनन का प्रारम्भ हुश्रा । श्रेष्ठ वर्गण से इन्द्र के पाम पहुंचे हुये आर्य-अदय में तब शक्ति शाली इन्द्र पर भी संदेह होने लगा, लोग कहने लगे
कह सेति नषो अस्ती त्येनम् । * जिस पर इन्द्र के प्रति श्रद्धा व विश्वास की मांग की गई
ॐ ऋग्वेद० २ । १२ । ५ ॥ घोर मलेमाहुनेंघो अस्तीत्येनम् । यहाँ चन्द्रको घोर भयानक भी कहा है।