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( ११५ ) और स्वयं इन्द्रका भी प्रत्यक्ष होकर विश्वसाधारगाको प्रकट करना पड़ा । परन्तु वह ज्ञान लिप्सा शान्त नहीं हुई ज्ञानेच्छु तत्वदर्शी इन्द्रसे सर्वपति हिरण्यगर्भ प्रजापतिको पहुंचे. वह प्रजापति बृहस्पति व ब्रह्मणस्पतिके नामसे मी सम्बोधित किया गया। उस दशामें अनेकवताओं में क नाहमा महादेव विधी जान बहुदेवत्यकी धारणाका उनने त्याग किया, वे निमन्तह कहने लगे___ "यो देवेश्वधिदेच एक आसीत्कस्म देवाय हविषा विधेम ।" .
कुछ और मनन के उपरान्त उनको अनुभव और आगे बढ़ा व व्यक करने लगे----
"तम आसीत्तमसा गृहमग्रेऽप्रकेत सलिलं सर्वमा इदं । तुच्छ ये नावपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं ।"
वह पक चैतन्य था और उसके मनसे काम उत्पन्न हुआ. काममें अनेक इच्छा उत्पन्न हुई और तबध्यान द्वारा ऋपियों ने ठयक्ताव्यक सम्बन्धका आविष्कार किया, पर , बराबर अपनी खाज सशंक बढ़ते रहे और वे सोचने जात___यो यस्याध्यतः परमे व्योगमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ।'
यह शंका श्राने वाली युगाम उनके वंशजोंक हायमें बनी रही और इसकी व्याख्याने भारतीय दर्शनको धारणा निमपित होती रही। इसी सिलसिलमें कुछ ऐसे विचार भी उद्गीत छाप जिनका अभिप्राय पीछे साफ र विदित नहीं होनेके कारण उन पर कल्पनाएँ कार श्राख्यान रचनेका यत्न विद्वानों ने किया।