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जाने पर पृथ्वी की सुहावनी हरियाली द्वाराह में आनन्द शान्ति पैदा होने के भाव से प्रकृति के उपासकों ने द्र को शिव कह हो और संहिता काल के बाद शिव के क्षेत्रकों में सर्पों की कल्पना भी वर्षा वर्णन के विचार से हो को गई हो। जो कुछ हो. शिव की धारणा उत्पन्न होने पर समाज में रुद्र का भी आदर बढ़ने का अवसर उपस्थित हुआ। ।
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संहितायों में मित्र अदितिपुत्र आदित्य सूर्य, सचिव पूषण विवस्वन्त धौ पुत्र, अश्विन रा. वात, सोम, चन्द्रमा, त्रितअस्य अप-नपात, एकपाद, मातृश्वन, वृहस्पति और प्रवी नामां से भी स्तुतियों की गई हैं पर उनमें भी दिन च कल्याण के भाव ही प्रधान हैं और उनकी स्तुतियाँ प्रालंकारिक भाषामें उनके प्राकृतिक गुण के उल्लेख में की गई हैं। विराट विश्वमें जिसकी असो शक्ति मानव कल्याणके हितार्थ कार्य कर रही हैं उसके वैसे वर्णन की प्रार्थनाओं में विद्यमान मिलती हैं। और उन कार्यों से जीवनको लम्बा व सुखद बनानेकी इच्छा व्यक्त की जाती हैं। पृथ्व-लोक-नक्षत्र - लोक विष्णुके पत्रय कहकर उनमें स्तुत्य देवता के निवास स्थान माने गये हैं. जिस विचार से वैदिक ऋषियोंके प्राकृतिक देवताओंका विभाग विवेचकों द्वारा तीन श्रयामें किया जाता है और यह भी निfare है कि स्तुतियोंने परम्परागत चर्मचक्षुष्ट और दिव्य दृष्टिज्ञात तीन प्रकारके देवता थे जिस पर यास्क ऋषिने कहा है-
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'तात्रिविधा ऋवाः परोक्षकृताः प्रत्यक्ष-कृता श्रध्यासिक्याथ
परन्तु यह भेद आज समझाने के लिये ही है. उपासकोंकी दृष्टि देव भिन्न थे. सभी एक शक्तिकी सांस लेने अनुभव थे