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अंग-प्रत्यंग स्वरूप हैं । उस परम देवता की सत्ता में ही इनकी सत्ता है. उस महा सत्ता के अतिरिक्त देवता की स्वतन्त्र ससा नहीं। “यो देवानामधि देव एकः (१ ।१०६15)'। इसीलिये निरुक्तकार यास्क ने..-देवताओं का एक ही परमात्मा के अंगप्रत्यंग रूप से स्पष्ट निर्देश किया है। प्राथवेव ने स्पष्ट कहा है कि एक ही वस्तु. अवस्था-भेद से भिन्न २ नाम प्रहण करती रहती है। . स 'वरुण सायमग्निर्भवति म मित्रो भवति प्रात रुगन् । स 'सविता' भृत्वा अन्तरिक्षण यानि स 'इन्द्रो' भूत्वा तपति पध्यत्तो दिवम् ॥१३५३।१३। श्री० पाण्डेय रामावतार शर्मा, के विचार
. देवता प्रकरण "अनि मोने" युग में उपासक अपने मुल्य देवता से स्वर्ग या मोक्ष की मांग करते नहीं मिलते. उनका जीवन ही उनके लिये अमृनत्य था, अतः वे जीवन को ही सुखी व चिरायु बनाना चाहते थे। कोई भी ऋचा बेद की ऐसी नहीं जिससे इस सम्बन्ध की आधुनिक टि का समर्थन किया जा सके। उनके तत्कालीन उत्साह पूर्ण आनन्दमय जीवन की तीन लालसा थी जिनका मंकेत अग्नि की स्तुतियों में किया गया है वे ही लालसा अन्य देवताओं की स्तुतियों में भी प्रधानता रखनी हैं। उनके अनुकूल अनि के विशेषण तीन श्रेणियों में रक्वे जा मत है। १.-ली श्रेणी में-पुरोहित
-री श्रेणी में--यज्ञस्य देव ऋत्विज होतार ३.री श्रेणी में रत्नधातम.