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पहली श्रेणी के विशेषरण 'पुरोहितम् में हितैषिता का भाव है और अभि को पुरोहितम् कह कर कल्याणकारी कामों में प्रसर रहने की जो कल्पना की गई है उसकी विद्यमानता सभी स्तुतियों में मिलती है। अभि-वरुण इन्द्र विष्णु-रुद्र आदि की स्तुति इसी कारण की जाती थी कि उससे उनके उपासक कल्याण होने की दृढ़ आशा रखते थे। इसके उदाहरण स्तुति प्रधान ऋवेद में संग्रहित ऋचाओं में भरे पड़े हैं। ऐसे ही विश्वास में श्रम को गृहपति व पति नाम दिये गये और पुरोहित उपाधि देने का कारण भी स्पष्ट किया गया---त्वमग्ने गृहपतिस्त्वं होता नो अध्वरे । त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि वेषि च वायें ।" इन्द्र की कृपा भी इसी विश्वास में चाही गई— 'एवा न इन्द्रं वार्यस्य पूर्वगते महीं सुमतिं वेषिदाम ।" जिस प्रकार निर्भयता से श्रमि कहा गया— यदग्ने मर्त्यस्त्वं स्या महं मित्रमहो अमर्त्यः" "न मे स्तोता मत्तीवा न दुर्हितः स्यादग्ने न पापया" उसी प्रकार इन्द्र पर मी प्रकट किया गया यदिद्राहं यथा त्वमीशीय वस्त्र एक हत | स्तोता में गोषखा स्यात् ।" अभिप्राय कि दोनों से कल्याण की कामना की जाती है । और विश्वेदेवा की स्तुतियों में 3 वें मण्डल के सूक्त ३५ में इस भाव की विशद व्याख्या मिलती है। वहां इन्द्र-वरुण - सोम-भग-अभि यात्रा पृथिवी आदित्य रुद्र बात आदि से स्वास्ति कामना के अन्त में कथित है
aaja aarti मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः । ते नो राताम्मुरुगाय मद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
दूसरी श्रेणी के विशेषण 'यज्ञस्य देव ऋत्विजं होतारम" स्तुति के व्यावहारिक अंग के द्योतक है। जिस प्रकार वैज्ञानिक किसी सिद्धान्त की सिद्धि में अनुसंधान रत हो व्यावहारिक उपचारों द्वारा सिद्धान्तों का पोषण करते हैं उसी प्रकार afer ऋषि