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अतः यह स्त्री बाचक एक वचनान्त शब्द है, अनः जा विद्वान रोदसी शब्द को द्विवचनान्ल ही मानते हैं यह उनका कथन ठीक नहीं है। दावा पृथवी बाचक रोदसी शब्द इससे भिन्न है।
अस्तु यहां प्रकरण यह है कि वैदिक देवताओं के जन्म. कर्म. स्थान. माता. पिता. पत्नियां. वाहन आदि सब पृथक पृथक हैं। इन सब प्रभारणों से देवताओं का अनैक्यत्व सिद्ध है। तथाच वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन करने पर यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि-अग्नि, इन्द्र, सूर्य आदि पृथक पृथक कुलों के देवता थे । सब आर्यों के नव देवता नहीं थे। प्रतीत होता है कि याज्ञिक समय में इनका एकीकरण किया गया था । यथा 'मातरिश्वा' यह भृगु बंशियों की कुल देवता थी। ऋ० १६०५१ में है-भरद भृग मातरिश्चा) मातरिश्वा. अमि दवको मित्र की तरह भृग चंशियों में ले जायें। इस श्रुति से अग्नि देवता का प्रचार भृगु बंशियों में करने की प्रेरणा है । तथा जो भृगु बंशियों का पूज्य देवता है। उससे इस कार्यके लिए प्रार्थनाकी गईहै । ऋवेदकी टीका में पं० रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है । कि बाथलिंक और रोथ के विश्व विख्यात कोशमें मातरिश्वा का अर्थ भृगु वंशियों का पूज्य देव किया है । तथ। अनि, अंगिरा. अत्रि यादि कई कुलों के देवता थे। ऋ: मं०५ के दूसरे सूक्त में कहा है कि
अत्र तं सृजन्तु निन्दितास निन्यासो भवन्तु ॥६ ।
अर्थात् अत्रि गोत्रोत्पन्न वृशका स्तोत्र श्रनिको मुक्त करे । तथा अभि की निन्दा करने वाले स्वयं निन्दिन है। धान का निन्दक स्वयं इन्द्र देव थे।