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श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी ग्रन्थमाळा-ग्रन्थांक ४९.
ॐ अर्हम्.
श्रीमद् देवचंद्र
भाग १.
संशोधक,
योगनिष्ट शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी .
प्रगटकर्त्ता,
श्रीअध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ.
हा. शा. लल्लुभाई करमचंद दलाल.
बीर संवत् २४४४.
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सहायकर्त्ता,
aste मोहनलाल हिमचंद मु. - पादरा.
प्रति- ५००
चंपागली - मुंबई.
किम्मत २-०-०.
विक्रम संवत् १९७४.
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पुस्तक मळवा- ठेका'कील मोहनलाल हिमचंद-पादरा (स्टेट वडोदरा)
बडोदा-शियापुरामा, लहाणामित्र स्टीम प्रिं. प्रेसमा, विठ्ठलभाई आधाराम ठकरे ता. १-६-१८ ना रोज प्रकाशक-शाह सल्लभाई करमचंद दलाल,
चंपागली-मुंबाई-ने माटे छापी प्रसिद्ध कयु.
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निवेदन.
श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि ग्रन्थमालांक ४९ तरीके श्रीमद् देवचंद्र प्रथम भाग बहार पडे छे. जैन कोममां अढारमी सदीना अंते अने ओगणीशमी सदीना प्रारंभमां विद्यमान खरतरगच्छीय पंडित श्रीमद् देवचंद्रजीं थएल छे. तेमणे जे जे कृतियो बनावी छे ते प्रस्तावनामां पादराना वकील मोहनलाल हेमचंदभाइए जणावी छे. श्रीमद् आनंदघनजी, श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्यायनी पेठे जैन कोममां महात्मा ज्ञानी तरीके श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज प्रख्यात थयेल छे. श्रीमद् देवचंजी महाराजना ग्रन्थोनो जैन कोममां सादर साधे प्रचार थयो छे, थाय छे अने भविष्यमां थशे. श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज जेवा द्रव्यानुयोगी गीतार्थयी जैनसंघ अने खरतर - गच्छनी महत्तामा वृद्धि थएल छे. श्रीमद् देवचंद्रजी महाराजनो तपागच्छीय आचार्य मुनिवरो साथे घणो सारो संबंध दतो. श्रीमद् उपाध्यायजी यशोविजयजीकृत ज्ञानसार ग्रन्थ पर तेमणे ज्ञानमंजरी नामनी टीका रचेली छे अने दिगंबरी शुभचंद्राचार्यकृत ज्ञानार्णवनो ध्यानचतुष्पदी ग्रन्थमां सार खेंची सर्व गच्छोना महापुरुषो प्रत्ये गुणानुराग दर्शावी भविष्यना जैन सा'धुओ माटे स्वादर्श जीवन मुकी गया छे. श्रीमद् द्रव्यानुयोगी गीतार्थ हता. तेमनुं चारित्र केवुं उत्तम हतुं ते तेमना बनावेला ग्रन्थो - मांना उद्गारोथी सुस्पष्ट थाय छे, अने खरतरगच्छना अद्यपर्यंत थयेल सर्व आचार्यो मुनिवरोमां श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज प्रथम नंबरे आवे छे. एवा महापुरुषनी कृतिओने छपावी जाहेर करवामां आवे तो तेथी जैन कोम तथा जैनेतर
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भारतबंधुओपर महान् उपकार करी शकाय एवो विचार प्रथम श्रीमद् बुद्धिसागरमूरिजीना मनमां प्रगट्यो अने तेमणे पादरा निवासी सुश्रावक वकील मोहनलाल हेमचंदभाइ, माणेकलाल, प्रेमचंदभाइ, मंगळभाइ वगेरे श्रावकोने जणाव्यो अने तेओए श्रीमद् देवचंद्रजी महाराजकृत सर्व कृतियोने छपावीने बहार पाडवानो निश्चय कर्यो छे, तथा प्रवृति करी छे. तेना फल तरीके श्रीमद् देवचंद्र प्रथमभाग छपाइने बहार पड्यो छे अने द्वितीय भाग अल्पमासमां छपाइने बहार पडशे एम आशा रहे छे. द्वितीय भाग छपाववानो आरंभ करवामां आव्यो छे अने तेमां कया ग्रन्थो छपाववामां आवशे तेनुं लीष्ट पण प्रस्तावनामां दर्शाववामां आव्युं छे. श्रीमद्नी कृतियो छपाववामां मुख्य भाग लेनार अने तेमना रागी पादराना वकील श्रावक मोहनलाल हिमचंदभाइ छे. तेमणे वणसेना आशरे पत्रो लखीने ज्यां त्यां मुनिराजो तथा श्रावकोने मळीने श्रीमद्नी कृतियो भेगी करी छे अने पोताना अमूल्य वखतनो भोग आपीने श्रीमदनी कृतियो छपाववानी व्यवस्था करी छे तेथी तेमने धन्यवाद घटे छे. श्रीमद्ना ग्रन्थोना अभ्यासथी तेमना रागी बनेल पादरा निवासी द्रव्यानुयोगना अभ्यासी सुश्रावक शा. माणेकलाल वरजीवनदास तथा शा. प्रेमचंदभाइ दलसुख तथा वडु निवासी छगनलाल लक्ष्मीचंद तथा भाइलालभाइ चुनीलाल वगेरेए वकीलजी मोहनलाल हिमचंदभाइनी पेठे श्रीमदनी कृतियो छपाववामां आर्थिक सहायनी व्यवस्थामां सारो भाग लीधो छे तेथी तेमने धन्यवाद घटे छे. वडोदरा-लुहाणामित्र स्टीम प्रेसना मालीक विठ्ठलभाइ आशारामे जल्दी पुस्तक छापवा माटे प्रवृत्ति करी छे तेथी तेमने धन्यवाद आपवामां आवे छे,
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तथा मुफो शोधमामां पंडित लालचंद भगवान् तथा पंडित जयचंद विठ्ठल तथा शास्त्री भाइशंकर वैकुंठराम तथा मुनि कीर्तिसागरजी तथा मास्तर चंदुलाल नानचंद वगेरेए थोडाघणा अंशे जे जे सहाय करी तेमाटे तेमने धन्यवाद घटे छे.
आ पुस्तक छपाववामां आर्थिक सहाय करनाराओनो उपकार मानवामां आवे छे तथा जे जे मुनिराजोए तथा श्रावकोए श्रीमदनी कृतियो मेळववामां साहाय्य करी छे तेनो प्रस्तावनामां उपकार मानमामां आव्यो छे. श्रीमद् देवचंद्रजीनी कृतियो- श्वेताम्बर जैनोनी पेठे दिगंबर जैनो पण वाचन श्रवण मनन करे छे, तेमनां बनावेलां पुस्तकोनो वधु प्रमाणमां फेलावो करवामाटे आर्थिक सहाय कर्ताओनी सहायथी पडतर किंमत करतो पण मोघवारीना सययमां घणीज ओछी मात्र रु. २) किंमत राखवामां आवी छे. एक हजार उपर पत्रवाळा. ग्रन्थनी बिलकुल ओछी किंमत राखीने तेनो जैनोमां सर्वत्र फेलावो करवानो इरादो राख्यो छे तेथी हवे वांचको तेनो लाभ लेवा चूकशे नहीं एम आशा रखाय छे. बालचर निवासी श्रीपुत् झवेरी अमरचंदजी बोथराए तेनी १५० प्रतियो लेवानी मागणीतो ग्रन्थ तैयार थतां पूर्वे करी छे ते उपरथी श्रीमद् देवचंद्रजीकृत कृतियोनी उपयोगितानो ख्याल आवी शके छे. आ ग्रंन्थनी किंमतनी उपजेली रकम बन्ने भाग छपावतां वधशे तो तेनो अन्य द्रव्यानुयोगना तथा आध्यात्मिक ग्रन्थो छपाववामां उपयोग करवामां आवशे. तेथी परंपराए धार्मिक ग्रन्थोनो प्रचार तथा तेओनुं प्राकट्य थशे एम अवबोधीने जैनोए तथा गुणानुरागी जेनेतरोए श्रीमद् देवचंद्र प्रथम भागनो लाभ लेवा चूकवू नहीं. अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी आप्रमाणे
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( ६ )
उपयोगी पुस्तको बहार पड्यां छे-पडे छे अने भविष्यमां स्वगृहस्थोनी साहाय्यथी उपयोगी पुस्तको बहार पडशे, माटे जैनधर्माभिलाषी सज्जनोए आ मंडळने सहाय करवी जोइए.
श्रीमद् देवचंद्रजीकृत पुस्तको छपाववामां अत्यार सुघीमां जे जे गृहस्थो तरफथी मदद मळी छे तेमनां नामो नीचे प्रमाणे.
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५०१ शा. मोहनलाल नाथाभाई पादरा. २०० शा. मोहनलाल नरोत्तमदास. रणु ( पादरा ). २०० शा. जवेरभाई भगवानदास कावीठा ( बोरसद ). १०१ श्रीयुत श्रेष्टी अमरचंदजी बोथरा - वालुचर (मुर्शीदाबाद). सिंहजी बोथरा जगपतिसिंहजी दुगड हरखचंदजी नाहटा
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६१
५१
२५
गुलाबचंदजी भुरा
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१८६ शा. हीरालाल छोटालाल पादरा.
१५० बाई रतन शा. चुनीलाल कहानदासनी विधवा रे.
इटोला ( वडोदरा ).
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१०१ वकील मोहनलाल हीमचंद पादरा. २५ सौ. बार्ड जमनां वकील मोहनलाल हीमचंदनां पत्नी
पादरा.
१०० शा. लक्ष्मीचंद लालचंद वड ( पादरा ). १०० बोर्ड चंचळ शा. दामोदर कल्याणदासनी विधवा वड ( पादरा ) ८९ बेन मणी शा. प्रेमचंद दलसुखभाईनी भाणेज पादरा.
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( ७ )
८० शा. केशवलाल लालचंद वडोदरा मामानीपोळ. ७५ शा. केशवलाल नरोत्तमदास वड ( पादरा ). ७५ बाई आधार शा. गोरधनभाई हीराचंदनी विधवा
अंगुठण ( डभोई ).
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५० शां. रतनचंद लाघाजी कावीठा ( बोरसद ). ४१ शा. भाईलाल चुनीलाल पादरा.
२५ वकील नंदलाल लल्लुभाई पादरा.
२५ बाई सांकळी ते शा. मणीलाल चुनीलालनी विधवा
पादरा.
२० एक गृहस्थ तरफथी पादरा.
१० शा. त्रीकमलाल वृजलाल राजळी ( डभोई ). १० शा. मुळजी पीतांबरदास मुजपुर ( पादरा ): ५ बाई रुक्षमणी शा. दलसुखभाई प्राणजीवनदासनी दीकरी पादरा५ बाई डाही ते शा. छोटालाल उगनलालनी विधवा पादरा
५ शा. माणेकलाल वरजीवनदास
२३४७
उपर प्रमाणे मदद करनारा सभ्य गृहस्थोनो उपकार मानवामां आवे छे तथा जे जे गृहस्था हवे पछी मदद करशे तेनो द्वितीय भागमां नामसहित उपकार मानवामां आवशे. आवा मोंघवारीना प्रसंगमां श्रीमद्नी कृतियो छपाववामां आर्थिक सहायनी घणी जरुर छे. तपागच्छना श्रावकोनी पेठे खरतरगच्छीय श्रावको जो पोतानो उदार हाथ लंबापशे तो
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(८) वेओ श्रामदना रागी भक्त बनी तेमनां पुस्तकोनो प्रचार करी अमूल्य लाभ प्राप्त करशे अने तेथी तेओ भविष्यनी जैन कोमना उपकारी बनशे. ॥ इत्यलं विस्तरेण ॥ ॐअहंशान्तिः ३
अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ-मुंबाई,
चंपागली. सं. १९७४ चैत्र सुदि. १
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प्रस्तावना.
श्रीमद् देवचंद्रजी कृत सर्व ग्रंथो छपाववानो संकल्प.
श्रीमद् देवचंद्रजी महाराजकृत सर्व ग्रंथो छपाववानो संक ल्प संकल्प संवत् १९६८ ना चैत्र मासमां थयो . योगनिष्ट शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिश्वरजी विहार करता मुंबाई सुरत थई चैत्र मासमां पादरे पधार्या तत्समये श्रीमद्देवचंद्रजीकृत आगमसार नयचक्रसार विगेरे ग्रंथोनुं परिशीलन थयुं ते वखते गुरु महाराजे तेमना सर्व ग्रंथो मेळवी एकत्र करी छपाववा संबंधी उपदेश कर्यो तेथी तेम करवा द्रढ निश्चय कर्यो, अने ते संबंधी विचारोनो प्रवाह शरु थयो, आद्यमां कया कया ग्रंथो छपाववा तेनो निश्चय कर्यो. संवत् १९७२ नी सालमां श्रीमद् सूरिजी महाराज विजापुरमा चोमासु रह्या ते समये तेमनी देखरेख नीचे तथा तेमनी दृष्टि प्रमाणे आगमसार ग्रंथ छपाववानो शरु कर्यो; वडोदराना लढाणामित्र स्टीम प्रेसना मालीक रा. विठ्ठलभाई आशारामें सगवड भरेली रीते पुस्तको छापी आपवानुं कबुल कर्यु तेथी तेमना प्रेसमां आगमसार ग्रंथ प्रथम आपवामां आव्यो, अमे एक तरफ तेमनां बनावेलां पुस्तकोनी शोध अने संग्रह माटे जाहेर खबरो छपाववामां आवी.
श्रीमद् देवचंद्रजी महाराजनुं नाम समग्र जैन कोममां प्रख्यात छे. जैन कोमनो कोई पण फीरको तेमना नामयी अंजायो नथी, सर्व गच्छवाळाओ तेमना ग्रंथोनो प्रेमयी उपयोग करे छे तेथी तेमना सर्व ग्रंथो छपाववानी जाहेरखबर बहार
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( १० )
पडवायी जैन काममां आनंदनी लागणी फेलाई, तेमना ग्रंथों ज्यांयी ज्यांथी मळे एवो संभव - हृतो त्यां त्यां अनेक स्थळे अनेक महाशयो उपर पत्रो लख्या.
ग्रंथोनी प्राप्ति माटे पत्रव्यवहार.
श्रीमद् मुळचंदजी महाराजना संवाडाना आचार्य श्रीविजय कमळसूरिजी तथा तेमना शिष्य पन्यास केसरविजयजी, तथा मुनी लाभविजयजी, तथा मुनीराज श्रीहेतमुनिजी, तथा प्रवर्तकजी महाराजश्री कान्तिविजयजी, तथा मुनिराज श्री जिनविजयजी, तथा पन्न्यासजी महाराजश्री दानविजयजी तथा मुनिमहाराजश्री श्रीकृपाचंद्रसूरिजी तथा पन्यासजीश्री भावविजयजी (पाली ) तथा मुनीश्री नागचंद्रजी ( कच्छ ) तथा मुनिश्री चित्तविजयजी तथा वालुचर ( मुर्शीदाबाद ) निवासी जवेरी अमरचंदजी बोथरा तथा भोजक गीरधरभाई हेमचंद तथा रा. रा. चीमनलाल डी० दलाल तथा जवेरी भोगीलाल ताराचंद तथा रा. रा. मोहनलाल दलीचंद देसाई तथा अन्य मुनिराज तथा ग्रहस्थो अने संस्थाओ साधे पत्रव्यवहार कर्यो.
कया कया ग्रंथो क्यां क्यांथी मळ्या.
१ आगमसारनी एक जुनी प्रति के जेमां प्रतिमापूजा, पुष्पपूजाचर्चा, गुणस्थानक स्वरूप, पापस्थानक स्वरूप ए चार विषयो के जे छपाएला आगमसारनां नहोता ते प्रत पादराना भंडारमाथी मळी अने तेवा वधारावाली बे प्रतिओ सुरतना श्रीमोहनलालजी महाराजना भंडारमांथी मळी * तथा मुनिश्री लाभविजयजी पासेथी एक प्रति तेवा वधारावाळी मळी.
* प्रत नं. ४०९-५६०
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२ नयचक्रसारनी एक जुनी प्रति सुरतना मोहनलालजी महाराजना भंडारमाथी * मळी ते पूर्वना छपायला नयचक्रसारना जेवी हती.
३ ज्ञानमंजरी टीकानी जुनी बे प्रतिओ सुरत मोहनलालजी महाराजना भंडारमांयी मुनिश्री हेत मुनिजी मारफत मळी तथा तेमनाज तरफथी हालमांज छपाएली एक प्रति मळी.
४ गुरु गुणपत्रिंशिकानोटबो-तेनी एक प्रति पन्यास गुलाबविजयजी पासेथी भोजक गीरधरभाई हेमचंदे मेळवी आपी अने तेने श्री आत्मानंद सभा तरफथी छपाएल मूळ टीका सहितनी मळेली प्रतना आधारे सुधारी.
५ ध्यानदीपिकाचतुष्पदीनी एक प्रति आचार्य श्रीविजयकमळसूरिजी ( मुळचंदजी महाराजना ) मारफत धोराजीना भंडारमाथी शा. जादवजी खजीए मोकली तेना आधारे छपावी.
६ पांच कर्मग्रंथनो टबो आनी एक प्रति पन्यास गुलाबलाब विजयजी पासेथी भोजक गीरधरभाइए मेळवी आपी बीजी प्रति मळी नथी. .
७ विचार रत्नसारनी एक प्रति प्रवर्तकजी श्री कांतिविजयजी महाराज पासेथी तथा एक प्रति अमदावाद श्रीशांतिसागरजीना भंडारमाथी शा. जमनादास घेलाभाई मारफत मळी. तथा एक प्रति मुनि लाभविजयजी पासेथी मळी.
प्रश्नोत्तरनी एक प्रति प्र. श्रीकांतिविजयजी महाराज पासेथी मळी.
* नं. ५४६ पान ४१
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(१२) .९ कर्मसंवेघ. अमदावाद डेलाना उपाश्रयना भंडारमाथीx झवेरी भोगीलालभाई ताराचंद मारफत मळी.
१० प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि. ११ गुणस्थानकअधिकार.
आ बने विषयो पादराना तथा सुरतना भंडारमाथी+ तथा मुनिलाभविजयजी पासेथी मळेली आगमसारनी जुनी प्रतिओमाथी मळेल छे, अने प्रतिमापुष्पपूजासिद्धिना जुदा लखेला भागनी बे प्रतो अमदावाद डेलाना उपाश्रयना ज्ञान भंडारमाथी मळेली छे. * ज्यारे आगमसार छपातो हतो ते वखते आ विषयवाळी प्रतिओ मळेली नहीं होवाथी तेनी अंदर दाखल करेल नथी अने पाछळथी मळवाथी ते आगमसारना पेटा भाग तरीके आ ग्रंथमां पाछळ दाखल करवामां आवेल छे.
श्रीमद् देवचंद्र द्वितीय भागमां छापवाना ग्रंथो.
१२ (१) विचारसार मूळ संस्कृत टीका-श्रीमद् देवचंद्रजीकृत विचारसार नामनो ग्रंथ छे एवी प्रथम खबर मने वालुचर नीवासी श्रीयुत् अमरचंदजी बोथराए अत्रेथी छपावेल जाहेरखबर वांचीने आपी अने ते ग्रंथनी मुळ-टबावाळी एक प्रत तेमणे श्रीजिनयशः सुरिजीना पुस्तक भंडारमाथी मोकळी आपी अने तेवीज बीजी प्रती रा. रा. चीमनलाल डी० दलाल
x डाबडो नं. ३२ बी. प्रत नं. ४२ + प्रत नं. ४.०१-६६३ पान ६६.६७.. * डाबडो नं. २० बी. प्रत नं. ८०-८१ पान १०-७
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एमणे वीकानेरथी त्यांना पं. अनुपचंद्रजीयति पासेथी खरीद करी मारापर मोकली आपी तथा तेवीज एक प्रति प्र० श्री कान्तिविजयजी महाराज पासेथी मळी * तथा आ ग्रंथनी संपूर्ण टीकावाळी प्रति अमदावाद डेलाना उपाश्रयना ज्ञानभंडारमाथी+ मळी तथा तेज भंडारमाथी टबावाळी एक प्रत मळी । तथा विचारसारनी प्रथमखंडनी संस्कृत टीकावाळी प्रत उपाध्यायजी श्रीवीरविजयजी शास्त्रसंग्रहमांथी पं. श्रीदानविजयजी महाराज पासेयी मळी (पान ६८) आ स्थळे एक वात जणाववी अगत्यनी छे के अमदावाद डेलाना उपाश्रयनो ज्ञानभंडार जे घणो जुनो तथा तेमांनो ग्रंथसंग्रह घणो उत्तम अने अमूल्य छे, परंतु कार्यवाहकोना मतभेदना लिधे तेमांयी प्रतिओ मेळववा घणी मुइकेलीओ नडी हती, छतां अध्यात्मज्ञान रसिक झवेरी भोगीलालभाइ ताराचंद एमणे खास प्रयास करी जोइती :तिओ कढावी आपी हती तेमाटे तेमनो उपकार मानुछु.
१३ (२) अध्यात्मगीता-आ ग्रंथ प्रथम छपायेलो हतो ते शीवाय तेनी बे प्रतिओ सुरत मोहनलालजी महाराजना ज्ञानभंडारमाथी मळी हती. *
१४ (३) द्रव्यप्रकाश--नी एक प्रति अमदावाद विद्याशाळाना ज्ञानभंडारमाथी भोजक गीरधरभाइ मारफत अने एक प्रति पन्यास लाभविजयजी महाराज पासेथी मळी हती.
x डाबडो नं. ४९ पोथी नं. ९७ पान ६८. + डाबडो नं. ३२ बी. पुर्वाध प्रत नं. ५० उत्तरार्ध नं. ५१. * , नं. ३२ बी प्रत नं. ५२ * प्रत नं. ७०२-४३५ पा. १२-४९.
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( १४ )
१५ (४) चोवीशी मोटी टबासद-आ चोवीशीनी प्र थम छपायली प्रतिओ उपरांत प्र० श्रीकांतिविजयजी महाराज पासेयी आजयी दोढसो वर्षपर सुरतना भणसाठी कुटुंबे लखाबेली प्रति मळी छे आ प्रति प्रथम छपाएली चारे आवृतिओ करतां वघारे शुद्ध छे छापेली प्रतिओमां जुनी आवृति अमदाबाद श्री शांतीसागरजीना भंडारमां छे.
१६ (५) वीस विहरमानजी स्तवन ( वीसी ) - आ ग्रंथ प्रथम छपायेल छे.
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१७ (६) गतचोवीसी ( स्तवन २१) प्रथम छपाएल छे छे छेल्लां त्रण स्तवनो शोध कर्या छतां मळी शक्यां नयी कोइ महाशयना जोवामां आवेने जणावशे तो आभार थशे.
१८ (७) स्नात्रपूजा
१९ (८) नवपदजीपूजा (उलाळा ) २० (९) एकवीशप्रकारी पूजा २१ (१०) अष्टप्रकारी पूजा
ओ पादराना पुस्तक भंडारमां छे.
आ चारे ग्रंथो प्रथम
पूजा संग्रहमां छपा - एल छे तेनी जुनी हस्तलीखीत प्रति
२२ (११) वीरनिर्वाणना स्तवननी ढाळोनी एक प्रति अमदावाद विद्याशाळाना भंडारमांयी भोजक गीरधरभाइ मारफत मळी छे.
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२३ (१२) बाहुजीन स्तवननो टबो अमदावाद डेलाना उपाश्रयना भंडारमाथी मळेल छे. * बीजां ओगणीस स्तवननो eat श्रीमदे लखेलो होय एवो संभव छे पण मळेल नथी.
* डाबडा नं. ४४. बी. प्रत नं. ८ पान ७
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२६ (१५)
२७ (१६)
२८ (१७)
२९ (१८)
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(१५)
- २४ (१३) भावी चोवीशीना प्रथम तीर्थकर पद्मनाभजीनुं स्तवन श्रीयुत अमरचंदजी बोथरा तथा भोजकगीरधर हेमचंद तरफथी मळेल छे बीजां तेवीस स्तवनो छे एम सांभळ्युं छे पण हजु सुधी मळी शक्यां नथी.
२५ (१४) सीमंधर जिनस्तवन मोडं भोजक गीरधरभाई तरफथी मळ्युं छे तेम छपायेलुं पण छे.
३० (१९) दीवाळीनुं स्तवन नानुं ३१ (२०) नवानगरजी स्तवन ३२ (२१) ध्रुवपद स्तवन ३३ (२२) समवसरणस्तवन ३४ (२३) कुंभस्थापना स्तवन भोजकगी० हे० तरफथी मळेल छे.
सिद्धाचळनां स्तवनो आ चारे स्तवनो पादराना भंडारस्थ टीपणामांयी मळेल हे.
एल छे.
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३५ (२४) सहस्त्रकुटनुं स्तवन भोजकगी० हे० तरफथी मळेल छे तेमज कॉ. हेरल्डना १९१५ नां खास अंकमां छपायलुं छे.
३७ (२६) प्रभुस्तुति. ३८ (२७) सिद्धाचळस्तुति ३९ (२८) विशस्थानकस्तुति ४० (२९) गीरनारस्तुति ४१ (३०) ज्ञानबहुमानस्तुति
पादराना भंडारमांयी मळेल छे.
आप श्रीयुत अमरचंदजी बोथरा तथा
३६ (२५) अजितनाथ जिनहोरी होरी संग्रहमां छपा
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आ स्तुतिओ श्रीयुत अमरचंदजी बोरा
तरफथी मळी छे.
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( १६ )
४२ (३१) बडी साधुवंदनानी ढालो श्रीयुत अमरचंदजी
बोथरा तरफथी मळेल छे.
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४३ (३२) अष्टप्रवचन मातानी सझायो ।
४४ (३३) प्रभंजनानी सझाय ४५ (३४) ढंढण ऋषिनी सझाय
४६ (३५) समकितनी सझाय
४७ (३६) गजसुकुमालनी सझाय
आ सझायो छपायेली छे.
४८ ( ३७ ) पंचेंद्री विषय त्यागपद -- श्रीयुत् अमरचंदजी बोथरा तरफथी मळ्युं छे.
४९ (३८) | सुरत नीवाशी जानकीबाई उपर लखेला ५० (३९) पत्रो २ -- आ बे पत्रो आत्मानंदप्रकाशमां छपाएला छे ते उपरथी लीधा छे.
५१ (४०) एक श्रावक उपर लखेलो पत्र - - प्र० श्रीकां तीविजयजी महाराज पासेयी मळ्यो छे.
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५२ साधु स्वाध्याय.
५३ बे सज्जायो. पं. अजितसागरगणि तरफथी मळेल छे. उपर प्रमाणे ज्यांथी पुस्तको स्तवनो सझायो विगेरे मळ्यां वेनी वीगत आपी छे. श्रीमद देवचंद्रजी महाराजना रागी भक्तोमां श्रीयुत् अमरचंदथी बोथरानु नाम प्रथम पद धरावे छे तेमणे श्रीमद्नी केटलीक कृतिओनां नाम तथा ते क्यां क्यां मळी शकशे ते मने पत्र लखी प्रथमथी जणाव्युं हतुं तेमना पत्रव्यवहार उपरयी तेमनी श्रीमद् उपरनी भक्तिनो उत्तम ख्याल आवी शके छे " श्रीमद् देवचंद्र " पहेलो भाग छपायलो तेमनापर मोकल्यो त्यारे तेमने अत्यंत आनंद थयो हतो ते संबंधी पत्रनो उतारो नीचे आप्यो छे,
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(१७)
" श्रद्धास्पद धर्मबंधु वकील मोहनलालभाइ जोग ली० बालचरसे अमरचंद बोथरेका प्रणाम बहुत बहुत वंचियेगा, यहां कुशलमंगल है आप लोगोकी कुशल सदा चहाता हुं अपरंच समाचार वंचियेगा. आगु " श्रीमद देवचन्द्र " नामाग्रंथका मुद्रितांश आपने कृपापूर्वक भेजा सो पतितपावनि तिथि चैत्र शुकल त्रयोदशीके दिवस मुजे मिला था आपकी इस कृपाके तीये मै आपका आ जन्म ऋणी भया हुं, उपरोक्त ग्रंथका पहुंच समाचार में कलकते चले जानेसे फॉरन देनमे देरि मया आशा हे हमारा ए अपराध क्षमा करियेगा. ___ओर कलदिनमें कलकतेसे आया हुँ " विचारसार " ग्रंथ पहोचा सो जानियेगा, विकानेवाले श्रीपूज्यजी कहां है मालुम नही भया मालुम होनेसे उनको पत्र लिखकर सर्व वात पुछकर आपको लिखुगा.
आगु-कमसेकम हजार पुस्तक छपवाइएगा ऐसा हमारा अनुमान था इसिसे १५१ पुस्तक भेजनेको लिखा था लिकन पुस्तक कम छपेगी तो पु. १५१ भेजनेकी जरुरत नहि है, पुस्तक छववानेके खर्च बापत रुपीया चार पांच रोजमे भेजेगे.
श्रीमद्कृत समस्त ग्रंथादि छपानेके विचार है एक अक्षर मी छोडनेका इरादा नहि है लिखा सो वांचकर खुशी भये.
पूज्याचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरजीसरिजी तपागच्छके होकर श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराजके प्रति इतनी भक्ति रखते है इह इस कालमे अपूर्व है इस लिये श्रीआचार्य बुद्धिसागरसूरिजीके चरणमे वारंवार नमस्कार हो.
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(१८) श्रीमद् समन्धि हमको जो कुछ मालुम था सो बतलाना हमारा फरज था सो हम कथंचित पालन किया यह हमारा सौभाग्य है इस लिये हमारी प्रसंसा की कोई जरूरत नहि मुजे लज्जित होना पड़ता है सो मालुम किजियेगा धर्म स्नेह सविशेष रखीयेगा, पत्रोत्तर शीघ्र दिजियेगा यहां के लायक काम हो सो लिखियेगा इति.
छपाच्या विनानां पुस्तको. (१) गुरुगुणपत्रिंशिका टबो. ( २ ) ध्यानदीपिका चतुष्पदी. (३) कर्मग्रंथ पांचनो टबो. (४) विचाररत्नसार पूर्ण. (५) प्रश्नोत्तर. (६) विचारसार मुळ-टीका अने टबो. (७) कर्मसंवेध प्रकरण. (८) प्रतिमापुष्पसिद्धि. (९) गुणस्थानाधिकार. (१०) द्रव्यप्रकाश. (११) बाहुजिनस्तवन टबो. (१२) वीर निर्वाणनी ढालो. (१३) पद्मनाभजिनस्तवन. (१४-१५-१६-१६) सिद्धाचलनां स्तवन. (१८) नवानगरस्तवन. (१९) ध्रुवपदरतवन. (२०) समवसरण स्तवन. (२१) कुंभस्थापनस्तवन (२२) सिझाचलस्तुति. (२३) वीशस्थानकाते. (२४) ज्ञानबहुमानस्तुति. (२५) गिरनारस्तुति. (२६) कागळ. (२७) पंचेन्द्रिय विषयत्यागपद. (२८) प्रभुरतुति. साधुपद. अन्यपद ए रीते त्रीश छपाच्या वगरना हता ते छपाच्या छे अने ते विनाना पहेला छपावेला हता ते पुनः शुद्ध करी छपावेल छे.
कइ शालमांच्या पुस्तको कथा गामा रच्यां.
संवत् १७७६ फागण सुदि त्रीजे मोटा कोट-मरोट-मां पोताना मित्र दुर्गादासना बोधार्थे आगमसारनी रचना करवामां आवी.
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( १९ )
संवत् १७९६ ना कार्तिक सुदि पांचमे नवानगरमां ज्ञानसार उपर ज्ञानमंजरी टीका रचवामां आवी.
संवत् १७६६ ना वैशाख वदि १३ ना रोज मुलतान शहेरमां भणशाली मीडमलना आग्रहवी ध्यानदीपिकाचतुष्पदी रवी. संवत् १७९६ ना कार्तिक सुदि १ ना रोज नवानगरमां विचारसार ग्रंथरच्यो.
संवत् १७६७ ना पोष वदि १३ ना रोज द्रव्यप्रकाश ग्रंथ रच्यो.
संवत् १८०४ ना मांगशर सुदि १३ ना रोज सिद्धाचलजीनं स्तवन सुरतवाशी कचरा कीकाना संघमां सिद्धाचळजीनां दर्शन करी रच्युं.
जेसलमेरमा वर्धमान शेठना आग्रहथी पंचभावनानी रचना करी शांल मळती नथी.
लीमडी शहरमां अध्यात्मगीतानी रचना करी. भावनगरां दीवाळीना दीवसे वीरनिर्वाणनुं स्तवन (ढालो) रवी शाल लखी नयी.
ए शीवाय बीजा ग्रंथोनी शाल तथा स्थळ मळेल नवी श्रीमद्नुं जीवनचरित्र.
श्रीमद्नुं जीवनचरित्र हजी परिपूर्ण उपलब्ध थयुं नयी ते संबंधी ज्यां त्यां पत्रो लखी हकीकत मेळवावा प्रयास करवामां आवे छे. श्रीमद् देवचंद्र द्वितीय भागमां श्रीमद्ना जीवनचरित संबंधी जे जे हकीकत मळशे ते दाखल करवामां आवशे तथा तेमनी कतिओ संबंधी उपोदघातमां लेख्य विचारो प्रगट करवामां
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( २० )
आवशे. प्रथम भागमां पत्र विस्तार भययी ते दाखल करेल संबंधी जे जे महाशयो खबसे
नयी. श्रीमद्ना जीवनचरित
पूरी पाडशे तेमनी उपकारसह वीजा भागमां नोंध लेवामां आवशे.
अप्रगट कृतियो.
श्रीमद्नी जे जे कृतियो मळी तेनुं लीष्ट उपर आपवामां आव्युं छे तेम छतां हजी जे जे अप्रगट कृतियो रही होय ते संबंधी जाहेरखबरथी तथा पत्रव्यवहारयी प्रयत्न करवामां आवशे. श्रीमदनी अप्रगट कृतिओ मेळववामां जे जे महाशयो सहाय करशे तेमनी बीजा भागमां उपकार सह नोंध लेवाशे.
पुस्तको मेळवी आपनार महाशयोनो उपकार.
अमदावाद डेलाना उपाश्रय ज्ञानभंडारमांयी बने पक्षना मतभेद प्रसंगे पुस्तको न मळी शके तेवा संजोगोमां खास काळजी राखी श्रीमद्नी कृतियोनी प्रतिओ अपाववामां झवेरी भोगीलालभाइ ताराचंदे जे सहाय आपी छे तेमाटे तेमनो आभार मानुछु श्रीमद् देवचंद्रजीनी चोवीशी तथा अन्य वांचनयी तेओनो श्रीमदपर पूर्ण राग प्रगटेलो जणाय छे ने तेथी तेमणे आ कार्यमां सारी सहाय आपी छे.
वालुचरवाळा झवेरी अमरचंदजी बोथरा जेओ श्रीमद्नाः पूर्ण रागी ज्ञानरसिक भक्त छे तेमनो तथा श्रीमद्नी कृतिनां पुस्तको आपवा माटे श्रीमद् प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी तथा श्रीमद् विजयकमळसूरीश्वरजी, पन्यास लाभविजयजी, पन्यास केसरविजयजी, पन्यास गुलाबविजयजी, मुनि हेतमुनि, भोजक
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(२१) गीरघरमाइ हेमचंद तथा धोराजीना शेठ जादवजी खजी विगेरेनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानुछु.
___ आ कार्यना मूळ उत्पाद अने प्रेरक परमपूज्य योगनिष्ठ शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिश्वरजी महाराज जेओए मात्र आ ग्रंथ छपाववानो उपदेश करीनेज नहीं अदकतां तमाम ग्रंथो शोधवा सुधारवामां तेमज अफो तपासवामां आशरे बे वर्षथी सतत प्रयास सेवेलो छे एटलंज नही पण विचारसारनी संस्कृत टीका अने बीजा केटलाक ग्रंथ एटला तो अशुद्ध अने अव्यवस्थित रीते लखायला हता के जे शुद्ध करवामां तेओ श्रीनो घणो काळ व्यतीत थयो छे. तेओ श्रीनी आटली बधी काळजी अने स्हाय न होत तो आ कार्य कदापी थई शकत नहाँ तेथी तेओश्रीनो जेटलो उपकार मानीए वेटलो ओछो छे, अने तेथी आ कार्यनी सफळतानुं सर्व मान तेओश्रीनेज घटे छे.
आ पुस्तकसंग्रहमा छपाएल ग्रंथो पैकी केटलाकनी प्रतिओ धणी जुनी पण अशुद्ध होवाथी तेमज तेनी मेळवणी माटे पुरतुं साधन नहीं मळवाथी तेने शुद्ध करवा प्रयत्न कर्या छतां धणी भुलो रही जवानो संभव छे तेनुं शुद्धिपत्रक दाखल करेलं छे छतां पण कोई स्थळे भुलो रहेली होय तो ते सुज्ञ वांचको सुधारी वांचशे अने मने जणावशे तो तेमनो आभार मानी बीजी आवृत्तिमां सुधारो करवामां आवशे.
आ ग्रंथ संबंधमां जे कांई लखवानुं बाकी रहेलं हशे ते बीजी आवृतिमां. जणाववामां आवशे.
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(२२) छेवटे श्रीमदनी कृतिओ अने जीवनचरित्र संबंधी तेमज आ ग्रंथ संबंधी जे जे उपयोगी सुचनाओ आपवानुं योग्य लागे तेवी सुचनाओ आपवा सर्व सज्जनोने विनंति करी आ प्रस्तावना पूर्ण करूं छु, अने मारा जीवननो जे कांई समय आ कार्यमां व्यतित थाय छे तेमाटे मारा आत्माने धन्य मानुं छु.
-
पादरा.
चैत्र सुदि १ सं. १९७४ } वकील मोहनलाल हीमचंद.
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अनुक्रमणिका.
१ आगमसार. त्रणकरण
१ निगोद , पद्रव्यतुं स्वरुप ३ चार ध्यान , आठपक्ष ,
७ भावना " सातनयतुं , १५ समकित , चार निक्षेप , २१ निश्चयव्यवहार स्वरूप ६३ चार प्रमाण , ३२ पंचसमवाय सप्तभंगी , २ नयचक्रसार.
७३-२८८ गुणठाणाआश्रीजीवना भेद७४ सप्तभंगीन स्वरूप. १०२ द्रव्यगुणपर्याय लक्षणनय- उत्पादव्ययना भेद. ११७
निक्षेप सहित ८० सामान्य स्वभावना भेद.१२७ पंचास्तिकायतुं स्वरूप. ८८ विशेष स्वभावना भेद. १४० सामान्य विशेष स्वभावनां नयज्ञान स्वरूप. १४३
९५ प्रमाण स्वरूप. १७९ ३ ज्ञानसारटीका.
१८९-४२२ १ पूर्णाष्टक १८९ ७.इन्द्रियजयाष्टक. २४१ २ मनाष्टक १९६ ८ त्यागाष्टक. २४८ ३ स्थिरताष्टक २०८ ९ क्रियाष्टक. २५७ ४ मोहत्यागाष्टक. ३१३ १० तृप्त्यष्टक. २६४ ५ ज्ञानाष्टक. २२२ ११ निलेपाष्टक. २७१ ६ समाष्टक २३४ १२ निःस्पृहाष्टक, २७८
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૨૮૮
(२४) १३ मौनाष्टक. २८३ २४ शास्त्राष्टक. ३६२ १४ विद्याष्टक. २९२. २५ परिग्रहाष्टक. ३६७ १५ विवेकाष्टक. २९९ २६ अनुभवाष्टक. ३७२ १६ माध्यस्थ्याष्टक. ३०८ २७ योगाष्टक. ३७७ १७ निर्भयाष्टक. ३२३ २८ नियागाष्टक. ३८४ १८ अनात्मशंसाष्टक. ३२७ २९ भावपूजाष्टक. १९ तत्वदृष्ट्यष्टक. ३३३ ३० ध्यानाष्टक. ३९२ २० सर्व समृद्धयष्टक. ३४१ ३१ तपोऽटक. ३९७ २१ कर्मविपाकचिंतनाष्टक.३४६ ३२ सर्वनयश्रयणाष्टक. ४०४ २२ भवोद्वेगाष्टक. ३५२ ३३ टीकाकारप्रशस्ति. ४२० २३ लाकसंज्ञात्यागाष्टक. ३५७ ४ गुरुगुणछत्रीशी.
४२५-४५० ५ ध्यानदिपीकाचतुःष्पदी.
४५३-५७९ १ बारभावनानुं स्वरूप ४ ध्यानध्येय स्वरूप ___ खंड १ ४५३ खंड ४ ५२४ २ रत्नत्रयपंचमहाव्रत ५ धर्मध्यान स्वरूप
खंड २ ४६९ खंड ५ ५४९ ३ समितिगुप्ति-मोहजय- . ६ शुक्लध्यान स्वरूप वर्णन खंड ३ ५०७ खंड
५६८ ६ कर्मग्रंथनो दबो.
५८२-७५२ १ पहेलो कर्मग्रंय. ५८२ ४ चोयो कर्मग्रंथ. ६४२ २ बीजो कर्मग्रंथ. ६११ ५ पांचमा कर्मग्रंथ. ६८४ ३ वीजा कमग्रंय. ६२९ ७ विचाररलसार.
७५२-९३२ ८ छुटक प्रश्नोत्तर. ९ कर्मसंवेधप्रकरण.
९६७-९९२ १० प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि.
९९३-२००४ ११ गुणस्थानक अधिकार.
१००५-२०२८
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॥ श्रीसर्वज्ञाय नमः ॥
॥ अथ ॥
॥ श्रीपंडितदेवचंद्रजीकृत ॥ आगमसार.
भव्यजीवने प्रतिबोधवा निमित्ते मोक्षमार्गनी वचनिका कहे छे. तिहां प्रथम जीव अनादिकालनो मिथ्यात्वी हतो ते कालब्धि पामीने त्रण करण करेछे. तेनां नाम - पहेलं यथाप्रवृत्तिकरण, बीजुं अपूर्व करण, अने त्रीजुं अनिवृत्ति करण.
तेमां पहेलुं यथाप्रवृत्ति करण कहेछे. १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ अंतराय, ए चार कर्मनी श्रीस कोडाकोडी सागरोपनी स्थिति छे, तेमांयी ओगणत्रीस कोडाकोडी खपावे अने एक कोडाकोडी बाकी राखे, तथा १ नामकर्म, २ गोत्रकर्म, ए बे कर्मनी वीस कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति छे, तेमांथी ओगणीस खपावे अने एक कोडाकोडी राखे, अने मोहनीय कर्मनी सत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति छे. तेमांथी अगणोतेर खपावे, बाकी एक कोडाकोडी शेष राखे । एवी रीते एक आयुकर्म वर्जीने बाकी साते कर्मनी एकपल्योपमना असंख्यातमा भागेन्यून एक कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति राखे,
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आगमसार.
एवो जे वैराग्यरूप उदासी परिणाम तेने यथाप्रवृत्तिकरण कहिये. ए पहेलं करण, सर्वसंज्ञी पंचेंद्रीजीव अनन्तीवार करेछे.
हवे बीजं अपूर्वकरण कहेछे. ते एक कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिमाहेथी एक मुहूर्त अने अनादि मिथ्यात्व जे अनंतानुबंधीआनी चोकडी ते खपाववाने अज्ञान हेय ते छोडवू, अने ज्ञान उपादेय एटले आदरवू, ए वांछारूप अपूर्व कहेतां पहेलां क्यारे न आव्यो एवो जे परिणाम ते अपूर्व करण कहीये, ए बीजं करण ते समकितयोग्य जीवने थाय.
हवे त्रीजु अनिवृत्ति करण कहेछे. ते मुहूर्तरूप स्थिति खपावीने निर्मल शुद्ध समकित पामे मिथ्यात्वनो उदय मटे त्यारे जीव उपशम समकित पामे, एवो जे परिणाम ते अनिवृत्ति करण कहिये.ए करण कीधाथी गंठीभेद थयो कहीए. उक्तञ्च
आवश्यकनियुक्तौ " जा गंठी ता पढमं । गंठीसमय छेओ भवेबीओ ॥ अनिअट्टिकरणं पुण । समत्तपुरक्खडेजीवे ॥१॥ ऊसर देसं दबिल्लियं च । विज्जाइ वणदवो पप्प ॥ मिच्छत्तस्साणुदए । उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥ २ ॥ एम मिथ्यात्वनो उदय मट्याथी जीव समकित पामे, ते समकितनी सद्दहणाना बे भेद छे, एक व्यवहार समकित सद्दहणा, बीजी निश्चय समकित सदहणा.
देवश्रीअरिहंत देवाधिदेव, अने गुरु सुसाधु जे सूधो अर्थ कहे ते, तथा धर्म केवलीनो प्ररुप्यो जे आगममां सातनय तथा एक प्रत्यक्ष बीजुं परोक्ष ए बे प्रमाण अने चार निक्षेपेकरी सद्दहे, एवी सद्दहणा ते व्यवहार समकित कहिये. ए पुण्यनुं कारण तथा धर्म प्रगट करवानुं कारण छे एवी रुचि ज्ञानविना पण घणा जीवाने उपजे.
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my
आगमसार.
बीजुं निश्चयसमकित ते आवी रीते जे निश्चय देव ते आपणोज आत्मा जीव निष्पन्नस्वरूपी सिद्ध ते संग्रहनयनी - सत्ता गवेषतां, तथा निश्चयगुरु ते पण आपणो आत्माज तत्वरमणी, अने निश्चयधर्म ते आपणा जीवनो स्वभावज छे एवी सहहणा ते मोक्षनुं कारण छे केमके जीव स्वरूप ओलख्या विना कर्मखपे नहीं एवी शुद्ध सहहणा ते निश्चयसमकित .
३
हवे ज्ञाननुं स्वरूप कहेछे ते ज्ञानना बे भेदछे. एक व्यवहारज्ञान, वीजुं निश्चयज्ञान, तेमां जे अन्यमतिनां सर्वशास्त्र जाणवां. अथवा जैनागममध्ये कह्या जे एकगणितानुयोग ते क्षेत्रमान, बीजो चरणकरणानुयोग ते क्रियाविधि, त्रीजो धर्मकथानुयोग ए त्रण अनुयोगनुं जाणवापणं ते सर्व व्यव - हारज्ञान छे अथवा अन्तरउपयोगविना जे सूत्रना अर्थ करवा ते पण व्यवहारज्ञान कहियें.
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हवे निश्चयज्ञान ते छ द्रव्य तथा तेना गुण अने पर्याय सर्वने जाणे तेमां पांच अजीव द्रव्यछे ते हेय-कहेतां छांडवायोग्य जाणी छांडवा, अने एक जीवद्रव्य ते निश्वयेंकरी सिद्धसमान मोक्षमयी मोक्षनो जागनार मोक्षनुं कारण मोक्षनोजावावालो मोक्षमांज रहे छे एहवो आपणो जीव अनंतगुणी अरूपीछे तेनेज ध्यावे ते निश्चयज्ञान कहियें.
हवे एकधर्मास्तिकाय, बीजो अधर्मास्तिकाय, त्रीजो आकाशास्तिकाय, चोथो पुद्गलास्तिकाय, पांचमो जीवास्तिकाय, अने छठ्ठो काल ए छ द्रव्य शाश्वताछे. तेनुं ज्ञान कहे छे. ए छ द्रव्य मध्ये पांच अजीव द्रव्यछे अने एक जीव द्रव्य ते चेतनालक्षणवंतछे, उपादेयछे.
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हवे ए छ द्रव्यना गुण कहेछे. पहेलो धर्मास्तिकायना चार गुण एक अरूपी, बीजो अचेतन, बीजो अक्रिय, चोथों गतिसहायगुण. बीजा अधर्मास्तिकायना पण चार गुणछे. एक अरूपी, बीजो अचेतन, त्रीजो अक्रिय, अने चोथो स्थितिसहायगुण. त्रीजा आकाशास्तिकायद्रव्यना चार गुणछे. एक अरूपी, बीजो अचेतन, त्रीजो अक्रिय, चोथो अवगाहना दानगुण. हवे कालद्रव्यना चार गुण कहेछे. एक अरूपी, बीजो अचेतन, त्रीजो अक्रिय, चोथो नवापुराणवर्त्तनालक्षण. हवे पुद्गलद्रव्यना चार गुण कहेछे. एकरुपी, बीजो अचेतन, त्रीजो सक्रिय चोथो मिलणविखरणरूप पूरणगलन गुण हवे जीवद्रव्यना चार गुण कहेछे. एक अनंतज्ञान, बीजो अनंतदर्शन, त्रीजो अनन्तचारित्र, चोथो अनंतवीर्य, ए छ द्रव्यना गुण कह्या ते नित्यनुवछे.
हवे छ द्रव्यना पर्याय कहेछे. धर्मास्तिकायना चार पर्यायछे. एक खंध, बीजो देश, जो प्रदेश, चोथो अगुरुलघु. अधमस्तिकायना चार पर्याय. एक खंध, बीजो देश, त्रीजो प्रदेश चोथो अगुरुलघुः पुद्गल द्रव्यना चार पर्याय. एक वर्ण, बीजो गंध, बीजो रस, चोथो स्पर्श अगुरुलघुसहित; तथा आकाशास्तिकायना चार पर्याय. एक खंध, बीजो देश, त्रीजो प्रदेश, चोथो अंगुरुलघुः कालद्रव्यना चार पर्याय. एक अतीत काल, बीजो अनागत काल बीजो वर्तमान काल, चोथो अगुरुलवुः अने जीव द्रव्यना चार पर्याय. एक अव्याबाध, बीजो अनवगाह, त्रीजो अमूर्तिक, चोथो अगरुलघु ए छ द्रव्यनापर्याय कद्या.
छ द्रव्यनागुणपर्यावनुं साधर्म्यपणं कहेछे. अगुरु लघुपर्याय सर्वद्रव्यमां सरीखो छे अने अरूपीगुण पांच द्रव्यमां
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छे. एक पुद्रलद्रव्यमां नथी; तथा अचेतनगुण पांच द्रव्यमांछे. एक जीवद्रव्यमां नथी, अने सक्रियगुण जीव तथा पुद्गल ए बे द्रव्यमांछे. बाकी चारद्रव्यमा नथी; तथा चलणसहायगुण एक धर्मास्तिकायमांछे, बीजा पांच द्रव्यमां नथी; वली स्थिरसहायगुण एक अधर्मास्तिकायमां छे. बीजा पांच द्रव्यमां नथी; तथा अवगाहनागुण ते एक आकाशद्रव्यमांछे, बीजा पांच द्रव्यमां नयी; अने वर्तनागुण ते एक कालद्रव्यमांजछे, बीजा पांच द्रव्यमां नथी; तेमज मिलणविखरणगुण ते पुद्गलमांछे, बीजा द्रव्यमां नथी तथा ज्ञान-चेतना गुण ते एक जीव द्रव्यमां छे, पण बीजाद्रव्यमां नथी. ए मूलगुण कोइ द्रव्यना कोइ द्रव्यमां मिले नहीं. एक धर्म, बीजो अधर्म, वीजो आकाश, ए त्रण द्रव्यना त्रण गुण तथा चार पर्याय सरिखाछे अने त्रण गुणें करी तो कालद्रव्य पण ए समान छे.
___ हवे वली अग्यार बोले करी छद्रव्यना गुणजाणवाने गाथा कहेछे.
परिणामि जीव मुत्ता, सपएसा एग खित्त किरिआय निच्चं कारण कत्ता, सव्वगय इयर अप्पवेसे । १।
अर्थ-निश्चयनयथी आप आपणा स्वभावे छए द्रव्य परिणामी छे अने व्यवहारनयथी जीव तथा पुद्गल ए बे द्रव्य परिणामी छे तथा एक धर्म, बीजो अधर्म, त्रीजो आकाश अने चोथो काल, ए चार द्रव्य अपरिणामी छे. तथा छ द्रव्यमां एकजीव द्रव्य ते जीवछे, बीजा पांच द्रव्य अजीव छे तथा छ द्रव्यमां एक पुद्गल मूर्तिवन्त रूपी छे अने पांच द्रव्य अमूर्तिमंत अरूपी छे. छ द्रव्यमां पांच द्रव्य सप्रदेशी छे, अने एककाल द्रव्य अप्रदेशीछे. तेमां एक धर्मास्तिकाय. बीजो अधर्मा
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स्तिकाय ए बे द्रव्य असंख्यात प्रदेशी छे अने एक आकाशद्रव्य अनंतप्रदेशीछे. जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशीछे, पुद्गलपरमामाणु * अनंतप्रदेशी छे, परमाणुआ अनंताळे एम पांच द्रव्य सप्रदेशीछे अने छठ्ठो काल अप्रदेशी छे.
छ द्रव्यमां एकधर्मास्तिकाय, बीजो अधर्मास्तिकाय, त्रीजो आकाशास्तिकाय ए ऋण ते एकेक द्रव्यछे, तथा एक जीवद्रव्य बीजो पुद्गलद्रव्य श्रीजो कालद्रव्य ए त्रण द्रव्य अनेकअनेकछे, छ द्रव्यमां एक आकाशद्रव्य क्षेत्रछे, अने बीजां पांच द्रव्य क्षेत्रीछे; निश्चयनयथी छ द्रव्य पोतपोताना कार्ये सदा प्रवछे माटे सक्रियछे; अने व्यवहारनययी जीव तथा पुद्गल ए बे द्रव्य सक्रियछे, तेमां पण पुद्गल सदा सक्रियछे, अने जीव द्रव्यतो संसारी थको सक्रियछे; पण सिद्धअवस्थायें थको संसारी क्रिया करवाने अक्रिय छे; तथा बाकीना चार द्रव्य तो अक्रियछे; निश्चयनयथी छ द्रव्य नित्यछे. ध्रुवछे; अमे उत्पादव्ययेंकरी अनित्यपणे पण छे तथा व्यवहारनयें जीव अने पुगल ए बे द्रव्य अनित्यछे, बाकीना चार द्रव्य नित्यछे, यद्यपि उत्पादव्ययध्रुवपणे सर्व पदार्थ परिणमेछे तोपण एक धर्म, बीजो अधर्म, त्रीजो आकाश, चोथो काल, ए चार द्रव्य सदा अवस्थितछे ते माटे नित्य कद्यां.
छ द्रव्यमां एक जीव द्रव्य अकारण छे अने पांच द्रव्य कारण छे. केमके पांचे द्रव्य जीवने भोगमां आवे छे माटे कारण कहिये. केमके धर्मास्तिकाय चालवानो साह्य आपे छे. अधर्मास्तिकाय freeहेवान साह्य आपे छे. आकाशास्तिकाय अवकाश आपे छे. पुद्गलास्तिकाय जीवने मधुरादि, सुरभिगंधादिक तथा सकोमल स्पर्शादिक भोगपणे थाय छे तथा कालद्रव्य ते जीवने जरा, बाल, * पुद्गलास्तिकायना स्कन्धो पर्यायो अनन्तप्रदेशी छे.
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तारुण्य अवस्था दिएछे, तथा अनादि संसारी जीव भवस्थिति परिपाक छतां एक अंतर्मुहूर्तकालमां सकलकर्म निर्जरी मोक्ष पहोंचे तिहां सिद्ध अवस्थायें अनंतोकाल पर्यंत जीव अनंता सुखने विलसे माटे कालद्रव्य पण जीवने भोग थाय छे. पण एक जीव द्रव्य कोइने भोग आवतो नथी माटे अकारण कयुं अने पांच द्रव्य भोग आवे माटे कारण कह्यां तथा घणी प्रतोमां तो संक्षेपे एटलुं छे जे छ द्रव्यमा एक जीव द्रव्य कारण छे. पांच द्रव्य अकारणछे ए पण वात घणीरीते मलतीछे. माटे जे बहुश्रुत कहे ते खरं. मारी धारणा प्रमाणे जीवद्रव्य कारण अने पांच द्रव्य अकारण एम संभवे छे” निश्चयनयथी छए द्रव्य कर्ताछे अने व्यवहारनयें एक जीवद्रव्य कर्ताछे. बाकी पांचद्रव्य अकर्ता छे. छद्रव्यमां एक आकाशद्रव्य सर्वव्यापी छे. अने पांचद्रव्य लोक व्यापी छे. छए एक खेत्रमा एकठा रह्यां छे पण एक बीजा साथे मली जाय नहीं ए छ द्रव्यनो विचार कयो.
हवे एकेका द्रव्यमां एक नित्य, बीजो अनित्य त्रीजो एक चोथो अनेक, पांचमो सत्, छठ्ठो असत्, सातमो वक्तव्य, आठमो अवक्तव्य, ए आठ आठ पक्ष कहेछे.
धर्मास्तिकायना चार गुण नित्यछे तथा पर्यायमां धर्मास्तिकायनो एक खंध नित्यछे. बाकीना देश प्रदेश तथा अगुरुलघु पर्याय अनित्यछे. अधर्मास्तिकायना चार गुण तथा एक लोकप्रमाण खंध नित्यछे अने एक देश, बीजो प्रदेश, बीजो अगुरुलघु ए त्रण पर्याय अनित्यछे. तथा आकाशास्तिकायना चार गुण तथा लोकालोकप्रमाणबंध नित्यछे अने एक देश, बीजो प्रदेश. त्रीजो अगुरुलधु ए त्रण पर्याय अनित्यछे. तथा कालद्रव्यना चार गुण नित्यछे अने चार पर्याय अनित्यछे. पुद्गल द्रव्यना चार गुण नित्य
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अने चार पर्याय अनित्यछे. जीवद्रव्यना चारगुण तथा ऋण पर्यायनित्यछे अने एक अगुरुलधु पर्याय अनित्य छे. ए रीते नित्यानित्यपक्ष कयो.
हवे एक अनेकपक्ष कहे छे. एक धर्मास्तिकाय बीजो अधर्मास्तिकाय. ए बे द्रव्यनो खंध लोकाकाशप्रमाण एक छे अने गुण अनंताछे. पर्यायअनंताछे. प्रदेश असंख्याताछे, तेणेकरी अनेकछे, आकाशद्रव्यनो लोकालोकप्रमाणंखध एकछे अने गुण अनंताछे. पर्याय अनंताछे. प्रदेशअनंताछे माटे अनेकछे, काल द्रव्यनो वर्तनारूप गुण एकछे अने गुण अनंताछे, पर्याय अनंता छे, केमके समय अनंताछे. अतीत काले अनंतासमय गया अने अनागतकाले अनंता समय आवशे. तथा वर्तमानकाले समय एक छे माटे अनेकपक्षछे. पुद्गलद्रव्यना परमाणु अनंताछे ते एकेक परमाणुमां अनंतागुण पर्यायछे. ते अनेकप'छे अने सर्व परमागुमां पुद्गलपणुं ते एकज छे माटे एक छे.
जीवद्रव्य अनंताछे. एकेका जीवमा प्रदेश असंख्याताछे तथा गुण अनंताछे. पर्याय अनंताछे ते अनेकपणुं छे पण जीवितव्यपणुं सर्वजीवोनुं एकसरीखंछे माटे एकपणुं छे. इहां शिष्य पुछे छे जे सर्व जीव एक सरीखा छे तो मोक्षनाजीव सिद्ध परमानंदमयी देखायछे अने संसारीजीव कर्मवश पड्या दुःखी देखाय छे अने ते सर्व जुदाजुदा देखाय छे ते केम ? तेहने गुरु उत्तर कहे छे के निश्चयनये तो जीव सिद्ध समान छे माटेज सर्व जीव कर्म खपावीने सिद्ध थाय छे तेयी सर्व जीवनी सत्ता एकछे.
फरि शिष्य पुछे छे के जो सर्व जीव सिद्ध समान कहोछो तो अभव्य जीव पण सिद्ध समान छे. एम ठेरथु (ठयु) अने
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ते तो मोक्षे जता नथी, तेहने उत्तर जे अभव्यने कर्म चीकणां छे अने अभव्यमां परावर्त्त धर्म नथी तेथी सिद्ध थता नथी माटे तेनो एहवोज स्वभावछे जे मोक्षे जपुंज नयी अने भव्यजीवां परावर्त्त धर्म छे भाटे कारण सामग्री मिले पलटण पामे गुणश्रेणि चढी मोझें करी सिद्ध थाय पण जीवना मुख्य आठ रुचक प्रदेश जे छे ते निश्चयनयथी भव्य तथा अभव्य सर्वना सिद्ध समान छे माटे सर्व जीवनी सत्ता एक सरीखी छे केमके ए आठ प्रदेशने बिलकुल कर्म लागतां नथी ते " श्री आचारांग सूत्रनी श्री सिलांगाचार्य कृत टीकाना लोकविजयाध्ययने प्रथमोद्देश साख छे तिहांयी सविस्तरपणे जोवुं.” पक्ष कहेछे. ए छ द्रव्य ते स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, अने स्वभावपणे सत् एटले छता छे अने परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल तथा परभावपणे असत एटले अछता छे तेनी रीत बताववाने अर्थे छए द्रव्यना द्रव्य क्षेत्र काल भाव कहिये छैंये.
तथा
धर्मास्तिकायनो मूलगुण चलण सहायपणो ते स्वद्रव्य, अधर्मास्तिकायनो मूलगुण स्थिति सहायपणो ते स्वद्रव्य, आकाशास्तिकायनो मूल गुण अवगाहपणो ते स्वद्रव्य, कालद्रव्यनो मूल गुण वर्त्तनालक्षण पणो ते स्वद्रव्य, तथा पुद्गलनो मूलगुण पुरणगलनपणो ते स्वद्रव्य अने जीवद्रव्यनो मूलगुण ज्ञानादिक चेतनालक्षणपणो ते स्वद्रव्य ए छद्रव्यनोस्वद्रव्यपणो को.
हवे स्वक्षेत्र ते द्रव्यनो प्रदेशपणो छे ते देखाडे छे. तिहां एकधर्मास्तिकाय, बीजो अधर्मास्तिकाय. ए बे द्रव्यनो स्वक्षेत्र असंख्यात प्रदेश छे अने आकाशद्रव्यनो स्वक्षेत्र अनंत प्रदेश छे. कालद्रव्यनो स्वक्षेत्र समय छे. पुद्गलद्रव्यनो स्वक्षेत्र एक पर
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माणछे ते परमाणु अनंताछे. जीवद्रव्यनो स्वक्षेत्र एक जीवना असंख्याता प्रदेशछे.
हवे स्वकाल ते छए द्रव्यमां अगुरुलघुनोज छे अने ए छ द्रव्यना पोतपोताना गुण पर्यायते सर्व द्रव्यनो स्वभाव जाणवो. एटले धर्मास्तिकायमां पोतानाज द्रव्य क्षेत्र काल भावछे पण बीजा पांच द्रव्यना नथी. तथा अधर्मास्तिकाय द्रव्य मध्ये पण स्वद्रव्यादिक चार छे. पण बीजा पांच द्रव्यना नथी. एमज आकाशास्तिकायने विषे आकाशनाज स्वद्रव्यादिक चार छे पण बीजा पांच द्रव्यना नथी. कालद्रव्यमां कालनाद्रव्यादिक चार छे बीजा पांच द्रव्यना नथी अने पुद्गलना द्रव्यादिक चार ते पुद्गलमांज छे पण बीजा पांच द्रव्यना नथी तथा जीव द्रव्यना स्वद्रव्यादिक चार ते जीवमा छे पण बीजा पांच द्रव्यना नथी. ___ जे द्रव्य ते गुण पर्यायवंत द्रव्यथी अभेदपर्याय होय ते द्रव्य कहियें तथा स्वधर्मनो आधाखंतपणो ते क्षेत्र कहिये अने उत्पाद व्ययनीवर्तना ते काल कहिये तथा विशेष गुण परिणति स्वभाव परिणति पर्याय प्रमुख ते स्वभाव कहिये.
इहां १ भेद स्वभाव, २ अभेदस्वभाव ३ भव्यस्वभाव. ४ अभव्यस्वभाव. ५ परमस्वभाव. ए पांच स्वभाव कहेवा. तेमां द्रव्यना सर्व धर्मने पोतपोताना स्वस्वकार्यने करवे करी भेद स्वभाव छे अने अवस्थान पणे अभेद स्वभाव छे. अणपलटण स्वभावे अभव्य स्वभाव छे. तथा पलटण स्वभावे भव्य स्वभाव छे अने द्रव्यना सर्व धर्म ते विशेष धर्मने अनुयायीज परिणमे ते माटे ते परम स्वभाव कहियें. ए सामान्य स्वभाव जाणवा ए रीते छए द्रव्य स्वगुणे सत् छे अने परगुणे असत् छे.
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हवे वक्तव्य तथा अवक्तव्य पक्ष कहेछे. ए छ द्रव्यमां अनंता गुण पर्याय ते वक्तव्य एटले वचने कहेवा योग्य छे अने अनंता गुण पर्याय ते अवक्तव्य एटले वचने कह्या जाय नहीं एवा छे. तिहां केवली भगवते समस्त भाव दीठा तेने अनंतमे भागे जे वक्तव्य एटले कहेवा योग्य हता ते कडा वली तेनो पण अनंतमो भाग श्रीगणधर देवे सूत्रमा गुंथ्यो ते सूत्रमा गुंथ्या ते ने असंख्यातमे भागे हमणां आगम रह्यां छे ए छ द्रव्यमां आठपक्ष कह्या.
हवे नित्य तथा अनित्य पक्षयी चौभंगी उपनी ते कहे छे एक जेनी आदि नथी अने अंत पण नथी ते अनादि अनंत पहेलो भांगो अने जेनी आदि नथी पण अंत छे ते अनादि सांत बीजो भांगो तथा जेनी आदि पण छे अने अंत एटले छेहेडो पण छे ते सादि सांत बीजो भांगो वली जेहने आदि छे पण अंत नथी ते सादि अनंत नामे चोयो भांगो जाणवो.
हवे ए चार भांगा छ द्रव्यमां फलावी देखाडे छे. जीव द्रव्यमा ज्ञानादिक गुण ते अनादि अनंत छ नित्य छ, अने भव्य जीवने कर्म साथे संबंध तथा संसारीपणानी आदि नथी पण सिद्ध थाय तेवारे अंत आव्यो तेथी ए अनादि सांत भांगो छे, अने देवता तथा नारकी प्रमुखना भव करवा ते सादिसांत भांगो छे, अने जे जीव कर्म खपावी मोक्ष गया तेनी सिद्धपणे आदिछे अने पाछो संसारमा कोइ काले आवq नथी माटे अंत नथी तेथी ए सादि अनंत मांगो छे. ए जीव द्रव्यमांचौभंगी कही. जीव द्रव्यना चार गुण अनादि अनंतछे. जीवने कर्म साथे संयोग ते अनादि सांतछे केमके केवारे पण कर्म छुटे छे.
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हवे धर्मास्तिकायमां चार गुण तथा खंधपणो ते अनादि अनंतछे अने अनादि सांत भांगो नथी तथा १ देश २ प्रदेश ३ अगुरुलघु ए सादि सांत भांगोछे. तथा सिद्धना जीवमां धर्मास्तिकायना जे प्रदेश रह्या छे ते प्रदेश आश्रयीने सादि अनंत भांगोछे वीज रीते अधर्मास्तिकायमां पण चौभंगी जाणवी अने आकाश द्रव्यमां गुण तथा खंध अनादि अनंतछे बीजो भांगो नथी अने १ देश २ प्रदेश तथा ३ अगुरु लघु सादि सांतछे तथा सिद्धना जीवनी साथे संबंध ते सादि
अनंत छे. ___पुद्गल द्रव्यमां गुण अनादि अनंतछे. जीवपुद्गलनो संबन्ध अभव्य ने अनादि अनंतछे. भव्य जीवने अनादि सांतछे पुद्गलना खंध सर्व सादि सांतछे जे खंध बांध्या ते स्थिति प्रमाणे रही खरेछे वली नवा बंधायछे माटे सादि अनंत भांगो पुद्गलमा नथी. ... कालद्रव्यमां गुण चार अनादि अनंतछे पर्यायमां अतीत काल अनादि सांत छे अने वर्तमानकाल सादि सांत छे. अनागतकाल सादि अनंत छे. ए कालनुं स्वरूप ते सर्व उपचास्थी छे. ए रीत काल द्रव्यमा चौभंगी कही. . हवे द्रव्य क्षेत्र काल तथा भावमां चौभंगी कहे छे. जीव द्रव्यमा स्वद्रव्यथी ज्ञानादिक गुण ते अनादि अनंत छे. स्वक्षेत्रे जीवना प्रदेश असंख्याता छे ते सादि सांत छे ततोरर्तनापणे फरे छे ते माटे अथवा अवगाहना माटे सादि सांत छे पण छती पणे तो अनादि अनंत छे. स्वकाल अगुरु लघुने गुणे अनादि अनंत छे अने अगुरु लघु गुणनो उपजवो
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तथा विणशवो ते सादि सांत छे. तथा स्वभाव गुण पर्याय ते अनादि अनंत छे अने भेदान्तरे अगुरुलघु ते सादि सांत छे.
धर्मास्तिकायमा स्वद्रव्य जे चलण सहाय गुण ते अनादि अनंत छे अने स्वक्षेत्र असंख्यात प्रदेश लोक प्रमाण छे ते अवगाहनापणे सादि सांत छे. स्वकाल ते अगुरुलघु गुणे करी अनादि अनंत छे अने उत्पाद व्यय ते सादि सांत छे. स्वभाव ते चार गुण अगुरुलघु अनादि अनंत छे १ खंध २ देश ३ प्रदेश ते अवगाहनाने प्रमाणे सादि सांत छे एम अधर्मास्तिकायना पण द्रव्यादि चार भांगा जाणवा तथा आकाशास्तिकायमां स्वद्रव्य अवगाहनादान गुण ते अनादि अनंत छे अने स्वक्षेत्र लोकालोक प्रमाण अनंत प्रदेश ते अनादि अनंत छे. स्वकाल ते अगुरुलघुगुण सर्वथापणे अनादि अनंतछे अने उपजवे तथा विणसवे सादि सांत छे. स्वभाव ते चार गुण तथा खंध अने अगुरुलघु ते अनादि अनंत छे तथा देश प्रदेश ते सादि सांत छे ते आकाश द्रव्यना बे भेद छे एक चौदराज लोकनो खंध लोकाकाश ते सादि सांत छे बीजो अलोकाकाशनो खंध ते सादि अनंत छे. *
काल द्रव्यमा स्वद्रव्य जे नव पुराणवर्त्तना गुण ते अनादि अनंतछे स्वक्षेत्र समय काल ते आदि सांत छे केमके वर्तमान
* उदराज लोकनो खंध लोकाकाश सादि सांत छे ते आवी तें जे लोकना मध्यभागे आठ रुचक प्रदेशथी मांडीने सादि छे जिहां उदराज लोकनो अंत आवे तिहां सांत तथा चउदराज लोकनो छेलो प्रदेश मूकीने पछे अलोकनी आदि लेवी पण अलोकनो अंत नथी माटे सादि अनंत कां छे.
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समय एकछे ते माटे. तथा स्वकाल ते अनादि अनंत छे. स्वभाव ते गुण चार अने अगुरुलघु अनादि अनंतछे. अतीत काल अनादि सांत छे अने वर्तमानकाल सादि सांत छे अनागत काल सादि अनंत छे.
. पुद्गल द्रव्यमा स्वद्रव्य ते द्रव्यपणे जे पूरणगलन धर्म ते अनादि अनन्त छे अने स्वक्षेत्र परमाणु ते सादि सांत छे. स्वकाल स्थिति अगुरुलधु गुण ते अनादि अनंत छे. अगुरुलघुनो उपजवो विणशवो ते सादि सांत छे. स्वभावते गुण चार अनादि अनंत छे. वर्णादि पर्याय चार एटले वर्ण गंध रस स्पर्श ते सादि सांत छे. ए द्रव्यादि चारमा चौभंगी कही. - हवे छ द्रव्यना संबन्ध आश्री चौभंगी कहे छे, तिहां प्रथम आकाश द्रव्य छे तेमां अलोकाकाशमां कोइ द्रव्य नथी, अने लोकाकाशमा छ द्रव्य छ, तिहां लोकाकाश द्रव्य तथा बीजुं धर्मास्तिकाय द्रव्य अने त्रीजं अधर्मास्तिकाय द्रव्य ते अनादि अनंत संबंधी छे जे लोकाकाशना एकेक प्रदेशमां धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्यनो एकेक प्रदेश रह्यो छे ते पण किवारे विछडसे नहीं माटे अनादि अनंत संबंधी छे. आकाश खेत्र लोक सर्व अने जीव द्रव्यनो अनादि अनंत संबंध छे, अने संसारी जीव कर्म सहित तथा लोकना प्रदेशनो सादि सांत संबन्ध छे. लोकांत सिद्धक्षेत्रना सिद्ध जीवोनो आकाश प्रदेश साथै सादि अनंत संबन्ध छे, लोकाकाश अने पुद्गल द्रव्यनो अनादि अनंत संबन्ध छे. आकाश प्रदेशनी साथे पुद्गल परमाणुनो सादि सांत संबन्ध छे. एम आकाश द्रव्यनी परे धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकायनो पण सर्व संबन्ध जाणवो. जीव अने पुद्गलना संबंधमां अभव्य जीवने पुद्गलनो अनादि अनंत
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संबंध छे केमके अभव्य जीवनां कर्म किवारें ख़पशे नही माटे, अने भव्य जीवने कर्मनुं लागं अनादि कालनुं छे पण ते किवारेक छुटशे माटे भव्य जीवने पुद्गल संबंध अनादि सांत छे तथा निश्चय नयेकरी छ द्रव्य स्वभाव परिणाम परिणम्या छे ते परिणामीपणो सदा शाश्वतो छे ते माटे अनादि अनंत छे अने जीव तथा पुद्गल बेहु द्रव्य मलि संबंध भाव पामे छे ते पर परिणामीपणो छे ते परपरिणामिपणो अभव्य जीवने अनादि अनंत छे अने भव्य जीवने अनादि सांत छे अने पुद्गलनो परिणामी पण ते सत्ता अनादि अनंत छे अने पुद्गलनो मिलवो विछडवो ते सादि सांत छे एटले जीव द्रव्य पुद्गल साथै मिल्यो सक्रिय छे अने पुल कर्मयी रहित थाय तेवारें जीव द्रव्य अक्रिय छे अने पुल द्रव्य सदा सक्रिय छे.
हवे एक, अनेक पक्षी निश्चय ज्ञान कहेवाने नय कहे छे, सर्व द्रव्यमां अनेक स्वभाव छे, ते एक वचनयी कहा जाय नहीं माटे मांहोमांहे नय करी संक्षेप पणे कहे छे, तिहां मूल नयना बे भेद छे एक द्रव्यार्थिक बीजो पर्यायार्थिक तेमां उत्पाद व्यय पर्याय गौण पणे अने प्रधानपणे द्रव्यनो गुण सत्ताने ग्रहे ते द्रव्यार्थिक नय कहियें तेना दश भेद छे १ सर्व द्रव्य नित्य छे ते नित्य द्रव्यार्थिक २ अगुरु लघु अने खेत्रनी अपेक्षा न करे मूल गुणने पिंडपणे ग्रहे ते एक द्रव्यार्थिक ३ ज्ञानादिक गुणे सर्व जीव एक सरीखा छे माटे सर्वने एक जीव कहे स्वद्रव्यादिकने ग्रहे ते सत् द्रव्यार्थिक. जेम सल्लक्षणं द्रव्यं ४ द्रव्यमां कहेवा योग्य गुण अंगीकार करे ते वक्तव्य द्रव्यार्थिक ५ आत्माने 'अज्ञानी कहेवो ते अशुद्ध द्रव्यार्थिक ६ सर्व द्रव्य गुण पर्याय सहित
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छ एम कहेवू ते अन्वय द्रव्यार्थिक ७ सर्व जीव द्रव्यनी मूल सत्ता एक छे ते परमद्रव्यार्थिक नय ८ सर्व जीवना आठ प्रदेश निर्मल छे ते शुद्ध द्रव्यार्थिक नय ९ सर्व जीवना असंख्यात प्रदेश एक सरीखा छे ते सत्ता द्रव्यार्थिक नय, १० गुणगुणी द्रव्य ते एक छे ते परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक. जेम आत्मा ज्ञानरूप छे. इत्यादिक ए द्रव्यार्थिक नयना दश भेद कह्या.
हवे पर्यायार्थिक नयना छ भेद कहे छे जे पर्यायने रहे ते पर्यायार्थिक नय कहिये, तेना छ भेद छे १ द्रव्य पर्याय ते जीवने भव्यपणुं तथा सिद्धपणुं कहेवं, २ द्रव्य व्यंजन पर्याय ते द्रव्यनुं प्रदेशमान, ३ गुण पर्याय जे एक गुणथी अनेकता थाय जेम धर्माधर्मादिद्रव्य पोताना चलण सहकारादि गुणथी अनेक जीव तथा पुद्गलने सहाय करे, ४ गुण व्यंजन पर्याय जे एक गुणना घणा भेद छे ५ स्वभाव पर्याय ते अगुरुलघु पर्यायथी जाणवो. ए पांच पर्याय सर्व द्रव्यमां छे अने छठ्ठो विभाव पर्याय ते जीव पुद्गल ए बे द्रव्यमांछे तिहां जीव जे चार गतिना नवा नवा भव करे ते जीवमां विभाव पर्याय तथा पुद्गलमा खंधपणुं ते विभाव पर्याय जाणवो.
हवे पर्यायना बीजा छ भेद कहे छे १ अनादि नित्य पर्याय ते जेम पुद्गल द्रव्यनो मेरु प्रमुख, २ सादि नित्य पर्याय ते जीव द्रव्य, सिद्धपणं, ३ अनित्य पर्याय ते समय समयमां द्रव्य उपजे विणशे छे, ४ अशुद्ध अनित्य पर्याय ते जन्म मरण थाय छे तेणे करी कहेवू, ५ उपाधि पर्याय ते कर्म संबंध, ६ शुद्ध पर्याय जे मूल पर्याय सर्व द्रव्यना एक सरीखा छे ए पर्यायार्थिक स्वरूप कह्यु,
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हवे सात नय कहे छे १ नैगम, २ संगृह, ३ व्यवहार, ४ रुजु सूत्र, ५ शब्द. ६ समभिरुढ, ७ एवं भूत- ए सात नयना नाम जाणवां, तेमां पहेलो नैगम नय कहे छे. नथी एक गमो ते नैगम कहियें. गुणनो एक अंश उपन्यो होय तो नैगमनय कहियें. दृष्टान्त जेम कोइक मनुष्यने पाली लाववानो मन थयो, ते वारें जंगलमां लाकडं लेबा चाल्यो, रस्तामा कोइक मनुष्य मल्यो तेणें पूळयुं तुं क्यां जाय छे ते वारे तेणें कहां जे पाठी लेवा जाउं छं. ते पाली तो हजी घडी नयी पण मनमां चिंतवी ते थइ एम गण्युं तेम नैगम नय, सर्व जीवने सिद्ध समान कहे, केमके सर्व जीवना आठ रुचक प्रदेश निर्मल सिद्ध रूप छे तेथी एक अंशें सिद्ध छे ते माटे सिद्ध समान सर्व जीव कह्या. ते नैगम नयना ॠण भेद छे १ अतीत नैगम २ अनागत नैगम ३: वर्तमान नैगम, ए. नैगम नय को.
हवे संग्रह नय कहे छे. सत्ताग्रहे ते संग्रह. जे एक नाम Bharat सर्व गुण पर्याय परिवार सहित आवे ते संग्रह नय जाणवो. तेनो दृष्टान्त-जेम कोइक मनुष्ये प्रभातें दातण करवाने अर्थ पोताना वरना बारणे बेशीने चाकर पुरुषने क जे दातण लइ आवो, तें वारें ते चाकर ममुष्य- पाणीनो लोटो तथा रुमाल अने दातण एम सर्व चीज लइ आव्यो. हवे शेठें तो एक दातण नाम लड़ने मंगाव्युं हतुं पण सर्वनो संग्रह करी चाकर लइ अन्यो तेमज द्रव्य एवं नाम कथं तो द्रव्यना गुण पर्याय सबै आव्या. ए संग्रह नयना बे भेद छे. एक जे द्रव्य पणो सामान्य पणे बोलतां जीव तथा अजीव द्रव्यनो भेद पड्यो नही ते पेहेलो सामान्य संग्रह, तथा बीजो
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विशेषताने अंगीकार करे छे, जे जीव द्रव्य एम कडं तो अजीव सर्व टल्या ते विशेष संग्रह.
हवे व्यवहार नय कहे छे. जे बाह्यस्वरूप देखीने भेदनी वेंहेचण करे अने जे बाहेर देखता गुणनेज माने पण अंतरंग सत्ता न माने एटले ए नयमां आचार क्रिया मुख्य छे. अंतरंग परिणामनो उपयोग नथी केमके नैगम तथा संग्रह नय ते ज्ञान रूप ध्यानना परिणाम विना अंश तथा सत्ता ग्राही छे तेम इहां करणी मुख्य छे ते व्यवहारनये (पणे) जीवनी व्यवस्था अनेक प्रकारें छे. तिहां नैगम तथा संग्रह नय करी सर्व जीव सत्तायें एक रूप छे पण व्यवहार नयथी जीवना बे भेद छे. एक सिद्ध, बीजा संसारी. ते वली संसारी जीवना बे भेद छे. एक अयोगी चौदमा गुणठाणावाला तथा बीजा सयोगी ते सयोगीना बे मेद एक केवली बीजो छद्मस्थ, छद्मस्थना बे भेद एक क्षीण मोही बारमा गुणठाणे वर्त्तता मोहनीय कर्म खपाव्युं ते, बीजो उपशान्तमोहते उपशान्त मोहना वली बे भेद एक अकषायी इग्यारमा गुणठाणना जीव; बीजा सकषायीना बे मेद छे, एक सूक्ष्म कषायी दशमा गुणठाणाना जीव बीजा बादर कषायी. ते बादर कषायीना वली बे भेद छे. एक श्रेणि प्रतिपन्न, बीजो श्रेणि रहित ते श्रेणी रहितना बे भेद. एक अप्रमादी बीजो प्रमादी ते प्रमादीना बे भेद एक सर्व विरति बीजो देश विरति, देश विरतिना बे भेद एक विरति परिणामि बीजा अविरति परिणामि, अविरतिना बे भेद एक अविरति समकीति बीजा अविरति मिथ्यात्वी, ते मिथ्यात्वीना बे भेद एक भव्य बीजा अभव्य, ते भव्यना बे भेद एक ग्रंथिभेदी बीजा ग्रंथी अभेदी (अभेद ग्रन्थि) एवी रीते जे जीव जेवो देखाय तेने
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तेवो माने ए व्यवहार नय छे एमज पुद्गलना भेद करवा ते कहे छे. पुद्गल द्रव्यना बे भेद छे एक परमाणु, बीजो खंध, खंधना बे भेद एक जीवने लागा ते जीव सहित बीजा जीव रहित ते बडो प्रमुख अजीवनो खंध, हवे जीव सहित खंधना बे भेद छे एक सूक्ष्म खंध बीजो बादर खंध.
इहां वर्गणानो विचार लखीये छैयें, तिहां पुद्गलनी वर्गणा आठछे १ औदारिक वर्गणा २ वैक्रिय वर्गणा ३ आहारक वर्गणा ४ तैजस वर्गणा ५ भाषा वर्गणा ६ श्वासोच्छ्वास वर्गणा७ मनो वर्गणा ८ कार्मण वर्गणा-ए आठ वर्गणानां नाम कह्यां. बे परमाणु मेला थाय त्यारे द्वयणुकखंध कहेवाय. त्रण परमाणु भेला थाय तेवारे श्यणुकखंध थाय. एम संख्याता परमाणु मिले संख्याताणुकखंध थाय, तेमज असंख्याते असंख्याताणुकखंध थाय, तथा अनंता परमाणु मिले अनंताणुकखंध थाय. ए खंध ते सर्व जीवने अग्रहण योग्य छे, अने जेवारे अभव्यथी अनंतगुण अधिक परमाणु भेला थाय तेवारें औदारिक शरीरने लेवा योग्य वर्गणा थाय.
एमज औदारिकथी अनंतगुणा अधिक वर्गणामां दल भेलां थाय तेवोरे वैक्रिय वर्गणा थाय, वली वैक्रिय थकी अनंतगुणा परमाणु मिले तेवारे आहारक वर्गणा थाय. एम सर्व वर्गणाना एकेकथी अनंतगुणा अधिक परमाणु मिले तेवारें ते वर्गणा थाय. एटले पहेलीथी बीजी वर्गणा, बीजीथी त्रीजी एम सातमी मनो वर्गणाथी आठमी कार्मण वर्गणामां अनंतगुण परमाणु अधिक छे. इहां १ औदारिक, २ वैक्रिय, ३ आहारक, ४ तैजस, ए चार वर्गणा बादर छे तेमां पांचवर्ण-बे गन्ध-पांच रस, आठ स्पर्श ए वीस गुण छे, तथा १ भाषा २ श्वासोच्छवास ३ मन ४ कार्मण ए
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चार वर्गणा सूक्ष्म छे एमां पांचवर्ण - बे गन्ध, पांचरस - चार स्पर्शए सोल गुण छे, अने एक परमाणुमा एक वर्ण - एक गंधएक रस-बे स्पर्श ए पांच गुण छे. एम पुद्गल खंधना अनेक भेद छे.
ए व्यवहार नयना छ भेद छे. १ शुद्ध व्यवहार ते आगला गुणठाणानुं छोडं अने उपरना गुणठाणानुं ग्रहण कर अथवा ज्ञान - दर्शन - चारित्र गुण ते निश्वयनय एकरूप छे. पण ते शिष्यने समजाववाने जूदा जूदा भेद कहेवा ते शुद्ध व्यवहार छे. २ जीवमां अज्ञान राग द्वेष लाग्या छे ते अशुद्धपणं छे माटे अशुद्ध व्यवहार. ३ जे पुण्यनी क्रिया करवी ते शुभ व्यवहार ४ जेथकी जीव पापरूप अशुभ कर्म करे ते ५ अशुभ व्यवहार. धन - घर - कुटुंब प्रत्यक्ष सर्व आपणाथी जुदा जुदा छे पण जीवें अज्ञानपणे आपणा करी जाण्या छे ते उपचरित व्यवहार. ६ शरीरादिक परवस्तु यद्यपि जीवथी जुदी छे तोपण परिणामिकभाव लोलीपणे एकठा मिली रह्या छे तेने जीव आपणा करी जाणे छे ते अनुपचरित व्यवहार जाणवो. ए व्यवहार नय को.
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हवे ऋजु सूत्र नयनो विचार कहे छे. जे अतीत काल अने अनगत कालनी अपेक्षा न करे पण वर्त्तमान काले जे वस्तु जेवा गुण परिणामे वर्त्ते ते वस्तुने तेवेज परिणामे माने माटे ए नय परिणामग्राही छे. जेम कोइक जीव गृहस्थ छे पण अंतरंग साधुसमान परिणाम छे तो ते जीवने साधु कहे अने कोइक जीव साबुने वेषे छे पण मनना परिणाम विषयाभिलाष सहित छे तो ते जीव अवतीज छे एम ऋज़ सूत्रं मानवुं छे. ते ऋजु सूत्रना बे भेद छे एक सूक्ष्म ऋजु सूत्र ते
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एम कहे जे सदाकाल सर्व वस्तुमा एक वर्तमान समय वर्ते छे एटले जे जीव गया काले अज्ञानी हतो अने अनागत कालें अज्ञानी भावें अज्ञानी थशे एम बेहु कालनी अपेक्षा न करे पण एक वर्तमान समये जे जेवो तेने तेवो कहे ते सूक्ष्म ऋजुसूत्र कहियें अने महोटा बाह्यपरिणाम ग्रहे ते स्थूल ऋजु सूत्र नय जाणवो. एटले रुजु 'सूत्र मय कयो.
हवे शब्दनय कहे छे. जे वस्तु गुणवंत अथवा निर्गुण ते वस्तुने नाम कही बोलावियें जे भाषा वर्गणाथी शब्द पणे वचन गोचर थाय ते शब्दनय जे कारणे अरूपी द्रव्य वंचनथी कहेवा ते शब्दनय कहिये इहां जे शदन्नो अर्थ होय ते पणो जे वस्तुमां वस्तुपणे पामिये ते बारे ते वस्तु शब्दनय कहिये जेम घटनी चेशने करतो होय ते घट. ए शब्दनयमां व्याकरणथी नीपना अने बीजा पण सर्व शब्द लीधा ते शब्दनयना चार भेद छ १ नाम २ स्थापना ३ द्रव्य ४ अने भाव चार निक्षेपामा पण एहिज नमि छे.
१ पहेलो नाम निक्षेपो ते आकार तथा गुणरहित बस्तुमे नाम करी बोलाववो. जेम एक लाकडीनो कटको लेइने कोइके तेहंने जीप ए, नाम कह्यं ते नाम जीव जाणवू. जेम काली दोरीने सापनी बुद्धिय करी धावेहणे तेहने सापनी हिंसा लागे ए नाम सपे थयु. एवीज रीते नाम तप अथवा माम सिद्ध जेम पड प्रमुखने सिंबड एम कही बोलावे छे ते नाम निक्षेपो कहिये ए सुत्र साखें छे.
२ स्थापना निक्षेपो कहे छे. जे कोईक वस्तुमां कोइक वस्तुनो आकार देखीने तेहने ते वस्तु कहे जेम चित्रामण अथवा काष्ट पाषाणनी मूर्ति तेने घोढा हाथीनो आकार छे तो ते
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घोडा-हाथी कहेवाय ते स्थापना जाणवी. ए स्थापना निक्षेपो नाम निक्षेपें सहित होय जेम स्थापना सिद्ध जिनप्रतिमा प्रमुख ते सद्भाव स्थापना पण होय अने असद्भाव स्थापना पण होय. अकृत्रिम जिन प्रतिमा ते नंदीश्वरद्वीप प्रमुखने विषे अने जेह इहांनी जिन प्रतिमा ते कृत्रिम ते सर्व स्थापना जाणवी. जेम चित्रामनी स्त्री जिहां मांडी होय तिहां साधु रहे नही. कारणके स्थापना स्त्री छे ते स्त्री तुल्य जाणवी तेमज जिन प्रतिमा जिन समान जाणवी. इहां कोइक अज्ञानी जीव कहे छे जे, स्थापनामां ज्ञानादि गुण नथी तेथी स्थापनाने मानवी पूजवी नही तेने उत्तर कहे छे के स्थापना रूप स्त्रीमां स्त्रीपणाना गुण नथी तो पण ते विकार- कारण थाय छे. तेमज जिनप्रतिमा पण ध्याननुं कारण छे अने जे एम पुछे के हिंसा थाय छे अने भगवंते तो दयाने धर्म कह्यो छे तेहने एम कहेवू जे परदेशी राजा केसी गुरुने वांदवाने अर्थे बीजे दीवसें मोहोटा आडंबरथी आव्यो ते वंदनामां हिंसा थइ पण लाभ कारण गणतां त्रोटो न थयो. बीजो मल्लिनाथजीयें छ मित्र प्रतिबोधवाने पुतलीनो दृष्टान्त कह्यो, ते हिंसा तो घणी थइ पण ते लाभना कारणमां गणी छे एम भाव शुद्ध होय तिहां हिंसा लागती नथी, अथवा कोइक एम. कहे छे जे अमे आपणे स्थानके बेठा नमुथ्थुणं कहिसु अमने लाभ थासे ते खरो पण भगवती सूत्रमां भगवानने वंदनाने अधिकारें तो तिहां जइ वंदना करखानुं फल महोडं कर्तुं छे तथा निक्षेपाने अधिकारें कडं जे भाव निक्षेपो एकलो थाय नही. पण नाम स्थापना तथा द्रव्य ए त्रण मिल्या भाव निक्षेपो थाय माटे स्थापना अवश्य मानवी. हवे जे स्थापना न माने तेने कहिये जे
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चित्रामनी मूर्ति ते हिंसाना परिणामयी फाडे तेहने हिंसा लागे छे तेमज जिनवरना घ्याने जिनप्रतिमा पूजतां लाभ थाय छे एम युक्ति करतां तथा आगमनी साखे पण जिन प्रतिमाने जिनसमान माने ते आराधक अने जे जिन प्रतिमाने न माने तेणे स्थापना निक्षेपो उथाप्यो अने स्थापना उथापी तो द्रव्य तथा भाव निक्षेपो स्थापना विना थाय नही माटे द्रव्य तथा भाव पण उथाप्यो एम त्रण निक्षेपा उथाप्या ते वारें सिद्धान्त उथाप्यांज माटे जे जिनप्रतिमाने नही माने ते विराधक जावो ते स्थापना इतर अने यावत्कथिक ए बे भेदें छे.
३ द्रव्य निक्षेपो कहे छे, जेनो नाम पण होय तथा आकार थापना गुण पण होय अने लक्षण होय पण आत्मोपयोग न मिले ते द्रव्य निक्षेपो जाणवो एटले अज्ञानी जीव ते जीव स्वरूपना उपयोग विना द्रव्य जीव छे “अणुवओगोदवं " इति अयोद्वार वचनात् वली कं छे जे सिद्धान्त वांचतां पूछतां पद अक्षर मात्रा शुद्ध अर्थ करे छे अने गुरुमुखे सदहे छे ते पण शुद्ध निश्चये पोतानी सत्ता ओलख्या विना सर्व द्रव्य निक्षेपामा छे. जे भाव विना द्रव्यपणो छे ते पुण्यबंधनुं कारण छे पण मोक्षनुं कारण नथी एटले जे करणी रूप कष्ट तपस्या करे छे अने जीव अजीव पदार्थनी सत्ता ओलखी नथी तेने भगवती सूत्रमां अवती तथा अपञ्चख्खाणी कह्या छे, तथा जे एकली बाह्य करणी करे छे अने पोते साधु कहेवाय छे ते मृषावादी छे एम उत्तराध्ययन सूत्रमां कयुं छे " नमुणी रन्नवासेणं" ए वचनें " नाणेण य मुणी होइ" ए वचनथी जे ज्ञानवान् ते मुनि छे अने जे अज्ञानी ते मिथ्यात्वी छे. तथा कोइक गणितानुयोगना नरक देवताना बोल अथवा यति
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raruRinnina
nirnarmun........arrrrrrrroriwwwmnain.
श्रावकनो आचारः जाणीमे कहे जे अमे ज्ञानी छैये ते पण ज्ञानी नथी पणा जे द्रव्यः गुण पर्याय जाणे तेने ज्ञानी कहिये. श्री उत्तराध्यपने मोक्ष मार्गे कह्यों छे. गाथा " एवं पंच विहणाणाणां दवाणय गुणाणय, पज्जवाणय सहोसिं, नाणं नाणी हि दंसियं ॥१॥. माटे वस्तु सत्ता जाण्या विना ज्ञानी समजवू नही अने नवतत्व ओलखे ते समकीति अने एहवा ज्ञान दर्शन विना जे कहे के अमे चारित्रिआ छैये ते पण मृषावादी छे कारण के श्री उत्तराज्ययन सूत्र मध्ये कर्तुं छे.जे “ नाणं दसण नाणं नाणेण विना न हुंति चरण गुमा ” ए वचन छे ते माटे आज केटलाक ज्ञानहीन क्रियानो आडंबर देखाडे. छे ते ठग छ तेहनो संग करवो नही. ए बाह्य करणी अभव्य जीवने पण आवे माटे ए बाह्य करणी ऊपर राचवू नही अने आत्मानुं स्वरूप ओलख्या विना सामायक पडिकमणा पञ्चख्खाण करवां ते सर्व द्रव्यनिक्षेपामां पुण्याश्रव छे पण संवर नथी. श्रीभगवती सूत्र मध्ये कयुं छे के “ आयाखल सामाइयं " ए आलावाथी जाणजो तथा जीव स्वरूप जाण्या विना तप संयम पुण्य प्रकृति ते देवताना भवतुं कारण छे “ पुव तवेणं पुव्व संयमेणं देवलोए उववज्जति नो चेवणं आयत्ता भाववत्तव्वयाए" ए आलावो भगवतीमां कह्यो छे, तथा जे क्रियालोपी आचार हीन अने ज्ञानहीन छे मात्र गच्छनी लाजें सिद्धान्त भणे वांचे छे व्रत पञ्चरुवाण करे छे ते पण द्रव्य निक्षेपो जाणवो. एम श्री अनुयोगद्वारमा कयुं छेः सेकिंतलोगुतरिअंदवावस्सयंः ?
जे इमे समण गुणमुक्कजोगी छक्वाय निरणुकंपा ॥ हयाइव उद्दामा ॥ गयाइव निरंकुसा ॥ घट्टामट्ठातुप्पोठा ॥ पंडुरपडयाउरणा जिणाणमणाणाए सच्छंद विहरिउम उभओकालं आवस्सयस्स उबलुति ॥ सेतं लोगुस्तरिय दयावस्त्यं ॥
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wommmmmmmmm अर्थ-जेने छ कायनी दया नथी, घोडानी पेरें उन्मत्त छ, हाथीनी पेठे निरंकुश छे, पोताना शरीरने धोवतां मसलता उजले कपड़े, शिणगार करी गच्छना ममत्वभावे माचतां स्वेच्छाचारी वीतरागनी आज्ञा भांजता जे तप क्रिया करे छे ते पण द्रव्य निक्षेपामां छे. अथवा ज्योतिष वैद्यक करे छे अने पोताने आचार्य उपाध्याय कहेवरावीने लोक पासे महिमा करे (करावे छे) छे ते पत्रीबंध खोटा रूपैया जेवा छे. घणा भव भमसे माटे अवंदनीक छे ए साख उत्तराध्ययनमध्ये अनाथी मुनिना अध्ययनथकी जाणवी अने सूत्रना अर्थ गुरुमुखे शिख्या विना तथा नय प्रमाण जाण्या विना निश्चय आत्मानुं स्वरूप ओलख्या विना नियुक्ति विना उपदेश आपे छे ते पोते तो संसारमा बुड्या छे पण जे तेमनी पासे बेसे छे तेमने पण संसारमा बुडावे छ एम प्रश्न व्याकरण सूत्र तथा अनुयोगद्वार सूत्रमा का छे “ अज्जत्थ चेत सोल समं” इत्यादि अने भगवती सूत्रमां पण कयुं छे “ सुतत्थो खलु पढमो, बीओ निजुत्ति मिसओ भणिओ, इत्तो तईयणुओगो, नाणुनाओ जिणवरेहिं " अने केटलाक एम कहे छे जे अमे सूत्र उपर * अर्थ करिये छैयें तो नियुक्ति तथा टीका प्रमुखनुं शुं काम छे ते पण मृषावाद
___ * श्री भगवती सूत्रमा “ सुत्तत्थोखलु पढमी, बीओनिज्जुत्ति मिसओ भणिओ ॥ इत्तो तईयंणुओगो, नाणुन्नाओजिणवरेहिं" एवी रीते आगमसारनी जूदी जूदी त्रण प्रतोमां लख्युं हतु माटे में पण तेमन लख्युं छे पण बीजा ठेकाणे ए भगवतीनी साख . दीधी छे तिहां तो " मुतात्यो खलुपढमो, बीओनिज्जुत्ति मिसओ भणिओ ॥ तइओय निरक्सेिसो, एस विहि होइ अणुओगो" एवो पाठ छे ते खरो जणाय छे पछे बहुश्रुत कहे ते खलं.
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छे केमके श्रीमश्नव्याकरणमां " वयणतियं लिंगतियं " इत्यादिक जाण्या विना अने नय निक्षेप जाण्या विना जे उपदेश आपे ते मृषावाद छे एम अनेक सूत्रमां कयुं छे माटे बहुश्रुत पासे उपदेश सांभलवो. श्री उत्तराध्ययन मध्ये बहुश्रुत ने मेरुनी तथा समुद्रनी अने कल्पवृक्षादि सोल उपमा दीघी छे ए द्रव्य निक्षेपो कद्यो.
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४ भाव निक्षेपो कहे छे. जे नाम स्थापना अने द्रव्य ए त्रेण निक्षेपा ते एक भाव निक्षेपा विना अशुद्ध छे जे नाम तथा आकार लक्षण गुण सहित वस्तु ते भाव निक्षेपो जाणवो " उवओगो भाव " इति वचनात् एटले पूजा, दान, शील, तप, क्रिया, ज्ञान ए सर्व भावनिक्षेपे सहित लाभनुं कारण छे इहां कोइ कहेशे जे मनना परिणाम दृढ करीने जे करियें तेने भाव कहियें एम कहे छे ते जूठा छे ए तो सुखनी वांछायें मिथ्यात्वी पण घणा करे छे ते गणवुं नही. इहां सूत्रनी साखे वीतरागनी आज्ञा हेय उपादेयनी परीक्षा करी अजीवतत्व तथा आस्रवतच अने बन्धतव उपर हेय कहेतां त्याग भाव अने जीवना स्वगुण जे संवर निर्जरा तथा मोक्ष तत्व ऊपरें उपादेय परिणाम ते भाव कहिये एटले रूपीगुण ते द्रव्य निक्षेप छे अने अरूपीगुण ते भावनिक्षेप छे एटले मन वचन काया लेश्यादिक सर्व द्रव्य निक्षेपामां छे अने ज्ञान दर्शन चारित्र वीर्य ध्यान प्रमुख सर्व गुण भाव निक्षेपामां छे. ए भाव निक्षेपो ते नामस्थापना तथा द्रव्य सहित होय एटले चार निक्षेपा कह्या.
हवे चार निक्षेपा पदार्थ ऊपर लगाडी देखाडे छे नाम जीव ते चेतना अथवा मांचाने एक वाणने जीव कही बोलावे
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छे. ते नाम निक्षेपे जीव. मूर्ति प्रमुख थापियें ते स्थापना जीव. एकेंद्रिययी पंचेंद्रिय पर्यंत सर्व जीव छे पण उपयोग मिले नहि ते द्रव्य जीव. अने मूर्तिमा जीव स्वरूप ओलखी समकितना उपयोगमा छे ते भाव जीव. एम धर्मास्तिकायादिक द्रव्यमा पण जाणवू नामथी धर्मास्तिकाय कही बोलाववो ते नाम धर्मास्तिकाय. धर्मास्तिकाय एहवा अक्षर लखवा अथवा दृष्टांत कारणे काइक वस्तु थापवी ते स्थापना धर्मास्तिकाय तथा धर्मास्तिकाय जे असंख्यात प्रदेशी धर्म द्रव्य छे ते द्रव्य धर्मास्तिकाय. ए धर्मास्तिकायने जे वारें चलण सहाय गुणनी अपेक्षा सहित ओलखिये ते भाव धर्मास्तिकाय.
हवे कोइकनो साधु एहवो नाम छे ते नाम साधु अने स्थापना करिये ते स्थापना साधु तथा जे पंच महाव्रत पाले क्रिया अनुष्ठान करे सूजतो आहार लीये पण ज्ञानध्याननो जेवो उपयोग जोइए तेवो उपयोग न होय ते द्रव्य साधु. जे भाव संवरमोक्षनो साधक थइ भाव साधुनी करणी करे ते भाव निक्षेपे साधु कहिये.
कोइकनो अरिहंत नाम छे ते नाम अरिहंत अने अरिहंतनी प्रतिमा ते थापना अरिहंत जेटला सुधी छद्मस्थ अवस्था ते द्रव्य अरिहंत अने केवल ज्ञान पाम्या पछे . लोकालोकनो भाव जाणे देखे ते भाव अरिहंत एम सिद्धमां पण कहेवो.
कोइ जीवनो ज्ञान एहवो नाम अथवा भावें अजीवनो नाम ते नाम ज्ञान तथा जे ज्ञान पुस्तकमां लख्युंछे ते स्थापना ज्ञान. जे उपयोग विना सिद्धांतनो भणवो अथवा अन्य मतिना सर्व शास्त्र भणवा तथा ज्ञशरीरादिक ते सर्व द्रव्य ज्ञान जे नक्तवतुं जाणवू ते भावज्ञान,
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तथा कोइकनुं तप एहबुं नाम ते नाम तप तथा पुस्तकमां तपनी विधीनुं लेखन ते थापना तप अने पुण्यरूप मासखमणादिक करवो ते द्रव्य तप. जे परवस्तु ऊपर त्यागनो परिणाम ते भाव तप. एम संवरादिक सर्वमां चार चार निक्षेपा जाणवा. तथा श्री अनुयोगद्वार मध्ये कां छे-यतः " जत्थयजं जाणिज्जा, निख्खेवं निख्खिवे निरवसेसं ॥ जत्थवी य न जाणिज्जा, चक्कनिखिखवे तत्थ || १ | ए चार निक्षेपा का एटले शब्दनय को.
ed as समभिरू नय कहे छे जे वस्तुना केटलाक गुण प्रगट्या छे अने केटलाक गुण प्रगट्या नथी पण अवश्य प्रगट हवी वस्तुने वस्तु कहे ते वस्तुना नामांतर एक करी जाणे. जेम जीव चेतन तथा आत्मा एहनो * एक अर्थ कहे ते समभिरूढ नय कहियें ए नय एक अंश ओछी वस्तुने पूरेपूरी वस्तु कहे जेम तेरमा गुणठाणे केवली होय तेहने सिद्ध कहे. ए नयना भेद बिलकुल नथी ए सममिरूढनय को.
हवे एवंभूतनय कहे छे जे वस्तु पोताने गुणे संपूर्ण छे अने पोतानी क्रिया करे छे तेने ते वस्तु कही बोलावे. जेम मोक्षस्थानकें जे जीव पहोतो तेनें सिद्ध कहे. जेम पाणीथी भरेलो स्त्रीना माथा ऊपर आवतो जल धरण क्रिया करतो तेने घडो कहे. ए एवंभूतनय को.
हवे सात नयना दृष्टान्त श्री अनुयोगद्वार सूत्रयी लखियें छैयें. जेम कोइक पुरुषे कोइक बीजा पुरुषने पुछ्युं जे तभे किहां वसोछो तेवारें ते पुरुषे कयुं हुं लोकमां वसुंछु तेवारें * एकार्थवाची नामोनां नामभेदे भिन्न भिन्न अर्थ करे छे तेने समभिनय कथे छे.
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अशुद्ध नैगमवाले पुछ्युं जे लोकना त्रण भेद छे, १ अधोलोक २ त्रिछोलोक ३ अर्वलोक तेमां तुं किहां रहे छे जेवारें शुद्ध नैगमें कह्यं जे त्रिछालोकमां रहुंछं. वली पुछ्युं जे त्रिछालोकमां असंख्याता द्वीप समुद्र छे तेमां तुं कया द्वीपमा रहे छे तेवारें विशुद्ध नैगमें कडं जे जंबुद्वीपमा रहंछं, ते जंबुद्धीपमा खेत्र घणा छे, ते तेमां तुं कया क्षेत्रमा रहे छे, तेवारे अतिशुद्ध नैगम बोल्यो जे भरतक्षेत्रमा रहुंछं, ते भरतक्षेत्रना छ खंड छे ते मांहेला कया खंडमां रहे छे तेवारें कडं जे मध्यखंडमां रहुं छु एम क्रमे पूछतां छेल्ले कयुं जे आपणा देशमा रहुं छं, तेवारें फरी पुछ्युं जे देशमां तो नगरगाम घणा छे तो तुं किहां रहे छे. तेवारें कडं जे हुं अमुक गाममा रहुं छु, ते गाममां वली अमुक पाडो तथा अमुक घर बताव्युं तिहां सुधी नैगम नय जाणवो. ___ अने संग्रह नय वालो बोल्यो जे मारा पोताना शरीरमां वसुं छु, तथा व्यवहारनयवालो बोल्यो जे संसारे बेठो छु तेटलाज बिछानामां रहुं छु, अने ऋजुसूत्र नयवाले कयुं जे मारा आत्माना असंख्याता प्रदेशमा रहुं छु. वली शब्दनय कहे जे मारा स्वभावमा रहुं छु, तेमज समभिरूवनय कहे जे हुं मारा गुणमा रहुं छु, अने एवंभूतनयवादी कहे जे ज्ञानदर्शन गुणमां वसुं छं. ए दृष्टांत कयो तेम सर्व वस्तुमां कहे..
तथा कोइके प्रदेशमात्र क्षेत्र अंगीकार करी पुछ्युं जे ए प्रदेश कया द्रव्यनो छ तेवारें नैगमनय बोल्यो जे छए द्रव्यनो प्रदेश छे केमके एक आकाश प्रदेशमध्ये छ द्रव्य भेला छे तेवारें संग्रहनय बोल्यो जे कालद्रव्य तो अप्रदेशी छे ते माटे सर्व लोकमां एक समय सरिखो छे पण ते एक आकाश द्रव्यना प्रदेशमां जूदो नयी माटे काल बिना पांच द्रव्यनो
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प्रदेश छे तेवारे व्यवहारनय बोल्यो के जे द्रव्य मुख्य देखाय छे तेहनो प्रदेश छे तेबारे ऋजुसूत्रनय बोल्यो के जे द्रव्यनो उपयोग देइ पुछिये ते द्रव्यनो प्रदेश छे. जो धर्मास्तिकायनो उपयोग देइ पुछियें तो धर्मास्तिकायनो प्रदेश छे. जो अधर्मास्तिकायनो उपयोग देइ पुछिये तो अधर्मास्तिकायनो प्रदेश छे. तेवारे शब्दनय बोल्यो के जे द्रव्यनो नाम लइ पुछिये ते द्रव्यनो प्रदेश छे. हवे समभिरूढनय बोल्यो जे एक आकाश प्रदेश मध्ये धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश छे, अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश के अने जीवना अनंता प्रदेश छे. पुद्गलना पण अनंता प्रदेश छे, तेवारे एवंभूतनय बोल्यो के प्रदेशनी जे द्रव्यनी क्रियागुण पर्याय अंगीकार करी देखी ये ते समय ते प्रदेश ते द्रव्यनो गणिये ए प्रदेशमा सात नय कह्या.
हवे जीवमां सात नय कहे छे प्रथम नैगमनयने मते जे गुण पर्यायवंत शरीर सहित ते जीव एटले शरीरमां जे बीजा पुद्गल तथा धर्मास्तिकायादिक द्रव्य छे ते सर्व जीवमांज गण्या तेवारे संग्रहनय बोल्यो जे असंख्यात प्रदेशी ते जीव एटले एक आकाशना प्रदेश टल्या बीजा सर्व द्रव्य एमां गणाणा तेवारे व्यवहारनय बोल्यो जे विषय लइ काम वात संभारे ते जीव इहां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय,आकाश तथा बीजापुद्गल सर्व टल्या पण पांचे इन्द्रीय तथा मन अने लेश्या ए पुद्गल छे ते जीवमां गणाणा, कारणके विषयादिकतो इंद्रियो ले छे ते जीवथी न्यारा छे पण इहां व्यवहारनयमते जीव भेला लीधा छे तेवारे ऋजुसूत्रनय बोल्यों जे उपयोगवंत ते जीव इहां इंद्रियादिक सर्व टल्या पण अज्ञान तथा ज्ञानना भेद टख्या नही. हवे शब्दनय बोल्यो जे नामजीव, स्थापना जीव
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आगमसार.
३१
द्रव्य जीव भाव जीव इहां जीवमां गुण-निर्गुणनो भेद पड्यो नही, तेवारें समभिरूढनय बोल्यो जे ज्ञानादिगुणवंत ते जीव तेवारें मतिज्ञान श्रुतज्ञान इत्यादिक साधक अवस्थाना गुण ते सर्व जीव स्वरूपमां आव्या. हवे एवंभूतनयबोल्यो जे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत चारित्र, शुद्धसत्तावंत ते जीव. ए नये जे सिद्ध अवस्थामा गुण हता तेज ग्रद्या ए सात नये जीव द्रव्य को.
वे सातन धर्म कहे छे. नैगमनय बोल्यो जे सर्व धर्म छे केमके सर्व प्राणी धर्मने चाहे छे. ए नय अंशरूप धर्मने धर्म एवं नाम कहे. हवे संग्रहनय बोल्यो जे वडेरायें आदरयो ते धर्म, एणे अनाचार छोड्यो पण कुलाचारने धर्म को, व्यवहारनय बोल्यो जे सुखनुं कारण ते धर्म एणे पुण्य करणीने धर्म करी मान्यो. ऋजुसूत्रनयमते जे उपयोग सहित वैराग्यरूप परिणाम ते धर्म कहियें. ए नयमां यथाप्रवृत्तिकरणना परिणाम प्रमुख सर्व धर्ममां गण्या ते मिथ्यात्वीने पण होय. हवे शब्दनय बोल्यो जे धर्मनुं मूल समकित छे माटे समकित तेज धर्म तेवारें समभिरूढनय बोल्यो जे जीव अजीव नवतत्त्व तथा छ द्रव्यने ओलखीने जीवसत्ता व्यावे, अजीवनो त्याग करे एहवो ज्ञान दर्शन चारित्रनो शुद्ध निश्चय परिणाम ते धर्म. ए नये साधक सिऊना परिणाम ते धर्मपणे लीधा. एवंभूतनय बोल्यो जे शुक्ल ध्यान रूपातीतना परिणाम क्षपक श्रेणि कर्म क्षयना कारण ते धर्म जे जीवनो मूल स्वभाव ते वस्तु धर्म जे मोक्षरूप कार्यने करे ते धर्म. ए साते नयें धर्म को.
हवे सातनये सिद्धपणो कहे छे. नैगमनयनी मते सर्व
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जीव सिद्ध छे केमके सर्व जीवना आठ रुचक प्रदेश सिद्ध समान निर्मल छे माटे संग्रहनय कहे जे सर्व जीवनी सत्तासिद्ध समान छे एणे पर्यायार्थिक नयेकरी कर्म सहित अवस्था ते टालीने द्रव्यार्थिकनकरी अवस्था अंगीकार करी तेवारें व्यवहारनय बोल्यो जे विद्या लब्धि प्रमुख गुणे करी सिद्ध थयो ते सिद्ध. ए नये बाह्य तप प्रमुख अंगीकार करया. हवे ऋजुसूत्रनय बोल्यो के जेणे पोताना आत्मानी सिद्धपणानी सत्ता ओलखी अने ध्याननो उपयोग पण तेज वर्ने छे ते समये ते जीव सिद्ध जाणवो. ए नये समकीति जीव सिद्ध समान छे एम कयु हवे शब्दनय बोल्यो जे शुद्ध शुक्ल ध्यान परिणाम नामादिक निक्षेपे ते सिद्ध. तेवोरें समभिरूढनय बोल्यो जे केवलंज्ञान केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र ए गुणे सहित ते सिद्ध जाणवा. ए नये तेरमा चउदमा गुणठाणाना केवलीने सिद्ध कह्या अने एवंभूतनय कहे छे के जेना सकल कर्म क्षय थया लोकने अंते विराजमान अष्टगुण संपन्न ते सिम जाणवा. ए रीते सिक पदे सात नय कद्या. एम सात नय मिल्या समक्रीति छे अने जे एक नयने ग्रहण करे ते मिथ्यात्वी छे. ए साते नय सिक ते वचन प्रमाण छे अने ए सात नयमां कोइ पण नयने उथापे तेनुं वचन अग्रमाण छे.
हवे प्रमाणनो विचार कहे छे. प्रमाणना बे भेद छे. एक प्रत्यक्ष प्रमाण बीलु परोक्ष प्रमाण तेमां जे जीव पोताना उपयोगथी द्रव्यने जाणे ते प्रत्यक्ष प्रमाण कहिये. जेम केवली छ द्रव्य प्रत्यक्ष प्रमाणे जाणे तथा देखे ते माटे केवलज्ञान ते सर्वथी प्रत्यक्ष ज्ञान छे, अने मनः पर्यवज्ञान ते मनोवर्गणा प्रत्यक्ष जाणे तथा अवधिज्ञान ते पुद्गल द्रव्यने प्रत्यक्ष जाणे.
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३३
माटे ए बे ज्ञान देश प्रत्यक्ष छे. बीजुं छद्मस्थज्ञान ते सर्व
परोक्ष प्रमाण छे.
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हवे परोक्ष प्रमाण कहे छे. मतिज्ञाननो अने श्रुतज्ञाननो उपयोग परोक्ष प्रमाण छे केमके जे शास्त्रना बलथी जाणे ते परोक्ष प्रमाण कहियें. ते परोक्ष प्रमाणना त्रण भेद छे. १. अनुमान प्रमाण, २ आगम प्रमाण, ३ उपमान प्रमाण. तेमां अनुमान एटले कोइक सहिनाण देखीने जे ज्ञान थाय. जेम घुमाडो देखीने अग्निनुं अनुमान थाय अने आगम एटले शास्त्रनी साखथी जे वात जाणियें. जेम देवलोक तथा नरक निगोद विगेरेनो विचार आगमयी जाणियें छैये ते आगमप्रमाण अने कोइक वस्तुनो दृष्टान्त आपीने वस्तुने ओलखाववी ते उपमान प्रमाण जाणवो. ए प्रमाण कला. हवे सत् असत् पक्षथी सप्तभंगी कहे छे.
१ स्यात् केहतां अनेकांतपणे सर्व अपेक्षा लेइ जीवद्रव्यमां आपणो द्रव्य आपणो खेत्र आपणो काल आपणो भाव एम आपणे गुण पर्यायें जीव छे तेम सर्व द्रव्य आपणे गुणपर्यायें छे ते स्यात् अस्ति नामा पहेलो भांगो थयो .
२ जे जीवमां बीजा पांच द्रव्यना १ द्रव्य २ खेत्र ३ काल ४ भाव ते परद्रव्यना गुणपर्याय जीवमां नथी एटले परद्रव्यना गुणनो नास्तिपणो सर्व द्रव्यमां छे. ए स्यात् नास्ति बीजो भांग थयो.
३ द्रव्य स्वगुणे अस्ति अने पर गुणे नास्ति ए बे भांगा एक समये द्रव्यमां छे. जेम जे समये शुद्ध स्वगुणनी अस्ति छे तेज समये परगुणनी नास्ति पण छे, माटे अस्ति नास्ति ए बेहु भांगा मेला छे ते स्यात् अस्ति नास्ति त्रीजो भांगो थयो .
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आरामसार.
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४ अस्ति अने नास्ति ए बेहु भांगा एक समयमां छे तो वचने करी अस्ति एटलो बोलतां असंख्याता समय लागे तेथी नास्ति भांगो तेज वखते कहेवाणो नही अने जो नास्ति भांगो कह्यो तो अस्ति पणो नान्यो माटे एकज अस्ति कहेतां थकां नास्तिपणो तेज समये द्रव्यमा छे ते नही कहेवाणो माटे मृषावाद लागे तेमज नास्ति कहेतां अस्तिनो मृषावाद लागे माटे वचने अगोचर छे एक समयमां बेहु वचन बोल्या जाय नही केमके एक अक्षर बोलतां असंख्याता समय लागे छे माटे वचनथी अगोचर छे ते स्यात् अवक्तव्य ए चोथो भांगो कह्यो.
५ ते अवक्तव्यपणो वस्तुमां अस्तिधर्मनो पण छे माटे स्यात्अस्ति अवक्तव्य पांचमो भांगो कह्यो.
६ तेमज नास्ति धर्मनो पण अवक्तव्यपणो वस्तु मध्ये छे माटे स्यात् नास्ति अवक्तव्य छटो भांगो जाणवो.
७ ते अस्तिपणो तथा नास्तिषणो बेहु धर्म एकसमये वस्तु मध्ये छे पण वचनथी अवक्तव्य छे माटे स्यात् अस्तिनास्तियुगपमअवक्तव्य ए सातमो मांगो कयो.
हवे ए सात भांगा नित्य तथा अनित्यपणामां लगाडे छे १ स्यात् नित्यं २ स्यात् अनित्यं ३ स्यानित्यानित्यं ४ स्यात्अवक्तव्यं ५ स्यानित्यंअबक्तव्यं ६ स्यात्अनित्यं अक्क्तव्यं ७ स्यात् नित्यानित्यं युगपत् अवक्तव्यं, एमज एक अनेकना सात भांगा कहेवा तथा गुणपर्यायमां पण कहेवा केमके सिद्ध मध्ये नय नथी तोपण सप्तभंगी तो सिद्धमां छे.
हवे सत्ता ओलखाववाने त्रिभंगीयो कहे छे. १ मिथ्यात्व दशा ते बाधकदशा. २ समकित गुणठाणाथी मांडीने अयोगी केवली गुणाणा सुधी साधक दशा जाणवी. ३ सर्व कर्मयी
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nama
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रहित ते सिफ़ दशा. १ ज्ञाननो जाणपणो ते जीवनो गुण. २ तेनो ज्ञाता ते जीव. ३ ज्ञेय ते सर्व द्रव्य.१ ध्यान ते जीवना स्वरूपनों २ ते ध्याननो ध्याता जीव ३ ध्येय आत्मानो, स्वरूप. १ कर्ता ते जीव २ कर्म ते एक मोक्ष बीजो बन्ध ३ क्रिया ते एक संवर बीजी आस्रव. १ कर्म ते चेतनाने कर्म बंधना परिणाम २ कर्मनुं फल ते चेतनाने जे कर्म उदयना परिणाम ३ ज्ञान चेतना ते जीवनो स्वगुण. ते आत्माना त्रण भेद छे १ अज्ञानी जीव शरीरादिक परवस्तुने आत्मबुझिये करी माने छे. पहेलो बहिरात्मा २ जे देह सहित जीव छे ते पण निश्चये सत्तागुण सिद्ध समान छे एटले पोताना जीवने सिख समान करी ध्यावे ते बीजो अंतरात्मा जाणवो. ३ कर्म खपावी केवलज्ञान पाम्या ते अरिहंत तथा सिह सर्व परमात्मा जाणवा. ए त्रिभंगीनो विचार कह्यो एटले आठ पक्षनो विचार कह्यो.
हवे एक द्रव्य मध्ये छ सामान्य गुण छे ते कहे छे. पहेलो अस्तित्व ते जे छ द्रव्य आपणा गुण पर्याय प्रदेशे करी अस्ति छे तेमां धर्म, अधर्म, आकाश अने जीव ए चार द्रव्यनो असंख्याता प्रदेश मिल्या खंध थाय छे अने पुद्गलमां खंध थवानी शक्ति छे माटे ए पांच द्रव्य अस्तिकाय छे अने छठो काल द्रव्यनो समय कोइ कोइथी मिलतो नयी केमके एक समय विणस्या पछे बीजो समय आवे के मादे काल अस्तिकाय नथी. द्रव्यमां ए अस्तित्व पणो कयो.
२ वस्तुत्व कहेतां वस्तुपणो कहे छे ते द्रव्य छए एकठ एक क्षेत्र मध्ये रह्या छे. एक आकाश प्रदेशमां धर्मास्तिका. नो एक प्रदेश रह्यो छे तथा अधर्मास्तिकायनो पण एक प्रदेश रह्यो छे अने जीव अनंताना अनंता प्रदेश रह्या छे. पुद्गर
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परमाणु अनंता रह्या छे. ते सर्व पोतानी सत्ता लीधा थका रह्या छे पण कोइ द्रव्य साथे मिली जातो नथी ते वस्तुपणो.
. ३ द्रव्यत्व केहतां द्रव्यपणो ते सर्व द्रव्य पोतपोतानी क्रिया करे एटले धर्मास्तिकायमां चलनगुण ते सर्व प्रदेश मध्ये छे. सदा काले पुद्गल तथा जीवने चलाववारूपक्रिया करे छे, इहां कोइ पुछे जे लोकान्त सिद्धक्षेत्रमा धर्मास्किाय छे ते सिद्धना जीवने चलाववापणो करतो नथी तेनु केम ? तेने उत्तर कहे छे जे सिद्धना जीव अक्रिय छे माटे चालता नथी पण ते क्षेत्रमा जे सूक्ष्म निगोदना जीव तथा पुद्गल छे तेहने धर्मास्तिकाय चलावे छे माटे पोतानी क्रिया करे छे, तेमज अधर्मास्तिकाय जीव तथा पुद्गलने स्थिर राखवानी क्रिया करे छे, तथा आकाश द्रव्य ते सर्व द्रव्यने अवगाहनारूपकार्य करे छे. इहां कोइ पूछे जे अलोकाकाशमांतो बीजं कोई द्रव्य नथी तो अलोकाकाश कया द्रव्यने अवगाहदान आपे छे तेने उत्तर कहे छे जे अलोकाकाशमां अवगाह करवानी शक्ति तो लोकाकाश जेवीज छे परंतु तिहां अवगाहनो दान लेनार द्रव्य कोइ नथी माटे अवगाहदान करतो नथी अने पुद्गल द्रव्य मिलवा विखरवारूप क्रिया करे छे तथा कालद्रव्य वर्तना रूप क्रिया करे छे अने जीव द्रव्य ज्ञान लक्षण उपयोगरूप क्रिया करे छे एम सर्व द्रव्य पोताने परिणामी स्वसत्तानी क्रिया करे छे ए द्रव्यत्वपणो कह्यो.
४ प्रमेयत्वं कहेतां प्रमेयपणो जे छ द्रव्यमां प्रमेय पणो छे, तेनो प्रमाण केवली पोताना ज्ञानथी करे छे, जे धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकाय एकेक द्रव्य छे अने जीवद्रव्य अनंता छे तेहनी गणति कहे छे. संज्ञी
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मनुष्य संख्याता छे, असंज्ञी मनुष्य असंख्याता छे, नारकी असंख्याता छे, देवता असंख्याता छे, तिर्यंच पंचेन्द्रिय असंख्याता छे, बेइन्द्री असंख्याता छे, तेइंन्द्री असंख्याता, चौरेंद्रीय असंख्याता छे ते थकी पृथ्वीकाय असंख्याता, अपकाय असंख्याता, ते काय असंख्याता, वायुकाय असंख्याता, प्रत्येकवनस्पति जीव असंख्याता, ते थकी सिझना जीव अनंता ते थकी बादर निगोदना जीव अनंतगुणा एटले बादर निगोद ते कंदमूल आदु सूरण प्रमुख एहने सुइने अग्रभागें अनंता जीव छे ते सिद्धना जीवथी अनंत गुणा छे अने सूक्ष्मनिगोद सर्वथी अनंत गुणा छे. सूक्ष्मनिगोदनो विचार कहे छे. जेटला लोकाकाशना प्रदेश छे तेटला गोला छे ते एकेक गोलामां असंख्याता निगोद छे. निगोद शब्दनो अर्थ ए छे जे अनंता जीवनो पिंड मूत एक शरीर तेहने निगोद कहियें. ते एकेकी निगोदमध्ये अनंता जीव छे ते अतीत कालना सर्व समय तथा अनागतकालना सर्व समय अने वर्त्तमान कालनो एक समय तेने मेला करी अनंत गुणा करीये एटला एक निगोदमां जीव छे एटले अनंता जीव छे ए संसारी जीव एकेकाना असंख्याता प्रदेशे छे अने एकेका प्रदेशे अनंति कर्म वर्गणा लागी छे. ते एकेक वर्गणा मध्ये अनंता पुद्गल परमाणु छे एम अनंता परमाणु जीव साथे लाग्या छे ते थकी अनंत गुणा पुद्गल परमाणु जीवथी रहित छुटा छे.
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गोलाय असंखिज्जा,
असंख निगोयओ हवइ गोलो ||
इक्तिकमि निगोए, अणंतजीवा मुणेयव्वा ॥ १ ॥
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.. अर्थ-लोक मांहे असंख्याता गोला छे, एकेका गोला मध्ये असंख्याति निगोद छे. एकेक निगोदमां अनंता जीव छे.॥
सत्तरस समहियाकिर । इगाणुपाणुंमि हुंति खुड्डभवा ॥ सगतीससयतिहुत्तर ।
पाणू पुण इग मुहुत्तमि ॥ १ ॥ अर्थ-निगोदिया जीव 'ते. मनुष्मना : एक उसासमा सत्तर १७ भव जाजेरा करे छे अने सडनीससो तिहुंतेर ३७७३ श्वासोच्छ्वासे एक मुहूर्त्तमां थाय.
पणसटि सहस्स पणसय । छत्तिसा इग मुहुत्त खुड्भवा ॥ आवलियाणं दो सय ।
छपन्ना एग खुड्डभवे ॥१॥ अर्थ-निगोदना जीव एक मुहूर्त्तमां ६५५३६ भव करे अने निगोदनो एक भव २५६ आवलीनो छे. क्षुल्लक भवनो ए प्रमाण छे.
अथ्थि अणंताजीवा, जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो॥ उववज्जतिचयंति य,
पुणोवि तत्थेव तत्थेव ॥१॥ अर्थ-निगोदमां अनंता जीव एहवा छे जे जीव वसपणो पहेला किवारें पाम्या नथी अनंतो काल पूर्वे गयो अने अनंतो काल जाशे पण ते जीव वारंवार तिहांज उपजे छे अने तिहांज चवे छे •एम एक निगोदमां अनंता जीव छे ते निगोदना बे भेद छे. एक व्यवहार राशी निगोद अने बीजो अव्य
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वहारराशी निगोद. तेमां जे बादर एकेन्द्रियपणो भावें वसपणो पामीने पाछा निगोदमां जाइ पड्या छे ते निगोदिया जीवने व्यवहार राशिया कहिये, अने जे जीव कोइपण काले निगोदमांथी निकल्या नथी ते जीव अव्यवहारराशीया कहिये अने इहां मनुष्यपणामी जेटला जीव कर्म खपावीने एक समयमां मोक्ष जाय छे तेटला जीव तेज समये अव्यवहारराशी सूक्ष्म निगोदमांयी निकलीने उंचा आवे छे. जो दश जीव मोक्ष जाय तो दश जीव निकले. कोइक वेलाए भव्य जीव ओछा निकले तो ते ठेकाणे एक बे अभव्य निकले पण व्यवहारराशीमां जीव कोइ बधे घटे नही. एवा निगोदना असंख्याता लोकमांहेला गोला ते छदिशीना आव्या पुद्गलने आहारादिपणे ले छे ते सकल गोला कहेवाय अने लोक अंतना प्रदेशे जे निगोदना गोला रह्या छे तेने त्रण दिशीना आहारनी फरशना छे माटे पिकल गोला कहिये. ए सूक्ष्म निगोदमां पांच थावरना सूक्ष्म जीव ते सर्व लोकमां काजलनी कुंपलीनी पेरे भरया थका व्यापी रह्या छे अने साधारणपणो ते मात्र एक वनस्पतिमांज छे पण चार थावरमां नथी. ए सूक्ष्म निगोदमां अनंतु दुःख छे तेनुं उदाहरण कहे छे. सातमी नस्कनुं आयुष्य तेत्रीस सागरोपमनुं छे. तेत्रीस सागरोपमना जेटला समय थाय तेटला वखत सातमी नरकमां उत्कृष्ट तेबीस सागरोपमने आयुषे कोइक जीव उपजे तेटला भवमां जेटलं छेदन भेदमनुं दुःख थाय ते सर्व एकटं करिये तेथी अनंतगणुं दुःख निगोदना जीव, एक समयमां भोगवे छे. दृष्टान्त जेम कोइक मनुष्यने साडा मण-क्रोड लोढानी सुइने अनिथी तपावीने कोइक देवता समकाले चांपे तेने जे वेदना थाय तेथी अनंत गुणी वेदना नि
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गोद मध्ये छे अने भव्य जीवने निगोदनुं कारण ते अज्ञान दशा छे माटे तेहनो त्याग करो. ए निगोदनो विचार को. ए सर्व प्रमेयनो प्रमाता आत्मा पोताना ज्ञान गुणे करी प्रमेयनो प्रमाण करे ए प्रमेय पणो को.
५ सच्चपण ते छ द्रव्य एक समयमां उपजे विणशे छे अने स्थिरपणे छे. उत्पाद व्यय ध्रुवपणो तेहिज सत्पणो उत्पाद व्ययनुवयुक्तं सत् इति " तत्वार्थ वचनात् " ते विस्तारथी कही देखाडे छे. जे धर्मास्तिकायना असंख्याता प्रदेश छे तिहां एक प्रदेशमां अगुरुलघु असंख्यातो छे अने बीजा प्रदेशमां अनंतो अगुरुलघु छे, वीजा प्रदेशमां संख्यातो अगुरुलघु छे एम असंख्याता प्रदेशमां अगुरुलघुपर्याय घटतो ववतो रहे छे ते अगुरुलघु पर्याय चल छे ते जे प्रदेशमां असंख्यातो छे ते प्रदेशमां अनंतो थाय छे अने अनंताने ठेकाणे असंख्यातो थाय छे एम लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशमां शरीखो समकालें अगुरु लघु पर्याय फिरे छे ते जे प्रदेशमां असंख्यातो फिटीने अनंतो थाय छे ते प्रदेशमां असंख्यातपणानो विनाश छे अने अनंत पणानो उपजवो छे अने अगुरुलघुपणे गुण ध्रुव छे एम उपजवो विणसवो अने ध्रुव ए त्रणे परिणाम छे. अवर्मास्तिकायमां पण ए त्रणे परिणाम असंख्यात प्रदेशे सदा समय समयमां परिणमी रह्या छे. तेमां पण उपजे विणशे अने थिर रहे छे. एम आकाशना अनंता प्रदेशमां पण एक समये त्रण परिणाम परिणमे छे अने जीवना असंख्याता प्रदेश छे ते मध्ये पण उपजे विणशे थिर रहे (छे.) तथा पुद्गल परमाणुमा पण समय थाय छे अने कालनो वर्त्तमान समय फिटीने अतीत काल थाय छे तो वे समयमां वर्त्तमानपणानो विनाश
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छे अने अतीतपणानो उपजको छे काल पणे ध्रुव छे. ए स्थूल थकी उत्पादक व्यय ध्रुवपणो कह्यो अने वस्तुगते मूलपणे ज्ञेयने पलटवे ज्ञाननो पण ते भासनपणे परिणमवो थाय ते पूर्व पर्यायना भासननो व्यय अने अभिनव ज्ञेयना पर्याय भासननो उत्पाद तथा ज्ञानपणानो ध्रुव ए रीते सर्व गुणना धर्मनी प्रवृत्तिरूप पर्यायनो उत्पाद व्यय श्रीसिमभगवन्तमां पण थइ रह्यो छे. एमज धर्मास्तिकायना प्रदेशे जे क्षेत्र गत असंख्यात पुद्गल तथा जीवने पहेले समय चलण सहायीपणो परिणमतो हतो अने बीजे समय अनन्त परमाणु तथा अनन्ता जीव प्रदेशने चलन सहायी थयो तेबारे असंख्याता चलन सहायनो व्यय अने अनंता चलन सहायनो उपजवो अने गुणपणे ध्रुव एम धर्मद्रव्य मध्ये उत्पाद व्यय थइ रह्यो छे. तेमज अधर्मादिक द्रव्यने विषे पण भाव. तथा वली कार्य कारणपणे उत्पाद व्यय तथा अगुरुलघुना चलननो उत्पाद व्यय पंचास्तिकायने विषे कहेवू. तथा कालद्रव्य ते उपचार छे तेनुं स्वरूप सर्व उपचारथीज कहेवू. ए रीते सर्व द्रव्यमां सत्पणो छे. जो अगुरुलघुनो भेद न थाय तो पछे प्रदेशनो माहोमांहे भेद केवो थाय ते माटे अगुरुलघुनो भेद सर्वमा छे अने जेनो उत्पाद व्यय रूप सत्पणो एक छे ते द्रव्य एक छे. तथा जेनो उत्पाद व्यय सत् पणो जूदो ते द्रव्य पण जूदो छे एटलें सत् केहतां सत्त्वपणो कह्यो.
६ अंगुरुलघुपणो कहे छे. जे द्रव्यनो अगुरुलघु पर्याय छे ते छ प्रकारनी हानि वृद्धि करे छे. तेमा छ प्रकारनी वृद्धि छे. १ अनन्त भागवृद्धि, २ असंख्यातभागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि, ५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनंत
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गुणवृद्धि. हवे छ प्रकारनी हानि कहे छे. १ अनंतभागहानि, २ असंख्यातभागहानि, ३ संख्यातभागहानि, ४ संख्यातगुण हानि,५ असंख्यातगुणहानि, ६ अनंतगुणहानि. ए रीते छ प्रकारनी वृद्धि तथा छ प्रकारनी हानि ते सर्व द्रव्यमां सदा समय समय थइ रही छे. वृद्धि ते उपजवो अने हानि ते व्यय कहिये. ए अगुरुलघुपणो कह्यो. नहीं गुरु तथा नहीं लघु ते अगुरुलघु स्वभाव कहिये. ए सर्व द्रव्य मध्ये छे ते श्री भगवती सूत्रे " सव्वदव्वा सव्वगुण सव्वपएसा सव्वपज्जवा सव्वद्धा अगुरु लहुआए” अगुरुलघु स्वभावने आवरण नथी तथा आत्मा मव्ये जे अगुरुलघुगुण ते आत्माना सर्व प्रदेशे क्षायक भाव थये सर्व गुण सामान्यपणे परिणमे पण अधिका ओछा परिणमे नही ते अगुरुलघुगुण, प्रवर्तन जाणवू. ते अगुरुलघु गुणने गोचकर्म रोके छे ए अगुरुलघु स्वभाव ते सर्व द्रव्यमां छे.
हवे गुणनी भावना कहे छे. तिहां जेटला छए द्रव्यमां 'सरीखा गुण छे ते सामान्य गुण कहिये, अने जे गुण एक द्रव्यमा छे अने बीजा द्रव्यमां नयी ते विशेष गुण कहियें. जे गुण कोइक द्रव्यमा छे अने कोइक द्रव्यमां नथी ते साधारण असाधारण गुण कहिये. एम ए छ द्रव्यमां अनंतगुण, अनन्त पर्याय, अनन्त स्वभाव सदा शाश्वता छे. जेम श्रीकेवली भगवंतें प्ररूया ते सर्व जे रीतें छे ते रीतें सहहणा पूर्वक यथार्थ उपयोगथी श्रुतज्ञानादिकथी यथार्थपणे जाणवा. सदहवा ते मोक्षनुं कारण छे जे जीव ज्ञान पाम्यो ते जीव विरति करे छे ते चारित्र कहिये. ज्ञाननुं फल विरतिपणो छे ते मोक्षनुं तत्काल कारण छे.
हवे निश्चय चारित्र अने व्यवहार चारित्रनो विचार कहे
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छे. तेमां प्रथम व्यवहार चारित्र ते जे माणातिपातविरमण प्रमुख पंचमहाव्रतरूप ते सर्व विरति कहियें अने स्थूलमाणातिपातविरमण व्रतादिक श्रावकना बार व्रत ते देश विरति चारित्र जाणवं. ए व्यवहार चारित्र सुखनुं कारण छे एवी करणीरूप श्रावकना बार व्रत अने यतिनां पांच महाव्रत ते अभव्यने पण आवे तेथी देवतानी गति पामे पण सकाम निर्जरानुं कारण न थाय. इहां कोइ पूछे के मोक्षनुं कारण नथी तो एटलं कष्ट शा वास्ते करियें ? तेने उत्तर जे त्याग बुद्धि निश्चय ज्ञान सहित चारित्र ते मोक्षनुं कारण छे माटे निश्चय चारित्र सहित व्यवहार चारित्र पालवुं ते निश्चय चारित्र कहे छे. शरीर, इन्द्रिय, विषय, कषाय योग ए सर्व परवस्तु जाणी छांडवा तथा आहार ते पुद्गल वस्तु जाणी छांडवो. आत्मा अणाहारी छे ते माटे मुजने आहार करवो घंटे नही. आहार ते पुद्गल छे, आत्मा अपुगली छे ते माटे त्याग करवो. तद्रूप जे तप ते तप निश्चय चारित्रमां जाणवुं चारित्र कहेतां चंचलता रहित थिरताना परिणाम अने आत्मस्वरूपने विषे एकत्वपणे रमण तन्मयता स्वरूप विश्रांति तवानुभव ते चारित्र कहियें. ते चारित्रना बे भेद छे एक देशविरति, बीजं सर्व विरति. तिहां देश विरति कहेतां श्रावकना बार व्रत ते बार व्रत निश्चय तथा व्यवहारथी कहे छे.
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१ प्राणातिपात विरमण व्रत ते परजीवने आपणा जीव सरीखो जाणी सर्व जीवनी रक्षा करे ते व्यवहार दया थइ माटे व्यवहार प्राणातिपात विरमण व्रत जाणवुं अने जे आपणो जीव कर्म वश पडयो दुःखी थाय छे ते आपणा जीवने कर्मबंधनयी मुकाaj अने आत्म गुण रक्षा करी गुण वृद्धि करवी
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ते स्वदया बंधहेतु परिणति निवारी स्वरूप गुणने प्रगटपणे करवा. जे गुण प्रगट थयो ते राखवो एटले ज्ञाने करी मिथ्यात्व टाली आपणा जीवने निर्मल करे ते निश्चयथी प्राणातिपात विरमण त कहियें.
२ मृषावाद विरमणत्रत कहे छे. जुढं वचन बिलकुल बोलकं नही ते व्यवहार मृषावाद विरमणत्रत अने जे पर पुनलादिक वस्तुने आपणी कहेवी ते मृषावाद वचन छे अने जीवने अजीव कहे तथा अजीवने जीव कहे इत्यादिक अज्ञान भाव ते सर्व निश्चय मृषावाद छे अथवा सिद्धान्तना अर्थ खोटा कहे ए मृषावाद जेणे छांड्यो ते निश्चय मृषावाद विरमणवत कहियें, एटले बीजा अदत्तादानादिक व्रत जो भांजे ( भांगे) तो तेनो मात्र चारित्र भंग थाय पण ज्ञान दर्शननो भंग न थाय अने जेणे निश्चय मृषावादनो भंग करचो तेणे समकित तथा ज्ञान अने चारित्र ए त्रणेनो भंग करचो. तथा आगममां एम कां छे जे एक साधुयें चोथो व्रत भंग करयो अने एक साधुयें बीजो मृषावाद व्रत भंग करचो तो जेणे चोथो व्रत भंग करचो ते आलोयण लेइ शुद्ध थाय पण जे सिद्धान्तना अर्थनो मृषा उपदेश आपे ते आलोयण लीघे पण शुद्ध थाय नही.
३ अदत्तादान विरमण व्रत कहे छे. जे पारकुं धन वस्तु छुपावे चोरी करे ठगबाजी करी लीये ते चोरी छे, एटले पारकी वस्तु धणीना दीधा विना लेवी नही ए व्यवहारथी अदत्तादानविरमण व्रत जाणवुं अने जे पांच इंद्रियना वीस विषय, आठ कर्मवर्गणा इत्यादिक परवस्तु लेवी नहीं तथा तेनी वांछा न करवी ते आत्माने अग्राह्य छे माटे ते निश्चयी अदत्तादानविरमण व्रत कहियें. इहां कोइ पूछे जे विषयनी
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अने कर्मनी वांछा कोण करे छे ? तेने उत्तर जे पुण्यने भेलो लेवा योग्य कहे छे ते जीव कर्मनी वांछा करे छे. जे पुण्यना ४२ भेद छे ते चार कर्मनी शुभ प्रकृति छे एटळे जे व्यवहार अदत्तादान तो नथी लेता पण अंतरंग पुण्यादिकनी वांछा छे तेने निश्चय अदत्तादान लागे छे.
४ मैथुन विरमणवत कहे छे. जे पुरुष परस्त्रीनो परिहार करे तथा जे स्त्री परपुरुषनो परिहार करे. इहां साधुने स्त्रीनो सर्वथा त्याग छे अने गृहस्थने परणेली स्त्री मोकली छे. परस्त्रीनो पच्चखाण छे ते व्यवहारथी मैथुन- विरमण कहियें अने जे विषयना अभिलाषनुं तथा ममता तृष्णानो त्याग परभाव वर्णादिक परद्रव्यना स्वामित्वादिक तेनो अभोगीपणो आत्मा स्वगुण ज्ञानादिकनो भोगी छे अने ए पुद्गलखंध ते अनंता जीवनी एंठ छे तेने केम भोगवे ए रीते त्याग निश्चयथी मैथुन विरमण कहिये. जेणे बाह्य विषय छांड्यो छे अने अंतरंग लालच छुटी नथी तो तेहने ते मैथुनना कर्म लागे छे.
५ परिग्रह परिमाणवत कहे छे. परिग्रह धन-धान्य-दासदासी-चौपद-जमीन-वस्त्र आभरणनो त्याग तेमां साधुने तो सर्वथा परिग्रहनो साग छे तथा श्रावकने इच्छा परिमाण छे जेटली इच्छा होय तेटलो परिग्रह मोकलो राखे. बीजानी विरति करे ए व्यवहारथी कह्यो अने जे कर्म रागद्वेष अज्ञान द्रव्य ज्ञानावरणीय प्रमुख आठ कर्म अने शरीर इन्द्रियनो परिहार एटले कर्मने पर जाणी छांडवो ते निश्चयथी परिग्रहनो त्याग एटले परवस्तुनी मूर्छा छांडवी जेणे मूर्छा छोडी तेणे परिग्रह छोड्योज छे एम जाणवू..
.६ दिशिपरिमाण व्रत कहे छे. तिहां तिरछि चार दिशी
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पांचमी अधो छष्ठी ऊर्ध्व ए छ दिशिना क्षेत्रनो मानकरी मो. कलो राखे ते व्यवहारथी दिशिपरिमाण कहियें अने चारगतिमां भटकवू ते कर्मनुं फल छे एम जाणी तेथी उदासीपणो अने सिफ अवस्था(नो) शुं उपादेयपणो वे निश्चय दिशिपरिमाण व्रत कहिये.
७ भोगोपभोगपरिमाण व्रत कहे छे. जे एकवार भोगवq ते भोग अने जे वारंवार भोगवq ते. उपभोग तेनो परिमाण करे ते व्यवहार भोगोपभोगवत कहिये, अने जे व्यवहारन कर्मनो कर्त्ता भोक्ता जीव छे अने निश्चयनये तो कर्मनो कर्ता कर्म छे. आत्मा अनादिनो परभाव भोगी थयो छे तेथी परभावग्राहक अने परभावरक्षक थयो एटले आत्मानी ज्ञायकता, ग्राहकता, भोग्यता, रक्षकता बीगडे कर्ता पणो बीगड्यो तेवारें परभाव कर्ता थयो ते पण परभाव रंगीपणे आठ कर्मनो कर्ता थयो छे पण सत्तायें तो स्वभावनो कर्ता छे पण उपकरण अवराणा तेथी स्वकार्य करी शकतो नथी. विभावने करे छे अज्ञानपणे जीवनो उपयोग मल्यो छे पण न्यारो छे. पोताना ज्ञानादिक गुणनो कर्ता मोक्ता छे एडवो स्वरूपानुयायी परिणाम ते निश्चयभोगोपभोगवत लाग जाणवो.
८ अनर्थदण्डविस्मणव्रत कहे छे. काम विना जीवनो वध करवो. पारका वास्ते आरंभ प्रमुख करकानी आज्ञा प्रमुखे आपवी ते व्यवहार अनर्थदंड अने शुभाशुभ कर्म ते मिथ्यात्व अविरति कषाय योगथी बंधाय छे. तेने जीव आपणा करी जाणे ए. निश्चययी अनर्थदंड.
९ सामायिक व्रत कहे छे. जे मन वचन कायाना आरंभ ढालीने तेने निसरंभपणे. वावे ते व्यवहार सामायिक जाणवो.
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अने जे जीवना ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुण विचारे सर्व जीवना गुणनी सत्ता एकसमान जाणी सर्व जीव साथै समतापरिणामे वर्ते ते निश्चय समतारूप सामायिक कहियें.
१० देशावगाशिक व्रत कहे छे. जे मन वचन कायाना योग एक टोर करी एकस्थानकें बेसी धर्म ध्यान करवो ते व्यवहार देशावगाशिक कहियें अने जे श्रुतज्ञाने करी छ द्रव्य ओलखीने पांच द्रव्यनो त्याग करे अने ज्ञानवंत जीवने घ्यावे ते निश्चय देशावगाशिक व्रत कहियें.
११ पौषध व्रत कहे छे. जे चार पहोर अथवा आठ पोर सुधी समता परिणामे सावद्य छोडी निरारंभपणे सझायध्यानमा प्रवर्ते ते व्यवहार पोशह कहिये अने पोताना जीवने ज्ञान ध्यानथी पोषीने पुष्ट करे ते निश्चययी पौषध व्रत कहियें. जीवने पोताना स्वगुणे करी पोषीजे तेणे पौषध कहियें.
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१२ अतिथिसंविभाग व्रत कहे छे. जे पोशहने पारणे अथवा सदा सर्वदा साधुने तथा जैनधर्मिश्रावकने पोतानी शक्ति प्रमाणे दान देवं ते व्यवहार अतिथिसंविभाग कहियें अने पोताना जीवने अथवा शिष्यने ज्ञाननुं दान ते भणवं, भणावं, सुणवं सुणाववं, ते निश्चय अतिथिसंविभाग व्रत कहियें एटले श्रावकना बार व्रत कलां ते समकित सहित जे निश्चय तथा व्यवहारथी बार व्रत धारे ते जीवने पांचमे गुणठाणे देशविरति श्रावक कहिये. देश केहतां देशयकी थोडीशी विपणो छे माटे अने यतिने सर्वथी व्रतिपणो छे तेथी पांच महाव्रतज छे. साधुने पांच महाव्रतमां सर्व व्रत आम्यां. ए निश्चय त्यागरूप ज्ञान ध्यान संवर निर्व्वरामां थिरताना परिणाम ते निश्चय चारित्रना एक उत्सर्ग बीजो अपवाद ए वे मार्ग छे तेमां जे उत्कृष्ट तीक्ष्ण
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परिणाम ते उत्सर्ग अने जे उत्सर्ग राखवाने कारणरूप ते अपवाद-उक्तंच ॥ “संघरणंमि असुझं, दुन्नवि गिन्ह तदेतयाणहियं ॥ आउर दिळं तेणं, ते चेवहीयं असंवरणे " ॥ १॥ एटले ज्यां सुधी साधक भावने बाधक न पडे त्यां सुधी जेहनी ना कही ते आदरखो नही अने जो साधक परिणाम रहेता न दीठा तेवारे जेहनी ना ते आचरे तेने अपवाद मार्ग कहिये. जे आत्मगुण राखवाने करवो ते अपवाद अने गुणीने रागे भक्तियें करखो ते प्रशस्त ए बे तो साधन छे अने जे औदयिकने अखमवाथी करवू ते अतिचार छे तथा सबलो अने औदयिक माटे अशक्तपणे करवू ते पडिवाइ छे ते मध्ये अपवाद मार्ग ते परिणाम दृढ रहे तेम आज्ञायें करवो.
हवे चार ध्यान कहे छे. १ आर्तध्यान, २ रौद्रध्यान, ३ धर्मध्यान, ४ शुक्लध्यान. तिहां पहेला बे ध्यान ते अशुभ कहियें अने पाछला बे ध्यान ते शुद्ध छे. तिहां मनमा आहट्ट दोहट्टना परिणाम ते आर्तध्यान कहिये तेना चार पाया छे. १ भाइ, मित्र, सज्जन, माता, पिता, स्त्री, पुत्र, धन, प्रमुख इष्ट वस्तुनो वियोग थयाथी विलाप करे ते पहेलो इष्ट वियोगनामा आर्तध्यान तथा २ अनिष्ट जे भुंडां दुःखनां कारण, दुश्मन दरिद्रीपणो, तथा कुपुत्रादि मलवायी मनमां दुःख चिंता उपजे ते अनिष्ट संयोग नाम आर्तध्यान. ३ शरीरमा रोग उपना थका दुःख करे, चिंता घणी करे ते रोगचिंतानाम आर्तध्यान. ४ मनमा आगलना वखतनो शोच करे जे आ वर्षमां आ काम करशं, आवता वर्षमा अमुक काम करशुं तो अमुक लाभ थशे अथवा दान शील तपनुं फल मांगे जे आ भवमां तप कीधो छे माटे आवते भवें इंद्र चक्रवर्तिनी पदवी मले
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एहवी आगला भवनी यांच्छा छे ते अग्रशोच आर्तध्याननो चोथो पायो जाणवो. ए आर्तध्यानना चार भेद कह्या ए तिर्यंच गतिना कारण छे. ए ध्यानना परिणाम ते पांचमा अथवा छठ्ठा गुणठाणा सुधी होय.
२ जे कठोर परिणाममुं चितवन ते रौद्रध्यान. तेना चार भेद छे. १ जीवहिंसा करीने हर्ष पामे अथवा बीजो कोइ हिंसा करतो होय तेने देखी खुशी थाय अथवा युझनी अनुमोदना करे ते हिंसानुबंधी रौदव्यान. २ जूठं बोलीने मनमां हर्ष पामे के जुओ में केवो कपट केळव्यो. मारा जूठापणानी खबर कोइने पडी नही, एवो मृषावाद रूप परिणाम ते मृषानुबंधी रौद्रध्यान. ३ चोरी करी अथवा ठगाइ करी मममां खुशी थाय के मारा मेवो जोरावर कोण छे, हुं पारको माल खाउं छु एवो परिणाम ते चोरानुबंधि रौद्रव्यान. ४ परिग्रह धन धान्य परिवार घणो वधवानी लालच होय ते धन अथवा कुटुंबने माटे गमे तेवू पाप करे अथवा घणों परिग्रह मिल्यावी अहंकार करे ने परिग्रहरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान. ए रौद्रध्यानमा चार भेद कह्या. ए ध्यान नरक गति पमाडवानुं कारण छे. महा अशुभकर्मन कारण छे. ए पांचमा गुणठाणा सुधी छे, अने छट्ढे गुणठाणे पण एक हिंसानुबंधीरौद्रव्यानना परिणाम कोइक जीवने होय.
हवे धर्मध्यान कहे छे. जे व्यवहार क्रियारूप कारण ते धर्म तथा श्रुतज्ञान अने चारित्र ए उपादानपणे साधन धर्म तथा रत्नत्रयी भेदपणे ते उपादान शुद्ध व्यवहार उत्सर्गाऽनुयायी ते अपवाद धर्म जाणवो अने अभेद रत्नत्रयी ते साधन शुद्ध निश्चयनये उत्सर्ग धर्म अने (धम्मो वत्थु सहावो) जे
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वस्तुनो सत्तागत शुद्ध परिणामिक स्वगुण प्रवृति कर्त्रादिक अनंतानंद रूप सिद्धावस्थायें रह्यो ते एवंभूत उत्सर्ग उपादान शुद्ध धर्म, ते धर्मनुं भासन रमण एकाग्रतापणे चिंतन तन्मय - तानो उपयोग एकत्वनो चिंतववो ते धर्म ध्यान कहियें. तेना पाया चार छे ते कहे छे.
१ आज्ञाविचयधर्मध्यान ते जे वीतराग देवनी आज्ञा साची करी सहे एटले भगवंते छ द्रव्यनुं स्वरूप नय प्रमाणे निक्षेपा सहित सिद्ध स्वरूप, निगोद स्वरूप जेम कह्या तेम सहे, वीतरागनी आज्ञा नित्य अनित्य स्याद्वादपणे निश्चये व्यवहारपणे माने सहे ते आज्ञा प्रमाणे यथार्थ उपयोग भासन थयो तेने हर्षे करी ते उपयोग मध्ये निरवार, भासन, रमण अनुभवता, एकता, तन्मयपणो ते आज्ञाविचय धर्मध्यान कहियें.
२ अपायविचयधर्मध्यान ते जीवमां अशुद्धपणे कर्मना योगयी संसारी अवस्थामां अनेक अपाय कहेतां दूषण छे ते अज्ञान, राग, द्वेष, कषाय, आश्रव ए मारा नथी. हुं एथकी न्यारो छं. हुं अनंतज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यमयी, शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी छं. अज, अनादि, अनंत, अक्षर, अनक्षर, अचल, अकल, अमल, अगम्य, अनमी, अरूपी, अकर्म्मा, अबंधक, अनुदय, अनुदीरक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अवेदी, अछेदी, अखेदी, अकषायी, असखाइ, अलेशी, अशरीरी, अणाहारी, अव्याबाध, अनवगाही, अगुरुलघु, परिणामी, अतीन्द्रिय, अप्राणी, अयोनि, असंसारी, अमर, अपर, अपरंपार, अव्यापी, अनाश्रित, अकंप, अविरुद्ध, अनाश्रव, अलख, अशोकी, असंगी, अनारक, लोकालोकज्ञायक, एवो शुद्ध चिदानंद मारो जीव छे, एहवो एकाग्रतारूप ध्यान ते अपायविचयधर्मध्यान जाणवो.
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३ विपाकविचय धर्मध्यान कहे छे. जे एहवो जीव छे तोपण कर्मवशे दुःखी छे ते कर्मनो विपाक चिंतवे जे जीवनो ज्ञानगुण ते ज्ञानावरणीय कर्मे दाब्यो छे अने दर्शनावरणीय कमैं दर्शनगुण दाब्यो छे, एम आठ कर्मे जीवना आठ गुण दाव्या छे एटले आ संसारमा भमतां थकां जीवने जे सुखदुःख छे ते सर्व कर्मनां कीयां छे. माटे सुख उपने राचवू नही अने दुःख उपने दिलगीर थर्बु नही. कर्म स्वरूपनी प्रकृति, स्थिति, रस, अने प्रदेशनो बंध, उदय, उदीरणा, तथा सत्ता, चिंतवनानुं एकाग्रता परिणाम ते विपाकविचय धर्मध्यान.
४ संस्थानविचयधर्मध्यान कहे छे. ते चउद राजमान लोकनुं स्वरूप विचारे जे ए लोक ते चउदराज ऊंचो छे ते मध्ये सातराज अधोलोक छे. विचमा अढारसो योजन मनुष्य क्षेत्र विछो लोक छे ते ऊपर कांइक ऊणो सातराज ऊर्वलोक छे तेमां सर्व वैमानिक देवता वसे छे अने ऊपरें सिद्ध शिला सिद्ध क्षेत्र छे.ए रीते लोकनुं प्रमाण छे. ए लोक संस्थान वैशाख छे. अनंतो काल आपणा जीवें संसारमा भमतां सर्व लोकने जन्म मरण करी फरस्यो छे, एवं जे लोक स्वरूप तथा लोकने विषे पंचास्तिकायर्नु अवस्थान तथा परिणमन द्रव्य मध्ये गुणपर्यायर्नु अवस्थान तेनो जे एकाग्रताये तन्मयचितवन परिणाम एहवू जे ध्यान ते संस्थान विचय धर्मध्यान कहिये. ए धर्मध्यानना चार पाया कया. ए धर्मध्यान चोथा गुणठाणाथी मांडीने सातमा गुणठाणा सुधी छे.
हवे शुक्लध्यान कहे छे. शुक्ल केहतां निर्मल, शुद्ध, पर
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आलंबन विना आत्माना स्वरूपने तन्मयपणे घ्यावे एहवं ध्यान तेने शुक्लध्यान कहियें. तेहना पाया चार छे ते कहे छे.
१ पृथक्त्ववितर्कस प्रविचार - ते पृथक्त्व केहतां नीवथी अजीव जूदा करवा, स्वभाव विभाव तेने जूदा पृथकपणे वहेंचण करवी स्वरूपने विषे पण द्रव्य तथा पर्यायनो पृथकपणे ध्यान करी, पर्याय ते गुणमां संक्रमावे अने गुण ते पर्यायमां संक्रमण करे ए रीते स्वधर्मने विषे धर्मांतरभेद ते पृथक्त्व कहियें अने तेनो वितर्क ते जे श्रुतज्ञाने स्थित उपयोग अने सप्रविचार ते सविकल्पोपयोग एटले एक चिंतव्या पछी बीजो चिंततेने विचार कहियें एटले निर्मल विकल्प सहित पोतानी सत्ताने ध्यावे ते पृथक्त्व वितर्कसप विचार पेहेलो पायो ए आठमा गुणठाणाथी मांडी अग्यारमा गुणठाणा सुधी छे.
२ एकत्व वितर्क अप्रविचार नामा बीजो पायो कहे छे. जे जीव आपणा गुणपर्यायनी एकता करी ध्यावे ते आवी रीते के नीवना गुणपर्याय अने जीव ते एकज छै, अने महारो जीव सिद्धस्वरूप एकज छे एवो एकत्व स्वरूप तन्मयपणे अनंता आत्म धर्मनो एकत्वपणे ध्यानवितर्क केहतां श्रुतज्ञानावलंबीपणे अमे अप्रविचार केहतां विकल्प रहित दर्शन ज्ञाननो समयांतरें कारणता विना रत्नत्रयीनो एक समयी कारण कार्यतापणे जे ध्यान वीर्य उपयोगनी एकाग्रता ते एकत्व - वितर्क अप्रविचार जाणवो. ए पायो बारमा गुणठाणे ध्यावे. ए बेहु पायामां श्रुतज्ञानावलंबनीपणो छे. पण अवधि मनः पर्यव ज्ञानोपयोगें वर्तता जीव कोइ व्यान करी सके नहीं, ए बे ज्ञान परानुयायी छे माटे ए ध्यानथी धनघातिका चार कर्म खचावे. निं
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मल केवल ज्ञान पामे पछे तेरमें गुणठाणे ध्यानंतरीकापणे छे. तेरमाना अंते अने चउदमे गुणठाणे ए बे पाया ध्यावे.
३ सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति पायो कहे छे. ते सूक्ष्म मन, वचन कायाना योग रुंधे, शैलेशी करण करी अयोगी थाय ते जे अप्रतिपाति निर्मलवीर्य अचलतारूप परिणाम से सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति ध्यान जाणवू. इहां सत्ताये ८५ प्रकृति रही हती ते मध्ये ७२ खपावे.
४ उच्छिन्नक्रियानुवृत्ति पायो कहे छे. जे योग निरुंध कीधा पछे तेर प्रकृति खपावे, अकर्मा थाय, सर्व क्रियाथी रहित थाय ते, समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान कहि ये. ए ध्यान-ध्यावतां शेष, दल, खरणरूप क्रिया उच्छेदे, अवगाहना देह मानमाथी चीजो भाग घटाडे, शरीर मूकी इहांथी सातराज ऊपर लोकने अंते जाय, सिद्ध थाय. इहां शिष्य पूछे जे चौदमे गुणठाणे तो अक्रिय छे, तो सात राज उंचो गयो ए क्रिया केम करे छे ? तेने उत्तर जे सिद्ध तो अक्रिय छे, परंतु पूर्व प्रेरणायें तुंबीने दृष्टान्ते जीवमां चालवानो गुण छे. धर्मास्तिकायमध्ये प्रेरणा गुण छे, तेथी कर्मरहित जीव मोक्षे जतां लोकने अंते जइ रहे. इहां कोई पूछे जे आगळ उंचो अलोक छे तिहां किम जातो नथी ? तेने उत्तर जे आगल धर्मास्तिकाय नथी माटे न जाय. वली कोइ पुछे जे तो अधोगतियें अथवा तिरच्छी गतियें केम नथी जातो ? तेने उत्तर जे कर्मना भारथी रहित थयो, हलुवो थयो, माटे नीचो तथा डाबो जिमणो न जाय, कारण के प्रेरक कोइ नथी तथा कंपे नही केमके अक्रिय छ माटे तथा कोइ पूछे जे सिद्धने कर्म केम लागता नथी ? तेने कहे छे से कर्म लो जीवने अज्ञानयी तथा योगथी लागे छे,
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ते सिझना जीवने अज्ञान तथा योग नथी, माटे कर्म लागे नही. ए चार ध्याननो अधिकार कह्यो.
हवे वली बीजा चार ध्यान कहे छे. १ पदस्थ, २ पिंडस्थ, ३ रूपस्थ, ४ रूपातीत. तेमां पहेलं पदस्थ ध्यान कहे छे. जे अरिहंतादीक पांच परमेष्ठीना गुण संभारे, तेनो चित्तमां ध्यान करे ते पदस्थक्ष्यान. २ पिंडस्थ केहतां शरीरमा रह्यो जे आपणो जीव तेमां अरिहंत, सिझ, आचार्य, उपाध्याय अने साधुपणाना गुण सर्व छे एहवो जे ध्यान ते पिंडस्थ ध्यान अथवा गुणीना गुण मध्ये एकत्वता उपयोग करवो ते पिंडस्थ ध्यान. ३ रूपमा रह्यो थको पण ए मारो जीव अरूपी अनंत गुणी छे, जे वस्तुनो स्वरूप अतिशयावलंबी थया पछे आत्मानुं रूप एकतापणो एहवो जे ध्यान ते रूपस्थध्यान. ए त्रण ध्यान धर्म ध्यानमां गणवा. ४ निरंजन, निर्मल, संकल्पविकल्प रहित, अभेद एक शुफ़ सत्तारूप चिदानंद तत्त्वामृत, असंग अखंड, अनंतगुण पर्यायरूप, आत्मस्वरूपनुं ध्यान ते रूपातीत ध्यान जाणवू. इहां मार्गणागुणठाणा नयप्रमाण मति आदिक ज्ञान क्षयोपशमभाव सर्व छांडवा योग्य थया. एक सिद्धना मूल गुणने घ्यावे ते रूपातीत ध्यान जाणवो एटले मोक्ष कारण जे ध्यान ते का.
हवे भावना कहे छे. तेमां धर्म ध्याननी चार भावना कहे छे. १ मैत्री भावना ते सर्व जीव साथे मित्रतानो भाव चिंतववो, सर्वनुं भलं चाहवू पण कोइनुं मालु चिंतववू नही. सर्व जीव ऊपर हित बुद्धि राखवी ते मैत्री भावना. २ गुणवंत अने ज्ञानादिक गुण ऊपरें राग ते बीजी प्रमोदभावना. ३ जे धर्मवंत ऊपर राग अने मिथ्यात्वी ऊपर राग नही तेम द्वेष पण
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नही कारण के हिंसक ऊपरे पण उत्तम जीवने करुणा ऊपजे. जो उपदेश थकी सारा मार्ग आवे तो तेने शुद्ध मार्गे आवो. कदाचित् मार्गे न आवे तो पण द्वेष न राखवो केमके ते अजाण छे एम समजं एहवा जे परिणाम ते मध्यस्थ भावना. ४ सर्व जीवने पोताने तुल्य जाणी दया पाले, कोइने हणे नही तथा जे दुःखी अथवा धर्महीन तेहना उपर करुणा तेना दुःख टाळवानो परिणाम तथा धर्महीन जीव देखीने एवो चितवे जे ए जीव किवारें धर्म पामशे यथार्थ आत्मसाधन पामी स्वरूप धर्मने किवारें अवलंबशे एवो परिणाम ते चोथी करुणा केहतां दया भावना. ए चार भावना कही.
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१ हवे बार भावना कहे छे. शरीर, कुटुंब, धन, परिवार सर्व विनाशी छे. जीवनो मूल धर्म अविनाशी छे. एम चिंतवुं ते पहेली अनित्य भावना. २ संसारमां मरण समये जीवने शरण राखनार कोई नयी. एक धर्मनो शरण छे एवं चितव ते बीजी अशरण भावना. ३ मारा जीवे संसारमां भमतां सर्व भव कीधा छे ए संसारथी हुं केवारें छुटीश, ए संसार मारो नथी. हुं मोक्षमयी छं एम विचारखं ते त्रीजी संसार भावना. ४ ए माहरो जीव एकलो छे, एकलो आव्यो, एकलो जरो, पोताना करेला कर्म एकलो भोगवशे एम चिंतवनुं ते चोथी एकत्व भावना. ५ आ संसारमां कोइ कोइनो नथी एम चिंतव ते पांचमी अन्यत्व भावना. ६ आ शरीर अपवित्र मलमूत्रनी खाण छे, रोग-जराथी भरयो छे, ए शरीरयी हुं न्यारो छं, एम चिंतववो ते छट्ठी अशुचि भावना ७ रागद्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व प्रमुख सर्व आस्रव छे, एम चिंतव ते सातमी आस्रव भावना. ८ ज्ञानव्यानमां वर्त्ततो जीव नवां कर्म बांधे
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नही ते आठमी संवर भावना. ९ ज्ञान सहित क्रिया ते निर्जरानुं कारण छे, ते नवमी निर्जरा भावना १० चउदराज लोक स्वरूप विचारखं ते दशमी लोकस्वरूप भावना. ११ संसारमा भमता जीवने समकित ज्ञाननी प्राप्ति पामवी दुर्लभ छे अथवा समकित पाम्यो पण चारित्र सर्ब विरति परिणाम रूप धर्म पामवो दुर्लभ छे ते अग्यारमी बोधिदुर्लभ भावना. १२ धर्मना कणहार ( कथक) गुरु तथा शुद्ध आगमनुं सांभलबुं हवी जोगवा मलवि दोहेली छे ते बारमी धर्मदुर्लभ भावना एटले बार भावना कही ए चारित्रनुं स्वरूप संपूर्ण कां.
एवो समकित सहित ज्ञानचारित्र ते मोचनं कारण छे, तेना उपर भव्य प्राणीयें विशेषे उद्यम करवो. अने जो तें ज्ञानचारित्र नही पले तोपण श्रेणिक राजानी पेरे सहहणा शुद्ध राखवो. जो समकित शुद्ध छे तो मोक्ष नजीक छे. समकित विना ज्ञानध्यान क्रिया सर्व निःफल छे एम आगममां को छे.
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जंसक्कतं किरइ, अहवा न सक्केइ तहय सद्दहइ | सद्दहमाणो जीवो, पावइ अयरामरं ठाणं ।। १ ॥
अर्थ-रे जीव ! तुं करी शके तो कर अने जो न करी शके तोपण जेवो वीतरागें धर्म को ते रीते सदहजे. सद्दहणा शुद्ध राखनार जीव अजरामर स्थानक ते मोक्ष पदवी पामे.
हवे समकितनो मार्ग कहे छे. १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आस्रव, ६ संवर, ७ निर्जरा, ८ बंध, ९ मोक्ष. ए नव तव छे. तेमां मोक्षनुं कारण जीव छे, अने संवर तथा निर्जरा एबे गुण छे, एटले जीव संवर निर्जरा मोक्ष ए चार उपादेय छे अने बीजा पांच हेय छे एहवो परिणाम
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तेने समकेत ज्ञान कहिये. ते समकेत ज्ञान भलोज थाय तिहां अनुयोगद्वारमा कह्यो छे.
नायम्मि गिन्हियव्वे,। अगिन्हियव्वे अ इच्छ अच्छामि ॥
जइवमेवइयजो, सो उवएसो नओताम । १। अर्थः-ज्ञानथी छ द्रव्य जाणीने लेवा योग्य होय ते ले अने छांडवा योग्य छांडे एवो जे उपदेश ते नय उपदेश जाणवो. हवे समकेतनी दश रुचि कहे छे.
१ निसर्ग रुचि ते निश्चयनये करी जीवादि नव तत्व जाणे आश्रव त्यागे संवर आदरे वीतरागना कह्या भाव जे छ द्रव्य ते द्रव्य क्षेत्र काल भाव सहित जाणे, नामादि चार निक्षेपा पोतानी बुद्धिथी जाणे सद्दहे, वीतरागना भाख्या भाव ते सत्य एवी सद्दहणा होय. .
२ उपदेश रुचि नव तत्व तथा छ द्रव्यने गुरु उपदेशथी जाणी सद्दहे ते उपदेश रुचि.
३ आज्ञा रुचि ते रागद्वेष मोह जेमना गया छे, अज्ञान मिट्युं छे एहवा अरिहंत देव तेणे जे आज्ञा कही तेने माने सदहे ते आज्ञारुचि.
४ सूत्ररुचि. १ आचारांग. २ सुयगडांग. ३ ठाणांग. ४ समवायांग. ५ भगवती. ६ ज्ञाताधर्म कथा. ७ उपासकदशांग. ८ अंतगडदशांग. ९ अनुत्तरोववाइ दशांग. १० प्रश्नव्याकरण. ११ विपाक. ए इग्यार अंग तथा बारमुं अंग दृष्टिवाद जेमां चउद पूर्व हतां ते हमणां विच्छेद गयां छे. तथा १ उबराइ. २ रायपसेणी. ३ जीवाभिगम. ४ पनवणा. ५ जंबुद्वीपपन्नति.
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६ चंदपन्नति ७ सूरपन्नति ८ कप्पीआ. ९ कप्पवडंसिया १० पुप्फिआ. ११ पुप्फचुलीआ. १२ वन्हिदिशा. ए बार उपांग जाणवां. अने १ व्यवहारसूत्र. २ बृहतूकल्प. ३ दशाश्रुतस्कंध. ४ निशीथ. ५ महानिशीथ. ६ जितकल्प. ए छ छेदग्रंथ तथा १ चउसरण २ संथारापयन्ना. ३ तंदुलवेयालीय. ४ चंदाविजय. ५ देविंदथुओ. ७ वीरधुओ. ८ गच्छाचार ९ जोतिकरंड. १० आयुः पञ्चखाण. ए दश पयन्नांना नाम तथा १ आवश्यक. २ दशवैकालिक. ३ उत्तराध्यन. ४ अवनिर्युक्ति. ए चार मूलसूत्र तथा १ नंदि. २ अनुयोगद्वार ए पीस्तालीस आगम ते मूळसूत्र तथा २ निर्युक्ति ३ भाग्य. ४ चूर्ण, ५ टीका ए पंचांगीना वचन जे जीव माने तथा आगम सांभलवानी तथा भवानी जेने वणी चाहना होय ते सूत्ररुचि जाणावी.
५ जे जीव गुरुमुख्यी एक पदनो अर्थ सांभलीने अनेक पद सहहे ते बीजरुचि.
६ अभिगमरुचि ते जे सूत्र सिद्धान्त अर्थ सहित जाणे अने अर्थ विचार सांभलवानी वणी चाहना होय ते अभिगमरुचि.
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७ जे छ द्रव्यना गुण पर्यायने चार प्रमाण तथा सात नये करि जाणे ते विस्ताररुचि.
८ क्रियारुचि ते दर्शन ज्ञान चारित्र, तप, विनय, सुमति, गुप्ति बाह्य क्रिया सहित आत्मधर्म साथे जेने रुचि घणी होय ते क्रियारुचि.
९ संक्षेपरुचि ते जे अर्थने ज्ञानमां थोडो कहें थकें घणी जाणीने कुमतिमां पडे नहि, जिनमतनी प्रतित माने ते संक्षेपरुचि.
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१० जे पांच अस्तिकायनुं स्वरूप जाणे श्रुतज्ञाननो स्वभाव अंतरंग सत्ता सदहे ते धर्मरुचि.
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हवे समकितना आठ गुण कहे छे. १ निःशंका ते जिना - गम मध्ये सूक्ष्म अर्थ कह्या ते साचा सहहे तेमां संदेह आणे नही. तथा सात भयथी पण डरे नहि. १ निकंखा गुण ते पुण्यरूप फलनी चाहना न राखे केमके जिहां इच्छा तिहां कर्मनो बंध छे माटे. ३ निव्वित्तिमिच्छागुण ते शुभ अशुभ पुद्गल एक सरिखा छे तेमां पुण्यना उदयथी शुभयोग मिल्या खुशी थइ अहंकार न करवो तथा पापना उदयथी दुःखसंयोग मिल्या दिलगीर थावुं नही. ४ अमूढदृष्टि गुण ते जे आगममां सूक्ष्म निगोदना तथा छ द्रव्यना सूक्ष्म विचार कह्या छे ते सांभळतो थको मुंजाय नही, जे पोतानी धारणामां आवे ते धारी राखे अने जे धारणामां न आवे तेने सदहे ५ उपबृंहगुण जे ए आपणा जीवमां अनंत ज्ञानादिक गुण छे ते छुपाववा नही. शुद्ध सत्ता जेवी छे तेवी कहेवी, राग द्वेष अज्ञान ते कर्मनी उपाधि छे, जीव ए उपाधिथी न्यारो छे. ६ स्थिरिकरण गुण ते आपणा परिणाम ज्ञानमां स्थिर करवा डगाववा नही अथवा कोई भव्य प्राणी धर्मयी पडतो होय तेने साह्य देइ उपदेश आपी स्थिर करवो. ७ वात्सल्यता गुण ते जेनी साथे ज्ञान ध्यान तप पडिक्कमणो भेलो करता होइये अने सहहणा पण एकज होय ते आपणो साधर्मि भाइ छे तेनी भक्ति करवी अथवा सर्व जीवना ज्ञानादि गुण आपणा समान छे माटे सर्व जीव ऊपर दया करवी अथवा बीजा जीवना पण आपणा तुल्य ज्ञानादि गुण छे ते जीवने पोषवा योग्य ज्ञान ध्याननो वणो अभ्यास करावे. ८ प्रभावक
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गुण ते भगवंतना धर्मनी प्रभावना महिमा करवो अथवा पोताने ज्ञानादि गुण वधारवा दान, शील, तप, भाव, पूजा करी घणो महिमा करवो ए समकितना आठ गुण.
हवे समं कितना पांच भूषण कहे छे. १ उपशम भाव भूषण ते विवेकी प्राणी प्रायें कषाय न करे अने जो कदाचित् कषाय करे तोपण तरत मनने पाछो वाले. २ आस्ताभूषण ते भगवंतना वचन ऊपर शुद्ध प्रतीत राखें, भगवंतें जेम आगममां आज्ञा करी तेम सदहे. ३ दया भाव भूषण ते सर्व जीव पोताना सरीखा जाणी दया पालवी. ४ संवेग भूषण जे संसारथी तथा धनथी शरीरथी उदाशीपणो राखवो. ५ निरवेद्यभूषण ते इन्द्रियना सुख जीवें अनंति वार भोगव्या पण ते दुःखना कारण छे, एक चिदानंद मोक्षमयी अतीन्द्रिय सुखने आपणा करी जाणे ए समकितना पांच भूषण कह्या.
हवे छ आयतन कहे छे. १ निश्चयकुगुरु ते भगवंतना वचनना खोटा अर्थ करे खोटी प्ररूपणा करे २ व्यवहारकुगुरु ते योगी, संन्यासी, ब्राह्मण अने आचारहीन वेषधारी यति ते पण छोडवा. ३ निश्चय कुदेव ते जिणे श्रीवीतरागदेवनुं स्वरूप नयी जाण्यं. ४ व्यवहार कुदेव ते जे सरागीदेव कृष्ण महादेव क्षेत्रपाल देवी पितर प्रमुख ते पण छोडवा. ५ निश्चययी कुधर्म ते जे एकांत मार्ग बाह्यकरणी उपर राच्या छे अंतरंगज्ञान नयी ओलख्यो ते. ६ व्यवहार कुधर्म ते पारका अन्य दर्शनोना मत सर्व छांडवा एटले कुँदेव कुगुरु तथा कुधर्मने छोडी शुद्धदेव गुरु तथा धर्म सदहे ते समद्धितनी सहहणा जाणवी. समकेतना लक्षण पत्रवणा सुत्रथी कहे छे.
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परमत्थसंथवो वा, सुदिपरच्छ सेवणावावि ॥ वावन्न कुदंसणा,
वज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ १ ॥
अर्थ:- परमार्थ
य नव तत्वना गुण पर्याय मोक्षनुं
स्वरूप एटले जे परमार्थ सूक्ष्म अर्थ छे ते जाणवानो घणो परचो करे अथवा जाणवानी वणी चाहना राखे अने सुदिट्ठ कहेतां भली रीते दीठा जाण्या छे परमार्थ छ द्रव्य मोक्षमार्ग जेणे एहवा गुरुनी सेवा करे एटले ज्ञानी गुरु धारवा अने वा कहेतां जिनमति यतिना नाम धरावीने जे क्षेत्रपाल प्रमुखने समकित विना माने एवा गुरुनो संग वर्जे अने कुदर्शनी जे अन्यमति तेनो संग न करे एवा जे परिणाम ते समकितनी सद्दहणा जाणवी.
विरया सावज्जाओ,
कसायहीणा महव्वयवरावि ॥
सम्मदिठ्ठिविहूणा,
कयावि मुख्खं न पावंति ॥ २ ॥
६१
अर्थः- जे सावद्य आरंभयी विरम्या छे क्रोधादि चार कषाय जीत्या छे अने शुद्ध पांच महाव्रत पाले छे पण समकित विना छे ते जीव मोक्ष पामे नहि.
हवे समकित ते शी वस्तु छे ते विषे गाथा कहे छे.
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नयभंगपमाणेहिं, जो अप्पा सायवायभावेणं जाणइ मोक्खसरूवं, सम्मदिठ्ठिओ सो नेओ । ३ ।
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अर्थः-नय तथा भंगे करी तथा प्रमाणे करी जे पोताना आत्माने जाणे ओलखे स्यावाद आठ पक्षे जाणे अने एम स्याद्वादपणे मोक्षनी कर्माऽवस्थाने प्रण जाणे परवस्तुने हेय जाणे जीवगुण उपादेय जाणे तेने समकीति जाणावो. हवे जीवस्वरूप ध्यान करवाने गाथा कहे छे.
अहमिको खलु सुनो, निम्ममओ नाणदंसणसमग्गो।। तम्मि दिडिओ तच्चिसो,
सब्वे ए ए खयं नेमि ॥४॥ अर्थः-ज्ञानी जीव एहq ध्यान करे के हुं एक छु पर पुद्गलथी न्यारो छु निश्चय नयेकरी शुद्ध छु,अज्ञानमलथी न्यारो छु, निर्मल छु, ममताथी रहित छु, ज्ञानदर्शनथी सरयो छु, हुं मारा ज्ञान स्वभाव सहित छु, हुं मारा गुणमा रह्यो छु, चेतनागुण ते महारी सत्ता छे, हुं मारा आत्म स्वरूपने ध्यावतो सर्व कर्म क्षय करुं छु.
निरंजणं निकल अयल, देवअणाइ अणइ अणंतं ॥ चेयणलरूखण 'सिद्धसम,
परमम्पा सिवसंतं ॥५॥ अर्थः-कर्म अंजनथी रहित निरंजन छु, कलंक रहित छु अयल केहतां पोताना स्वरूपथी किवारे चलायमान था नहीं परमदेव छं. जेनी आदि नथी तथा जेनो अंतनिधी चेतना लक्षण छुसिद्ध समान , संतसत्ता मयी छ. .
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जीवादिसद्दहणं सम्मत्तं, एस अहिगमो नाणं ॥ तथ्येव सया रमणं, चरणं एसो हु मुख्ख पहो ॥६॥
अर्थ:-जीवादिक छ द्रव्य जेवा छे तेवा सदहवा ते समकित अने छ द्रव्य जेवा छे तेहवा गुणपर्याय सहित जाणे ते ज्ञान जाणवू. ते छ द्रव्य जाणीने अजीवने छांडे अने अने जीवना स्वगुणमां स्थिर थइने रमे ते चारित्र कहीये. ए ज्ञान दर्शन चारित्र शुद्धरत्नत्रयी ते मोक्षनो मार्ग छे माटे ए ज्ञान दर्शन चारित्रनो घणो यत्न करवो ए रत्नत्रयी पामीने प्रमाद करवो नहीं तिहां निश्चय व्यवहारनी गाथा.
निच्छयमग्गो मुख्खो, ववहारो पुणणकारणो वृत्तो ।। पढमो संवररूवो,
आसपहेउ तओ बीओ ॥ ७॥ अर्थ:-निश्चय नयनो मार्ग ज्ञान सत्तारूप ते मोक्ष- कारण छे एटले मोक्ष छे अने व्यवहार क्रिया नय ते पुण्य कारण कलो. पहेलो निश्चय नय संवर छे अने निश्चय संवर निश्चय नयते एकान छे जूदा नथी. बीजो व्यवहार नय ते आस्रव नपा कर्म लेमानों हेतु छे एटले शुभ पुण्य कर्मनो आस्रव थाय छे अने अनुभं व्यवहारे अशुभ कर्मनो आस्रव थाय छे. कोइ पूछे जे व्यवहारलय आत्रप, कारण छे तो अभेः व्यवहार नहीं आदरसुं एक निश्चय मार्ग आदरमुं तेने उत्तर कहे छे.
जइ जिपमयं पवजह, ता मा ववहारनिच्छए मुयह ।। एकेण विण तिथ्थं, छिज्जइ अनेणओं तच्च ॥८॥
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___अर्थः-अहो भव्य प्राणी ! जो तमने जिनमतनी चाहना छे अने जो तुमे जिनमतने इच्छो छो मोक्षने चाहो छो तो निश्चयनय अने व्यवहारनय छांडशो नहि एटले बेहु नय मानजो. व्यवहार नय चालजो अने निश्चय नय सदहजो जो तुमे व्यवहार नय उथापशो तो जिन शासनना तीर्थनो उच्छेद था. जेणे व्यवहारनय न मान्यो तेणे गुरु वंदना, जिनभक्ति, तप, पञ्चख्खाण, सर्व न मान्या एम जेणे आचार उथाप्यो तेणे निमित्त कारण उथाप्यो अने निमित्त कारण विना एकलो उपादान कारण ते सिद्ध न थाय माटे निमित्त कारण रूप व्यवहार नय जरूर मानवो अने जो एकलो व्यवहारनय मानियें तो निश्चय नय ओलख्या विना तत्त्व- स्वरूप जाण्यु जाय नही माटे तत्वमार्ग अने मोक्षमार्ग ते निश्चय नय विना पामियें नहीं अने तत्वज्ञान विना मोक्ष नथी एटले निश्चय विना व्यवहार निःफल छे अने निश्चय सहित व्यवहार ते प्रमाण छे, तेनो दृष्टान्त-जेम सोनाना
आभूषणमां उपधातु अथवा किणजो मिल्यो होय तेपण उंचा सोनाने भावें लेइ राखियें छैयें अने जो ते किणजो तथा सोनुं जू, करिये तो सहु कोइ सोनाने ले पण कोइ किणजो जे कुधातु ते लीये नही तेम निश्चयनय सोना समान छे माटे निश्चयनय सहित सर्व भला छे अने निश्चयनय विना सर्व अलेखे छे माटे आगममां निश्चय व्यवहार रूप मोक्षमार्ग छे ते कयो. वली शरीर ऊपर मोह करे नही ते विषे.
च्छिज्जो मिज्जो जाय खओ, जोइ हमे हु सरीरं ॥ अप्पा भावे निम्मलो, जं पावं भवतीरं ॥ ९॥
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अर्थः - भव्य प्राणी एम चिंतवे जे ए शरीर छीजजाओ, मिजजाओ, क्षय थइ जाओ, विणसीजाओ, ए म्हारुं शरीर पौगलिक छे परवस्तु छे ते एक दिवसे मूकवुं छे माटे रे प्राणी ! तुं आपणा आत्माने निर्मलपणे घ्यावतो संसारथी तरीने कांठो पामीश.
ए हिज अप्पा सो परमप्पा, कम्मविसेसोइ जायोजप्पा || इयमे देवज्जाजसो परमप्पा, बहु तुझे अप्पो अप्पा ॥ १० ॥
यः परात्मा परं ज्योतिः, परमः परमेष्ठिनाम् ॥ आदित्यवर्णं तमसः,
परस्तादामनंति यम् ॥ १ ॥
ब्रह्म छे पण कर्मने वश पड्यो शरीरमां जे जीव छे ते देव छे, आपणो आत्मा घ्यावो, तरण तारण त्माज छे एम श्री हेमाचार्ये वीतरागस्तोत्रमां को छे.
अर्थ :- अहो भव्यजीव ! एहीज आपणो आत्मा छे ते शुद्ध जन्ममरण करे छे पण ए परमात्मा छे, माटे तुमे जिहाज ए आपणो आ
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सर्वे येनोदमूल्यंत,
समूलाः क्लेशपादपाः । इत्यादि ॥
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अर्थ - परमात्मा छे परमज्योति छे, पंच परमेष्ठीयी पण अधिक पूज्य छे. केमके पंचपरमेष्ठीतो मोक्षमार्गना देखाडनारा छे पण मोक्षमां जवावालो तो आपणो जीव छे, अज्ञाननो मि
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टावनार छे सर्व कर्म क्लेशनो खपावनार छे एवो आत्माध्यावो एहिज परम श्रेयनुं कारण छ, शुद्ध छे. परम निर्मल छे. एहवो आत्मा उपादेय जाणी सदहे अने जेबो पोताथी निखाह थाय तेवो त्याग वैरागमा प्रवर्त एटले धन ते परवस्तु जाणी सुपात्रने दान आपे अने इन्द्रियना विकार ते कर्मबंधना कारण जाणी परिहरे, शील पाले, जे आहार छे ते पौद्गलिक परवस्तु छे, शरीर पुष्टीनुं कारण छे, अने शरीर पुष्ट कीधाथी इंद्रियोना विषयनो पोष थाय माटे ते पर स्वभाव छे, अज्ञान संसार- कारण छे माटे आहारनो त्याग करवो तेने तप कहियें. तथा पूजा ते जे श्री अरिहंत देवें मोक्षमार्ग उपदेश्यो ते आपणे जाण्यो माटे आपणा उपकारी छे ते उपकारीनी बहुमान सहित भक्ति करि ये. माटे श्री अरिहंत देवाघिदेवनी पूजा करवी. एम दान शील, तप, पूजा, सर्व जीव अजीवनुं स्वरूप ओलख्या विना जे करवू ते पुण्यरूप इंद्रिय सुखनुं कारण छे अने जे जीवने उपादेय करी वांछा विना करणी करे छे ते निर्जरानुं कारण छे. एम दया पण श्रीभगवती सूत्रमा सातावेदनी कर्मनुं कारण छे एटले सम्यक ज्ञानीने सर्व करणी ते निर्जरारूप छे अने ज्ञान विना सर्व करणी बंधन कारण छ, माटे ज्ञाननो घणो अभ्यास करजो ए भगवतें सीखामण दीधी छे.
तथा ज्ञान- कारण श्रुतज्ञान छे तेनो घणो भाव राखजो. श्रीठाणांगमां तथा उत्तराध्ययनमां तथा भगवतीमां १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परावर्तना, ४ अनुप्रेक्षा, ५ धर्मकथा. ए सझ्झाय भणवा गुणवानुं फल मोक्ष कह्यो छे. सझाय करवायी ज्ञानावरणी कर्म खपावे केमके वाचनाथी तीर्थधर्म प्रवर्ते, महानि
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जरा थाय पूछवाथी सूत्र तथा अर्थ शुद्ध थाय मिथ्यात्व मोहनीय खपावे ते जेम जेम अर्थ विचार पूछे तेमतेम समकित निर्मळ थाय अने अनुप्रेक्षा ते अर्थ विचारतां सात कर्मनी स्थितिना रस पातला करे. अनंतो संसार खपावीने पातली करे तथा श्रुतज्ञाननी आराधनाथी अज्ञान मिटे एवा फल कह्या छे. ____ माटे वांचवा तथा भणवानो घणो उद्यम करवो केमके आज पांचमा आरामां कोइ केवली नथी तथा मनःपर्यवज्ञानी अने अवधिज्ञानी पण नथी एकमात्र श्रुतज्ञान तेहिज आगमनो आराधक छे यतः
कथ्थ अम्हारिसा पाणी, दुसमादोसदसिया ॥ हा यणाहा कहं हुंता,
न हुँतो जइ जिणागमो ॥ १ ॥ अर्थ-हे भगवंत! अम सरिखा प्राणीनी शी गति थात जे अमें आ दुसम पंचम कालमां अवतार लीधो. हा-इति खेदे, अमे अनाथ छं. (छीए) जो जिनराजना कहेला आगम न होत तो आज शुं थात, एटले आज आगमनोज आधार छे माटे आगम अने आगमधर जे बहुश्रुत तेनो घणो विनय करवो. आगममां विनयनुं फल ते सांभलवू अने सांभलवान फल ज्ञान छे, ज्ञाननुं फल मोक्ष छे, एम आगम सांभली लेवा योग्य लेजो, अयोग्य छांडजो, सद्दहणा शुद्ध राखजो, सद्दहणा ते मोक्ष- मूल छे. ए इन्द्रिय सुख तो आ जीवे अनंतिवार पाम्युं छे. एहवी जाति-जन्म-योनि कोइ रही नथी जे आपणा जीवे नही करी होय. ए जीवने संसारमा
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आगमसार.
भमतां अनंता पुद्गल परावर्तन थया पण धर्मनी जोगवायी मली नही तो हवे मनुष्यभव, श्रावककुल, निरोग शरीर, पंचेंद्रिय प्रगट बुद्धि निर्मल, एटला संयोग मल्या वली श्री वीतरागनी वाणीना कहेनारा शुद्ध गुरुनी जोगवाइ पामीने अहो भव्यलोको ! तुमे धर्मने विषे विशेष उद्यम करजो, फरिथी एवी जोगवाइ मिलवी दुर्लभ छे माटे प्रमाद करशो नही. ए शरीर, धन, कुटुंब, आयुष्य सर्व चंचल छे. क्षण क्षण छीजे छे, माटे पांच समवाय कारण मल्या मोक्षरूप कार्य सिफ करवू ते पंचसमवायना नाम कहे छे. १ काल, २ स्वभाव, ३ नियति, ४ पूर्वकृत, ५ पुरुषकार. ए पांच समवाय माने ते समकीति छे एमां एक समवाय उथ्थापे तेहने मिथ्यात्वी कहियें एम सम्मति सूत्रमा कह्यो छे.
कालो सहा नियइ, पुवकयं पुरिसकारणे पंच ॥ समवाए सम्मत्तं, एगंते होइ मिच्छत्तं ॥१॥ अर्थः-काल लब्धि विना मोक्षरूप कार्य सिद्ध थाय नही एटले काल सर्वनुं कारण छे. जे काले जे कार्य थवानो होय ते कार्य ते कालें थाय ए काल समवाय अंगीकार करी कह्यो. इहां कोई पूछे जे अभव्य जीव मोक्षे केम जता नथी तेने उत्तर जे अभव्यने काल मले पण अभव्यमां स्वभाव नयी तेथी मोक्षे जाय नही केमके काल स्वभाव ए बे कारण जोइये. तेवारें फरि पूछ्युं जे भव्य जीवमां तो मोक्षे जवानो स्वभाव छे तो सर्व भव्य केम मोक्ष जता नयी तेने उत्तर जे नियत कहेतां निश्चय समकित गुण जागे तेवारें मोक्षपामे एटले काल स्वभाव नियत ए त्रण कारण मान्या ते वारे फरि पूछयुं जे
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समकित आदि कारण तो श्रेणिक राजाने हता तो मोक्ष केम न थयो ? तेने उत्तर जे पूर्वकृत कर्म घणां हृतां अथवा पुरुषकार जे उद्यम करयो नही. फरी पृछ्युं जे शालिभद्र प्रभुए तो उद्यम घणो कीधो तेनुं उत्तर जे तेमना पूर्वकृत शुभकर्म खप्यां नहतां माटे पांच समवाय मिल्या कार्यनी सिद्धि थाय, तेवारें फरि पूछयुं जे मरुदेवा माताने तो चार कारण मिल्या पण पांचमो पुरुषकार उद्यम कांड कीधो नहीं तेने उत्तर जे क्षपक श्रेणि चढवानो शुक्ल ध्यान रूप उद्यम कीधो छे माटे पांच समवाय मील्या मोक्षरूप कार्य सिद्ध थाय.
जेवारें केवलज्ञाने करी सर्व द्रव्य जेम रह्या छे तेम देखे एटले आकाशद्रव्य लोकालोक प्रमाण छे तेमां अलोकमां बीजुं द्रव्य कोई नयी. लोकाकाशना एकेक प्रदेशे धर्मास्तिकाय, अधमस्तिकायनो एकेक प्रदेश रह्यो छे तथा अनंता जीवना अनंता प्रदेश रह्या छे, अनंता पुल परमाणुआ रह्या छे. कालनो समय सर्वत्र व ले.
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हवे छ द्रव्यनी फरसना कहे छे. धर्मास्तिकायना एक प्रदेशे धर्मास्तिकायना छ प्रदेश फरस्या छे ते आवी रीते के चार दिशिना चार अने पांचमो नीचे, छट्टो ऊपर ए छ प्रदेश फरस्या छे तथा एक मूल पोतें प्रदेश एम सात प्रदेशनो संबंध छे अने धर्मास्तिकायना एक प्रदेशने आकाशद्रव्य तथा अधर्मास्तिकायना सात सात प्रदेश फरशे छे तें एक मूलना प्रदेशने बीजा द्रव्यनो मूलनो प्रदेश फरशे माटे सात प्रदेशनी फरसना छे अने धर्मास्तिकायना एक प्रदेशें जीव पुद्गलना अनंता प्रदेशनी फरशना छे अने लोकने अंते जे धर्मास्तिकायना प्रदेश छे तेने आकाशनी फरसनातो छए दिशीनी छे
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आगमसार.
अने एकमूल प्रदेश सुद्धां सात प्रदेशनी फरशना छे अने बीजा द्रव्यनी त्रण दिशीनी फरशना छे एम सर्व द्रव्यनी फरशना छे अने आकाशथी धर्म अधर्मनी अवगाहना सूक्ष्म छे धर्म अधर्म द्रव्यथी जीवनी अवगाहना सूक्ष्म छे जीवथी पुनलनी अवगाहना सूक्ष्म छे.
एम छ द्रव्यना गुण पर्याय सामान्य स्वभाव ११ छे. अने विशेष स्वभाव दश छे. ते श्रीकेवली भगवंत ज्ञानयी दर्शनयी देखे. ते इग्यार सामान्य स्वभाव कहे छे. १ अस्ति स्वभाव, २ नास्ति स्वभाव, ३ नित्य स्वभाव, ४ अनित्य स्वभाव, ५ एक स्वभाव, ६ अनेक स्वभाव, ७ भेद स्वभाव, ८ अभेद स्वभाव, ९ भव्य स्वभाव, १० अभव्य स्वभाव, ११ परम स्वभाव. ए इग्यार सामान्य स्वभाव सर्व द्रव्यमां छे. ए सामान्य उपयोग दर्शन गुणथी देखे. हवे दश विशेष स्वभाव कहे छे. १ चेतन स्वभाव, २ अचेतन स्वभाव, ३ मूर्ति स्वभाव, ४ अमूर्ति स्वभाव, ५ एक प्रदेश स्वभाव, ६ अनेक प्रदेश स्वभाव, ७ शुद्ध स्वभाव, ८ अशुद्ध स्वभाव, ९ विभाव स्वभाव, १० उपचरित स्वभाव. ए दश विशेष स्वभाव छे. कोइक द्रव्यमां कोइक स्वभाव छे, कोइक द्रव्यमां कोइक स्वभाव नयी, ए ज्ञानथी जाणे एटले सिद्ध भगवान लोकालोक सर्व ज्ञानोपयोगयी जाणी रह्या छे. दर्शनोपयोगथी देखी रह्या छे एहवा अनंत गुणी अरूपी सिद्ध भगवान छे ते समान पोताना आत्माने जाणे उपादेय करी ध्यावे ते समकित जाणवो. ॥ दोहा ॥
अष्ट कर्म वन दाहके, भए सिद्ध जिनचन्द ॥ ता सम जो अप्पा गणे, वंदे ताको इंद
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॥ १ ॥
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आगमसार.
कर्मरोग औषधसमी, ज्ञान सुधारस वृष्टि ॥ शिव सुखामृत सरोवरी, जय २ सम्यक् दृष्टि ॥२॥ एहिज सद्गुरु शीख छे, एहिज शिवपुर माग ॥ लेजो निज ज्ञानादि गुण, करजो परगुण त्याग ॥३॥ ज्ञान वृक्ष सेवो भविक, चारित्र समकीत मूल ।। अमर अगम पद फल लहो, जिनवर पदवी फूल ॥ ४॥ संवत सत्तर छिहत्तरे, मनशुद्ध फागुण मास ॥ मोटे कोट मरोटमे, वसतां सुख चोमास ॥५॥ सुविहित खरतर गच्छ सुथिर, युगवर जिन चंद सूर ॥ पुण्य प्रधान प्रधान गुण, पाठक गुणे पंडूर ॥६॥ तास शिष्य पाठक प्रवर, सुमतिसार गुणवंत ॥ सकल शास्त्र ज्ञायक गुणी, साधुरंग जसवंत ॥७॥ तास शिष्य पाठक विबुध, जिनमत परमत जाण ॥ भविक कमल प्रतिबोधवा, राजसागर गुरुभाण ॥८॥ ज्ञानधर्म पाठक प्रवर, शमदम गुणे अगाह ॥ राजहंस गुरु गुरु शक्ति, सहुजग करे सराह ॥९॥ तास शिष्य आगमरुचि, जैनधर्मको दास ॥ देवचंद आनंदमें, कीनो ग्रंथ प्रकाश ॥१०॥ आगमसारोद्धार एह, प्राकृत संस्कृत रूप ॥ ग्रंथ कियो देवचंदमुनि, ज्ञानामृत रसकूप ॥११॥ करयो इहां सदाय अति, दुर्गदास शुभचित्त ॥ समजावन निज मित्रकुं, कीनो ग्रंथ पवित्त ॥१२॥ धर्ममित्र जिन धर्म रतन, भविजन समकितवंत ॥ शुद्ध अमरपद ओलखण, ग्रंथ कियो गुणवंत ॥१३॥
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आगमसार.
॥ १४ ॥
तत्त्वज्ञान मय ग्रंथ यह, जोवे बालाबोध || निजपर सत्ता सब लिखे, श्रोता लहे प्रबोध ता कारण देवचंद मुनि, कीनो आगम ग्रंथ ॥ भणशे गुणशे जे भविक, लहेशे ते शिवपंथ ॥ १५ ॥ कथक शुद्ध श्रोतारुचि, मिलजो एह संयोग ॥ तत्वज्ञान श्रद्धा सहित, वली काय निरोग परमागमसुं राचजो, लहेशो परमानंद ॥ धर्मराग गुरु धर्मसौं, धरजो ए सुखकंद ग्रंथ कियो मनरंगसो, सितपख फागुणमास ॥ भोमवार अरु तीज तिथि, सफल फली मन आस ॥ १८ ॥
॥ १६ ॥
॥ १७ ॥
॥ इति श्रीआगमसारोद्धारग्रंथः समाप्तः ॥
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॥ श्रीपरमगुरुभ्यो नमः ॥
अथ
श्रीदेवचंद्रजीकृत नयचक्रसा
बालावबोध सहित लिख्यते.
॥ मंगलाचरण ॥
प्रणम्य परमब्रह्म शुद्धानन्दरसास्पदम् । वीरं सिद्धार्थराजेन्द्र नन्दर्न लोकनन्दनम् ॥ १ ॥ नत्वा सुधर्मस्वाम्यादि, सङ्घ सद्वाचकान्वयं । स्वगुरून् दीपचन्द्राख्यपाठकान् श्रुतपाठकान् ॥ २॥ नयचक्रस्य शब्दार्थ कथनं लोकभाषया । क्रियते बालबोधार्थी सम्यगमार्गविशुद्धये ॥ ३ ॥
प्रशस्ति
श्रीजिनागमने विषे १ द्रव्यानुयोग २ चरणकरणानुयोग ३ गणितानुयोग ४ धर्मकथानुयोग ए चार अनुयोग कला छे तेमां छ द्रव्य अने नव तत्व तेना गुण पर्याय स्वभाव परिणमनने जाणवुं ते द्रव्यानुयोग एवं पंचास्तिकायनुं स्वरूपकथन
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
रूप छे ते पंचास्तिकायमध्ये एक आत्मा नामे अस्तिकाय द्रव्य छे ते आत्मा अनंता छे तेना मूल बे भेद छे तेमां एक सिद्ध निष्पन्न सर्वकर्मावरणदोषरहित संपूर्णकेवलज्ञान केवलदर्शनादिगुणप्रकटरूप, अखंड, अमल, अव्यावाबाधानंदमयी, लोकने अंते विराजमान, स्वरूपभोगी ते सिद्धजीव कहिये. ते सिद्धता सर्व आत्मानो मूल धर्म छे, ते सिद्धतानी ईहा करवाने सिमभगवंतनो यथार्थसिद्धपणो ओलखीने निष्पन्न सिद्धनो बहुमान करवो अने पोते पोतानी मूले अशुद्धचेतनपणे परिणमतां बांध्यां जे ज्ञानावर्णादिकर्म ते टालीने पोतानी संपूर्ण सिम्तानी रुचि करवी एहीज हितशिक्षा छे.
वली बीजो भेद संसारिजीवोनो छे ते जेणे आत्मप्रदेशे स्वकर्तापणे कर्मपुद्गलने ग्रह्या जेने कर्मपुद्गलनो लोलीभाव छे ते मिथ्यात्व गुणठाणाथी मांडीने अयोगी केवली गुणठाणाना चरमसमयपर्यंत सर्व संसारीजीव कहिये तेना वली बे भेद छे, एक अयोगी, बीजा सयोगी. ते सयोगीना बे भेद, एक सयोगीकेवली बीजा छद्मस्थ. छद्मस्थना बे भेद एक अमोही बीजा समोही. समोहीना बे भेद छे एक अनुदितमोही बीजा उदितमोही. उदितमोहीना बे भेद एक सूक्ष्ममोही बीजा बादरमोही. बादरमोहीना बे भेद एक श्रेणिवंत बीजा श्रेणिरहित. श्रेणिरहितना बे भेद एक संयमी विरति बीजा अविरति, अविरतिना वली बे भेद एक समकीति बीजा मिथ्यात्वी. मिथ्यात्वीना बे भेद एक ग्रंथिभेदी बीजा ग्रंथिअमेदि. ग्रंथिअमेदिना बे मेद एक भव्य बीजा अभव्य. तेमां अभव्यजीवोनुं तो दल ज एवो होय जे. श्रुतअभ्यास पण करे तथा द्रव्यथी पंच महाव्रत आदरे पण आत्मधर्मना यथार्थ श्रद्धा विना पेहेलो गुणठाणो किवारे
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. ७५ मूके नही माटे ए जीवो ते सिद्धपद पामवाने योग्य नही ते अभव्य चोथे अनंते छे. ____ बीजा भव्य ते जे सिद्धपणाने योग्य छे जेने कारणयोग मिले पलटण पामे ते भव्यजीवो अभव्यथी अनंतगुणा छे ते मध्ये केइक भव्य सामग्रीयोग पामी ग्रंथिभेद करीने समकित पामे अने केटलाएक भव्य तो सामग्रीने अभावें समकित पामे ज नही. उक्तं च विशेषणवत्यां सामग्गीअभावाओ, ववहाररासिअप्पवेसाओ॥ भव्वावि ते अणंता, जे सिद्धसुहं न पावंति ॥१॥
पण ते भव्य जीवोमां योग्यताधर्म छतो छे ते माटे भव्य कहिये. जे जीव मिथ्यात्व तजीने शुफ यथार्थ आत्मपणे व्यापक रह्यो तेज मारो धर्म अने जेयी ते आत्मसत्तागत धर्म प्रगटे ते साधनधर्म बे भेदे छे एक वायणा-पुछ गादि-वंदन, नमनादि पडिलेहण-प्रमार्जनादि जेटली योगप्रवृत्ति ते सर्वद्रव्यथी साधनधर्म कहिये ते भावधर्म प्रगट करवाने जे करे तेने कारणरूप छे द्रव्य ते जे भावनुं “ कारण कारयासे दव्वं ” इति आगमवचनात् ॥ ___ अने जे उपयोगादि पोताना क्षयोपशमभावें प्रगट्या जे ज्ञानवीर्यादिगुण ते पुद्गलानुयायीपणायी टालीने शुद्धगुणी जे श्रीअरिहंत-सिद्धादिक तेना शुद्धगुणने अनुयायी करवा अथवा आत्मस्वरूप अनंतगुणपर्यायरूप तेने अनुयायी करवा ते भावथी साधनधर्म जाणवो ए आत्मा नीपजाववानो उपाय छे.
जिहां लगे आत्मानुं शुद्धस्वरूप चिदानंदघन ते साध्यमां नथी अने पुद्गलसुखनी आशायें विष, गरल, अन्योन्य अनुष्ठान जे करखं ते संसारहेतु छे माटे साध्यसापेक्षपणे स्याद्वादश्रद्धायें
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
साधन करवू एहिज मार्ग छे अने ए मार्गनी जे प्रतीतरुचि सम्यक्त्व कहिये.ते सम्यक्त्व ग्रंथिभेद करयो पामिये ते ग्रंथिभेद तो त्रण करण करे तो जडे ते त्रण करण जीव करे तेवारें सम्यकदर्शन पामे ते त्रण करणमां पेहेलं यथाप्रवृत्तिकरण, बीजूं अपूर्वकरण, त्रीजु अनिवृत्तिकरण ए करण सर्व संज्ञी पन्द्रि करे तेमां प्रथम यथा प्रवृत्तिकरण ते भव्य तथा अभव्य पण करे कोईक जीव अनंतिवार करे ते यथाप्रवृत्तिकरण- स्वरूप लखिये छैये..
सर्वकर्मनी उत्कृष्टस्थितिना बांधनार जीवने संक्लेश घणो छे माटे यथाप्रवृत्तिकरण करे नही, उक्तंच विशेषावश्यकेउकोसद्वि न लप्भइ भयणा एएमु पुव्वलद्वाए ॥ सव्वजहन्नठिइसु वि, न लम्भई जेण पुवपडिवन्नो ॥१॥ माटे कर्मनी उत्कृष्टस्थितिनो बांधनार जीव ते चार सामायिकनो लाभ न पामे अने जे जीव सात कर्मनी जवन्यस्थिति बांधे ते जीव तो गुणवंत ज छे ए रीत छे माटे जे वारें एक कोडाकोडी सागरोपम पल्योपमने असंख्यातमें भागे उणी स्थिति बांधतो होय ते तथाप्रवृत्तिकरण करे जे जीव कर्मक्षपणारूप शक्ति पाम्यो न हतो ते शक्ति पाम्यो तेने यथाप्रवृत्तिकरण कहिये उक्तं च भाष्ये येन अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तं कर्मक्षपणं क्रियते अनेनेति करणं जीवपरिणाम एव उच्यते अनादिकालात् कर्मक्षपणप्रवृत्तावध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तिकरणमित्यर्थः
क्षयोपशमी चेतनावीर्य जे संसारनी असारता जाणे संसार दुःखरूप करी जाणे तेथी परिग्रह शरीरथी खरे उद्धेगें उदासीनता परिणामे करी सातकर्मनी स्थिति अनेक कोडाकोडीना थोकडा असंख्याता जे सत्तामा हता ते खपावे ने कांइक
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उणी एक कोडाकोडी राखे ए यथाप्रवृत्तिकरण आत्मा अनंतिवार करे पण ग्रंथिभेद करी शके नही ए करण ते गिरि नदीने विचें आव्युं पाषाण ते घंचना घोलनारूप चालवे करीने जेम सहेजे सुंहालो थाय अने कोइक आकार पकडे तेम जन्म मरणादि दुःखने उद्वेगें अनाभोगथी ज भववैरागें जीव यथाप्रवृत्तिकरण करे एहिज जीव कोइक रीतें वैराग्ये विचारे जे भवभ्रमण ते दुःख छे. ए संयोगवियोगादि असार छे पण कांइक ज्ञानानंदादि ते सार छे एहवी गवेषणा करनारो जीव ते यथाप्रवृत्तिकरण करीने अपूर्वकरण करे. इहां कोइ पुछे जे भव्यने तो पलटण योग्यता छे पण अभव्य जीव केम करे तेनुं उत्तर जे तीर्थकरभक्तिमां जे देवतानी महिमा तथा लोक सन्मानादिक देखीने पुण्यनी वांछायें देवत्व राज्यादिक लाभ इच्छायें इग्यार अंग तथा बाह्य पंच महाव्रतादि पामे पण तेने सम्यक्त्व न होय जे पुलाभिलाषी छे तेने गुणस्पर्श न थाय उक्तं च महाभाष्ये || अर्हदादिविभूतिमतिशयवतीं दृष्ट्वा धर्मादेवंविधसत्कारो देवत्वराज्यादयः प्राप्यंते इत्येवं समुत्पन्न बुझेर भव्यस्यापि देवनरेंद्रादिपदेहया निर्वाणश्रद्धारहितकष्टानुष्ठानं किंचिदंगीकुर्वतो ज्ञानरूपस्य श्रुतसामायिकमात्रलाभेऽपि सम्यक्त्वादिलाभः श्रुतस्य न भवत्येवेति ॥ ए रीतें धारखं.
तथा अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणनो अधिकार जेम आगमसारमां लख्यो छे तेज प्रमाणे इहां पण जाणवो. इम त्रण करण करीने उपशम अथवा क्षयोपशम अथवा क्षायिक सम्यक्त्व जे पाम्यो अने आत्मप्रदेशें वर्त्तमाने सम्यक्दर्शनगुणनो रोधक एहवो मिथ्यात्व मोहनकृतिना विपाकोदयने टलवे करीने जे सम्यक्दर्शनगुणनी प्रवृत्ति थाय तेथी यथार्थपणे निर्द्धार स
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार
हित जाणपणो प्रवर्त्ते ते जीवने द्रव्यानुयोगें तवज्ञान प्रगटे तेथी जे आत्मगुण प्रगटे ते आत्मगुणरक्षणायें ज प्रवर्त्ते एहवी स्वरूपानुयायी आत्मगुणनी प्रवृत्ति तेहने धर्म करी सदहे ते माटे स्याद्वादपरिणामी पंचास्तिकाय छे ते स्याद्वादरूप ज्ञान ते नयज्ञाने थाय माटे नयसहित ज्ञान करखुं ते नयज्ञान अति दुर्लभ छे. अने नयनी अनंतता छे उक्तं च जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ।। ते जे पूर्वापर सापेक्ष नही ते कुनय कहियें. अने सर्वसापेक्षपणे वर्त्ते ते सुनय कहियें. ते मूल सात नयं छे, तेनुं स्वरूप अल्पमात्र लखियें छैयें.
·
नय ते ज्ञानगुणनुं प्रवर्त्तन छे. जे कारणे एकद्रव्य मध्ये अनंता धर्म छे ते एकसमये श्रुतोपयोगमां आवे नही, स्या माटे जे श्रुतज्ञाननो उपयोग असंख्यात समयें थाय. अने वस्तु मध्ये तो अनंता धर्म एकसमये परिणमता पामियें लेवारें श्रुतज्ञान सत्य थाय नही तेमाटे नयें करी जाणे तथा यद्यपि केवलीनो उपयोग एकसमयी छे तेमाटे जापवामां नयनुं कार्य केवलीने पडे नही पण वचने कहेतां केवलीने पण नयें करी कहेवुं पडे, कारण के वचन तो क्रमे करीने बोलाय के अने वस्तुधर्म अनंता एकसमयकाले छे तेमाटे नयें करी कहे बली जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्य कहे छे:
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जीवादि द्रव्यमां जे गुण छे ते अनंतस्वभावी, छे, गुणनी छति तेनुं परिणमन तेनी प्रवृत्ति तेमां जे समये कारणता ते समये ज. कार्यता इत्यादि अनेक परिप्पतिसहित छे तेथी कोइक रीते, सर्वनुं भिन्नामित्रपणे ज्ञान थाय ते नवयी चाय. माटे समकित रूचि जीवने नयसहित ज्ञान करवुं जे एटला धर्म सर्वद्रव्य सो रह्या छे माटे प्रथमतो श्रीगुरुकृपायी व्यगुण पर्याय
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार
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ओलखावे छे ए पीठिका कही. हवे मूलसूत्रना अर्थनुं व्या
ख्यान करे छे.
श्रीवर्द्धमानमानम्य, स्वपरानुग्रहाय च ॥
क्रियते तवबोधार्थ, पदार्थानुगमो मया ॥ १ ॥
अर्थ || श्रीके० गुणनी शोभा अतिशय शोभायें विराजमान एहवा श्रीवर्द्धमान अरिहंत शासनना नायक ते प्रतें अत्यंतपणे नमीने नमस्कार करीने पोतानो मान मूकी त्रण योग समावी गुणीने अनुयायी चेतनानुं करवुं तेने नमनुं कहियें तेपण स्वके० पोताने अने पर जे शिष्य अथवा श्रोतादिकने अनुग्रहके ० उपकारने सारु तवके यथार्थ वस्तुधर्म तेने बोधके०जाणवाने अर्थ पदार्थके धर्मास्तिकायादिक छ मूलद्रव्य तेनो अनुगमके० साचो प्ररुपवो ते क्रियते के० करि यें छैयें.
●
Ο
जगत्मां मतांत्रीओ द्रव्यने अनेकपणे कहे छे तिहां नयायिक सोल पदार्थ कहे छे. वैशेषिक सात पदार्थ कहे छे. वेदांति, सांख्य एक पदार्थ कहे छे. मीमांसक पांच पदार्थ कहे छे. पण ते सर्व मिथ्या छे. तेणे पदार्थनुं स्वरूप जाण्युं नथी अने श्री अरिहंत सर्वज्ञ प्रत्यक्षज्ञानी ते एक जीव अने पांच अजीव ए रीतें छ पदार्थ कहे छे. इहां कोइ पुछे जे नवतत्वरूप नव पदार्थ कह्या छे ते केम ? तेने उत्तर जे एक जीव, बीजो अजीव, ए बे पदार्थ तो मूल छे अने शेष सात तत्त्व तो जीव अजीवनो साधक बाधक शुद्ध अशुद्ध परिणतिनी अवस्था मित्र ओलखाववाने करचा छे.
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
श्लोक ॥ द्रव्याणां च गुणानां च, पर्यायाणां च लक्षणं ॥
निक्षेपनयसंयुक्तं, तत्त्वभेदैरलङ्कृतम् ॥ तत्र तत्त्वभेदपर्यायाख्यातस्थजीवादेवस्तुनो भावः स्वरूपतत्त्वम्
अर्थ ॥ द्रव्यना गुणना तथा पर्यायना लक्षण जे ओलखाण ते निक्षेपे करी तथा नयें करी युक्त तत्वना भेदें सहित कहुं छु तत्र के तिहां जिनागमने विषे तत्व जे वस्तुस्वरूप, भेद तेना जूदा जूदा भेदपर्याय तेमां रह्या जे धर्म एटला प्रकारे व्याख्या के०अर्थकहेवू तेणे करीने यथार्थ व्याख्यान थाय तिहां तत्त्वतुं लक्षण कहे छे. व्याख्यान करवा योग्य जे जीवादिक वस्तु तेनो मूलधर्म ते वस्तुनुं स्वरूप तत्त्व कहिये जेम कंचननुं स्वरूप पीत गुरु स्निग्धतादि तथा एन कार्य भरणादिक अने एहनुं फल ते एहथी अनेक भोग्यवस्तु आवे एम जीवनुं स्वरूप ज्ञान दर्शन चारित्रादि अनंतगुण तथा जीवनुं कार्य सर्वभाव- जाणवू प्रमुख ए रीतें अमेदपणे रह्या जे धर्म ते सर्व वस्तुनुं तत्त्व कहिये.
येन सर्वत्राविरोधेन यथार्थ या व्याप्यव्यापकभावेन लक्ष्यते वस्तुस्वरूपं तल्लक्षणं तत्र द्रव्यभेदा यथा जीवा अनंताः कार्यभेदन भावभेदा भवन्ति क्षेत्रकाल भावभेदानामेकसमुदायित्वं द्रव्यत्वम्
अर्थ ।। हवे लक्षण कहे छे. जे गुणे करी सर्वद्रव्य स्वजातिमां अविरोधिपणे यथार्थपणे १ अतिव्याप्ति २ अव्याप्ति असंभवादि दोषरहित वस्तु जे व्याप्य तेहने विषे व्यापकपणे लखिये
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जाणिये तेने वस्तुनुं लक्षण कहिये. ते लक्षण बे प्रकारनुं छे एक लिंगबाह्य आकाररूप अने बीजं वस्तुमा रह्यो जे स्वरूप ते. ए बे भेद छे तेमां लिंगथी तो गायतुं लक्षण जे सास्नासहितपणो ते बाह्य आकाररूप लक्षण छे ए बाह्य लक्षणे जे
ओलखाण करे ते बालचाल छे अने जे वस्तुने धर्मे ओलखाय ते स्वरूपलक्षण कहिये, जेम चेतनालक्षण ते जीव, तथा चेतनारहित ते अजीव इत्यादिक लक्षणे लक्षणस्वरूप जाणवो एम अनेक रीतें जाणी लेवो. भेदाश्च हवे भेदतुं स्वरूप कहे छे. वक्तव्यवस्त्वंशाः के० जे वस्तु कथन करता होय तेहना चार भेद छे तत्र द्रव्यभेदाके० तिहां द्रव्यना भेद मूललक्षणे सरिखा पण पिंडपणे जूदा छे ते द्रव्ययी भेद कहिये. यथाके० जेम सर्वजीव जीवत्वसामान्ये सरिखा छे पण जीव जीव प्रते पोताना गुणपर्यायनो पिंडपणो जूदो छ कोइर्नु कोइमां मिलि जातो नथी ते माटे जीव अनंता द्रव्यमिन्नपणे तेमज अजीव अनंता द्रव्यभिन्नपणे एम पुद्गलपरमाणु पण जडतारूपपणे सरिखा पण सर्व परमाणुओ जूदा द्रव्य छे जे काले एटलाने एटला छे कोइ कालें वटे नही तेम नवो वधे नही ए सर्व द्रव्यथी भेद जाणवो.
हवे क्षेत्रांशः क्षेत्रथी भेद ते जे विस्तरे तो जूदो क्षेत्र अवगाहीने रहे जेम जीवादि द्रव्यना प्रदेश अवगाहनाधर्मे जूदा छे पण द्रव्यथी जूदा पडे नहीं, संलग्नपणे रहे गुणपर्याय सर्वप्रदेशे अनंता छे ते गुणपर्याय एक प्रदेश मूकी बीजा प्रदेशमां जाय नही, पर्यायविभाग एकनो अने प्रदेशनो अवगाह सरिखो छे पण ते पर्याय अनंता मिन छे अने जे अनंता पर्याय मलीने एक कार्य करे ते कार्यने गुण कहे छे. श्रीवीतराग सर्वज्ञ एम कहे छे ए क्षेत्रथी भेद छे..
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
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एकवस्तुमा उत्पादव्ययरूप पर्याय पलटवानुं मान ते समय कहिये. जेटलो उत्पाद व्यय तथा अगुरुलघुनी हानिवृद्धिने परिणमतानुं मान ते समय कहिये अने तेथी बीजी परिणमनता थइ ते बीजो समय एम जे अनंति अतीतप्रवृत्ति थइ ते बर्तमानप्रवृत्तिनी परंपरारूप जाणवी अने आगामिक थाशे ते कार्यरूपें योग्यतारूप जाणवी. अतीतकालनो तथा अनागत कालनो कोइ ढिगलो नथी अने पिंडरूप पंचास्तिकायतुं वर्तना रूप जे परिणमन तेनुं मान ते काल कहिये तेने समयभेद ते बीजो कालरूप भेद कहिये ते जे पर्याय भिन्न भिन्न कार्य करे ते कार्यभेदें भिन्नपणो छे ते माटे चोथो भावथी भेद कहियें. हवे द्रव्यनुं लक्षण कहे छे ते क्षेत्रकाल अने भावना जे भेद ते सर्वतुं एकठा मिलिने पिंडपणे एकाधारपणे समुदायीपणे रहेवू ते द्रव्य कहिये.
तत्रैकस्मिन् द्रव्ये प्रतिप्रदेशे स्वस्वएककार्यकरणसामर्थ्यरूपा अनन्ता अविभागरूपपर्यायास्तेषां समुदायो गुणः ॥ भिन्न कार्यकरणे सामर्थ्यरूप भिन्नगुणस्य पर्यायाः एवं गुणा अप्यनन्ताः प्रतिगुणं प्रतिदेशं पर्याया अविभागरूपाः अनन्तास्तुल्याः प्राय इति ते चास्तिरूपाः प्रतिवस्तुन्यनन्तास्ततोऽनन्तगुणाः सामर्थ्यपर्यायाः
अर्थ ॥ हवे गुणनुं लक्षण कहे छ तिहां गुणानामाश्रयोद्रव्यमिति वचनात् एकदव्यने विषे स्वस्वके० पोतापोतानो एक जाणवा प्रमुख कार्य करवानुं जेने सामर्थ्य छे एवा अनंता समजेनो भविभागके बीजो छेदन थाम मुबा बिभागनो
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जे समुदाय तेने गुण कहिये जेम एक दोरडो सो तांतणानो करयो ते सो तांतणा तो अविभागपणे छता पर्याय छे ते दोरडाथी अनेक कार्य थाय, अनेक वस्तु बंधाय, अने अनेकने आधार थाय अनेक वेटण थाय तेने सामर्थ्य पर्याय कहिये. छतिरूपजे पर्याय ते तो वस्तुरूप छे अने सामर्थ्य पर्याय तो प्रवर्तनरूप कार्यरूप छे ते छतिपर्यायनो समुदाय तेने गुण कहिये. छतिपर्यायना अविभाग ते योगस्थान समयस्थानमा को ज छे अने भिन्नके० जुदो कार्य करवानुं जेमां सामर्थ्य होय एवा अविभागरूप आत्मा प्रदेशे वर्तता पर्याय ते भिन्नके० जुदा गुणना पर्याय जाणवा जेम जे अविभाग परिणामालंबनरूप कार्य सामर्थ्यरूप तेनो समुदाय ते वीर्यगुण एमज जाणवारूप सामर्थ्य छे जेमां एहवा जे अविभागपर्याय छे तेनो समुदाय ते ज्ञानगुण तेवा गुण एकद्रव्यने विषे अनंता छे. ते एकगुणना प्रदेशे प्रदेशे पर्याय अविभागरूप अनंता छ अने सर्व प्रदेशे सरिखा छे. तथा पंचास्तिकाय मध्ये एक अगुरुलघु पर्यायनो भेद तरतम छे. तथा पुद्गलपरमाणुमध्ये कालभेदें अथवा द्रव्यभेदें वर्णादिकना पर्यायनो तरतमयोग ते थोडा घणापणो छे ते पर्यायअस्तिरूप छे. सदा छता छे. कोइ पर्याय द्रव्यांतरमा जातो नथी. प्रदेशांतरमां पण जातो नथी. ते छतिपर्यायथी सामर्थ्यपर्याय अनंतगुणा जाणवा, ते कार्यरूपछे तथा च महाभाष्ये यावन्तो ज्ञेयास्तावन्त एव ज्ञानपर्यायाः ते च अस्तिरूपाः प्रतिवस्तुनि अनन्तास्ततोप्यनन्तगुणाः सामर्थ्यपर्यायाः
तत्र द्रव्यलक्षणं-उत्पादव्ययध्रुवयुक्तं सल्लक्षणं द्रव्यं ए तद् द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकोभयनयापेक्षया लक्षणं ॥
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गुणपर्यायवद द्रव्यं एतत् पर्यायनयापेक्षया, अर्थक्रियाकारि द्रव्यं एतल्लक्षणं स्वस्वशक्तिधर्मापेक्षया । धर्मास्तिकाय - अधर्मास्तिकाय - आकाशास्तिकाय-पुंद्रलास्तिकाय - जीवास्तिकाय- कालश्चेति
अर्थ || हवे वली द्रव्यनुं मुख्यलक्षण कहे छे उत्पाद के० नवा पर्यायनुं उपजवुं व्यय के० नवा पर्यायनुं विणसवं अने ध्रुव के० नित्यपणो ए तीन परिणमनपणें सर्वदा जे परिणमे तेने द्रव्य कहियें. एटले तेहिज गुण कारणकार्य बे धर्मै समकाले परिणमे छे. कारण विना कार्य थाय ज नही अने कार्य करे नही ते कारण पण समज नहीं, जे उपादानकारण तेहिज कार्य थाय छे ते कारणतानो व्यय अने कार्यतानुं उपजवं समकालें थाय छे बली कारणपणो समये नवो नवो छे अने कार्यपणो पण समये समये नवो नवों छे ते माटे कारणपणानो पण उत्पाद व्यय छे अने कार्यपणानो पण उत्पाद व्यय छे अने गुणपिंडपणे द्रव्याधारपणे ध्रुव छे एवी परिणतियें परिणमे ते सत् के० छतिवंत द्रव्य जाणवो एटले ए लक्षण ते द्रव्यास्तिकनय तथा पर्यायास्तिकनय ए बे भेला लइने करयो छे. जे ध्रुवपणो ते द्रव्यास्तिकधर्म ग्रह्यो छे अने उत्पाद व्यय ते पर्यायास्तिकधर्म ग्रयो छे ते माटे ए लक्षण संपूर्ण छे, ए तत्वार्थकारकनुं वाक्य छे.
तथा वली बीजुं लक्षण तवार्थमां ज कां छे. एक sarai aani aatyणे वर्त्तमान ते गुण अने पर्याय ते गुणनुं कारणभूत द्रव्यनुं भिन्न भिन्न कार्यपणे परिणमे द्रव्यगुण एबेहुने स्वाश्रयीपणे परिणमन ते बे छे जेमां ते द्रव्य कहिये
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एटले गुण तथा पर्यायवंत ते द्रव्य कहिये ते
द्रव्य एकना बे अने जे घणा
लक्षण छे
खंड थाय ज नही ए मूल द्रव्यनुं परमाणुना खंधने द्रव्य मान्यो छे ते उपचारें जाणवो जेनी परिणति ऋण कालमध्ये ते रूपने त्यजे नही ते द्रव्य पोतानी मूल जात त्यजे नही जेने अगुरुलघुनुं षड्गुण हानिवृद्धिरूप लक्षण चक एकटो फिरे ते एक द्रव्य अने जेने जूदो फिरे ते भिन्न द्रव्य कहियें एटले धर्म, अधर्म, आकाश ए एक एक द्रव्य छे अने जीव असंख्यातप्रदेशरूप एक अखंड द्रव्य छे. एवा जीव सर्वलोकमध्ये अनंता छे ते जीव सिद्धां वधे छे अने संसारीपणामां ओछा थाय छे पण सर्वसंख्यामां घटता वधता नथी. तथा पुद्गल परमाणु एक आकाशप्रदेश प्रमाण एक द्रव्य छे तेवा परमाणु सर्व जीवथी तथा सर्वजीवना प्रदेशथी पण अनंतगुणा द्रव्य छे. स्कंधपणे अथवा छुटा परमाणुपणे वधे तथा घटी जाय पण परमाणुपुद्गलपणे जे संख्या छे तेमां वधता घटता नथी ए निश्चयनयथी
लक्षण कयुं.
ed व्यवहार नयी लक्षण कहे छे अर्थ जे द्रव्य तेनी जे क्रियाके० प्रवृत्ति तेने करे ते द्रव्य कहियें. तेमां जीवनी शुद्ध क्रिया ते आज्ञादिक गुणनी प्रवृत्ति जेम सकल ज्ञेय जाणवा माटे ज्ञानविभागनी प्रवृत्ति एम सर्व गुणनुं जे कार्य जेम ज्ञान - गुणनुं कार्य विशेष धर्मनुं जाणवुं. तथा दर्शनगुणनुं कार्य सकलसामान्यस्वभावनो बोध अने चारित्रगुणनुं कार्य ते स्वरूपनं रमवुं इत्यादि अने धर्मास्तिकायनुं कार्य गतिगुणे परिणम्या जे जीव तथा पुद्गल तेने चालवाने सहकारी थाय एम सर्व द्रव्यनी समजण जोइ लेवी. ए लक्षण सर्व द्रव्यना जे गुण छे ते
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රදි
देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार
सर्वना स्वकार्यानुयायी प्रवृत्ति तेने अर्थक्रिया कहेवी. हवे ते छ द्रव्य छे १ धर्मास्तिकाय, २ अवर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ पुद्गलास्तिकाय, ५ जीवास्तिकाय, ६ काल. ए छ द्रव्य जाणवा. एथी वधारे पदार्थ कोइ नथी. जे नैयायिकादिक सोल पदार्थ कहे छे ते मृषा छे, कारणके ते प्रमाणने भिन्नदार्थ कहे छे ते तो ज्ञान छे ते आत्माना प्रमेयनो गुण छे ते गुणी जे आत्मा ते मध्ये रह्यो छे तेने भिन्न पदार्थ केम कहियें ? बीजा प्रयोजन सिद्धान्तादिक ते सर्व जीव द्रव्यनी प्रवृत्ति छे ते माटे भिन्न पदार्थ कहेवाय नही.
तथा वैशेषिक १ द्रव्य, २ गुण, ३ कर्म, ४ सामान्य, ५ विशेष, ६ समवाय, ७ अभाव. ए सात पदार्थ कहे छे पण तेने कहियें जे गुण ते तो द्रव्यमांज रह्या छे तो तेने भिन्न पदार्थ करी कहेतुं ते केम घटे ? अने कर्म ते द्रव्यनुं कार्य छे तथा सामान्य अने विशेष ए बे तो द्रव्य मध्ये परिणमन छे वली समवाय ते कारणतारूप द्रव्यनुं प्रवर्त्तन छे अने अभाव तो अछताने कहेवाय ते अछताने पदार्थ कहेतुं घटतुं नयी ते माटे वैशेषिकमत पण मृषा छे ते मध्ये द्रव्य नव कहे छे. १ पृथ्वी, २ अप्, ३ तेज, ४ वायु, ५ आकाश, ६ काल ७ दिक्, ८ आत्मा, ९ मन. ए नव पदार्थ कहे छे तेने उत्तर जे पृथ्वी आप तेज वायु ए तो आत्मा छे पण कर्म योगें शरीर भेर्दे नाम पड्या छे अने दिशि तो आकाशमांज मिली गयी छे तथा मन ते आत्माने संसारीपणाना उपयोग प्रवर्तनानो द्वार छे तेने भिन्न द्रव्य केम कहियें ?
वली वेदांतिसांख्य ते एक आत्मा अद्वैतपणे एकज द्रव्य माने छे तेनी पण भूल छे केमके जे शरीर छे ते तो रूपी
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छे अने पुद्गल द्रव्यनां खंध छे ते केम एक थाय तथा आत्मा अने शरीरनो आधार ते आकाश छे ते सर्व प्रसिद्ध छे ते जूदो मान्या विना केम चाले ते माटे अद्वैतपणो रह्यो नही.
अने बौद्धदर्शन ते समयसमय नवानवापणे १ आकाश, २ काल, ३ जीव, ४ पुद्गल. ए चार द्रव्य माने छे तेने पुछीयें जे जीव पुद्गल एकज क्षेत्रे केम रेहेता नथी ते तो चलादि भाव पामे छ माटे तेना अपेक्षाकारणरूप १. धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्तिकाय ए बे द्रव्य पण मानवा जोइये. तथा केटलाक संसारस्थितिनो कर्ता एक परमेश्वरने माने छे, ते पण मृषा छे. जे निर्मल रागद्वेषरहित एवो परमेश्वर ते परना सुखदुःखनो कर्ता केम थाय. वली कोइक इच्छा वलगाडे छे, ते इच्छा तो अधूराने छे, पूराने केम होय ? तथा केटलाक परमेश्वरनी लीला कहे छे ते लीला तो अजाण अधूरो तथा जेने पोतानो आनंद पोता पासे न होय ते करे, पण जे संपूर्ण चिदानंदघन तेने लीला होय ज नही. धर्माधर्मों विना नांगं, विनांगेन मुखं कुतः॥ मुखं विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथं १ अने मीमांसादिक पांच भूत कहे छे. तेमां पण चार भूत तो जीवपुद्गलना संबंधे उपना छे, अने आकाश ते लोकालोक मिन्न द्रव्य छे.
तत्र पञ्चानां प्रदेशपिंडत्वात् अस्तिकायत्वं । कालस्य प्रदेशाभावात् अस्तिकायता नास्ति, तत्र काल उपचा
रत एव द्रव्यं न वस्तुवृत्त्या ॥ - ए रीते असत्यपणानुं निराकरण करी आगमनी साखे कादिकने अनुमाने द्रव्य छ ठरे छे, माटे तेहिज मानवा तेमां
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पांच द्रव्य सप्रदेशी छे, ते प्रदेशना पिंडपणा माटे अस्तिकायपणो पांच द्रव्यने छे. अने छठो कालद्रव्य तेने प्रदेश नथी ते माटे अस्तिकायता नथी तिहां काल ते मुख्यवृत्तिये द्रव्य नथी, उपचारथी द्रव्य कहेवाय छे. जेम वस्तुगते धर्मास्तिकायादिक द्रव्य छे तेम काल द्रव्य नथी. जो ए कालने पिंडरूप द्रव्य मानियें तो एनो मान किहां छे ? जो मनुष्यक्षेत्रमा काल गव्य मानियें तो बाहिरना क्षेत्रमा नवपुराणादिक तथा उत्पाद व्यय कोण करे छे ? अने जो चौदराजलोकमां व्यापी मानीयें, तो असंख्यात प्रदेश मानवा जोइयें अने प्रदेश मानवे करी अस्तिकाय थाय, अने जो रेणुक असंख्याता मानियें, तो लोकप्रदेश प्रमाण रेणुक थाय ते वारे असंख्याता काल द्रव्य थाय. ते तो अनंत द्रव्य मान्यो छे माटे ए कालने पंचास्तिकायना वर्तनारूप पर्यायने आरोपे द्रव्य मानियेंकेमके अस्तिकायता नथी. अने सर्वमा वर्तना करे ए पक्ष सत्य छे जे आगमने विषे ठाणांगसूत्रना आलावामां छे. किं भंते अद्धासमयेतिवुच्चत्ति ? गोयमा जीवा चेव अजीवा चेव एटले काल ते जीव तथा अजीवनो वर्तमानपर्याय छे तेना उत्पाद व्ययरूप वर्तनाने काल कह्यो छे ते कालने अजीव द्रव्यमां गण्यो तेनो आशय ए छे जे जीव वर्त्तनाथी अजीववर्त्तना अनंतगुणी छे ते बहुलता माटे कालने अजीव गवेष्यो छे केमके कालनी वर्त्तना अजीव ऊपर अनंति छे अने जीव ऊपर तेथी थोडी छे माटे.
तथा विशेषावश्यकभाष्यमध्ये न पश्यति क्षेत्रकालावसौ तयोरमूर्त्तत्वात्, अवधेश्च मूर्त्तिविषयत्वात्; वर्तनारूपं तु कालं पश्यति द्रव्यपर्यायत्वात्तस्येति तथा बावीसहजारीमध्ये तथा कालस्य वर्त्तनादिरूपत्वात् पर्यायत्वात्, द्रव्योपक्रमः उपचारात्
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. तथा भगवत्यंगे १३ तेरमा शतक मध्ये इहां पुद्गलवर्तनानी अपेक्षायें कालने रूपी गवेष्यों छे.
तत्र गतिपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टंभहेतुर्धर्मास्तिकायः, स चासंख्येयप्रदेशलोकप्रदेशपरिमाणः ।
अर्थ ॥ हवे पंचास्तिकायन भिन्न भिन्न लक्षण कहे छे. जे गति परिणामीपणे परिणम्या जीव तथा पुद्गल तेने गतिना ओठंभानो हेतु ते धर्मास्तिकाय द्रव्य कहिये. ते धर्मास्तिकाय असंख्याता प्रदेश परिमाण छे. लोकमां व्यापी छे, लोकमान छे, लोकना एक एक प्रदेशे धर्मास्तिकायनो एक एक प्रदेश ते अनंत संबंधीपणे छे ए धर्मादि त्रण द्रव्य अचल अवस्थित अक्रिय छे.
स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टंभहेतुः अधर्मास्तिकायः, स चासंख्येयप्रदेशलोकपरिमाणः ।
अर्थ । स्थितिपणे परिणम्या जे जीव तथा पुद्गल तेने स्थितिना ओठंभानो हेतु ते अधर्मास्तिकाय द्रव्य कहिये ते पण लोक परिमाण असंख्य प्रदेशी छे.
सर्वद्रव्याणां आधारभूतः अवगाहकस्वभावानां जीवपुद्गलानां अवगाहोपष्टंभकः आकाशास्तिकायः, स चानन्तप्रदेशः लोकालोकपरिमाणः । यत्र जीवादयो वर्तन्ते स लोकः असंख्यप्रदेशप्रमाणः, ततः परमलोकः केवलाकाशप्रदेशव्यूहरूपः स चानन्तप्रदेशप्रमाणः । 18
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
अर्थ || सर्व द्रव्यने आधारभूत अवगाह स्वभावी जे जीव तथा पुद्गलने अवगाहनानो ओभानो हेतु ते आका - शास्तिकाय द्रव्य कहियें. तेना प्रदेश अनंता छे. लोक तथा अलोक रूप छे तेमां जे क्षेत्रे जीव तथा पुद्गल तथा धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय छे ते क्षेत्रने लोक कहियें अने केवल एक लोक मात्र आकाशज जिहां छे तेने अलोक कहियें एटले जे लोक ते जीवादि द्रव्य सहित अने जीवादिक द्रव्य जिहां नथी तेने अलोक कहियें ते, अलोकना प्रदेश अनंता छे, अवगाहक धर्मे सर्व द्रव्य एमां समाय छे.
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कारणमेव तदन्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः ॥ एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिंगीच ॥ पूरणगलनस्वभावः पुद्गलास्तिकायः स च परमाणुरूपः । ते च लोके अनन्ताः एकरूपाः परमाणवः अनन्ताः व्यणुका अप्यनन्ताः त्र्यणुका अध्यनन्ताः एवं संख्याताणुका स्कंधा अप्यनन्ताः असंख्याताणुकस्कंधा अप्यनन्ताः एकैकस्मिन् आकाशप्रदेशे एवं सर्वलोकेऽपि ज्ञेयं एवं चत्वारोऽस्तिकायाः अचेतनाः ।
अर्थ || हवे पुद्गल द्रव्यनुं स्वरूप लखियें छैयें. जे पूरण to पुरायें वर्णादिगुणे वधे, गली जाय, खरि जाय, वर्णादि गुण घटि जाय एवो जेमां स्वभाव छे ते पुद्गलास्तिकाय कहियें ते मूल द्रव्यं परमाणुरूप छे ते परमाणुनुं लक्षण कहे छे. द्व्यणुकादिक जेटला स्कंध छे ते सर्वनुं अत्यंत के० मूल कारण परमाणु छे एटले सर्व स्कंधनुं परमाणु कारण छे पण परमानुं कारण कोइ नथी, कोइनुं नीपजाव्यो थयो नयी अने कोइ
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मिलवे पण थयो नथी. सूक्ष्म छे. एक आकाशप्रदेशनी अवगाहना तुल्य एक परमाणु छे तो पण ते एक आकाश प्रदेशमां अनंत परमाणु समाय छे पण परमाणु मध्ये बीजं द्रव्य कोइ समाय नही माटे परमाणु द्रव्य सूक्ष्म छे अने नित्य छे जेटलं परमाणु द्रव्य छे ते खंधादिक अनेकपणे परिणमे पण परमाणु द्रव्य कोइ विणसी जाय नहीं एवु परमाणु द्रव्य छे. ते एक परमाणुमा एक रस होय, एक वर्ण होय, एक गंध होय अने लुखो, चिकणो, टाढो, उन्हो, ए चार स्पर्श मांहेला गमे ते बे फरस होय एवं एक परमाणु द्रव्य छे. इहां कोई पुछे जे ते परमाणु देखातो नथी तो केवी रीते मनाय तेने उत्तर जे घटपट शरीरादिक कार्य देखाय छे, ग्रहवाय छे, ते रूपी छे तो एहना संबंधनुं कारण परमाणु सूक्ष्म छ माटे इंद्रियज्ञाने ग्रहेवातो नथी, परंतु रूपीछे केमके अरूपीथी रूपी कार्य थाय नही ते माटेज परमाणु रूपी छे. तेथी ए स्कंध पण रूपी थया छे अने आकाश प्रदेश अरूपी छे तो तेनो अ. नंत प्रदेशी स्कंध पण अरूपी छे एम धारवू ते परमाणुना घणुकादिक स्कंध अनंता छे, तथा छुटा परमाणु ते पण अनंता छे ते वली खंधमां मिले छे तो बीजा खंधमांहेथी छुटा थाय छे एम खंध विसरी जाय ने परमाणु थाय तेनी वर्गणा अठ्यावीस प्रकारनी छे. ते अव्यावीस भेद कम्मपयडीयी जाणवा. एम एकला परमाणु ते पण अनंता तथा बे मिलीने खंध पाम्या तेवा खंध पण अनंता एमज संख्याताणुकना खंध पण अनंता तेमज असंख्यात परमाणु मिलि खंध थाय ते पण अनंता तथा अनंत परमाणु मल्या खंध थाय तेवा खंध पण अनंता ते ए जातिना खंध ते एक आकाश प्रदेश अवगाहे. आका
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शांश अवगाहे एम असंख्याता प्रदेश अवगाहे छे पण एक वर्गणानी अवगाहना अंगुलने असंख्यातमें भागे अवगाहे वधति अवगाहे नही अने अनंति वर्गणा मिले अंगुल हाथ गाउ योजनादिकने माने अवगाहना थाय एम ए १ धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्तिकाय ३ आकाशास्तिकाय ४ पुद्गलास्तिकाय ए चारे द्रव्य अचेतन छे अजीव छे जाणपणा रहित छे.
चेतनालक्षणो जीवः, चेतना च ज्ञानदर्शनोपयोगी अनन्तपर्याय परिणामिककर्तृत्वभोक्तृत्वादिलक्षणो जीवास्तिकायः।
अर्थ ॥ हवे जीव द्रव्यनुं स्वरूप कहे छे चेतना जे बोध शक्ति छे लक्षण जेनुं ते जीव कहिये. जे पोताना परिणमन तथा परनी परिणमन सर्वने जाणे ते जीव तथा सर्व द्रव्य ते अनंता सामान्य स्वभाव अने अनंता विशेष स्वभाववंत छे तेमां सर्व द्रव्यना अनंता विशेष धर्मर्नु अवबोधक ते ज्ञानगुण कहियें, तथा सामान्य विशेष स्वभाववंतवस्तुने वि जे सामान्य स्वभावतुं अवबोधक ते दर्शन गुण कहिये. ते ज्ञानदर्शनोपयोगी जे अनंतपर्याय तेनो परिणामी कर्ता भोक्तादिक अनंति शक्तितुं पात्र ते जीव जाणवो. उक्तं च “ नाणं च दसणं चेक, चरित्तं च तवो तहा ॥ वीरियं उबओगो अ, एवं जीवस्स लक्खणं ॥१॥
चेतना लक्षण ज्ञानदर्शन चारित्र सुखवीर्यादिक अनंत गुणर्नु पात्र स्वस्वरूपभोगी तथा अनवच्छिन्न जे स्वावस्था प्रगटी तेनो भोक्ता अनंता स्वगुणनी जे स्वस्वकार्यशक्ति तेनो कर्ता, भोक्ता, परभावनो अकर्ता, अभोक्ता, स्वक्षेत्रव्यापी
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अनंति आत्मसत्तानो ग्राहक, व्यापक, रमण करनारो, तेने जीव जाणवो.
पञ्चास्तिकायानां परत्वापरत्वे नवपुराणादिलिङ्गव्यक्तवृत्तिवर्तनारूपपर्यायः कालः, अस्य चापदेशिकत्वेन अस्तिकायत्वाभावः। पञ्चास्तिकायान्तभूतपर्यायरूपतैवास्य एते पञ्चास्तिकायाः । तत्र धर्माधर्मों लोकपमाणासंख्येयप्रदेशिको, लोकप्रमाणप्रदेश एवं एकजीवः । एते जीवा अप्यनन्ताः,आकाशोहि अनन्तप्रदेशप्रमाणः, पुद्गलपरमाणुः स्वयं एकोऽप्यनेकप्रदेशबंधहेतुभूतद्रव्ययुक्तत्वात् अस्तिकायः, कालस्य उपचारेण भिन्नद्रव्यता उक्ता सा च व्यवहारनयापेक्षया आदित्यगतिपरिच्छेदपरिमाणः कालः समयक्षेत्रे एव एष व्यवहारकालः समयावलिकादिरूप इति ॥
अर्थ ॥ हवे काल द्रव्यनुं लक्षण कहे छे जे पंचास्तिकायने परत्वे अपरत्वे ए लिंगे तथा पुद्गल खंधने नव पुराणपणे व्यक्त के० प्रगट छे वृत्ति के प्रवृत्ति तेने वर्तना कहिये ते वर्तनारूप पर्याय तेने काल कहियें एने प्रदेश नथी ते माटे अस्तिकायपणो नथी ए काल ते पंचास्तिकायने विषे अंतर्भूतपर्याय परिणमन छे, जाते धर्मास्तिकायादिकनो पर्याय छे एम तत्त्वार्थवृत्तिने विषे कह्यो छे. तिहां धर्मास्तिकाय एक द्रव्य छे असंख्यात प्रदेशी छे. लोकाकाशना प्रदेश प्रमाण छे. एम अधर्मास्तिकाय पण एक द्रव्य छे. लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी छे. अनेक जीव द्रव्य ते पण लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी छे पण स्व अवगाहना प्रमाण व्यापक छे ते
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जीव द्रव्य अनंता छे. अकृत सदा छता अखंड द्रव्य छे. सत्चिदानंदमयी छे पण परपरिणामी थवे पुद्गलग्राहक पुद्गलभोगी थवे प्रतिसमये नवा कर्म बांधवे संसारी थया छे. तेहिज जे वारे स्वरूप ग्राहक स्वरूप भोगी थाय तेवारे सर्व कर्म रहित थयी परम ज्ञानमयी, परम दर्शनमयी, परमानंदमयी, सिद्ध, बुद्ध,अनाहारी, अशरीरी, अयोगी, अलेशी, अनाकारी, एकांतिक, आत्यंतिक, निःम यासी, अविनाशी, स्वरूप सुखनो भोगी, शुद्ध सिद्ध थाय ते माटे अहो चेतन !!! ए पर भाव अभोग्य सर्व जगत्ना जीवनी एठ तेनो भोगववापणो तजी स्वभाव भोगीपणानो रसीयो थयी स्वस्वरूप निर्धार स्वरूप भासन, स्वरूप रमणी, थयी पोताना आनंदने प्रगट करीने निर्मल था.
तथा आकाश द्रव्य ते लोकालोक मिलि एक द्रव्य छे, अनंत प्रदेशी छे। अने पुद्गल द्रव्य ते परमाणु रूप छे केम के परमाणु अनंता छे माटे अनंता गव्य छे इहां कोई पूछे जे प्रदेशना संबंध विना परमाणु द्रव्यने अस्तिकाय किम कह्यो छे ? तेने उत्तर जे परमाणु तो एक प्रदेशी छे पण अनंता परमाणुथी मिलवाना जे कारण ते आ द्रव्य तेणे युक्त छे ते योग्यता माटे अस्तिकाय कह्यो छे तथा काल द्रव्यने उपचारें भिन्न द्रव्यपणो कयो छे ते व्यवहारनयनी अपेक्षायें जे मनुष्य क्षेत्रने विषे सूर्यनी गतिने परिज्ञाने एटले समयावलिकादिरूपपरिमाणे जे मान तेने व्यवहारथी काल कहिये इति ए काल मुख्य वृत्तिये तो समय क्षेत्र मध्ये छे अने मनुष्य क्षेत्रयी बाहेर जे जीवो छे तेना आयुष्य पण एज क्षेत्र प्रमाणे सर्वज्ञ देवें कह्या छे तथा सूर्यनोचारते पण जीव पुद्गलनुं प्रवर्तन के कारण के सूर्य ते पण जीव तथा
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पुद्गल छे एटले ए काल द्रव्य ते कालपणे भिन्न पिंडपणे ठेरयो नही उपचारेंज ठेरचो एम मानवो.
इहां कोइ कहे जे एक एक द्रव्यने विषे अनेक अनेक पर्याय छे ते कोइ पर्यायने द्रव्यपणो न कह्यो अने एक वर्त्तना पर्यायने विषे द्रव्यनो आरोप शा माटे करयो ? तेने उत्तर ए वर्त्तना परिणति ते सर्व पर्यायने सहकारी छे अने सर्व द्रव्यने छे तेथी मुख्य पर्याय छे माटे एने द्रव्यनो आरोप छे ते पण अनादि चाल छे.
एते पञ्चास्तिकायाः सामान्यविशेषधर्ममया एव तत्र सामान्यतः स्वभावलक्षणं द्रव्यव्याप्यगुणपर्यायव्यापकत्वेन परिणामिलक्षणं स्वभावः तत्र एकं नित्यं निरवयवं अक्रियं सर्वगतं च सामान्यं । नित्यानित्य निरवयव सावयवः सक्रियता हेतुः देशगतः सर्वगतं च विशेषपदार्थगुणप्रवृत्तिकारणं विशेषः । न सामान्यं विशेषरहितं न विशेषः सामान्यरहितः ॥
अर्थ || हवे ए पंचास्तिकाय ते सामान्य विशेष धर्मंमयी छे ते सामान्यनुं लक्षण विशेषावश्यकें कहां छे. तिहां प्रथमयी स्वभावनुं लक्षण कहे छे. जे द्रव्यने विषे व्यापतो होय तथा गुण पर्यायमां पण व्यापकपणे सदा परिणमतो थको पामियें तेने सामान्य स्वभाव कहियें ते सामान्य स्वभाव जे होय ते एक होय तथा नित्य अविनाशी होय तथा निरवयव के० जेहने अविभाग रूप अवयव न होय अने सर्व गत के० सर्वमां व्यापकपणे होय ते सामान्य स्वभाव कहियें. जीवादि द्रव्यने विषे एकपणो ते पिंडपणे छे ते सर्व द्रव्यने
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विषे छे सर्व गुण पर्याय पोताने रूपें अनेक छे पण ते समुदाय पिंडपणुं मूकीने जूदा थायज नही ते माटे ए रीतें जे परिणमन होय ते सामान्य स्वभाव कहिये. ते सामान्यना बे भेद छे अस्तितादिक जे सर्व पदार्थने विषे छे ते महा सामान्य कहिये. एनी श्रुतज्ञानेकरी प्रतीत थाय पण प्रत्यक्ष तो अवधिदर्शन केवलदर्शनेज जणाय. परोक्षं न ग्रहवाय. तथा वृक्ष अंब निंब जंबु प्रमुख व्यक्ति अनेक छे पण वृक्षत्व सर्वमा छे ए अवांतर सामान्य ते चक्षुदर्शने तथा अचक्षुदर्शने ग्रहवाय अने अस्तित्व वस्तुत्वादि सामान्य ते अवधिदर्शन तथा केवलदर्शने ग्रहवाय अने विशेष धर्म ते ज्ञान गुणेज ग्रहवाय हवे विशेष, लक्षण कहिये छीए. कोइक धर्मे नित्य कोइक धर्मे अनित्य कोइक रीतें अवयव सहित, कोइक रीतें अवयव रहित, अविभाग पर्यायें सावयव, सामर्थ्य पर्यायें निरवयव, पण सक्रियता हेतु देशगत जे गुण ते गुणांतरमा व्यापता नथी ते माटे देशगत जे गुण होय ते आखा द्रव्यमा व्यापकज होय तेने सर्वगत कहियें तो एवा जे धर्म ते सर्व विशेष जाणवा पदार्थना गुणनी प्रवृत्ति तेना जे कारण ते विशेष स्वभाव जे कार्य करे ते गुणने पण विशेष धर्मज गणवो. जे सामान्य ते विशेष रहित नयी अने जे विशेष ते सामान्य रहित नथी.
ते मूलसामान्यस्वभावाः षट् । ते चामी १ अस्तित्वं २ वस्तुत्वं ३ द्रव्यत्वं ४ प्रमेयत्वं ५ सत्त्वं ६ अगुरुल. घुत्वं । तत्र १ नित्यत्वादीनां उत्तरसामान्यानांपरिणामिकत्वादीनां निःशेषस्वभावानामाधारभतधर्मत्वं अ
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स्तित्वं २ गुणपर्यायाधारत्वं वस्तुत्वं ३ अर्थक्रियारित्वं द्रव्यत्वं, अथवा उत्पादव्यययोर्मध्ये उत्पादपर्यायाणां जनकत्वप्रसवस्याविर्भाव लक्षणव्ययीभूतपर्यायाणां तिरोभाव्यभावरूपस्याः शक्तेराधारत्वं द्रव्यत्वं ४ स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणं, प्रमीयते अनेनेति प्रमाणं तेन प्रमाणेन प्रमातुं योग्यं प्रमेयं ज्ञानेन ज्ञायते तद्योग्यतात्वं प्रमेयत्वं ५ उत्पादव्ययध्रुवयुक्तं सत्वं ६ पद्गुणहानिवृद्धिस्वभावा अगुरुलघुपर्यायास्तदाधारत्वं अगुरुलघुत्वं एते षट्स्वभावाः सर्व द्रव्येषु परिणमति तेन सामान्यस्वभावाः
अर्थ ॥ ते मूल सामान्यना छ मेद छे ते सर्व द्रव्यमां व्यापकपणे छे. १ अस्तित्व, २ वस्तुत्व, ३ द्रव्यत्व, ४ प्रमेयत्व ५ सत्त्व, ६ अगुरुलघुत्व. ए छ मूल स्वभाव छे ते सर्व द्रव्य मध्ये पारिणामिकपणे परिणमे छे ए धर्मने कोइनो सहाय नथी तत्र के० तिहां १ सर्व द्रव्यने विषे उत्तर सामान्य स्वभाव नित्यत्व अनित्यत्वादिक तथा विशेष स्वभाव ते परिणामिकत्वादिक तेनो आधारभूतधर्मं ते धर्मने तीर्थंकरदेव सामान्य स्वभाव अस्तित्वरूप कहे छे तथा २ गुणपर्यायनो आधारवंत पदार्थ तेने वस्तुत्व कहियें अने, ३ अर्थ जे द्रव्य तेनी जे क्रिया, जेम धर्मास्तिकायनी चलनसहाय क्रिया, अधर्मास्तिकायनी थिरसहाय क्रिया, आकाश द्रव्यनी अवगाहरूप क्रिया, जीवनी उपयोग लक्षण क्रिया तथा पुद्गलनी मिलवा विखरवारूप क्रियानो करवापणो एटले जे पर्यायनी प्रवृत्ति ते अर्थ क्रिया अने अर्थ क्रियानो आधारी धर्म तेने श्री सर्वज्ञदेवें द्रव्यत्वपणो को छे.
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वली द्रव्यपणाचें लक्षणांतर कहे छे. उत्पादपर्यायनी जे प्रसवशक्ति एटले आविर्भाव लक्षण जे शक्ति तेना व्ययीभूत पर्यायनो तिरोभाव थयो अथवा अभाव थवा रूप शक्तिनो जे आधारभूत धर्म तेने द्रव्यत्व कहिये.
४ स्व के० पोते आत्मा अने पर के० पुद्गलादिक धर्मास्तिकायादिक अन्य द्रव्य तेने यथार्थपणे जाणे ते ज्ञान कहिये. ते ज्ञान पांच भेदें छे. ते ज्ञानना उपयोगमां आवे एवी जे शक्ति तेने प्रमयेत्वपणो कहिये ते प्रमेयपणो सर्व द्रव्य- मूल धर्मछे. प्रमाणमां वसाव्यो जे वस्तु तेने प्रमेयपणो कहिये. ते सर्व गुण पर्याय प्रमेय छे अने आत्मानो ज्ञानगुण तेमां प्रमाणपणो तथा प्रमेयपणो ए बे धर्म छे,पोतानो प्रमाणपणो ते पोतेज करे छे, दर्शनगुणनो प्रमाणज्ञान गुण करे छे, केमके दर्शनगुण ते विशेष छे. जे सावयव होय ते विशेषज होय अने जे विशेष होय ते ज्ञानथीज जणाय. दर्शनगुण ते सामान्य धर्मनो ग्राहक छे ते पण प्रमाण कहेवाय पण प्रमाणना भेद कह्या छे. तिहां ज्ञानज ग्रयुं छे तेनुं कारण जे दर्शनोपयोग ते व्यक्त पडतो नथी ते माटे प्रमाण मध्ये गवेष्यो नथी. ते प्रमाणना मूल बे भेद छे एक प्रत्यक्ष अने बीजो परोक्ष. स्पष्टं प्रत्यक्ष परोक्ष मन्यत् इतिस्याद्वादरत्नाकरवाक्यात. __ ५ उत्पाद के० उपजवो व्यय के विणसवो ध्रुव के० नित्यपणो वस्तुना एक गुणमां एक समये ए त्रणे परिणमनें सदा परिणमे छे एवो जे परिणाम ते सत्पणो कहिये अने ते सत्पणानो भाव ते सत्वपणो कहिये.
६ तथा छठो १ अनंतभाग हानि, २ असंख्यात भाग
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हानि, ३ संख्यात भाग हानि, ४ संख्यात गुण हानि, ५ असंख्यात गुण हानि, ६ अनंत गुण हानि, ए छ प्रकारनी हानि, तथा १ अनंत भाग वृद्धि, २ असंख्यात भाग वृद्धि, ३ संख्यात भाग वृद्धि, ४ संख्यात गुण वृद्धि, ५ असंख्यात गुण वृद्धि, ६ अनंत गुण वृद्धि. ए छ वृद्धि. एम छ प्रकारनी हानि तथा छ प्रकारनी वृद्धि ते अगुरुलघु पर्यायनी सर्व द्रव्यने सर्व प्रदेशे परिणमे छे ते कोइक प्रदेशे कोइ समये अनंतभाग हानिपणे परिणमे छे अने कोइक समये कोइक प्रदेशे अनंतभाग वृद्धिपणे परिणमे छे. एवं बार प्रकारे परिणमे छे ते अगुरुलघु पर्यायनी परिणमन शक्ति ते अगुरुलधुत्वं. अगुरुलघुनो भाव जाणवो. तत्त्वार्थ टीकाने विषे पांचमा अध्यायें अलोकाकाशने अधिकारें कह्यो छे. एम ए छ स्वभाव सर्व द्रव्यने विषे परिणमे छे. ए छ ए द्रव्यनो मूल स्वभाव छे. द्रव्यनो भिन्नपणो प्रदेशनो भिन्नपणो ते अगुरुलधुने भेदपणे थाय छे ते माटे ए छ मूल सामान्य स्वभाव छे. ए द्रव्यास्तिक धर्म छे अने एनुं परिणमन ते पर्यायास्तिक धर्म छे. केटलाक वादी एम कहे छे जे पर्यायनो पिंड ते द्रव्य छे पण द्रव्यपणो भिन्न नयी जेम धूरी पइडा कागमो १ डागली जूंहरी प्रमुख समुदायने गाडो कहिये पण सर्व अवयवथी भिन्न गाडापणो कोइ देखातो नथी तेमज ज्ञानादिक गुणथी मिन्नपणे कोइ आत्मा देखातो नथी तेने कहिये जे ज्ञानादिक गुणने विषे छति एक पिंड समुदायता सदा अवस्थितपणो अने द्रव्यथी मिली न जाय तथा स्व क्रियावंतपणो इत्यादिक सामान्य धर्म छे. छति अस्तित्व अर्थ क्रियावंत ते द्रव्यपणो एक पिंडपणो ते वस्तुत्य इत्यादिक ते सर्व दव्यपणो छे एटले द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक ए बेहु मलीने
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द्रव्यपणो छे उक्तं च संमतौदवा पज्जवरहिआ न पज्जवा दबओवि उत्पत्ति ए मूल सामान्य स्वभावना छ भेद कह्या.
तत्र अस्तित्वं उत्तरसामान्यस्वभावगम्यं ते चोत्तरसामान्य स्वभावा अनन्ता अपि वक्तव्येन त्रयोदश १ अस्तिस्वभावः २ नास्तिस्वभावः ३ नित्यस्वभावः ४ अनित्यस्वभावः ५ एकस्वभावः ६ अनेकस्वभावः ७ भेदस्वभावः ८ अभेदस्वभावः ९ भव्यस्वभावः १० अभव्यस्वभावः २१ वक्तव्यस्वभावः १२ अवक्तव्यस्वभावः ९३ परमस्वभावः इत्येवरूपंवस्तुसामान्या
नंतमयम् ॥ - अर्थ ॥ तथा वली अस्तित्व उत्तर सामान्य स्वभाव कहे छे ते उत्तर सामान्य स्वभाव वस्तु मध्ये अनंता छे पण तेर सामान्य स्वभाव अनेकांतजयपताकादि ग्रंथे वखाण्या छे, तेमांश्री लेशमात्र लखिये छैयें तेनां नाम ऊपरना मूल पाठमां सुलभ छे माटे लिख्यां नथी. तथा एना व्याख्यानथी पण जणाशे. ए तेर सामान्य स्वभावें परिणमति वस्तु होय.
स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन व्याप्यव्यापकादिसम्बन्धिस्थितानां स्वपरिणामात् परिणामान्तरागमनहेतुः वस्तुनः
सद्रपतापरिणतिः अस्तिस्वभावः - अर्थ ॥ तेमां १ प्रथम अस्त्विभावनुं लक्षण कहे छे. व के. पोताना द्रव्यादिक चार धर्म तेनो जेमां व्यापकपणो छ, १ द्रव्य ते गुणपर्यायना समुदायनो आधारपणो, २ क्षेत्र ते प्रदेशरूप सर्व गुणपर्यायनी अवस्थाने राखवापणो जे जेने राखे
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. १०१ ते तेनुं क्षेत्र जाणवू, ३ काल ते उत्पादव्यय ध्रुवपणेवर्तना, ४ भाव ते सर्व गुणपर्यायनो कार्यधर्म तिहां जीव द्रव्यर्नु १ स्वद्रव्यप्रदेश गुणनो समुदाय द्रव्य छे, ते गुणपर्यायनो जनकपणो ते स्वद्रव्य अने, २ जीवना असंख्याता प्रदेश ते स्वपर्यायनो स्वक्षेत्रपर्याय ते जाणवा एटले देखवादिक जे गुणनो पर्याय तेनुं जे क्षेत्र ते स्वक्षेत्र, ३ पर्यायमध्ये कारण कार्यादिकनो जे उत्पादव्यय ते स्वकाल तथा, ४ अतीतअनागत वर्तमान- परिणमन ते स्वभाव ते कार्यादिक धर्म जेम ज्ञानगुणनो पर्याय जाणंगपणो, वेत्तापणो, परिच्छेदकपणो, विवेचनपणो, इत्यादिक स्वभाव एम स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभाव जे परिणामिकपणे परिणमता तेनी अस्तिता कहेवी ए सर्वनी छति छे ते अस्ति स्वभाव छे. ए अस्ति स्वभावें द्रव्य छे, ते पोतानो मूल धर्म मूकी अन्य धर्मपणे परिणमतो नथी, परिणामांतरे आगमन छे ए अस्ति स्वभाव ते सर्व द्रव्यमां पोताना गुणपर्यायनो जाणवो. जे अस्ति ते सदूपता छता रूपपणानी परिणति लेवी, सर्व द्रव्यमां पोताने धर्मेज परिणमें पण जे जीव द्रव्य ते अजीव द्रव्यपणे न परिणमे. तथा एक जीव ते अन्य जीवपणे न परिणमे. वली एक गुण ते अन्य गुणपणे न परिणमे, ज्ञानगुणने विषे दर्शनादिक गुणनी नास्तिता छ अने ज्ञानना धर्मनी अस्तिता छे, तथा एकगुणना पर्याय अनंता छे ते सर्व पर्यायधर्मे सरिखा छे पण एक पर्यायना धर्म बीजा पर्यायमां नही अने बीजा पर्यायना धर्म पहेला पर्यायमां नही माटे सर्व पोताने धर्मेज अस्ति छे. ए रीतें अस्ति नास्तिनुं ज्ञान सर्वत्र करवू, ए द्रव्यने विषे प्रथम अस्ति स्वभाव कह्यो.
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अन्यजातीयद्रव्यादीनां स्वीयद्रव्यादिचतुष्टयतया व्यवस्थितानां विवक्षिते परद्रव्यादिके सर्वदैवाभावाविच्छिन्नानां अन्यधर्माणां व्यावृत्तिरूपो भावः नास्तिस्वभावः यथा जीवे स्वीयाः ज्ञानदर्शनादयो भावाः. अस्तित्वे परद्रव्यस्थिताः अचेतनादयो भावा नास्तित्वे सा च नास्तिता द्रव्ये अस्तित्वेन वर्तते घटे घट धर्माणां अस्तित्वं पटादिसर्वपरद्रव्याणां नास्तित्वं एवं
सर्वत्र · अर्थ ॥ हवे बीजा नास्ति स्वभाव- स्वरूप लखिये छैयें अन्य के० बीजा जे द्रव्यादिक जे द्रव्य गुणपर्याय तेना पोताना जे द्रव्य क्षेत्र काल भाव ते तेहिज द्रव्यमां सदा अवष्टंभपणे परिणमे छे, एटले विवक्षित द्रव्यादिकथी पर जे बीजा द्रव्यादिकना जे धर्म ते तेमां सदा अभावपणे निरंतर अविच्छेद छे, ते माटे परद्रव्यादिकना धर्मनीव्यावृत्तितापणानो जे परधर्म ते विवक्षित द्रव्यमां नथी एवा द्रव्यमां जे भाव छे ते नास्ति स्वभाव जाणवो. जेम जीवनेविषे ज्ञान दर्शनादिक पोताना जे भाव तेतो अस्तिपणे छे, अने परद्रव्यमां रह्या जे अचेतनादिक भाव तेनी नास्तिता छे एटले ते धर्म जीव द्रध्यमां नयी माटे परधर्मनी नास्तिता छे, पण ते नास्तिता ते द्रव्य मध्ये अस्तिपणे रही छे जेम घटना धर्म घटमां छे तेथी घटमां घट धर्मनो अस्तित्वपणो छे पण पटादि सर्व परद्रव्योनो नास्तित्वपणो ते घटने विषे रह्यो छे तथा जीवमध्ये जीव ज्ञानादिक गुण ते अस्तित्वपणे छे, पण पुद्गलना वर्णादिक जीवमध्ये नथी. माटे वर्णादिकनी नास्ति ते जीव मध्ये रहि छे. श्रीभगवती सूत्रे कयुं छे, हे गौतम अत्थितं अत्थित्ते
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परिणमयी नत्थितं नत्थित्ते परिणमयी तथा ठाणांग सूत्रे १ सियअत्थि, २ सियनत्थि, ३ सियअस्थिनत्थी, ४ सियअवत्त. ए चोभंगी कही छे, अने श्रीविशेषावश्यक मध्ये कधुं छे के, जे वस्तुनो अस्ति नास्तिपणो जाणे ते सम्यग् ज्ञानी अने जे न जाणे अथवा अयथार्थपणे जाणे ते मिथ्यात्वी. उक्तं च सदसद विशेषणाओ, भवहेज्जहथ्थिओवलंभाओ ॥ नाणफलाभावाओ मिच्छादिठिस अन्नाणं ॥ १ ॥ ए गाथानी टीकामध्ये स्याद्वादोपलक्षितवस्तुस्याद्वादश्च सप्तभङ्गी परिणामः एकैक - स्मिन्द्रव्ये गुणेपर्याये च सप्तसप्तभङ्गाभवन्त्येव अतः अनन्तपर्यायपरिणतेवस्तुनिअनन्ताः सप्तभंग्यो भवन्ति इतिरत्नाकरावतारिकायां ते द्रव्यने विषे गुणने विषे पर्यायने विषे स्वरूपें सात भंगा होय जे ए सात भंगानो परिणाम ते स्याद्वादपणो कहियें.
तथाहि स्वपर्यायैः परपर्यायैरुभयपर्यायैः सद्भावेनासद्भावेोभवेन वार्पितो विशेषतः कुंभः अकुंभः कुंभाकुंभो वा अवक्तव्योभयरूपादिभेदो भवति सप्तभंगी प्रतिपाद्यते इत्यर्थः ओष्ठग्रीवाकपोलकुक्षिबुधादिभिः स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितः विशेषतः कुंभकुंभो भण्यते सन् घट इति प्रथमभंगो भवति एवं जीवः स्वपर्यायैः ज्ञानादिभिः अर्पितः सन् जीवः
अर्थ | ए सप्तभंगी परनी अपेक्षायें नथी ते द्रव्यादिक मध्ये ज छे यथा स्वधर्मे परिणमनुं ते अस्ति धर्म छे अने पर द्रव्यना धर्मे न परिणमनुं ए नास्तिनुं फल छे, ते माटे ए सप्तभंगी ते वस्तुधर्मे छे, ते विशेषावश्यकथी सप्तभंगी लखियें छैयें. एक विवक्षित वस्तु स्व के० पोताने पर्यायें सद्भाव के० छता
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पणे छे अने परपर्यायें जे अन्य द्रव्यने परिणमे तेनो असद्भाव के० अछतापणो परिणमे छे तथा जे छता अथवा अछता पर्याय तेनो छतापणो छे. कोइकपणे अछतापणो छे माटे छता अछतापणो पण तेज कालें छे. केमके वस्तुमध्ये अनेक धर्म छे ते सर्व केवलीने एक समये समकालें भासे छे ते पण वचने भंगांतरेज कही शके अने छद्मस्थने श्रद्धामां तो सर्व धर्म समकाले सहे छे पण छद्मस्थनो उपयोग असंख्यात समयी छे, अनुक्रमे छे पूर्वापरसापेक्ष छे तेथी सप्तभंगे भासन छे जे वस्तुमां समकालें छे, समकीतिनी श्रद्धामां समकाले छे अने केवलीना भासनमा समकाले छे ते श्रुतज्ञानीना भासनमां क्रमपूर्वक छे. केके भाषा सर्व क्रमे कहेवाय छे तेथी असत्य थाय तेने जो स्यात्पदेंप्ररुपियें जाणियें तो सत्य थाय माटे स्यात्पूर्वक सप्तभंगी कहियें. द्रव्य गुणपर्याय स्वभाव सर्व मध्ये छे ते रीतें सद्दहवी ते दृष्टां करी कहे छे ओष्ठ के० होठ, गाबड, कांठो कपाल, तलो, कुक्षिपेटो, बुध्न पोहोलो इत्यादि स्वपर्या में करी घट छतो छे, ते घटने स्वपर्या यें छतापणे अर्पित करि यें तेवारें ते कुंभकुंभ धर्मे सन् के० छतो छे पण अछतादिक धर्मनी छति सापेक्ष राखवाने स्यात्पूर्वक कहेवो एटले स्यात् अस्तिघटः ए प्रथम भंगो जाणवो तथा जीवादि द्रव्यने विषे जीवना ज्ञानादि गुण तेने पर्यायें जीव द्रव्यने नित्यादि स्वभावें करीने स्यात् - अस्तिजीवः एम सर्व द्रव्यने कहेवो. यद्यपि जीव तथा अजीनो नित्यपणो सरिख भासे पण ते एनो तेमां नही अने तेनो एमां नही जो पण जीव सर्व एक जातीय द्रव्य छे पण एक जीवमां जे ज्ञानादि गुण छे ते बीजा जीवमां नथी माटे सर्व द्रव्य स्वधर्मेंज अस्ति छे. एम स्यात् अस्तिजीव ए प्रथम अंग जाणवो.
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
तथा पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिभिः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितः अविशेषितः अकुंभो भवति सर्वस्यापि घटस्य परपर्यायैरसत्वविवक्षायामसन् घटः एवं जीवोऽपि मूर्त्तत्वादिपर्यायैः असत् जीव इति द्वितियो भङ्गः
अर्थ ॥ पटने विषे रह्या त्वक् जे शरीरनी चामडीने ढांके, लांबो पथराय इत्यादि पर्याय ते घटना पर्याय नथी, पर पर्याय छे पटने विषे रया छे, घटनेविषे ए पर्यायनी नास्ति छे तेथी ए पर्यायनो असद्भाव छे ते माटे ए घटना पर्याय नथी. एम सर्व पर्यायें घट नथी तेवार पर पर्यायना अछतापणानी विवक्षायें अछतो घट छे, एम जीव पण मूर्तिपणादिक अचेतनादि पर्यायनो जीवमध्ये असत्-अछतापणो तेथी जीव पर पर्याये नास्ति छे. माटे स्यात् नास्ति ए बीजो भांगो जाणवो. केमके पर पर्यायनी नास्तितानुं परिणमन द्रव्यने विषे छे.
तथा सर्वो घटः स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां सत्वासत्वाभ्यामर्पितो युगपदक्तुमिष्टोऽवक्तव्यो भवति स्वपरपर्यायसत्वासत्वाभ्यां एकैकनाप्यसांकेतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य वक्तुमशक्यत्वादिति, एवं जीवस्यापि सत्वासत्वाभ्यामेकसमयेन वक्तुमशक्यत्वात् स्यादवक्तव्यो जीव इति तृतीयो भङ्गः । एते त्रयः सकलादेशाः सकलं जीवादिकं वस्तुग्रहणपरत्वात्
अर्थ ॥ सर्व घटादि वस्तु छे ते स्व पर्याय जे पोताना सद्भाव पर्याय तेणे करी छतापणे कद्देवाय तथा परने पर्याय
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
अछता पण कहेवाय, तेवारे स्व पर्यायनो छतापणो पर पर्यायनो अछतापणो ए बे धर्म समकाले छे पण एक समय कहेवाय नही ते माटे ए घटादि द्रव्य ते स्व द्रव्यमां स्वपर्यायनो सत्वपणो, परपर्यायनो असत्वपणो, ते कोइ पण एक सांकेतिक शब्दं करी कहेवाने समर्थ नही माटे सत्व अस्तिपणो असत्व नास्तिपणो ते एक समये कहेवामां असमर्थ छे तेथी वस्तु स्वभावना बे धर्म ते एक समयें छता छे तेनो ज्ञान करवा माटे स्यात् अवक्तव्य ए वचन बोल्या. केमके कोइकने एवो बोध थाय जे सर्वथी वचने अगोचरज छे ते माटे स्यात्पद दीधो स्यात् के० कथंचित्पणे कोइक रीतें एक समये न कहेवाय माटे स्यात् अवक्तव्य ए जीव छे. एम सर्व द्रव्य जाणवा. ए बीजो भांगो थयो. ए त्रण भंगा सकलादेशी छे. सर्व वस्तुने संपूर्णपणे ग्रहेवा रूप छे. जीवादिक जे वस्तु तेने संपूर्ण ग्रहेवावंत छे.
अथ चत्वारो विकलादेशाः तत्र एकस्मिन् देशे स्वपर्यायसत्वेन अन्यत्र तु परपर्यायसत्वेन संश्व असंश्च भवति घटोऽघटश्च एवं जीवोऽपि स्वपर्यायैः सन् परपर्यायैः असन् इति चतुर्थो भङ्गः
अर्थ ॥ हवे चार भांगा विकलादेशी कहे छे जे वस्तुनुं स्वरूप कहेवो तेना एक देशनेज ग्रहे ए स्वरूप छे तिहां एक देशने विषे स्वपर्यायनो सत्वपणो अस्तिपणो गवेषे छे ते वारे वस्तु सद् असत्पणे के एटले ए घट छे अने ए घट नथी एम जीव पण स्वपर्यायें सत् परपर्याय असत् ते माटे एक समये आस्ति नास्ति रूप छे, पण कहेवामां असंख्यात समय
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छे ते माटे स्यात् पूर्वक छे एम स्यात् अस्तिनास्ति ए चोथो
भंगो जाणवो.
तथा एकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः सद्भावेन विवक्षितः अन्यत्र तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सत्वासत्वाभ्यां युगपदसंकेतिकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः सन् अवक्तव्यरूपः पञ्चमो भङ्गो भवति एवं जीवोपि चेतनत्वादिपर्यायैः सन् शेषैरवक्तव्य इति
अर्थ | तथा एक देशें पोताने पर्यायें स्वद्रव्यादिकें छतापणे गवेषीयें अने अन्य के० बीजा देशोने विषे स्वपर ए बे पर्यायें सत्व छतापणे तथा असत्व - अछतापणें समकाले असंकेतपणे नामने अणकहे गवेषीयें तेवारें सत् के० अस्तिअवक्तव्यरूप भांगो उपजे अने ए भांगा छतां बीजा छ भांगा छे तेनी गवेषणा माटे स्यात् पद जोडीयें एटले स्यात् अस्ति अवक्तव्य ए पांचमो भांगो जाणवो. जेम जीवने विषे चेतनपणो सुखवीर्यगुणें अस्ति छे अने नास्तिपणे अस्तिनास्ति समकालपणे वचनगोचर न आवे ते स्यात् अस्ति अवक्तव्य.
तथा एकदेशे परपर्यायैरसद्भावेनार्पितो विशेषतः अन्यैस्तु स्वपरपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां सत्यासत्वाभ्यां युगपदसंकेतिकेन शब्देन वक्तं विवक्षितकुंभोsसन वक्तव्यच भवति । अकुम्भो वक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः देशे तस्याकुम्भत्वात् देशे अवक्तव्यत्वादिति षष्ठो भङ्गः
अर्थ || तथा एकदेशें परपर्याय जे नास्ति पर्याय तेने
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
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असद्भाव के० अछतापणे अर्पित करीने तेवार पछी अन्य के० बीजा स्वपर्या यें पर्याय जे नास्ति पर्याय एबे सत्व के० छतापणे असत्व के ० अछतापणे युगपत् समकाले कहि यें, इहां संकेतिक शब्दने अभावें कहेवामां न आवे, अने ते कहा विना श्रोताने ज्ञान केम थाय ? ते माटे स्यात् पद ते अन्य भांगानी सापेक्षता माटे तथा सर्व धर्मनी समकालता जणाववा भाटे स्यात्नास्तिअवक्तव्य ए छठ्ठो भांगो जाणवो. एटले जीव पोताने स्वगुणे तो छतापणी सर्व पर्याय समकालनो अवक्तव्यपणो ए स्यात्नास्ति अवक्तव्य छठो भांगो थयो .
मुख्यपणे गवेषी यें
अस्तिपणो तथा पर
तथा एकदेशे स्त्रपर्यायैः सद्भावेनार्पितः एकस्मिन् देशे परपर्यायैरसद्भावेनार्पितः अन्यस्मिंस्तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदेकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः सन् असन् अवक्तव्यश्च भवति इति सप्तमो भङ्गः । एतेन एकस्मिन् वस्तुन्यर्पितानर्पितेन सप्तभङ्गी उक्ता ॥
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अर्थ | तथा एकदेशे स्वपर्यांयने छतापणे अर्पित करियें अने एकदेश परपर्यायने अछतापणे गवेषियें अने ते सर्व पर्याय समकालें भेला रह्या छे पण वचने कहेवाय नही एटले अस्तिपणो पण छे अने नास्तिपणो पण छे, ए सर्व धर्म समकालें छे, पण वचने गोचर थाय नही, ए अपेक्षायें स्यात् अस्ति स्यात् अवक्तव्य ए रीतें वस्तुनो परिणमन छे. ए सातमो भांगो जावो. ए सप्तभंगी अर्पित अनर्पितपणे कही. ते अर्पित एक धर्मज होय एम एक धर्मने विषे सप्तभंगी कही.
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तत्र जीवः स्वधर्म ज्ञानादिभिः अस्तित्वेन वर्तमान तेन स्यात् अस्तिरूपः प्रथमभङ्गः अत्र स्वधर्मा अ. स्तिपदगृहीताः शेषानास्तित्वादयो धर्माः अवक्तव्य धर्माश्च स्यात्पदेन संगृहीताः
अर्थ ॥ हवे स्वरूपपणे सप्तभंगी कहे छे, जे एक द्रव्यने विषे अथवा एक गुणने विषे, एक पर्यायने विषे, एक स्वभावने विषे सातसात भांगा सदा परिणमे छे, ते रीतें सप्तभंगी कहे छे.स्याद्वादरत्नाकरावतारिका मध्ये कह्यो छे “एकस्मिन् जीवादौ अनंतधर्मापेक्षासप्तभंगीनामानंत्यं” ए वचनथी जाणी लेजो. अत्थिजीवे इत्यादि गाथायी जाणजो, ए सुयगडांग सूत्रे छे. हवे पहेलो भांगो लखि ये छैयें, तिहां जीव द्रव्य पोताने स्वद्रव्य पिंडगुणपर्याय समुदाय आधारपणो, स्वक्षेत्र असंख्य प्रदेश ज्ञानादि गुणर्नु अवस्थान, अगुरुलघुता हानि वृद्धिनो मान अने स्वकाल ते गुणनी वर्त्तना उत्पादव्ययनी परिणमननो भिन्न स्वभाव तथा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, अनंत अव्याबाध, अरूपी,अशरीरी, परम क्षमा, परम मार्दव, परम आर्जव, स्वरूपभोगी प्रमुख स्वस्वभाव ए अनंतज्ञेय ज्ञायकपणे जीव द्रव्य छतो छे. एम जीवनो ज्ञानगुण सधर्म सकल ज्ञेयज्ञायकपणो स्वशक्तिधर्म अनंत अविभागे एकएक पर्याय अविभागमा सर्व अमिलाप्य अनमिलाप्य स्वभावनो जाणगपणो छे. इहां विस्तारें लखियें छैयें, तिहां मतिज्ञानना पर्याय जूदा छे. श्रुतज्ञानना अविभाग जूदा छे. मनःपर्याय ज्ञानना अविभाग जूदा छे. केवल ज्ञानना पर्याय जूदा छे. श्रीविशेषावश्यकें मणधरवा
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
दने छेडे कयो छे. जो आवरवा योग्य वस्तु भिन्न छे तो आवरण जूदा छे. तिहां क्षयोपशमने मेदें जाणे छे ते परोक्ष अथवा देशथी जाणे छे, सर्वथा आवरण गयेथके प्रत्यक्ष जाणे पण केवलज्ञान सर्वभावनो संपूर्ण प्रत्यक्षदायक ते संपूर्ण प्रगट्यो तेवारें बीजा ज्ञाननी प्रवृत्ति छ पण 'मिन्न पडति नथी, माटे ते केवलज्ञाननो जाणपणोज कहेवाय छे, तथा कोइक ज्ञानगुणना अविभाग सर्व एक जातिना कहे छे, ते अविभागमध्ये वर्णादिक जाणवानी शक्ति अनेक प्रकारनी छे, तेमांज आवरण एटले जे शक्ति प्रगटे ते शक्तिनुं मतिज्ञानादि भिन्न नाम छे, अने सर्व आवरण गयाथी एक केवलज्ञान रह्यं छे. छद्मस्थ ज्ञाननो भास छे. ए पण व्याख्यान छे. एवो ज्ञानगुण पोताना स्वपर्याय ज्ञायक परिच्छेदक वेतृत्त्वादिकें अस्ति छे. एम सर्व गुणमां स्वधर्मनी अस्तिता कहेवी. तेमज जे अविभागरूप पर्याय छे जेना समूहनी एक प्रवृत्तिने गुण कहि येछैये तेपण स्वकार्य कारणधर्मे अस्ति छे. एम छ द्रव्यनुं स्वरूप स्वस्वरूपं अस्ति छे अने अन्य छे भांगा पण छे एवो सापेक्षता माटे स्यात्पद देइने बोलवो ते स्यात् अस्ति ए प्रथम भांगापणो (कथ्यो) एटले गवेष्यो. जे अस्तिधर्म ते पण नास्तिपणा सहित छे एटले अस्ति कहेतां थर्का नास्ति प्रमुख छ भांगानी छति छे, तिहां शब्द सहित उपयोग थयो तेथी सत्यपणो थयो.
तथा स्वजात्यन्यद्रव्याणां तडर्माणां च विजातिपरद्रव्याणां तद्धर्माणां च जीवे सर्वथैव अभावात् नास्तित्वं तेन स्यात् नास्तिरूपो द्वितीयो भङ्गः अत्र परधर्माणां नास्तित्वं नास्तिपदेन गृहीतं शेषा अस्तित्वादयः स्यात्पदे गृहीता इति
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
__ अर्थ ॥ हवे बीजो भांगो कहे छे जे एक जीवनुं स्वरूप उपयोगमा आण्या छे ते जीवने विषे, अन्य जे सिद्ध संसारी जीव छे ते सर्वना गुपर्याय अस्तित्वादि प्रमुख सर्व धर्मनी नास्ति छे, अने अजीव द्रव्य तथा तेना जडतादिक सर्व धर्मनी नास्ति छे. जेम अग्निमां दाहकपणो छे तेनी पासे बीजो अग्निनो कणियो पड्यो छे, ते पण दाहक छ पण ते दाहकपणो भिन्न छे एटले ते कणीयांनो दाहकपणो ते अग्निमां नथी अने ते अग्निनो दाहकपणो ते कणीयांमां नथी. तेमज एक जीवमां ज्ञानादिक गुण छे ते बीजामां नथी अने बीजा जीवमां जे ज्ञानादिक गुण छे ते तेमां नथी. बाकी सरिखा छे. ते माटे जाणवादिक कार्य सरिखा करे तो पण सर्वमां पोतपोताना गुण छ पण कोइ द्रव्यना गुण कोइ द्रव्यमां आवता नथी. ते माटे स्वजाति अन्य द्रव्यपणो, अन्य गुणपणो तथा अन्य धर्मपणो ते सर्वनी नास्ति छे, एमज गुणमां पण सर्व अन्य द्रव्यादिकनी नास्ति छे, तथा पर्यायना अविभागमां पण स्वजाति अविभागकार्यता कारणतानी नास्ति छे. ते माटे परद्रव्यपणो, परक्षेत्रपणो, परकालपणो, परभावपणो, एनी नास्ति छे. एवो नास्तिपणो पण तेमांज रह्यो छे ते माटे स्यात् नास्तिपणो ए भांगो पण तेमांज छे. एम एकज मात्रनास्तिपणोको थके अस्तिपणो तथा एक कालपणो पण छे तथा जीवमां जडता गुणनी नास्ति छे, एटले जडतानी नास्ति ते जीवमांज रही छे. इत्यादिक अनंता धर्मनी सापेक्षता माटे स्यात्पदें बोलतां सर्व धर्मनो भास न थयो एटले सत्यता थाय ते माटे स्यात्नास्ति ए बीजो भांगो कह्यो.
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केषाश्चिद्धर्माणां वचनगोचरत्वेन तेन स्यात्अवक्तव्य इति तृतयो भङ्गः । अवक्तव्यधर्मसापेक्षार्थ स्यात्पदग्रहणम्
अर्थ ॥ हवे त्रीजो भांगो कहे छे. जे वस्तु होय तेमां केटलाक धर्म एवा छे जे वचने करी कहेवाता नथी ते अवक्तव्य छे. ते केवलीने ज्ञानमां जणाय पण वचने करी ते पण कही शके नही ते माटे तेवा धर्मनी अपेक्षायें वस्तु अवक्तव्य छे एटले कहेतां थकां वक्तव्यनी ना थयी पण केटलाक धर्म वस्तु मध्ये वक्तव्य छे ते जणाववा माटे स्यात्पद ग्रहण करीने स्यात् अवक्तव्य ए बीजो भांगो कह्यो.
अत्र अस्तिकथने असंख्येयाः नास्तिकथनेप्यसंख्येयाः समया वस्तुनि, एकसमये अस्तिनास्तिस्वभावौ समकवर्त्तमानौ तेन स्यात् अस्तिनास्तिरूपश्चतुर्थो भङ्गः
अर्थ ॥ हवे चोथो भांगो कहे छे जे अस्ति एवो शब्द उच्चार करतां पण असंख्यात समय थाय तथा नास्ति ए शब्द उच्चार करतां पण असंख्यात समय थाय अने वस्तुमां तो अस्तिधर्म नास्तिधर्म ए बेहु एक समयमां छे, ते बेहु समकालें जणाववा माटे अने जे आस्ति ते नास्ति न थाय तथा जे नास्ति ते अस्ति न थाय ते सापेक्षता माटे स्यात् अस्तिनास्ति ए चोथो भांगो जाणवो.
तत्र अस्तिनास्तिभावाः सर्वे वक्तव्या एव न अवक्तच्या इति शङ्कानिवारणाय स्यात्अस्ति अवक्तव्य इति पञ्चमो भङ्गः स्यामास्ति वक्तव्य इति षष्ठः
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अत्र वक्तव्या भावाः स्यात्पदे गृहीताः अत्र अस्तिभावा वक्तव्या स्तथा अवक्तव्या स्तथा नास्तिभावा वक्तव्या अवक्तव्या एकस्मिन् वस्तुनि, गुणे, पर्याये, एकसमये, परिणममाना इति ज्ञापनार्थं स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य इति सप्तमो भङ्गः ॥ अत्र वक्तव्या भावास्ते स्यात्पदे संगृहीता इति अस्तित्वेन अस्तिधर्मा नास्तित्वेन नास्तिधर्मा युगपदुभयस्वभावत्वेन वक्तुमशक्यत्वात् अवक्तव्यः स्यात्पदे च अस्त्यादीनामेव नित्यानित्याद्यनेकान्त संग्राहकम्
•
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अर्थ || हवे सातमो भांगो कहे छे, इहां अस्तिभावपणो वक्तव्य छे तेमज नास्तिभाव पण वक्तव्य छे, अने अवक्तव्य पण छे. ए सर्व धर्म एक समयमा एक वस्तुमध्ये तथा एक गुणमध्ये तथा एक पर्यायमध्ये समकालें परिणमे छे ते जणाववा माटे अस्तिनास्ति अवक्तव्यः ए सातमो भांगो. इहां अस्ति ते नास्ति न थाय अने नास्ति ते अस्ति न थाय
तथा वक्तव्य ते अवक्तव्य न थाय अने अवक्तव्य ते वक्त
व्य न थाय ते जणाववाने अर्थे स्यात्पद ग्रह्यो छे. इहां अस्तिपणे जे भाव छे ते अस्तिधर्म अने नास्तिपणे जे भाव छे ते नास्तिपणें ग्रह्या छे, बेहुं समकाले छे ते माटे एक समय वक्तव्यके० कहेवामां अशक्य छे, असमर्थ छे, तेथी अवक्तव्यके ० अगोचरपणे छे अने जे स्यात्पद छे ते अस्तिधर्म नास्तिधर्म अवक्तव्य धर्मनो नित्यपणो, अनित्यपणो प्रमुख अनेकांतनो संग्रह करे छे जे अस्तिधर्म छे ते नित्यपणे पण छे तथा अनित्यपणे पण छे एकपणे छे, अनेकपणे छे, भेद
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पणे छे, अभेदपणे छे, इत्यादिक ते अस्तिधर्ममां अनेकांतता छे तेने ग्रहे छे. केमके वस्तुनो एकगुण तेमां अस्तिपणो छे नास्तिपणो छे, नित्यपणो छे, अनित्यपणो छे, भेदपणो छे, अभेदपणो छे, वक्तव्यपणो छे, अवक्तव्यपणो छे, भव्यपणो छे, अभव्यपणो छे, ए अनेकांतपणो एह ज स्याद्वाद छे तेनुं संकेतिक वाक्य ते स्यात्पद छे ए रीते जाणवो.
आत्मद्रव्यने विषे स्वधर्मनी अस्तिता छे, परधर्मनी नास्तिता छे, स्वगुणनो परिणमवो अनित्य छे अने तेज गुणपणे नित्य छे, तथा द्रव्य पिंडपणे एक छे अने गुण पर्यायपणे अनेक छे, तथा आत्मा कारणपणे कार्यपणें समय समयमां नवानवापणो जे पामे छे ते भवनधर्म छे तो पण आत्मानो मूलधर्म जे पलटतो नथी ते अभवनधर्म छे. इत्यादिक अनेक धर्म परिणति युक्त छे ए रीते षट् द्रव्यने जाणी निर्धारीने हेयोपादेयपणे श्रद्धान भासन थाय ते सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन छे ए जीवनी अशुद्धता ते परकर्त्ता परभोक्ता, परग्राहकता, टालवाना उपायनुं साधन ते साधन करवे आत्मा आत्मापणें मूलधर्मे रहे ते सिद्धपणो तेनी रुचि उद्यमपणो करवो एहिज श्रेय छे.
स्यात्अस्ति, स्यान्नास्ति, स्यात् अवक्तव्यरूपास्त्रयः सकलादेशाः संपूर्णवस्तुधर्मग्राहकत्वात्, मूलतः अस्तिभावा अस्तित्वेन सन्ति, नास्तित्वेन सन्ति एवं सप्तभङ्गाः एवं नित्यत्वसप्तभङ्गी अनित्यत्व सप्तभङ्गी एवं सामान्यधर्माणां, विशेषधर्माणां गुणानां पर्यापाणां प्रत्येकं सप्तभङ्गी तथा
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immmmmar.rna
अर्थ ॥ स्यात्अस्ति स्यात्नास्ति स्यात्अवक्तव्य ए त्रण भांगा वस्तुना संपूर्णरूपने ग्रहे माटे सकलादेशी छे अने शेष रह्या जे चारभांगा ते विकलादेशी छे ते वस्तुना एकदेशने ग्रहे माटे तथा वली आस्तिपणाने विषे जे अस्तिपणो ते नास्तिपणे नथी अने नास्तिपणो नास्तिपणे छे तेमां अस्तिपणो नथी. इहां कोइ पुछे के वस्तुमा जे नास्तिपणो ते अस्तिपणे कहोछो तो नास्तिपणामां आस्तिपणानी ना किम कहोछो ? तेने उत्तर जे नास्तिपणो ते अस्ति छे-छतापणे छे अने अस्तिधर्म कांइ नास्तिपपामां नथी माटे ना कही छे. छतिनी ना कही नथी. तथा एमज नित्यपणानी सप्तभंगी तथा अनित्यपणानी सप्तभंगी तेमज सामान्य धर्म सर्वनी भिन्न भिन्न सप्तभंगी, तथा सर्व विशेष धर्मनी सप्तभंगी, तेमज गुण पर्याय सर्वनी जूदी जूदी सप्तभंगी कहेवी, तद्यथा के० ते कही देखाडे छे.
ज्ञानं ज्ञानत्वेन अस्ति दर्शनादिभिः स्वजातिधमैः अचेतनादिभिः विजाविधGः नास्ति, एवं पञ्चास्तिकाये प्रत्यस्तिकायमनन्ता सप्तभंग्यो भवन्ति. अस्तित्वाभावे गुणाभावात्पदार्थे शून्यतापत्तिः नास्तित्वाभावे कदाचित् परभावत्वेन परिणमनात् सर्वसङ्करतापत्तिः व्यंजकयोगे सत्ता स्फुरति तथा असत्ताया अपि स्फुरणात् पदार्थानामनियता प्रतिपत्तिः तवार्थे तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥
अर्थ ॥ हवे गुणनी सप्तभंगी कही देखाडे छे. जेम ज्ञान गुण ज्ञायकादिक गुणे अस्ति छे अने दर्शनादिक स्वजाति
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१.१.६
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एकद्रव्यव्यापि गुण तथा स्वजाति भिन्न जीवव्यापि ज्ञानादिक सर्वगुण अने अचेतनादिक परद्रव्यव्यापिसर्व धर्मनी नास्ति छे. एम पंचास्तिकायने विषे अस्तिकायें अनंति सप्तभंगीओ पामे. ए सप्तभंगी स्याद्वाद्वपरिणामें छे ते सर्व द्रव्यादिकमां छे.
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हवे वस्तुमध्ये अस्तिपणो न मानियें तो शो दोष उपजे ते कहे छे. जो वस्तुमां अस्तिपणो न मानियें तो गुण पर्यायनो अभाव थाय अने गुणना अभावें पदार्थ शून्यतापणो पामे.
तथा जो वस्तुमध्ये नास्तिपणो न मानियें तो ते वस्तु कंदाकालें पर वस्तुपर्णे अथवा परगुणपणे परिणाम जाय तेथी कोइवारे जीव ते अजीवपणो पामे अने अजीव ते जीवपणो पामे तो सर्व संकरतादोष उपजे तथा व्यंजन के० प्रकटतानो हेतु तेने योगें छतो धर्म ते फुरे पण जे धर्मनी सत्ता छति न होय ते फुरे नही. जो नास्तिपणो न मानियें तो असत्तापणे फुरे अने जेवारें असत्ता स्फुरे तेवारें द्रव्यनो अनियामक के० अनिश्चयपणो थइ जाय, ते माटे सर्व भाव अस्ति नास्तिमयी छे. व्यंजकतानो दृष्टांत कहे छे. जेम कोरा कुंभमां सुगंधतानी सत्ता छे तोज पाणीने योगें वासना प्रगटे छे.. जो वस्त्रादिकमां ते धर्म नथी तो तेमां प्रगटतो पण नथी एम सर्वत्र जाणवो हवे त्रीजो नित्य स्वभाव कहे
छे ते जे वस्तुना भाव तेनो अव्यय के० नही टलवो एटले
"
तेमनो तेमज रहेवो. ते नित्यपणो कहियें तेना बे भेद छे ते कहे छे.
एका अमच्यतिनित्यता द्वितीया पारंपर्यनित्यता || तथा द्रव्याणां ऊर्ध्वप्रचयतिर्यग्मचयत्वेन तदेव द्रव्य
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
मिति ध्रुवत्वेन नित्यस्वभावः नवनवपर्यायपरिणम नादिभिः उत्पत्तिव्ययरूपो नित्यस्वभावः उत्पत्तिव्ययस्वरूपमनित्यम् १
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अर्थ | एक अप्रच्युतिनित्यता बीजी पारंपर्यनित्यता तिहां अप्रच्युतिनित्यता तेने कहिये जे द्रव्य ते उर्ध्व प्रचय तिर्यक् प्रचयने परिणमवे ए द्रव्य तेहिज ए ध्रुवतारूप ज्ञान थाय छे एटले सदा सर्वदा त्रणे काले तेहिज एवं जे ज्ञान थाय छे जे मूल स्वभाव पलटे नही ते अप्रच्युति नित्यता कहियें अने ए नित्यतामां जे उर्ध्व प्रचय कह्यो ते ओलखावे छे जे पहेले समये द्रव्यनी परिणति हती ते बीजे समये नवा पर्यायने उपजवे अने पूर्वपर्यायने व्ययें सर्व पर्यायनी परावृति थइ तो पण ए द्रव्य तेनुं तेज एवं जे ज्ञान थाय ते द्रव्यमां उर्ध्वप्रचय कहियें उपरले समये ते माटे उ प्रचय कहियें.
तथा अनंताजीव सरिखा छे पण सर्वजीव जाणतो ए पण जीव एवो जीवत्वसत्तायेंतुल्य भिन्न जीव सत्तारूप ज्ञान थाय ते तिर्यक्प्रचय कहियें.
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ऊर्ध्वप्रचय ते समयांतरे अनेक उत्पादव्ययने पलटवे पण ए जीव ते तेज छे एवं ज्ञान थाय ए नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो. ए कारणयी कार्यउपनो तेनुं ज्ञान थाय ते नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो. तथा ए कारणयी जे कार्यउपनो वली ज्ञान थयुं ते कारणयी बीजे कारणे बीजुं कार्य थाय एम नवे नवे कार्यउपने पण जीव तेज छे एवं जे ज्ञान थाय, परंपरारूप संतति चाली जाय ते पारंपर्य नित्यता कहिये जेम प्रथम शरी
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
रने कारणे राग हतो तेहिज वस्त्र धनने कारण प्रते राग थयो ते कारण नवा रागनो नवापणो पण राग रहित आत्मा केवारे नही, ए पारंपर्य एटले परंपरा नित्यता कहियें. बीजुं नाम संतति नित्यता जाणवी, ते कारण योगे निमित्तें नीपजे, नवा नवा पर्यायने परिणमवे एटले पूर्व पर्यायने व्ययथवे तथा अभिनव पर्यायने उपजवे अनित्य स्वभाव जाणवो. एटले उत्पत्ति के० उपजवो व्यय के० विणसवो एवो जे स्वभाव ते अनित्य स्वभाव जाणवो.
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तत्र नित्यत्वं द्विविधं कूटस्थं प्रदेशादिनां परिणामित्वं ज्ञानादिगुणानां तत्रोत्पादव्ययावनेकप्रकारौ तथापि किञ्चिल्लिख्यते विस्रसाप्रयोगजभेदाद् द्विभेदो सर्वद्र व्याणां चलनसहकारादिपदार्थक्रियाकारणं भवत्येव ॥
अर्थ | तिहांवली ग्रंथांतरे नित्यपणो वे प्रकारे को छे एक कूटस्थनित्यता, बीजी परिणामिनित्यता छे. जीवना असंख्यात प्रदेश ते संख्यायें तथा क्षेत्रावगाह पलटतो नथी ते तथा गुणनो अविभाग ते सर्व कूटस्थनित्यता छे.
ज्ञानादिक गुण ए सर्व परिणामिक नित्यतायें छे. केमके गुणनो धर्मज ए छे. जे समयें समयें स्वभाव कार्यपणे परिणमे अने जे कार्य होय ते परिणामिकपणेज होय ए नीतिज छे अने जो ज्ञानगुणने कूटस्थनित्यतापणे मानियें तो पेहेले समये जे ज्ञाने करी जाण्यो तेहिज जाणपणो सदासर्वदा रहे पण तेम तो नथी. ज्ञेय तो नवनवी रीतें परिणमता देखाय छे तो ते ज्ञेयनी नवनवी अवस्था ज्ञान जाणे नही एटले पहेले समय जे रीते ज्ञान परिणमे छे ते रीतें परिणमन जोवु
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जोईयें अने ए रीते ज्ञान यथार्थ थयुं एम घटे नहीं ते माटे ज्ञेय जे घटपटादिक ते जेम पलटे छे. तेम ज्ञान पण जाणे तोहिज ज्ञान यथार्थ थाय ते माटे ज्ञानगुण ते नवा नवा ज्ञेय जाणवा. माटे परिणामी जाणत्रो अनित्य ज्ञायकता शक्ति माटे नित्य ए रीतें नित्यानित्य स्वभावी सर्व गुण छे. सर्व द्रव्यने विषे पोतानी क्रियानुं कारण थायज छे.
तत्र चलनसहकारित्वं कार्य धर्मास्तिकायं द्रव्यस्य प्रतिप्रदेशस्थचलन सहकारिगुणा विभागाः उपादानकारणं कारणस्यैव कार्यपरिणमनात् तेन कारणत्वपर्यायव्ययः कार्यत्वपरिणामस्योत्पादः गुणत्वेन ध्रुवत्वं प्रतिसमयं कारणस्यापि उत्पादव्ययौ कार्यस्याप्यु - त्पादव्ययावित्यनेकान्तजयपताकाग्रन्थे. एवं सर्वद्रव्येषु सर्वेषां गुणानां स्वस्वकार्यकारणता ज्ञेया इति प्रथमध्याख्यानम् ॥
अर्थ | तिहां जेम धर्मास्तिकायद्रव्यनो चलन सहकारीपणो ते मुख्यकार्य छे अने अधर्मास्तिकायद्रव्यनो स्थिर सहायीत्व ते मुख्य कार्य छे. वली आकाशद्रव्यनुं अवगाहना दान ते मुख्य कार्य छे. जीवनो जाणवा देखवारूप उपयोग ते मुख्य कार्य छे. पुद्गलनो वर्णगंधरसस्पर्शपणो ते मुख्य कार्य छे. इत्यादि स्वकार्यनो थातुं छे ते जिहां धावुं तिहां भवनधर्म थयो अने जिहां भवनधर्म ते उत्पाद थयो अने उत्पाद होय ते व्यय सहितज होय ते भवनधर्म तत्वार्थ ग्रंथ मध्ये को छे. हवे ते उत्पादव्यय बे प्रकारना छे. एक प्रयोगयी भाय अने बीजो विश्वसा के सहजे परिणामी धर्में
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थाय: हवे इहां सहजनो उत्पादव्यय कहे छे. तिहां धर्मास्तिकायादि छ द्रव्यने पोतापोताना चलनसहकारादि गुणनी प्रवृत्तिरूप अर्थक्रियानो करवो थायज अने चलन सहकारपणो ते कार्य धर्मास्तिकायद्रव्यने प्रतिप्रदेशे रह्यो जे चलन सहकारी गुणा विभाग ते उपादानकारण छे, तेहिज कार्यपणे परिणमे छे एटले कारणपणानो व्यय अने कार्यपणानो उत्पाद तथा चलन सहकारीपणे ध्रुव छे. एमज अधर्मास्तिकायने विषे थिरसहायगुणतुं प्रवर्तन छे तथा आकाशास्तिकायने विषे पण अवगाहनागुणतुं प्रवर्तन एमज छे. वली पुद्गलमां पूरणगलनादिक गुणनुं प्रवर्तन छे. तेमज जीवद्रव्यमा ज्ञानादिक गुणप्रवर्तन छे अथवा वली अनेकांतजयपताका ग्रंथने विषे एम पण का छे जे प्रतिसमये गुणने विषे कारणपणो नवो नवो उपजे छे एटले कारणपणानो पण उत्पाद व्यय छे तेमज प्रतिसमय कार्यपणो पण नवो नवो उपजे छे, एटले कार्यपणानो पण उत्पाद व्यय छे एम सर्व द्रव्यने विषे सर्व गुणनो कार्यपणों कारणपणो उपजे विणसे छे, एम उत्पाद व्ययनो एक स्वरूप प्रथम भेद कह्यो.
तथाच सर्वेषां द्रव्याणां पारिणामिकत्वं पूर्वपर्यायव्ययः नवपर्यायोस्पादः एवमप्युत्पादव्ययौ द्रव्यत्वेन ध्रुवत्वं
इति द्वितीयः __ अर्थ ॥ सर्व धर्म छे ते परिणामिक भावे छे. तिहां पूर्व पर्यायनो व्यय अने नवा पर्यायनो उत्पाद व्यय समय समयें छे अने द्रव्यपणो धुव छ ए बीजो मेद.
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प्रतिद्रव्यं स्वकार्यकारणपरिणमनपरावृत्तिगुणप्रवृत्तिरूपा परिणतिः अनन्ता अतीता एका वर्तमाना अन्या अनागता योग्यतारूपास्ता वर्तमाना अतीता भवन्ति अनागता वर्तमाना भवन्ति शेषा अनागता कार्ययोग्यतासनतां लभन्ते इत्येवंरूपावुत्पादव्ययौ गुणत्वेन ध्रुवत्वं इति तृतीयः। अत्र केचित् कालापेक्षया परप्रत्ययत्वं वदन्ति तदसत् कालस्य पञ्चास्तिकायपर्यायत्वेनैवाऽऽगमे उक्तत्वादियं परिणतिः स्वकालत्वेन वर्तनात् स प्रत्यक्षं एवं तथा कालस्य भिन्नद्रव्यत्वेऽपि कालस्य कारणता अतीतानागतवर्तमानभवनं तु जीवादिद्रव्यस्यैव परिणतिरिति ॥
अर्थ ॥ सर्व द्रव्यने विषे स्व के० पोतार्नु कारण परिणमन परावृत्ति के० पलटणपणे गुणनी प्रवृत्तिरूप परिणमन छे ते परिणति अनंति अनंत जातिनी अतीतकाले थइ छे अने अनंतिजातिनी एक वर्तमान काले छे अने बीजी अनागत योग्यतारूपपणे अनंतिछे ते वर्तमान परिणति ते अतीत थाप के एटले ते परिणतिमध्ये वर्तमानपणानो व्यय अने अतीतपणानो उत्पाद तथा परिणतिपणे ध्रुव छे अने अनागतपरिणति ते वर्तमान थाय छे तिहां अनागतपणानो व्यय, वर्तमानपणानो उत्पाद अने छतिपणे ध्रुव अने अनागत कार्य योग्यता ते दूर हता ते आसन्न के० नजीकपणो पामे एटले दूरतानो व्यय अने नजीकतानो उत्पाद तथा अतीतमध्ये दूरतानो उत्पाद अने नजीकतानो व्यय ए रीतें सर्व द्रव्यनेविषे अतीत वर्तमान तथा अनागतपणे परिणति छे, ते परिणमेज छे. ए द्रव्यने विषे 16
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स्वकालरूप परिणमन छे, ए उत्पाद व्ययनो बीजो भेद जाणवो.
इहां केटलाक कालनी अपेक्षा लेइने परप्रत्ययपणो कहे छे ते खोटो छे, कारण के कालद्रव्य जे छे, ते पंचास्तिकायनो पर्याय छे अने परिणतितो द्रव्यनो स्वधर्म छे, माटे काल ते स्वकालरूप वस्तुनो परिणाम तेनो भेद छे, अथवा कालने भिन्न द्रव्य मानियें तोपण काल ते कारणपणे छे, अने अतीत, अनागत वर्तमानरूप परिणति तेतो जीवादिक द्रव्यनो धर्म छे ते माटे ए उत्पाद व्यय पण स्वरूपज छे ए त्रीजो भेद थयो..
तथाच सिद्धात्मनि केवलज्ञानस्य यथार्थज्ञेयज्ञायकत्वात् यथा ज्ञेया धर्मादिपदार्थाः तथा घटापटादिरूपा वा परिणमन्ति तथैव ज्ञाने भासनाद् यस्मिन् समये घटस्य प्रतिभासः समयांतरे घटध्वंसे कपालादिप्रतिभासः तदा ज्ञाने घटा प्रतिभासध्वंसः कपालपतिभासस्योत्पादः ज्ञानरूपत्वेन ध्रुवत्वमिति. तथा धर्मास्तिकाये यस्मिन् समये संख्येयपरमाणूनां चलनसहकारिता अन्यसमये असंख्येयानां एवं संख्येयत्वसहकारिताव्ययः असंख्येयानन्तसहकारिताउत्पादः चलनसहकारित्वेन ध्रुवत्वं. एवमधर्मादिष्ववि ज्ञेयं, एवं सर्वगुणप्रवृत्तिषु इति चतुर्थः ॥
अर्थ ॥ तथा के० तेमज वली सिद्धात्माने विषे केवल ज्ञानगुणनी संपूर्ण प्रगटता छे ते यथार्थ जे काले जे ज्ञेय जेम परिणमे ते कालें तेमज जाणे एहवो ज्ञेयनो ज्ञायक ते केवल ज्ञान छे, जेम धर्मादि द्रव्य तथा घट्पटादि ज्ञेय पदार्थ जे रीते
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परिणमे ते रीतेज केवल ज्ञान जाणे ते जे समये घटज्ञान हतुं ते समयांतरे घट ध्वंस थये कपालतुं ज्ञान थाय तेवारें घटप्रति भासनो ध्वंस कपाल प्रति भासनो उत्पाद अने ज्ञाननो ब्रुवपणो एम दर्शनादि सर्व गुणनो प्रवर्तन जाणवो.
तथा धर्मास्तिकायने विषे जे समये संख्यात परमाणुनो चलन सहकारिपणो हतो, फरी समयांतरे असंख्यात परमाणुने चलनसहकारीपणो करे तेवार संख्याता परमाणु चलनसहकारतानोव्यय अने असंख्येय परमाणुने चलनसहकारतानो उत्पाद अने चलनसहकारीपणे ध्रुव छे. एमज अधर्मास्तिकायादिकने विषे पण सर्व गुणनी प्रवृत्ति थाय छे. ए रीते द्रव्यनेविषे अनंता गुणनी प्रवृत्ति छे. इहां कोइ पुछशे जे धर्मास्तिकाय मध्ये अनंता जीव तथा अनंता परमाणु ते चलणसहकारी थाय एटलो चलनसहकारी छे, तो थोडा जीव अने थोडा परमाणुर्ने चलणसहकार करतां बीजो गुण कयो अणप्रवो रह्यो ? एम कहे तेने उत्तर के निरावरण जे द्रव्य छे तेनो गुण अप्रक्यों रहेज नही अने जीव पुद्गल जे आवी पहोता तेने सहकारें सर्व चलन सहकारी गुणना पर्याय ते प्रवर्ते ज छे. केमके अलोकाकाशमध्ये जो अवगाहक जीव पुद्गल नथी तोपण अवगाहक दान गुणतो प्रवर्ते ज छे. तेम धर्मास्तिकायादिकमां जीव पुद्गल थोडाने पोचवे, पण गुण तो बधो प्रवर्ते ज छे, एम धारखो. ए रीतें गुण पर्यायनो उत्पाद व्यय ब्रुवरूप धर्म कहेवो. ए चोथु रूप कडं.
तथा सर्वे पदार्थाः अस्तिनास्तित्वेन परिणामिनः तत्रास्ति भावानां स्वधर्माणां परिणामिकत्वेन उत्पाद
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व्ययौ स्तः नास्ति भावानां परद्रव्यादीनां परायत्तौ नास्तिभावानां परावृत्तित्वेनाप्युत्पादव्ययौ ध्रुवत्वं च अस्तिनास्तिद्वयौ इति पञ्चमः ॥
अर्थ ॥ तथा सर्व द्रव्यम अस्ति तथा नास्ति ए बे स्वभाव परिणमि रह्या छे. तिहां-ज अस्ति स्वभाव छे ते स्वद्रव्यादिकनो छे. ते जेवारे ज्ञानगुण घट जाणतो हतो तेवारें घट ज्ञाननी आस्तिता हती अने तेज घटध्वंस थये कपाल ज्ञान थयुं ते वारें घट ज्ञाननी आस्तितानो व्यय थयो अने कपाल ज्ञाननी अस्तितानो उत्पाद थयो, ए रीतें अस्तितानो उत्पाद व्यय छे तेज रीतें नास्तितानो पण उत्पाद व्यय जाणवो. जे पहेली घट नास्तिता हती ते पछे घटध्वंसें कपाल नास्तिता थयी. एम परद्रव्यने पलटवे नास्तिता पलटे छे ते स्वगुणने परिणामिक कार्यने पलटवे करीने अस्तिता पलटे छे अने जिहां पलटवापणो तिहां उत्पाद व्यय थायज. एम द्रव्यमां सामान्य स्वभाव सर्व धर्म छे तेमां जेम संभवे तेम श्री प्रभुनी आज्ञायें उपयोग देइने उत्पाद व्ययपणो करवो अने अस्ति नास्तिपणे ध्रुव छे ए पांचमो अधिकार कह्यो.
तथा पुनः अगुरुलघुपर्यायाणां षड्गुणहानिवृद्धिरूपाणां प्रतिद्रव्यं परिणमनात् नानाहानिव्ययेद्धव्युत्पादः वृद्धिव्यये हान्युत्पादः ध्रुवत्वं चागुरुलघुपर्यायाणां एवं सर्वद्रव्येषु ज्ञेयं “तत्त्वार्थवृत्तौ" आकाशाधिक रे यत्राप्यवगाहकजीवपुद्गलादिर्नास्ति तत्राप्यगुरुलघुपर्याय वर्तनयावश्यत्वे चानित्यताभ्युपेया ते च अन्ये अन्ये
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च भवन्ति अन्यथा तत्र नवोत्पादव्ययौ नापेक्षिकाविति न्यूनं एवं सल्लक्षणं स्यात् इति षष्ठः ॥
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हानि तथा १
अर्थ || तथा के० तेमज वली सर्व द्रव्य तथा पर्याय ते अगुरुलघु धर्मै संयु होय द्रव्यने प्रदेशें अगुरुलघु अनंतो छे. ते अगुरुलघु समयें समयें प्रदेशें तथा पर्यायें कोइक वारें वृद्धि पामे कोइक वारें घटी जाय ते ववुवटु थवो छ छ प्रकारें छे. १ अनंत भाग हानि, २ असंख्यात भाग हानि, ३ संख्यात भाग हानि, ४ संख्यात गुण हानि, ५ असंख्यात गुण हानि, ६ अनंत गुण हानि, ए छ प्रकारें अनंत भाग वृद्धि, २ असंख्यात भाग वृद्धि, ३ संख्यात भाग वृद्धि ४ संख्यात गुण वृद्धि, ५ असंख्यात गुण वृद्धि, ६ अनंत गुण वृद्धि. ए छ प्रकारनी वृद्धि ते सर्व द्रव्यना सर्व प्रदेशें सर्व पर्यायमां थाय. एक प्रदेशमां कोइक समयें वधे छे कोइक समये घटे छे जेम परमाणुमां वर्णादिक वधे घटे छे तेम अगुरुलघुपणो पण वधेघटे छे. हानिनो व्यय छे तो वृद्धिनो उत्पाद छे. अथवा वृद्धिनो व्यय छे तो हानिनो उत्पाद छे पण अगुरुलघु ध्रुवनो ध्रुव छे. एम सर्व द्रव्यने विषे जाणवो. तिहां तवार्थटीकामां आकाशे द्रव्यना अधिकारे कहां छे ते लखिये छैये. जिहां अलोकाकाशमध्ये अवगाहक जीव पुद्गलादिक द्रव्य नथी तिहां पण अगुरुलघुपर्यायवंतपणो अवश्य छे. ते अगुरुलघुनी अनित्यता अवश्य अंगीकारे छे अने ते अगुरुलघु ते पर्यायें तथा प्रदेशें अन्य अन्य के० बीजो बीजो थाय छे एटले पूर्व समये अगुरुलघुनो व्यय अने बीजे समये नवा अगुरुलघुनो उत्पाद छे. जो ए रीते नवो उत्पाद व्यय
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गवेषिये नही तो अलोकाकाशनें विषे सल्लक्षण . न्यून के० ओछो पडे जे उत्पाद व्यय ध्रुवता संयुक्त ते सत् कहिये अने जे द्रव्य होय ते सत्पणा संयुक्तज होय. माटे अगुरुलधुनुं परिणमन, सर्व द्रव्यमां सर्व पर्यायमां सर्व प्रदेशमा छे ए अगुरुलधुनो उत्पाद व्यय कयो ए छठ्ठो अधिकार थयो.
तथा भगवतीटीकायां तथा च अस्तिपर्यायतः साम
र्थ्यरूपा विशेषपर्यायास्ते चानन्तगुणास्ते प्रतिसमयं निमित्तभेदेनपरात्तिख्याः तत्र पूर्वविशेषपर्यायाणां नाशः अभिनवविशेषपर्यायाणामुत्पादपर्यायवत्वे ध्रुवत्वं इत्यादि सर्वत्र ज्ञेयं इति सप्तमः
अर्थ ॥ तेमज वली अस्तिपर्याययी विशेष पर्याय जे सामर्थ्यरूप ते अनंत गुणा छे ए भगवती सूत्रनी टीका मध्ये कह्यो छे. जे अस्ति पर्याय ते ज्ञानादिक गुणना अविभागरूप पर्याय छे. जे पर्याय पर्यायमां सर्व ज्ञेय जाणवार्नु सामर्थ्य छे ते विशेष पर्याय छे. तथा महाभाष्ये यावंतो ज्ञेयास्तावतो ज्ञानपर्यायाः ए सामर्थ्य पर्यायगवेष्या छे, ए सामर्थ्य पर्याय ते ज्ञेयने निमित्ते छे, ते ज्ञेय तो अनेक उपजे छे ने अनेक विणशे छे तेवारें विशेषपर्याय पण पलटे छे ते प्रतिसमये निमित्त भेदनी परावृत्ति पलटवेयी पूर्व विशेष पर्याय नाश थाय तथा अभिनव विशेष पर्यायनो उपजको छे अने पर्यायनी अस्तिता ध्रुव छे. एम गुणपर्यायनो उत्पाद व्यय ब्रवपणो ते सातमो छे ए अस्तिनास्ति स्वभाव वखाण्या.
नित्यताऽभावे निरन्वयता कार्यस्य भवति कारणाभावता च भवति अनित्यताया अभाचे. ज्ञायकतादि
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शक्तेरभावः अर्थक्रियासंभवः तथा समस्तस्वभावपययाधारभूतभव्यदेशानां स्वस्त्रक्षेत्रभेदरूपाणामेकत्वपिण्डीरूपापरत्यागः एकस्वभावः ॥ क्षेत्रकालभावानां भिन्नकार्यपरिणामानां भिन्नप्रभावरूपोऽनेकस्वभावः एकत्वाभावे सामान्याभावः || अनेकत्वाभावे विशेषधभावः स्वस्वामित्वव्याप्यव्यापकताप्यभावः
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अर्थ | एमज सर्व द्रव्यमां नित्यता तथा अनित्यता छे. ए नित्य अनित्यपणा विना द्रव्य कोइ नयी ज. द्रव्यमां नित्यता न होय तो कार्यनो अन्वय कोने होय ? एटले अमुक कार्य ते अमुक द्रव्यें करयो एम को जाय नही माटे द्रव्यमां नित्यता मानवायीज अमुक द्रव्ये अमुक कार्य करयो एम कहेवाय छे माटे जो द्रव्यने नित्यपणेज मानियें तो गुणनुं कार्य ते द्रव्यनो कहेवाय अने गुण ते द्रव्य न कहेवाय अने जो द्रव्य नित्य होय तो कारणपणानो अभाव थाय माटे द्रव्यमां नित्यता मानवी अने जो द्रव्यमां अनित्यपणो न मानियें तो जाणंग आदे देइनें सर्व द्रव्यना गुणरूप कार्यनो अभाव थइ जाय, अर्थ क्रिया संभवे नही, एटले कोइक अनित्यपणो होय तो अर्थ क्रियाने करे केमके करवापणो कोइक बीजापणो एटले नवापणो निपजाववो ते पूर्व पर्यायनो ध्वंस येथी थाय अने ते एकनो ध्वंस अने कोइक बीजा, नवानो नीपजवो ते द्रव्यमां अनित्यपणो छे एटले नित्य स्वभाव तथा अनित्य स्वभाव ओलखाव्या. हवे एक स्वभाव तथा अनेक स्वभाव ओलखावे छे.
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तथा के० तेमज समस्त के० सर्व जे स्वभाव अस्तित्व,
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जे क्षेत्र
के एक
वारे पा
प्रमेयत्व, अगुरुलघु आदिक समस्त पर्याय गुणा विभागादिक ते सर्वन आधारभूत क्षेत्र ते प्रदेश छे ते स्व के० पोताना जे क्षेत्र ते सर्व भेदरूप जुदा जुदा छे एटले संख्याता प्रदेश मिन छे पण ते एक पिंडपणो किवारे तजता नथी, सर्व प्रदेशमां अंतराल क्षेत्रपणो कोईवारें पामतो नथी जे अनंता स्वभाव, अनंत पर्याय, ते असंख्यात प्रदेश रूप तेनुं प्रमाण फिरतुं नथी एवो जे द्रव्यने विषे समुदाय पिंडपणो रहे छे ते एक स्वभाव कहिये. ते पंचास्तिकायमध्ये १ धर्म, २ अधर्म, ३ आकाश, ए त्रण द्रव्य एकेक छे अने जीव द्रव्य अनंता छे तेथी पुद्गल परमाणु अनंत गुणा छे. ते एक जीव अनेक रूप नव नवा करे पण अंतर पडे नहीं ते माटे द्रव्यमध्ये एक स्वभाव छे.
क्षेत्र असंख्यात प्रदेश काल उत्पाद व्ययरूप भाव पर्याय गुणना अविभाग ते पोताना मिन्नकार्य परिणामी छे ते सर्वनो मिन्न प्रवाह छे एटले सर्वनो कार्यपणो मिन छे ते माटे द्रव्यने सर्व स्वभाव पर्याय भेदें विचारतां द्रव्यमां अनेक स्वभाव पण छे. जो वस्तुमा एकपणानो अभाव मानियें तो सामान्यपणो रहे नही अने गुणनो पर्यायनो स्वामी आधार ते कोण थाय ? अने आधार विना गुणादि आधेय ते क्यां रहे ? ते माटे द्रव्यनो एकपणो छे. जो वस्तुमां अनेकपणो न मानियें तो द्रव्य ते विशेष रहित थई जाय तेथी गुणनो अनेकपणो शी रीते द्रव्यनेविषे पामिये ? माटे द्रव्यमा गुणकार्यनो अनेकपणो पण छे तथा स्वस्वामित्व व्याप्य व्यापकभाव केम ठेरे ? जे गुण पर्याय ते स्व के० धन अने द्रव्य ते तेनो स्वामी छे अथवा द्रव्य ते व्याप्य अने गुण पर्याय
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ते व्यापक छे ए रीते द्रव्यमां एक स्वभाव. तथा अनेक स्वभाव जाणवा.
स्वस्वकार्यभेदेन स्वभावभेदेन अगुरुलघुपर्यायभेदेन भेदस्वभावः अवस्थानाधारतायभेदेन अभेदस्वभावः भेदाभावे सर्वगुणपर्यायाणां सङ्करदोषः गुणगुणीलक्षलक्षणः कार्यकारणतानाशः अभेदाभावे, स्थानध्वंसः कस्यैते गुणाः को वा गुणी इत्याद्यभावः
अर्थ ॥ स्वस्व के० पोतपोताना कार्यने भेदें करी एटले जीवद्रव्यमा ज्ञानगुण ते जाणवान कार्य करे तथा चारित्रगुण थिरतारमणतारूप कार्य करे तथा पुद्गलद्रव्य ते रूपपणो भिन्न कार्य करे, तथा वर्णपणो, गंधपणो, रसपणो अने स्पर्शपणो, सर्व कार्य मिन्न छे. तथा स्वभाव भेद ते अस्तिस्वभाव छति रूप छे. नित्य स्वभाव अविनाशीपणो छे. अनित्यपणो ते पलटण रूप छे. एकपणो ते पिंडरूप छे. अनेकपणो ते प्रदेशादिक छे. इत्यादि स्वभाव भेद तथा अगुरुलघुपर्याय प्रदेशेगुणाविभागे जूदो जूदो छे. कोई कोईनो तुल्य नयी, हानिवृद्धिरूप परिणमन छे. इत्यादि प्रकारे द्रव्यमां भेद स्वभाव छे.
तथा सर्व धर्मनो अवस्थान के० रेहेवो तेने आधारपणो कार्यनी तुलना के० सरिखापणो केवारे मिन्न पडतो नथी, तेमाटे द्रव्यमां अभेद स्वभाव छे.
जो द्रव्य गुणपर्यायमां भेद स्वभाव न होय तो सर्व संकर एकपणो थाय तेवारें कार्यनो भेद केम पडे ? ते माटे सर्व द्रव्य गुणपर्यायमां भेद सर्व भाव छे. जीव ते चेतना लक्षणवंत
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अजीव ते चेतना रहित अभेद छे. अजीवमध्ये जे धर्मास्तिकाय द्रव्य ते चलनसहकारनें करे छे, पण बीजा अजीवद्रव्य ते ए कार्य करता नथी. एम धर्मास्तिकाय थिरसहायगुणनें करे छे. आकाश अवगाह दाननें करे छे. पुद्गलरूपी आवरण स्कंधादि परिणमन करे छे. एम सर्व द्रव्यनें भेद छे, तोज भिन्न भिन्न द्रव्य कहेवाय छे. इहां कोइ कहेशेके जीवअनंता तेतो सरिखा छे तो सर्व जीवनें एकद्रव्य शावास्ते न कह्यो ? तेने उत्तर जे रूपैया सोनारूपापणे अथवा धवलापणे तोलपणे सरिखा छे, पण वस्तुना पिंडपणे भिन्न छे, तेमाटे सोनेपण भिन्न भिन्न कहियें छैयें. तेम जीवने पण भिन्न भिन्न कहि यें. वली उत्पाद व्ययनो फिरवो सर्वमां तेज रीतनो छे, पण पलटण ते एक रीतनो नथी, तथा अगुरुलघुनी हानिवृद्धिनो फिरवो पण सर्व द्रव्यमां पोतपोताने छे, तेथी सर्व जीव तथा सर्व परमाणु मिन्न छे, ए भेद स्वभाव जाणवो.
" तन्मयतावस्थानाधारताद्यभेदेन अभेद स्वभावः " तथा तन्मयता अवस्थानतानो अभेद छे अने आधारतानो पण अभेदपणो छे ते अभेद स्वभाव छे.
तथा भेदनो जो अभावपणो मानियें एटले वस्तुमां भेदपणो न मानियें तो सर्व गुण तथा पर्यायनो संकर के० एकमेकपणो ए दोष लागे, तो गुणी कोण ? तथा गुण कोण ? द्रव्य कोण ? एम गुणपर्यायने केइ द्रव्यनो कयो पर्याय एम वेहेंचण थाय नही. गुण तथा गुणी तथा जे ओलखवा योग्य लक्षण तेनुं चिन्ह तथा कारणधर्म तथा कार्यधर्मता ए बे जुदा पडे नही. कार्यधर्म तथा कारणधर्मनो नाश थाय माटे वस्तमां भेद स्वभाव मानवो
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तथा जो वस्तुमां अभेदपणो न मानियें तो स्थानध्वंस थाय छे जे स्थान कोण ? अने ते स्थानकमां रहे ते कोण छे ? इत्यादिकनो अभाव थाय छे. एम विचारतां सर्वथा एकपणो मानतां कोण गुणी? अने कोण गुण ? एम ओलखाण न थाय. ए रीतें भेदाभेद स्वभाव वस्तुमां मानवा.
परिणामिकत्वे उत्तरोत्तरपर्यायपरिणमनरूपो भव्यस्वभावः तथा तत्त्वार्थवृत्तौ इह तु भावे द्रव्यं भव्य भवनमिति गुणपर्यायाश्च भवनसमवस्थानमात्रका एव उथ्यितासीनोत्कुटकजागृतशयितपुरुषवत्तदेवच वृत्यंतरव्यक्तिरूपेणोपदिश्यते, जायते, अस्ति विपरिणमते, वर्द्धते, अपक्षीयते, विनश्यतीति पिण्डातिरिक्त वृत्यंतरावस्थाप्रकाशतायां तु जायते इत्युच्यते सव्यापारैश्च भवनवृत्तिः अस्ति इत्यनेन निर्व्यापारात्मसत्ता ऽऽख्यायते भवनवृत्तिरुदासीना अस्तिशब्दस्य निपातत्वात् विपरिणमते इत्यनेन तिरोभूतात्मरूपस्यानुछिन्नतथावृत्तिकस्य रूपान्तरेण भवनं. यया क्षीरं दधिभावेन परिणमते. विकारान्तरवृत्या भवनवत्तिष्ठते वृत्यन्तरव्यक्तिहेतुभाववृत्तिर्वा विपरिणामः वर्द्धत इत्यनेन तूपचयरूपः प्रवर्तते यथाङ्कुरो वर्द्धते उपचयवत् परिणामरूपेण भवनवृत्तिज्यते अपक्षीयते इत्यनेन तु तस्यैव परिणामस्यापचयवृत्तिराख्यायते दुर्बलीभवत् पुरुषवत् पुरुषवदपचयरूप भवनवृत्यन्तरव्यक्तिरुच्यते विनश्यति इत्यनेनाविर्भूतभवनवृत्तिस्तिरोभवनमुच्यते यथा विनष्टो घटः प्रतिविधिष्टस
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मवस्थानात्मिकाभवनचिस्तिरोभूता नत्वभावस्यैव जाता कपालाद्युत्तरभवनवृत्यन्तरक्रमाविच्छिन्नरूपत्वादित्येवमादिभिराकारैर्द्रव्याण्येवभवनलक्षणान्यपदिश्यन्ते, त्रिकालमूलावस्थाया अपरित्यागरूपोऽभव्यस्वभावः, भव्यत्वाभावविशेषगुणानामप्रवृत्तिः अभव्यत्वाभावे द्रव्यान्तरापत्तिः
अर्थ ॥ हवे भव्य स्वभाव तथा अभव्य स्वभाव कहे छे. जीवाजीवादिक द्रव्य छे ते परिणामि छे. समय समये नवा नवा परिणामें परिणमे छे. तिहां पूर्वपर्यायने विनाशे अने उत्तरोत्तर नवा नवा पर्यायने प्रगटावे एवी जे द्रव्यनी परिणति तेनुं मूल कारण ते भव्य स्वभाव कहिये. तिहां तत्त्वार्थ टीका मध्ये कह्यो छे. इहां द्रव्यानुयोगने विषे भाव धर्मने विषे एटले गुण पर्यायने विषे द्रव्य ते भव्य के० भवन थयो एटले नवो नीपजवो ते भवन इति के० एम वस्तुना गुणपर्याय जे छे ते भवन के० नवो थवा रूप समवस्थान मात्र छे एटले नवा नवा थावारूप छे. तिहां दृष्टांत कहे छे, जे पुरुष उत्थित के० ऊठ्यो आसीन के० फरी तेहिज बेठो, बेसबुं ते पद्यासन कहियें, अथवा उकडवू ते आसन सहित सू, जेम इत्यादिक पर्या ये ते. पुरुष थाय छे तेम तेहज वृत्यंतर के पूर्व पर्यायनो विनाश अने उत्तर पर्यायनो उपजवो ते वृत्यंतर कहिये, वृत्यतर व्यक्तिरूपपणे उपदेशे छे ते. भवनधर्मनी प्रवृत्ति कहे छे, जायते के. नवो उपजे अस्ति के० छतिपणे रहे. विपरिणमते के० बीजापणे परिणमे वली सामर्थ्य धर्मे वधे अने अपक्षीयते के० घटे विनश्यति के विनाश पामे पिंड के० समुदाय
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पणो तेथी अतिरिक्त के० बीजी वृति जे गुणनी प्रवृत्यंतरनी अवस्थाने प्रकाश थवे करीने जे भवनपणो थाय एटले ठेरी जे भवनवृत्ति ते सव्यापार छे पण निर्व्यापार नथी..
अस्ति ए वचने निर्व्यापार आत्मशक्ति छे ते कहिये छैयें. ते पण भवनवृत्तिथी उदासीन छे एटले भवनवृत्तिने ग्रहण करती नथी. अस्ति शब्दने निपातपणो छे, विपरिणमते ए वचने तिरोभूत के० अणप्रगटी जे वस्तु तेमां तद्रूपपणे अनुच्छिन्न के० विच्छेद गई. तथा वृत्तिकस्य के० ते रीतें वर्तति आत्मशक्ति तेनो रूपांतरे थवो ते भवन कहि ये. तिहां दृष्टांत जेम क्षीर ते दूध दधिभावें परिणमे, विकारांतरे थवो ते रीतें रहे ए भवनधर्म कहिये. जे ज्ञानादिपर्यायमां अनंतज्ञेय जाणवानी शक्ति छे पण जे ज्ञेय जे रीतें परिणमे ते रीतें ज्ञानगुण प्रवर्ते ए ज्ञानगुणनुं प्रवर्तन ते प्रतिसमयें विपरिणामपणे परिणमन छे. ए पण भवन धर्म छे. वली वृत्यंतरवर्तने अन्यपणे व्यक्तिने हेतु करणे जे भवांतरे वर्तवो ते विपरिणाम कहिये. तथा वली वर्द्धते के० वधे ए वचने उपचयरूपपणे प्रवर्ते जेम अंकुर वधे छे तेम वर्णादिक पुद्गलना गुण उपचयपणे वधे ए ऊपचयरूप भवनता वृत्ति व्यज्यते के० प्रगट करियें छैयें. ___एम गुणने कार्यातरपणे परिणमने द्रव्यमां भवन धर्म छे " अपक्षीयते " ए वचने करीने तु के० वली तेहिज परिणामनो ऊणो थवो अथवा टलवो कहिये, दुर्बल थता पुरुषनी परे, जेम पुरुष दुर्बल थाय तेम पर्यायने घटवे द्रव्य प्रमाणादिक तथा ते समय अगुरुलघु पर्याय घटवे ते दुर्बल थर्बु ते रूप जे भवन वृत्तिने अंतरे व्यक्ति के० प्रगटता कहि छे 'तथा विनश्यति । एम कहेवाथी आविर्भूत के० प्रगट थयो
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जे भवन धर्मनो वर्तवो तेनो तिरोभाव थयो कहियें. जेम विणस्यो घट जे मृत्पिंडने विषे ते चक्रादि कारणे प्रगट थयो, जे घट तेने प्रध्वंसें विनाश कहियें. एम द्रव्यने विषे कार्य करवारूप जे पर्याय तेने तिरोभावें अन्यपणे कार्यकरण रीते समवस्थान जे रहेवुं ते समयें ते भवनवृत्ति कहियें. तथा तिरोभावपणाने अभावें थावुं जे कपालादिक उत्तर भवन तेपणे वर्त्तवं ए पण भवन धर्म छे. एम अनुक्रमे अविच्छिन्न निरंतर रूपें इत्यादिक अनेक आकारें द्रव्य तेज भवन लक्षण कहियें. ए भव्य स्वभाव जाणवो द्रव्यनेविषे जे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमयेत्व, अगुरुलघुत्वादिक धर्म, ते त्रणे कालमां मूल अवस्थाने अपरित्यागे के तजता नथी. तेहिज रूपपणे रहे. एहवा जेटला धर्म ते अभव्यस्वभाव जाणवो जे अनेक उत्पाद व्ययने परिणमने फिरने फिरे पण जीवनो जीवपणो पलटाय नही तेमज अजीवनो अजीवपणो पलटाय नही ए सर्व अभव्य स्वभाव जाणवो.
हवे ए बे स्वभाव जो द्रव्यमां न मानियें तो शो दोष थाय ? ते कहे छे. जो द्रव्यने विषे भव्यपणो न मानियें तो द्रव्यना जे विशेष गुण गतिसहकार, स्थितिसहकार, अवगाह दान, ज्ञायकता, वर्णादि जे पंचास्तिकायना विशेष गुण तेनी प्रवृत्ति न थाय, अने प्रवृत्ति विना कार्यनो करवो न थाय अने कार्यने अणकरवे द्रव्यनो व्यर्थपणो थाय, ते माटे भव्य स्वभाव छे.
जो द्रव्यने विषे अभवनरूप अभव्य स्वभाव न होय अने एकलो भवन स्वभावज होय तो नवा नवापणे थवे ते द्रव्य पलटीने अन्य द्रव्य थयी जाय ते माटे द्रव्यत्व सत्य
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प्रमयेत्वादि धर्म अभव्यपणो छे तेथीज द्रव्य पलटतो नथी तेमनो तेमज रहे छे ए अभव्यस्वभाव छे.
वचनगोचरा ये धर्मास्ते वक्तव्या, इतरे अवक्तव्याः। तत्राक्षराः संख्येयाः तत्सन्निपाता असंख्येयाः तद्गोचरा भावाःभावश्रुतगम्याः अनन्तगुणा वक्तव्याभावे श्रुताग्रहणत्वापत्तिः अवक्तव्यभावे अतीतानागतपर्यायाणां कारणतायोग्यतारूपाणामभावः सर्वकार्याणां निराधारताऽऽपत्तिश्च सर्वेषां पदार्थानां ये विशेषगुणाश्चलनस्थित्यवगाहसहकारपूर्णगलनचेतनादयस्ते परमगुणाः॥ शेषाः साधारणाः, साधारणासाधारणगुणास्तेषां तदनुयायिप्रवृत्तिहेतुः परमस्वभावः इत्यादयः सामान्यस्वभावाः॥
अर्थ ॥ आत्मानो वीर्यनामा गुण तेना अविभाग जे वीयांतराय कम्म आवर्या छे तेज वीर्यातरायने क्षयोपशमें तथा क्षय थवाथी प्रगट्यो जे वीर्यधर्म तेने भाषापर्याप्ति नामकर्मने उदयें लीवराणाजे भाषावर्गणानां पुद्गल ते शब्दपणे परिणमे ते शब्द पुद्गल खंध छे, पण श्रोताजनने ज्ञानना हेतु छे एटले जेमा जे गुण न होय ते गुण- कारण पण थाय नही एम जे कहे छे ते मृषा छे, केमके जे निमित्त कारण होय तेमां गुण होय किंवा न पण होय, अने उपादन कारणमां ते गुणना कारणतापणे तथा योग्यतापणे नियामक छे ते वचनयोगेंज ग्रहवाय एवा जे वस्तुमां धर्म छे तेने वक्तव्य धर्म कहिये अने तेथी इतर के० जूदा जे धर्मास्तिकाय द्रव्यमा अनेक धर्म छे ते वचनमां ग्रहवाता नथी, तेवा सर्व धर्म अवक्तव्य
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कहिये. ते वक्तव्य धर्मथी अवक्तव्य धर्म अनंतगुणा छे. वचनतो संख्याता छे पण ते वचनोमां एवो सामर्थ्य छ जे अवक्तव्य धर्म सर्वनो ज्ञानपणो थाय. उक्तं च अमिलप्पा जे भावा, अणतभागो य अणमिलप्पाणं, अमिलप्पसाणतो, भाग सुए निबद्धो अ ॥ १ ॥ तत्र के० तिहां अक्षर संख्याता छे ते अक्षरना सन्निपात संयोगीभाव असंख्याता छे ते अक्षर संन्निपातने ग्रहवाय एवा जे पदार्थादिकना भाव ते अनंतगुणा छे, तेथी अवक्तव्य भाव अनंतगुणा छे, जे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अमिलाप्यभावनो परोक्षप्रमाणे ग्राहक छे. अवधिज्ञान ते पुद्गलनो प्रत्यक्ष प्रमाणे जाणग छे, पण एक परमाणुना सर्व पर्यायने जाणे नही. केटलाक पर्यायने जाणे ते पण असंख्यात समये जाणे अने केवलज्ञान ए छ द्रव्यना सर्व पर्यायने एक समयमा प्रत्यक्ष जाणे. माटे जो द्रव्यमां वक्तव्यपणो न होय तो श्रुतज्ञाने ग्रहण थाय नही अने जे ग्रंथाभ्यास, उपदेशादिक, सर्व काम थाय छे तेतो एम नथी माटे द्रव्यमां व्यक्तव्यपणो छे. ___ अवक्तव्याभावे के० अवक्तव्यपणाने न मानियें तो अतीतपर्याय ते वस्तुमां कारणतानी परंपरामा रह्या छे, तथा अनागतपर्याय सर्व योग्यतामा रह्या छे ते सर्वनो अभाव थाय, ते वारें वस्तुमा वर्तमान पर्यायनी ति पामिये तेथी अतीत अनागतनो ज्ञान थाय नही, माटे अवक्तव्य स्वभाव अवश्य मानवो अने .वर्तमान सर्व कार्य ते निराधार थइ जाय अने द्रव्यमां एक समयमां अनंता कारण छे ते अनंता कारणना अनंता कार्य धर्म छे अने अनंता कार्यना अनंता कारण परंपरानुं ज्ञान ते केवलीने छे अने वर्तमानकाले कारण धर्म तथा कार्य धर्मयी अनंतगुणा कारण कार्यनी योग्यरूप सत्ता छे ते कोइना अवि
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भाग नथी पण अविभागी जे ज्ञानादिक गुण. तेमां अनंता कारणधर्म अनंता कार्यधर्म ऊपजवानी योग्यतारूप सत्ता.छे ते सर्व अवक्तव्यरूप छे.
हवे परम स्वभावनुं स्वरूप कहे छे. सर्व जे धर्मास्तिकायादिक पदार्थ तेना विशेष गुण जे धर्मास्तिकायनो चलन सहकारीपणो तथा अधर्मास्तिकायनो स्थितिसहाय आकाशास्तिकायनो अवगाहक तथा पुद्गल द्रव्यनो पूरणगलन, जीव द्रव्यनो चेतना लक्षण, ए सर्व द्रव्यना विशेष गुण कह्या. एम लक्षणरूप तथा द्रव्यांतरथी मिन्न पाडवानुं मूल कारण ते परम प्रकृष्ट गुण कहिये. ए प्रधान गुणने अनुयायी बीजा जे साधारण गुण ते गुण पंचास्तिकायमां पामिये. ते नामना अविनाशीपणो, अखंडपणो, नित्यत्वादिक कर्म ए पंचास्तिकायने सरिखा छे ते माटे साधारण गुण तथा पंचास्तिकायमां कोइक अस्तिकायमां पामियें. कोइकमां न पामिये ते गुणने साधारण असाधारण कहिये, ते सर्व गुणने विषे विशेष गुणने अनुयायि प्रवर्ते छे ते प्रवर्तनना कारण द्रव्यमां एक परमस्वभाव पणो छे, ते परमस्वभावने परिणमने द्रव्यना सर्व गुण मुख्य गुणने अनुगमे ज प्रवते. ते परमस्वभाव सर्व द्रव्यने विषे छे एटले तेर सामान्य स्वभाव कह्या. वली अनेकांतजयपताकामां कह्या छे.
तथास्तित्व, नास्तित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, असर्वगतत्व, प्रदेशवत्वादिभावाः पुनः तत्त्वार्थटीकायां पुनरप्यादिग्रहणं कुर्वन् ज्ञापयत्यत्रानन्तधर्मवत्वं तत्राशक्ताः प्रस्तारयन्तु सर्वे धर्माः प्रतिपदं प्रवचनस्वेन पुंसा यथासं
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भवमायोजनीयाः क्रियावत्वं पर्यायोपयोगिता प्रदेशाष्टकनिश्चलता एवंप्रकाराः संति भूयांसः अनादिपरिणामिका भवन्ति जीवस्वभावा धर्मादिभिस्तु समाना इति विशेषः ।
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अर्थ ॥ तेमज अस्तिपणो, नास्तिपणो, कर्त्तापणो, भोक्ता - पणो, गुणवंतपणो, असर्वव्यापिपणो, प्रदेशवंतपणो, इत्यादि अनंत स्वभाववंत द्रव्य छे तेमज तत्वार्थ टीकामध्ये परिणामिक भावना भेद वखाणतां कह्यो छे. पुनरपि आदि शब्दना ग्रहण करतां एम जणावे छे जे वस्तु अनंत धर्मवंत छे ते सर्व विस्तारी शके नही तो पण द्रव्य द्रव्यने विषे प्रवचनना जाण पुरुष जेम संभवे तेम धर्म जोडवा. तथा क्रियावंतपणो जे ज्ञानादिक गुण ते लोकालोक जाणवाने प्रति समये प्रवर्त्ते छे. श्री भाष्यकारें ज्ञानादि गुण ते करण अने तेज गुणनी प्रवृत्ति ते क्रिया जाणवी तथा देखवो ते कार्य एम धर्मास्तिकायादिकना सर्वे गुण ते त्रण परिणतियें परिणामी छे, ते माटे पंचास्तिकाय ते अर्थ क्रिया करे छे, ते क्रियावंतपणी जाणवो. सर्व पर्यायनो उपयोगीपणो ए पण जीव स्वभाव छे तथा प्रदेशाष्टकनी निश्चलता ए पण जीवनो स्वभाव छे. तिहां धर्माधर्म अने आकाश ए ऋण अस्तिकायना प्रदेश अनादि अनंतकाल अवस्थितपणे छे. पुद्गलने चलपणो सदा सर्वदा छे. पुनलपरमाणु तथा पुद्गलस्कंध ते संख्यातो काल अथवा असंख्यातो काल एक क्षेत्रे रहे पण पछे अवश्य चल थाय. तथा जीवद्रव्यने सकम संसारीपणे क्षेत्रथी क्षेत्रांतर गमन भवथी भवांतर गमनरूप चलता छे, ते जीवने सम्यक्दर्शन सम्यकज्ञान अने सम्यक चारित्रने प्रगटवे सर्व परभाव भोगीपणो निवारखे
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आत्म स्वरूप निराधारण स्वरूप भासन स्वरूप परिणमने करवे, स्वरूप एकत्वे, स्वधर्मकर्ता स्वधर्मभोक्तापणे, सकल पर भाव तजवे, निरावरण, निःसंग, निरामय, निद्र, निष्कलंक, निर्मल, स्वीय अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अरूपी,अव्याबाध, परमानंदमयी, सिमात्मा, सिद्धक्षेत्र रह्या ते सादि अनंतकाल स्थिर छे. सकल प्रदेश स्थिर छे, अने संसारी जीव तेना आठ प्रदेश सदा सर्वदा स्थिर छे. ते आठ प्रदेश निरावरणे तथा आचारांगनी टीका शैलंगाचार्यकृतना लोकविजयाध्ययनने प्रथमोद्देशके तदनेन पंचदशविधेनापि योगेनात्मा अष्टौ प्रदेशान् विहाय तप्तभाजनोदकववर्त्तमानैः सर्वैरैवात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टब्धाकाशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् बध्नाति तत् प्रयोगकमत्युच्यते.
एटले आ अष्ट प्रदेशे कर्म लागता नथी. इहां कोई पुछे जे. आठ प्रदेश निरावरण छे तो लोकालोक केम जाणता नथी ? तिहां उत्तर जे आत्म द्रव्यनी जे गुणप्रवृत्ति ते सर्व प्रदेश मिले प्रवतो तेमां ए आठ प्रदेश अल्प छे तेथी आठ प्रदेशमां सर्व गुण नियवरण छे पण कार्य करी शकता नथी. जेम अग्निनुं अत्यंत सूक्ष्म कणीयुं होय तेमा दाहक पाचक प्रकाशक गुण छे पण अल्पता माटे दाहकादिकार्य करी शकतुं नथी.
वली कोइ पुछे जे ए आ अष्ट प्रदेश ते निरावरण केम रही शक्या ? तेनु उत्तर जे चल प्रदेश होय तेने कर्म लामे पण अचल प्रदेशने कर्म लागे नही. एम भगवतीसूत्रे कां छे. जेअइ, वेअइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, सेबंधइ, ए पाठ छे ते माटे जे चल होय ते बंधाय अने आठ प्रदेश तो अचल
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१४० देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. ~ ~~~~~~~~~~ छे. तेथी ए आठ प्रदेशने बंध नथी, तथा कार्याभ्यासें प्रदेश भेला थाय तेथी प्रदेशना गुण पण तिहां ते कार्य करवाने प्रवर्ते छे तथा जे द्रव्यनो जे गुण जे प्रदेशे होय ते गुण ते प्रदेश मूकी अन्य क्षेत्रे जाय नही तथा जीवना आठ प्रदेश सर्वथा निरावरण छे. बीजा प्रदेशे अक्षरनो अनंतमो भाग चेतना संर्वदा उघाडी छे. ए रीतें संति के० छे. घणा अनादि परिणामिकभाव ते भवंति के० होय. अनादि परिणामिकभाव छे ते जीवना भाव छे अने सप्रदेशादिक धर्मास्तिकाय प्रमुखने विषे समान छे एम जाणवो. इत्यादिक विशेष स्वभाव छे. भिन्नभिन्नपर्यायप्रवर्त्तनस्वकार्यकरणसहकारभूताः पर्यायानुगतपरिणामविशेषस्वभावाः ते च के, १ परिणामिकता, २ कर्तृता, ३ ज्ञायकता, ४ ग्राहकता, ५ भोक्तृता, ६ रक्षणता, ७ व्याप्याव्यापकता, ८ आधाराधेयता, ९ जन्यजनकता १० अगुरुलघुता, ११ विभूतकारणता, १२ कास्कता, १३ प्रभुता, १४ भावुकता, १५ अभावुकता, २६ स्वकार्यता, १७ सप्रदेशता, १८ गतिस्वभावता, १९ स्थितिस्वभावता, २० अवगाहकस्वभावता, २१ अखण्डता, २२ अचलता, २३ असङ्गता, २४ अक्रियता, २५ सक्रियता इत्यादि स्वीयोपकरणप्रवृत्तिनैमित्तिकाः “ उक्त च सम्मतौ" आरोपोपचारेण यद्यदपेक्षते तत्र वस्तु धर्मः उपाधिताभवनात् न चोपाधिर्वस्तुसत्ता इति ॥
अर्थ ॥ हवे विशेष स्वभाव कहे छे. भिन्नभिन्न जे पर्याय छे तेनुं कार्य कारणपणे जे प्रवर्तन तेना सहकारभूत जे पर्था
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यानुगत परिणामि एवा जे स्वभाव ते विशेष स्वभाव कहिये. तेना अनेक भेद छे. ते श्रीहरिभन्दसूरिकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रंथमां कह्या छे ते कहे छे..
१ सर्व द्रव्यने पोताना गुण समय समयमा कार्य करवे प्रवः ते मिन्नमिन्न परिणामे परिणमे ते सर्व पोताना गुण तेने कारणिक छे ते परिणामिकपणो कहिये, २ तत्र कर्तृत्वं जीवस्य नान्येषां तिहां आत्मा कर्ता छे एटले कर्त्तापणो जीव द्रव्यने विषे छे. " अप्पा कत्ता विकत्ता य” इति उत्तराध्ययनवचनात्, ३ ज्ञायकता जाणपणानी शक्ति जीवने विषे छे. ज्ञानलक्षण जीवछे. ते माटे गिन्हई कायिएणं इति आवश्यकनियुक्तिवचनात्,४ ग्राहकशक्ति पण जीवने छे. गृह्णावीति क्रियानो कर्त्ता जीव छे, ५ भोक्ताशक्ति पण जीवमांछे. “जो कुणइ सो मुंजइ यः कर्ता स एव भोक्ता” इति वचनात्. १ रक्षणता, २ व्यापकता, ३ आधाराधेयता, ४ जन्यजनकता तत्वार्थवृत्ति मध्ये छे तथा अगुरुलघुता, विभुता, करणता, कार्यता, कास्कता, ए शक्तिनी व्याख्या श्रीविशेषावश्यकें छे, भाबुकता तथा अभावुकता शक्ति ते श्री हरिभद्रसूस्कृित भावुक नामे प्रकरण मध्ये कहि छे..
एम केटीक शक्ति जैनना तर्कग्रंथो जे अनेकांतजयपताका सम्मति समुखमां छे तथा ऊर्च प्रचयशक्ति अने तिर्यक् प्रघयशक्ति ओघशक्ति, समुचितशक्ति, ए सर्व संमतिग्रंथने विषे छे. तथा जे द्विगुणी-आत्मा माने ते सर्व धर्म शक्तिरूप ज माने छेतेणे दानादिकलब्धि अव्याबाध सुख प्रमुख शक्ति मानी छे. इहां व्याख्यांतरे जे गुणकरण छे तेने कर्तादिकपणो ते सामर्थ्य छे, जाणवो देखवो ते कार्य छ, केटलीक शक्ति जीवमां ज छे, अने केटलीक पंचास्तिकाय मध्ये छे. तथा
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार
देवसेनकृत नयचक्रमध्ये जीवने अचेतन स्वभाव, मूर्त स्वभाव, तथा पुल परमाणुने चेतन स्वभाव, अमूर्त स्वभाव कह्या ते असत् छे, एतो आरोपणपणे कोइक कहे ते कथनमात्र जाणवो. पण ए वात छतीमां नथी, जे धर्म आरोपें तथा उपचारें गवेपाय ते वस्तुनो धर्म नयी उपाधियी थाय छे, ते माटे जे उपाधि ते वस्तुनी सत्ता नयी एम धारखं.
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धर्मास्तिकाये अमूर्ताचेतनाक्रियगतिसहायादयो गुणाः । अधर्मास्तिकाये अमूर्त्ता चेतनाक्रियस्थितिसहकारादयो गुणाः । आकाशास्तिकाये अमूर्ताचेतनाक्रियावगाहनादयो गुणाः । पुद्गलास्तिकाये मूर्तीचेतनसक्रियपूर्णगलनादयो वर्णगन्धरसस्पर्शादयो गुणाः । जीवास्तिकाये ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याऽव्याबाधामूर्त्ताऽगुरुलध्वनव गाहादयो गुणाः । एवं प्रतिद्रव्यं गुणानामनन्तश्वं ज्ञेयम् ।।
अर्थ || धर्मास्तिकायना गुण चार १ अरूपी, २ अचेतन, ३ अक्रिय, ४ गतिसहाय इत्यादि अनंतगुण छे. अधर्मास्तिकायना गुण चार १ अरूपी, २ अचेतन, ३ अक्रिय, ४ स्थितिसहाय, इत्यादि अनंतगुण छे. आकाशास्तिकायना गुण चार १ अरूपी, २ अचेतन, ३ अक्रिय, ४ अवगाहनादिक अनंतगुण छे. पुद्गलास्तिकायना गुण चार छे १ रूपी, २ अचेतन, ३ सक्रिय, ४ पूर्णगलन. १ वर्ण, २ गंध, ३ रस, ४ स्पर्श इत्यादिक गुण अनंता छे. जीवास्तिकायने विषे १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, ४ वीर्य, ५ अव्याबाध, ६ अरूपी, ७ अगुरुलघु, ८ अनवगाहादिक अनंतगुण छे, ए रीतें अनंतागुण
जाणवा.
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
पर्यायाः पोढा द्रव्यपर्याया असंख्येयप्रदेशसिद्धत्वादयः। १ द्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः द्रव्याणां विशेषगुणाश्चेतनादयश्वलनसहायादयश्च, २ गुणपर्यायाः गुणा विभागादयः ३ गुणव्यञ्जनपोया ज्ञायकादयः कार्यरूपाः मतिज्ञानादयः ज्ञानस्य, चक्षुर्दर्शनादयो दर्शनस्य, क्षमामाईवादयः चारित्रस्य, वर्णगन्धरसस्पर्शादयो मूर्तस्य इत्यादि ४ स्वभावपर्याया अगुरुलघुविकाराः ते च द्वादशप्रकाराः पद्गुणहानिवृद्धिरूपाः अवाग्गोचराः एते पञ्चपर्यायाः सर्वद्रव्येषु, विभावपर्यायाः जीवे नरनारकादयः॥ पुद्गले ब्यणुकतोऽनन्ताणुकपर्यन्तास्कन्धाः
अर्थ ॥ हवे नयज्ञान करवानो अधिकार कहे छे, तिहां द्रव्यास्तिकनयना मूल बे भेद छे. १ शुद्ध द्रव्यास्तिक, २ अशुक्र द्रव्यास्तिक, अने देवसेनकृत पद्धतिमां द्रव्यास्तिकना दश मेद कर्या छे ते सर्व ए बे भेद मध्ये समाय छे, तथा ते सामान्य स्वभावमा समाणा छे ते माटे इहां न वखाण्या...
हवे पर्यायना छ भेद कहे छ तिहां प्रथम १ जे द्रव्यने विषे एकत्वपणे रडा जे जीवादिकना असंख्याता प्रदेश तथा
आकाशना अनंता प्रदेश ए द्रव्य पर्याय कहिये, २ सिझत्वादिक अखंडत्वादिक तथा द्रव्यनो व्यंजक के० प्रगटपणो जे माने छे ते द्रव्य व्यंजन पर्याय कहिये.
द्रव्यनो विशेष गुण जे अन्य द्रव्यमां नथी तेने विशेष गुण कहिये. ते जीवने चेतनादिक अने धर्मास्तिकायमां चलणसहकार तथा अधर्मास्तिकायमां स्थिरसहकार, आकाशमां अवगाहदान, पुद्गलमां पूरणगलणरूप ए सर्व द्रव्यनी मिन्नताने प्रगट करे छे ते माटे ए धर्मने व्यंजन पर्याय कहिये..
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३ एक गुणना अविभाग अनंता छे तेनो पिंडपणो ते गुणपर्याय कहिये ४ गुणव्यंजन पर्याय ते ज्ञाननो जाणंगपणो तथा चारित्रनो स्थिरतापणो इत्यादिक अथवा ज्ञानगुणना भेदांतर ज्ञानना भेद जे मतिज्ञानादिक पांच तथा दर्शनगुणना चक्षुर्दर्शनादिक भेद तथा चारित्र गुणना क्षमादिक भेद, पुद्गलनो रूपी गुण तेना भेद वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थानादिक, अरूपी गुणना अवर्ण, अगंधे, अरसे, अफासे, इत्यादिक चार चार जाणवा ते गुण व्यंजन पर्याय, ५ स्वभाव पर्याय ते वस्तुनो कोइक स्वभावज एवो छे ते अगुरुलघुपणे छे, छ प्रकारनी वृद्धि तथा छ प्रकारनी हानि एवी रीते बार प्रकारें परिणमे छे. इहां कोइ प्रेरकनो योग नथी. वस्तुने मूल धर्मनो हेतु छे. एनुं स्वरूप पूरूं वचनगोचर नयी. अनुभव गम्य नयी. केमके श्रीठाणांगसूत्रनी टीका मध्ये श्रुतज्ञान वृद्धिना सात अंग छे तिहां प्रथम सूत्रअंग बीजं निर्युक्तिअंग, ३ भाग्यअंग, ४ चूर्णिवालो सूत्रादि सर्वना अर्थ कहे छे. ५ टीका व्याख्या निरंतर ए पांच अंग तो ग्रंथरूप छे. तथा छठ्ठो अंग परंपरारूप छे तथा सातमुं अंग अनुभव ए साते कारणे विनय सहित भणतां सुणतां थकां साचा अर्थ पामिने आत्मानुं निर्मल ज्ञान थाय. श्री भगवतीसूत्रे "गाथा" सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ नियुत्तिमिसिओ भणीओ, तइयो अ निरवसेसो, एस विहि होइ अणुओगे, ए पांच पर्याय का ते सर्व द्रव्य मध्ये छे.
६ विभाव पर्याय ते जीव तथा पुद्गल मध्येज छे, ते विभाव पर्याय जीवने नरनारकीपणं पामवुं ते तथा पुद्गलनो are त्र्यणुकादिक खंधनो मिलकं, अनंतागुण पर्यंत अनंतपुद्गल स्कंधरूप ते विभाव पर्याय कहियें,
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मेर्वाधनादिनित्यपर्यायाः चरमशरीरत्रिभागन्यूनावगाहनादयः सादिनित्यपर्यायाः सादिसान्तपर्याया भवशरीराध्यवसायादयः अनादिसान्तपर्याया भव्यत्वादयः तथा च निक्षेपाः सहजरूपा वस्तुनः पर्यायाः एवं चत्वारो वत्थुपज्झाया इति भाष्यवचनात् नामयुक्ते प्रति वस्तुनि निक्षेपचतुष्टयं युक्तम् उक्तं चानुयोगद्वारे जत्थ य जं जाणिज्झा, निरक्खेवं निरिखवे निरवसेस, जत्थ य नो जाणिज्झा, चउक्कयं निरिकवे तत्थ, तत्र नामनिक्षेपः स्थापनानिक्षेपः द्रव्यनिक्षेपः भावनिक्षेपः तत्र नामनिक्षेपो द्विविधः सहजः साङ्केतिकश्च स्थापनाऽपि द्विविधा सहजा आरोपजा च, द्रव्यनिक्षेपो द्विविधः आगमतो नोआगमतश्च तत्र आगमतः तदर्थज्ञानानुपयुक्तः नोगपतो ज्ञशरीरमव्यशरीरतद्यतिरिक्तभेदात्रिधा, भावनिक्षेपो द्विविधः आगमतो नोआगमतश्च तदशानोपयुक्तः तद्गुणमयश्च वस्तुस्वधर्मयुक्तं तत्र निक्षेपा वस्तुनः स्वपर्याया धर्मभेदाः
अर्थ ॥ पुद्गलनु मेरु प्रमुख ते अनादि नित्य पर्याय छे. जीवनी सिद्धावस्था, सिद्धावगाहनादिक, ते सादि नित्य पर्याय छे तथा भाव अबे शरीर तथा अध्यवसाय ए त्रण प्रकारना योगस्थान जे वीर्यना क्षयोपशमयी ऊपना तेमां कषायस्थान जे चेतननोक्षयोपशम कषायना उदयथी मिल्या अने संयमस्थान जे चारित्रनो क्षयोपशम परिणमी जे चेतनादिक गुण ए सर्व अध्यवसायस्थानक ते सादि सांत पर्याय छे, तथा सिद्धिगमन योग्यता धर्म ते भव्यपणो ए. पर्याय ले अनादि सांत छे, जे
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सिद्धत्वणो प्रगटे भव्यत्वपर्यायनो विनाश छे ते माटे अनादिकालनो छे पण अंत थवा सहित छे, माटे अनादि सांतपर्याय छे, एम पर्याय अनेक जाणवा.
तथा वस्तुमां सहजना जे चार निक्षेपा छे ते पण वस्तुना स्वपर्याय छे, ते श्रीविशेषावश्यकनी भाष्यमध्ये को छे. " चत्तारो वत्थुपज्झाया" ए वचन छे ते माटे स्वपर्याय कहि यें. वली श्रीअनुयोगद्वारसूत्रमां कह्यो छे, जिहां जे वस्तुना जेटला निक्षेपा जाणि यें तिहां ते वस्तुना तेटला निक्षेपा करियें. कदाचित् वधता निक्षेपा भासनमां न आवे तोपण १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ भाव, ए चार निक्षेपा तो अवश्य करवा. तेमां नामनिक्षेपांना बे भेद छे.
१ सहजनाम, २ सांकेतिकनाम, ते कोइनो कर्यो नाम, तथा स्थापनाना बे भेद छे. १ सहजस्थापना ते वस्तुनी अवगाहनारूप, २ आरोपस्थापना ते आरोपथी थयी माटे कृत्रिम कहि यें, आरोपजा कहिये. हवे द्रव्य निक्षेपाना बे भेद छे ते कहे छे, १ आगमयी द्रव्य निक्षेपो ते जे जे पुरुषना स्वरूपना जाणपणे हृमणां ते उपयोगें नयी ते आत्मद्रव्यनिक्षेप जे वस्तु ते गुण सहित छे, पण हमणां तेपणे वर्तता नथी. तेहना त्रण मेद छे. १ ज्ञशरीर जेहना हता पण मरण पाम्या तेथी तेनुं शरीर जे ऋषभदेवना शरीरनी भक्ति श्रीजंबूद्वीप पन्नतीमां छे, २ भव्यशरीर ते हमणां तो गुणमय नथी पण गुणमय थशे, जेम अयमंतामुनि, ए भव्यशरीर जाणवो, ३ तद्द्व्यतिरिक्त जे ते गुणे वर्ते छे पण ते उपयोगें हमणा वर्तता नयी.
भावनिक्षेपाना बे भेद १ आगमथी भावनिक्षेपो ते आ
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गमना अर्थनो जाण वली ते उपयोगें वर्ते छे, २ नोआगमथी भावनिक्षेपो ते जेपणे ज्ञ वर्ते छे तेज रूप छे, ए रीतें निक्षेपा कहेवा.
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ए चार निक्षेपामा पहेला त्रण निक्षेपा ते कारणरूप छे, अने चोथो भावनिक्षेपो ते कार्यरूप छे, ते भावनिक्षेपाने निपजावतां पहला ऋण निक्षेपा प्रमाण छे नहीकां अप्रमाण छे. पहेला त्रण निक्षेपा द्रव्यनय छे. एक भावनिक्षेपो ते भावनय छे. भावनिक्षेपाने अणनिपजावतां एकली द्रव्यनी प्रवृत्ति ते निष्फल छे. एम श्री आचारांगनी टीकामां लोकविजय अध्ययने कहां छे ते लखीये छैयें. " फलमेव गुणः फलगुणः फलं च क्रिया भवति तस्याश्च क्रियायाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररहिताया ऐहिकामुष्मिकार्थ प्रवृत्तायाः अनात्यंतिकोऽनैकान्तिको भवेत् फलं गुणोप्यगुणो भवति सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्रक्रिया यास्त्वेकान्तिकानाबाधसुखाख्यसिद्धिगुणोऽवाप्यते एतदुक्तं भवति सम्यग्दर्श नादिकैव क्रियासिद्धिः फलगुणेन फलवत्यपरा तु सांसारिकसुखफलाभ्यास एव फलाध्यारोपान्निष्फलेत्यर्थः
एटले रत्नत्रयी परिणमन विना जे क्रिया करवी ते थकी संसारिक सुख थाय ते क्रिया निष्फल छे ए पाठ छे माटे भाव निक्षेपाना कारण विना पेहेला त्रणे निक्षपा निष्फल छे निक्षेपा तो मूलगी वस्तुना पर्याय छे द्रव्यनो स्वधर्मज छे.
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नयास्तु पदार्थज्ञाने ज्ञानांशाः तत्रानन्तधर्मात्मके वस्तुन्येकधर्मोन्नयनं ज्ञाननयः तथा "रत्नाकरे" नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासी न्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः, स्वाभिनेतादं
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शापलापी पुनर्नयाभासः, स व्याससमासाभ्यां द्विपकारः व्यासतोऽनेकविकल्पः समासतो द्विभेदः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः तत्र द्रव्यार्थिकञ्चतुर्धा १ नैगम, २ सङ्ग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्रभेदात्, पर्यायार्थिकस्त्रिधा १ शब्द, २ समभिरूढ, ३ एवंभूतभेदात्
अर्थ | जे नय छे ते पदार्थना ज्ञानने विषे ज्ञानना अंश छे. तिहां नयनुं लक्षण कहे छे. अनंत धर्मात्मक जे वस्तु एटले जीवादिक एक पदार्थमां अनंता धर्म छे तेनो जे एक धर्म गवेष्यो तो पण अन्य के० बीजा अनंता धर्म तेमां रह्या छे तेनो उच्छेद नही अने ग्रहण पण नही एक धर्मनी मुख्यता करवी ते नय कहियें. ते नयना व्यास के० विस्तास्थी अनेक भेद छे अने समास के० संक्षेपथी बे भेद छे १ द्रव्यार्थिक, २ पर्यायार्थिक, ते रत्नाकरावतारिकाग्रंथथी लखिये छैये" द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तदेवार्थः सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिकः "
जे वर्त्तमान पर्यायने द्रवे छे अने आगामिककालें द्रवसे तथा अतीतकालें द्रवतो हतो ते द्रव्य कहियें तेज छे अर्थ प्रयोजन विषयपणे जेने ते द्रव्यार्थिक कहिये. एटले पर्याय ते जन्य अने द्रव्य ते जनक को तथा द्रव्य ते ध्रुव अने पर्याय ते उत्पाद विनाशरूप छे उक्तं च.
·
“ पर्येति उत्पादविनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः " जे उपजवा विणशवानो परि के० नवा नवापणे एति के० पामे तेज अर्थ प्रयोजन
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तेने पर्यायार्थिक कहिये. ते द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ए बे धर्मने द्रव्य तथा पर्याय कहिये.
इहां कोइक पुछे जे बीजो गुणार्थिक केम कहेता नथी ? ते वली रत्नाकरावतारिका मध्ये कह्यो छे “ गुणस्य पर्याये एवान्तर्मूतत्वात् तेन पर्यायार्थिकेनैव तत् सङ्ग्रहात्."
जे गुण ते पर्यायने विषे अंतर्भूत छे ते पर्यायार्थिक मध्येज संग्रह्यो छे. ते पर्याय बे भेदे छे एक सहभावि बीजो क्रमभावि. तेमां सहभावि ते गुण छे ते पर्यायने विषे अंतर्भूत छे, तिहां द्रव्य पर्याययी व्यतिरिक्त सामान्य विशेष ए बे धर्म छे माटे सामान्य विशेष बे नय वत्ता केम कहेता नथी ? एम कोइ पुछे तेने उत्तर.
जे “ द्रव्यपर्यायाभ्यां व्यतिरिक्तयोः सामान्यविशेषयोरप्रसिद्धः तथाहि द्विप्रकारं सामान्यमुक्तमूर्खतासामान्य तिर्य
सामान्यं च तत्रोर्वसामान्यं द्रव्यमेव तिर्यक्सामान्यं तु प्रतिज्यत्तिासहशपरिणामलक्षणं व्यञ्जनपर्याय एव. " ए पाठथी ऊर्ध्व सामान्य ते द्रव्यनो धर्म छे अने तिर्यक्सामान्य ते पर्याय धर्म छे " विशेषोऽपि वैसाहश्यविवर्त्तलक्षणं पर्याय एवान्तर्भवति नैताम्यामधिकनयावकाशः " _ विशेषपणे अनेक रीतें वर्तवानो लक्षण छे ते पर्यायने विषे अंतर्भाव छे ते माटे मिन्न नयनो अवकाश नथी. ए बे नय मध्येज अंतर्भाव छे. तेमां वली द्रव्यार्थिकमा चार भेद छे १ नैगम, २ संग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र तथा पर्यायार्थिकना प्रण भेद छे. १ शब्द, २ समभिरूढ, ३ एवंभूत. ..
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विकल्पान्तरे ऋजुसूत्रस्य पर्यायार्थिकताप्यस्ति स नैगमस्त्रिप्रकारः आरोपांशसङ्कल्पभेदाद् विशेषावश्यके तूपचारस्य भिन्नग्रहणात् चतुर्विधः । न एके गमा आशयविशेषा यस्य स नैगमः तत्र चतुःप्रकार आरोपः द्रव्यारोप गुणारोपकालारोपकारणाद्यारोपभेदात् तत्र गुणे द्रव्यारोपः पञ्चास्तिकायवर्तनागुणस्य कालस्य द्रव्यकथनं एतद्गुणे द्रव्यारोपः १ ज्ञानमेवात्मा अत्र द्रव्ये गुणारोपः २ वर्त्तमानकाले अतीतकालारोपः अद्य दीपोत्सवे वीरनिर्वाणं, वर्तमाने अनागतका - लारोपः अद्यैव पद्मनाभनिर्वाणं, एवं षड् भेदाः कारणे कार्यारोपः बाह्यक्रियाया धर्मत्वं धर्मकारणस्य धर्मत्वेन कथनं । सङ्कल्पो द्विविधः स्वपरिणामरूपः कार्यान्तरपरिणामच अंशोऽपि द्विविधः भिन्नोऽभिन्नश्चेत्यादि शतभेदो नैगमः ।
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अर्थ | वली विकल्पांतरे ऋजुसूत्र ते पर्यायार्थिकमां पण कह्यो छे. केमके ए विकल्परूप नय छे ते माटे. तेमां नैगमना त्रण भेद छे १ आरोप, २ अंश, ३ संकल्प तथा विशे षावश्यकमां चोथो भेद पण उपचारपणे कहे छे, नथी एक गमो अभिप्राय जेनो ते नैगमनय कहियें. एटले अनेक आशयी छे ते नैगमनयना चार भेद छे ते मध्ये आरोपना चार प्रकार छे. १ द्रव्यारोप, २ गुणारोप, ३ कालारोप, ४ कारणाद्यारोप.
१ तिहां गुणादिकने विषे द्रव्यपणो मानवो ते द्रव्यारोप. जेम वर्तना परिणाम ते पंचास्तिकायनो परिणमन धर्म छेतेने कालद्रव्य कहि बोलाव्यो ए काल ते भिन्न पिंडरूप द्रव्य नथी.
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पण आरोपें द्रव्य कयो छ माटे द्रव्यारोप अने द्रव्यने विषे गुणनो आरोप करवो. जेम ज्ञानगुण छे पण ज्ञानी तेज आत्मा एम ज्ञानने आत्मा कह्यो ते गुणनो आरोप करयो माटे गुणारोप. तथा जेम श्रीवीरनिर्वाण थया तेने तो घणो काळ गयो छे पण आज दीवालीना दीवसें वीरनो निर्वाण छे एम कहे, ए वर्त्तनमा अतीतनो आरोप को. अथवा आज श्रीपद्मनाभ प्रभुनो निर्वाण छे, एम कहेवू तेम वर्तमानने विषे अनागत कालनो आरोप छे. एवी रीतें वली अतीतना बे मेद छे तथा एवीज रीते अनागतना बे भेद छे अने वर्तमानना बे भेद ऊपर कह्या ते सर्व मली कालारोपना छ भेद जाणवा.
वली कारण विषे कार्यनो आरोप करवो ते कारण चार छे. १ उपादान कारण, २ निमित्त कारण, ३ असाधारण कारण, ४ अपेक्षा कारण, तेमां बाह्यद्रव्यक्रिया ते साध्यसापेक्षवालाने धर्मनु निमित्त कारण छे, तोपण एने धर्मकारण कहिये. तेमज श्रीतीर्थकर मोक्ष- कारण छे तेथी तेने तारयाणं कह्यो ते कारणने विषे कर्त्तापणानो आरोप को एम आरोपता अनेक प्रकारें छे. ते कारणाद्यारोप वली संकल्पनैगमना बे भेद छे, १ स्वपरिणामरूप जे वीर्य चेतनानो जे नवो नवो क्षयोपशम ते लेवो. बीजो कार्यातरे नवे नवे कार्यं नवो नवो उपयोग थाय ते ए बे भेद थया. तथा अंशनैगमना पण बे मेद छे, १ मिन्नांश ते जूदो अंशस्कंधादिकनो बीजो अमिन्नांश ते जे आत्माना प्रदेश तथा गुणना अविभाग इत्यादिक ए सर्व नैगमनयना मेद जाणवा एटले नैगमनय कह्यो.
सामान्यवस्तुसत्तासङ्ग्राहकः सङ्ग्रहः स द्विविध: सामान्यसङ्घहो विशेषसङ्ग्रहश्च, सामान्यसङ्ग्रहो द्विविधा मूलत
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उत्तरतश्च, मूलतोऽस्तित्वादिभेदतः षविधः उत्तरतो जातिसमुदायभेदरूपः जातितः गवि गोत्वं, घटे घटत्वं, वनस्पतौ वनस्पतित्वं, समुदयतो सहकारात्मके वनेसहकारवनं, मनुष्यसमूहे मनुष्यछंद, इत्यादि समुदायरूपः अथवा द्रव्यमिति सामान्यसङ्ग्रहः जीव इति विशेषसङ्ग्रहः तथा विशेषावश्यके "संगहणं संगिन्हइ संगिन्हंतेवतेणं जं भेया तो संगहो संगिहिय पिंडियत्थं वउज्जास्स" संग्रहणं सामान्यरूपतया सर्ववस्तुनामाकोडनं सङ्ग्रहः अथवा सामान्यरूपतया सर्व गृह्णातीति सङ्ग्रहः अथवा सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया सगृह्यन्ते अनेनेति सङ्ग्रहः अथवा संगृहीतं पिण्डितं तदेवार्थोऽभिधेयं यस्य तत् सङ्ग्रहीतपिण्डितार्थ एवंभूतं वचो यस्य सङ्ग्रहस्येति सङ्ग्रहीतपिण्डितं तत् किमुच्यते इत्याह संगहीय मागहीयं संपिडियमेगजाइमाणीयं ॥ संगहीयमणुगमो वा वइरे गोपिडियं भणियं ॥१॥ सामान्याभिमुख्येन ग्रहणं सङ्गृहीतसङ्ग्रह उच्यते, पिण्डितं त्वेकजातिमानितमभिधीयते पिण्डितसङ्ग्रहः अथ सर्वव्यक्तिष्वनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादनमनुगमसङ्ग्रहोऽभिधीयते व्यतिरेकस्तु तदितरधर्मनिषेधाद् ग्राह्यधर्मसङ्ग्रहकारक व्यतिरेकसङ्ग्रहो भण्यते यथा जीवोजीव इति निषेधे जीवसङ्ग्रह एव जाताः अतः १ सङ्ग्रह, २ पिण्डितार्थ, ३ अनुगम, ४ व्यतिरेकभेदाच्चतुर्विधः अथवा स्वसत्ताख्यं महासामान्यं संगृह्णाति इतरस्तु गोत्वादिकमवान्तरसामान्यं पिण्डितार्थमभिधीयते महासत्तारूपं अवान्तरसत्तारूपं " एगं निचं निरवयवमकियं
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सबगं च सामन्नं * एतत् महासामान्यं गवि गोत्वाः दिकमवांतरसामान्यमिति संग्रहः ॥
अर्थ ॥ हवे संग्रहनय कहे छे सामान्ये मूल सर्व द्रव्य व्यापक नित्यत्वादिक सत्तापणे रह्या जे धर्म तेनो जे संग्रह करे ते संग्रह कहिये तेना बे भेद छे १ सामान्य संग्रह, २ विशेष संग्रह दली सामान्य संग्रहना बे भेद छे १ मूल सामान्य संग्रह, २ उत्तर सामान्य संग्रह वली मूल सामान्य संग्रहना अस्तित्वादिक छ भेद छे ते पूर्वे कह्या छे तथा उत्तर सामान्यना बे भेद छे, १ जातिसामान्य, २ समुदायसामान्य तिहां गायना समुदायमां गोत्वरूप जाति छे तथा घटसमुदायमां घटत्वपणो अने वनस्पतिने विषे वनस्पतिपणो ते जातिसामान्य कह्यो अने आंबाना समूह, विष अंबवन कहे तथा मनुष्यना समूहमां मनुष्य ग्रहण थाय ते समुदाय सामान्य ए उत्तर सामान्य ते चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शनने ग्राहीक छे अने मूल सामान्य ते अवधिदर्शन तथा केवल दर्शनथी ग्रहवाय छे अथवा १ सामान्यसंग्रह, २ विशेषसंग्रह तिहां छ द्रव्यना समुदायने द्रव्य कयु ए सामान्य संग्रह इहां सर्वनो ग्रहण थयो छे अने जीवने जीवद्रव्य कही अजीव द्रव्यथी जूदो भेद पाड्यो ए विशेष संग्रह ए विशेष संग्रहनो विस्तार घणो छे तथा विशेषावश्यकथी संग्रहनयना चार भेद ते लखियें छैयें मूल पाठमां कहेली गाथानो अर्थ छे. ___संग्रहणं के० एकठो एकवचन मध्ये एक अध्यवसाय उपयो
* एकं सामान्य सर्वत्र तस्यैव भावात् तथा नित्यं सामान्यं अविनाशात् तथा निरवयवं अदेशत्वात्, अक्रियं देशान्तरगमनाभावात् सर्वगतं च सामान्यं अक्रियत्वादिति ॥ 20
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
गमां समकाले ग्रहे, सामान्यरूपपणे सर्व वस्तुनो आकोडण ग्रहण करवो ते संग्रह कहिये अथवा सामान्यरूपपणे सर्व संग्रह करे ते संग्रह कहिये, अथवा जेथकी सर्व भेद सामान्यपणे ग्रहियें तेने संग्रह कहिये, अथवा संगृहीतं पिण्डितं के० जे वचनथी समुदाय अर्थ ग्रहवाय ते संग्रह वचन कहिये तेना चार भेद छे. १ संगृहीत संग्रह, २ पिण्डित संग्रह, ३ अनुगम संग्रह, ४ व्यतिरेक संग्रह.
१ सामान्यपणे वहेंचण विना ग्रहण थाय एवो जे उपयोग अथवा एवं वचन अथवा एवो धर्म कोइपण वस्तुने विशे होय तेने संगृहीत संग्रह कहिये.
२ अने एकजाति माटे एकपणो मानिने ते एकमध्ये सर्वनो ग्रहण थाय जेम “एगे आया" “एगे पुग्गले" इत्यादि वस्तु अनंति छे पण जाति एक माटे ग्रहवाय छे ते बीजो पिंडित संग्रह कहिये.
३ जे अनेक जीवरूप अनेक व्यक्ति छे ते सर्वमां पामियें जेम सचित्मय आत्मा एटले सर्व जीव तथा सर्व प्रदेश सर्व गुण ते जीवनां लक्षण छे एने अनुगम संग्रह कहिये.
४ तथा जेने ना कहेवे तेथी इतरनो सर्व संग्रहपणे ज्ञान थाय ते जेम अजीव छे तेवारे जे जीव नही ते अजीव कहिये एटले कोइक जीव छे एम व्यतिरेक वचने ठेों तथा उपयोगें जीवनो ग्रहण थाय छे ते व्यतिरेक संग्रह कहिये.
अथवा संग्रहनय बे भेदें कहेवाय छे. १ महासत्तारूप, २ अवांतरसत्तारूप ए रीतें पण संग्रहनो स्वरूप को छे.
“सदिति भणियम्मि जम्हा, सवत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी । तो सवं तम्मत्तं नत्थितदत्थंतरं किंचि ॥१॥ यद्यस्मात् सदित्येवं भणिते सर्वत्र
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. ~~mmmmmmmmmm भुवनत्रयांतर्गतवस्तुनि बुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति नहि तत् किमपि वस्तु अस्ति यत् सदित्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते तस्मात् सर्व सत्तामात्रं न पुनः अर्थातरं तत् श्रुतसामर्थ्यात् यत् संग्रहेन संगृह्यते तेन परिणमनरूपत्वादेव संग्रहस्येति” एटले त्रणे भुवनमां एहवी वस्तु कोइ नथी जे संग्रहनयने ग्रहणमां आवती नयी जे जे वस्तु छे ते सर्व संग्रहनयमां ग्रहवाणी ज छे ए संग्रहनय कह्यो.
संग्रहगृहीतवस्तुभेदान्तरेण विभजनं व्यवहरणं प्रवर्तनं वा व्यवहारः, स द्विविधः शुद्धोऽशुद्धश्च । शुद्धो द्विविधः वस्तुगतव्यवहारः धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां स्वस्वचलनसहकारादिजीवस्य लोकालोकादिज्ञानादिरूपः स्वसंपूर्णपरमात्मभावसाधनरूपो गुणसाधकावस्थारूपः गुणश्रेण्यारोहादिसाधनशुद्धव्यवहारः। अशुडोपि द्विविधः सद्भूतासद्भूतभेदात् सद्भूतव्क्यहारो ज्ञानादिगुणः परस्परं भिन्नः, असद्भूतव्यवहारः कषायात्मादि मनुष्योऽहं देवोऽहं । सोऽपि द्विविधः संश्लेषिताशुद्धव्यवहारः शरीरं मम अहं शरीरी। असंश्लेषितासभूतव्यवहारः पुत्रकलत्रादि, तो च उपचरितानुपचरितव्यवहारभेदाद् द्विविधौ तथा च विशेषावश्यके "ववहरणं ववहरए स तेण व वहीरए व सामन्नं । बवहारपरो व जओ विसेसओ तेण ववहारो ॥" व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहरति स इति वा व्यवहारः, विशेषतो व्यवह्रियते निराक्रियते सामान्यं तेनेति व्यवहारः लोको व्यवहारपरो बा विशे
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१५.६
देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
तो यस्मात्तेन व्यवहारः । न व्यवहारास्वस्वधर्मप्रवतितेन ऋते सामान्यमिति स्वगुणप्रवृत्तिरूपव्यवहारस्यैव वस्तुत्वं ततरेण तद्भावात् स द्विविधः विभजन, १ प्रवृत्ति, २ भेदात् । प्रवृत्तिव्यवहारस्त्रिविधः वस्तुप्रवृत्तिः १ साधनप्रवृत्तिः २ लौकिकप्रवृत्तिश्च, ३ साधनप्रवृत्तिस्त्रेधा लोकोत्तर, लोकिका, २ कुप्राचनिक, ३ भेदात् इति व्यवहारनयः श्रीविशेषावश्यके ॥
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अर्थ ॥ हवे व्यवहारनयनी व्याख्या करे छे संग्रहनयें ग्रहित जे वस्तु तेने भेदांतरे विभजन के० वहेंचबुं ते व्यवहारनय जेम द्रव्य एवं सामान्य नाम कथं तेमां वली वेंहेचण करि ये जे द्रव्यना बे भेद छे. १ जीव द्रव्य, २ अजीव द्रव्य, वली तेमां पण वेहेंचण करि यें जे जीवना बे भेद १ सिद्ध बीजा संसारी एम वेंचण करवी ते सर्व व्यवहारनयनो स्वभाव जाणवो अथवा व्यवहार के० प्रदर्शन ते व्यवहारनय तेना बे भेद छे. १ शुद्ध व्यवहार, २ अशुद्ध व्यवहार, वली शुद्ध व्यवहारना बे भेद छे. १ सर्व द्रव्यनी स्वरूपरूप शुद्धप्रवृत्ति जेम' धर्मास्तिकायनी चलणसहायता तथा अधर्मास्तिकायनी स्थिरसहायता तथा जीवनी ज्ञायकता इत्यादिकने वस्तुगत शुद्ध व्यवहार कहियें, २ द्रव्यनो उत्सर्ग निपजवा माटे रत्नत्रयी शुद्धता गुणस्थाने श्रेणीआरोहणरूप ते साधनशुद्ध व्यवहार कहियें.
वली अशुद्ध व्यवहारना बे भेद छे. १ सद्भूत, २ असभूत तेमां जे क्षेत्रे अवस्थाने अभेदें रह्या जे ज्ञानादि गुण तेने परस्पर भेदें कहेवा ते सद्भूतव्यवहार.
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
तथा जेम क्रोधी हुं मानी हुं अथवा देवता हुं मनुष्य हुँ इत्यादि देवतापणो ते हेतुपणे परिणमतां ग्रह्या जे देवगतिविपाकी कर्म तेने उदयरूप परभाव छे तेपण यथार्थ ज्ञान विना भेदज्ञानशून्य जीवने एक करी माने छे ते अशुद्ध व्यवहार कहिये तेना बे भेद छे. १ संश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते जे शरीर मारुं हुं शरीरी इत्यादिक संश्लेषित असद्भूत व्यवहार, २ असंश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते आ पुत्र मारो धनादिक मारा एम कहेवू ते असंश्लेषित असद्भूत व्यवहार तेना उपचरित अनुपचरित ए बे भेद जाणवा.
तथा विशेषावश्यक महाभाष्यमां कयुं छे जे व्यवहारनयना मूल बे मेद छे एक वेहेचणरूप व्यवहार बीजो प्रवृत्ति व्यवहार ते वली प्रवृत्तिना त्रण भेद छे, १ वस्तु प्रवृत्ति, २ साधन प्रवृत्ति, ३ लौकिक प्रवृत्ति तेमां वली साधन प्रवृत्तिना त्रण भेद छ, १ जे अरिहंतनी आज्ञायें शुद्ध साधनमार्गे इहलोक संसार पुद्गलभोग आशंसादि दोष रहित जे रनवयीनी परिणति परभावत्याग सहित ते लोकोत्तर साधन प्रवृत्ति, २ जे स्याद्वाद विना मिथ्यामिनिवेश सहित साधनप्रवृत्ति ते कुप्रावचनिक साधनप्रवृत्ति, ३ अने जे लोकना स्वस्वदेश कुलनी चाले प्रवृत्ति ते लोकव्यवहार प्रवृत्ति ए त्रण प्रवृत्ति कहिये. ए व्यवहारनयना भेद जाणवा. तिहां द्वादशसार नयचक्रमा एकेक नयना सो सो भेद कह्या छे ते जैनशासन रहस्यना जाण जीवे ते ग्रंथमाथी धारवा ए व्यवहारनय कह्यो.
उज्जं ऋजु सुयं नाणमुज्जुसुयमस्स सोऽयमुज्जुसुओ। मुत्तयइ वा जमुज्जु वत्थं तेणुज्जुमुत्तोत्ति ॥१॥ उऊंति
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
MANA
AmAANAVARANA NAwaran
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ऋजुश्रुतं मुज्ञानं बोधरूपं ततश्च ऋजु अवक्रमश्रुतमस्यसोऽयमृजुश्रुतं वा अथवा ऋजु अवकं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्र इति कथं पुनरेतदभ्युपगतस्य वस्तुनोऽवकत्वमित्याह ॥ पच्चुपन्नं संपयमुप्पन्नं जं च जस्स पत्तेयं । तं ऋजु तदेव तस्सत्थि उ वकम्मन्नति जमसंतं ॥२॥ यत्सांप्रतमुत्पन्नं वर्तमानकालीनं वस्तु, यञ्च यस्य प्रत्येकमात्मीयतदेव तदुभयस्वरूपं वस्तु प्रत्युत्पन्नमुच्यते तदेवासो नयः ऋजु प्रतिपाद्यते तदेव च वर्तमानकालीनं वस्तु तस्या सूत्रस्यास्ति अन्यत्र शेषातीतानागतं परकार्य च यद्यस्मात असदविद्यमानं ततो असत्त्वादेव तद्वक्रमिच्छत्यसाविति । अत एव उक्तं नियुक्तिकृता “पच्चुपन्नगाही उजुसुनयविही मुणेयवोति" यतः कालत्रये वर्तमानमंतरेण वस्तुत्वं उक्तं च यतः अतीतं अनागतं भविष्यति न सांप्रतं तद् वर्तते इति वर्तमानस्यैव वस्तुत्वमिति अतीतस्य कारणता अनागतस्य कार्यता जन्यजनकभावेन प्रवर्तते अतः ऋजुसूत्रं वर्तमानग्राहकं तद् वर्तमानं नामादिचतुःप्रकारं ग्राधम् ॥
अर्थ ॥ हवे ऋजुमूत्रनय कहे छे ऋजु के० सरल छे श्रुत के० बोध ते ऋजुसूत्र कहियें ऋजु शब्द अवक्र एटले समो छे श्रुत जेने ते ऋजुसूत्र कहिये अथवा ऋजु अवक्रपणे वस्तुने जाणे कहे ते ऋजुसूत्र कहिये ते वस्तुनो वक्रपणो केम जाणिये ते कहे छे सांप्रत के० वर्तमानपणे उपनो जे वर्तमानकाले वस्तु ते ऋजुसूत्र कहियें अन्य जे अतीत अनागत ते
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
~~rrrrrrrr ...com ऋजुसूत्रनी अपेक्षायें अछतो छ केमके अतीत तो विणसी गयो छे अने अनागत आव्यो नथी तेवारें अतीतअनागत ए बे अवस्तु छे अने जे वर्तमान पर्यायें वर्ते ते वस्तुपणो छे जे पूर्वकाल पश्चात्काल लेयी वस्तु कहेवी ते नैगमनय छे आरोपरूप छे तिहां कोइ पुछे जे संसारीकर्मा जीवने सिद्धसमान कहे छे ते तो अनागतकाले सिद्ध थशे तो तमे अनागतने अवस्तु केम कहोछो तेनो उत्तर जे हे भव्य ! ए अनागत भावि माटे कहेता नयी एतो वर्तमान सर्व गुणनी छति आत्मप्रदेशे छे ते आवरण दोषे प्रवर्तति नथी तेथी तिरोभावीपणा माटे संग्रहन कहिये पण वस्तुमां सर्व केवलज्ञानादि गुण छता वर्ने छे ते माटे सिद्ध कहियें छैये.
अने जे वस्तु ते नामादिक पर्याय सहित वर्ते छे माटे नामादिक निक्षेपा ते सर्व ऋजुसूत्रनयना भेद छे तथा नामादिक त्रण निक्षेपा तो द्रव्य छे अने भाव ते भाव छे ए व्याख्या करण कार्यभावनी वेचण करिये ते माटे छे पण वस्तुमां सहज चार निक्षेपा ते भाव धर्मज छे तथा ए स्वस्वकार्यना कर्ता ज छे ए ऋजुसूत्रना बे भेद दिगंबर कहे छे, १ सूक्ष्मऋजुसूत्र, २ स्थूलऋजुसूत्र जे वर्तमानकालनो एक समय तेने सूक्ष्मऋजुसूत्र कहिये अने जे बहुकालि ते स्थूलऋजुसूत्र ए पण कालापेक्षी भाव छे तथा ए भावनय छे अने योगावलंबीपणो ते बाह्य छे तेपण द्रव्य माटे एक द्रव्य मध्ये गणे छे ए ऋजुसूत्रनय कयो.
'शप आक्रोशे' शपनमाह्वानमिति शब्दः, शपतीति वा आह्वानयतीति शब्दः, शप्यते आहूयते वस्तु
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
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अनेनेति शब्दः, तस्य शब्दस्य यो वाच्योऽर्थस्तत्परिग्रहात्तत्प्रधानत्वानयशब्दः यथा कृतकत्वादित्यादिकः पंचम्यंतः शब्दोऽपि हेतुः । अर्थरूपं कृतकत्वमनित्यत्वगमकत्वान्मुख्यतया हेतुरुच्यते उपचारतस्तु तद्वाचकः कृतकत्वशब्दो हेतुरभिधीयते एवमिहापि शब्दवाच्यार्थपरिग्रहादुपचारेण नयोऽपि शब्दो व्यपदिश्यते इति भावः । यथा ऋजुसूत्रनयस्याभीष्टं प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं तथैव इच्छत्यसौ शब्दनयः । यद्यस्मात्पृथुबुध्नोदरकलितमृन्मयं जलाहरणादिक्रियाक्षम प्रसिद्धघटरूपं भावघटमेवेच्छत्यसौ न तु शेषान नामस्थापनाद्रव्यरूपान् त्रीन् घटानिति । शब्दार्थप्रधानो ह्येष नयः, चेष्टालक्षणश्च घटशब्दार्थो ‘घट चेष्टायां' घटते इति घटः अतो जलाहरणादिचेष्टा कुर्वन् घटः। अतश्चतुरोऽपि नामादिघटानिच्छतः ऋजुमूत्राद्विशेषिततरं वस्तु इच्छति असौ । शब्दार्थोपपत्ते. र्भावघटस्यैवानेनाभ्युपगमादिति अथवा ऋजुसूत्रात शब्दनयः विशेषिततरः ऋजुसूत्रे सामान्येन घटोऽभि प्रेतः, शब्देन तु सद्भावादिभिरनेकधमैरभिप्रेत इति ते च सप्तभङ्गाः पूर्व उक्ता इति ॥
___अर्थ ॥ हवे शब्दनयतुं स्वरूप कहिये छैये शपति के० बोलावे तेने शब्द कहिये अथवा शपियें बोलावियें वस्तुपणे ते शब्द कहिये ते शब्दं जे वाच्य अर्थ तेने ग्रहे एहवो छ प्रधानपणो जे नयमां तेपण शब्दनय कहिये जेम कृतक ते जे कों तेनो हेतु जे धर्म ते जे वस्तुमां होय ते बोलाय एटले
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शब्दनुं कारण तो वस्तुनो धर्म थयो जेम जलाहरण धर्म जेमां छे तेने घट कहि ये छैयें एम इहां पण शब्द वाच्यअर्थ ग्रहे ते माटे ते नयनो नाम पण शब्द कहेवाय जेम ऋजुसूत्रनयने वर्तमानकालना धर्म इष्ट छे तेम शब्दादिकनयने पण वर्तमानताना धर्मज इष्ट छे.
केमके पेटे पृथु के० पहोलो बुन के० घोल संकोचित उदरकलितयुक्त जलाहरणक्रियाने समर्थ प्रसिफ घटरूप भावघट तेनेज घट इच्छे छे पण शेष नाम स्थापना अने द्रव्यरूप त्रण घटने ए शब्दनय घट मानें नहीं घट शब्दना अर्थने ते संकेतनेज घट कहे. घट धातु ते चेष्टावाची छे अतः कारणात् के० ए कारणपणा माटे ए शब्दनय ते चेष्टाकर्त्तानेज घट कहे एटले ऋजुसूत्रनय चार निक्षेपा संयुक्तने घट माने अने शब्दनय ते भावघटने ज घट माने एटलो विशेषपणो छे. शब्दना अर्थनी जिहां उपपत्ति होय तेनेज ते वस्तुपणे कहे एटले ऋजुसूत्रनये सामान्य घट गवेष्यो अने शब्दनये सद्भाव जे अस्तिधर्म तथा असद्भाव जे नास्तिधर्म ते सर्व संयुक्त वस्तुने वस्तुपणें कहे.
एटले वस्तुने शब्द बोलावतां सातभांगे बोलाववो माटे ए सप्तभंगी जेटलाज शब्दनयना भेद जाणवा ते सप्तभंगीनो स्वरूप पूर्व कर्तुं छे. ए शब्दादिकनय वस्तुना पर्यायने अवलंबीने वस्तुना भावधर्मना ग्राहक छे, ते माटे वस्तुना भाव निक्षेपा एं नयें मुख्य छे धुरना चार नयमां नामादिक त्रण निक्षेपा मुख्य छे ए शब्दनयतुं स्वरूप कडुं.
गाथा॥ जं जं सणं भासइ ॥ तं तं चिय समभिरोहइ जम्हा ॥ सणंतरत्थविमुहो, तओ नओ समभिरूढोत्ति ॥ १ ॥ यां यां संज्ञां घटादिलक्षणां भाषते वदति तां
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तामेव यस्मात्संज्ञान्तरार्थविमुखः समभिरूढो नयः नानार्थनामा एव भाषते यदि एकपर्यायमपेक्ष्य सर्वपर्यायवाचकत्वं तथा एकपर्यायाणां सङ्करः पर्यायसङ्करे च वस्तुसङ्करो भवत्येवेति मा भूत्संकरदोषः, अतः पर्यायान्तरानपेक्ष एव समभिरूढनय इति ||
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अर्थ || हवे सममिरूढनयनी व्याख्या कहियें छैयें. जे शब्दनय ते इंद्र, शक्र, पुरंदर इत्यादिक सर्व इंद्रना नामभेद छे, पण एक इंद्र पर्यायवंत इंद्र देखी तेना सर्व नाम कहे, “उक्तं च विशेषावश्यके एकस्मिन्नपि इंद्रादिके वस्तुनि यावत् इन्द्रन शक्रन - पुरदारणादयोऽर्था घटन्ते तद्वशेन्द्रशक्रादिबहुपर्यांयमपि तद्वस्तु शब्दनयो मन्यते समभिरूढस्तु नैवं मंस्यते इत्यनयोर्भेदः
जे एक पर्याय प्रगटपणे अने शेषपर्यायने अणप्रगटवे शब्दनय तेटला सर्वनाम बोलावे पण समभिरूढनय ते न बोलावे एटलो शब्दनय तथा समभिरूढनयमां भेद छे माटे हवे समभिरूढनय कहे छे.
घटकुंभादिकमां जे संज्ञानो वाच्य अर्थ देखाय तेज संज्ञा कहे जेमां संज्ञांतर अर्थने विमुख छे तेने समभिरूढनय कहियें. जो एक संज्ञामध्ये सर्व नामांतर मानियें तो सर्वनो संकर थाय तेवारें पर्यायनो भेदपणो रहे नही अने जे पर्यायांतर होय वेतो भेदपणेज होय तेथी पर्यायांतरनो भेदपणोज रह्यो ते माटे लिंगादिभेदने सापेक्षपणे वस्तुनो भेदपणोज मानवो. ए समभिरूढनय वखाण्यो. ए नयमां पण भेदज्ञाननी मुख्यता छे.
एवं जह सद्दत्थो. संतो भूओ तदन्नहाभूओ || तेणेवं भूयनओ, सद्दत्थपरो विसेसेणं ॥ १ ॥ एवं यथा घट
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चेष्टायामित्यादिरूपेण शब्दार्थों व्यवस्थितः तहत्ति तथैव यो वर्तते घटादिकोऽर्थः स एवं सन् भूतो विद्यमानः 'तदन्नहाभूओत्ति' वस्तु तदन्यथा शब्दार्थोल्लंघनेन वर्त्तते स तत्त्वतो घटाद्यर्थोपि न भवति किंभूतो विद्यमानः येनैवं मन्यते तेन कारणेन शब्दनयसमभिरूढनयाभ्यां सकाशादेवंभूतनयो विशेषेण शब्दार्थनयतत्परः । अयं हि योषिन्मस्तकारूढं जलाहरणादिक्रियानिमित्तं घटमानमेव चेष्टमानमेव घटं मन्यते न तु गृहकोणादिव्यवस्थितं । विशेषतः शब्दार्थतत्परोयमिति । वंजणमत्थेणत्यं च वंजणेणोभयं विसेसेइ । जह घडसई चेहावया तहा तंपि तेणेव ॥ १॥ व्यंज्यते अर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं वाचकशब्दो घटादिस्तं चेष्टावता एतद्वाच्योंथन विशिनष्टि स एव घटशब्दो यच्चेष्टावन्तमर्थं प्रतिपादयति, नान्यम् इत्येवं शब्दमर्थेन नैयत्ये व्यवस्थापयतीत्यर्थः। तथार्थमप्युक्तलक्षणमभिहितरूपेण व्यअनेन विशेषयति चेष्टापि सैव या घटशब्देन वाच्यत्वेन प्रसिद्धा योषिन्मस्तकारूढस्य जलाहरणादिक्रियारूपा, न तु स्थानतरणक्रियात्मिका, इत्येवमर्थ शब्देन नैयत्ये स्थापयतीत्यर्थः इत्येवमुभयं विशेषयति शब्दार्थो नार्थः शब्देन नैयत्ये स्थापयतीत्यर्थः । एतदेवाह यदा योषिन्मस्तकारूढश्चेष्टावानर्थो घटशब्देनोच्यते स घटलक्षणोऽर्थः स च तद्वाचको घटशब्दः अन्यदा तु वस्त्वं तरस्येव तच्चेष्टाभावादघटत्वं, घटध्वनेश्चावाचकत्वमित्येवमुभयविशेषक एवंभूतनय इति ॥
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.. अर्थ ।। हवे एवंभूतनयनो स्वरूप कहिये छैयें एवं के० जेम घटचेष्टावाची इत्यादिक रूपे शब्दनयनो अर्थ कह्यो छे ए रीते जे घटादिक अर्थ वर्ते ते एवं के० एमज जे विद्यमानपणे शब्दना अर्थने ओलंघीने वर्ते ते ते शब्दनो वाच्य नथी अने शब्दार्थपणो जेमां न पामिये ते वस्तु ते रूपे नही माटे जो शब्दार्थमांथी एक पर्याय पण ओछो होय तो एवंभूतनय तेने ते पणो कहे नही ते माटे शब्दनयथी तथा समभिरूढनयथी एवंभूतनय ते विशेषांतर छे.
ए एवंभूतनय ते स्त्रीने मस्तके चढ्यो, पाणी आणवानी क्रियानो निमित्त मार्गे आवतापणानी चेष्टा करतो होय तेने घट माने पण घरने खूणे रह्यो जे घट तेने घट करी माने नही. केमके ते चेष्टाने अणकरतो छे ते माटे. जे थकी अर्थने व्यंजीये के० प्रगट करीयें तेने व्यंजन कहिये व्यंजन ते वाचक शब्द छे ते अर्थने कहे ते क्रियावंत थको तेनेज ते वस्तु कहे बीजाने न कहे अने तेहिज अर्थे का. जे लक्षण ते कह्याने रूपें विशेष थाय जेम चेष्टा घट शब्द वाचे प्रसिद्ध छे योषित् के० स्त्रीने माथे पाणी लावतो ते घट तथा स्थानके रह्यो अथवा तरण क्रिया करताने एवंमूतनय घट कहे नही. ए शब्दें अर्थ तथा अर्थे शब्दने थापे छे एर्नु ए रहस्य छे जे स्त्रीने मस्तकें चढ्यो चेष्टावंत अर्थ ते घट शब्द बोलावे तेथी अन्यथा तेने तेपणे बोलावे नही जेम सामान्य केली जे ज्ञानादिक गुणे समान छे तेने सममिरूढनय अरिहंत कहे पण एवंभूतनय तो समवसरणादि अतिशय संपना सहित तथा केवली ते इंद्रादिकें पूजतां युक्त होय तेनेज अरिहंत
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. १.६५ कहे ते विना न कहे. वाच्य वाचकनी पूर्णताने कहे ए स्वरूपें एवंमूतनय जाणवो.
ए साते नयना भेद ते विशेषावश्यकने अनुसारे कह्या. तेमां नैगमना दस भेद, संग्रहना छ भेद अथवा बार कह्या. व्यवहारना भेद आठ अथवा चउद कह्या. ऋजूसूत्रना चार अथवा छ कह्या शब्दना सात भेद कह्या. समभिरूढना बे भेद अने एवंभूतनो एक भेद करो. ए रीते सर्वना भेद कया. वली नयचक्रमां नयना भेद सातसो कह्या छे ते पण जाणवा.
एवमेव स्याद्वादरत्नाकरात् पुनर्लक्षणत उच्यते नीयते येन श्रुताख्यप्रामाण्यविषयीकृतस्यार्थस्य शस्तादितरांशौदासीन्यतः सम्प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः। स्वाभिप्रेतादेशादपरांशापलापी पुनर्नयाभासः। स समासतः द्विभेदः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक आद्यो नैगमसंग्रह व्यवहार ऋजूसूत्रभेदाच्चतुर्दा केचित्ऋजुसूत्रं पर्यायार्थिकं वदन्ति ते चेतनांशत्वेन विकल्पस्य ऋजुसूत्रे ग्रहणात् श्रीवीरशासने मुख्यतः परिणतिचक्रस्यैव भावधर्मत्वेनांगीकारात् तेषां ऋजुसूत्रः द्रव्यनये एव धर्मयोधर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जन आरोपसङ्कल्पां. शादिभावेनानेक्रममग्रहणात्मको नैगमः सत्चैतन्यमास्मनीतिधर्मयोः गुणपर्यायवत् द्रव्यमिति धर्मधर्मिणोः क्षणमेको सुखी विषयासक्तो जीव इति धर्मधर्मिणोः सूक्ष्मनिगोदीजीवसिद्धसमानसत्ताकः अयोगीनो संसारीति अंशग्राही नैगमः धर्माधर्मादीनामेकान्तिकपार्थ क्याभिसन्धिनैगमाभ्यासः
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अर्थ ॥ हवे स्याद्वाद रत्नाकरथी नयस्वरूप लखिये छैयें नीयते के पमाडीये जे थकी श्रुतज्ञान स्वरूप प्रमाणे विषये कीधो जे पदार्थनो अंश ते अंशथी इतर के० बीजो जे अंश ते थकी उदासीपणो तेने पडि वर्जवा वालानो जे अभिप्राय विशेष तेने नय कहिये एटले वस्तुना अंशने ग्रहे अने अन्यथी उदासीनपणो ते नय कहिये. एक अंशने मुख्य करीने बीजा अंशने उत्थापे ते नयाभास कहिये. ते नयना बे भेद छे एक द्रव्यार्थिक बीजो पर्यायार्थिक तेमां द्रव्यार्थिकना १ नैगम २ संग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र ए चार भेद छे. केटलाक आचार्य ते ऋजुसूत्रने विकल्परूप माटे भावनय गवेषे छे ते रीते द्रव्यार्थिकना त्रण मेद छे.
हवे नैगमनयनुं स्वरूप कहे छे. जे धर्मने प्रधानपणे अथवा गौणपणे अथवा धर्मीने प्रधानपणे अथवा गौणपणे तथा धर्म धर्मी ए बेउने प्रधानपणे तथा गौणपणे जे गवेषवो एटले धर्मोनी प्राधान्यता ते वारे पर्यायोनी प्रधानता थयी अने जिहां धर्मीनो प्रधानपणो तिहां द्रव्यनो प्रधानपणो तेमज गौणपणो तथा धर्म धर्मीनो प्रधान गौणपणो ए रीते जे द्रव्य पर्यायनो गौण प्रधानपणानी गवेषणा रूप ज्ञानोपयोग ते नैगमनय जाणवो तेना बोधने नैगम बोध कहिये तेना उदाहरण कहे छे.
सत् के० छतापणे चैतन्य के० जाणपणो ए बे धर्म मध्ये एक धर्म पक्ष मुख्यपणे गणे अने बीजाने गौणपणे न गवेषे. ए रीतें नैगमनय जाणवो. इहां चैतन्य नामे जे व्यंजन पर्याय तेने प्रधानपणे गणे केमके चैतन्यपणो ते विशेष गुण छे अने सत्वनामा व्यंजन पर्याय छे ते सकल द्रव्य साधारण छे ते माटे तेने गौणपणे लेखवे ए नैगमनो प्रथम भेद कयो.
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तथा वली “ वस्तु पर्यायवद् द्रव्यं " एम बोलवू ते धर्मीनो नैगम छे इहां “ पर्यायवत् द्रव्यं " एम वस्तु छे इहां द्रव्यनो मुख्यपणो वली वस्तुने पर्यायवंत कहे, ते वस्तुनो गौणपणो अने पर्यायनो मुख्यपणो इहां उभयगोचरपणा माटे ए नैगमनो बीजो भेद कह्यो.
“क्षणमेकः सुखी विषयासक्तो जीव इति धर्मधर्मिणोरिति " इहां विषयासक्त जीवाख्य जे धर्मिना मुख्यताना विशेषपणाथी सुखलक्षण धर्मनी प्रधानता ते विशेषणपणे करीने धर्मधर्मिने आलंबने ए बीजो नैगम जेवारे धर्म तथा धर्मि ए बेने अवलंबे, ग्रहण, करे तेवारे संपूर्ण वस्तुनो ग्रहण थयो तेवारे ए ज्ञानने प्रमाण कह्यो तिहां उत्तर द्रव्य पर्याय ते बेहुने प्रधानपणे अनुभवतो जे ज्ञान प्रमाण थाय इहां बे पक्षने विषे एकनी गौणता बीजानी मुख्यता लइने ज्ञान थाय छे ते माटे नय कहियें तथा वली सूक्ष्मनिगोदि जीव ते समान सत्तावंत छे अथवा अयोगी केवली जिन तेने संसारी कहे, ते अंशनैगम..
हवे नैगमाभास कहे छे. वस्तुमां धर्म अनेक छे ते एकांते माने पण एकबीजाने सापेक्षपणे न माने एटले एक धर्मने माने अने बीजा धर्मने न माने ते नैगमाभास कहियें ए दुर्नय जाणवो. केमके अन्य नयने गवेषे नही माटे जेम आत्माने विषे सत्व तथा चैतन्य ए धर्म भिन्न भिन्न छे तेमां चैतन्यपणो न माने ते नैगमाभास कहिये एटले नैगमनय कह्यो.
यथाऽऽत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परं भिन्ने सामान्यमात्रग्राही सत्तापरामर्शरूपसङ्ग्रहः स परापरभेदाद् द्विविधः तत्र
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शुद्धद्रव्य सन्मात्र ग्राहकः परसङ्ग्रहः चेतनालक्षणो जीव इत्यपरसङ्ग्रहः सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेपान् निराचक्षाणः सङ्ग्रहाभासः सङ्ग्रहस्यैकत्वेन 'एगे आया' इत्यभिज्ञानात् सत्ताद्वैत एव आत्मा ततः सर्वविशेषाणां तदितराणां जीवः जीवादिद्रव्याणामदर्शनातू द्रव्यत्वादिनावान्तरसामान्यानि मन्वानस्तदभेदेषु गनिमीलिकामवलम्बमानः परापरसङ्ग्रहः धर्माधर्माकाश पुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वादिभेदादित्यादिद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान् निन्हुवानस्तदाभासः यथा द्रव्यमेव तत्त्वं तत्त्वपर्यायाणामग्रहणाद्विपर्यास इति सङ्ग्रहः
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अर्थ || हवे संग्रहनय कहे छे. सामान्य मात्र समस्तविशेष रहित सत्यद्रव्यादिकने ग्रहेवानो छे. स्वभाव जेनो ते सं के० पिंडपणे विशेषराशीने ग्रहे पण व्यक्तपणे न ग्रहे स्वजातिना दीठा जे इष्ट अर्थ तेने अविरोधें करीने विशेष धर्मोने एकरूपपणे जे ग्रहण करवो ते संग्रहनय कहियें ए भावना छे तेना बे भेद छें १ परसंग्रह, २ अपरसंग्रह तेमां " अशेषविशेषोदासीनं भजमानं शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसङ्ग्रह इति" जे समस्त विशेष धर्म स्थापनानी भजना करतो एटले विशेषपणाने अणग्रहतो थको शुद्धद्रव्य सत्तामात्रप्रतें माने जेम द्रव्य ए परसंग्रह विश्व एक सतूपणा माटे एम कद्याथी छतापणाना एकपणानुं ज्ञान थाय छे एटले सर्व पदार्थनो एकपणे ग्रहण छे ते परसंग्रह कहियें.
तथा जे सत्तानो अद्वैत स्वीकारे अने द्रव्यांतरभेद न माने
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समस्त विशेषपणाने ना कहेतो थको जे ग्रहण करे ते अद्वैतवादि वेदांत तथा सांख्यदर्शन ए परसंग्रहाभास छे केमके जे भेद धर्म छता देखाय छे तथा द्रव्यांतरपणो तेने न माने माटे परसंग्रहाभास कहिये अने जैन तो विशेष सहित सामान्यने ग्रहे छे माटे संग्रहनय कहिये. ___ " द्रव्यत्वादिनयांतरसामान्यानि मत्त्वा तद्भेदेषु गजनिमीलिकामवलंबमानः अपरसंग्रहः” द्रव्य जे जीव अजीवादिक जे अवांतर सामान्यने मानतो अने जीवने विषे प्रति जीवनो विशेष भेद भव्य अभव्य सम्यक्त्वी मिथ्यात्वी नरनारकादि जे भेद तेने गजनिमीलिका के० मास्ताइये न गवेषवो ते अपरसंग्रह कहिये अने द्रव्यने सामान्यपणे माने पण स्वद्रव्यनी परिणामिकतादिक धर्मने न माने ते अपरसंग्रहाभास कहिये ए संग्रहनयनुं स्वरूप कडं.
सङ्ग्रहेण च गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः, यथा यत् सत् तत् द्रव्यं पर्यायश्चेत्यादिः यः पुनरपरमार्थिकं द्रव्यपर्यायाविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः चार्वाकद
निमिति व्यवहारदुर्नयः। . अर्थ ॥ हवे. व्यवहारनय कहे छे संग्रहन ग्रह्या जेवस्तुना सत्त्वादिक धर्म तेनेज गुणभेदें वेहेंचे मिन्नमिन्न गवेषे तथा पदार्थनी गुणप्रवृत्ति तेनेज मुख्यपणे गवेषे ते व्यवहारनय कहिये जेम द्रव्य छे तेना जीव पुद्गलादिक पर्यायना क्रमभावी तथा सहभावी ए रीतें बे भेद छे तेमां वली जीव बे प्रकारे १ सिदना, २ संसारी तेमज. पुद्गलना बे भेद पर
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माणु तथा खंध इत्यादिक कार्यभेदें भिन्न माने तथा क्रमभावी पर्यायना बे मेद एक क्रियारूप बीजो अक्रियारूप इम वेहेंचण जे सामर्थ्यादिक गुणभेदें पडे ते सर्व व्यवहारनय जाणवो अने जे परमार्थ विना द्रव्यपर्यायनो विभाग करे ते व्यववहाराभास जाणवो.
जे कल्पना करी भेदं वेचे ते चार्वाकमत प्रमुख ए व्यवहारनयनो दुर्नय छे जेम चार्वाक प्रमाणपणे छतो जीवपणो लोकप्रत्यक्षमा दृष्टिगोचर नथी आवतो ते माटे जीव नथी एम कहे अने जगतमा पंचभूतादिक वस्तु नथी एम कल्पना करी स्थूललोकने कुमार्गे प्रवर्तीवे ते व्यवहारदुर्नय कहियें ए व्यवहारनयनुं स्वरूप कह्यु.
ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्राधान्यतः सूत्रयति अभिप्रायः ऋजुसूत्रः । ज्ञानोपयुक्तः ज्ञानी, दर्शनोपयुक्तः दर्शनी,कषायोपयुक्तः कषायी, समतोपयुक्त सामायिकी। वर्तमानापलापी तदाभासः यथा तथागतमत इति ।।
अर्थ ॥ हवे ऋजुसूत्रनय कहे छे ऋजु के० सरलपणे अतीत अनागतने अणगवेषतो अने वर्तमानसमय वर्त्तता जे पदार्थना पर्यायमात्र तेने प्रधानपणे सूत्र के० गवेषे ते ऋजुसूत्रकहिये। ते ज्ञानने उपयोगें वर्तताने ज्ञानी कहे, दर्शनोपयोगें वर्तताने दर्शनी कहे, कषायपणे वर्तता जीवने कषायी कहें, समताने उपयोगें वर्तता जीवने सामायिकवंत कहे. इहां, कोइ पुछे जे उपर कह्या मुजब तो ऋजुसूत्र तथा शब्दनय ए बे एकज थाय छे तेने उत्तर कहे छे जे विशेषावश्यकमां कयुं छे. " कारणं यावत् ऋजुसूत्रः " एटले ज्ञानने कारणपणे वर्ततो ते
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ऋजुसूत्र ग्रहे छे अने जे जाणपणारूप कार्यपणे थाय ते शब्दनय कहियें ए फेर छे.
वर्तमानकालने पण ग्रहण करे ते ऋजुसूत्राभास कहिये, जे छता भावने अछता कहे अथवा विपरीत कहे जेम जीवने अजीव कहे, अजीवने जीव कहे इत्यादिक ते तथा गत के. बौद्धनो मत छे जे छतो सदा सर्वदा वर्ततो जीवादि द्रव्य तेना पर्यायने पलटवे सर्वथा द्रव्यने विनाशि माने तेने ऋजुसूत्रनयाभासाभिप्राय जाणवो ए ऋजुसूत्रनय कह्यो.
एकपर्यायपाग्भावेन तिरोभाविपर्यायग्राहकः शब्दनयः, कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपाद्यमानः शब्दः,जलाहरणादिक्रियासमर्थ एव घटः, न मृत्पिडादौ तत्त्वार्थवृत्तौ शब्दवशादर्थप्रतिपत्तिः तत्कार्यधर्मे वर्तमानवस्तु तथा मन्वानः शब्दनयः । शब्दानुरूपं अर्थपरिणतं द्रव्यमिच्छति त्रिकालत्रिलिंगत्रिवचनप्रत्ययप्रकृतिभिः समन्वितमर्थमिच्छति तद्भेदे तस्य तमेव समर्थमाणस्तदाभासः।
अर्थ ॥ हवे शब्दनय कहे छे जे वस्तुना एक पर्यायने प्रगट देखवे बीजा शब्द वाचकपर्यायने तिरोभावें अणप्रकटवें पण ते पर्यायने ग्रहे अथवा काल त्रण वचन त्रण लिंग त्रण तेने भेदें शब्दनो भेद पडे ते भेदेंज अर्थने कहे अथवा जलाहरणादि समर्थने घट कहे तथा कुंभादिक चिन्ह पर्याय जेटला छे तेटलानो अर्थ वर्ततो न देखाय तो पण तेने नाम कही बोलावे एम जेमां कार्यनो सामर्थ्यवंतपणो छे तेने ग्रहे पण माटीना पिंडने घट कहे नही ते शब्दनय कहिये अने
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१७२ देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. जे संग्रह तथा नैगमनयवालो कहे ते सत्ता योग्यता अंशना ग्राहक छे तथा तत्त्वार्थटीका मध्ये शब्दवशथी अर्थ पडिवजवो ते शब्द बोलावतो होय जे अर्थ ते वस्तुमां धर्मपणे प्रगट देखाय तेनेज ते वस्तु माने ए नयने शब्दानुयायी अर्थे परिणमति जे वस्तु कहे छे काललिंगादिभेदें अर्थनो भेद छे ते भेद तेम ते धर्मे वस्तु माने ते शब्दनय कहिये अने ते अर्थ विना ते वस्तुमध्ये तेपणो वर्ततो देखातो नथी तेने ते वस्तुपणे समर्थ न करे ते शब्दाभास कहिजे एटले शब्दनय कह्यो.
एकार्थावलंबिपर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहन समभिरूढः। यथा इंदनादिंद्रः, शकनाच्छकः, पुरदारणात् पुरंदरः इत्यादिषु । पर्यायध्वनिनामाभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः; यथा इंद्रः शक्रः पुरंदर इत्यादि भिन्नाभिधेये.
अर्थ ॥ हवे सममिरूढनय कहे छे जे एक पदार्थने अविलंबी जेटला सरिखा नाम . तेटला पर्याय नाम थया ते पर्याय नाम जेटला होय तेटला निरुक्ति व्युत्पत्ति भिन्न होय ते अर्थनो पण भेद होय ते अर्थने सं० के० सम्यक् प्रकारे आरोहतो एटले एटला सर्व अर्थ संयुक्त जे होय ते समभिरूढनय कहिये जेम इदि धातु परमैश्वर्यने अर्ये छे ते परम ऐश्वर्यवंतने इंद्र कहिये, तथा शकन कहेता नवि नवि शक्तियुकने शक कहिये, पुर के० दैयने दरे के० विदारे ते पुरंदर, बने शचि जे इंद्राणी तेनो पति स्वामी ते शचिपति कहिये. एटला सर्व धर्म ते इंद्रमा छे ते माटे जे देवलोकनो धणी
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
..... mww छे तेने इंद्र एवे नामें बोलावे छे बीजा नामादिक इंद्रने ए नामे न बोलावे जेटला पर्याय नाम छे तेना जे अर्थ थाय ते सर्वने भिन्न भिन्न अर्थ कहे छे पण एकार्थ न जाणे ते समभिरूढाभास कहिये एटलें सममिरूढनय कह्यो.
एवं भिन्नशब्दवाच्यत्वाच्छब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविशिष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवभूतः। यथा इंदनमनुभवनिंद्रः, शकनाच्छक्रः, शब्दवाच्यतया प्रत्यक्षस्तदाभासः। तथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यवस्तुनः घटशब्दवाच्यं घटशब्दद्रव्यदृत्तिभूतार्थशून्यत्वात् पटवदित्यादि.
अर्थ ॥ हवे एवंमूतनय कहे छे शब्दनी प्रवृत्तिनो निमित्तभूत जे क्रिया ते विशिष्ट संयुक्त जे अर्थ तेने वाच्य जे धर्म तेने जे पहोंचतो होय एटले ते कारण कार्य धर्म सहित तेने एवंमूतनय कहियें तथा ऐश्वर्य सहित ते इंद्र, शकरूप सिंहासने बेशे ते शक्र, शचि के० इंद्राणीने साथे बेठो ते वारें शचीपति कहे, एटले जे शब्दना जेटला पर्याय ते सर्व तेमां पहोंचता भावने ते नाम कहि बोलावे अने जे पर्याय पहोंचतो देखे नही ते पर्यायनी ना कहे, जिहां सुधी एक पर्याय ऊणो छे तिहां सुधी सममिरूढनय कहिये, अने सर्व वचन पर्यायने पहोंचे ते वारें एवंभूतनय कहिये. जे पदार्थनो नामभेदनो भेद देखीने पदार्थनी भिन्नता कहे ते एवंभूतनयाभास कहिजे, नामभेदं ते वस्तुज भिन्न जेम हाथी, घोडा, हिरण्य भिन्न छे तेम भिन्नपणो माने जेम अर्थ भिन्नपणा माटे घटथी पट मिन्न छ तेम इंद्रपणाथी पुरंदरपणो भिन्न माने ते एवंभू
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तनयनो दुर्नय जाणवो; एटले एवंभूतनय कह्यो, ए रीते सात
नयनी व्याख्या कही.
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अत्र आद्यनयचतुष्टयमविशुद्धं पदार्थप्ररूपणाप्रवणत्वात, अर्थनया नामद्रव्यत्वसामान्यरूपा नयाः । शब्दादयो विशुद्ध नयाः शब्दावलंबार्थमुख्यत्वादाद्यास्ते तच्चभेदद्वारेण वचनमिच्छंति शब्दनयास्तावत् समानलिंगानासमानवचनानां शब्दानां इंद्रशक्रपुरंदरादीनां वाच्यं भावार्थमेवाभिन्नमभ्युपैति न जातुचित् भिन्नवचनं वा शब्दं स्त्री दाराः तथा आपो जलमिति समभिरूढवस्तुप्रत्यर्थं शब्दनिवेशादिंद्रशक्रादीनां पर्यायशब्दत्वं न प्रतिजानीते अत्यंत भिन्नप्रवृतिनिमित्तत्वादभिन्नार्थत्वमेवानुमन्यते घटशक्रादिशब्दानामिवेति एवंभूतः पुनर्यथा सद्भाववस्तुवचनगोचरं आपृच्छतीति चेष्टाविशिष्ट एवार्थो घटशब्दवाच्यः चित्रालेख्यतोपयोगपरिणतश्च चित्रकारः । चेष्टारहितस्तिष्ठन् घटो न वटः, तच्छब्दार्थरहितत्वात् कूटशब्दवाच्यार्थ नापि भुंजानः शयानो वा चित्रकाराभिधानाभिधेयश्चित्रज्ञानोपयोगपरिणतिशून्यत्वाद्गोपालवदेवमभेदभेदार्थवाचिनो नैकैकशब्द
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वाच्यार्थावलंबनच शब्दप्रधानाथोंपसर्जनाच्छन्दनया इति तत्वार्थवृत्तौ । एतेषु नैगमः सामान्यविशेषोभयग्राहकः, व्यवहारः विशेषग्राहकः द्रव्यार्थावलंबिऋजुमुत्र विशेषग्राहक एव एते चत्वारो द्रव्यनयाः शब्दादयः पर्यायार्थिक विशेषावलंवि भावनया शब्दादयो नामस्थापनाद्रव्यनिक्षेपापवस्तुतया जानन्ति परस्पर
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
सापेक्षाः सम्यक दर्शनप्रतिनयं भेदानां शतं तेन सप्तशतं नयानामिति अनुयोगद्वारोक्तत्वात् ज्ञेयं.
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अर्थ | ए सात नयमां आद्यना चार नय जे छे वे अविशुद्ध छे शा माटे के जे पदार्थ के० द्रव्य तेने सामान्यपणे कहेवाना अधिकारी छे ए नयनुं किहां एक अर्थनय ए पण नाम छे ते अर्थ शब्दे द्रव्य लेबुं तथा शब्दादिक ऋण नय ते शुद्ध नय छे केमके शब्दना अर्थनी एने मुख्यता छे पेहेला नय ते भेदपणे वचनने वांछे छे अने शब्दादिक नय वे लिंगादिके अभेद वचने अभेद कहे तथा मिन्न वचने भिन्नार्थ कही माने अने समभिरूढ ते भिन्न शब्द तेने वस्तु पर्याय न माने तथा एवंभूत ते भिन्नगोचर पर्यायने मिन्न माने जे चेष्टा करतो होय तेने घट कहे पण खूंणे पड्यो घट कहे नही चित्राम करतो होय तथा तेज उपयोगें वर्ततो होय तेने चित्रकार कहे पण तेज चित्रकार सुतो होय अथवा खावा बेठो होय तेने चित्रकार न कहे केमके ते उपयोग रहित छे माटे ए नय ते शब्द तथा अर्थने ए भेदपणो माने छे अने अर्थथी शून्य शब्द ते प्रमाण नयी अने शब्द प्रधान अर्थ ते द्रव्यने गौणपणे वर्तता शब्दादिक ऋण नय छे एम तत्वार्थ टीका मध्ये को छे.
१०३
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ए सात नयने विषे पेहेलो नैगमनय ते सामान्य विशेष बेहने माने छे संग्रहनय ते सामान्यने माने छे व्यवहारनय विशेषने माने छे अने द्रव्यार्थावलंबी छे तथा ऋजुसूत्र तो विशेष ग्राहक छे ए चार ते द्रव्यनय छे अने पाछला: शब्दादिक ऋण नय ते पर्यायार्थिक विशेषावलंबी भावनय छे तथा
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
शब्दादिक नय ते नाम स्थापना द्रव्य ए पेहेला त्रण निक्षेपाने अवस्तु माने छे " तिण्हं सहनयाणं अवत्थु " ए अनुयोगद्वार सूत्रं वचन छे ए साते नय परस्पर सापेक्षपणे ग्रहे ते समकेति जाणवा अने जो ए नय परस्पर विरोधी होय तो मिथ्यात्वी जाणवा तथा एकेका नयना सो सो मेद थाय छे एम साते नयना मठी सातसो भेद थाय छे ए अधिकार श्री अनुयोगद्वार सूत्रथी को छे.
पूर्वपूर्वनयः प्रचुरगोचरः । परास्तु परिमित विषयाः। सन्मागोचरात् संग्रहात् नैगमो भावाभावभूमित्वाद् भूरिविषयः, वर्त्तमानाविषयाद् ऋजुसूत्राद्व्यवहारस्त्रिकालविषयत्वात् बहुविषयकालादिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शनात् भिन्नऋजुसूत्रविपरीतत्वान्महार्थः । प्रतिपर्यायमशब्दमर्थभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छन्दः प्रभूतविषयः । प्रतिक्रियां भिन्नमर्थ प्रतिजानानात् एवंभूतात् समभिरूढः महान् गोचरः । नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभंगीमनुव्रजति । अंशग्राही नैगमः, सत्ताग्राही संग्रहः, गुणप्रवृत्तिलोकमवृत्तिग्राही व्यवहारः, कारणपरिणामग्राही ऋजुसूत्रः, व्यक्तकार्यग्राही शब्दः, पर्यायांतरभिन्नकार्यग्राही समभिरूढः तत्परिणमनसुख्यकार्यग्राही एवंभूत इत्याद्यनेकरूपो नयप्रचारः । " जावंतिया वयणपहा । तावंतिया चेव हुंति नयवाया " ।। इति वचनात् उक्तो नयाधिकारः ।
अर्थ | ए प्रकारे पूर्व के० पूर्वलो जे नैगम नय तेनो विस्तार घणो जाणवो अने तेथी ऊपलो नय तेनो परिमित
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. १७७ ~~~~~~~~~~~~ विषय छे एटले थोडो विषय छे केमके सत्तामात्रनो ग्राहक संग्रहनय छे. छति सत्ताने संग्रहनय ग्रहे अने नैगम ते छता भाव अथवा संकल्पपणे अछता भाव सर्वने ग्रहे अथवा सामान्य विशेष बे धर्मने ग्रहे ते माटे नैगमनो विषय घणो छे. तथा संग्रहनय ते सत्तागत सामन्य विशेष बेहुने ग्रहे छे, अने व्यवहार ते सत् एक विशेषनेज ग्रहे छे; माटे संग्रहनयथी व्यवहारनयनो विषय थोडो छे अने व्यवहारनयथी संग्रहनय ते बहुविषयी छे. तथा ऋजुसूत्रनय ते वर्तमान विशेष धर्मनो ग्राहक छे, अने व्यवहारथी ऋजुसूत्रनय ते कालविषयनो ग्राहक छे; ते माटे व्यवहार बहुविषयी छे अने व्यवहारथी ऋजुसूत्र अल्पविषयी छे. ऋजुसूत्रनय ते वर्तमानकाल ग्रहे, अने शब्दनय कालादि वचन लिंगथी वेहेंचता अर्थने ग्रहे, अने ऋजुसूत्रनय ते वचन लिंगने मिन्न पाडतो नथी; ते माटे ऋजुसूत्रथी शब्दनय अल्पविषयी छे, ऋजुसूत्र बहुविषयी छे. अने शब्दनय सर्व पर्यायनो एक पर्यायने ग्रहता ग्रहे, अने समभिरूढ ते जे धर्म व्यक्त ते वाचक पर्यायने ग्रहे; ते माटे शब्दनयथी समभिरूढनय ते अल्पविषयी छे. केमके सममिरूढ ते पर्यायनो सर्वकाल गवेष्यो छे, अने एवंभूतनय ते प्रतिसमये क्रियाभेदें भिन्नार्थपणो मानतो अल्पविषयी छे ते माटे एवंभूतथी समभिरूढ बहुविषयी जाणवो अने एवंभूत अल्पविषयी जाणवो.
जे नय वचन छे ते पोताना नयने स्वरूपें अस्ति छे, अने परनयना स्वरूपनी तेमां नास्ति छे; एम सर्व नयनी विधिप्रतिषेधे करीने सप्तभंगी ऊपजे पण नयनी जे सप्तभंगी ते
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
विकलादेशी ज होय अने जे सकलादेशी सप्तभंगी ते प्रमाण छे पण नयनी सप्तभंगी न ऊपजे.
उक्तं च रत्नाकरावतारिकायां " विकलादेशस्वभावा हि नयसप्तभंगी वस्त्वंशमात्र प्ररूपकत्वात् सकलादेशस्वभावा तु प्रमाणसप्तभंगी संपूर्ण वस्तुस्वरूपरूपकत्वात् " ए वचन छे एटले यथायोग्यपणे नयनो अधिकार को.
सकलनयग्राहकं प्रमाणं, प्रमाता आत्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धः चैतन्यस्वरूपपरिणामी कर्त्ता साक्षाद् भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रभिन्नत्वेनैव पञ्चकारणसामग्रीतः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र साधनात् साधयते सिद्धिः। स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणं तद् द्विविधं प्रत्यक्षपरोक्षभेदात्स्पष्टं प्रत्यक्षं परोक्षमन्यत् अथवा आत्मोपयोगत इन्द्रियद्वारा प्रवर्तते न यज् ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं; अवधिमन पर्यायौ देशप्रत्यक्षौ, केवलज्ञानं तु सकलप्रत्यक्षं, मतिश्रुते परोक्षे; तच्चतुर्विधं अनुमानोपमानागमार्थापतिभेदात्, लिङ्गपरामर्शोऽनुमानं लिङ्गं चाविनाभूतवस्तुकं नियतं ज्ञेयं यथा गिरिगुहिरादौ व्योमावलम्बिधू
लेखां दृष्ट्वा अनुमानं करोति, पर्वतो वह्निमान् धूमवत्त्वात्, यत्र धूमस्तत्राग्निः यथा महानसं एवं पञ्चावयवशुद्धं अनुमानं यथार्थज्ञानकारणं. सदृश्यावलंबनेनाज्ञातवस्तूनां यज्ज्ञानं उपमानज्ञानं, यथा गौस्तथा गवयः गोसादृश्येन अदृष्टगवयाकारज्ञानं उपमानज्ञानं. यथार्थीपदेष्टा पुरुष आप्तः स उत्कृष्टतो वीतरागः सर्वज्ञ एव । आप्प्रोक्तं वाक्यं आगमः, रागद्वेषाज्ञानभयादि
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दोषरहितत्वात् अर्हतः वाक्यं आगमः, तदनुयायिपूर्वापराविरुद्धं मिथ्यात्वासंयमकषायभ्रान्तिरहितं स्याद्वादोपेतं वाक्यं अन्येषां शिष्टानामपि वाक्यं आगमः। लिङ्गग्रहणाद् ज्ञेयज्ञानोपकारकं अर्थापत्तिप्रमाणं; यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुले तदा अर्थाद्रात्रौ मुख एव, इत्यादि प्रमाणपरिपाटीगृहीतजीवाजीयस्वरूपः सम्यक्ज्ञानी उच्यते.
अर्थ ॥ हवे प्रमाणन स्वरूप कहे छे सर्व नयना स्वरूपने ग्रहण करनारो तथा सर्व धर्मनो जाणंगपणो छ जेमां एहवू जे ज्ञान तेने प्रमाण कहिये जे प्रमाण ते मापवानुं नाम छे. त्रण जगत्ना सर्व प्रमेयने मापवानुं प्रमाण ते ज्ञान छे अने ते प्रमाणनो कर्त्ता आत्मा ते प्रमाता छे ते प्रत्यक्षादि प्रमाणे सिद्ध के० ठहेरयो छे चैतन्य स्वरूप परिणामी छे. वली भवन धर्मथी उत्पाद व्ययपणे परिणमे छे ते माटे परिणामिक छे. तमा कर्ता छे तथा भोक्ता छे. जे कर्ता होय तेज भोक्ता होय. भोक्तापणा विना सुखमयी कहेबाय नही ते चैतन्य संसारीपणे स्वदेह परिमाण छ प्रतिक्षेत्र के प्रत्येक शरीर भिन्नपणा माट मिन्न जीव छे ते जीव पांच कारणनी सामग्री पामीने सम्पग्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यकचारित्रने साधवाथी संपूर्ण, अविनाशी, निर्मल, निःकलंक, असहाय, अप्रयास, स्वगुण निरावरण, स्वकार्य प्रवृत्ति, अक्षर, अव्याबाध, सुखमयी, एवी सिद्धता निष्पन्नता नीपजे एज साधन मार्ग छे.
स्व शब्दं करी आत्मा परशब्दें परद्रव्य स्व आत्मायी भिन्न अनंता पर जीव धर्मादिक तेना व्यवसायी व्यवच्छेदक जे ज्ञान
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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
तेने प्रमाण कहिये. तेना मूल भेद बे छे, एक प्रत्यक्ष बीजो परोक्ष. तिहां स्पष्ट ज्ञान ते प्रत्यक्ष कहिये तेथी इतर के० बीजो जे अस्पष्ट ज्ञान ते परोक्ष कहिये. अथवा आत्माना उपयोगथी इंद्रियनी प्रवृत्ति विना जे ज्ञान ते प्रत्यक्ष कहिये. तेना बे भेद छे. एक देशप्रत्यक्ष बीजो सर्वप्रत्यक्ष. तेमां अवधिज्ञान तथा मनःपर्यवज्ञान ते देशप्रत्यक्ष छे. केमके. अवधिज्ञान एक पुद्गल परमाणुने द्रव्ये तथा क्षेत्रे अने काले तथा भावें केटलाक पर्यायने देखे. तथा मनःपर्यवज्ञानी मनना पर्यायने प्रत्यक्ष जाणे पण बीजा द्रव्यने न जाणे माटे बेहु ज्ञानने देशप्रत्यक्ष कहिये. कारण के देशथी वस्तुने जाणे पण सर्वथी न जाणे माटे, अने केवलज्ञान ते जीव तथा अजीव रूपी तथा अरूपी सर्व लोकालोकना त्रण कालना सर्व भावने प्रत्यक्षपणे जाणे माटे सर्व प्रत्यक्ष कहिये.
तथा मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान ए बे अस्पष्ट ज्ञान छे माटे परोक्ष छे; ते परोक्ष प्रमाणना चार भेद छे. १ अनुमान प्रमाण, २ उपमान प्रमाण, ३ आगम प्रमाण, ४ अर्थापत्ति प्रमाण. तिहां चिन्हे करीने जे पदार्थने ओलखवू तेने लिंग कहिये. ते परामर्श के० संभालवाथी जे ज्ञान थाय तेने अनुमानज्ञान कहिये. लिंग ते जे विना ते वस्तु होयज नही ते वस्तुनुं लिंग जाणवू. ते लिंगने देखवाथी वस्तुनो निर्धार करवो ते अनुमान प्रमाण जाणवो.
जेम. गिरि गुहिरने विषे आकाशावलंबी धूमनी रेखा देखीने अनुमान करे जे ए पर्वत अग्नि सहित छे ए पक्ष तथा साध्य कह्यो. जे पक्ष ते पर्वत, अने साध्य ते अग्निमंतपणो, साध्वो ते हेतु जे धूम्रवंतपणा माटे एटले जिहां धूम्र
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होय तिहां अग्नि अवश्य होयज. आकाशने पहोंचती जे धूम्र रेखा ते अग्नि विना होय नही तिहां दृष्टांत कहे छे.
जेम महानसे के० रसोडाने विषे रसोइयाए धूम्र तथा आग्निने भेला दीठा ते माटे इहां आ अमुक पर्वतने विषे धूम्र छे तो तिहां निश्चेयी आग्नि छेज एहवी व्याप्ति निर्धारीने ज्ञान करवो ते पंचावयवें शुद्ध अनुमान प्रमाण कहिये. ते अनुमान प्रमाण मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान- कारण छे. ते अनुमाने जे यथार्थ ज्ञान थाय तेने मान के० प्रमाण कहिये अने जे अयथार्थ ज्ञान थाय ते प्रमाण नही.
तथा सरिखावलंबीपणे अजाणी वस्तुनो जे जाणपणो थाय जेम गो के० बलद तेम गवय के गवो ए गो सरिखो गवयनुं ज्ञान थयुं ते उपमान प्रमाण कहिये.
यथार्थ भावनो उपदेशक जे पुरुष ते आप्त कहिये ते उत्कृष्ट आप्त वीतराग रागद्वेषरहित सर्वज्ञ केवलज्ञानी ते आप्तनो को जे वचन तेने आगम कहिये. जे राग द्वेष तथा अज्ञान ए दोषे आगो पालो अधिको ओछो बोलाय छे ते आगम नही अने राग द्वेष भय अज्ञान रहित जे अरिहंत तेनुं वचन ते आगम प्रमाण जाणवो.
तथा वली ते अरिहंतना वचनने अनुयायी पूर्वापर अविरोघि मिथ्यात्व असंयम कषायथी रहित ते प्रांति विनास्याद्वादें युक्त तथा जे साधक ते साधक, बाधक ते बाधक, हेय ते हेय, उपादेय ते उपादेय, इत्यादिक वहेंचण सहित जे होय तेनो कयो ते आगमप्रमाण जाणवो. उक्तं च “ सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च ॥ सुअकेवलिणा रइयं अभिन्नदशपुविणा रइयं ॥ १ ॥” इत्यादिक सदुपयोगी
मा.
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भवभीरु जगत् जीवोना उपकारी एवा श्रुत आम्नायधर जे श्रुतने अनुसार कहे तेनो वचन पण प्रमाण मानQ.
तथा कोइक फलरूप लिंगे करीने जे अजाण्या पदार्थनो निर्धार करिये ते अर्थापत्ति प्रमाण कहिये. जेम देवदत्तनो पीन के० पुष्ट शरीर छे पण ते देवदत्त दिवसनो जमतो नथी तेवारे अर्थापत्तिथी 'जाणीये जे रात्रे जमतो हशे माटे पुष्ट शरीर छे. एम अर्थापत्ति प्रमाण जाणवो. ए प्रमाण ते जाते अनुमाननो अंश छे ते माटे श्री अनुयोगद्वारमा प्रथम कह्यो नथी..
इहां दर्शनांतरीयो जे प्रमाण माने छे पण ते सत्य नथी जेम छ प्रकारना इंद्रिय सन्निकर्षथी ऊपनो जे ज्ञान तेने नैयायिक प्रत्यक्ष प्रमाण कहे छे, अने परब्रह्मने इंद्रिय रहित माने छे ज्ञानानंदमयी माने छे तेवारे इंद्रिय रहित ज्ञान ते अप्रमाण थाय छे. इत्यादिक अनेक युक्ति छे ते माटे ते प्रमाण नही. तथा चार्वाक मतवाला मात्र एक इंद्रियप्रत्यक्षनेज प्रमाण माने छे एम दर्शनांतरीयना अनेक विकल्प टालीने सर्व नय निक्षेप सप्तभंगी स्थाद्वादयुक्त जे वस्तु जीव तथा अजीवनो सम्यक् ज्ञान जेनामां होय तेने सम्यक् ज्ञानी कहिये ए ज्ञान- स्वरूप कयुं.
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं । यथार्थहयोपादेयपरीक्षा. युक्तज्ञानं सम्यग्ज्ञानं । स्वरूपरमणपरपरित्यागरूपं चारित्रं। एतद्रनत्रयीरूपमोक्षमार्गसाधनात्साध्यसिद्धिः। इत्यनेनात्मनः स्वीय स्वरूपं सम्यग्ज्ञानं ज्ञानप्रकर्ष एवात्मलाभः ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण एवात्मा छद्म
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स्थानां च प्रथमं दर्शनोपयोगः केवलिनां प्रथमं ज्ञानोपयोगः पश्चाद्दर्शनोपयोगः सहकारीकर्तृत्वप्रयोगात् उपयोगसहकारेणैव शेषगुणानां प्रवृत्यभ्युपगमात् इत्येवं स्वतत्वज्ञानकरणे स्वरूपोपादानं तथा स्वरूपTaranaadata सिद्धिः ।
१८३
अर्थ || हवे श्रीवीतरागना आगमथी जाण्यो जे वस्तु स्वरूप तेने हेयोपादेयपणे निर्धार करवो ते सम्यक दर्शन कहियें तहां तवार्थने विषे को छे के जे तच्चार्थश्रद्धानं सम्यक दर्शनम् । उक्तं च उत्तराध्ययने जीवा जीवा य बंधो || पुन्नं पावासवो तहा ॥ संवरो निज्झरा मुक्खो ॥ संति एतिहिया नव ॥ १ ॥ तिहियाणं तु भावाणं सदभावे ऊबएसण || भावेण सद्दहंतस्स || समत्तं तिवियाहियं ॥ २ ॥ इत्यादिक दशरुचियी सर्व जाणं जे तच्चार्थ जीवादि पदार्थनो श्रद्धान निर्धार ते सम्यक दर्शन कहियें अने जे सम्यक दर्शन ते धर्मनुं मूल छे. तथा जे हेय ते तजवा योग्य, अने उपादेय ते ग्रहण करवा योग्य, एहवी परीक्षा सहित जे जाणपणो ते सम्यक् ज्ञान छे. जेमां हेयोपयोग संकोच अकरण बुद्धी नथी पण उपादेयने उपयोगें एहवी चिंतवणा थाय जे हवे किवारे करूं ? ए विना केम चाले ? एहवी जो बुद्धी नथी तो ते संवेदन ज्ञान छे तेथी संवर कार्य थाय एवो निर्धार नथी.
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तथा स्वरूप रमण परभाव राग द्वेष विभावादिकनो त्याग ते चारित्र कहियें, ए रत्नत्रयीरूप परिणाम ते मोक्षमार्ग छे. ए मार्गने साधवाथी साध्य जे परम अव्याबाधपद तेनी सिद्धि निष्पत्ति थाय. जे आत्मानो पोतानुं रूप ते यथार्थ ज्ञान छे,
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RANAHARAJ....
तथा चेतना लक्षण तेज जीवपणो छे, अने ज्ञाननो प्रकर्ष बहुलपणो ते आत्माने लाभ छे; ज्ञान तथा दर्शननो उपयोग लक्षण आत्मा छे. तिहां छद्मस्थने प्रथम दर्शनोपयोग पछे ज्ञानोपयोग छे, अने केवलीने प्रथम ज्ञानोपयोग पछे दर्शनोपयोग छे; जे सर्व जीव नवो गुण पामे तेनो केवलीने ज्ञानोपयोग ते कालें थाय ते माटे प्रथम ज्ञानोपयोग वर्ते.
अने सहकारी जे कर्तृताशक्ति ते जेम हतो तेमज छे. एक गुणने साह्य करे अने बीजा गुणनो उपयोग सहकारें वत छे सहकार ते ज्ञानोपयोग विशेष धर्मने जाणे ते जाणतां विशेष ते सामान्यने आधारे वर्ते छे ते सहित जाणे एटले विशेष ते भेला सामान्य ग्रहवाणा अने सामान्य ग्रहतां सामान्य ते विशेषता जन कहेतां सहित जाणे ते माटे सर्वज्ञ सर्वदर्शीपणो जाणवो ए रीते स्वतत्त्वनुं ज्ञान करवु. तेथी स्वधर्मनो उपादान के० लेवापणुं थाय पछे स्वरूपने पामवे स्वरूपमां रमण थाय ते रमण थकी ध्याननी एकत्वता थाय एटले निश्चे ज्ञान निश्चं चारित्र तथा निश्चे तपपणो थाय जे थकी सिद्धि के० मोक्ष निपजे ए सिद्धांत जाणवो..
तत्र प्रथमतः ग्रन्थिभेदं कृत्वा शुद्धश्रद्धानज्ञानी द्वादशकषायोपशमः, स्वरूपैकत्वध्यानपरिणतेन क्षपकश्रेणीपरिपाटीकृतघातिकर्मक्षयः, अवाप्तकेवलज्ञानदर्शनः, योगनिरोधात् अयोगीभावमापन्नः, अघातिकर्मक्षयानंतर समय एवास्पर्शवद्गत्या एकांतिकात्यंतिकानां बाधनिरूपाधिनिधिरूपं चरित्रानयोशाविनाशिसंपूर्णात्मशक्तिप्राग्भावलक्षणं सुखमनुभवन् सिध्यति साधनंतंकालं तिष्ठति परमात्मा इति। एतत् कार्य सर्वे भव्यानां॥
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अर्थ || ते प्रथम ग्रंथिभेद करीने शुद्धश्रद्धावान् तथा शुद्ध ज्ञानी जे जीव ते प्रथम त्रण चोकडीनो क्षयोपशम करीने पाम्यो जे चारित्र ते ध्यानें एकत्व थायीने क्षपकश्रेणि मांडी अनुक्रमे घातिकर्म क्षय करीने केवलदर्शन पामे. पछे ए सयोगी गुणें जघन्यथी अंतर्मुहर्त अने उत्कृष्टो आठ वरश उणापूर्वकोडी रहीने कोइक केवली समुद्घात करे, कोइक केवली समुद्घात न करे; पण आवर्जिकरण सर्व केवली करे ते आवज्जिकरणनुं स्वरूप कहे छे-इहां आत्मप्रदेशे रह्या जे कर्मदल ते पेहेला चले छे, पछे उदीरणा थाय छे, पछे भोगवी निर्जरे छे. तिहां केवलीने जिवारे तेरमें गुणठाणे अल्पायु रहे तिवारे आवज्जिकरण करे छे. ते आत्मप्रदेशगत कर्म्मदलने प्रति समये असंख्यातगुण निर्जरा करवी छे तेटला दलने आत्मवीर्ये करीने सर्व चलायमान करी मूके एवं जे वीर्यनुं प्रवर्तन ते आवज्जिकरण कहिये. एम करतां त्रण कर्म्मदल बघतां रह्या तो समु
वात करे नहीतो न करे ते माटे आवज्जिकरण सर्व केवली करे. पछे तेरमा गुणठाणाने अंते योगनो रोध करीने अयोगी अशरीरी, अनाहारी अप्रकंप घनीकृत आत्मप्रदेशी थको, पांच लघु अक्षर जेटलो काल अयोगी गुणठाणे रहीने, शेषसत्तागत प्रकृति विद्यमान तथा अविद्यमान स्तिबुक संक्रमें सत्ताथी खपावी, सकल पुल संगपणाथी रहित थयी, तेहिज समयें आकाश प्रदेशनी बीजी श्रेणिने अणफरसतो थको लोकांते सिद्ध कृतकृत्य संपूर्ण गुण प्रागभावी पूर्ण परमात्मा परमानंदी अनंत केवलज्ञानमयी, अनंत दर्शनमयी, अरूपी सिद्ध थाय. उक्तं च उत्तराध्ययने "कहिं पहिया सिद्धा, कहिं सिद्धा पर्यट्ठिया ॥ कहिं वोंदिं चइत्ताणं ॥ कत्थ गंतूण सिज्झई ॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्टिया ||
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इह वोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥ " इत्यादि ते सिद्ध एकांतिक आत्यंतिक, अनाबाध, निरुपाधि, निरुपचरित, अनायास, अविनाशी, संपूर्ण आत्मशक्ति प्रकटरूप सुखप्रते अनुभवे अव्याबाध सुखने प्रदेशें प्रदेशें अनंतो छे उक्तं च उद्यवाइसूत्रे " सिद्धस्स सुहोरासि ।। सबद्धा पिण्डियं जह वज्जा ।। सोणंतवग्गोभइयो | सद्यागासे न माइज्जा ॥ १ ॥ " इति वचनात् ए रीते परमानंद सुख भोगवता रहे छे. सादि अनंतकाल पर्यंत परमात्मापणे रहे छे. तो एहिज कार्य सर्व भव्यने करवो, ते कार्यनी पुष्ट कारण श्रुताभ्यास छे ते श्रुतअभ्यास करवा माटे ए द्रव्यानुयोग नय स्वरूप लेशयी कह्यो. ते जाणपणो जे गुरुनी परंपराथी हुं पाम्यो ते गुर्वादिकनी परंपराने संभारुं छं.
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काव्य
गच्छे श्रीकोटिकाख्ये विशदखरतरे ज्ञानपात्रा महान्तः, सूरि श्रीजैन चंद्रा गुरुतरगणभूशिष्यमुख्या विनीताः ॥ श्रीमत्पुण्यात्प्रधानाः सुमतिजलनिधिपाठकाः साधुरंगाः, तच्छिष्याः पाठकेंद्राः श्रुतरसरसिका राजसारा मुनींद्राः ॥ १ ॥
तच्चरणांबुजसेवालीनाः श्रीज्ञानधर्मधराः ॥ तत्शिष्यपाठकोतमदीपचंद्राः श्रुतरसज्ञाः || २ || नयचक्रलेशमेतत्तेषां शिष्येण देवचंद्रेण ॥ स्वपरावबोधनार्थं कृतं सदभ्यासवृद्ध्यर्थं ॥ ३ ॥ शोधयन्तु सुधियः कृपापराः, शुद्धतच्चरसिकाश्च पठंतु ॥ साधनेन कृतसिद्धिसत्सुखाः, परममंगलभावमश्नुते ॥ ४ ॥ इति श्रीनयचक्रविवरणं समाप्तम् ॥
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दोहा. सूक्ष्मबोध विणु भविकने । न होये तव प्रतीत ॥ तत्वालंबन ज्ञान विण । न टले भवभ्रमभीत ॥ १ ॥ तत्त्वते आत्मस्वरूप छे । शुद्धधर्म पण तेह || परभावानुग चेतना । कर्मगेह छे एह ॥ २ ॥ तजी परपरिणतिरमणता । भज निजभाव विशुद्ध ॥ आत्मभावथी एकता । परमानंद प्रसिद्ध ॥ ३ ॥ स्याद्वाद गुणपरिणमन । रमता समतासंग ॥ साधे शुद्धानंदता । निर्विकल्परसरंग ॥ ४ ॥ मोक्षसाधनतणु मूल ते । सम्यग्दर्शनज्ञान ॥ वस्तुधर्म अवबोध विणु । तुसखंडन समान ॥ ५ ॥ आत्मबोध विणु जे क्रिया । ते तो बालकचाल || तत्वार्थनी वृत्तिमें । लेजो वचन संभाल ॥ ६ ॥ रत्नत्रयीविणु साधना । निष्फल कही सदीव ॥ लोकवियअध्ययनमें | धरो उत्तमजीव ॥ ७ ॥ इंद्रिविषय आसंसना । करता जे मुनिलिंग ॥ खूता ते भवपंक में । भाखे आचारांग ॥ ८ ॥ इम जाणी नाणी गुणी । न करे पुद्गलआस ॥ शुद्धात्मगुणमें रमे । ते पामे सिद्धिविलास ॥ ९ ॥ सत्यार्थ नयज्ञानविनुं । न होये सम्यग्ज्ञानं ॥ सत्यज्ञान विणु देशना । न कहे श्रीजिनभाण ।। १० ।। स्यादवादवादी गुरु । तसु रसरसिया शीस ॥ योग मिले तो नीपजे । पूरण सिद्ध जगीस ॥११॥ वक्ता श्रोता योगयी । श्रुतअनुभवरस पीन ॥ ध्यानध्येयनी एकता । करता शिवसुख लीन ॥ १२ ॥
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Versnrn
इम जाणी शासनरुचि । करजो श्रुतअभ्यास ॥ पामी चारित्रसंपदा । लेहेसो लीलविलास ॥ १३ ॥ दीपचंद्रगुरुराजने । सुपसायें उल्लास ॥ देवचंद्र भवीहितभणी । कीधो ग्रंथप्रकाश ॥ १४ ॥ सुणसे भणसे जे भविक । एह ग्रंथ मनरंग ॥ ज्ञानक्रियाअभ्यासतां । लहेशे तत्त्वतरंग ॥ १५ ॥ द्वादशसार नयचक्र छ । मल्लवादिकृत वृक्ष ॥ सप्तशतिनय वाचना । कीधी तिहां प्रसिद्ध ॥ १६ ॥ अल्पमतिना चित्तमें । नावे ते विस्तार ॥ मुख्यथूलनयभेदनो । भाष्यो अल्प विचार ॥ १७ ॥ खरतरमुनिपति गच्छपति । श्रीजिनचंद्रसूरीश ॥ तास शीस पाठकप्रवर । पुन्यप्रधान मुनीश ॥ १८ ॥ तसु विनयी पाठकप्रवर । सुमतिसागर सुसहाय ॥ साधुरंग गुणसंनिधि । राजसार उवज्जाय ॥ १९ ॥ पाठक ज्ञानधर्म गुणी । पाठक श्रीदीपचंद ॥ तास सीस देवचंदकृत ॥ भणतां परमानंद ॥ २० ॥
इति श्रीनयचक्रविवरणं समाप्तं ॥
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अर्हम् ।
न्यायविशारद - न्यायाचार्य - श्रीमद् - यशोविजयोपाध्यायविरचितं
श्री ज्ञानसारसूत्रम् ।
(श्रीमद्देवचन्द्रयतिपतिकृत- ज्ञानमञ्जरी-वृत्तियुक्तम् ।) अथ पूर्णाष्टकम् ॥ १ ॥
श्रीपार्श्वशं जिनं नत्वा, शुद्धं स्याद्वादसंयुतम् । आत्मानंदविशुद्धयर्थ, ज्ञानसारं प्रतन्यते ॥ १ ॥ परोपकारप्रवणा मुनीशाः, पूर्व बभूवुर्गुणरोहणेशाः । तेषां सुवाक्यामृतपानपीनः, करोमि टीकां स्वहितां सुबोधाम ॥२॥ नास्तीह लोके ह्युपकारयोग्यो, मत्तोऽपि संसारविधातधीरः । तथाSSत्मबोधाय तनोमि टीकां, भाष्यादिशास्त्रार्थकृतावलम्बः ॥३॥ ऐन्द्रश्रीसुखमग्न, लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेन, पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥ १ ॥
इह शिष्टाचारपरिपालनाय, मंगलादि वाच्यम् - तच्च, शुद्धात्मस्वरूपनिरूपणपटिष्ठत्वात् सर्व एव ग्रन्थो मंगलं, तथापि-ग्रंथाव्युच्छित्तिसुखावबोधाय शिष्यमतिविकाशार्थं च पंचमंगलबीजमूर्त श्रीमन्मुनिराजादिपंचपदस्मरणरूपं मंगलभाविष्कृतम् । गुणस्तवनध्वनि-अंजलीकरणयोगाह्लादादिकारणोत्पन्नात्मीयगुणे । अर्हदादिबहुमानैकत्वरूपभावमंगलात्मकं कर्त्तुर्विद्यासिद्धिबीजं, 'ऐं'" इति -
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ज्ञानमंजरी टीका.
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स्मरणरूपमंगलात्मकं च आद्यं पद्यं वक्ति ग्रंथकारः, ऐंद्रश्री इति । तेन मुनिना पाठकेन सूरिणा यथार्थक्षयोपशमोपयोगवता तथा श्रीमदर्हता सिद्धपरमात्मना क्षायिकोपयोगवता न्यायसरस्वतीविरुदधरेण श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायेन 'पूर्ण सकलं जगत् अशुद्धपरसंयोगोत्पन्ननवनवपर्यायगमनशीलत्वात् 'लीलालग्नमिव कल्पनाकल्पितकीडामुग्धमिव अवेक्ष्यते दृश्यते इति संटकः । इत्यनेन शुद्धमूर्त्तात्मानंदाऽनुभवलग्नाः परानुभवमग्नान् मूढत्वेनैव पश्यंति, नच परवस्तुनि किञ्चिद् भोग्यत्वमस्ति, वस्तुवृत्त्या स्वीयगुणपर्यायानुभव एव युक्त इति । अतः परस्वरूपमग्ना मुग्धा इति तात्पर्य, तेन कथंभूतेन ? ऐंद्रश्रीसुखम
"
न इन्द्रो जीवः तस्य इयं ऐंद्री च या श्रीश्च ऐंद्रश्रीः आत्मगुणलक्ष्मीः तस्याः सुखं आनंदः तत्र मग्नेन एकत्वा (व) स्थाssपन्नेन, पुनः सत् शुभं शाश्वतं वा चित् ज्ञानं तस्य य आनंदः तत्र पूर्णेन ज्ञानानंदमृतेन मुनिना जगत् मिथ्यात्वासंयममनं मूढं विलोक्यते । पूर्णा अपूर्ण जगत् भ्रांतं जानंति । इत्यतः पूर्णानंदात्मस्मरणेन स्वीयः पूर्णानंद: साध्य इति ॥ १ ॥ अथ पूर्णत्वं वस्तुनो निरूपयति ।
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पूर्णता या परोपाधेः, सा याचितकमण्डनम् । यातु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥ २ ॥
पूर्णता - इति । पूर्णता परोपाधेः पुद्गलसंयोगजन्यतनुधनस्वजनयशःख्यात्यादिरूपायाः या पूर्णता चक्रिशक्रादीनामिव सा. याचितकमंडनं मार्गिताभरणशोभा तेन इभ्यत्वं यद् जगज्जीवैरनंतशो भुक्त्वोष्टिं आत्मनोऽशुद्धताहेतुः तद्योगे रा पानुभवभ्रष्टानां शोभा न तवरसिकानां तु पुनः या स्वाभाविकी
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स्वभावोत्था दर्शनज्ञानचारित्राद्यात्मका सकलात्मस्वभावाविभावरूपा शोभा सा एव शोभा जात्यरत्नविभानिभा, जात्यरत्नस्य विभा कांतिः तत्तुल्या, या हि-पुद्गलादिपरोपाधिजन्या सा तु स्फटिकोपलपुटिकावर्णिकातुल्या, या तु-स्वभावोत्पन्ना सा तु जात्यमाणिक्यकांतितुल्या, अतः स्वीयशुसहजपूर्णतारुचिभासनरमणतया भवितव्यमिति गाथार्थः ॥२॥ अवास्तवी विकल्पैः स्या-त्पूर्णताब्धेरिवोर्मिभिः । पूर्णानन्दस्तु भगवान् , स्तिमितोदधिसन्निभः॥३॥
अवास्तवी-इति । वस्तु पदार्थः, तस्य इयं वास्तवी, न वास्तवी 'अवास्तवी' परसंयोगोद्भवा, रागद्वेषमोहादिजैः विकल्पैः पूर्णता, अब्धेः समुद्रस्य ऊर्मिमिः इव स्यात् । यथा-ऊर्मिमिः समुद्रः अग्राह्यः, अनवगाह्यश्च भवति । तथाऽऽत्मापि रागद्वेषोमिभिः अग्रायः, अनवगाह्यश्च भवति । 'तु' पुनः-'पूर्णानंदः' आत्मीयानंतसंपदास्वादरूपो, निष्पन्नपरमात्मावस्थारूपः । भगवान् परमैश्वर्यरूपः स्तिमितोदधिः स्थिरोदधिः तेन संनिभः सदृश इति । अतः चलत्वं विहाय अचलतया भवितव्यं, आत्मा आत्मस्वभावस्थः निर्विकल्पो भवति तत्साधनाय यतितव्यमित्यर्थः ॥३॥ जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत्, तृष्णाकृष्णाहिजाङ्गुली। पूर्णानन्दस्य तरिक स्याद् , दैन्यवृश्चिकवेदना? ॥४॥
जागर्ति-इति । चेत् यदि 'ज्ञानदृष्टिः' तत्त्वज्ञानरूपा दृष्टिः चक्षुः जागर्ति, विकाशरूपा प्रवर्तते, 'तस्य पूर्णानन्दस्य' स्वरूपाविर्भावचिदानन्दयुक्तस्य भगवतः 'दैन्यं दीनता' तद्रूपा वृश्चिकवेदना किं स्यात् ? अपितु-न स्यात् दैन्यं नूनं तस्य न
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भिवति स्वीयसहजाप्रयासानन्दस्य पूर्णतव भवति । कथम्भूता ज्ञानदृष्टिः ? ' तृष्णाकृष्णाहिजांगुली, ' तृष्णा पुद्गलभोगपिपासा, सा एव कृष्णाहिः कृष्णसर्पः । तदमने जांगुली गारुडमंत्रविशेषः इति । अत्र भावना-संसारचक्रक्रोडगतस्य जंतोः स्वीयासंख्ये-यप्रदेशव्याप्तज्ञानादिगुणास्वादच्युतस्य पौद्गलिकभोगपिपासासर्पदष्टस्य स्वपरविवेकरूपज्ञानदृष्टिजांगुलीस्मरणेन परतृष्णानिर्विषस्य शुद्धस्वरूपैकत्वतवध्यानमग्नस्य निष्पन्नक्षायिकभावानंदस्य पूर्णस्य नास्ति दीनता, यतो हि अविरतसम्यग्दृष्टिः तत्त्वश्रद्धायुक्त आत्मानं आत्मतया परं च परतया, निर्धार्य, विचरन् तृष्णातुरो न भवति तर्हि किं पूर्णानन्दमग्नानां ? इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ पूर्यन्ते येन कृपणा-स्तदुपेक्षैव पूर्णता । पूर्णानन्दसुधास्निग्धा, दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ॥५॥
पूर्यत, इति 'येन परसंयोगेन धनधान्यादिना 'कृपणाः' लोभममाः आत्मधर्मसंपद्विकलाः परास्वादनरसिकत्वेनात्मानं धन्यं मन्यमानाः, बस्तुधर्मे धीरताशून्याः 'पूर्यते' प्रचुरा भवंति सा 'पूर्णता' उपाधिजा उपेक्षा एव अनंगीकारयोग्या एव। अथवा तदुपेक्षा एक नहि एषा पूर्णता किं तु पूर्णतात्वेन उपेक्षते आरोप्यते इत्यर्थः। यथाहि-घटः जळेनापूर्णः। बहिःस्निग्धजमलेनपूर्णः केनचिदुच्यते मलपूर्णोऽयं घटः, एषा मलजा पूर्णता, सा किं पूर्णकुंभत्वावस्थां लभते ? नैवेति। एवं आत्मानंतज्ञानानंदादिस्वरूपापूर्णस्य कोपाधिजा पूर्णता, ‘सा किं तत्वभोगपूर्णैः पूर्णत्वेनैव अङ्गीक्रियते ? नैवेति । एवं ज्ञात्वा 'उपेक्षा एव । अत एव अनादिस्वरूपभ्रष्टानां परोपाधिजा पूर्णता तन्मयत्वेन अभेदपरिणत्या प्रवर्त्तमानत्वात् निर्विकल्पायां तु सम्यग्
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दर्शनज्ञानचारित्रभेदरत्नत्रयीरूपा पूर्णता स्वाभाविकी अपि अभिनवाभ्यासतः सविकल्पा क्षयमाणत्वात् अभेदरत्नत्रयीपरिणतानां स्वाभाविकी पूर्णता निर्विकल्पा भवति, तत्साध्यत्वेन तवसाधनरसिकतया भवितव्यमिति । उपदेशः ' मनीषिणां पण्डितानां शुद्धश्रद्धानभासनपूर्वकत्वरमणानुगवीर्यप्रवृत्तिवमतां पूर्णानंदसुधा तया स्निग्धा दृष्टिर्भवति । पूर्णः अन्यूनः य आनंदः पूर्णानंदः पूर्णानंद एव सुधा पूर्णानंदसुधा तया स्निग्धा दृष्टिः 'एषा' भवति इति संबंधः । स्वस्वरूपस्वाभाविकपूर्णात्मीयात्यंतैकांतिकनिर्द्वद्वानंदस्निग्धा दृष्टिः तवज्ञानवतां भवति । आत्मज्ञानिनः स्वरूपानंदपूर्णतां एव पूर्णत्वेन मन्यंते इति न तत्र पौनली पूर्णतासंकल्पः उपाधित्वेन निर्धारात् इति गाथार्थः ॥ ५ ॥
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अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते । पूर्णानन्दस्वभावोऽयं, जगदद्भुतदायकः ॥ ६ ॥
अपूर्णः इति । यः त्यागपरिणत्या सकलपुद्गलपरित्यागरुचिः पुद्गलैः 'अपूर्ण' साधकात्मगुणैः ' पूर्णतां प्रति प्राप्नोति । तु पुनः 'पूर्यमाण:' पुद्गलैः 'हीयते' पूर्णानंदेन पुद्गलैः पूर्यमाणस्य आत्मानंदे हीयते एव । ' अयं' ज्ञानगोचरीभूतः 'पूर्णानंदस्वभावः 'जगदद्भुतदायकः' अस्ति इति । पूर्णानंदस्वभावस्य इयं अद्भुतता, परसवत्यागे वृद्धिः, परभावपूरणे हानिः । अत्र भावना - आत्मनः सकलस्वरूपाविर्भावानुभावोत्पन्नानंदः, जगति लोके अनादिप्रवृत्तिप्रवृत्ते पुद्गलानंदभोक्तरि विस्मयरूपः । शुद्धतच्चपूर्णानां तु स्वरूपत्वात् न विस्मयः । अत एव पूर्णानंदसाधनभूते विशुद्धसम्यग्रत्नत्रयसाधने यत्नो विधेय इति गाथार्थः ॥ ६॥
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परस्वत्वकृतोन्माथा, भूनाथा न्यूनतेक्षिणः। स्वस्खत्वसुखपूर्णस्य, न्यूनता न हरेरपि ॥७॥ परस्वत्वेति । परे परवस्तुनि संगांगिभावजविभावपरिणतौ स्वस्य भावः-स्वत्वं, परे स्वत्वं-परस्वत्वं तेन कृत उन्माथ उन्मादो व्याकुलत्वं येषां ते 'परस्वत्वकृतोन्माथाः' एवंभूता 'भूनाथाः' पृथ्वीशाः अपि, न्यूनतेक्षिणः न्यूनतादर्शनशीलाः, यतः परसंपद्रक्तानां चिंतामण्यनंतकोटिप्राप्तौ अपि न तृप्तिः, तृष्णाया अनंतगुणत्वात् सदैवापूर्णत्वात् न्यूनतामेव पश्यति । तृष्णाया विभावत्वात्, परित्यागे सुखम् । स्वशब्देन आत्मा तत्रैव स्वत्वं 'स्वस्वत्वं तदुप्तनसुखं आत्मस्वभावनिर्धारभासनरमणानुभवरूपं 'सुखं तेन पूर्णस्य मुनेः, हरेरपि इंद्रादपि न न्यूनता यत; इंद्रादीनां शुभाशुभाध्यवसायनिबद्धपुण्यविपाकभोगिनां आत्मगुणानुभावशून्यानां दीनत्वमेव विलोक्यते तत्त्वरसिकैः । स्वरूपसुखलेशोऽपि जीवनं परमामृतं पुण्योदयोद्भवसुखकोटिरपि स्वगुणावरणत्वेन महद् दुःखं अहह! बंधसत्तातोऽपि उदयकालः दारुणः, येनाऽऽत्मनः गुणावरणता । अतः स्वरूपसुखे रुचिः कार्या ॥४॥ कृष्णे पक्षे परिक्षीणे, शुक्त च समुदश्चति । द्योतते सकलाध्यक्षा पूर्णानन्दविधोः कला ॥८॥ ___ कृष्ण पक्षे इति । कृष्णे पक्षे परिक्षीणे क्षयं प्राप्ते शुक्के
से समुदञ्चति उदयं पाप्तति सति सकलाध्यक्षा सकलजन। यक्षा विधोः चंद्रस्य कला द्योतते इति तोकावृत्तिः । एवं कृष्णे पक्षे अर्थपुद्गलाविकसंसाररूपे क्षीणे सति, शुक्लपक्षे अर्द्धपुद्गलाभ्यंतरसंसाररूपे प्रवर्तमाने सति, पूर्णानंद आत्मा, स एवं
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विधुश्चंद्रस्तस्य कला स्वरूपानुयायिचैतन्यपर्यायप्राग्भावरूपा द्योतते शोभते. इत्यर्थः । शुक्लपक्षे प्राप्ते आत्मनि चेतनापर्यायः शोभते, कृष्णपक्षे हि अनादिक्षयोपशमीभूतचेतनावीर्यादिपरिणामः, मिथ्यात्वासंयमैकत्वेन संसारहेतुत्वात् न शोभते इति । अस्य हि आत्मनः स्वरूपसाधनावस्था एव प्रशस्या । कृष्णपक्षशुक्लपक्षलक्षण तु"जेसिमवड्ढपुग्गलपरिअट्टो सेसओ अ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु,अवरे पुण किण्हपक्खीया” ॥१॥ “जो किरिआवाई, सो भवो णियमा सुक्कपक्खीओ। अंतो पुग्गलपरिअदृस्स उसिञ्झइ नियमा"
इति दशाश्रुतस्कंधचूर्णी पूर्ण इति गुणत्वात् गुणिनमंतरेण न भवति पूर्णत्वं वस्तुनि स्वरूपसिद्धौ भवति । तत्र नाम पूर्णः 'पूर्णः' इति कस्यचित् नाम शब्दालापरूपं, पूर्णस्य आकार आरोपो वा स्थाप्यते, सा स्थापना, पूर्णघटत्वादिरूपा स्थापनापूर्णः, द्रव्यपूर्णः, द्रव्येण पूर्णः धनाढ्यो जलादिपूर्णवटादिर्वा, द्रव्यात् पूर्णः स्वकार्यपूर्णः, 'अर्थक्रियाकारि द्रव्यम्' इति लक्षणात्, द्रव्येषु पूर्णः-धर्मास्तिकायस्कंधादिः, “अणवओगो द” इति वचनात्, आगमनो द्रव्यं--पूर्णपदर यार्थलाला आपयुक्तः नोआगमतः-ज्ञा दीरभरशरीतव्यतिरिक्त निघा ! तत्र पूर्वापदज्ञक लेवरं शरी , भावी पूर्णपदज्ञाता खुशि वादिन यशरीर, तातिरित्तास्तु सत्तया पूर्णः गुणादिमिः तथापि तत्प्रवृत्तिरहितः कर्मावृतः आत्मा
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अविवक्षितभावस्वभावः, उक्तं च श्रीशांतिवादिवेतालैः, नवरं. तद्व्यतिरिक्तश्च जीवाद् भव्यजीव उच्यते इति प्रक्रमस्तु विशेषद्योतकः स चायं विशेषो यथा-न कदाचित्तत्पर्यायवियुक्तं द्रव्यं तथापि च, यदा च तद्वियुक्ततया विवक्ष्यते तदा तद्रव्यप्राधान्यतो द्रव्यजीवः भावपूर्णः आगमतः पूर्णपदार्थः समस्तोपयोगी, नोआगमतः ज्ञानादिगुणपूर्णः । संग्रहेण सर्वे जीवा, नैगमेनाऽऽसनसिद्धिमन्तो भव्याः पूर्णानंदाभिलाषिणः, व्यवहारेण अभ्यासवन्तः ऋजुसूत्रेण तद्विकल्पवंतः, शब्दनयेन सम्यग्दर्शनादिसाधकगुणानंदपूर्णाः, सममिरूढेनः अहंदाचार्योपाध्यायसाधवः स्वस्वभावसुखास्वादनेन भवोद्विग्नत्वात्, एवंभूतेनः सिफाः अनंतगुणानंद-अव्याबाधानंदपूर्णत्वात् । अत्र हि-भावनिक्षेपसाध्यः, तत एवं पूर्णानंदः साधनत्वेन गृहीत इति । शुद्धसिद्धामलानंताकृत्रिमस्वरूपसकलस्वभावाविर्भावानुभवरूपः पूर्णानंदः साध्यः, साधना तु या सम्यगात्मगुणास्वादानंदतया परिणमय्य पूर्णानंदसाधना विधेया। इति व्याख्यातं पूर्णाष्टकम् ॥ १॥
अथ द्वितीयं मन्नाष्टकम् । प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूह, समाधान मनो निजम् । दधच्चिन्मात्रविश्रान्ति-मग्न इत्यभिधीयते ॥ १॥
अथ मनाष्टकं वितन्यते-तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्येण धनमदिरापानादिना मग्नः, द्रव्यात् धनकांचनात् मनः, द्रव्ये शरीरादौ मग्नः । अथवा द्रव्यरूपो मनो द्विधा, आगमतः लग्नापदार्थज्ञाता अनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे पूर्ववत् । तद्व्यतिरिक्तस्तु मूढः शून्यः जडः। भावमग्नो द्विविधः, अशुद्धः
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शुद्धश्चेति । तत्र अशुद्धः क्रोधादिमग्नः विभावभावितात्मा, शुद्धः द्विविधः, साधकः, सिद्धश्च तत्र साधकः वस्तुस्वरूपाभिमुखः आद्यनयचतुष्टये तु निरनुष्ठानदग्धादिदोषवर्जितविव्युपेतद्रव्यसाधनप्रवृत्ति परिणतवस्तुस्वरूपसाधरुचिमतोः भवति । शब्दादिन - यमग्नस्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राद्यात्मसमाधिमग्नः संपूर्णवस्तुस्वरूपे निरावरणे मग्नः निष्पन्नः । अत्र हि गुणस्थानादिविशुद्धस्वस्वरूपानंदमग्नत्वमीक्ष्यते तत्र मग्नलक्षणं गदन्नाह - प्रत्याहृत्येन्द्रिय इति । इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्ररूपाणां, यो व्यूहः समूहस्तं प्रत्याहृत्य प्रत्याहारं कृत्वा, विषयसंसारतो निवार्य, "प्रत्याहार स्त्विद्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः" इति वचनात् । निजं स्वीयं मनः, चेतना वीर्यैकत्वविकल्परूपं समाधाय समाधौ स्थाप्य विषयनिरोधं आत्मद्रव्यैकाग्रतारूपं कृत्वा, “समाधिस्तु तदेवार्थमात्राभासन पूर्वकं" आत्मस्वरूपभासनैकत्वरूप समाधिः, तत्र मनः कृत्वा चिन्मात्रे ज्ञानमात्रे आत्मनि, मुख्यतः दर्शनज्ञानमय एव आत्मा, "उवउत्तो नाणदंसणगुणेहिं” इति वाक्यात् । ज्ञानस्वरूपे स्वद्रव्यं विश्रान्तिं दधत् मग्न इति अभिधीयते कथ्यते, इत्यनेन अनादितः अयं जीवः पुद्गलस्कंधजवर्णगंधरसस्पर्शरसादिषु मनोज्ञेषु स्वजनादिषु च भवन् विकल्पकोटिकोटिं प्राप्त इष्टान् विषयान् इच्छन्, अनिष्टान् विषयान् अनिच्छन् वातोद्भूतशुष्कपलाशवद् भ्रमति । कदाचित् स्वपरविवेकरूपं भेदज्ञानं प्राप्य अनंतज्ञानदर्शनानंदमयं स्वीयं भवं स्वत्वतया निर्धार्य इदं विषयसंगादिकं न मम, नाहं अस्य भोक्ता उपाधिरेव एष, नहि मम कर्तृत्वं भोक्तृत्वं ग्राहकत्वं च परवस्तूनां मया हि स्वरूपभ्रष्टेनेदं विहितं, सांप्रतं जिनागमाखनेन जातस्वपर विवेकेन तेषु रमणास्वादनं न युक्तम् । इति विचार्य स्वरूपानं तस्वभावगुणपर्यायस्याद्वादानंतात्मनि विश्रां
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ज्ञानमंजरी टीका.
तिं प्राप्तः, आत्मानंतानंदसंपन्नमयं ज्ञात्वा, परमात्मसत्तास्वरूपे मग्नो भवति, स मग्नः अभिधीयत इति ॥१॥
य आत्मानुभवमग्नः स कीहम् भवति तदाहयस्य ज्ञानसुधासिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तरसज्जार-स्तस्य हालाहलोपमः ॥२॥
यस्येति । यस्य जीवस्य अनादिविभावविरतस्य ज्ञानसुधासिंधौ परब्रह्मणि ज्ञानामृतसमुद्रूपे परमात्मसमाधौ मनस्य तस्य जीवस्य विषयांतरे वर्णगंधादौ संचारः प्रवर्तनं हालाहलोपमः महाविषभक्षणतुल्यः । यो हि अमृतस्वादमग्नः स विषमषिषं भोक्तुं कथं प्रवर्तते ? मालतीभोगमलो मधुकरः करीरादिषु न वसति, एवं शुद्धनिःसंगनिरामयनिद्वस्वीयात्मज्योतिर्मना अनंतजीवेष्टेषु स्वयं अनंतवारभुक्तमुक्तेषु, वस्तुतः अभोग्येषु स्वगुणावरणहेतु मूतेषु विषयेषु, तस्य मनो न संचरति न प्रतते, इति तत्त्वम्॥२॥
पुनस्तदेवं द्योतयति-- स्वभावसुखमनस्य, जमासस्वावलोकिनः। कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ॥३॥
स्वभावसुख० इति । 'स्वभावं' सहजं सुखं सहजात्यंतिकैकांतानंदं तत्र ‘मनस्य' तन्मयस्य, 'जगलू लोकः तस्य तत्त्वं तफर्म, यथार्थतया विलोकिनः दर्शनशीलस्य पुरुषस्य, अन्यभावानां परभावानां रागादिविभावानां ज्ञानावरणादिकर्मणां बाह्यस्कंधादाननिक्षेपानां कर्तृत्वं न, किंतु ज्ञायकस्वभावत्वात् साक्षित्वमेव, तत्र कर्तृत्वं एकाधिपत्ये क्रियाकारित्वं, तत्, जीवे जीव
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गुणानामेव, चेतनवीर्योपकरणकारकचक्रोपकरणेन । यतो हि एकाधिपत्यक्रियाशून्यत्वेन धर्मादिद्रव्येषु न कर्तृत्वं, जीवस्यापि कर्तृत्वं स्क्कार्यस्य । नहि जीवः कोऽपि जगत्कर्ता, किंतु स्वकार्यपरिणामिकगुणपर्यायप्रवृत्तेरेव कर्ता, न परभावानां तु कर्तृत्वे असदारोपसिध्ध्यभावादयो दोषाः ज्ञातलोकालोकस्य, अत एव नायं परभावानां कर्ता, किंतु स्वभावमूढोऽशुद्धपरिणतिपरिणतः। अशुद्धनिश्चयेन रागादिविभावस्य, अशुद्धव्यवहारेण ज्ञानावरणादिकर्मणां कर्ता जातोऽपि स एव सहजसुखरुचिरनन्ताविनाशिस्वरूपसुखमयमात्मानं ज्ञात्वाऽऽत्मीयपरमानंदभोगी, न परभावानां कर्ता भवति, किंतु ज्ञायक एव अत्र प्रस्तावना । अयं हि आत्मा स्वनिःसपनसङ्गाङ्गितया स्वीयविशेषस्वभावानां सगुणकरणेन सत्प्रवृत्तिमतामपि स्वमुणकरणावरणेन ज्ञानचेतनावीर्यादिक्षयोपशमानां च परामुयायिनां तत्सहकारेण कर्तृत्वादिपरिणामानां परकर्तृत्वादिविभावपस्थिमनेन पस्कर्तृत्वे जातेऽपि तेषामेव मुणानां · स्वभावसम्मुखीभवने कर्तृत्वादीनां परावृत्तिः, सेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणते स्वरूपसाधमकर्तृत्वादि कुर्वन् , गुणकरणैः पूर्णैः साधनकर्तृत्वं विधाय गुणप्रवृत्तिरूपं शुद्धं कर्तृत्वादिकं करोति । अत एव साधकानां सन्मुनीनां स्वरूपसन्मुखानां न परभावकर्तृत्वं इति, किंतु ज्ञायकत्वमेव । अत्र पक्षः-तर्हि-मुनीनां .परभावाकर्तृत्वे - हेनुद्वयजत्यकमकर्तृता कुतः ? तबाह स्वस्वभावमग्नानां साधकमुनीनां अनमिसंधिजवीर्यतदभुगतचेतनया कर्मबंधकर्तृत्वमस्ति, तथापि स्वायत्ताभिगुणप्रवृत्तीनां स्वभावामुगलत्वात् अकर्तृत्वं, अथवा एवंभूसिसिद्धत्वास्वादानंदमनानां तु न परभावकर्तृता । अथवा सम्यगदर्शनादिगुणमाप्तौ बरसस्वरूपविवरणेन स्वरूपानुगतस्वशक्तित्वेन
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आत्मनः परभावकर्तृत्वं नास्त्येव । ज्ञायकत्वमेवेति । अतः स्वरूपरसिकानां सर्वभावज्ञायकत्वं कर्तृत्वं स्वपरिणामिकभावस्य । अतः स्वात्मानं एकांते निवेश्य, अनादिनांतिजं परभावकर्तृत्वभोकृत्व-ग्राहकत्वादिकं निवारणीयम् , अखंडानंदकर्तृत्वादिकंकरणीयं इति गाथार्थः ॥३॥ परब्रह्मणि मनस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा। कामी चामीकरोन्मादाः,स्फारा दारादराःक्क च?॥४
परब्रह्मणीति । परब्रह्मणि परमात्मनि मनस्य तन्मयस्य स्वरूपावलोकनरमणरक्तस्य, पौगलिकी पुद्गलसंबंधिनी, कथा नाम वार्ता, 'श्लथा' शिथिला इत्यर्थः । परत्वेन अग्राह्यत्वेन अमोग्यत्वेन निर्धारात् यस्य कथापि श्लथा तस्य ग्रहः कुतो भवति ?। अत एव अमी चामीकरोन्मादाः तस्य व शुद्धात्मगुणसंपद्वतां चामीकरग्रह एव न परत्वात् , पापस्थानहेतुत्वात् कुत उन्मादः ? । च पुनः स्फारा देदीप्यमाना दारा वनिता तस्या आदराः क ? इति कुतः, नैवेति । स्वभावसुखभोगिनां पौद्गलिकभोग एव न, तर्हि मोघा कुरागपटी अशुद्धविभावनटी दाराकटी; तत्रादरः कथं भवति ? नैवेति । इति गाथार्थः ॥ ४॥ तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्पादैः, सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥५॥
तेजोलेश्या इति । तेजलेश्या चित्तसुखलाभलक्षणा ज्ञानानंदास्वादाश्लेषरूपा तस्या विवृद्धिः विशेषतः वर्षना, साधोः निग्रंथस्य, पर्यायवृद्धितः चारित्रपर्यायविवृद्धितः, भगवत्पादैः भान
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पिता उक्ता, भगवत्यादौ पंचमाङ्गे सा निर्मलसुखास्वादरूपा, इत्थंभूतस्य आत्मज्ञानमग्नस्य रत्नत्रयैकत्वलीलामयस्य वाचंयमस्य युज्यते घटते, नान्यस्य मंदसंवेगिनः । अत्र प्रस्तावना तत्र प्रथमं संयमस्वरूपमुच्यते-आत्मनि चारित्रनामगुणः अनंतपर्यायोपेतानंताविभागरूपः आस्ति । तथा च विशेषावश्यके दानादिलब्धिपंचकं चारित्रं सिमस्यापि इच्छंति तदावरणस्य तत्राप्यभावात्, आवरणाभावे च तदसत्वे क्षीणमोहादिष्वपि तदसत्वप्रसंगात्। ततस्तन्मते चारित्रादिनां सिद्धयवस्थायां सद्भावः । चारित्रं च चारित्रमोहावृतं तच्च तत्त्वश्रमासम्यग्ज्ञानपूर्णानंदेहाऽऽविर्भावपश्चात्तापादिक्षयोपशमावस्थागतं च चारित्रमोहपुद्गलेषु उदयप्राप्तेषु भुक्तेषु, अनुदितेषु विष्कंमितेषु, केषांचित् प्रदेशभोगितां नीतेषु चारित्रगुणविभागानां आविर्भावो भवति, तत्र सर्वजघन्यसंयमस्थाने सर्वाकाशप्रदेशानंतगुणतुल्यचारित्रपर्यायमाग्भावः प्रथम संयमस्थानं । "ते कित्तिया पएसा? सवागासस्स मग्गणा होइ । ते तित्तिया पएसा अविभागाओ अणंतगुणा॥१॥
प्रथमं संयमस्थानं सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धस्थानतः अनंतगुणविशुद्धं, द्वितीयं संयमस्थानं प्रथमस्थानात् अनंततमे भागे यावन्तः अविभागाः तावंतः अविभागवृद्धौ भवन्ति, एवं तृतीयं, एवं चतुर्थ, एवं अनंतभागवृद्धया अंगुलमात्राकाशक्षेत्रस्य अंगुलासंख्यभागाकाशप्रदेशप्रमाणसमानि स्थानानि भवन्ति, इदं प्रथमं कंडकं । ततः परं असंख्यातभागवृद्धिरूपं द्वितीयं कंडकं । प्रथमं संयमस्थानं प्रथमं । कंडकं । चरमसंयमस्थाने तातो विभागाः तेषां असंख्याततमे भागे यावंतः अविभा
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ज्ञानमंजरी टीका.
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गास्तावंतोऽधिकाः क्षयोपशमा भवन्ति, तद्वितीये कंडके प्रथम संयमस्थानं, ततः असंख्येयानि स्थानानि अनंतभागवृद्धिरूपाणि असंख्यभागप्रदेशराशिप्रमाणानि द्वितीयं कंडकं । ततः परं एकं असंख्यातभागवृद्धिरूपं पुनः असंख्येयानि अनंतभागवृद्धिरूपाणि तृतीयं कंडकं । तत एकं असंख्यातभागवृद्धिरूपं एवं अनन्तभागांतरितांगुलासंख्येयभागमात्रं असंख्यभागवृद्धिरूपं अंगुलासंख्येयभागकंडकमानस्थानरूपं द्वितीयं स्थानं । ततः संख्यातभागवृद्धिरूपं प्रथम संयमस्थानं । ततः पुनः अनंतभागवृद्धिरूपाणि असंख्येयानि, ततः पुनः एकं असंख्यभागवृद्धिरूपं ततः असंख्येयानि अनंतभागवृद्धिरूपाणि एवं अंगुलमात्रक्षेत्रासंख्यभागप्रदेशमानकंडकेषु गतेषु एकं संख्यातभागवृद्धिरूपं स्थानं, एवं अंगुलासंख्येयभागतुल्यानि संख्येयभागवृधिस्थानानि गतानि एवं संख्यातगुणवृद्धि-असंख्यातगुणवृद्धि-अनंतगुणवृद्धिरूपाणि असंख्येयानि संयमस्थानानि भवति । ततः परं स्थानमसंख्येयगुणसंयमस्थानमानं भवति । एकांतरं तानि असंख्येयानि अनंतभागवृधिरूपाणि संयमस्थानानि भवंति । सर्वसंयमस्थानसंख्या लोकसमानाः अलोके असंख्येयालोकाकाशाः कल्प्यते, तावत्मदेशराशितुल्यानि संयमस्थानानि भवन्ति उत्तरोत्तरनिर्मलानि । आदितः अनुक्रमसंयमस्थानारोही नियमात् शिवपदं लभते । प्रथमं एवं उत्कृष्टमध्यमसंयमस्थानारोही नियमात् पतति । एवं प्रथमस्थानतः अनुक्रमेण संयमक्षयोपशमी तस्य चारित्रपर्यायनिर्मलत्वेन चारित्रसुखस्वरूपं भगवतीवाक्यं आलापश्च भगवत्यां"जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरति एएण कस्स तेउल्लेस वितीवयंति ? गोयमा ! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेउल्लेसं वितीवयंति। दुमासपरिआए समणे
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ज्ञानमंजरी टीका.
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णिग्गंथे असुरिंदवज्जिआणं भवणवासीणं तेउल्लेसं वितीवयंति । एएणं अभिलावेणं तिमासपरिआए समणे निग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेउल्लेसं वितीवयंति । चउमासपरिआए गहगणणक्खत्तताराख्वाणं जोइसिआणं तेओ- पंचमासपरिआए चंदिमसूरियाणं जोइसियाण तेउल्लेसं-। छम्मासपरिआए सोहम्मीसाणाणं तेउ। सत्तमासपरिआए सणंकुमारमाहिंदाणं-। अट्टमासपरिआए बंभलोगाणलंतगाणं तेउल्लेसं-। णयमासपरिआए महामुक्कसहस्साराणं देवाणं- दसमासपरिआए आणय-पायण आरणच्चूयाणं देवाणं- इक्कारसमासपरिआए गेविजविमाणाणं देवाणं । बारमासपरिआए समणे निग्गंथे. अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेउलेसं वितीवयंति, तेणे परं सुक्क सुक्कामिजाइए भवइ ।' तउ पछा सिज्झन्ति । जाव अंतं करेति । सेवं भंते! टीकायां लेश्यापक्रमादिदमाह-'जेइमे इत्यादि, ये इमे प्रत्यक्षा 'अज्जत्ताएत्ति, आर्यतया पापकर्मबहिर्भूततया, अद्यतया अधुनातनतया, वर्तमानकालतया इत्यर्थः । 'तेउलेसति' तेजोलेश्या सुखासिका, तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं, सा च-सुखासिका हेतुरिति कारणे कार्योपचारात् तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्ष्यते, 'वतीईवयंति' व्यतिव्रति व्यतिकामति । 'असुरिंदवज्जियाणंति' चमरबलिवर्जितानां 'तेणपरं' ततः परं, ततः संवत्सरात्परतः, 'सुक्केति' शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी, कृतज्ञः, सदारंभी, हितानुबंधी, निरतिचारचरण इत्यन्ये, सुक्काभिजातित्ति शुक्लाभिजायं परमशक्लमित्यर्थ, अत एवोक्तं आकिंचन्यं, मुख्यं ब्रह्मातिपरं, सदागमं विशुद्धं सर्वशुक्लमिदं खलु नियमात् , संवत्सरादूर्व, एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रियोच्यते, न पुनः सर्व एवंविधो भवति, अत्र मासपर्यायेति । संयमश्रेणिगतसंयमस्थानानां मासादिपर्यायगत
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ज्ञानमंजरी टीका.
संयमभावोल्लंघनेन तत्प्रमाणसंयमस्थानोल्लंघी मुनिर्ग्राह्य इति । अत्र परंपरासंप्रदायः, जघन्यतः उत्कृष्टं यावत् असंख्येयलोकाकाशपमागेषु संयमस्थानेषु क्रमाक्रमवर्तिनिग्रेथेषु मासतः द्वादशमाससंयमप्रमाणसंयमस्थानोल्लंघनोपरितने वर्तमानः साधुरीहर देवतातुल्यं सुखं अतिक्रम्य वर्तते इति ज्ञेयम् । उक्तं च-- "मासादिपर्यायवृद्ध्या, द्वादशभिः परं तेजः। प्राप्नोति चारित्री सर्वदेवेभ्य उत्तमम् ॥१॥"
धर्मविदस्तेजस्विनःसुखलाभक्षणं वृत्तौ । इत्येवं आत्मसुखवृद्धिः आत्मज्ञानमनस्य भवति ॥५॥ ज्ञानमग्नस्य यच्छम, तद्वक्तुं नैव शक्यते । नोपमेयं प्रियाश्लेषै-नापि तच्चन्दनद्रवैः ॥६॥ ___ व्या०-ज्ञानमग्नस्यति 'ज्ञानमग्नस्य, आत्मसुखोपलब्धियुक्तस्य 'यत् शर्म, सुखं, स्पर्शज्ञानानुभवानंदं तत् वक्तुं नैव शक्यते, अतींद्रियत्वात् वागगोचरत्वात् , तद् अध्यात्मसुखं प्रिया मनोज्ञेष्टवनिता तस्या 'आश्लेषैः, आलिंगनैः, तथा चंदनद्रवैः चंदनविलेपन!पमीयते । यतः स्रक्चंदनादिजं सुखं वस्तुतः न सुखं, आत्मसुखप्रष्टैः सुखबुद्धया आरोपितं, लोके पुद्गलसंयोगजं आरोपसुखं जात्या दुःखमेव । उक्तं च विशेषावश्यके-- "जत्तो चिअपञ्चक्ख, सोम्म! सुहं नस्थि दुक्खमेवेदं । तप्पडियारविभत्तं, तो पुण्णफलं ति दुकं ति॥१॥ विसयसुहं दुकं चिय दुक्खं पडियारओतिगिच्छ व । तं सुहमुवयाराओ न उवयारो विणा तच्चं ॥२॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२०५
*सायासायं दुक्खं, तविरहम्मि य सुहं जओ तेणं । देहें दिए दुक्खं, सुक्खं देहिंदियाभावे ॥ ३ ॥
उक्तं च-
यं वाक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा,
क्लिश्नाति लब्धपरिपालनदृष्टिरेव ।
नातिश्रमापगमनाय यथा श्रमाय, राज्यं स्वहस्तधृत दंडमिवातपत्रम् ॥ १ ॥ इति ॥ तस्मात् संसारः सर्वदुःखरूप एव । स्वाभाविकानंद एव मुखं, यावत् इंद्रियसुखे सुखबुद्धिः तावत् सम्यग्दर्शनज्ञाने न मग्नः, इति तत्वार्थवृत्तौ, अतः अध्यात्मसुखं पुद्गलाऽऽश्लेषजसुखेन नोपमीयते ॥ ६ ॥ रामशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथा । किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नता ? ॥ ७ ॥
व्या०--- 'शमशैत्यपुष इति, शम उपशमः रागद्वेषाभावः, तवास्वादकत्वं आत्मनि निर्धार्य इष्टानिष्टे वस्तुनि रागादीनां शांतिः, नहि रागादयो वस्तुपरिणामाः किन्तु विभावजा अशुद्धा * यत एव प्रत्यक्षं सौम्य ! सुखं नास्ति दुःखमेवेदम् । तत्प्रतीकार विभक्तं ततः पुण्यफलमिति दुःखमिति ॥ १ ॥ विषयसुखं दुःखमेव दुःखप्रतीकार तश्चिकित्सेव । तत् सुखमुपचाराद् नोपचारो विना तथ्यम् || २ || सातासातं दुःखं तद्विरहे च सुखं यतस्तेन । देहेन्द्रियेषु दुःखं सौख्यं देहेन्द्रियाभावे ॥ ३ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
प्रांतिपरिणतिः, नहि पुद्गलादीनां शुभाशुभपरिणतिः कस्यापि जीवस्य निमित्ता, किन्तु पूर्णगलनपारिणामिकत्वेन । अथ वर्णादिकर्मविपाकाद्वा तत्र रागद्वेषकृता तु प्रांतिरेव उक्तं चकणगो लोहोन भणइ, रागो दोसो कुणंतु मण्झनुमं। नियतत्तविलुत्ताणं, एस अणाईअ परिणामो॥१॥
स्वरूपस्य स्वायत्तत्वात् स्वभोग्यत्वात् परवस्तुसंयोगवियोगाभ्यामिष्टानिष्टतोपाधिः । एवं शमस्य शैत्यं शीतलत्वं अततत्वं, तस्य 'पुषः' पोषकस्य यस्य पुरुषस्य शमशैत्यपुषः विषुषः बिंदुमावस्यापि महाकथा महावार्ता, शमशैत्यबिंदुरपि दुर्लभः यस्य ज्ञानपीयूषे तत्त्वज्ञानामृते सर्वांगमग्नता तब तस्मिन् स्थाने किं स्तुमः किं वर्णयामः ? तस्य वर्णनं कर्तुं असमर्था वयमिति । यो हि स्वरूपज्ञानानुभवः स अतिप्रशस्यः । उक्तं च"लब्भइ सुरसामित्तं, लब्भइ पहुअत्तणं न संदेहो । इक्को नवरिन लब्भइ,जिणिन्दवरदसिओ धम्मो॥१॥ धम्मो पवित्तिरूवो,लब्भइ कइयाविनिरयदुक्खभया। जो नियवत्थुसहावो, सो धम्मो दुल्लहो लोए ॥२॥ निअवत्थुधम्मसवणं, दुलहं वुत्तं जिणिंदिआण सुहं । तप्फासणमेगत्तं, हुति केसिं च धीराणं ॥३॥
अतः वस्तुस्वरूपधर्मस्पर्शनेन परमशीतीभूतानां परमपूज्यत्वमेव ॥ ७ ॥ यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिः, गिरः शमसुधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञान-ध्यानमग्नाय योगिने ॥ ८॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
व्या० - 'यस्येति' तस्मै शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने नमः, शुभं नाम शुद्धं यथार्थपरिच्छेदनं, भेदज्ञानविभक्तस्वपरत्वेन स्वस्वरूपैकत्वानुभवः, तन्मयत्वं व्यानं तत्र मम्नाय तस्मै योगिने मनोवाक्कायरोकाय, रत्नत्रयाभ्यासशुद्धसाध्यसंसाधकाय नमः । कस्य ? यस्य दृष्टि: कृपावृष्टिः परमकरुणावर्षिणी, यस्य गिरः वाचां समूहः शमसुधाकिरः क्रोधादित्यागः शमः, स एव सुधा अमृतं, तस्याः किरः किरणं सेचनं । ( यस्य ) तच्छीला दृष्टिः कृपामयी वाक् शमतामृतमयी, तस्मै योगिने नमः इति अत्र भावना - अनादिमिथ्यात्वासंयमकषाययोगचापल्यविध्वस्तात्मस्वभावानां, इष्टानिष्टपरभावग्रहणाग्रहणरसिकत्वेन तत्प्राप्यप्राप्तौ रत्यरत्यशुद्धाव्यवसायमग्नानां, जीवानां कुतः स्वरूपमग्नता ?, अतः शंकाद्यतिचारवियुक्तावाप्तदर्शनो हि जीवः, शुद्धाशयः, त्रिभुवनमप्युपहतमोहमहेंधनज्वलित कर्मदहनक्कथ्यमानमशरणमवलोक्य गुणावरणार दुःखोद्रिग्नः, निर्धारिततत्वश्रद्धानः, आस्रवनिवृत्तिसंवैरैकत्वप्रतिज्ञामारा दृढीकरणार्थ, पंचविंशतिभावनाभावितांतरा - त्मा, द्वादशानुप्रेक्षास्थिरीकृताध्यवसायः, पूर्वकर्मनिर्जरामिनवाग्रहणाविर्भावभूतस्वरूपसंपदानुभवमग्नाः सुखिनः, अत एवागमश्रवणविभावविरतितत्वावलोकनतत्वैकाग्रतादि-उपायैः स्वरूपानुभवमग्नत्वं एवं कार्य, संसारे कर्मक्लेशसततत्वमवगम्य संसारोद्विनेन विरागमार्गानुगप्रवर्त्तिना आत्मस्वरूपाविर्भावहेतुषु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्त्तितव्यमित्यर्थः ॥ ८ ॥ ॥ इति व्याख्यातं मग्नाष्टकम् ॥
॥ अथ तृतीयं स्थिरताष्टकम् ||
अथ मनत्वं स्थिरतया भवति, अतः स्थिरताष्टकं प्रद
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ज्ञानमंजरी टीका.
श्यते, तत्र धर्मास्तिकायादीनां त्रयाणां स्थिरता अक्रियत्वात् , पुद्गलानां स्थिरता स्कंधादिनिबझा, सा तु न साधनहेतुः, अत्र नांगीकृता, या तु वस्तुवृत्त्या स्थिरस्य, परोपाधितः चलीभूतस्य, सम्यग्दर्शनादिगुणावाप्तौ परभावादिष्वगमनरूपा आत्मनः स्थिरता प्रतन्यते, तत्र नामस्थापना सुगमा, द्रव्यतः योगचेष्टारोधरूपा, द्रव्ये स्थिरता मम्मणवत् , द्रव्येण स्थिरता रोगादिसंभवा, द्रव्यरूपा स्थिरता द्रव्यस्थिरता, आगमतःनोआगमतः, आगमतः स्थिरतापदार्थज्ञस्य अनुपयुक्तस्य, नो आगमतः स्वरूपोपयोगशून्यस्य साध्यविकलस्य, प्राणायामादिषु पायोत्सर्गादिर्वा द्रव्यस्थिरता । भावतो द्विविधा अशुद्धा रागद्वेषमनोज्ञविषयेषु तन्मयत्वेन एकता, शुद्धा च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिस्वरूपे तन्मयत्वरूपा, धर्मव्यानशुक्लध्यानादिषु अचलताभावस्थिरता, शुद्धसाध्यशून्या योगादीनां स्थिरता सा दुर्नयरूपा, या तु साध्यवार्त्तया साध्यनिष्पादनपरिणतिविकला नयाभासरूपा, या तु-साध्यामिलापसाध्योद्यमपरिणत्या कारणभूता योगादीनां द्रव्याश्रवात्यागरूपा स्थिरता सा आद्यनयचतुष्टयरूपा, या तुसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रण स्वरूपसाधनसाध्यनिष्पादनाम्यासवती स्थिरता सा शब्दनयस्थिरता, या तु-धर्मशुक्लध्यानगतस्वरूपाप्रच्युतिपरिणतिरूपा सममिरूढनयस्थिरता, या तु क्षायिकदर्शनज्ञानचारित्रवीर्यसुखादिभ्यः अप्रच्युतिरूपा सा एवंभूतस्थिरता, विभावेऽपि सर्वनयरूपा स्थिरता तत्त्वविकल्पानामिष्यते, तथापिअत्र परमानंदसंदोहभोगरूपसिद्धत्वसाधनरूपा स्वभावस्थिरतास्तस्या एवाऽवसरस्ततः सा एव व्याख्यायते । अनाद्यशुद्धतामग्नः स्वरूपसुखाप्राप्तौ इंद्रियसुखेच्छया चंचलोऽयं जीवः तस्य करुपाया गुरुवक्ति ।
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ज्ञानमंजरी टीका.
वत्स! किं चन्चलस्वान्तो,भ्रान्त्वाभ्रान्त्वा विषीदसि? निधिं स्वसन्निधावेव, स्थिरता दयिष्यति ॥१॥
व्या०-'वत्सेति' हे वत्स ! त्वं चंचलस्वांतः चपलां तःकरणः सन् इत इतो भ्रांत्वा, एकं त्यजन् अन्यं गृह 'आतिदीनः कथं विषीदसि विषादवान् भवसि ? अप्राप्त्या दीनः, प्राप्त्याऽतृप्तः, अत एव परभावे विषाद एव सुखबुझ्या गृहीतस्य स्वयं सुखरूपाभावात् प्राप्तौ अपि न सुखं, अतस्तत्र प्रवृतिर्विषादमूला एव, रे वत्स ! स्वसंनिधौ एव स्वसमीपे एव आत्मनि एव, निधिं स्वगुणसंपभाजनं, तव स्थिरता भेदरत्नत्रयाभेदरत्नत्रयैकत्वरूपा दर्शयिष्यति उपयोगगोचरं करिष्यति, अतः अनादिविषयास्वादचलतां त्यक्त्वा शुद्ध ज्ञानाद्यनंतगुणे शुद्धात्मनि स्थिरत्वं कुरु ॥ १ ॥ ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोभविक्षोभकूर्चकैः । आम्लद्रव्यादिवास्थैर्या-दिति मत्वा स्थिरो भव ॥२॥
व्या०-'ज्ञानदुग्धमिति' लोभविक्षोभकूर्चकैः अस्थैर्यात् ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोभः लोलुपतापरिणामः, इच्छा मूर्छा गृध्नुताऽऽकांक्षा इत्यादि लोभपर्यायाः, परभावामिलाषरूपा अशुइपरिणामाः, त एव कूर्चकाः, तैर्ज्ञानं तत्त्वावबोधत्वैकत्वरूपं, दुग्धमिव दुग्धं, विनश्येत क्षयं लभेत, लोभपरिणाम आत्मस्वरूपानुभवविनाशहेतुः, कस्मादिव ? आम्लद्रव्यादिव, यथा आम्लद्रव्ययोगे पयो विनश्यति, तथा लोभपरिणत्या आत्मस्वरूपसुखं विनश्येत् इति । लोभपरिणामः परभावग्रहणेच्छापरिणामः, आत्मगुणानुभवविध्वंसहेतुः, इति ज्ञात्वा आत्मस्वरूपे 27
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ज्ञानमंजरी टीका,
अखंडानंदरूपे, चित्स्वरूपे, अवर्णागंधारसास्पर्शे, आत्मनि श्रद्धानज्ञानरमणतया स्थिरो भव ॥ २ ॥ अस्थिरे हृदये चित्रा, वाग्नेत्राऽऽकारगोपना। पुंश्चल्या इव कल्याण-कारिणी ग प्रकीर्तिता ॥३॥
व्या०--'अस्थिरे इति' हृदये आस्थिरे सति परभावाभिलाषिणि चित्ते सति, चित्रा अनेकाकारा वाङ्नेत्राचाकारगोपना द्रव्यक्रियारूपा, पुंश्चली इव असती स्त्री इव कल्याणकारिणी न प्रकीर्तिता हितकारिणी न मता, जैनानां द्रव्यक्रिया भावधर्मयुता भावाभिलाषिणी एव प्रशस्या, भावधर्मरहिता तुमार्जारसंयमतुल्या, तत्त्वार्थे द्रव्यक्रिया केषांचित् परंपरया धर्महेतुतया जाता, सा तु-देवादिसुखेहलोकयशोऽभिलापरहितानां एव, न तु लोकसंज्ञारूढानां, अतः तत्त्वस्वरूपामिमुखीमय मन आत्मधर्मैकत्वं विधाय चित्तस्थिरतापूर्वकं स्थैर्य करणीयम् । इति गाथार्थः ॥३॥ अन्तर्गतं महाशल्य-मस्थैर्य यदि नोद्धृतम् । क्रियोषधस्य को दोष-स्तदा गुणमयच्छतः॥४॥
___ व्या०-'अन्तर्गतमिति' अंतर्गतं अभ्यंतरं महाशल्यं महत् शल्यरूपं परभावानुयायि, परभावानुगतवेतनावीर्यपरिणतिरूपं, अस्थैर्य आस्थिरत्वं, अतश्चापल्यं आत्मपरिणतीनां स्वस्वकार्याकरणे परभावोन्मुखप्रवर्त्तनरूपं अस्थैर्य, यदि न उद्धृतं न वारितं तदा क्रियौषधस्य को दोषः ? न कोपीत्यर्थः, कथंभूतस्य क्रियौषधस्य ? गुणं स्वात्मस्वभावाविर्भावरूपं अयच्छतः अददतः, क्रिया हि वृत्तिरूपा, भावपरिणतिस्तु आत्मगुणशुद्धिरूपा, अन्तः
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ज्ञानमंजरी टीका.
२११
mmarrrrrrrrruaran
inwwmanarmed
शल्ये सति क्रियौषधेन नो रोगापगमः, अत आभ्यंतरं परानुयायिता-परकर्तृता-परब्यापकतारूपं शल्यं निवारणीयमिति ॥४॥ स्थिरता वाङ्मनःकायै-र्येषामङ्गाङ्गितां गता। योगिनः समशीलास्ते, ग्रानेऽरण्ये दिवा निशि ॥५॥ ___ व्या-'स्थिरता इति' येषां प्राणिनां वाङ्मनःकायैर्वचनमनःकाययोगैः, स्थिरता आत्मगुणनिर्झरभासनरमणैकत्वरूपा अङ्गाङ्गितां तन्मयतां गता प्राप्ता, ते योगिनो मुनीश्वराः, समशीलाः समस्वभावाः, स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र-स्वकाल-स्वभावरूपस्वात्मस्वभावतोऽन्यत् परद्रव्ये परत्वरूप समत्वेन ज्ञानात् स्वात्मनः सकाशात् यदन्यत् तत्सर्वं भिन्नं इति समत्वं येषां निष्पन्नं तेषां 'ग्रामे' जनसमूहलक्षणे 'अरण्ये' निर्जने 'तुल्यत्वं' इष्टानिष्टताऽभावः 'दिवा वासरे' निशि रात्रौ समत्वं तुल्यपरिणतिः अरक्तद्विष्टतारूपा समपरिणतिर्भवति ॥ ५॥ स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चेद्, दीप्रः सङ्कल्पदीपजैः। तढिकल्पैरलं धूमै-रलंधूमैस्तथाऽऽस्त्रवैः॥६॥ ___ व्या.--'स्थैर्यरत्नेति' यस्य पुरुषस्य 'चेत्' यदि 'स्थैर्यरनप्रदीपः, स्थिरतारू परखदीपकः 'दीप्रः' देदीप्यमानः तत् तदा संकल्पजैः विकल्पैः धूमैः अलं सृतं, परचिंताऽनुगाऽशुद्धचापल्यरूपः संकल्पः, पुनः पुनः तत्स्मरणरूपो विकल्पः सङ्कल्पविकल्परूपधुमैः अलं सतं, यस्य स्वरूपैकत्वरूपा स्थिरता भासते तस्य सङ्कल्पविकल्पा न भवन्ति, यद्यपि निर्विकल्पसमाधिः अमेदरलयकाले, तथा; स्वरूपलीनानां सांसारिकसङ्कल्पविकल्पा. भावः, तथा 'अलंधूमः' असंतधूमैः मलिनैः आस्रवैः अपि अल
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ज्ञानमंजरी टीका.
सृतं अतः सङ्कल्पविकल्परूपचलपरिणतिमपहाय द्रव्यभावप्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरूपैरास्रवैः सृतं, यो हि आत्मसमाधिरतः स्वस्वभावस्थिरः तस्य आस्रवाः कुत इति ? यत आत्मनः स्वधर्मकर्तृत्वयथार्थभासनस्वरूपग्राहकत्वस्वगुणभोक्तृत्वस्वस्वभावरक्षकत्वपरिणतस्य न आस्रवाः, एतेषां स्वभावानां परभावपरिणतानां आस्रवाः स्वरूपभ्रांतिरेव, स्वपरिणतीः परकर्तृत्वेन परिणमयति, यदा तु अस्य स्वरूपावबोधः स्वकार्यकारणनिर्धारो जातस्तदा स्वपरिणतीः स्वकार्यकारणे एव व्यापारयति न परकर्तृत्वे, कारकचक्रमपि स्वरूपमूढे च परकर्तृत्वादिव्यापारेण अशुद्धीकृतं यदा अनेन स्वपरविवेकेन अहं अहं, परः परः, नाऽहं परकर्ता भोक्ता एवं लब्धविवेकः स्वकारकचक्रं स्वकार्यकरणे व्यापारयति; आत्मा आत्मानं, आत्मा आत्मने, आत्मन आत्मनि प्रवर्त्तयति इति स्वरूपं एवं स्वरूपपरिणतानां आस्रवा न भवंति ॥ ६ ॥ उदीरयिष्यसि स्वान्ता-दस्थैर्यपवनं यदि । समाधिधर्ममेघस्य, घटां विघटयिष्यसि ॥७॥
व्या०--'उदीरयिष्यसि इति' यदि 'स्वान्तात्' अन्तःकरणात् अस्थैर्यपवनं त्वं उदीरयिष्यसि अस्थिरतामारुतं यदा प्रवतयिष्यसि तदा समाधेः, स्वरूपार्थविश्रान्तिरूपधर्ममेघस्य घटां 'विघटयिष्यसि’ दूरीकरिष्यसि इति, अस्थिरस्य समाधिध्वंसो भवति अत आत्मधर्मविषये स्थिरता करणीया ॥ ७ ॥ चारित्रं स्थिरतारूप-मेतत्सिद्धेष्वपीष्यते ।। यतन्तां यतयोऽवश्य-मस्या एव प्रसिद्धये ॥८॥ . व्या०--'चारित्रमितिः अतः कारणात् सिद्धेष्वपि सकलकर्म
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ज्ञानमंजरी टीका.
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मलमुक्तेष्वपि स्थिरतारूपं चारित्रं इष्यते, पंचमाङ्गे सिद्धानां चारित्राभाव उक्तः, स च - क्रियाव्यापाररूपः, यस्तु स्थिरतारूपः सच-वस्तुधर्मत्वात् अस्त्येवेति, प्रज्ञापना- तत्त्वार्थ-विशेषावश्यकादिषु व्यक्तं व्याख्यातत्वात्, आवरणाभावे आवर्यस्य प्रागभावात् विगतचारित्रमोहस्य चारित्रप्रकटनात्, सिद्धानामपि स्थिरतारूपं चारित्रं, अतः स्थिरता साधनीया प्रथमं सम्यग्दर्शनेन श्रद्धास्थिरतां कृत्वा सद्भासनस्वरूपविश्रान्तिस्वरूपैकाग्रतारूपां स्थिरतां कृत्वा समस्तगुणपर्यायाणां स्वकार्यप्रवृत्तिरूपां स्थिरतां निष्पाद्य, समस्तात्मपरिणतिनिःसङ्गरूपां परमां स्थिरतां निष्पादयति, अतः समस्तचापल्यरोधेन योगस्थिरतां कृत्वा उपयोगस्थिरत्वेन स्वरूपकर्तृत्व-स्वरूपरमणत्व-स्वरूपभोक्तृत्वरूपं स्थिरत्वं साध्यं, तस्मात् स्थिरत्वसाधने यत्नः करणीय इत्युपदेशः || ८ ||
॥ इति व्याख्यातं स्थिरताष्टकम् ॥
॥ अथ चतुर्थी मोहत्यागाष्टकम् ॥
अथ स्थिरता मोहत्यागाद् भवति, आत्मनः परिणतिचा - पल्यं मोहोदयात्, मोहोदयश्च निर्धाररूपसम्यग्दर्शनस्वरूपरमणचारित्रवारकश्च क्षयोपशमी चेतनावीर्यादीनां विपर्यासपररमणतप्तत्वादिपरिणमनरूप इति, तेन चापल्यं, अतो मोहोदयवारणेन स्थिरता भवति, तेन त्यागाष्टकं वितन्यते, नामस्थापनामोहः सुगमः, द्रव्येण मदिरापानादिना मोहो मूढतापरिणामः, द्रव्याद् धनस्वजनवियोगात्, द्रव्ये शरीरपरिग्रहादौ द्रव्यरूपो मोहः, मोहनगीतादिषु गन्धर्वादीनां वाक्येषु, अनुपयुक्तस्य अगमनो नोआगमतो रागवत् । भावतो मोहः अप्रशस्तः, समस्तपाप
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स्थानहेतुपरव्येषु, कुदेवकुगुरुकुधर्मेषु; प्रशस्तो मोक्षमार्गे, सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्रतपोहेतुषु सुदेवगुर्वादिषु । तत्र मोहत्याग उत्सर्जनं, भिन्नीकरणं, अत्र यावान् अप्रशस्तमोहस्तावान् सर्वथा त्याज्य एव अशुद्धत्वनिबन्धनत्वात् । प्रशस्तमोहसाधने असाधारणहेतुत्वेन पूर्णतत्त्वनिष्पत्तेः अकि क्रियमाणोऽपि अनुपादेयः। श्रद्धया विभावत्वेनैवावधार्यः। यद्यपि-परावृत्तिस्तथापि अशुद्धपरिणतिरतः साध्ये सर्वमोहपरित्याग एव श्रद्धेय आद्यनयचतुष्टये कर्मवर्गणापुद्गलेषु तद्योगेषु तद्ग्रहणप्रवृत्या सङ्कल्पे कर्मपुद्गलेषु बध्यमानेषु सत्तागतेषु चलोदीरितेषु उदयप्राप्तेषु अशुद्धविभावपरिणामरूपमोहहेतुषु मोहत्वं, शब्दादिनयत्रये मोहपरिणतचेतनापरिणामेषु मिथ्यात्वासंयमप्रशस्ताप्रशस्तरूपेषु मोहत्वं, अत आत्मनः अमिनवकर्महेतुः मोहपरिणामः, मोहेनैव जगद् बर्फ मोहमूढा एवं प्रमन्ति संसारे, यतो ज्ञानादिगुणसुखरोधकेषु च तेषु अनन्तवारं अनन्तजीवैर्भुक्तमुक्तेषु जडेषु अग्राह्येषु पुद्गलेषु मनोज्ञाऽमनोज्ञेषु ग्रहणाग्रहणरूपो विकल्पो मोहोद्भवः, तेनायं पुद्गलासक्तो मोहपरिणत्या पुद्गलानुभवी स्वरूपानवबोधेन मुग्धः परिप्रमति, अतो मोहत्यागो हितः । उक्तं च । आया नाणसहावी, सदसणसीलो विसुद्धसुहरूको। सो संसारे भमई, एसो दोसो खु मोहस्स ॥१॥ जो उ अमुत्ति अंकत्ता,असंग निम्मल सहावपरिणामी सो कम्मकवय बद्धो, दीणो सो मोहवलगत्ते ॥ २ ॥ ही दुकं आयभवं, मोहन पाणमे सई ।। जस्सुदरेणियभावं, सुध संबंपि नो सरई ॥ ३ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२१५
इत्येवं मोहस्य विजृम्भितं मत्वा त्याज्य इति कथयति - अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नम्पूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥ १ ॥
व्या०-- अहं ममेति- मोहस्यात्माऽशुद्धपरिणामस्य उपचारतो नृपेति संज्ञस्य 'अहं मम इति अयं मन्त्रः 'जगदान्व्यकृत्, ज्ञान चक्षुरोधकः, 'अहमिति, स्वस्वभावेनोन्मादः ' पर ' इत्यन अहंममेति परभावकरणे कर्तृतारूपोऽहङ्कारः, अहं सर्वस्व - पदार्थतो भिन्नेषु पुजीवादिषु इदं ममेति परिणामो ममकारः इत्यनेन 'अहं ममेति' परिणत्या सर्वपरत्वं स्वतया कृतं, एषो युद्धाव्यवसायो मोहजः, मोहोद्योतकश्च शुद्धज्ञानाञ्जनरहितानां जीवानां आन्व्यकृत्, स्वरूपावलोकनशक्तिव्वंसकृत्, 'हीति' निश्चितं अयमेव नञ्पूर्वः 'प्रतिमन्त्रो' विपरीतमन्त्रः 'मोहजित्' मोहजये मन्त्रः तथा च नाऽहं एते ये परे भावा ममापि एते न भ्रांतिः पुषा साम्प्रतं यथार्थपदार्थज्ञानेनाहं पराधिपो न परभावा मम । उक्तं च-
एगो हं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सवि । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासई ॥ १ ॥ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सबै संजोगलक्खणा ॥ २ ॥
संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा | तम्हा संजोग संबंधं, सवं तिविहेण वोसिरे ॥ ३ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
इत्येवं विभाव्य द्रव्यकर्मतनुधनस्वजनेषु भिन्नतां नीतेषु स्वभावैकत्वेन मोहजयो दृष्टः; अतः अहङ्कारममकारत्याग इष्ट इति ॥ १॥ पुनस्तदेव भावयतिशुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम । नान्योऽहं न ममान्ये चे-त्यदो मोहास्त्रमुल्बणम् ॥२॥
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मे
व्या० - शुद्धात्मद्रव्यं इति, शुद्धो निर्मलः सकलपुद्गलाश्लेपरहितो ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याव्याबाधामूर्त्ताद्यनन्तगुणपर्याय नित्याद्यनन्तस्वभावमयः, असंख्यप्रदेशी, स्वभावपरिणामी, स्वरूपकर्त्तृत्वभोक्तृत्वादिधर्मोपेतः, आत्मा शुद्धात्मा, तदेव शुद्धात्मद्रव्यं एव अहं, अनन्तस्याद्वादस्वसत्ताप्रागभावरसिकः, अनवच्छिन्नानन्दपूर्णः परमात्मा परमज्योतीरूपः, अहं शुद्धं निरावरणं सूर्यचंद्रादिसहायविकलप्रकाशं, एकसमये त्रिकालत्रिलोकगतसर्वद्रव्यपययोत्पादव्ययत्रौव्यावबोधकं ज्ञानं मम गुणः कर्त्ता ज्ञानस्य, कार्य ज्ञानं, ज्ञानकरणान्वितो ज्ञानपात्रो ज्ञानात् जानन्, ज्ञानाधारोऽहं ज्ञानमेव मम स्वरूपं इत्यवगच्छन् अन्ये धर्माधर्माकाशपुद्गलस्वतोऽन्यत् जीवपदार्थ: जीवपुद्गलसंयोगजपरिणामः अन्यः सर्वः, अहं न, मत्तो भिन्ना एव एते पूर्वोक्ता भावा मम द्रव्यादिचतुष्टयेन भिन्नत्वात् । यो हि व्याप्यव्यापकभावाद् भिन्नः, स मम न, यः असंख्यप्रदेशे स्वक्षेत्रे अभेदतया स्वपर्यायपरिणामः, स मम इति, स्वस्वरूपे स्वत्वं, परे परत्वपरिणामः, 'मोहास्त्रं' मोहच्छेदकं अस्त्रं ईदृग्भेदज्ञानविभक्तेन मोहक्षयः, अतः सर्वपरभावभिन्नत्वं विधेयं । अत एव निर्ग्रन्थास्त्यजन्ति आस्रवान् श्रयन्ति गुरुचरणान्, वसन्ति वनेषु, उदासीभवन्ति विपाकेषु, अभ्यस्यन्ति आगमव्यूहं, अनादिपरभावच्छेदाय प्रयत्न उत्तमानाम् ॥ २ ॥
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यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु । आकाशमिव पङ्केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥ ३ ॥
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व्या० - यो न मुह्यति इति, यो जीवः तत्त्वविलासी 'औदयिकादिषु भावेषु, शुभाशुभकर्मविपाकेषु आदिशब्दात् परभावानुगक्षयोपशमे अशुद्रपारिणामिकभावग्रहः, तेषु 'लग्नेषु' आत्मनि स्वक्षेत्रीभूतेषु यो न मुह्यति मोहकीभावं न प्राप्नोति, भेदज्ञानविवेकेन त्यक्तपरसंयोगः अवश्योदितेषु यः अव्यापकः स पापेन कर्मणा न लिप्यते । किमिव पङ्केन आकाशमित्र, यथा आकाशस्थपङ्कः आकाशस्य न लेपकृत्, तत्र अपरिणमनात् । एवं शमसंवेगनि वैदनिग्रहीतपरभावस्य अवश्योदयविपाके भुज्यमानेऽपि अव्यापकत्वाद् न लेपः । स हि - पूर्वकर्मनिर्जरारूपं कार्य करोति, स्वीयपरिणामस्य भिन्नरक्षणेन अकर्तृत्वं तस्य परभावानाम् । उक्तं च अध्यात्मबिन्दौ
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स्वत्वेन स्वं परमपि परत्वेन जानन् समस्तान्यद्रव्येभ्यो विरमणमिति यच्चिन्मयत्वं प्रपन्नः । स्वात्मन्येवाभिरतिमुपनयन् स्वात्मशीली स्वदर्शीत्येवं कर्त्ता कथमपि भवेत् कर्मणो नैष जीवः ॥१॥ न कामभोगा समयं उवेंति,
नयावि भोगा विगई उवेंति ।
जे तप्पओसी अ परिग्गही अ सो तेसु मोहा विगई उबेइ ॥ २ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
एवं परंद्रव्येन अरमन् आत्मा मुच्यते अत एव सर्वसङ्गपरिहारोऽसङ्गा हि मुच्यतां निमित्तं मुह्यतां त्यागार्था, तन्निमित्तान् धनस्वजनाङ्गनाभोजनादीन् त्यजति कारणाभावे कार्याभावः, इति भावाश्रेयपरिणतिरोवसंयमः, तद्रक्षणाय वृद्धयर्थं हिताय आश्रवत्यागो मुनीनां, भावना च-यैः परभावा अभोग्या अग्राह्याः कृताः ते कथं तत्र रमन्ते ? ॥३॥ पश्यन्नेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरःस्थोऽपि, नामूढः परिखिद्यति ॥ ४॥
व्या०-पश्यन्नेवेति; स्वरूपाच्युतिस्वधर्मैकत्वे 'अमूढः' तत्त्वज्ञानी, स्वरूपसाधनोद्यतः, 'प्रतिपाटकं' एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियपश्चेन्द्रियरूपपाटके वरतिर्यग्देवनरकलक्षणे सर्वस्थाने परद्व्यनाटकं जन्मजरामरणादिरूपं संस्थाननिर्माणवर्णादिभेदविचित्रं, पश्यन् एव न 'परिखिद्यति' न खेदवान् भवति । जानाति च पुद्गलकर्मविपाकजां चित्रतां, न मत्स्वरूपं प्रान्तानां भवत्येव, न तत्त्वपूर्णानां कथंभूतः ? अमूढः भवचक्रपुरस्थः अपि, अनादिस्वकृतकर्मपरिणामनृपराजधानीचतुर्गतिरूपभवचक्रकोडगतोऽपि, आत्मानं मिन्नं जानन् न खिद्यति, परस्मैपदं तु काव्ये प्रयुक्तत्वात "खिद्यति काव्ये जडः” इति पाठदर्शनात्। इत्यनेन कर्मविपाकचिबतां भुंजन्नपि अखिन्नः तिष्ठति, कर्तृत्वकाले न अरतिःअनादरः तर्हि भोगकाले को द्वेष उदयागतभोगकाले इष्टानिष्टतापरिणतिरेव अमिनवकर्महेतुः, अत अव्यापकतया भवितव्यं, शुभोदयोऽपि आवरणः, अशुभोदयोऽप्यावरणः, गुणावरणत्वेन तुल्यत्वात् का इष्टानिष्टता ? ॥ ४॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२१.९
विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्ताल-प्रपञ्चमधितिष्ठति ॥ ५ ॥
व्या०-विकल्पचषकैरिति, विकल्पाश्चित्तकल्लोला एव चषका मद्यपानपात्राणि तैः, हीति निश्चितं अयं जीवः पीतो मोह एव आसवो मादकरसो येन सः पीतमोहासवः पुरुषो भवोच्चतालं भवः संसारः स एव उच्चतालं मद्यपगोष्टीक्षेत्र प्रति उच्चतालं पुनःपुनः उच्चस्वरेण तालदानरूपं प्रपञ्चं विस्तार अधितिष्ठति प्राप्नोति इत्यनेन मोही जीवो मदिरामत्तवत् चापल्यवैकल्यं करोति पर स्वत्वेन स्वं च परत्वेन कलयन् आत्मानं अकायनिष्पादनपटिष्ट प्रवर्तयन् स्वस्थानभ्रष्टो भ्रमति, अत एव मोहत्यागः श्रेयान् ॥५॥ निर्मलस्फटिकस्येव, सहज रूपमात्मनः। अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो, जडस्तत्र विमुह्यति ॥६॥ __व्या०-निर्मलस्फटिकस्येवेति, निर्मलस्फटिकस्य वरणनिस्सङ्गस्फटिकस्य इव आत्मनो ज्ञायकद्रव्यस्य सहज-स्वाभाविकं शुद्धं रूपं अस्ति इत्यनेन वस्तुवृत्त्या आत्मा स्फटिकवत् निर्मल एवनिस्सङ्ग एव संग्रहनयेन आत्मा परोपाधिसङ्गी एव नास्ति परमज्ञायकचिदानन्दरूपः अध्यास्थोपाधिसम्बन्धः प्राप्तपुद्गलसंसर्गजकर्मोपाधिसम्बन्धः, अनेकग्लानम्लानावस्थो जडः वस्तुस्वरूपापरिज्ञानी तत्र उपाधिभावे मुह्यति, एकत्वं प्राप्नोति, यथा-मूर्खः श्यामनीलपीतादिपुष्पसंयोगात् स्फटिकाभेदरीत्या नीलपीतस्वभावं जानाति तथा वस्तुस्वरूपावबोधविकलो जीवो मिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोगनिमित्ताद् बद्धकेन्द्रियादिनामकर्मोदयात् एकेन्द्रियादिभावमापन्नं एकेन्द्रियादिरूपमेव मन्यते, एकेन्द्रियोऽहं विक
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ज्ञानमंजरी टीका.
लोऽहं पञ्चेद्रियोऽहं जानाति पर शुक्र स्वीयं सच्चिदानन्दरूपं निर्मलं स्वरूपं नावबोधति इति मूर्खतापरिणतिः तत्त्वज्ञः खानिस्थवजं समलं. सावरणं समृदपि रत्नपरीक्षकवत् वज्रत्वेन अवधारयति, एवं ज्ञानावरणाद्यावृतं अतदाकारं ज्ञानज्योति, प्रकाशविकलमपि आत्मानं पूर्णानंदं सहजाप्रयासानंदसंदोहं सर्वज्ञं सर्वतत्त्वस्वरूपामिन्तं सम्यग्ज्ञानबलेन निर्धारयति इति, इत्यनेन आत्मा शुद्ध एव श्रद्धेयः, उपाधिदोषस्तु सन्नपि तादात्म्याऽभावात् संसर्गजत्वात् भिन्न एव निर्वाय इति ॥ ६॥ - मोहात् जीवः परवस्तु आत्मत्वेन जानन् आरोपजं सुखं सुखत्वेन अनुभवति, भेदज्ञानी तु आरोपजं सुखं दुःखमेवेति निवारणाय यत् तदुपदिशन्नाह-- अनारोपसुखं मोह-त्यागादनुभवन्नपि। आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ? ॥७॥
व्या०-अनारोपेति, अनारोपज सहजं सुखं स्वगुणज्ञाननिरपागभावरूपं सुखं मोहत्यागात् मोहक्षयोपशमात् अनु
भवन्नपि भुंजन्नपि आरोपो मिथ्योपचारः प्रियो येषां ते आरोप प्रियाश्च ते लोकाश्च आरोपप्रियलोकाः तेषु आरोपसुखं वक्तुं आश्चर्यवान् भवेत् ? अत्र काकूक्तिः अपि तु न भवेत्, येन आरोपजं सुखं प्राप्तं स आरोपसुखे आश्चर्यवान् चमत्कारवान् भवति अथवा अनारोपसुखानुभवी आरोपप्रियलोकेषु अग्रे आरोपजं सुखं सुखं इति वक्तुं अपि आश्चर्यवान् भवति, वक्तुं न समर्थो भवति सुखाभावात् सुखकारणाभावात्तच्च वस्तुवृत्त्या दुःखरूपे सुखं इति लोकार्थ उक्तेऽपि स्वयं आश्चर्यवान् भवेत्
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ज्ञानमंजरी टीका.
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किमुक्तं इदं मया नेदं सुखं अतः परसंभवे सुखे सुखाभासः निवारणीयो मोहमूलत्वात् , पौगलिके सुखे सुखम्रांतिरेव आभ्यंतरं मिथ्यात्वं इति ॥ ७॥ यश्चिदर्पणविन्यस्त-समस्ताचारचारुधीः । के नाम स्वपरद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति ? ॥८॥
___व्या०-यश्चिदर्पण इति, यः पुरुषः आगमानुगताशयः चिद् ज्ञानं सर्वपदार्थपरिच्छेदकं तदेव दर्पणं आदर्शः तेन विन्यस्ताः स्थापिताः समस्ता ज्ञानाद्याचाराः तेन चारुः मनोहरा धीर्बुद्विर्यस्य स पुरुषः, नाम इति कोमलामंत्रणे परद्रव्ये पुद्गलादौ अनुपयोगिनि अकिंचित्करे कस्मिन्नपि कार्ये गृहीतुमयोग्ये व मुह्यति ? इत्यर्थः, यो ज्ञानादिपंचाचारेण संस्कारितोपयोगी आत्मानंदं ज्ञानदर्पणे पश्यन् परद्रव्ये कथं मुह्यति ? नैवेति । तत्त्वज्ञानविकलानां अनादिमिथ्यात्वाऽसंयमवतां स्वरूपानुभवशून्यानां एव परद्रव्यानुभवः । तत्र सुखम्नांतिरूपो मोहः । स्वभावधर्मनिरिभासनरमणानुभवसुखास्वादलीनानां न मोहः, अत आत्मस्वरूपैकत्वमेव मोहत्यागोपायः, अत एव अनादिम्रान्तिमपहाय आत्मानुभवरसिकतया भवितव्यम् । आत्मस्वरूपश्रद्धानभासनरमणानुभववता स्थातव्यं, इति तत्त्वं,आगमश्रवणकुसंगत्यागात् तत्त्वरुचि तत्त्वज्ञानबलेन संयोगजं सर्वमनित्यमशरणं संसारहेतु आत्मा एकः सर्वपदार्थातरं आत्मव्यतिरिक्तं परस्पर्श एवाशुचिपरानुयायिता एव आश्रवाः स्वरूपानुगमनं संवरः उदीरणके अममता इत्यादि परिणत्या मोहत्यागो विधेयः। इति चतुर्थ मोहत्यागाष्टकम् व्याख्यातम् ॥ ८॥
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२२२
ज्ञानमंजरी टीका.
॥ अथ पञ्चमं ज्ञानाष्टकम् ॥ मोहत्यागश्च ज्ञानाद् भवति, अतः ज्ञानष्टकं लिख्यते । तत्र ज्ञानलक्षणं, 'व्यवहाराव्यभिचाररूपं सर्वपदार्थावबोधरूपं सामान्यविशेषात्मनि पदार्थजाते विशेषबोधलक्षणं ज्ञानं, ज्ञायते अनेनेति ज्ञानं । उक्तं च उत्तराध्ययने । "एयं पञ्चविहं नाणं, दवाण य गुणाण य । पजवाणं च सव्वेसिं, नाणं नाणीहिं देसियं ॥”
(अ० २८ । गा० ५) इति । आत्मनो विशेषलक्षणं नाम ज्ञानं शब्दालापरूपं, स्थापनाज्ञानं सिद्धचक्रादौ स्थापितं द्रव्यज्ञानं आगमगतज्ञानपदावबोधी अनुपयुक्तः, नोआगमतः द्रव्यज्ञानं अनुपयुक्तावस्था इति तत्त्वार्थे । तथा द्रव्यज्ञानं पुस्तकन्यस्तं । अथवा वाचना-पृच्छना-परिवर्तना-धर्मकथानुप्रेक्षादीनां द्रव्यज्ञानं, मावज्ञानमुपयोगपरिणतिः मत्यादिप्रकारं स्वपरविवेचकं परिच्छेदावलोकनाभासनादिपर्याय, तत्र नैगमेन ज्ञानं, भाषादिस्कंधज्ञानं । संग्रहेण सर्वजीवज्ञानं अभेदोपचारात्, व्यवहारेण पुस्तकादिज्ञानं, ऋजुसूत्रेण तत्परिणामसंकल्परूपं ज्ञानं, अथवा-ज्ञानहेतुवीर्य, नैगमेन संग्रहेण आत्मा व्यवहारेण क्षयोपशमीभूतज्ञानविभागप्रवृत्तिः, ऋजुसूत्रेण वर्तमानबोधः यथार्थायथार्थरूपमुभयज्ञानं, शब्दनयेन सम्यग्दर्शनपूर्वकयथार्थावबोघलक्षणं कारणकार्यसापेक्षं ज्ञानं स्वपरप्रकाशं स्याद्वादोपेतं अर्पितानर्पितादियुक्तं सम्यग्ज्ञानं, समभिरूढनयेन सकलज्ञानवचनपर्यायशक्तिप्रवृत्तिरूपं, एवंभूतनयेन मत्यादिस्वस्वरूपपूर्णवंभूतता
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ज्ञानमंजरी टीका.
२२३
वस्तुतः केवलं ज्ञानं एवंभूतज्ञानं, अब मिथ्यादर्शनेऽपि विपर्यासोपेतं ज्ञानं कुज्ञानं, तत्र मोहत्यागहेतुः, अतः सम्यक् दर्शनपूर्वकस्वस्वरूपोपादेयापरभावहेयोपयोगलक्षणं सम्यग्ज्ञानं गृहीतं, तस्यैव संसारौदासीन्यहेतुत्वात् उक्तं चतज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति
रागगणः॥ तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्था
तुम् ? ॥१॥ ___ अतो ज्ञानं तवावबोधरूपं आत्मनः स्वस्वभावाविष्करणहेतुः, मोक्षमार्गस्य मूलं 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' 'पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठह सबसंजए'। एवं स्वरूपं अत्रानुप्रेक्षायुक्तः स्पर्शज्ञानस्यावसरः तद् व्याख्यायतेमजत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्टायामिव शूकरः। ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥१॥
व्या०-मज्जत्यज्ञ, इति-अज्ञः स्वभावविभावाविवेकः किल इति सत्ये अज्ञाने अयथार्थोपयोगे मज्जति, मनो भवति, यथार्थावबोधविकलः अयथार्थे लीनो भवति, क इव ? विष्टायां शूकर इव, यथा शूकरो विष्टायां मज्जति तथा अज्ञः अभोग्ये आत्मगुणावरणकारणे परवस्तुनि शातादिविपाके इन्द्रियविषये मज्जति। ज्ञानी-यथार्थविबोधी ज्ञाने तत्त्वावबोधे आत्मस्वरूपे निमज्जति तन्मयो भवति । आत्मस्वरूपावबोधानुभवलीनाः शब्दादिविषयान् मनोज्ञान् इंद्रादिविस्मयहेतून् तृणयंति, रमंते स्वरूपे, भीष्म
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ज्ञानमंजरी टीका.
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ग्रीष्मतापतप्तशिलातलस्था अपि शीतला अत्यंतहिमे अकंपाः, ध्यायंति स्वतत्वं जगतविक्षोभ - अनाक्षोभक्षुवा चिंतयंति स्वगुणपर्यायान् शक्रस्पर्द्धिचक्रिलीलां त्यजंति, किं बहुना ? आत्मानंदावबोधरसिकानां अन्यत् दुष्टं यथार्थसंपूर्ण प्रत्यक्षात्मरसिकाः तितिक्षति परीषहान्, प्रारंभयंति श्रेणि, तन्वंति स्वरूपैकत्वरूपं ध्यानं, अतो ज्ञानास्वादिन एव धन्याः उक्तं च संवेगरंगशालायाम्:--
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ते धन्ना सुकयत्था, जेसिं नियतत्तबोहरुइ जाया । जे तत्तबोहभोई, ते पुज्जा सबभवाणं ॥ १ ॥ जेसिं निम्मलनाणं, जायं तत्तसहावभोगित्तं । ते परमातत्तसुही, तेसिं नामंपि सुट्ठयरं ॥ २ ॥
तेषां जन्म जीवितं सफलं ये स्वतत्त्वबोधरसिका इति, अतो ज्ञानी ज्ञाने मज्जति, यथा मरालो हंसो मानसे मज्जति तथा इति ॥ १ ॥
निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निबन्धो नास्ति भूयसा ॥ २ ॥
व्या० - निर्वाणपदमिति, - निर्वाणपदं, निःकर्मताहेतुपदं, एकमपि स्याद्वादसापेक्षं मुहुर्मुहुः वारंवारं भाव्यते आत्मतन्मयतया क्रियते, वाचना-पृच्छना - परिवर्तना- अनुप्रेक्षा-धर्मचिंतन-परिशीलननिदिध्यासनतया करणं कर्तृत्वं कार्यत्वं कारणत्वं आधारत्वं आस्वा - दनं विश्रामः स्वरूपैकत्वं तदेवोत्कृष्टं ज्ञानं येनाऽऽत्मा स्वरूपलीनो भवति अनाद्यनास्वादितात्मसुखमनुभवति, तत् पदमप्य
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ज्ञानमंजरी टीका.
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भ्यस्य, शेषेण वागविस्ताररूपेण भूयसाऽपि वेदनेन ज्ञानेन को निर्बंध: किं बहुतरेण जल्पज्ञानेन ? भावनाज्ञानं स्वल्पमप्यमृतकल्पं अनादिकर्मरोगापगमक्षममिति ॥ २ ॥
स्वभावलाभसंस्कार-कारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्, तथा चोक्तं महात्मना ॥ ३ ॥
व्या० - स्वभावलाभेति, स्वभावो ज्ञानाद्यनंतगुणपर्यायरूपः, तस्य लाभः प्राप्तिः संस्कारो वासना तद्प्राग्भावता वा तस्य स्मरणं सदैव निरंतरं तदुपयोगिताज्ञानं इष्यते तत्त्वलाभतः, अन्यत् सर्व वाग्विलासरूपं स्वस्वरूपास्पर्शिबाद्यज्ञानं लौकिकलोकोत्तरागमविकल्परूपं सर्व व्यांव्यमात्रं व्याक्षेपरूपं, यदात्मपरविभजनात्मैकत्वपरपरित्यागाय न भवति तत्सर्वं विलापरूपमरण्ये, तथा च, हरिभद्रपूज्यैः
अकुत्थासंयतं नाणं, सुअपाठुन विन्नेयं । अनुयोगद्वारे
यो० ह० - सिक्खियं ठियं मियं जायं जाव गुरुवयणोवयं वायणाए पुच्छणाए परिअट्टणाए धम्मकहाए नो अणुपेहाए ता दवअं ।
इति प्राप्तचेतनाक्षयोपशमः संज्ञाचतुष्टये इहलोकाशंसया परलोकाशंसया किं किं नास्ति, यस्तु सकलपुद्गलोद्विग्नः स्वस्वभावार्थी आत्मानं यथार्थावबोधेन जानाति तज्ज्ञानम्, तत्रोद्यमः कार्यः स्वसाध्यसिद्धये, उक्तं चआत्माज्ञानभवं दुःखं, आत्मज्ञानेन हन्यते । अभ्यस्यं तन्नघातेन (?) येनात्मा ज्ञानमयो भवेत् ॥१॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
स्वल्पज्ञानेन नो शान्ति, याति दृप्तात्मनां मनः। स्तोकं दृष्टा यथा तप्त-भूमिरुष्मायतेतराम् ॥२॥
अतो निरतिचारानाशंसि यथार्थात्मबोधे रसिकतया भवनीयं तदर्थमेवांगोपांगयोगोपधानाद्यभ्यासो मुनीनाम् । तथा चोक्तवान् महात्मा पतंजलिप्रमुखः, यशोधनपदश्च श्रीहरिभद्रसुरिर्योगहष्टिसमुच्चये ॥३॥ वादांश्च प्रतिवादश्चि, वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ॥४॥
व्या०-वादांश्चेति-वादान् पूर्वपक्षरूपान्, प्रतिवादान् उत्तरपक्षरूपान् , परपराजयस्वजयेंच्छया वदंतः विवादशुष्कवादादि कुवैतः, तत्त्वांतं तत्त्वस्य वस्तुधर्मरूपस्य अंतं पारं नैव गच्छंति नैव लभते, कथंमूतान् वादान् ? अनिश्चितान् अनिर्धारितपदाथस्वरूपान् वदंतः तत्त्वप्रांतं स्वीयात्यंतकाकृत्रिमात्मज्ञानानुभवरूपं नैव लभते । किंवत् १ गतौ गमने तिलपीलकवत् तिलपीलकवृषभवत् भ्रमन् स्थानांतरं न लभते, एवं तत्वज्ञानानमिलाषी अनेकशास्त्रश्रमं कुर्वन् न तत्वानुभवं स्पृशति, अतो यथार्थतत्त्वज्ञानरुचिमत्तया भवनीयम् ॥४॥ स्वद्रव्यगुणपर्याय-चर्या वर्या परान्यथा। इति दत्तात्मसन्तुष्टि-मुष्टिानस्थितिर्मुनेः॥५॥
व्या०-स्वद्रव्येति, स्वद्रव्ये गुणाश्रयलक्षणे शुद्धात्मनि स्वगुणे एकद्रव्याश्रितसहभाव्यनंतपर्यायोपेतज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूपे स्वपर्याये उभयाश्रयलक्षणे अर्थव्यंजनादिभेदे चर्या तन्मयता परिणतिः, तत्र वर्त्तना वर्या श्रेष्ठा स्वद्रव्यगुणपर्याये परिणमनं आत्महितम्
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ज्ञानमंजरी टीका. आया सभावनाणी, भोइ रमई विवत्युधम्मंमि । सो उत्तमो महप्पा, अवरे भवसूयरा जीवा ॥१॥ परापरद्रव्यगुणपर्यायस्मरणानुभवलक्षणा परिणतिः अन्यथा अकार्या अहिता परभावपरिणाम एव भ्रमणहेतुः; उक्तं चपरसंगेण बंधो, मुक्खो परभावचायणे होई । सबदोसाण मूलं, परभावाणुभवपरिणामो॥१॥
अत एव देशविरतसर्वविरताः प्रत्याख्याति परिग्रहादीन् , त्यजति स्वजनपरिजनान् , प्रतिपद्यते एकाकिविहार, शृण्वति स्वसत्तागोष्टिं, चिंतयंति स्वधर्मानंततां, ध्यायति स्वगुणपर्याय, परिणाममना भवंति तदनुभवनेन, त्यजति सर्वपरभावानुमोदनाम् इत्येवं प्रकारेण मुनेः त्रिकालनिर्विषयस्य ज्ञाततत्त्वस्य मुष्टि
ानस्थितिः अवस्थानं, संक्षेपरहस्यज्ञानविश्राममर्यादा; कथंभूता स्थितिः ? दत्तात्मसंतुष्टिः, दत्ता प्रदत्ता आत्मनः संतुष्टिः संतोष इत्यनेन आत्मग्रहणं परपरित्यागः इति मर्यादा निग्रंथस्य ॥५॥ अस्ति चेद् ग्रन्थिभिद् ज्ञानं, किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः। प्रदीपाः कोपयुज्यन्ते?, तमोनी दृष्टिरेव चेत् ॥६॥
व्या०-अस्तीति चेत् यदि ग्रंथिमित् ग्रंथिभेदोत्पन्नं विषयप्रतिभासदलविकलं आत्मधर्मवेद्यसंवेद्यरूपं ज्ञानं प्रतिभासः अस्ति; तंत्रयंत्रणैः चित्रैः अनेकप्रकारैः परसाधनानिमित्तैः किं ? न किमपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभावपरिणतस्य किं परापेक्षया ? । तत्र दृष्टांतः । चेत् दृष्टिः चक्षुः तमोटो तमः अंधकारं तस्य नी हंत्री प्राप्ता तदा प्रदीपाः क्व
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ज्ञानमंजरी टीका.
उपयुज्यंते ? न क्वापि, दृष्टिः सर्वालोकनक्षमा तर्हि सहायभूतदीपस्य किं प्रयोजनं १ । अत्र ग्रंथिभेदस्वरूपं । तत्र - पंचेंद्रियत्वसंज्ञित्वपर्याप्तत्वरूपाभिस्तिसृभिः लब्धिभिः युक्तं अथवा उपशमलब्धिः उपदेशश्रवणलब्धिः करणत्रयहेतुप्रकृष्टयोगलब्धित्रिकयुक्तः करणकालात्पूर्वमपि अंतर्मुहर्तकालं यावत् प्रतिसमयमनंतगुणवृद्ध्या विशुद्धया विशुध्यमाना अवदातमाना चित्तसंततिः ग्रंथिकसत्वानां अभव्यसिद्धिकानां या विशोधिः तामतिक्रम्य वर्त्तमानः ततोऽनंतगुणविशुद्धः अन्यतरस्मिन् ( मतिश्रुतविभंगान्यतमस्मिन् साकारोपयोगे ) चान्यतमस्मिन् वर्त्तमानः तिसृणां विशुद्धानां लेश्यानामन्यतमस्यां लेश्यायां वर्त्तमानो जघन्यतः तेजोलेश्यायां, मध्यमपरिणामेन पद्मलेश्यायां, उत्कृष्टपरिणामेन शुक्ललेश्यायां, तथा पूर्वजानां सप्तानां कर्मणां स्थितिमतः सागरोपमकोटाकोटिप्रमाणं कृत्वा अशुभानां कर्मणां अनुभागं च मुख्यस्थानकं संतं ( सत् ) द्विस्थानकं करोति, शुभानां च कर्मणां द्विस्थानकं संतं ( सत् ) चतुःस्थानकं करोति, तथा ध्रुवप्रकृतीः सप्तचत्वारिंशत् संख्यया बध्नन् परावर्त्तमानाः स्वस्वभावप्रायोग्याः प्रकृतीः शुभा एव बजाति ता अप्यायुर्वः अतीव विशुद्धपरिणामो हि नायुर्बंधमारभते, यदुत तिर्यग् मनुयो वा प्रथमं सम्यक्त्वं उत्पादयन् देवगतिप्रायोग्याः शुभाः प्रकृतीः बध्नाति, देवो नैरयिको वा प्रथमं सम्यक्त्व - मुत्पादयन् मनुजगतिप्रायोग्याः सुभगाः प्रकृतीः बन्नाति, सप्तमनरकतिद्विकं नीचैर्गोत्रं बध्नाति, भवप्रायोग्यात बव्यनानस्थितिः अंतः सागरोपमकोटाकोटिं बन्नाति, नाविकां योगवशात् प्रदेशाग्रमुत्कृष्टजवन्यमध्यमं च बध्नाति, स्थितिबंचे पूर्णे सत्यन्यं स्थितिबंधं प्राक्तनस्थितिबंधं प्राक्तनस्थितिबंधापेक्षया पल्योपमा
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संख्येयभागन्यूनं करोति, ततः अन्यं पल्योपमासंख्येयभागं न्यूनं करोति अतः अन्य स्थितिबंधपूर्वपूर्वापेक्षया पल्योपमासंख्येयभागं न्यूनं करोति, अशुभानां च प्रकृतीनां बध्यमानानामनुभागं द्विस्थानकं बनाति, तमपि प्रतिसमयमनंतगुणहीनं शुभानां च चतुःस्थानकं प्रतिसमयमनंतगुणवृद्धिं कुर्वन् करणं यथाप्रवृत्तं करोति, ततोऽपूर्वकरणं, ततः अनिवृत्तिकरणमिति, करणं परिणामविशेषः । एतानि च त्रीण्यपि करणानि प्रत्येकमंतर्मुहूर्तकानि तत उपशांताद्वा लभते सापि चांतमुहर्चिकी यथाप्रवृत्तिकरणं च-- अणुसमयं वड्ढंतो अज्झवसाणाणणंतगुणणाए । परिणामठाणाणं दोसु वि लोगा असंखिज्जा ॥१॥ ___इति कर्मप्रकृतौ, प्रतिसमयं अध्यवसानानामनंतगुणतया विशुद्धया वर्द्धमानानां करणसमाप्तिं यावत् वर्धन्ते तानि कियंति अध्यवसानानि भवंति ? द्वयोरपि यथाप्रवृत्तापूर्वकरणयोः परिणामस्थानानामनुसमयं लोकासंख्यया भवति यथाप्रवृत्तकरणे अपूर्वकरणे च प्रतिसमये संख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि, अध्यवसायस्थानानि भवंति; तथाहि यथाप्रवृत्तकरणे प्रथम समये विशोधिस्थानानि नानाजीवापेक्षया असंख्येयलोकाकाशप्रदेश प्रमाणानि, द्वितीयसमये विशेषाधिकानि, ततोऽपि तृतीयसमये विशेषाधिकानि, एवं यावच्चरमसमये, एवमपूर्वकरणेऽपि द्रष्टव्यं । अमूनि चाव्यवसायस्थानानि यथाप्रवृत्ताऽपूर्वकरणयोः संबंधीनि स्थाप्यमा नानि विषमचतुरस्र क्षेत्र आवृण्वंति, तयोरुपरि चानिवृत्तिकरणाध्यवसायानि मुक्तावलीसंस्थानि उपरि उपरि अमूनि अनुचिंत्यमानानि प्रतिसमयमनंतगुणवृद्धया प्रवर्त्तमानान्यवगंतव्यानि, तिर्य
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ज्ञानमंजरी टीका.
पुरुषौ युगपत्करण
षटस्थानप्रतीतानि । इह कल्पनया द्वौ प्रपन्नौ विवक्ष्येते, तत्र एकः सर्वजघन्यया श्रेण्या प्रतिपन्नः, अपरः सर्वोत्कृष्टया विशोध्या, प्रथमजीवस्य प्रथमसमये मंदा, द्वितीयसमये अनंतगुणा तृतीये अनंतगुणा एवं यावत् येषां प्रवृत्तकरणस्य संख्येयो भागो गतो भवति, ततः प्रथमसमये द्वितीयस्य जीवस्य, उत्कृष्टं विशोधिस्थानं अनंतगुणं वक्तव्यं, ततोऽपि द्वितीये उत्कृष्टा विशोधिरनंतगुणा, तत उपरि जवन्यविशोधिः अनंतगुणा, एवमुपर्यधश्च एकैकं विशोधिस्थानमनंतगुणं द्वयोर्जीवयोस्तावन्नेयं यावच्चरमसमये जघन्यविशोषिस्ततः आचरमात् चरममभिव्याप्य यानि अमुक्तानि शेषाणि उत्कृष्टानि स्थानानि तानि क्रमेण निरंतरमनंतगुणानि वक्तव्यानि तदेवं समाप्तं यथाप्रवृत्तकरणं, अस्य च यथाप्रवृत्तकरणस्य पूर्वप्रवृत्तं इति द्वितीयं नामशेषकरणाभ्यां पूर्व प्रथमं प्रवृत्तं पूर्वप्रवृत्तमिति अस्मिश्च यथाप्रवृत्तकरणे स्थितिघातरसंघातौ गुणश्रेणिर्वा न प्रवतैते केवलमुक्तरूपा विशोधिरेवानंतगुणा यानि वा प्रशस्तानि कर्माण्यत्र स्थितो बन्नाति, यानि च शुभानि तेषां चतुःस्थानकं स्थितिबंधेऽपि पूर्णे पूर्णे सत्यन्यं स्थितिबंधं पल्योपमसंख्येनभागन्यूनं च बध्नाति । संप्रति अपूर्वकरणमभिधीयते । " बीयस्स बीय समये जह एहमवि अनंतरुक्कस्सा" इत्यादिवचनात् । द्विवीयस्य अपूर्वकरणस्य यो द्वितीयः समयः कृतजघन्यमपि विशोविस्थानात् अनंतगुणं वक्तव्यं । एतदुक्तं भवति - ते हि यथाप्रवृत्तकरणवत् प्रथमतो निरंतरं विशोधिस्थानं अनंतगुणं वक्तव्यं, किंतु प्रथमसमये प्रथमतो जघन्या विशोधिः सर्वस्तीका, सापि च यथाप्रवृत्त करणचरमसमयभाविन उत्कृष्टा विशोषिस्थानात् अनंतगुणा, ततः प्रथमसमये एवोत्कृष्टा विशोधिरनंतगुणा, ततो
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ज्ञानमंजरी टीका.
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द्वितीयसमये जवन्या विशोधिरनंतगुणा, ततोऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयसमये तु उत्कृष्टा विशोधिरनंतगुणा, एवं प्रतिसमये तावद्वायं यावच्चरमसमये उत्कृष्टा विशोधिः, अपूर्वाणि करणानि स्थितियावत् रसघातगुणश्रेणिस्थितिबंधादीनां निवर्त्तनानि यस्मिन तत अपूर्वकरणं । तथाहि अपूर्वकरणे प्रविशन् प्रथमसमय एवं स्थिति घातं रसघातं गुणश्रेणिस्थितिबंधं चान्यं युगपदारभते, तत्र स्थितिवातः स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमभागादुत्कर्षतः उदधिपृथक्त्वप्रमाणं, जघन्येन पुनः पल्योपमसंख्येयभागमात्रं, स्थिति कंडकमुक्तिरिति उत्कार्य च या स्थितिः अधो न खंडयिष्यति तत्र तद्दलिकं प्रक्षिपति, अंतर्मुहूर्त्तेन कालेन तत् स्थितिकंडकं उत्कायेते एवं द्वितीयं, एवं तृतीयं एवं प्रभूतानि स्थितिखंड ह स्राणि व्यतिक्रामंति, तथा च सति यत् अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये स्थितिः सत्कर्मा आसीत् तत्तस्यैव चरमसमये संख्येयगुणहीनानां जातं । रसवाते तु अशुभानां प्रकृतीनां यत् अनुभागसद नुआरासत्कर्म तस्य अनंततमं भागं मुक्वा शेषान् अनंतानुभागभागान् अंतिमवृत्तेन विनाशयति, ततः पुनरपि तस्य प्रागुक्तस्पानंततमं भागं मुक्त्वा शेषान् विनाशयति, एवं अने कानि अनुभागखंडसहस्राणि एकस्मिन् स्थितिखंडे व्यतिक्रामति, तेषां च स्थितिखंडानां सहस्रैः द्वितीयमपूर्वकरणं परिसमाप्यते । स्थितिबंधाद्वा तु अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये अन्य एव अपूर्वपल्योपमसंख्येयभागहीनस्थितिबंध आरभ्यते । जीर्णस्थितिघातस्थितिबंधौ तु युगपदारभ्येते । युगपदेव निष्ठां यातः गुणणिषु । यथागुणसेढीनिरक्खेवो, समए समए असंखगुणणाए । अद्धादुग्गहरितो सेसे सेसे य निक्खेवो ॥ १ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
__ भावना च घात्यस्थितिखंडमध्याइलिकं गृहीत्वा उदयसमयात् प्रतिसमयं असंख्येयगुणतया निक्षिपति प्रथमसमये स्तोकं, द्वितीयसमये असंख्येयगुणं, तृतीयसमये असंख्येयगुणं, एवं याचरमसमयः । एष प्रथमसमयगृहीतदलकनिक्षेपविधिः, एवं द्वितीयादिसमयगृहीतानां अपि, इत्यनेन प्रथमसमये स्तोकः, द्वितीयसमये असंख्येयगुणः, तृतीयसमये असंख्येयगुणः, गुणश्रेणिदलिकनिक्षेपो भवति । इति अपूर्वकरणस्वरूपं । अनिवृत्तिकरणे एतदुक्तं भवति-अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये ये वर्तते ये च वृत्ताः ये च वर्तिष्यंते तेषां सर्वेषामपि समाना एकरूपा विशोधिः, द्वितीयसमयेऽपि ये वर्तते ये च वृत्ताः ये च वर्त्तिष्यंते तेषामपि समा विशोधिः, एवं सर्वेष्वपि समयेषु, नवरं-पूर्वतः उपरितने अनंतगुणाधिका विशोधिः चरमसमयं यावत्, अस्मिन् करणे प्रविष्टानां तुल्यकालानामसुमतां परस्परमध्यवसायानां या निवृत्तिावृत्तिः सा न विद्यते इत्यनिवृत्तिकरणंअनिवृत्तिकरणे यावंतः समयास्तावंति अध्यवसायस्थानानि पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् अनंतगुणवृद्धानि भवंति अनिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु सत्सु एकस्मिंश्च भागे संख्येयतमे शेषे तिष्ठति अंतर्मुहुर्त्तमात्रमधो मुक्त्वा मिथ्यात्वस्यांतरकरणं करोति अंतरकरणकालश्चांतमुर्हत्तप्रमाणः अंतरकरणे च क्रियमाणे गुणश्रेणेः संख्येयतमं भागं उत्किरति उत्कीर्यमाणं च दलिकं प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति एवं उदीरणाआगावलेन मिथ्यात्वोदयं निवार्य औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते । उक्तं च-- मिच्छनुदये क्खीणे लहइ संमत्तमोवसमीयं । सोलंभेण जस्स लब्भइ आयहियं अलद्धपुत्वं जं॥१॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
मिथ्यात्वस्योदये क्षीणे सति स बीच उक्तेन प्रकारेण औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते यस्य सम्यक्त्वस्य लाभेन यझत्महितमलब्धपूर्वमहदादितत्त्वप्रतिपत्त्यादि तल्लभते । तथाहि सम्यक्त्वलामे सति जात्यंधस्य पुंसः चक्षुर्लाभे सति एवं जंतोः यथावस्थितवस्तुतत्त्वावलो को भवति, महाव्याध्यमिभूतस्य व्याध्यपगमे इव महांश्च प्रमोदः । अत्र अनिवृत्तिकरणे क्रियमाणे यदि पुंजत्रयं करोति तदा प्रथमं क्षयोपशमं सम्यक्त्वं लभते. अकृतत्रिपुंजः प्रथम उपशमसम्यक्त्वं लभते इति सिद्धांताशयः । कार्मग्रंथमते तु प्रथम उपशममेव लभते अयं च त्रिपुंजीकरण उपशमे करोति इति ग्रंथिमिद् ज्ञानं तत्त्वोपयोगलक्षणं तस्य अन्यविकल्पैः किम् ? ॥ ६ ॥ मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद्, ज्ञानदंभोलिशोभितः । निभर्यः शक्रवद् योगी, नन्दत्यानन्दनन्दने ॥७॥ ____व्या०-मिथ्यात्वेति भोगी' स्नत्रयरूपमोक्षोपायी आनंदमंदने आनंदः आत्मानंदः स एब बंदनं आनंदनंदनं तस्मिन् आनंदनंदने, नंदति क्रीडां करोति, किंवत् ? शक्रवत् इंद्रवत् कथंभूतो योगी ? 'मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद् ज्ञानदंभोलिशोभितः' मिथ्यात्वं विपर्यासरूपं तदेव शैलः पर्वतः तस्य पक्षच्छेदनकृत पद् ज्ञानं तदेव दंभोलिः तेन शोभितः, इत्यनेन मिथ्यात्वमैदकज्ञानवज्रान्वितः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतो योगी आनंदनंदने नंदति शुद्धात्मानंदने नंदति ॥ ७ ॥ पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम् । अनन्यापेक्षमैश्वर्य, ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ॥८॥
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ज्ञानाष्टकम्.
व्या० - पीयूषमिति, असमुद्रोत्थं पीयूषं अमृतं, अनौषधं औषधरहितं रसायनं जरामरणनिवारकं, अनन्यापेक्षं अन्यत् परवस्तु तस्य अपेक्षया रहितं ऐश्वर्य 'आश्चर्यमिति पाठे आश्चर्य चमत्कारि ज्ञानं, स्वपरावभासनलक्षणं आहुः मनीषिणः पंडिता, इत्यनेन वस्तुतः मरणवारकं सर्वरोगमुक्तिहेतु रसायनं ज्ञानं, वस्तुतः अवलोकनचमत्कारि ज्ञानं, इत्येवं आत्मज्ञानं परमं उपादेयज्ञानं यथार्थावबोधपर भावत्यागलक्षणं स्मृतं, इत्यनेन अनादिपरभावपरिणतस्य मिथ्यात्वाज्ञानासंयममोहितस्य परभावोत्पन्नात्मरोधक परिणतिं तत्त्वत्वेनांगीकुर्वन् परभावमोहितो भ्रमति सूक्ष्मनिगोदादिचतुर्दशसु जीवस्थानेषु स च तत्त्वज्ञानामृतपरिणत आत्मा मिथ्यात्वादिदोषान् विहाय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकोटिमारूढः स्वरूपावभासानंदी सर्वदोषरहितो भवति, अत एवामृतं रसायनं ज्ञानं तदर्थमेवोद्यमः कार्यः ॥ इति व्याख्यातं ज्ञाना
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ष्टकम् ॥
अथ पंचमज्ञानाष्टककथनानंतरं षष्ठं शमाष्टकं प्रारभ्यते, ज्ञानी हि ज्ञानात् क्रोधादिभ्य उपशाम्यति, अतः शमाष्टकं विस्तार्यते, तत्र आत्मनः क्षयोपशमाद्याः परिणतयः स्वभावपरिणामेन परिणमंति न तप्तादिपरिणतौ स शमः, नामशमस्थापनाशमौ सुगमौ, द्रव्यशमः परिणत्यसमाधौ प्रवृत्तिसंकोचो द्रव्यशम आगमतः, शमस्वरूपपरिज्ञानी अनुपयुक्तो नोआगमतः मायया लब्धिसिद्ध्यादिदेवगत्याद्यर्थं उपकारापकारविपाकक्षमादिक्रोधोपशमत्वं इत्यपि द्रव्यशमः, भावतः उपशमस्वरूपोपयुक्त आगमतः, नोआगमतो मिथ्यात्वमपहाय यथार्थभासनपूर्वकचारि - मोहोदयाभावात् क्षमादिगुणपरिणतिः शमः सोऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदाद् द्विविधः, लौकिकं वेदांतवादिनां लोकोत्तरं जैन
,
US
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प्रवचनानुसारिशुझस्वरूपरमणैकत्वं, आद्यनयचतुष्टये भावक्षमादिस्वरूपगुणपरिणमनहेतुः मनोवाकायसंकोच-विपाकचिंतन-तत्त्वज्ञान-भावनादिः, अंत्यनयत्रये क्षयोपशमक्षमादिः शब्दनयेन क्षपकश्रेणिमध्यवर्तिसूक्ष्मकषायवतः समभिरूढनयेन क्रोधादिशमः क्षीणमोहादिषु एवंभूतनयेन कषायशमः । अत्र भावना-चिंतास्मृतिविपाकभयादिकारणतः क्षयोपशमभावादिसाधनतः क्षायिकशमः साध्यः; एवं शमपरिणतिः करणीया आत्मनो मूलस्वमावत्वात् मूलधर्मपरिणमनं हि तेनैव कारणेन शुद्धात्मपदप्रवृत्तिः संगत्यागात्मध्यानसंवरीचंचरीकत्वं करणीयम्विकल्पविषयोत्तीर्णः, स्वभावालम्बनः सदा । ज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीर्तितः॥१॥ ___व्या०-विकल्प इति, विकल्पः चित्तविभ्रमः, तस्य विषयो विस्तारः, तेन उत्तीर्णो निवृत्तः आत्मास्वादनतो वर्णादिषु निवृत्तविषयः स्वभावः अनंतगुणपर्यायसम्यगज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूपः, तस्य आलंबनः स्वभावालंबन इत्यनेन आत्मस्वभावदर्शी; आत्मस्वभावज्ञानी, आत्मस्वभावरमणी, आत्मस्वभावविश्रामी, आत्मस्वभावास्वादी, शुद्धतत्त्वपरिणतः, ज्ञानस्य आत्मोपयोगलक्षणस्य यः परिपाकः प्रौढावसरः स शमः शमभावलक्षणः परिकीर्तितः, अत्र योगस्य पंचविधत्वं प्रोक्तं हरिभद्रपूज्यैः-अध्यात्मयोगः १ भावनायोगः २ ध्यानयोगः ३ समतायोगः ४ वृत्तिक्षययोगः ५, तत्र अनादिपरभावं औदयिकभावरमणीयताधर्मत्वेन निर्धार्य तत्पुष्टिहेतुक्रियां कुर्वन् अधर्म धर्मवृत्त्या इच्छन् प्रवृत्तः स एव निरामयः निस्संगःशुद्धात्मभावनाभावितांतःकरणस्य स्वभाव एव धर्म इति योगवृत्त्या अध्यात्मयोगः १ सर्वपरभावान्
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२३६
शमाष्टकम्..
अनित्यादिभावनया विबुध्य अनुभवभावनया स्वरूपामिमुखयोगवृत्तिमध्यस्थ आत्मानं मोक्षोपाये युजन् भावनायोगः २ स एव पिंडस्थ-पदस्थ-रूपातीत-ध्यानपरिणतरूपैकत्वी ध्यानयोगी भण्यते ३ ध्यानबलेन भस्मीभूतमोहकर्मा तप्तत्वादिपरिणतिरहितः समतायोगी उक्तः ४ तथा योगाधीनकोदयाधीमा अनादिवृत्तिः जीवस्य तस्याः क्षयः अभावः स्वरूपवृत्तिः वृत्तिक्षययोगी उच्यते ५ एवं पंचयोगेषु समतायोगी साधने परिष्ट इति ज्ञानस्य पूर्णावस्था शमः ॥ १ ॥ अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन शमं जगत् । आत्माभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षंगमी शमी ॥२॥ ___व्या०-अनिच्छन् कर्मेति, कर्म वैषम्यं ऊनाधिकत्वं अनिच्छन् गति-जाति-वर्ण-संस्थान-ब्राह्मण-क्षत्रियादि वैषम्य ज्ञानवीर्यक्षयोपशमकार्य वैषम्यं अनिच्छन् उदयत आवरणतःक्षयोपशमभेदे सत्यपि ब्रह्मांशेन चेतनालक्षणेन, अथवा द्रव्यास्तिक-अस्तित्व-वस्तुत्वसत्त्व-अगुरुलघुत्व-प्रमेयत्व-चेतनत्व-अमूर्त्तत्व-असंख्येयप्रदेशत्वपरिणत्या जगत् चराचरं आत्माभेदेन आत्मतुल्यवृत्त्या समानत्वेन यः पश्येत् सर्वजीवेषु समत्वं कृत्वा अरक्तद्विष्टत्वेन वर्तमानः असौ योगी मोक्षगामी सकलकर्मक्षयलक्षणावस्थां गच्छतीत्येवं शीलो भवति, यो हि सर्वजीवेषु जीवत्वतुल्यवृत्त्या रागद्वेषपरिणतिमपहाय आत्मस्वभावानुषंगी असौ योगी मोक्षंगमी भवति ॥२॥ आरुरुक्षुर्मुनिर्योगं, श्रयन् बाह्यक्रियामपि । योगारूढः शमादेव, शुद्धयत्यन्तर्गतक्रियः ॥३॥
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ज्ञानसंगी टीका.
२३७
AAAAAAAANNNNNNNNNNANAM
व्या-आरुरुक्षुरिति, आरुरुक्षुः आरोहणेच्छु:, मुनिः भावसाधकः, प्रीतिभक्तिवचनरूपशुभसंकल्पेन अशुभसंकल्पान् वारयन् आराधको भवति, सिद्धयोगी तु रागद्वेषाभावेन उपशमी कृतार्थः, बायां क्रियां बाह्याचारप्रतिप्रत्तिं श्रयन् अपि अंगीकुवन् अपि शमादेव शुद्धचति शमात् क्रोधाभावात् शुद्धयति निर्मलीभवति, कथंभूतो मुनिः ? योगारूढः योगे सम्यग्दर्शनज्ञाबचारित्रे आत्मीयसाधनरत्नत्रयीलक्षणे आरूढः पुनः कथंभूतो मुनिः ? अंतर्गतक्रियः अंतर्गता वीर्यगुणप्रवृत्तिरूपा क्रिया यस्य सः अंतर्गतक्रियः, एवमभ्यंतरक्रियावान् स्नत्रयपरिणतः शमात् क्षमाया मार्दवार्जवमुक्तिपरिणतिपरिणतो निर्मलो भवति ॥३॥ ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः, शमपूरे प्रसर्पति । विकारतौरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥ ४॥ ___व्या०-ध्यानवृष्टेरिति ध्यानवृष्टेः ध्यानं धर्मशुक्लाख्यं, अंतमुहूर्त यावत् चित्तस्य एकत्रावस्थानं ध्यानं । उक्तं चअंतोमुहुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्युमि । छउमत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥१॥ ___अत्र च निमित्तरूपे देवगुरुस्वरूपे अद्भुततादियुक्तचिचै. कत्वे धर्मध्यानं आज्ञाऽपायविपाकस्थानाख्यं, तब आज्ञाया निर्धारः सम्यग्दर्शनं आज्ञाया अनंतत्वपूर्वापराविरोधित्वादिस्वरूपे चमत्कारपूर्वकचित्तविश्रामः आज्ञाविचयधर्मध्यानं, एवं अपायादिकेष्वपि, निर्धारभासनपूर्वसानुभवचित्तविश्रांतिः ध्यानं एवं शुक्लेऽपि ईहग् ध्यानवृष्टेः मेघात दया--स्वपरभावपाण-आघातनरूपा भावदया, तद्बुद्धितल्लक्षणहेतुत्वात् स्वपरद्रव्यप्राणरक्षणानिर्विषयत्वेन .
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२३८
शमाष्टकम्
द्रव्ययापि दयात्वेन आरोपिता, “श्रीविशेषावश्यके” गणधरवादाधिकारे इति । अतो द्रव्यदया तु कारणरूपा, भावदया तु दयाधर्मः, एवंविधाया दयानद्याः शमपूरे सकलकषायपरिणतिशांतिः शमः रागद्वेषाभावः वचनधर्मरूपः शमः तस्य पूरः, तस्मिन् प्रसर्पति वृद्धिमति सति विकाराः कामक्रोधादयः अशुद्धात्मपरिणामाः त एव तीरवृक्षाः तेषां मूलात् उन्मूलनं भवेत् उच्छेदनं भवेत् अभावः इत्यनेन ध्यानयोगतो दयानदीपूरः प्रवर्द्धते वर्द्धमानपूरश्च विकारवृक्षाणां उच्छेदनं करोत्येव अयं हि आत्मा विषयकषायविकारविप्लुतः स्वगुणावरककर्मोदयतः परिभ्रमति स एव स्वरूपोपादानतः तस्वैकत्वतया प्रवर्द्धमानशमपूरो विकारान् मूलात् उन्मूलयति ॥ ४॥ ज्ञानध्यानतपःशील - सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो । तं नामोति गुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वितः ॥ ५ ॥
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व्या० - ज्ञानध्यानेति - ज्ञानं तच्वावबोधः, ध्यानं परिणाम - स्थिरतारूपं, तपः इच्छानिरोधः, शीलं ब्रह्मचर्य, सम्यक्त्वं तत्वश्रद्धांनं, पदानां उत्क्रमता द्वंद्वसमासात्, इत्यादि गुणोपेतः साधुः साधयति रत्नत्रयकरणेन मोक्षं स साधुः तं निरावरणगुणं केवलज्ञानादिगुणं नाप्नोति न प्राप्नोति यं गुणं शमान्वितः शमताचारित्रमय आप्नोति प्राप्नोति लभते इत्यर्थः । अत्र ज्ञानादयो गुणा निरावरणाम केवलज्ञानस्य परंपराकारणं शमः कषायाभाव:, यथाख्यातसंयमः केवलज्ञानस्यासन्नकारणं, अस्वकरणसमीकरण - किट्टीकरणवीर्येण सूक्ष्मलोभं खंडशः कृत्वा क्षयं नीते सति निविकल्पसमाधौ अभेदरत्नत्रयी परिणतिः क्षीणमोहावस्थायां यथाख्यातचारित्री परमशमान्वितः ज्ञानावरण-दर्शनावरणांतरायक्षयं नयति,
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ज्ञानमंजरी टीका.
२३९
लभते च सकलामलकेवलज्ञानं केवलदर्शनं परमदानादिलब्धीः , अत एव क्षायौपशमिकज्ञानी यं न प्राप्नोति तं परमशमान्वितः प्राप्नोति अत अव धीरा दर्शनज्ञाननिपुणा अभ्यस्यंति पूर्वाभ्यास, आश्रयंति गुरुकुलवासं, रमंते निर्जने वने, तेन आत्मविशुद्धयर्थी शमपूरणे उद्यतते ॥५॥ स्वयम्भूरमणस्पर्धि-वद्धिष्णशमतारसः। मुनिर्येनोपमीयेत, कोऽपि नासौ चराचरे ॥६॥
व्या०-स्वयंभू इति-स्वयंभूरमणः अर्द्धरज्जुप्रमाणः प्रांतसमुद्रः, तस्य स्पर्डी स्पर्धाकारी, वर्द्धिष्णुः वर्द्धमानः, शमतारसः, शमता रागद्वेषाभावः तस्या रसो यस्य स एवंविधो मुनिः, त्रिकालाविषयी, अतीतकालरमणीयविषयस्मरणाभाववान् , वर्तमानेंद्रियगोचरप्राप्तविषयरमणाभाववान् , अतीतकालमनोज्ञविषयेच्छाऽभाववान् मुनिः, येन उपमानेन उपमीयते चराचरे विश्वे असौ कोऽपि न जगति, यतस्तत्सर्व अचेतनपुद्गलस्कंध मूर्त च, तत् समतारसेन सहजात्यंतिकनिरुपमचरितशमभावस्वरूपेण कथं उपमीयते दुर्लभो हि शमतारसः विश्वविश्वशुभाशुभभावे परत्वेन अरक्तद्विष्टतयावृत्तिः शुद्धात्मानुभवः । उक्तं चवंदिजमाणा न समुल्लसंति, हेलिज्जमाणा न समुज्जलंति । दंतेण चित्ते न चलंति धीरा, मुणी समुग्घाइयरागदोसा ॥१॥ बालाभिरामे सु दुहावलेसु, न तं सुहं कामगुणेसु रायं । विरत्तकामाण तवोधणाणं, जं भिरकुणो सीलगुणे रयाणं ॥२॥
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शमाष्टकम्.
इति शमतास्वादिनां नरेशभोगा रोगाः, चिंतामणिसमूहाः कर्करव्यूहाः, वृंदारका दारका इव भासते, अतः संयोगजा रतिर्दुःखं शमतैव महानंदः || ६ || शमसूक्तसुधासिक्तं येषां नक्तंदिनं मनः । कदापि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोर्मिभिः॥ ७ ॥
व्या०- - शमसूक्त इति - येषां महात्मनां मनः चित्तं शमः कषायाभावः चारित्रपरिणामः तस्य सूक्तानि सुभाषितानि तान्येव सुधा अमृतं तेन सिक्तं अभिषिक्तं नक्तंदिनं अहोरात्रं ते रागोरगविषोर्मिभी रागः अभिष्वंगलक्षणः स एव उरगः सर्पः तस्य विषस्य ऊर्मयः तैः शमतासिक्ता न दांते, जगजीवा रागाहिदष्टाः, विषोर्मिंचूर्मिंता, भ्रमंति इष्टसंयोग - अनिष्ट - वियोगचिंतया, विकल्पयंति बहुविधान् अग्रशौचादिकल्पनाकलोलान्, संगृह्णति अनेकान् जगदुच्छिष्टान् पुद्गलस्कंधान्, याचयंति अनेकान् धनार्जनोपायान् प्रविशंति कूपेषु, विशंति यानपात्रेषु, द्रव्याद्यहितं हितवत् मन्यमानाः, जगदुपकारितीर्थकरवाक्यश्रवणप्राप्तशमताधनाः स्वरूपानंद भोगिनः स्वभावभासनस्वभावरमण-स्वभावानुभवनेन सदा असंगमग्ना विचरंति आत्मगुणानंदनवने, अतः सर्वपरभावैकत्वं विहाय रागद्वेषविभावमपहाय शमताषत्त्वेन भवनीयम् ॥ ७ ॥ गर्जज्ञानगजोत्तुङ्ग - रङ्गद्ध्यानतुरङ्गमाः । जयन्ति मुनिराजस्य, शमसाम्राज्यसम्पदः ॥ ८ ॥
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व्या० - गर्जद्ज्ञानमिति, मुनिराजस्य शमसाम्राज्यसंपदो जयंति कथंभूताः संपदः १ 'गर्जज्ञानगजोत्तुंगरंगध्यानतुरंगमा;'
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ज्ञानमंजरी टीका.
२४१
गजेत् स्फुरद ज्ञानं स्वपरावभासनरूपं तद्रपा गजाः तैः उत्तुंगा उन्नता रंगत् नृपतु ध्यानं तद्पाः तुरंगमा अश्वा यासु ताः, इत्यनेन भासनगजध्यानाश्वशोभिता राज्यसंपदो निग्रंथस्वरूपभूपस्य जयंति, अतः समतास्पदमुनीनां महाराजत्वं सदैव जयति, अतः शमाभ्यासवता भवितव्यं इत्युपदेशः ॥८॥ इति व्याख्यातं शमाष्टकम् ॥६॥
अथ इन्द्रियजयाष्टकम् । शमांतरायकृत् इंद्रियाभिलाषः, तेन इंद्रियजयादेव शमावस्थानं, अत इंद्रियजयाष्टकं विस्तार्यते । तत्र इंद्रो जीवः, सर्वपरमैश्वर्ययोगाद, तस्य लिंगमिंद्रियं लिंगनात् सूचनात् प्रदर्शनादुपलंभाद् व्यंजनाच्च जीवस्य लिंगमिंद्रियं, इंद्रियविषयोपलंभातू ज्ञापकत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ ‘उवओगलक्खणो जीवो' इति जीवनसिमिः, द्विविधानि इंद्रियाणि द्रव्येद्रियाणि भावेंद्रियाणि च, तब द्रव्येद्रियं द्विविधं, निवृतींद्रियं उपकरणेंद्रियं च तत्र निवृतिः अंगोपांगानां निर्वृतानि इंद्रियद्वाराणि कर्मविशेषसंस्कृताः शरीरप्रदेशाः निर्वाणनामांगोपांगप्रत्यया उपकरणं बाह्यमाभ्यंतरं च निर्वृतिः तस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकरोति लब्धिः उपयोगस्तु भावेंद्रियं भवति लब्धिः तदावरणीय-मतिज्ञानावरणीय-श्रुतज्ञानावरणीय-चक्षुर्दर्शनावरणीय-वीर्यातरायकर्मक्षयोपशमजनिता, स्पर्शादिग्राहकशक्तिः लब्धिः स्पर्शादिज्ञानं उपयोगः स्पर्शादिज्ञानफलरूप उपयोगः । अब इंद्रियाणां वर्णादिज्ञानेन विषयता, किंतु ज्ञानमनानां तेषु वर्णादिषु मनोज्ञामनोज्ञेषु इष्टानिष्टतया मूत्वा इष्टामिमुख्यताऽनिष्टकंपनारूपा मोहपरिणतिः विषयता ज्ञानस्य सविषयत्वेन सिद्धानां स्वविषयताः, अतो रक्तद्विष्टतया प्रवर्त
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इन्द्रियजयाष्टकम्.
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मानं ज्ञानं विषयः कारणकार्ये एकता चारित्र मोहोदयेन अरम्ये रमणं असंयमः, तत्र वर्णादयो हि ज्ञेया एव न रम्यात् तत्र रमणी विषर्येद्रियद्वारप्रवृत्तज्ञानस्य इष्टानिष्टतया परिणमनं तस्य जय इंद्रियविषयजयः, किमित्याह इति यद् द्वारेण वर्णादीनां ज्ञानं न इष्टानिष्टता इंद्रियजयः, अनाद्यशुद्धा संयमपरिणतिवारणारूपः, तत्र ज्ञानं हि आत्मनः स्वलक्षणत्वात् स्वपरपरिच्छेदः विधिः इष्टानिष्टानुविभाव एव संगांगितया अनादिसंततिजः अशुद्धपरिणामः सर्वथा त्याज्यः, अत एव इंद्रियं जयितष्यं, तत्र द्रव्यजयः संकोचादिलक्षणः, भावजन्यः चेतनावीर्ययोः स्वरूपानुपातः । नैगमेन निर्वृत्युपकरणेंद्रियपरिणति निर्माणादिविपाकजानि इंद्रियसंस्थानानि, ऋजुमूत्रेण स्वस्वविषयग्रहणोत्सुकौ निर्वृत्युपकरणौ, शब्दनयेन संज्ञाग्रहमिता लब्धिः उपयोगपरिणतिवृत्तिः, सममिनयेन संज्ञागृहीताऽगृहीतविषयक्षेत्रप्राप्तविषयपरिच्छेदः, एवंभूतनयेन मतिश्रुतचक्षुरचक्षुर्वीर्यातम्याणां क्षयोपशमावधेः प्रांतं यावद् ज्ञानं, तत्रासंगतस्येष्टानिष्टयुक्त एवावबोधो भवति, तेन विषय इति संज्ञाभोकृत्वाशुद्धता आत्मनः अशुपरिणामः, तस्य जयः सोऽपि आद्यनयचतुष्टये कारणरूपशब्दादिषु संयमगुणप्राग्भावानुगतचेतनादिपरिणामो द्रव्यजयोऽपि भावजयहेतुत्वात् अभ्यस्यः, भावजयस्तु स्वधर्मत्वात् साध्य एव तार्थमुपदेशः
बिभेषि यदि संसारा, मोक्षप्राप्तिं च कांक्षसि । तदेन्द्रियजयं कर्त्तु, स्फोरय स्फारपौरुषम् ॥ १ ॥
व्या०-बिमेषि यदीति - हे भव्य ! यदि त्वं संसारात् बिभेषि भयं प्राप्तोऽसि च पुनः मोक्षः सकलकर्मक्षयलक्षणः तस्य प्राप्ति
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ज्ञानमंजरी टीका.
२४३
तां कांक्षसि अमिलपसि, तदा इंदियजयं कर्तुं स्फारपौरुषं देदीप्यमानं पराक्रम स्फोरय प्रवर्त्तयस्व, अतो महाकदर्थनारूपाद् भवकूपादुद्विग्नः शुद्धचिदानंदाभिलाषी जीवो हालाहलोपमान इंद्रियविषयान् त्यजति । उक्तं च उत्तराध्ययनेसल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोपमा। कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गई ॥१॥ वृद्धास्तृष्णाजलापूर्णैरालवालेः किलेन्द्रियैः। मूर्छामतुच्छां यच्छन्ति, विकारविषपादपाः ॥ २॥
व्या०-वृद्धा इति । किल इति सत्ये, इंद्रियैः विषयभोगरसिकैः आलवालैः वृद्धा महत्त्वमापन्नाः, विकारविषपादपा विकारा एव विषवृक्षा अतुच्छां अत्यंतां मूछों यच्छंति मुह्यतां ददति, इत्यनेन अनादिस्वरूपयुतानां परमावरमणाभोग्याभोग्याचेतनानां विकारविषवृक्षा इंद्रिः स्पर्शनादिमिः विषयग्राहकैः प्रवर्द्धमानाः महामोहं कुर्वति, किंभूतैः आलवालैः ? तृष्णाजलापूर्णैः तृष्णा लोभवैकल्यं, लालसा, तद्रूपेण जलेन आपूर्णैः मृतैः इत्यर्थः तृष्णाप्रेरिता एव इंद्रियाश्वा धावंति, तृष्णाया आनंत्यंसुवन्नरुप्पस्स य पवया, भरे सिया हु कैलाससमा असंखया, नरस्स विलुद्धस्स न हुंति किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणतया ॥१॥ वारमणंतं भुत्ता वंता चत्ताय धीरपुरिसेहि। ते भोगा पुण इच्छइ भोत्तुं तिण्हाउलो जीवो ॥२॥
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इन्द्रियजयाष्टकम् .
तृष्णाकुलस्यैव विषया रमणीयाः सा च अनाद्यभ्यासतः विषयप्रसंगेन वर्द्धते अत इंद्रियपरित्यागो युक्तः ॥ २॥
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सरित्सहस्रदुः पूर - समुद्रोदरसोदरः । तृप्तिमान् नेन्द्रियग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना ॥३॥
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व्या० - सरित्सहस्रेति - हे भव्य ! अयं इंद्रियग्रामः तृप्तिमान् न, कदापि तृप्तिं न लभते, यतः अभुक्तेषु ईहा, भुज्यमानेषु ममता, भुक्तपूर्वेषु स्मरणं, इति त्रैकालिकी अशुद्धा प्रवृत्तिः, इंद्रियार्थरक्तस्य तेन तृप्तिः, कथंभूत इंद्रियग्रामः ? सरित्सहस्रदुः पूरसमुद्रोदरसोदरः सरितां सहस्रं तेन दुः पूर्यते समुद्रस्योदरः तस्य सोदरः, सहस्रशो नदीपूरैः दुःपूरः अपूर्यमाणो यः समुद्रस्य जलनिधेः उदरः तस्य सोदरो भ्राता अतः कारणात् पूर्यमाणोऽपि दुःपूर इंद्रियाभिलाषः स शमसंतोषेणैव पूर्यते, तदर्थं हितोक्तिः भो उत्तम ! अंतरात्मना आत्मनः अंतर्गतेन स्वरूपेण तृप्तो भव, स्वरूपावलंबनमंतरेण न तृष्णाक्षयः, अयं हि संसारचक्रक्रोडीभूतपरभावान् आत्मतया मन्यमानः, "शरीरमेवात्मा" इति बहिर्भावे कृतात्मबुद्धिः बहिरात्मा सन् अनंतपुद्गलावर्त्तकालं मोहावगुंठितः पर्यवति स एव निसर्गाधिगमाभ्यां स्वरूपपररूपविभजनेन " अहं शुद्धः " इति कृतनिश्चयः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकमात्मानमात्मत्वेन जानन् रागादीन् परत्वेन निर्धारयन् सम्यग्रहम् अंतरात्मा उच्यते, स एव सम्यग्दर्शनलाभकाले निर्धारिततध्वस्वरूपपूर्णप्राप्तौ परमात्मा परमानंदमयसंपूर्णस्वधर्म प्राग्भावभोगी सिद्धो भवति, तेन मिथ्यात्वमपहाय आत्मस्वरूपभुंजनेन उच्छिष्टमलजंबालोपमान् विषयान् त्यजति --
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ज्ञानमंजरी टीका.
विसयविसं हालाहलं, विसयविसं उकडं पोयं । ताणे विसयविसया पिव,विसयविसविसुईया हुति।। कामभोगग्रहो दुष्टः, कालकूटविषोपमः। तव्यामोहनिवृत्त्यर्थ-मात्मभावोऽमृतोपमः ॥३॥ ___ अत आत्मानुभवनेन तृप्तिं कुरु ॥ ३ ॥ आत्मानं विषयैः पाशैर्भववासपराङ्मुखम् । इन्द्रियाणि निबनन्ति, मोहरोजस्य किङ्कराः ॥४॥
व्या० आत्मानमिति-भवः संसारः, तस्य वासो निवासः तत्र पराङ्मुखो निवृत्त उद्विग्नः, तं आत्मानं इन्द्रियाणि निबनन्ति, भववासदृढं कुर्वति, कैः १ विषयपाशैः विषया एव पाशाः तैः, एते मोहराजस्य किंकराः परिवारमूताः, उपमितमोहसुता जगद्व्यामोहकृत् रागकेशरी तत्प्रधानो विषयामिलाष इति भवमूलविषयपरित्यागो हिताय ॥ ४ ॥ गिरिमृत्नां धनं पश्यन् , धावतीन्द्रियमोहितः । अनादिनिधनं ज्ञानं, धनं पा न पश्यति ॥ ५॥ ___ठया० गिरिमृत्स्नामिति, मूझो गिरिमृत्तां भूधरमृत्तियां स्वर्णादिकां धनं पश्यन् , इन्द्रियमोहितो विषयासक्तो धावति इतस्ततः परिप्रमति, ज्ञानं धनं पार्श्वे समीपे न पश्यति, तदात्मा स्वलक्षणभूतं तत्त्वावबोधरूपं ज्ञानं धनं न पश्यति नावलोकयति, कथंभूतं ज्ञानं ? अनादिनिधनं अनादि आदिरहितं सत्तया अनिधनं अंतरहितं सत्ताविश्रांतिरूपं । उक्तं च--" केवलनाणमणंत, स भावरूवं तवं निरावरणं " सिद्धत्वेन अविनश्वरत्वात् निगोदावस्थां यावत् ज्ञानं अत्यंतबोधो महामोहोदयेऽपि
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इन्द्रियजयाष्टकम्
सत्तागतं सम्यग्दृष्टि-देशविरति-सर्वविरतानांसाध्यरूपं निर्विकल्पसमाधिः शुक्लध्यानस्य फलरूपं अर्हत्सिद्धानां परमं स्वरूप केवलज्ञानं धनं स्वीयं सहजं विस्मृत्य उपाधिकारोपितमृदूपलरूपे धने मुह्यन्ति मूढाः ॥ ५ ॥ पुरः पुरः स्फुरत्तृष्णा-मृगतृष्णानुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानाऽमृतं जनाः॥६॥
व्या० पुरः पुर इति--जड़ा मूर्खाः स्याद्वादवस्तुस्वरूपोपलंभरहिताः ज्ञानामृतं ज्ञानं बोधः तदेव अमृतं आविनाशिपदहेतुत्वात्, तत् त्यक्त्वा इन्द्रियार्थेषु रूपरसगंधस्पर्शशब्दलक्षणेषु धावन्ति, भोगाभिलाषिण आतुरा भवंति, तदर्थ यत्नः, तदर्थं दंभविकल्पकल्पना, तदर्थ कृष्यादिकर्म करोति, कथंभूतेषु इन्द्रियार्थेषु ? पुरः पुरः स्फुरत्तृष्णामृगतृष्णानुकारिषु, अये स्फुरंती या तृष्णा भोगपिपासा तया, मृगतृष्णा जलमांतिः तदनुकारिषु तत्सदृशेषु, यथा-मृगतृष्णाजलं. न पिपासापहं प्रांतिरेव एवमिंद्रियभोगा न सुखं सुखभ्रांतिरेव तत्त्वविकलानां ॥ ६ ॥ पतङ्गभृङ्गमानेभ-सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रियदोषाच्चेद्,दुष्टैस्तैः किं न पञ्चभिः ? ॥७॥ ___व्या०-पतंगभंगमीनेति-रूपासक्तः पतंगः, रसासक्तो मीनः, भंगो भ्रमरः, स्पर्शा सक्त इभो गजः, शब्दासक्तो मृगः सारंगः, एते एकैकेंद्रियदोषाद् दुर्दशां दुष्टां दीनां दशा अवस्थां यांति, तदा तैः पंचभिः दुरैः किं न इति किं दुःखं न भवति ? भवत्येव, अत एव महाचक्रधरा वासुदेवा मंडलिकादयः कंडरिकादयश्च विवयव्यामोदितचित्ता नरके दीनावस्थां प्राप्ताः, किं बहुना १ मा कुरुक्ष्वं विषयविषसंगमम् ॥ ७॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२४७.
विवेकद्विपहर्यक्षः, समाधिधनतस्करैः।। इन्द्रियै जितो योऽसौ, धीराणां धुरि गण्यते॥८॥
व्या०-विवेकेति-विवेकः स्वपरविवेचनं, स एव द्विपो गजः, तद्विवाते हर्यक्षतुल्यैः सिंहोपमैः, समाधिः स्वरूपानुभवलीलाविश्रांतिः, स एव धनं सर्वस्वं, तद्हरणे तस्कराभैः, एवं इंद्रियैः यः असौ पुरुषो नमि-गजसुकुमालादिना सह स न जित इंद्रियाधीनो न जातः स धीराणां धुरि आदौ गण्यते श्लाध्यते । उक्तं चधन्यास्ते ये विरक्ता गुरुवचनरतास्त्यक्तसंसारभोगा योगाभ्यासे विलीना गिरिवनगहने यौवनं ये नयन्ति। तेभ्यो धन्या विशिष्टाः प्रबलवरवधूसङ्गपञ्चाग्नियुक्ता नैवाक्षौधे प्रमत्ताः परमनिजरसंतत्त्वभावंश्रयन्ति॥१॥
अहह !! पूर्वभवास्वादितसाम्यसुखस्मरणेन प्रणयति अनुत्तरविमानसुखलवसत्तमा इंद्रादयो हि विषयस्वादत्यागासमर्था लुठंति भूपीठे मुनीनां चरणकमलेषु, अतः अनाद्यनेकशो भुक्तविषया वारणीयाः, तत्संगोऽपि न विधेयः, न स्मरणीयः पूर्वपरिचयः, प्रतिसमयं दुगछनीया एव एते संसारबीजभूता इंद्रियविषयाः, अत एव निर्यथा निवर्तयंति कालं वाचनादिना तत्त्वावलोकनेहादिषु । उक्तं च-"निम्मलनिकालनिस्संगसिद्धसम्भावफासणा कईया ” इत्यादिरुच्या रत्नत्रयपरिणताः तिष्ठति स्थविरकल्पजिनकल्पेषु, सर्वैरपि भन्यैः एतदेव विधेयम् ॥ ८॥
॥ इति ग्याल्यात इंद्रियजयाष्टकं सप्तमम् ॥
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२४८
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त्यागाष्टकम्.
अथ अष्टमं त्यागाष्टकम् |
इंद्रियजयो हि त्यागाद् वर्द्धते अत आत्मनः स्वरूपादन्यत्परभावत्वं त्याज्यं, तेन त्यागाष्टकं लिख्यते, त्यजनं त्यागः सर्वेषां परभावत्यागः सुखं त्याग उत्सर्जनं तत्र स्वद्रव्यस्वक्षेत्रस्वकालस्वभावत्वेन स्यादस्ति इति प्रथमभंगगृहीतात्मपरिणामस्वात्मनि वर्त्तमानः स्वधर्मः तस्य समवायत्वेनाभेदात् त्यागो न भवति, अस्त्येव तदात्मनि उपादेयत्वं तु सम्यग्ज्ञानादिसाधनवृत्त्या विस्मृतस्य स्मरणात्, तिरोभूतस्याविर्भावात्, अभुक्तस्य भोगात्, शेषाणां सर्वसंयोगिकतया ज्ञानात् हेयतैव यद्यपि देवादिनिमित्तानां शुभाचारादीनां ध्यानादीनां आत्मसाधन परिणामानां अनाद्यशुद्ध परिणतिग्रहणवृत्तिवारणाय ग्रहणता कृता तथापि स्वसिद्धावस्थात्यागता न इति उत्सर्गमार्गेण न ग्रहणता अनादिमिथ्यादृष्टिः कुदेवादिरक्तः स च सम्यग्दर्शनबलेन निर्धारितस्वधर्मरुचिः शुद्धदेवादीन् गृह्णाति तथापि परत्वज्ञप्तिरेव अप्रशस्तंत्यागः प्रशस्तग्रहणं प्रशस्तात्यागः स्वसाधन परिणतिग्रहणं परमसिद्धे, तत्र नामत्यागः शब्दालापरूपः, स्थापनात्यागः दशयतिधर्मपूजनादौ स्थाप्यमानो द्रव्यत्यागो द्रव्येण बाह्यवृत्त्या इंद्रियसुखाभिलाषेण उपयोगभूतेन वा यो त्यागो द्रव्यत्यागः, द्रव्यस्य द्रव्याणां वा आहारोपधिप्रमुखस्य त्यागो द्रव्यरूपः त्यागः स च आगमतो द्रव्यत्यागः स्वरूपज्ञानी अनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरं त्यागस्वरूपज्ञायकस्य शरीरं भव्यशरीरं त्यागस्वरूपज्ञायकभावि लघुशिष्यादि तद्व्यतिरिक्त सुव्यत्यागः पुद्गलाशंसाइहलोकाशंसा - परलोकाशंसारहितः स्वरूपसाधनाभिमुखी बाह्यो -
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२४९
ज्ञानमंजरी टीका.
पधिशरीरान्नपानस्वजनादित्याग इति । भावत आभ्यंतररागद्वे षमिथ्यात्वाद्याश्रवपरिणतित्याग आत्मनः क्षयोपशमिकानां ज्ञा नादीनां परभावतो निवृत्तिः भावत्यागः, सम्यग्ज्ञानपूर्वकचारित्र वीर्यसंकरजन्य आत्मपरिणामः नामस्थापनां यावत् नैगमसंग्रह व्यवहारविषगरलानुष्ठानेन ऋजुसूत्रेण कटुविपाकभीत्या शब्दसममि रूढौ तद्धेतुतया एवंभूतत्यागः सर्वथावर्जनं वर्जनीयत्वेन अथव अशनादिबाह्यरूपं आद्यनयचतुष्टये आभ्यंतरस्त्यागः शब्दादिन यत्रये इति भावना सत्यागः करणीय इत्युपदिश्यते-संयतात्मा श्रयेच्छुद्धोपयोगं पितरं निजम् । धृतिमम्बां च पितरौ, तन्मा विसृजतं ध्रुवम् ॥ १ ॥ युष्माकं सङ्गमोऽनादि बन्धवोऽनियतात्मनाम् । ध्रुवैकरूपान् शीलादिबन्धूनित्यधुना श्रये ॥२॥ युग्मम् ॥
"
व्या० - संयतात्मा इति - - संयतात्मा संयमाभिमुखी शुद्रोपयोगं निजपितरं श्रयेत्, रागद्वेषरहित आत्मज्ञानं श्रयेत् आश्रयेत् व आत्मरतिरूपां अंबां जननीं श्रयेत् तेन आहारपर्याप्तिनामकर्मोदयात् यत्र उत्पन्नः सा माता, तद्भोगी पिता इति लौकिक संबंधः, तान् वक्ति तौ पितरौ मा विसृजतं त्यजतं नाहं वां पुत्रः न युवां मम जनकौ इति अयं हि लोके एव मार्गः । अत्र दृष्टांतः -- " जहा एगया भरहे खित्ते मगहजणवए सुवपाए नयरीए आरिदमण नयमग्ग (विहिकुसलो) "वयरजंची" राया, तस्स धारिणी देवी, तस्स उ " सुभाणु" नाम कुमरो अमरुव सुंदरी अणुक्कमेण विज्जापुरंदरों जाओ लावण्णजुओ सहजेण जिणधम्मसाहुवंदणपूयणतप्परो जाओ सो कमेण | कंदप्रमणे जुवणवसमणुपत्तो ता जणएण रूपलावण्णसील कला
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त्यागाष्टकम्
याओ एकसयं रायकन्नाओ मापत्तीता पणीयाओ सो तेहि सद्धिं विसयभुंजमाणो तिलोगनाह तिलोयबंधु सेवणरओ चिट्टइ, तओ एगया अणेगेहिं केवलिहि अणेगेहिं विउलमइहिं अणेगेहि उजुमईहिं अणेगेहिं ओहिनाणीहि अणेगेहिं पुवधरेहि अणेगेहि
आपरियउवज्झाएहिं अणेगेहिं तवोधणेहिं अणेगेहिं नवदिक्खिएहि अणेगदेवदेवीपरिवुडो सिरिसंभवो अरिहा सवन्नू सबदंसी आगासगएणं छत्तेणं आगासगएणं चक्केणं उद्भवमाणेहिं सेयधामरेहिं पुरओ धम्मज्झएण विरायमाणं नयरपरिसरे सामि समोसढो, जाओ अ समो सरणो तिवप्पो, परिसा निग्गया, वणपालेण वद्धाविओ कुमारो, जं सदइ दंसणं अमिलससि सो सहजगजीववच्छलो तित्थयरो समागओ, ते पुण्णजोगेणं, तेणं समएणं सो कुमारो इत्थिसएहि परिवेढीओ आसि, तओ भणइ गुणसु मे तारगो निम्ममो निरहंकारो अकिंचणो सवन्नू सहदंसी जिणो वीयरागो सुद्धधम्मदेसी आगओ, इच्छामि वंदणत्थं इति पुलिअंगो अब्भुडिओ चलिओ अ जिणवंदणत्यं मग्गेवि लोगवूहं भणंतो अहो अममो मे भयवं अकिंचणो मायवं अतिण्हो मे भयवं वंदित्तुं भो तुन्भे जइ सुहाथणो आगच्छंतु भो तुम्हाणं सबसंसयच्छेयगो परमेसरो दिहस्सं इअ भणंतो इत्थिाहिं समं वणं पत्तो दिहाइसओ भणइ अत्थि भद्दे ! कोवि एयारिसो तिहुअणजणचमक्कारकरो सबसुरिंदेहि वंदिज्जमाणचलणो ? एवं जाव समूहं पासई अरिहंतं फुल्लुप्पलकमलनयणवयणो अहो मे पुन्नंकुरो अज्ज फलं पत्तो, अहो मे अज्ज अमियघणो वुट्टो, जेण वीयरागदसणं जायं, एवं अमिणंदंतो पंचामिगमपुवं तित्थयरचरणे वंदिऊण ठिओध्धुणतो ताव चारित्तमोहस्स रखउवसमेण जायविरईमइ भणइ नाह ! असरणसरणमहासत्थवाह !
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ज्ञानमंजरी टीका.
२५१
~~rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
भवसमुद्दनिज्जामय ! मम सामाईअं उवदिसह जेण कसायवाउ भयई एवं वुत्ते अरहंतेण सामाईअं दिन्नं, गहिअवओ समणो जाओ, ताव आउक्खयं जायं, मओ से कुमारसमणो, ता तस्स जणओ राया सपरिजणो आगओ, सुअं मयं पासिऊण विसनो जणणी वि विलवंती रुयमाणी सो सुभानुजीवो झत्ति देवत्तं लहिऊण समागओ जिणचरणे, ता अम्मा पियरो विलवंतो पासिऊण भणइ, को एरिसो दुक्खो जं जिणचरणे परमसुहदायगे लहिऊण रुयसि ? ते भणंति अम्हाणं सुओ परमवल्लहो वावन्नो, तस्स विओगो जाओ, सो दुरको दुस्सहो, ता सुरो भणइ राय ! भणसु तस्स सरीरं तुह इह जीवो वा ? जई जीवो इट्ठो ता अहं, कुणसु रागं, जई सरीरो इहो ता कलेवरं रज्जह कहय तुझ पुत्तं तं कत्थ तणुसु जीवे वा ? ऊतयं इच्छतिय कहं रुयसि ? ता नणयो भणई, नो सो रागो उल्लसइ, ता सुरो भणइ मन्नणा चेव एसा जं मे सुओ इमा जणणी इच्चाई वियप्पा अवत्थुतारूवे संबंधे कह मुच्छिया इय वयणेणं पडिबुद्धा सवे पवज्जमागया, इअ लोगंमि संबंधो भमरूपो। युष्माकमिति हे मातापितरौ ! हे बंधवः ! युष्माकं संबंधः अनादिसंतत्या अनाद्यनियतात्मनां असंयतानां भवतीत्यर्थः वा अनियतात्मनां अनिश्चितस्वरूपाणां मित्रं शत्रुर्भवति, शत्रुः पुनर्मित्र भवति, अधुना ध्रुवा निश्चिता एकरूपा नानाभावरहिता तान् शीलादिबंधून शीलसत्यशमदमसंतोषादिबंधून हितकारकान् नित्यं सदा श्रय साधकशुद्धात्मगुणरूपान् बंधून् भज ॥२॥ कान्ता मे समतैवैका, ज्ञातयो मे समक्रियाः। बाह्यवर्गमिति त्यक्त्वा, धर्मसन्न्यासवान् भवेत् ॥३॥
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२५२
त्यागाष्टकम्
व्या०-कांता मे इति-तत्त्वज्ञानी आभ्यंतरसंबंधे रतिं करोति तदाह-मे मम स्वरूपसाधनतत्परस्य समता एव एका कांता वल्लभा भोगयोग्या, इत्यनेन तत्त्वावलंबनीभूतानां समता वनिता, समक्रियाः साधवः मे ज्ञातयः स्वजना इति कृत्वा बाह्यवर्ग पुत्रकलत्रादिकं त्यक्त्वा धर्मसन्न्यासवान् गृहस्थधर्मत्यागवान् भवेत्, औदयिकसंपदं विहाय क्षयोपशमजां स्वीयां साधनसंपदां भवतत्यनादिप्रसंगादिविभावसंपदां गृह्णन् इच्छन् भुंजन् भवाटव्यां परिप्रमति, स एव सम्यग्ज्ञानदर्शनेन चारित्रसाधनधर्मपरिणतो मोक्षसाधको भवति ॥३॥ धर्मास्त्याज्याः सुसङ्गोत्थाः, क्षयोपशमिका अपि । प्राप्य चन्दनगन्धाभं, धर्मसन्न्यासमुत्तमम् ॥ ४॥ - ब्या०-धर्मा इति-क्षयोपशमका भेदरत्नत्रयीरूपा धर्माः सुसंगोत्थाः सत्संगदेवगुरुप्रसंगसंभवा अपि धर्माः त्याज्या धर्मसन्न्यासं उत्तमं क्षायिकाभेदरत्नत्रयीरूपं स्वधर्मपरिणामं सहजपरिणमनरूपं प्राप्य लब्ध्वा कथंभूतं धर्मसंन्यासं ? चंदनगंधाभं चंदनगंधतुल्यं, तिलादौ हि सुगंधता संगसंभवा पुरुषादिनिमित्तसंभवा, चंदने सुगंधता सहजरूपा तादात्म्यत्वेन सहजेन उत्था उत्पन्नाः सहजोत्था अनेन सहज एव आत्मनि धर्मपरिणामः स्वरूपत्वात् सहजः स च अशुझतया आवृतत्वेन गुरुनिमित्तात् प्राग्भावं लभते, तब प्रथमं सविकल्पयुतजिज्ञासादिनिमित्तसापेक्षं सम्यग्दर्शनादिकं प्रकटयति, तेनैव वर्द्धमानेन विकल्पं अभेदरत्नत्रयीरूपं निमित्ताद्यपेक्षां विना गुणपरिणामरूपं सहजधर्मपरिणामं परिणयति तदा सविकल्पा साधना त्याज्या एव भवति। उक्तं च योगदृष्टिसमुच्चये-"द्वितीयाऽपूर्वकरणे प्रथमतात्विको भवेत्
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ज्ञानमंजरी टीका.
इति" तत्र सम्यग्लाभकाले प्रथमापूर्वकरणः क्षपकश्रेणिनिवृत्तिबादरगुणस्थाने, द्वितीयः अपूर्वकरणः तत्र द्वितीये अपूर्वकरणे प्रथमो धर्मः अतात्विकः स तात्त्विको भवति । भावना च यद्यपि क्षयोपशमिकाः सम्यग्दर्शनादिगुणाः अरिहंत (अर्हत् ) प्रवचनादिस्वजातिअबाधकविजातिपरद्रव्यमवलंब्य प्रवर्त्तते परावलंबनेन अतात्विकाः तवस्वरूपं न तन्मया इति किंतु अरिहंतादिगुणावलंबिन इति एषा परानुयायिता अस्त्येव, इत्यनेन अताविका यस्य सम्यग् दर्शनादिगुणक्षयोपशमः स्वरूपनिर्धारभासनरमणात्मकः अन्यनिमित्ताद्यवलंबनकृते स तात्त्विक इति, अत्र रत्नत्रयीस्वरूपे वीतरागसर्वज्ञोक्तयथार्थतत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं यथार्थतत्त्वावबोधो ज्ञानं तत्त्वरमणं चारित्रं इति गुणत्रयी क्षयोपशमः अर्हद्वाक्याधवलंबनेन साधकत्वस्वगुणोऽपि क्रमकारणं करणात्, अतत्वं विकल्पपूर्वकं अंतर्मुहूर्त्त यच्चोपादेयत्वेन स्वतवनिर्द्धारभासनरूपं हेयबुद्ध्या परभावत्यागनिर्द्धारभासनरमणयुक्तं रत्नत्रयी परिणमनं भवति तद्भेदरत्नत्रयीरूपं, यच्च सकलविभावहेयतयाप्यवलोकनादिरहितं विचारणस्मृतिव्यानादिमुक्तं एकसमयेनैव संपूर्ण - आत्मधर्मनिर्धारभासनरमणरूपं निर्विकल्पसमाधिमय- अमेदरत्नत्रयीस्वरूपं । उक्तं च ध्यानप्रकाशे
२५३
जोयवियप्पो चिरकालीओ, सपरोभयावलंबणे होइ । जिटिव पुरस्स चलणे, निमित्तगाही भवे तेई ॥ १ ॥
एग समणत्तियवबुधम्मंमि, जं गुणतिगरमपरदचाणु-वउगीतिमत्तवाई अईसो ॥ २ ॥ (९)
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ईदृग् अभेदरत्नत्रयी परिणतेन भेदरत्नत्रयी परिणामसप्रयासः सशंकः त्यज्यत एव ॥ ४ ॥
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गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता । आत्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत्सेव्यो गुरुत्तमः ॥ ५॥
त्यागाष्टकम्
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व्या० गुरुत्वमिति - - यावता अस्य साधकस्य गुरुत्वं स्वस्य आत्मन एव न उदेति न जायते, केन ? शिक्षासात्म्येन स्वयमेव स्वस्य शिक्षादायको न भवति, पुनः केन ? आत्मतत्त्वप्रकाशेन आत्मधर्मप्राग्भावेन संशयविपर्ययरहितशुद्धात्मतत्त्वप्रकाशको यावन्न भवति तावत् अयं उत्तमस्वपरोपकारी रत्नत्रयीपरिणतः द्रव्यभावगुरुगुणोपेतो गुरुः तवकथकः सेव्यः, हे-गुरो ! अतीतानंतकालाप्राप्तं स्वात्मधर्मनिर्द्धारभासनरमणं तत्तवोपदेशांजनेन प्राप्तं आत्मानुभवसुखं भुक्तं अहो गुरूणां कृपा ! ! यया परमामृतास्वादनं भवति, अतो यावत् पूर्णानंदः तावत् तव चरणौ शरणं । उक्तं च-
नाणस्स होइ भागी, थिरयरो दंसणे चरित्ते अ । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १ ॥
अत एव परित्यज्य चक्रवर्त्तित्वं, इम्य-श्रेष्ठित्वं, गृह्णति श्रमणत्वं, सेवंते गुरुचरणारविंदान् तच्वजिज्ञासापटवः ॥ ५ ॥ ज्ञानाचारादयोऽपीष्टाः, शुद्धस्वस्वपदावधि | निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, न विकल्पो न च क्रियाः ॥६॥
व्या० ज्ञानाचारा० इति -- ज्ञानाचारादयः कालविनयादिनिःशंकादिसमितिगुप्त्यादय आचाराः, आचर्यन्ते गुणवृद्धये वे आचाराः शुद्धस्वस्वपदावधि, शुद्धः स्व इति स्वकः तस्य पदस्य अवधिः मर्यादा तावत् इष्टाः, शुभोपयोगदशायां सविकल्पतां यावत् आचारा इष्टा वल्लभाः, यदा निर्विकल्पे चिंतनारहिते
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ज्ञानमंजरी टीका.
२५५
त्यागे विकल्पो न, इदं त्याज्यं, इदं ग्राह्य इति विकल्परहिते त्यागे निःप्रयासस्वरूपैकत्वरूपे विकल्पचिंतना न क्रिया बलवीर्यादिरूपापि तत्तत्र स्वरूपावलंबिगुणवतने वीर्यस्य स्वक्षेत्रावगाढत्वेन न चलनता परभावग्रहणे तु परग्राहकत्वेनोन्मुखवीर्यप्रवृत्ती कार्याम्यासतो विषमीकृतवीर्यत्वेन चलनारूपा क्रिया अस्ति, अतः स्वरूपमना स्वस्वप्रदेशव्याप्तगुणानां तज्जदेशगतवीर्यसहकारवृत्या प्रदेशांतरागमनरूपा वीर्यचलनाक्रिया न द्विधा, बाधका साधका चैव, तत्र मिथ्यात्वासंयमकषायप्रेरितचेतनापरिणामाः परामिलाषकत्वेन परिग्रहणाय प्रेरयंति वीर्य, सा आभ्यंतरा कुदेवसेवनादिरूपा बाह्यक्रिया बंधहेतुत्वेन बाधका भण्यते, या तु शुनदेवगुरुसेवनाश्रवनिरोधसंवरपरिणमनरूपा · कर्मबंधरोधरूपासा साधका उक्ता । निर्विकल्पे ध्यानसमाधौ बाधकक्रिया भावसाधकबाह्यक्रिया-अभावः गुणानुयायिवीर्यपरिणमनरूपा अभ्यंतरा क्रिया अस्ति, तथापि ग्रहणत्यागरूपक्रियाऽभावे न क्रिया इति उक्तं ॥६॥ योगसन्न्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलांस्त्यजेत । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥७॥
व्या०-योगसंन्यासत इति त्यागी बाह्याभ्यंतरसमस्तपरभावत्यागी योगसंन्यासतो योगरोधनत आवर्जीकरणात् ऊर्च अखिलान् समस्तान् योगान् वीर्यपरिस्पंदरूपान् त्यजेत् अयोगी भवति इति समस्तयोगरोधेन परोक्तं परैः उत्कृष्टैः सर्वज्ञैः उक्तं निवे. दितं निर्गुणं योगादिरहितं सत्वरजस्तमोरूपगुणरहितं ब्रह्म आत्मस्वरूपं उपपद्यते शुद्धचिन्मयं निष्पद्यते, योगरोधस्वरूपं च वस्तुत इति संसर्गिकगुणरहित इति कथनेन आत्मा सदैव निर्गुण इति निवारयन्नाह ॥७॥
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त्यागाष्टकम.
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वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमनन्तैर्भासते स्वतः । रूपं त्यक्तात्मनः साधोनिरभ्रस्य विधोरिव ॥ ८॥ ____ व्या०-वस्तुत इति-वस्तुतः पदार्थमूलस्वरूपेण, शुद्ध आत्मा स्वतः स्वस्वभावेन अनंतैः गुणैः पूर्ण भासते सम्यग्ज्ञानदर्श नचारित्रतपोरूपेण साधनपरिणमनेन अनादिसङ्गिभावपरित्यागेन स्वरूपभासनरमणानुभवनेन अमिनवकर्माग्रहणस्वरूपैकत्वतन्मयध्यानतः पूर्वकर्मक्षरणेन अयं आत्मा शुद्धः सकलपुद्गलोपाधिरहितो यदा भवति तदा ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यागुरुलघुअव्याबाधासंगामूर्तपरमदानलाभभोगोपभोगाक्रियसिद्धत्वादि-अनं. तैस्त्वसंख्येयप्रदेशव्यापकैः गुणैः पूर्ण भासते राजते इत्यर्थः किमिव त्यक्तात्मनः त्यक्तं परभावे आत्मत्वं येन स तस्य त्यक्तात्मनः साधोः मोक्षपदसाधकस्य रूपं निरमस्य मेघपटलरहितस्य विधोः चंद्रस्य इव रूपं भासते, यथा अमहीनं चंद्रस्य रूपं भासते यथा अग्रहीनं चंद्रस्वरूपं निर्मलं भवति तथा ज्ञानावरणाद्यप्ररहितस्य शुद्धात्मनः स्वरूपं निर्मलं भवति, अत एव बाधकपरिणतिहेतुतां संत्यज्य साधकत्वमवलंब्य साधकत्वेऽपि विकल्परूपार्वाचीनापवादसाधनां त्यजन् उत्सर्गसाधनां गृह्णन पुनः त्यजन् पूर्णगुणावस्थां श्रयन् एवं अनुक्रमेण आत्मा सकलसंसर्गभावनिरावरणेन निर्मलनिःकलंकासंगसर्वावरणरहितः सच्चिदानंदरूप
आत्मा अत्यंतकांतिकनिबंध (द्वंद्व) निःप्रयासनिरुपमचरितसुखपूर्णो भवति, अतः सम्यग्ज्ञानबलेन हेयोपादेयविवेचनं कृत्वा समस्तहेयभावत्यागवत्तया भवितव्यं, त्यागो हि निर्जरामूलं, परभावग्रहणमेवात्माऽहितं अतः त्यागः करणीय एव आत्मस्वरूपाभिलाषुकैः ॥८॥
इति व्याख्यातं त्यागाष्टकम् ॥ ८॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
॥ अथ क्रियाष्टकम् ॥ ९॥
परभावत्यागकरणं एव साधका क्रिया, अतः क्रियाष्टकं निरूप्यते, क्रियते आत्मकर्तृत्वेन सा क्रिया, कर्तुः द्रव्यस्य प्रवृत्तिः, स्वरूपाभिमुखदर्शनज्ञानोपयोगता ज्ञानं, स्वरूपाभिमुखवीर्यप्रवृत्तिः क्रिया, "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" तत्र ज्ञानं स्वपरावभासनरूपं, क्रिया स्वरूपरमणरूपा, तत्र चारित्रवीर्यगुणैकत्वपरिणतिः क्रिया सा साधका, अत्र अनादिसंसारे अशुद्धकायिक्यादिक्रियाव्यापारनिष्पन्नः संसारः स एव विशुद्धसमितिगुप्त्यादिविनयवैयावृत्यादिसत्क्रियाकरणेन निवर्तते, अतः संसारक्षपणाय क्रिया संवरनिरात्मिका करणीया, नामस्थापना सुगमां द्रव्यक्रिया शुद्धा अशुद्धा च, तत्र शुद्धा स्वरूपानुयायियोगप्रवृत्तिरूपा, अशुद्धा कायिक्यादिव्यापाररूपा, भावक्रिया वीर्यप्रवृत्तिरूपा, पुद्गलानुयायि - औदारिकादिकायव्यापारसन्मुखा अशुद्धा, शुद्धा पुनः स्वगुणस्वपरिणमनत्वनिमित्त वीर्यव्यापाररूषा क्रिया भावक्रिया, तत्र क्रिया संकल्पः नैगमेन ससंग्रहेण सर्वे संसारजीवाः सक्रिया उक्ताः, व्यवहारेण शरीरपर्याप्त्यनंतर क्रिया, ऋजुसूत्रनयेन कार्यसाधनार्थं योगप्रवृत्तिमुख्यवीर्य परिणामरूपादिक्रिया, शब्दनयेन वीर्यपरिस्पंदात्मिका, समभिरूढनयेन गुणसाधनारूपसकल कर्त्तव्यव्यापाररूपा, एवंभूतनयेन तचैकत्ववीर्यतीक्ष्णतासाहाय्यगुणपरिणमनरूपा । अत्र साधकस्य साधनक्रियाया अवसरः 'नाणचरणेण मुख्खो' तेन चरणगुणप्रवृत्तिस्वरूपग्रहणपरभावत्यागरूपा क्रिया मोक्षसाधका, अतः ज्ञाततश्वेन तथ्वसाधनार्थं सम्यक्क्रिया करणीया, तदुपदेशः क्षायिकसम्यक्त्वं यावत् निरंतरं निःशंकाद्यष्टदर्शनाचारसेवना, केवलज्ञानं यावत् कालविनयादिज्ञानाचारता, निरंतरं यथाख्यात चा
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क्रियाष्टकम्.
रिवादाक् चारित्राचारसेवना, परमशुक्लध्यानं यावत् तपआचारसेवना, सर्वसंवरं यावत् वीर्याचारस्य साधनाऽवश्यंभाविनी, नहि पंचाचारमंतरेण मोक्षनिष्पत्तिः, दर्शनाद्धि स्वगुणानां प्रवृत्तिः क्रियादर्शनादिगुणविशुद्धयर्थ "तन्निमित्तमवलंब्य प्रवर्तनं आचारः" इत्यतो गुणपूर्णतानिष्पत्तेः अर्वाक् आचरणा करणीया, आच रणातः गुणनिष्पत्तिः भवत्येव, पूर्णगुणानां तु आचरणा परोपकाराय इति सिद्धः अत एव उच्यतेज्ञानी क्रियापरः शान्तो, भावितात्मा जितेन्द्रियः। स्वयं तीर्णो भवाम्भोधेः, परांस्तारयितुं क्षमः॥१॥
व्या०-ज्ञानीति-ज्ञानी यथार्थतत्त्वस्वरूपावबोधी यदा क्रिया साधनकारणानुयायियोगप्रवृत्तिरूपा स्वगुणानुयायिवीर्यप्रवृत्तिरूपा तस्यां तत्परः उद्यतः, पुनः शांतः कषायतापरहितः, भावितात्मा भावितः शुजस्वरूपरमणमयः आत्मा यस्य स भावितात्मा जितेंद्रियः पराजितेंद्रियव्यापारः भवसमुद्रात् स्वयं तीर्णः पारंगतः, परान् आश्रितान् उपदेशदानादिना तारयितुं क्षमः समर्थो भवति, यो हि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतः आत्मारामी आत्मविश्रामी आत्मानुभवमग्नः स स्वयं संसारात निवृत्तः तत्सेवनपरान् निस्तारयति, अत्र द्रव्यज्ञानं भावनारहितं वचनव्यापारमनोविकल्परूपं संवेदनज्ञानं यावत्, तच्च भावज्ञानं तत्त्वानुभवरूपोपयोगस्य कारणं, द्रव्यक्रिया योगव्यापारात्मिका सापि भावनियायाः स्वगुणानुयायिस्वरूपप्रवृत्तिरूपायाः कारणं, अत्र 'ज्ञानस्य फलं विरतिः तेन ज्ञानं विरतिकारणं । उक्तं च-तत्त्वार्थटीकायां "दर्शनज्ञाने चारित्रस्य कारणं, चारित्रं मोक्षकारणं" । उत्तराध्ययनेऽपि
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ज्ञानमंजरी टीका.
२५९
ता दंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मुक्खो, नत्थि अमुक्खस्स निवाणं ॥ १ ॥ इति अतः ज्ञानं क्रियायुक्तं हिताय नैकमेवेत्याह-क्रियाविरहितं हन्त !, ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गतिं विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥२॥
व्या० - क्रिया इति । क्रियाविरहितं क्रिया साधनप्रवृत्तिरूपा तया विरहितं ज्ञानमात्रं संवेदनज्ञानं अनर्थकं न मोक्षरूपकार्यसाधकं । तत्र दृष्टांतः पथज्ञोऽपि मार्गज्ञाता अपि गतिं विना चरणविहारक्रियां विना ईप्सितं इच्छितं नगरं न आप्नोति चरणचंक्रमणेनैव ईप्सितनगरप्राप्तिः इति 'नाणचरणेण मुख्खो इति वचनात् ।
सन्नाणनागोवगए महेसी, अणुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । अणुत्तरे नाणधरे जसंसी, उभासई सूरिएवंतलिरके ॥ १ ॥ ॥ इति उत्तराध्ययने ॥ २॥ पुनस्तदेव द्रढयन्नाह - स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि, तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥ ३ ॥
व्या० - स्वानुकूलांमिति - ज्ञान पूर्णोऽपि स्वपरविवेचनविशिष्टो पि काले अवसरे कार्यकरणक्षणे स्वानुकूलां तत्कार्यकरणरूप क्रियां अपेक्षते, तत्त्वज्ञानी सम्यग्ज्ञानी प्रथमं संवरकार्यरुचि देशविरतिसर्वविरतिग्रहणरूपां क्रियां आश्रयति, पुनः चारित्र मुक्तोऽपि तत्त्वज्ञानी केवलज्ञानकार्यनिष्पादनरसिकः शुक्कुध्यानारो
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क्रियाष्टकम्
रूपां क्रियां आश्रयति, केवलज्ञानी सर्वसंवरपूर्णानंदकार्यावसरे योगरोधरूपां क्रियां करोति, अत एव उच्यते ज्ञानी क्रियां अपेक्षते, एवं तदर्थमेव आवश्यककरणं मुनीनां तत्र दृष्टांतः यथा प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि तैलपूर्त्यादिकां क्रियां अपेक्षते एवं सम्यगज्ञानी अपि क्रियारंगी भवति, क्रिया हि वीर्यशुद्धिहेतुः अशुद्धवीर्यविहितास्रवः संसरति संसारे, स एव गुणी सेवनगुणप्राग्भावोद्यतः संवरीभवति, कर्मप्रदेशग्रहणं योगैः, योगा वीर्यप्रभवाः, तेन योगाः परमात्मवन्दनस्वाध्यायाध्ययनादियोजिताः न कर्मग्रहणाय भवन्तिः योगानां सत्प्रवृत्तिः क्रिया इति ॥ ३ ॥ बाह्यभावं पुरस्कृत्य ये क्रियां व्यवहारतः । वदने कवलक्षेपं, विना ते तृप्तिकाङ्क्षिणः ॥ ४ ॥
व्या० - बाह्यभावमिति - बाह्यभावं बाह्यत्वं पुरस्कृत्य अंगीकृत्य ये नरा असेवितगुरुचरणा व्यवहारतः क्रियां निषेधयंति “किं बाह्य क्रियाकरणेन" १ इति उक्त्वा क्रियोद्यमं मंदयंति ते नरा वदने मुखे कवलक्षेपं विना तृप्तिकांक्षिणः तृप्तिवांछका इति ॥४॥ गुणवद्बहुमानादे- र्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया । जातं न पातयेद् भाव - मजातं जनयेदपि ॥ ५ ॥
"
व्या० - गुणवदिति - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रक्षमामार्दवार्जवादिगुणवंतः तेषां बहुमानं स्वतोऽधिकगुणवतां बहुमानं आदिशब्दात् दोषपश्चात्ताप, पापदुगंछातिचारालोचनं देवगुरुसाधर्मिकभक्तिः, उत्तरगुणारोहणादिकं सर्व ग्राह्यं च पुनः नित्यस्मृतिः पूर्वगृहीतव्रतस्मरणं, अभिनव प्रत्याख्यानसामायिकचतुर्विंशतिस्तवगुरुवंदनप्रतिकमणकायोत्सर्गप्रत्याख्यानादीनां नित्यस्मृत्या सत्क्रिया भवति । अत्र गाथा श्रीहरिभद्रपूज्यविंशतिकायां
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२६१
AAAAAAAAAAAAD
-
तम्हा णिच्चसए, बहुमाणेणं च अहिगयगुणिमि । पंडिवक्ख दुगंछाए, परवाडिआलोयणत्थं च ॥ १॥ तित्थंकरभत्तीए, सुसाहुजणपज्जुवासणाए य ।। उत्तरगुणसद्धाए, एत्थ सया होई जइयव्वं ॥ २॥ एवमसंतो विरइ, सो जाईजीओ न पाडइ कयावि । ता एत्थं बुद्धिमया, अपमाओ होई कायव्वो ॥ ३ । सुहपरिणामो निच्च, चउसरणगमाई आयरं जीवो । कुसलपयडीओ बंधई, बद्धाओ सुहाणुबंधाओ ॥ ४ ॥
इत्यादिक्रियाजातं उत्पन्नं भावं सम्यग्ज्ञानादिसंवेगनिवेदलक्षणं न पातयेत्, अपिच न जातं धर्मध्यानशुक्लध्यानादिकं भावं अजातं अपि अनुत्पन्नं अपि जनयेत् निष्पादयेत् श्रेणिककृष्णादीनां गुणिबहुमानेन, मृगावत्याः पश्चात्तापेन, आलोचनेन अतिमुक्तनिग्रंथस्य, गुरुभक्त्या चंडरुद्रशिष्यस्य, इत्याधनेकवाचंयमानां परमानंदनिष्पत्तिः श्रूयते आगमे ॥ ५॥ क्षायोपशमिके भावे, या क्रिया क्रियते तया । पतितस्यापि तद्भाव-प्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥६॥
व्या०-क्षायोपशमिके इति-चारित्रानुगवीर्यक्षयोपशमे जाते या क्रिया वंदननमनादिका क्रियते तया क्रियया पतितस्य अपि गुणपराङ्मुखस्यापि जीवस्य पुनः तद्भावप्रवृद्धि र्जायते । उक्तंच
खउवसमिगभावे, दढजत्तकयं मुहं अणुहाणं । पाडिवसियंपिअ हुज्जा, पुणोवि तब्भावबुड्किरं ॥ १॥
औदयिकभावेऽपि क्रिया भवति, सा न ताहगगुणवृद्धिकरी औदयिकी क्रिया च उच्चैर्गोत्रसुभगादेययशःनामकर्मोदयेन अंत
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रायोदयेन च तपःश्रुतादिलाभः प्रज्ञापनासूत्रतः ज्ञेय इति, ज्ञानावरणदर्शनावरणदर्शनमोहचारित्रमोह-अंतरायक्षयोपशमतः शुद्धधर्मप्रारभावार्थ या क्रिया क्रियते सा आत्मगुणप्रकाशकरी. भवति ॥६॥
पुनस्तदेव दर्शयति । गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा । एकन्तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥७॥
व्या०-गुणवृद्धयै इति-ततः स्वधर्मप्राग्भावहेतुत्वात् क्रियां सत्यवृत्तिं कुर्यात्, किमर्थ ? गुणवृद्धयै, गुणा ज्ञानादयः तेषां वृद्धिः तस्यै, गुणमोल्लासार्थमिति नत्वाहारादिपंचदशसंज्ञानिमित्त पुनः अस्खलनाय अप्रतिपाताय क्रियारहितः साधकत्वे अवस्थातुमशक्तः, यतो वीर्यस्य चापल्यं तच्च कियावतः सक्रियानियुक्तं प्रतिपाताय न भवति, अन्यथा च अनादिप्रवृत्तिप्रवृत्तः स्खलनाय भवति, क्रियया उत्तरोत्तरस्थानारोहणं च श्रूयते आगमे, तथा च एकं अप्रतिपातिसंगमस्थानं जिनानां क्षायिकज्ञानं चारित्रवतां एकं पूर्णस्वरूपैकत्वरूपं स्थानं अवतिष्ठते नान्यस्य; अतः साधकेनामिनवगुणवृदयर्थ क्रिया करणीया, अत एव वन निवसंति निग्रंथाः चैत्ययात्राद्यर्थ गच्छंति नंदीश्वरादिषु, कायोत्सर्गयंति शरीरं, आकुंचंति विग्रहं वीरासनेन संलेखयंत्यनशनोत्सुका गृहंति परिहारविशुदिजिनकल्पाद्यमिग्रहव्यूहम् ॥ ७ ॥ वचोऽनुष्ठानतोऽसङ्गा, क्रिया सङ्गतिमङ्गति । सेयं ज्ञानक्रियाभेद-भूमिरानन्दपिच्छला ॥८॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२६३ व्या०-चचोनुष्ठानत इति-वचनं अहंदाज्ञा, तदनुयायिनी क्रिया धर्महेतुः, यतः
प्रशांतचित्तेन गमीरभावेनैवाहता सा सफला क्रिया च । अंगारवृष्टेः सहसा न चेष्टा, नासंगदोषैकगुणप्रकर्षा ॥१॥
विषांगारान्योन्यानुष्ठानत्यागेन श्रीमद्वीतरागवाक्यानुसारतः उत्सर्गापवादसापेक्ष्यरूपा क्रिया वचनानुष्ठानक्रियाकरणतः असंगक्रिया संगति संयोगितां अंगति-प्राप्नोति, वचनक्रियावान् अनुक्रमेण असंगक्रियां एवं निर्विकल्पनिष्प्रयासरूपां क्रियां प्राप्नोति, सा एव असंगक्रिया एव ज्ञानक्रिया, एवं अभेदभूमिः ज्ञेया असंगक्रिया भावक्रिया शुद्धोपयोगशुद्धवीर्योल्लासतादात्म्यतां दधाति, ज्ञानवीर्यैकत्वं ज्ञानक्रिया-अभेदः इत्यनेन यावद् गुणपूर्णता न तावत् निरनुष्ठाना क्रिया करणीया, नहि तत्वज्ञाने क्रिया निषेधिका, किंतु क्रियादिशुद्धरत्नत्रयीरूपवस्तुधर्मसाधनकारणेन धर्मः, धर्मत्वं आत्मस्थमेव । उक्तं च श्रीहरिभद्रपूज्यैः दशवकालिकवृत्तौ “धर्मसाधनत्वाद् धर्म इति" अतो द्रव्यक्रियां धर्मत्वेन गृहंति तत्कारणे कार्योपचार एवं न्याय्यः, एतत्श्रद्धानविकलानां क्रिया न धर्महेतुः।
बहुगुणविज्जानिलओ, उस्सुत्तभासी तहावि मुत्तव्यो । जह पवरमणीजुत्तो, विग्धको विसहरो लोए ॥ १ ॥
इति षष्टिशतप्रकरणे। तथा च आचासंगे "भयविचिकित्सायां न संयम इति, अतो निमित्तहेतुत्वेन क्रिया निरनुष्ठाना करणीया इयं असंगक्रिया, सा अनाहतपिच्छिला स्वाभाविकानंदामृतरसार्दा, अत आत्मतत्वावबोधानंदोत्सुकैर्निरनुष्ठाना सत्प्रवृत्त्यसत्प्रवृत्तिपरियागरूपा किया द्रव्यतो भावतः स्याद्वादस्वगु
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तृप्यष्टकम्.
णानुयायिवीर्यप्रवृद्धि-अभिनवगुणवृद्धिरूपा संयमस्थानारोहणतत्त्वैकरूपा क्रिया प्रतिसमयं करणीया, साध्यसापेक्षत्वेन, अत एव "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" इति निर्धारणीयं द्रव्यकियोद्यतो भावक्रियावान् भवति ततश्च स्वरूपास्पदीभवति इति श्रेयः ॥८॥
इति क्रियाष्टकम् ॥९॥
॥ अथ तृप्त्यष्टकम् ॥ क्रियावंतो हि कदाचिन्मदलोभाविष्टाः सदभ्यासं निष्फलीकुर्वति, तेन कषायत्यागरूपपूर्वकं स्वरूपभोगोत्पन्नतृप्तिरूपं अष्टकं निरूप्यते । तत्र तृप्तिर्नामादिभेदाच्चतुर्धा-तत्र नामतृप्तिः जीवस्य अजीवस्य तृप्तिरिति नाम क्रियते, शब्दोच्चारणरूपा च, स्थापनातृप्तिः अक्षरन्यासरूपा, द्रव्यतृप्तिः आगमतः तत्पदार्थज्ञोऽनुपयुक्तश्च नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीतद्व्यतिरिक्तभेदात् तत्र तद्व्यतिरिक्ता द्रव्येण आहारधनोपकरणा तृप्तिः भावतृप्तिः आगमतः तत्पदार्थज्ञोपयुक्तश्च नोआगमतः स्वरूपज्ञानानंदपूर्णस्य सहजात्मानुभवाविच्छिन्नस्य भवति, नैगमे जीवाजीवात् तृप्तिः, संग्रहव्यवहाराभ्यां ग्रहणयोग्यद्रव्यप्राप्ती, ऋजुसूत्रेण इप्सितसंपत्ती, शब्दादिनयैस्तु स्वस्वरूपनिरावरणपूर्णाविनभोक्तत्वेन तृप्तिः । इयं च पद्धतिः ओवनियुक्तिवृत्तिगताहिंसानयवद्भावनीया, अत्र कारणतो नामादिनिक्षेपत्रिकनैगमादिनयसक्ता, वस्तुतो भावनिक्षेपशब्दादिनयरूपा एव ग्राह्या सा च साधनकालेऽपवादोद्भवा सिद्धत्वे उत्सर्गोद्भवा ग्राह्या । तामेवाहपीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रियासुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृप्तिं याति परां मुनिः ॥१॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
पीत्वा
व्या० - पीत्वा इति- मुनिः सावद्याभाषी स्वात्मावलोकनलीनः परां उत्कृष्टां लौकिककुप्रावचनिकेतरां तृप्तिं संतोषावस्थां याति प्राप्नोति लभते इत्यर्थः, किं कृत्वा ? ज्ञानामृतं ज्ञानं यथार्थस्वपरपदार्थस्वरूपावभासनरूपं तदेवामृतं पीत्वा शुद्धात्यंतावच्छिन्नचिद्धारा परीक्षित हे यो पादे यवस्त्ववलोकनोपयोगं क्रिया सद्योगप्रवृत्तिः तच्चप्राग्भावविभावाभावभावितचेतना श्रद्धा तत्पूर्विका या वीर्यप्रवृत्तिः सा एव सुरलता कल्पवल्ली तस्याः फलं स्थिरत्वेन स्वानुभवलक्षणं भुक्त्वा साम्यं शमता शुभाशुभेषु पुद्गलादिषु तुल्यत्वं तदेव तांबूलं स्वादिमोपना मानमास्वाद्य मुनिः परां उत्कृष्टशं तृप्तिं याति इत्यन्वयः । सांसारिकोपाधिपुगोद्भवविभावभावितात्मनोऽनादि मिथ्यात्वाज्ञानासत्क्रियारक्तद्विष्टतासक्तस्य जगदुच्छिष्टाभोग्यवर्णाद्यनुभवमग्नत्वेन या आरोपजा तृप्तिः न सा तृप्तिः, यतः तत्प्राप्तावपि तृष्णा प्रगुणीभवति तेन न तृप्तिः सततानंदभोगेनैव तृप्तिः, अत एव सत्पुरुषाः त्यजति दामिनीचलान् कामिनीविलासान्, हीलयंति उदयागतान् सद्विपाकानू, निःसंगयंति रंगामिष्वंगि संगसंगान्, विरंगयंति अंगरागान्, विशंति स्वाध्यायाध्ययनेन तव श्रवणमनननिदिध्यासनपरिशीलनेषु, धन्यं मन्यते परमावस्थां इति ॥ १ ॥
२६५
पुनरपि नित्यां तृप्तिं व्याख्यातुमाह-स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी । ज्ञानिनो विषयैः किन्तैयैर्भवेत्तृतिरित्वरी ॥ २ ॥ व्या० स्वगुणैरिति चेत यदि स्वगुणैः चैतन्यस्य स्वद्रव्यस्वक्षेत्रस्वकालस्वभावभूतैः अमूर्त्तासंगानाकुलचिदानंदरूपैः एव अन्ययोगव्यवच्छेदार्थः, तृप्तिः ज्ञानिनः सम्यगवबुद्धतत्वस्य तैः
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२६६
स्पर्शरसवर्णगंधशब्दैः विषयैः किं ? न किमपि, यः स्वरूपानुभवी सविमावहेतुमूतान् इंदियविषयान् नावगच्छति, कयंमूता स्वगुणैः तृप्तिः ? आकालं सर्वमप्यनागतं कालं अविनश्वरी विनाशरहिता सहजत्वेन नित्या इत्यर्थः, स्पर्शज्ञानवतः यैः शब्दादिमिः इत्वरी अल्पकालीया औपचारिकी तृप्तिर्भवेत् तैः विषयैः परविडासैः किं ? न किमपि परविलासा बंधहेतव एव । अब भावना-अनेकशो मुक्ता एते तथापि नाप्तं आत्मस्वरूपं, न च ते सुखदेतवः किंतु सुखत्वबुदिरेव कृतका, तेन तद्विषयामिसुखनैव न स्वरूपरसिकानां अत आत्मगुणैस्तृप्तिर्विधेया ॥ २ ॥
तामेव भावयति । या शान्तेकरसास्वादाद्, भवेत्तृतिरतीन्द्रिया । सान जिलेन्द्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि ॥३॥ ___ व्या० या शान्तैकेति, या तृप्तिः अतीन्द्रिया इंद्रियविषयग्रहणरहिता शाम्यरसास्वादनाद् भवेत् लमेत सा तृप्तिः पडसास्वादमात् तिक्ताम्लमधुरकषायकदक्षाररसभोजनात जिह्वेन्द्रियद्वारा रसनेंद्रियद्वारा न भवति, रसनेंद्रियेण पौगलिकरसानुभवः, आत्मा घ स्वरूपानुभवी पुद्गलगुणानां ज्ञाता, न भोक्ता, पुद्गलगुणा अभोज्या एव मोहोदयात् आहारसंज्ञातः रसास्वादनं न स्वरूपतः, स्वरूपं च ज्ञानाइभवलक्षणं अतः आत्मानुभवा तृप्तिः न पौळिकी इति ॥३॥ संसारे स्वप्रवन्मिथ्या, तृप्तिः स्यादाभिमानिकी । तच्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, सात्मवीर्यविपाककृत् ॥४॥
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ज्ञानपीठीका.
२६७
व्या० संसारे इति, संसारे द्रव्यतः चतुर्गतिरूपे भावतः मिथ्यात्वादिनिभावलक्षणे संसरणे, आभिमानिकी मिथ्याभिमानोत्पन्ना पुद्गलादिप्राप्तिमान्यतारूपा तृप्तिः, सा स्वमवत् मिथ्या वितथा कल्पनारूपा एव, यतः अज्ञः तृष्णाग्रसितः स्वीयक ल्पनाकल्पितेष्टतेष्टीकृतपुत्रलस्कंध संपत्तौ 'अहो मया प्राप्तं मणिरत्नादिव्यूहं' पापोदयमाधुरीवचनचातुरीचतुरः स्वजनसमूहश्चेति तृप्तः तिष्ठति, तथापि कल्पनारूपत्वात् औदयिकत्वात् परत्वात् स्वसत्तारोधकाष्टक र्मबंधनिदानरागद्वेषोत्पादकत्वात् दुःखं एव तया इति, मरुमरीचिकाकल्पा तृप्तिः न सुखहेतुः, तु पुनः प्रांतिशून्यस्य मिथ्यात्वावबोधरहितस्य सम्यग्ज्ञानोपयुक्तस्य स्वतवामिमुखस्य तथ्या सत्या स्वस्वभावाविर्भावानुभवात्मिका तृप्तिः सुखहेतुः किंभूता ? सा तृप्तिः सात्मवीर्यविपाककृत्, आत्मना सह सात्मा तस्य यद् वीर्य तस्य विपाकः पुष्टिविशेषः तं करोतीति कृत् इत्यनेन स्वभावगुणानुभवोत्था तृप्तिः आत्मनः सहजं वीर्य पुष्टीकरोति, तेन सामर्थ्येन गुणप्राग्भावः । अतो मुरुचरणसेवनागमश्रवणतश्चग्रहणादिना आध्यात्मिकी तृप्तिः विधेया इत्युपदेशः ॥ ४ ॥
पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं यान्त्यात्मा पुनरात्मना । परतृप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ॥ ५ ॥
व्या० पुद्गलैरिति - पुद्गलैः शरीरधनवसन भोजनस्वजनादिमि:, पुद्गलाः शरीरादयः पुद्गलोपचयरूपां तृप्तिं यांति । स्वरूपास्वादनेन तृप्तिः पुनः उपदिशति ज्ञानिनः अनेकांतानंतस्वपरपदार्थपरीक्षादक्षस्य तदुम्रांतिजन्याभिमानं परतृप्तिसमा - रोप, परैः पुद्गलैः तृप्तिः परतृप्तिः परतृप्तौ समारोपः आत्म
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तृप्त्यष्टकम्
AAAAAAAAAAAAAAAMIRAL
PAAAAAAAAAAAARAMIRPANumanmun - - - -
-
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तृप्तिमन्यतारूपः न युज्यते न घटते । भावना च सम्यग्ज्ञानी तु यथार्थावबोधी तु आत्मधर्म एव आत्मनि अंगीकरोति पौद्ग'लिकोपचये न रज्यते, पुद्गलास्वादनेन सुखावभास एव मिथ्याज्ञानं उक्तं च--
तवइ तवं चरइ चरणं, सुअंपि नव पुव्वजाव अब्भसई, जा परसुहे सुहत्तं, ता नो सम्मत्तविन्नाणं ॥१॥
पुनः श्रीहरिभद्रपूज्यःसुअवं सीलवं चाई, जिणमग्गायरणारई। परं वा परसंगं वा, धन्नमन्नई जो जडो ॥२॥
यच्च आत्मनः स्वरूपं सहज ज्ञानादिकं तदेव धर्म इति तत्त्वम् ॥५॥ मधुराज्यमहाशाका-ग्राह्ये बाह्ये च गोरसात् । परब्रह्मणि तृप्तिा , जनास्तां जानतेऽपि न ॥६॥
व्या०--मधुराज्य इति-या परब्रह्मणि सुधात्मनि अमूर्त्तानंतज्ञानवने तृप्तिः स्वरूपाशमतालिंगनानंदचिद्विलासरूपा जनाः तत्त्वावलोकनयनविकलाः तां शुद्धात्यंतकांताध्यात्मस्वभावानुभवरूपां तृप्तिं जानतेऽपि न नचैव जानते इति सा ज्ञानग्रहणेऽपि नास्ति, अतः कुतोऽनुभवः ? या तृप्तिः मधुराज्यमहाशाकाग्राह्ये पुनः गोरसात् अबाह्ये भोजने न, मधुरं आज्यं घृतं मधुराज्यं महांतः शाका व्यंजनानि तैरयाले पुनः गोरसः दक्ष्यादि तस्मात् अबाहले युक्ते एवंविधे भोजने सा तृप्तिः न । अथवा कथंभूते ब्रह्मणि ? मधुराज्यमहाशाकायाये मधु मिष्टं राज्यं, तत्र महती आशा इच्छा येषां ते मधुराज्यमहाशाकाः तैः परिग्रहै
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ज्ञानमंजरी टीका.
२६९
श्रर्याभिलाषुकैः अग्राह्ये गृहीतुमशक्ये गोरसात् वाग्रसात् बाह्ये वाचामगोचरे 'अप्राप्यं मनसा सह' इति उक्तत्वात् 'अपयस्स पयं नत्थि' इत्याचारांगवचनात् । एवंविधे परब्रह्मणि परमात्मनि या तृप्तिः सा लोकैर्न ज्ञायते एव अतः पुद्गलोपचारसहस्रैः सा तृप्तिर्न भवति ॥ ६ ॥ विषयोर्मिविषोद्गारः, स्यादतृप्तस्य पुद्गलैः । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यान - सुधोद्वारपरम्परा ॥ ७ ॥
व्या०-विषयोर्मिं इति - अतृप्तस्य स्वरूपास्वादरहितस्य पुद्गलैः अंगनालिंगनादिकैः विषयोर्मिविषोद्वारः स्यात् भवेत, विषयोर्मिः इंद्रियविलासः स एव विषस्योद्गारः प्रकाशः स्यात् । उक्तं च-
जह जह पुग्गलभोगो, तह तह वढ्ढइ विसयपि कसाई । इंदियसुहा दुहा खल, अगिज्झा तउ रचाणं ॥ १ ॥ ज्ञानतृप्तस्य स्वात्मतच्वावबोधपूर्णस्य ध्यानं तत्त्वैकत्वं तदेव सुधा अमृतं तस्य उद्गारः तस्य परंपरा श्रेणिर्भवेत् निरामयनिर्मलपरमात्मानुभवः तृप्तेः लक्षणं एतत् तत्त्वभावना तत्वज्ञानतत्त्वच्यानामृतोद्वारपरंपरावृद्धिः ॥ ७ ॥
सुखिनो विषयातृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो । भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरञ्जनः ॥ ८ ॥
व्या० - सुखिनो विषयातृप्ता इति - अहो इति आश्वर्ये इंद्रो - पेंद्रादयः इंद्रः शक्रः, उपेंद्रः कृष्णः, इत्यादयः अनेके न सुखिनः सुखमया न । कथंभूता इंद्रोपद्रादयः ? विषयातृप्ता विषयैः मनोज्ञेद्रियसंयोगैः अतृप्ता अनेकवनिताविलासषडरसग्रा ससुरभि - कुसुमवासरम्यावासादिभिः मृदुशब्दाकर्णनवर्ण्यवर्णावलोकनैरसंख्य
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कालभोगैः अतृप्ताः न च एते तृप्तिहेतवः असदारोप एवायं । लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके अनंतसकर्मजीवात्मके एको भिक्षुः आहारागृनुः संयमयात्रार्थ मिक्षणशीलो निष्परिग्रहः सुखी अस्ति । ज्ञानं स्वरूपावबोधः तेन तृप्तः निरंजनः रागाद्यंजनश्यामतापरहितः स्वधर्मभोगवत्वात् यद्वस्तुनि यत्रो न भवति ततो न जायते तृप्तिः । उक्तं च विशेषावश्यके
जत्तो च्चिय पच्चक्खं, सोम्म सुहं नत्थि दुक्खमेवेदं । तष्पडियारविभत्तं, तो पुण फलंति दुक्वंति ॥१॥ विसयसुहं दुक्खं चिय, दुक्ख पडियारओ तिगिच्छिव्व । तं सुहमुवयाराओ, न उवयारो विणा तचं ॥२॥ सायासायं दुक्खं, तविरहम्मि अ सुहं जउ तेण । देहिंदियेसु दुक्खं, सुक्खं. देहेदिआभावे ॥३॥
इति सातसातयोर्विपाकभेदः एव नत्त्वावरणे अव्याबाधावरणत्वं तु उभयोरपि यच्च स्वगुणान् घातयति तद् दुःखं कः सुखत्वेनोररीकुरुते ? इति आत्मनः ज्ञानानंदानुभवा. तृप्तिः प्रशस्या नौपाधिकी इत्यनेन तया एव सम्यग्दर्शनिनः स्तुवंति अहेतं, पूजयंति परमात्मानं, देशविरता अपि सामायिकपौषधोपवासिनः, आत्मानुभवलवास्वादनार्थमेव तिष्ठति एकांते मुनयः, तनिष्पादनाय त्यजति पंचाश्रवान्, तद्विघाताय गृहंति भीष्मग्रीष्मतप्तशिलातापतापनां, शिशिरहिमनिशाकरकरामिवातक्षुब्धा वसंति अवसना क्ने, स्वाध्यायंति आगमव्यू हान् क्षमादिधर्मद्वारा, भावयति अज्ञानं तत्वज्ञानेन, आरोहंति गुणश्रेणिशृंगे, चिंतयंति तचैकत्वं तखसमाध्यर्थमेव प्राणायामादिप्रयासो जिनकल्पादिकल्पः इति स्वस्वभावानुभवतृप्तिः सर्वैरभ्यस्या ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं तृप्त्यष्टकं दशमम् ।
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ज्ञानमेजन टीका.
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e r.AvvanamPraan.
॥ अथ निर्लेपाष्टकम् ।।
अथ अलिप्तस्य तत्त्वसमाधिर्भवति, पूर्णानंदतृप्तिरपि अलिप्तस्य तेन निर्लेपाष्टकं वितन्यते । चैतन्यस्य सकलपरभावसंयोगाभावेन व्याप्यव्यापकग्राहककर्तृत्वभोक्तृत्वादिशक्तीनां स्वभावावस्थानं निलेपः नामतो निर्लेपः, अमिलाप्यात्मकजीवाजीवानां स्थापनानिर्लेपः, निर्ग्रथाकारादिः द्रव्यनिर्लेपः कांस्यपात्रादि, तद्व्यतिरिक्तः शेषस्तु पूर्ववत् भावनिर्लेपः । जीवाजीवभेदाश्च अजीवो धर्माधर्माकाशादिः। जीवस्तु समस्तविभावामिष्वंगरहितो मुक्तात्मा, नयैस्तु द्रव्यपरिग्रहादिष्वलिप्तः नैगमेन संग्रहेण जीवो जात्या अलिप्सः । व्यवहारेणालितः द्रव्यतः त्यागी। शब्दनयेन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानपरिच्छिन्नपरभावपरित्यागी तन्निमित्तभूतानि धनस्वजनोपकरणानि ते नासक्तः, सममिरूढनयेन अरिहंतादिनिमित्तैर्बहुतरैः परिण नलिनत्वात् क्षीणमोहो जिनः केवली चालिप्तः। एवंमूतेन सिद्धः सर्वपर्या यैरलिप्तत्वात, वाचनांतरे तु नैगमालितः अंशत्यागी नैगमाकाररूपेण संग्रहेण सम्यगदर्शनासत्तया आत्मानं सर्वथा विभक्तत्वात् , व्यवहारेण तच्छ्रद्धया अपास्तरागादिलेपत्यागात्, ऋजुस्तु सन्निमित्तादिष्वरक्तत्वेनावलंबनात्, शब्दतः अमिसंधिजवीर्यबुद्धिपूर्वकोपयोगस्य रागादिषु अपरिणमनात् सममिरूदतः सर्वचेतना सर्वजीवस्य विभावाश्लेषरहितत्वात्, एवंमूततः पूर्वाभ्यासचक्रामादिभावोपयाहिसर्वपुगलसंगरहितस्य सिद्धस्य निलेपत्वं, पुननिक्षेपत्रये नयचतुष्टयं भावनिक्षेपे पर्यायालिसत्वेन 'अंतिमनयत्रयं इति तत्वार्थवृत्तेराशयः। अत्र भावसम्यक्साधकनिलेपाविकारः--
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२७२
निपाष्टकम्
संसारे निवसन् स्वार्थ-सजः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते॥१॥
व्या०-संसार इति-निखिलः समस्तो लोकः कज्जलवेश्मनि रागादिपापस्थानविभावतन्निमित्तीमूतधनस्वजनादिगृहे संसारे निवसमानः, स्वार्थसज्जः स्वस्य आरोपात्मना कृतः अर्थः अहंकारममकारादिरूपः स्वार्थः तत्र सज्जः सावधानो लिप्यते रागादिभावकर्मामिष्वंगतः समस्तात्मीयक्षयोपशमाभावपरानुगतः सर्वसत्तावरकत्वेन भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मलेपर्लिप्यते । तथा ज्ञानसिद्धः हेयोपादेयपरीक्षापरीक्षितसर्वभावः स्वात्मनि स्वात्मा
अन्यत्र परत्वोपयुक्तः स्वात्मारामी स्वरूपविलासी न लिप्यते. विविधकर्मोपचयैर्नावगुंठ्यते अतः आत्मधर्मावभासनतदुपादेयतया यतितव्यमित्युपदेशः ॥ १ ॥ नाऽहं पुद्गलभावानां, कर्ता कारयितापि च । नानुमन्तापि चेत्यात्म-ज्ञानवान् लिप्यते कथम् ?॥२॥
व्या०-नाहमिति--इति अमुना प्रकारेण यथार्थावभासनेन भेदज्ञानविभिन्नात्मस्वरूप आत्मज्ञानवान् कथं लिप्यते ? नैवेति, इति किं ? अहं विमलकेवलालोकमयः, स्वकीयपरिणामिकपर्यायोत्पादकत्वव्ययत्वध्रुवत्वज्ञायकत्वभोक्तृत्वरमणत्वादिभावानां कर्ता पुद्गलभावानां द्रव्यकर्मनोकर्महिंसादिपापव्यापाराणां योगप्रवृत्तेश्च कर्ता न नैव पुद्गलग्रहणमोचनरूपं मम कार्य वर्णादीनां ग्रहणास्कंदनानां नहि कर्ता च पुनः पुद्गलभावानां पूर्वोक्तानां अहं कारयिता परस्मात् कारयतीति कारयिता न च पुनः न अनुमंता पौद्गलिकवर्णादीनां शुमानां नानुमोदनशीलः अह
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ज्ञानमंजरी टीका.
२७३
मिति सकलपुद्गलकालिकाग्राहकाभोंक्तत्वाकारकत्वात्मज्ञानवान् स न लिप्यते । लेपो हि पुद्गलानुयायिनः चेतनया भवति सर्वथा विधिविच्छिन्नसंगस्य न लेपः । इति गाथार्थः ॥ २ ॥ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो, न लिप्ये पुद्गलैरहम् । चित्रव्योमाञ्जनेनेव, ध्यायन्निति न लिप्यते ॥३॥
व्या०-लिप्यते इति–लिप्यते अन्योन्याश्लेषेन संक्रमादिमा पुद्गलस्कंधः अन्यैः पुद्गलैः लिप्यते उपचयी भवति स्वजातिद्रव्यपरिवर्तनपरिणामिकस्याधिकरसोत्पत्तिबंधनधर्मत्वात्, पुद्गलानों संबंधः त्रिगुणः, पंचगुणेन बंधः पंचगुणः सप्तगुणेन एवं सर्वत्र द्विगुणः, चतुर्गुणेन चतुर्गुणः, षड्गुणेन षड्गुणोऽष्टगुणेन एवं बंधसंयोगो भवति । अत्र स्निग्धरूक्षौ स्पर्शस्थौ अपि एकांतेन न स्कंधहेतुः स्पर्शस्य स्कंधकरण उपादानाभावात् न रसस्थौ रसस्य आस्वादनरूपत्वात् अतः पूरणगलनगुणविभागानामेव द्वयधिकत्वं स्निग्धरूक्षस्पर्शसंगपरिणतं स्कंघत्वहेतुः; अतः पुद्गले पुद्गला एव लिप्यते । अहं निर्मलानंदचिद्रूपः न पुद्गलाश्लेषी अंतः शुद्धात्मा पुरलेन लिप्यते । वस्तुवृत्त्या पुद्गलात्मनोः तादात्म्यसंबंध एव नास्ति। संयोगसंबंधस्त्वौपाधिकः, चित्रांजनैर्न व्योम इव इति व्यायन् न लिंप्यते । यथा व्योम आकाशं चित्र: अंजनैः संलिप्यमानमपि न लिप्यते। तथा अहमपिं अमूर्तीत्मस्वभावः पुद्गलैः एकक्षेत्रावगाडैः न लिप्यते । यो हिं आत्मस्वभाववेदी स्ववीर्यज्ञानादिशक्ति आत्मनि व्यापारयन् अभिनवकर्मग्रहणैर्न लिप्यते यावती आत्मशक्तिः परानुयायिनी तावत् आस्रवः, स्वरूपानुयायिनी स्वशक्तिः संवरः इति रहस्यं । अब 35
..
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निर्लेपाष्टकम् .
च आत्मज्ञानमात्रसंतुष्टा रागद्वेषप्रविष्टाः सम्यग्दर्शनादिगुणभ्रष्टाः आत्मानं अबंधतया जानंति ते निरस्ताः, उक्तं च उत्तराध्ययने
भणंता अकरता य, बंधमुक्खपइनिणो । वायावीरियमित्रेणं, समासा संति अप्पयं ॥ १ ॥ न चित्ता तायए भासा, कओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ॥ २ ॥
अत एव तत्त्वश्रद्धानसम्यगज्ञानोपयुक्ता यदात्मनः क्षयोपशमिकचेतनावीर्यादिशक्तीन् परभावविभावान् आकृष्य आत्मगुणे प्रवर्तयति तावती अबंधकता शेषा, यावती परानुगा विषयकषायचापल्यताशक्तिः तावती बंधकता एवं सर्वात्मशक्तिः स्वरूपविश्रामरमणरूपा तदा सर्वात्मना अबंधकः इति सिद्धांतः ॥३॥ लिसता ज्ञानसम्पात-प्रतिघाताय केवलम् । निर्लेपज्ञानमग्नस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥४॥ . व्या०-लिसता इति-निर्लेपज्ञानमग्नस्य शुद्धस्याद्वादात्मज्ञानमनस्य पुंसः क्रिया आवश्यककरणरूपा लिप्तता ज्ञानसंघातप्रतिघाताय ज्ञानं विभावचेतनोपयोगः तत्र संपातः पतनं तस्य प्रतिघाताय निवारणाय केवलं उपयुज्यते उपकारीभवति, इत्यनेन ध्यानारूढस्य न क्रियाकरणं, किंतु भावना चिंता ज्ञानवतः विघ्नवारणाय क्रिया उपकारिणी ध्यानाधिरूढस्यापच्युतात्मस्वभावानुभवस्थस्य विघातिनी आगमेऽपि पूर्व यदमृतकुंभोपमं तदेवोपरि विषकुंभोपमं । उक्तं च
जा किरिया सुट्टयरी, सा विसुद्धीए न अप्पधम्मोति । पुब् िहीयाय पच्छा, अहिया जह निस्सहाइतिगं ॥ १ ॥ अत एव आत्मस्वरूपावबोधैकत्वं हितं ॥ ४॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२७५
तपःश्रुतादिना मत्तः, क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसम्पन्नो, निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ॥५॥ __व्या०-तप इति-क्रियावान् अपि जिनकल्पादितुल्यक्रियाभ्यासी अपि तपःश्रुतादिना मत्तः मानी अभिनवकर्मग्रहगैर्लिप्यते, न च रुषा दयोत्कृष्टा क्रिया हितकारिणी । उक्तं आचारांगे-" सेवतां कोहं च माणं च लोभं च एवं पासगस्स देसणं उवरब्भत्थस्स पलियंतकरस्स आयाणं संगंडं, इति । पुनः “वंतो लोगस्स णसेमतिमं पडिक्कमज्जासित्तिबेमि । पुनः पुनः “परिन्नायलोगसन्नं च बाले पुणणिहे कामसमणुन्ने असमितदुक्खे दुक्खाणमेवं अवहं अणुपरियहुति ।” अतः क्रियादिमत्तः आहाराश्चत्वारः उवलोकदुःखशोकवितिगिच्छामोहाभिधानपंचदशसंज्ञया धर्माभ्यासः 'प्रवृत्तिन धर्मः' इत्याचारांगवृत्तौ । भावना अनुप्रेक्षातद्ज्ञानमग्नः निष्क्रियः अपि ताहक्तीव्रतरवीर्यावृत्तो न लिप्यते न बध्यते । उक्तं च सूत्रकृताङ्गे--
न कम्मणा कम्म खवंति बाला, अकम्मणा कम्म खवंतिवीरा। मेहाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो नोपकरति पावं ॥१॥ जहा कुंम्भो सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेणं समाहरे ॥२॥
इत्यनेन भावनाज्ञानं तत्वैकत्वानुभवान्वितं सम्यगज्ञान, तेन युक्तः न लिप्यते सर्वः सत्क्रियाभ्यासः शुद्धसिझात्मस्वरूपाविर्भावसाध्यतत्त्वज्ञानानुभवयुक्तस्य हिताय भवति ॥ ५॥ अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्ध्यत्यलिसया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा ॥६॥
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विलेपारका.
AAAAAAAAPuAJANAMAAJAvadhan
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व्या०-अलिप्त इति-निश्चयरूपेण नयेन स्वरूपेण जात्या इत्यर्थः आत्मा चेतनः अलिप्तः पुद्गलाश्लेषरहितः. च पुनः ध्यवहारतः बाह्यतमप्रवृत्तिसोपाधिकत्वतः अयं आत्मा लिप्तः अतः परसंसर्गजन्यव्यवहारत्यागे यतितव्यं, अत एव अलिप्सया दशा शुद्धचिदानन्दावलोकनात्मकया आत्मानं आत्मतया परं च परतया अरक्तादिष्टदृष्ट्या ज्ञानी वेद्यसंवेदकः स्वसंवेदज्ञानी शुद्धयति सुद्धो भवति सर्वविभावमलापगमनेन निर्मलो भवति । अन्यः क्रियावान, लिलया दृशा लिप्तोऽहं अशुद्धाचरणैः तेन शुद्धाचरणेन पूर्वप्रकृतीः क्षपयित्वा अभिनवाकरणेन आत्मानं मोचयामि इति दृष्ट्या क्रियां वंदननमनादिकां कुर्वन शुद्धयति निर्मलो भवति इति निश्चयब्यवहारगौणमुख्यवतां साधनक्रमः ॥ ६॥ ज्ञानक्रियासमावेश-सहैवोन्मीलने द्वयोः । भूमिकाभेदतस्त्वत्र, भवेदेकैकमुख्यता ॥७॥ ___ व्या-ज्ञान इति-द्वयोः दृष्टयोः उन्मीलने उद्घाटने सहैव समकालमेव नहोकांतज्ञानरुचिः सम्यग्दर्शनी, न टेकांतक्रियारुषिः सम्यग्दर्शनी, किंतु सापेक्षदृष्टिरेव सम्यगदर्शनी, अतः ज्ञानक्रियासमावेशः उभयोः संयोग एवं साधनत्वेन निर्धायः तत्र कचवरसमन्वितमहागृहशोधनप्रदीपपुरुषादिव्यापारवदिह जीवः स्वरूपकर्मकचवरमृतस्वरूपशोधनालंबनो ज्ञानादिना स्वभावभेदव्यापारोऽक्सेयः । तत्रोक्तं श्रीआवश्यकनियुक्तौ-- - नाणं पगासगं सोहगो, तवो संजमो उ गुत्तिकरो । तिणंपि समाओगे, मुक्खो जिणसासणे भणिओ ॥१॥
तथाप्युपदेशपदप्रकरणे-"क्रियाकृतकर्मक्षयः मंडूकचूर्णतुल्यः, ज्ञानकृतकर्मश्रयस्तभस्मकल्प एव ज्ञातन्यः। तु पुनः या च एकै
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ज्ञानगंजारी टीका.
कमुरूपता अब साधनावसरे सा भूमिकाभेदतः भूमिकासुणस्थानावस्था तस्या भेवतो ध्यानाद्यवसरे ज्ञानं मुख्यतः अर्वाक्क्रयैव मुख्यतः तथा सर्वत्र साधनसामग्री यथायोगं कार्या । उक्तं भगवतीटीकायां
जई जिणमयं पवज्जह, ता मा ववहारनिच्छ एमुयह । इक्केण विणा तित्थं, छिज्जई अन्ने उ त्तच्चं ॥ १ ॥ अतः साधनोद्यताः सर्वमपि स्वस्थाने स्थापयंति ॥७॥ सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लितं दोषपङ्कतः । शुद्धबुद्धस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥ ८॥
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८९
२७७
व्या० - सज्ञानमिति - यदनुष्ठानं यदाचरणं सज्ञानं सम्यग्ज्ञानयुक्तं, दोषा इहलोकाशंसापरलोकाशंसाकोधमानादयः तैः न लिप्तं नाश्लेषितं तस्मै भगवते पूज्याय नमः, किंभूताय भगवते, शुद्धबुद्धस्वभावाय, शुद्धः सर्वपुद्गलाश्लेषरहितः, बुद्धः ज्ञानमयः, स्वभावो यस्य स तस्मै इत्यनेन यथा सत्ता तथा निष्पत्रः निरावरणः सिद्धस्वभावः तस्य साधका ज्ञानक्रिया सावधाना, तत्र भावना अनादिघोषणाघोषितपरभावात्मबुद्धिरूपासद्ज्ञानपरभावास्वादनसंमिलित विभावाऽभ्रपटलतिरोमूततत्वज्ञान भानुबहूलीमूतमिथ्यात्वासंयममहामोह तिमिरांधीभूतभूतानां मध्ये केचन सदागमांजनतत्त्वपीतपानीयपानोत्पन्नसद्विवेकाः पश्यंति ज्ञानावरणादिकर्मच्छादितविभावमलतन्मयीभू तशरीरादिपुद्गलस्कंधैकताप्राप्तोऽपि मूर्त्तभावोऽपि छिन्नोऽपि अमूर्त्ताखंडज्ञानानंदानंताव्याबाधस्वरूपमात्मानं भुज्यमानविषया अपि रोचयंति स्वतत्त्वानुभवनं, नानोपायार्जितमपि त्यजति धनौषधविचित्रतोद्भूतं वर्जयंति स्वजनकवर्ग कोटि
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२७८
निःस्पृहाष्टकम् दानदायका अपि चरंति गोचरी, मृदुनवनीतकुसुमशय्याशायिनोऽपि, शेरते घातोपलशिलाभूमौ एकात्मतत्त्वसहजस्वभावामूर्त्तानंदलीलालुब्धा ज्ञानक्रियाभ्यासतः, साधयंति निरावरणात्यतिकैकांतिकनि वैद्वनिरामयाविनाशि सिझस्वरूपं एतत्साधनोद्यताय भगवते नमः ॥८॥
इति व्याख्यातं निर्लेपाष्टकम् एकादशमम् ॥ अथ निर्लेपत्वदृढीकरणाथै निःस्पृहत्वं विस्तार्यते, तत्र निःस्पृहत्वं सर्वपरभावानमिलाषरूपं, इच्छा मूर्छानिरावरणं, स्पृहा नाम इच्छा, तदभावो निःस्पृहत्वं, तत्र नामनिःस्पृह उल्लापरूपः, स्थापनानिःस्पृहो मुनिप्रतिमादिः, द्रव्यनिःस्पृह इहपरत्राधिकामिलाषेन अल्पानिच्छकः अथवा भावधर्मास्वादनमंतरेण तत्स्वरूपापरज्ञानेन धनादिषु अनिच्छुश्च तावनिःस्पृहः अप्रशस्तः वेदांतादिकुतीर्थोपदेशेन एकांतमुक्तिरक्तः, धनादिषु निःस्पृहः स प्रशस्तः, स्याद्वादैकांतपरीक्षापरिच्छिन्नात्मतत्त्वानुभवरुचिपिपासिताः सर्वमपि हेयीकुर्वति परभावं, भवंति स्वरूपलालितचेतसः, तत्र साधनार्थ आदिनयचतुष्टयेन. सिद्धत्वं नयत्रयेण तथा जीवाजीवे निःस्पृहः नैगमेन अजीवे निस्पृहः संग्रहव्यवहाराभ्यां, ऋजुसूत्रेण स्वभोग्यभोज्येषु, शब्दसमभिरूढाभ्यां सन्निमित्तपरायतसाधनपरिणामेषु, एवंभूतेन आत्मीयसाधनपरिणामापन्नभेदज्ञानसविकल्पचरणशुक्लध्यानशैलेषीकरणादिषु निःस्पृहः। अत्र आद्यनयचतुष्टयनिःस्पृहस्यावसरः । भावना च अनादौ संसारे स्पृहाकुलितेर्बहुशः प्राप्तं दुःखलक्षं तेन परभावस्पृहानिरीहेन भवितव्यंस्वभावलाभात्किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते। इत्यात्मैश्वर्यसम्पन्नो, निःस्पृहो जायते मुनिः॥१॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
व्या०—स्वभाव इति-स्वभावः आत्मधर्मज्ञानदर्शनरमणाव्याबाधामूर्त्तानंदरूपाविच्छिन्नसिद्धत्वशुद्ध पारिणामिकलक्षणः तस्य लाभात् । अन्यत्किमपि प्राप्तव्यं लब्धुं योग्यं न अवशिष्यते । अवशिष्टोऽस्ति आत्मस्वरूपलाभ एव लाभ इति आत्मैश्वर्य स्वरूपसाम्राज्यं तेन संपन्नः संयुक्तः मुनिः ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यातद्रव्यभावास्रवः साधुः निःस्पृहः सर्वशरीरोपकरणपरिवारयशो बहुमानादिषु स्पृहारहितः इच्छारहितो जायते भवति । नह्यनादितृष्णा स्वभावोपभोगमंतरेणोपशाम्यति ॥ १ ॥ संयोजितकरैः के के, प्रार्थ्यन्ते न स्पृहावहैः ? | अमात्रज्ञानपात्रस्य, निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ २ ॥
व्या० - संयोजित इति - स्पृहावहैः इच्छामः पुरुषैः के के जनाः परिग्रहभारभुग्ना न प्रार्थ्यते न याच्यंते ? किंभूतैः १ स्पृहाव है: संयोजित करो येषां ते संयोजितकराः तैः इत्यनेन विषयाशालो लुपैः अनेकान्यनृपसेवनोद्यतैः भवितव्यं भवति । मात्रा मानं तेन रहितं अमात्रं च तत् ज्ञानं च तत् अमात्रज्ञानं तस्य पात्रं स्थानं तस्य साधोः निःस्पृहस्य स्पृहारहितस्य जगत् तृणं तृणप्राथं परभावेच्छामुक्तस्य निर्ग्रथस्य जगत् तृणं निःसारं स्वात्मस्वरूपं ।
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२७९
गाथा
तिणसंभारनिसन्नो, मुनिपवसे भठ्ठरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कवट्टीवि ॥ १ ॥ आयसहावविलासी, आयविसुद्धोवि जो 'निये धम्मे । नरसुरविसयविलासं, तुच्छं निस्सारमन्नंति ॥ २॥ छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण, स्पृहाविषलतां बुधाः । मुखशोकं च मूर्छा च, दैन्यं यच्छति यत्फलम् ॥३॥
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२८०
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किस्पाटक
व्या०-- विंदति इति-- बुधाः तत्त्वज्ञाः ज्ञानदात्रेण स्पृहाविलतां स्पृहा एव विषवल्ली तां छिंदति । यस्याः फलं यस्ले मुखशोकं च पुनः मूर्छा च पुनः दैन्यं यच्छति ददाति इत्यनेन स्पृहाविषलता मुखशोकादिकं वितरति । इच्छको दीनो भवति तेन विषयविषोपमविषयस्पृहा निवारणीया इति ॥ ३ ॥ निष्कासनीया विदुषा, स्पृहा चित्तगृहाद् बहिः । अनात्मरतिचाण्डाली - सङ्गमङ्गीकरोति या ॥ ४ ॥
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व्या० - निष्कासनीया विदुषा पंडितेन आत्मसमाधिसाधनोंद्यतेन स्पृहा पराशा चित्तगृहात् मनोनिकेतनात बहिर्निष्कासनीया दूरीकरणीया । स्पृहा हि लोभपर्यायः लोभश्च कषायपरिणामः तद्विगम एव श्रेयान् या स्पृहा अनात्मरति चांडाली संगं अनात्मानः परभावाः तेषु रतिः रमणीयतापरिणतिः सा एव चांडाली तस्याः संग अंगीकरोति । अतः स्पृहा त्याज्या । उक्तं च-
जे परभावे रता, मत्ता विसयेसु पावबहुले । आसापासबिद्धा, भगति चउगईमहरिने ।। १ ।।
•
परभाववृत्तिरेव विभावः आत्मशक्तिध्वंसनमुद्गरः अतो निरस्तपराशापाशा निर्ग्रथाः स्वरूपचिंतनस्वरूपरंमणानुभवलीनाः, पीनाः तत्त्वानंदे रमंते स्वरूपे, विरमंति विषयविरूपभवकूपपाततः ॥४॥ स्पृहावन्तो विलोक्यन्ते, लथवस्तृणतूलवत् । महाश्चर्य तथाप्येते, मज्जन्ति भववारिधौ ॥ ५ ॥ व्या० - स्पृहावंत इति - स्पृहावंतः परेच्छानिरताः तृणतूलवलवः तुच्छा अनिर्मला विलोक्यते । उक्तं च
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ज्ञानमंजरी टीका.
तूलं तृणादपि लघु, तूलादपि हि याचकः । वायुना किं न नीतोऽसौ ? मामपि प्रार्थयिष्यति ॥ १ ॥
२८१
तदाश्चर्य लघवोऽपि एते स्पृहादिना अपि भववारिधौ भवसमुद्रे मज्जति । अन्यत्र लघुत्वं भवमज्जनहेतुरेव यद्यपि प्रार्थनादिदानव्यवहाराः तथापि त्रिभुवनधनस्वजनपिपासागरिष्ठा ब्रुडंति इत्यर्थः ॥ ५ ॥
गौरवं पौरवन्द्यत्वात्, प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया । ख्यातिं जातिगणात् स्वस्य, प्रादुष्कुर्यान्न निःस्पृहः ॥ ६॥
व्या० – गौरवमिति - निःस्पृहः लौकिकस्पृहारहितः पौरवंद्यत्वात् नागरिकलोकवंद्यत्वात् गौरवं गुरुत्वं प्रतिष्ठया शोभया प्रकृष्टत्वं जातिगुणात् स्वस्य कुलसंपन्नतादिख्यातिं न प्रादुष्कुर्यात् न प्रकटीकुर्यात् इत्यादि । निःस्पृहा महत्त्वं न ख्यापयंति न विशदीकुर्वतिः निःस्पृहस्य न यशोमहत्वाभिलाषः ।। ६ ।। भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्ण वासो गृहं वनम् । तथापि निःस्पृहस्याहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम् ॥७॥
व्या० - भूशय्या - इति भूः वसुंधरा एव शय्या पल्यंकः भैक्षं भिक्षया जातं मैक्षं अशनं भोजनं । उक्तं च
अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देखिआ । मोक्खसाहणंहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥ १ ॥
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तथा च वासो वस्त्रं जीर्ण, गृहं स्थानं वनं, तथापि अहो इति अद्भुतं निस्पृहस्य बाह्यसंपद्विकलस्यापि सुखं चक्रिणः सकाशात् स्वं चक्रवर्त्तितः सुखं अधिकं अत्यंतं इति चक्रवर्त्यादि
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MAAAAAM
२८२
निःस्पृहाष्टकम् गत्वरैः औपाधिकैः सुखैः सकाशात् मुनिस्वरूपजैः सहजानश्वरैः परमानंदसुखैः पूर्णः । यतो जातिभेद एवायं इंद्रियात्मसुखयोः इंद्रियजे सुखे सुखत्वं आरोपितमेव न च पुद्गलस्कंधे तु सुखं सुखहेतुत्वं च आत्मन्येवाच्छिन्नसुखपरंपरासुखस्य कर्तृत्वादिकास्कषट्कं आत्मन्येवं अतो वास्तवं सुखं जिनाज्ञानिगृहीतपरभावस्य निःस्पृहमुनेरेव अतो निःस्पृहस्य महदिंद्रियागोचरं स्वाभाविकं सुखं इति ॥ ७॥ परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः॥८॥ .. व्या०-परस्पृहा इति-परस्य परवस्तुनः परात् वा स्पृहा आशा महादुःखं महत्कष्टं निःस्पृहत्वं निवांछकत्वं महासुखं महानंदः, इति सुखदुःखयोः समासेन संक्षेपेण एतद् लक्षणं उक्तं कथितं इत्यनेन पराशा एव दुःखं यच्च निर्विकाराखंडसच्चिदानंदस्य स्वाभाविकात्मधर्मभोक्तुः परभावामिलाष एव दुःखं तर्हि किं पराशा इति अस्यात्मनः स्वपरविवेकनिगृहीतपरभावाविर्भावितात्मानंतानंदस्य निःस्पृहत्वं धर्मः तदास्वादनेन सुखमिति अत एव स्पृहा त्याज्या स्पृहा हि स्वसामर्थ्यशून्यस्य भवति. अयं तु पूर्णानंदाखिलज्ञेयज्ञानवान् परमः पदार्थः सर्वपदार्थावगमस्वभावः शुद्धात्मीयानंदभोगी, तस्य अनादिस्वतत्त्वानुभवभ्रष्टत्वेन परस्पृहां गतस्यापि सांप्रतं अव्याबाधात्मभावनया टंकोत्कीर्णन्यायेन अवगतात्मस्वरूपस्य स्पृहा पराशा न भवति इत्युपदेशः ॥८॥
इति व्याख्यातं निःस्पृहाष्टकम् ॥ १२ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
૨૮૨
NowwwmonAAAmwwwnwww
॥अथ मानाष्टकम् ॥ एते च गुणाः पूर्वोक्ताः मुनेर्निग्रंथस्य भवंति, अतो मुनिस्वरूपं निर्दिशति । सन्ति च लोके अनिर्यथा निर्ग्रथारोपमता आत्माऽशुद्धाभिमानतः तत्वविवेकविकलाः तेषामेवोपदेशाय विशुद्धगुरुतत्त्वावबोधार्थ चाह । तत्र मन्यते त्रिकालविषयत्वेन आत्मानमिति मुनिः । तत्र नाममुनिः स्थापनामुनिः सुगमः द्रव्यमुनिः ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् अनुपयुक्तो लिंगमाबद्रव्यक्रियावृत्तिसाध्योपयोगशून्यस्य प्रवर्तनविकल्पादिषु कषायनिवृत्तस्य परिणतिचक्रे असंयमपरिणतस्य द्रव्यनिर्यथत्वं भावमुनिः चारित्रमोहनीयक्षयोपशमक्षायिकोत्पन्नस्वरूपरमणपरभावनिवृत्तः परिणतिविकल्पप्रवृत्तिषु द्वादशकषायो।कमुक्तः नैगमसंग्रहव्यवहारनयैः द्रव्यक्रियाप्रवृत्तद्रव्यास्रवविरक्तस्य मुनित्वं. ऋजुसूत्रनयेन भावामिभिलाषसंकल्पोपगतस्य. शब्दसमभिरूडैवंभूतनयैः प्रमत्तात क्षीणमोहं यावत् परिणती सामान्यविशेषचके स्वतत्त्वैकत्वपरमशमतामृतरतस्य मुनित्वं अत्र सम्यग्दर्शनचारित्रप्राग्भाववतो द्रव्यभावाश्रवविरतस्वरूपरतस्यावसरः।। मन्यते यो जगत्तत्त्वं, स मुनिः परिकीर्तितः। सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव च ॥१॥
व्या०-मन्यते इति-यः शमसंवेगनिर्वेदानुकंपास्तिक्यलक्षणलक्षितो जगद् लोकं जीवाजीवलक्षणं मन्यते जानाति तत्त्वं यथार्थोपयोगेन द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकस्वभावगुणपर्यायैः निमित्तोपादानकारणकार्यभावोत्सर्गापवादपद्धतिः तां जानाति स मुनि अवगृहीततत्त्वः परिकीर्तितः कथितः श्रीतीर्थकरगणधरैः
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२८४
.. मौनाष्टकम्
मुनेः निग्रंथस्य इदं मौनं, एवेति निर्धारणे तत् सम्यक्त्वं यत् यथाज्ञातं तथाकृतं इति तत् सम्यक्त्वं एव मुनित्वं सम्यक्त्वं वा पुनः सम्यक्त्वं एव मौनं निर्यथत्वं । अत्र यत् शुद्धश्रद्धाननिर्धारितात्मस्वभावः तत्र अवस्थानं चरणं यच्च सम्यग्दर्शनेन निर्धारित सम्यग्ज्ञानेन विभक्तं स्वरूपोपादेयत्वं तच्च तथैव भवति रमणं चरणं गुनित्वं अतः सम्यकश्रद्धागृहीतकरणं तत् एवमूतनयेन सम्यक्त्वं एवंभूतनयेन सम्यग्मुनित्वं सम्यक्स्वरूपं इति ज्ञपरिज्ञापत्याख्यानपरिज्ञाप्राप्तं एवं कार्यसाधकं तेन सम्यक्त्वमुनित्वे अभेदः । सम्यग्दृष्टिभिः यच्चतुर्थगुणस्थानस्थैः साध्यत्वेन धारित तथाकरणे यंत्र मुनिभावे निष्पादितं सिद्धावस्थायां इत्यनेन शुक्रसिद्धत्वस्य धर्मनिर्धारः सम्यक्त्वं । आचारांगे-जं सम्मत्तं पासह तं मोणं पासह जं मोणं पासह तं सम्मत्तं पासह णइ मं सक्कं कामायेरेंहिं पन्नत्तेहिं गारवावसंठेहि, मुणी मोणं समाधाय धुणेकम्मसरीरगं पंतं लुहं च सेविति वीरा सम्मत्तदसिणो" ॥१॥ तथा च पंचास्तिकायेषु जीवः चेतनालक्षणः तत्र स्वीयात्मबकोऽपि विभावग्रस्तोऽपि सत्तयां निर्मलानंदी निर्धारणाय तदाचरणविगमाय मोहहेतु तत् द्रव्यास्रवान् हेयतयोपलक्षितान् हेयतया करोति इति सम्यक्त्वं मुनिस्वरूपम् ॥१॥ आत्मात्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्ति-रुच्याचारैकता मुनेः ॥ २ ॥
व्या०-आत्मा इति-अत्र ज्ञानादिगुणानामभेदकरणाभूतानां ज्ञायकत्वकार्यकर्ता आत्मा एव अत्रोपादानरबको कारकचक्रमय एव आत्मा स्वयमेव ऋर्तृकार्गरूपोऽपि पारि पराप्रदानापादानाधिकरणः स्वयमेवेति व्याख्यातं भाध्ये श्रीजिनभद्र
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ज्ञानमंजरा टाका.
rommmmmmmmmmmm क्षमश्रिमणैः अत एवं आत्मा जीवकत्तीरूपः आत्ममा आत्ममयज्ञानवीर्येण करणमूतेनं आत्मानं अनंतास्तित्व-वस्तुत्व-द्रव्यत्वसत्त्व-प्रमेयत्व-सिद्धत्वधर्मकदंबोपेत कार्यत्वापन्ने आत्मनि आधारभूते अस्तित्वाधनंतधर्मपर्यायपात्रभूते जानाति सा इयं जानातिरूपा प्रवृत्तिः सा एव रत्नत्रये सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणे ज्ञप्तिः रुचिः आचारः भासननिराचाररूपः एतेषां एकता अभेदपरिणतिः मुनेः अस्ति इत्यनेन आत्मना आत्मानं ज्ञात्वा तद्रुचिः तदाचरणं मुनेः स्वरूपं । भावना च मिथ्यात्वाज्ञानासंयमैकत्वेन पौद्गलिकसुखं सुखत्वेन निर्धार्य ज्ञात्वा च तदाचरणवृत्तस्यानंतकालं तत्वानवबोधेन दाघज्वरपरिगत इव मृत्तिकालेप इवावगुंठितः कर्मपुद्गलैः न चोपलब्धः तत्त्वज्ञानज्ञानरमणानुभवलवोऽपि तेनैव निसर्गाधिगमादिकारणेन अनादिनिधनोऽयं जीवोऽनंतज्ञानादिपर्यायालिप्तामूर्तस्वभावोऽवगतः निर्धारितश्च साध्योऽहं, साधकोऽहं, सिझोऽहं, ज्ञानदर्शनाद्यनंतगुणमयोऽहं इति ज्ञप्तिरुचि आचरणरूपं मुनिस्वरूपं । उक्तं च--
आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद् यदात्मनि । तदेव तस्य चारित्रं, तज् ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥ १ ॥
पुनः हरिभद्रपूज्यैः षोडशकेबालः पश्यति लिंग, मध्यमवृत्तिर्विचारयति वृत्तम् । .. आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥ १ ॥ अतः तत्वैकत्वं चारित्रम् ॥२॥
पुनस्तदेव द्रढयति । चारित्रमात्मचरणाद्, ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः। शुद्धज्ञाननये साध्यः, क्रियालाभात् क्रियानये ॥३॥
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२८६
मौनाष्टकम्.
व्या० - चारित्रमिति - आत्मचरणात् आत्मस्वरूपरमणात् परभावप्रवृत्तित्यागात् चारित्रं आत्मस्वरूपावबोधः ज्ञानं स्वीयासंख्येयप्रदेशव्यापकत्वेन सहजलक्षणज्ञानाद्यनंतपर्यायः अहं नान्यः इति निर्द्धारः दर्शनं इत्यनेन आत्मा ज्ञानदर्शनोपयोगगुणद्वयलक्षणः । एवं उक्तं च भाष्ये- आत्मनो गुणद्वयमेव व्याख्यानयंति इति तन्मते ज्ञाने स्थिरत्वं चारित्रं तेन ज्ञानचारित्रयोरमेद एव ज्ञानमेवात्मपरिणाममयी वृत्तिः सम्यक्त्वं आस्रवरोधः तत्त्वज्ञानैकता चारित्रं एवं व्यापारभेदात् ज्ञानस्यैवावस्थात्रयं । उक्तं च
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एवं जिणपणत्ते, सद्दहमाणस्स भावओ भावे । पुरिसस्सा भणिवा ए, दंसणसदो हवई तो ॥ १ ॥
तथा च क्रियानये क्रियालाभात् साध्यनिष्पादनाय इति प्रथमं च क्रियानयसाध्यं तत्त्वप्राग्भावे च सर्व ज्ञाननयसाध्यं अस्ति । वस्तुतः ज्ञानप्रवृत्तिरेव चरणं ज्ञानमयसेवात्मधर्मत्वात् अतः ज्ञानस्वरूप एवात्मा ॥ ३ ॥ यतः प्रवृतिर्न मणौ, लभ्यते वा न तत्फलम् । अतात्त्विकी मणिज्ञप्ति - मणिश्रद्धा च सा यथा ॥ ४ ॥
व्या० यतः प्रवृत्तिरिति - अशुद्धज्ञाने निष्फलत्वं द्रढयति यथा अतात्विकी मणिज्ञप्तिः अमणौ मण्यारोपे मणौ मणिश्रद्धा तस्मिन् तत्फलं न लभ्यते न प्राप्यते यतः मणेः सकाशात् मणिप्रवृत्तिः विषापहारादिका न भवतीत्यर्थः । उक्तं च ।
पुदेव मुद्धा जह से असारे, आयंतए कूडकहावणे वा । राठा मणि वेरुवप्पासे, अमहग्वउं होइ जाणएस ॥ १ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
२८७
तथा यतो न शुद्धात्म-स्वभावाचरणं भवेत् । फलं दोषनिवृत्तिर्वा, न तज ज्ञानं न दर्शनम् ॥५॥
व्या०-तथा इति-तथा तेन प्रकारेण यत एकांतद्रव्याचरणचारित्रात् शुद्धात्मस्वभावाचरणं शुधः परभावरहितः योऽसौ
आत्मस्वभावः स्वरूपलक्षणः तस्याचरणं तदैकत्वं तन्मयत्वं न भवेत् तेन प्रवर्त्तनेन फलं शुद्धात्मस्वभावलाभरूपं न परमात्मपदनिष्पत्तिः न दोषाणां रागादीनां निवृत्तिः अभावः न वा अथवा तत्सर्वमपि प्रवर्त्तनं बाललीलाकल्पं शुमात्मस्वरूपालंबनमंतरेण अवेद्यसंवेद्यरूपं ज्ञानं तज् ज्ञान तथा सकलपरभावसंगोपाधिकाशुद्धात्माध्यवसायमुक्तताविकामूर्तचिन्मयानंदात्मीयसहजभाव एवाहमिति निरविकलं तदर्शनं न नैवेत्यर्थः, अत एव श्रुतेन केवलात्मज्ञानं तदभेदज्ञानं उत्सर्गज्ञानं च श्रुताक्षरावलंबि सर्व योपोगं भेदज्ञानं सर्वाक्षरसंपन्नश्च यावद् द्रव्यशुभावलंबी गाव ४ानी । उक्तं च समयप्राभृते
जो सुएणाभिगच्छई, अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुअकेवलमिसिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा ॥ १॥ जो सुअनाणं सवं, जाणई सुअकेवली तमाहु जिणा। नागं आया सबं, जम्हा सुअकेवली तम्हा ॥२॥
आत्मस्वरूपज्ञानं च प्रामृते । अहमिको खलु सुझो, निम्मओ नाणदंसणसमग्गो। तम्मि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं नेमि ॥ १ ॥
निर्मलनिष्कलंकज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण आत्मा तज्ज्ञानं ज्ञानं । उक्तं च
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२८८
मौतममम.. देहादेवल जो वसै, देव अणाइ अणंत । सो परजाणहु जोईया, अन्न न तं तं नमंत ॥१॥
आत्मज्ञानेनैव सिद्धिः साध्यमपि पूर्णात्मज्ञानं तदर्थमेव विवदंति दर्शनांतरीयाः, प्राणायामयंति रेचकादिपवनं, अवलंबयंति मौनं, प्रमंति गिरिवननिकुंजेषु, तथाप्यहत्प्रणीतागमश्रवणात् स्याद्वादस्वपरपरीक्षापरीक्षितस्वस्वभावौषधमंतरेण न कार्यसिद्धिः अतः प्राप्तावसरे तदेवानंतगुणपर्यायात्मकमात्मज्ञानमात्मनात्मनि करणीयं । उक्तं च
आत्माज्ञानभवं दुःख-मात्मज्ञानेन हन्यते ।
अभ्यस्यं तत्तथा तेन, येनात्मा ज्ञानमयो भवेत् ॥१॥ यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमण्डनम् । तथा जानन् भवोन्माद-मात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥६॥ ___ व्या०-यथा इति-यथा येन प्रकारेण शोफस्य पुष्टत्वं शरीरस्थौल्यं न पुष्टत्वे इष्टं, वाऽथवा यथा वध्यस्य मारणार्थ स्थापितस्य .मंडनं कणवीरमालाद्यारोपणात्मकं एवंरूपं भवोन्मादं जानन्. भवस्वरूपं एवंविधं जानन् मुनिः समस्तपरभावत्यागी आत्मतृप्तः आत्मस्वरूपे अनंतगुणात्मके तृप्तः तुष्टो भवेत् संसारस्वरूपमसारनिष्फलं अभोग्यं तु तद् ज्ञात्वा मुनिः स्वरूपे मग्नो भवति ॥ ६॥ सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मौनमुत्तमम् ॥७॥ ___ व्या०-सुलभमिति-वागनुच्चारं वचनाप्रलापरूपं मौनं सुलभ सुप्राप्यं तत् एकेंद्रियेष्वपि अस्ति । तन्मौनं मोक्षसाधकं नास्ति।
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ज्ञानमंजरी टीका.
२८९
पुद्गलेषु पुद्गलस्कंधजवर्णगंधरसस्पर्शसंस्थानादिषु योगानां द्रव्यभावमनोवचनकाययोगानां या अप्रवृत्तिः रम्या, रम्यतया अव्यापकत्वं तदभिमुखं वीर्यापसरणपरिसर्पणरहितं मौनं उत्तमं प्रशस्यं । भावना च परभावानुगचेतनावीर्यप्रवर्त्तनं चापल्यं तद्रोधः मौनं उत्तमं उत्कृष्टं आयत्यात्मनीनं योगचापल्यं च नात्मकार्य तेन तद्रोधः श्रेयान् । योगस्वरूपं कर्मप्रकृतौ । आत्मनो वीर्यगुणस्य क्षायोपशमप्राप्तस्यासंख्येयानि स्थानानि; सर्वजघन्यं प्रथमं योगस्थानं सूक्ष्मनिगोदिनः, एवं सूक्ष्मनिगोदेषु उत्पद्यमानस्य जंतोः भवति । इह जीवस्य वीर्य केवलिप्रज्ञाच्छेदकेन छिद्यमानं छिद्यमानं यदा विभागं न प्रयच्छति, तदा स एवांशो विभागः ते च वीर्यस्याविभागाः एकैकस्मिन् जीवप्रदेशे चिंत्यमाना जवन्येनाप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः; उत्कर्षतोऽप्येतत्संख्या किंतु जघन्यपदभाविवीर्याविभागापेक्षया असंख्येयगुणा द्रष्टव्याः, येषां जीवप्रदेशानां समाः तुल्यसंख्यया वीर्याविभागा भवंति । सर्वेभ्योऽपि चान्येभ्योऽपि जीवप्रदेशगतवीर्याविभागेभ्यः स्तोकतमाः ते जीवप्रदेशा धनीकृतलोकासंख्येयभागासंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणाः समुदिता एका वर्गणा, सा च जवन्या स्तोकाविभागयुक्तत्वात् जघन्यवर्गणातः परे जीवप्रदेशाः एकेन वीर्याविभागेनाभ्यधिका घनीकृतलोकासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणा वर्तते तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा । ततः परं द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिकानामुक्तसंख्याकानामेव जीवप्रदेशानामेव समुदायस्तृतीया वर्गणा, एवमेकैकवीर्याविभागवृद्धया वर्द्धमानानां तावंतो जीवप्रदेशानां समुदायरूपा वर्गणा असंख्येया वक्तव्याः, ताश्च कियत्य इति, इदं घनीकृतलोकस्य या एकैकप्रदेशपंक्तिरूपा श्रेणिः तस्याः श्रेणेरसंख्येयतमे भागे यावंतः
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मौमाष्टकम्.
आकाशप्रदेशाः तावन्मात्रा वर्गणा समुदिता एकस्पर्द्धकं "स्पर्धते इवोत्तरोत्तरवृद्धया वर्गणा अत्रेति स्पर्द्धकं” पूर्वोक्तस्पर्द्धकगतचरमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशानैकेन वीर्याविभागेनाधिकाः प्राप्यंते नाऽपि द्वाभ्यां नाऽपि त्रिभिः नांऽपि संख्येयैः, किंत्वसंख्येयलोकाकाशप्रमाणैरभ्यधिकाः प्राप्यंते, ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्द्धकस्य प्रथमा वर्गणा ततः जीवप्रदेशानामेकेन वीर्याविभागेनाधिकानां समुदायो द्वितीया वर्गणा, द्वाभ्यां वीर्याविभागाम्यां अधिकानां समुदायः तृतीया वर्गणा, एवं तावद्वाच्य यावत् श्रेण्यसंख्येयभागगत प्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा भवंति, तासां च समुदायः द्वितीयं स्पर्द्धकं ततः पुनरप्यसंख्ये यलोकाकाशाः प्रदेशप्रमाणैः वीर्याविभागैरभ्यधिकाः प्राप्यंते, ततस्तेषां समुदायाः तृतीयस्य स्पर्द्धकस्य प्रथमा वर्गणा, ततः एकैकवीर्याविभागया द्वितीयादयो वर्गणास्तावद्वाच्यं यावत् श्रेण्यसंख्येयभागगतमदेशराशिप्रमाणा भवति, तासां च समुदायः तृतीयं स्पर्द्धकं, एवमसंख्येयानि स्पर्द्धकानि वाच्यानि एवं पूर्वोक्तानि स्पर्द्धकानि श्रेण्यसंख्येयभागगत प्रदेशराशिप्रमाणानि जवन्यं योगस्थानं, एतच्च सूक्ष्मनिगोदस्य सर्वाल्पवीर्यस्य भवप्रथमसमये वर्त्तमानस्य प्राप्यते, ततः अस्य जीवस्याधिकतरवीर्यस्य येऽल्पतरवीर्या जीवप्रदेशाः तेषां समुदायः प्रथमा वर्गणा । ततः एकेन वीर्याविभागेन वृद्धानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । द्वाभ्यां अधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा । एवमेकैकवीर्याविभागवर्द्धमानानां यावत् श्रेण्यसंख्ये भागगत देशराशिप्रमाणा भवंति, तासां समुदायः प्रथमस्पर्द्धकं । ततः प्राक्तनयोगस्थानप्रदर्शितप्रकारेण द्वितीयादीनि स्पर्द्धकानि वाच्यानि तानि च यावत् श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि भवति, ततस्तेषां समुदायो द्वितीयं योगस्थानं ।
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ज्ञानमंजरी टीका.
mmmmmmm ततोऽन्यस्य जीवस्याधिकतरवीर्यस्योपदर्शितप्रकारेण तृतीयं योगस्थानं वाच्यं । एवमन्योऽन्यजीवापेक्षया तावत् योगस्थानानि वाच्यानि यावत्सर्वोत्कृष्ट योगस्थानं भवति । तानि च योगस्थानानि सर्वाण्यपि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि भवति । क्षयोपशमवैचित्र्यात्सर्वमवसेयं । ननु जीवानामनंतत्वात् प्रतिजीवं च योगस्थानस्य प्राप्यमाणत्वात् अनंतानि योगस्थानानि प्राप्नुवंतिः कथमुच्यते असंख्येयानि ? । उच्यते--यतः एकैकस्मिन् योगस्थाने सहशे सहशे वर्तमानाः स्थावरजीवा अनंताः प्राप्यंते, ततः सर्वजीवापेक्षयापि सर्वाणि योगस्थानानि केवलपरिज्ञया परिभाव्यमानानि असंख्येयान्येव प्राप्यते नाधिकानि, एकस्मिन् योगस्थाने एको जीवः जघन्यत एकं समयं उत्कृष्टत अष्टौ समयान् यावत्तिष्ठति । एवं योगस्थानतारतम्ये सर्वजीवेषु बाहुल्यं गाथाक्रमेण वक्तव्यं
सुहुमनिगोआक्खणप्पजोग बायर विगलअमणमणा । अपज्जलहु पढमदुगुरु, पजस्सियरो असंखगुणो ॥
असमत्ततसुक्कोसो, पजहनियर एव ठिइठाणा ॥ इत्यष्टाविंशतिभेदाल्पबहुत्वं अवगंतव्यं । योगबाहुल्ये बहुकर्मग्राही, मंदत्वे अल्पपुद्गलग्राही इत्येवं या योगानां पुद्गलग्रहणरूपा प्रवृत्तिः तस्या रोधः मौनं उत्तमं, किं सतृष्णस्य बाह्ययोगरोधेन ? । तस्मात् सकलविमलज्ञानाद्यनंतगुणमहामाहात्म्यपरमात्मभावरसिकैः आत्मनो योगप्रवृत्तिपुद्गलानुगतयो रोधनीया इत्युपदेशः ॥ ७ ॥ ज्योतिर्मयीव दीपस्थ, क्रिया सर्वापि चिन्मयी। यस्यानन्यस्वभावस्य, तस्य मौनमनुत्तरम् ॥८॥ व्या० ज्योतिर्मयीवेति-तस्य-तत्वैकत्वपरिणतस्य मौनं योगनि
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मौनाष्टकम्
ग्रहरूपं स्वधर्मप्राग्भावकर्तृत्वभोक्तृत्वे व्यापारिताशेषवीर्यस्य कर्मबिकरणापूर्वकरणकिट्टिकरणादिषु स्थापितवीर्यकरणस्य परभावाप्रवृत्तत्वेन-मौनं-योगचापल्यतावारणरूपं अनुत्तरं-सर्वोत्कृष्टं यस्यक्रियागुणप्रकर्षप्रवर्तनावीर्यप्रवृत्तस्यापि चिन्मयी-स्वरूपज्ञानमयी आत्मानुभवकत्वरूपा, तथा-प्रदीपस्य या क्रिया-उत्क्षेपणादिका या सर्वापि ज्योतिर्मयी-आत्मानुभवैकत्वरूपा, यथा दीपस्य या क्रिया उत्क्षेपणनिक्षेपणादिका या सा सर्वापि ज्योतिर्मयी ज्ञानप्रकाशयुक्ता, तथा यस्य वंदननमनादिगुणस्थानारोहरूपा क्रिया तत्त्वज्ञानप्रकाशिका तस्य अनन्यस्वभावस्य-न विद्यते अन्यःपरः स्वभावो यस्य स तस्य, परभावव्यापकचेतनाभिसंधिवीर्यरहितस्य साधोः मौनं अनुत्तरं, वियत्सुखभावानुरोधादेव तत्कारकात् वियत्संपूर्णता, तदुत्पत्तौ 'कुंभस्येव दशाऽऽत्मनः' इति न्यायात् ज्ञानिनः क्रिया ज्ञान्युपकारका ज्ञातव्या, ज्ञाननयस्यात्मनः तत्त्वैकत्वाध्यासिनः स्वरूपारोहका या क्रिया सा ज्ञानस्वरूपप्रकाशहेतुः आचरणनिमित्तमसक्रिया आचरणापगमाय सक्रिया निमित्तं भवति, तत्त्वमग्नस्य न कारणीभवति, अतः तत्त्वज्ञानस्वरूपैकत्वध्यानलीनानां मुनीनां तेषां एव नमश्चरणयोः ॥८॥
इति व्याख्यातं मौनाष्टकम् ॥ १३ ॥
अथ विद्याष्टकम् ॥ १४ ॥ अथेदृग् मौनाष्टकं यथार्थविद्यातत्त्वोपयोगिबुद्धिवतो भवति, अतो विद्याष्टकमुपदिशति,-तत्र नामविद्या इति नाम जीवस्याभिधानं क्रियते सा नामविद्या, अक्षवराट ककादि विद्या इति स्थाप्यते सा स्थापनाविद्या, द्रव्यविद्या लौकिका शिल्पादिरूपा, लोकोत्तरा द्विविधा-कुप्रावचनिका भारतरामायणोपनिषद्रपा' लोको
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ज्ञानमंजरी टीका.
२९३
त्तरा सुप्रावचनिका विद्या आवश्यकाचारांगादिलक्षणा, सापि ज्ञशरीरभव्यशरीरस्य तदभ्यासवतः अनुपयुक्तस्य द्रव्यविद्या, अथवाऽनुपयुक्तस्य हेयोपादेयपरीक्षाविकलस्य वाचनापृच्छनापरिवर्त्तनाधर्मकथारूपा, अनुप्रेक्षाविकलापि चेतनाविज्ञप्तिर्द्रव्यरूपा ज्ञेया, भावविद्या तु लोकोत्तरार्हत्प्रणीतागमरहस्याभ्यासवतः नित्या - नित्याद्यनंतपर्यायोपेतचिद्र पोपादेयबुद्धिः विभावाद्यनंतपरभावपरित्यागप्रज्ञप्तिलक्षणा, भावविद्याभ्यासस्यावसरः, तत्र मत्यादिज्ञानक्षयोपशमनिमित्ता इंद्रियादयः नैगमेन विद्या, सर्वजीवद्रव्याणि संग्रहेण, द्रव्यश्रुतं व्यवहारेण, ऋजुसूत्रेण वाचनादि, शब्दनयेन यथार्थोपयोगः, कारणकार्यादिसंकर रूपसविकल्पचेतना क्षायोपशमिकी साधनावस्था एवंभूतेन, साधका निर्विकल्पा तात्त्विकी । तथा - केचित् केवलज्ञानरूपसिद्धविद्या इति आद्यनयचतुष्टयस्य द्रव्यनिक्षेपांतर्गतत्वेन कारणरूपा गृहीता, अतो नयत्रयस्य भावरूपत्वेन कार्यरूपा उत्तरोत्तरसूक्ष्मा गृहीता, तत्र कारणोद्यमेन कार्याssवता भवितव्यं । नित्यशुच्यात्मताख्याति -रनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्यातत्त्वधीर्विद्या, योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ॥ १ ॥
नित्यशुच्येति - अनित्याशुच्यनात्मसु नित्यशुच्यात्मताख्यातिः अविद्या इत्यन्वयः, अनित्ये चेतनात् जातिभिन्नमूर्त्तपुद्गलग्रहणोत्पन्ने परसंयोगे या नित्यताख्यातिः सा अविद्या, अशुचिषु शरीरादिषु स्रवन्नवद्वाररंध्रेषु क्रुद्धस्वरूपावतरणनिमित्तेषु शुचिख्यातिः, अनात्मसु पुद्गलादिषु आत्मताख्यातिः 'अहं मन्ये' इति बुद्धिः 'इदं शरीरं मम अहमेवैतत् तस्य पुष्टौ पुष्टः' इति ख्याि कथनं ज्ञानं तत्र रमणं इयं अविद्या प्रतिबुद्धिः या तत्त्वबुद्धिः
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विद्याष्टकम्
शुद्धात्मनि नित्यता शुचिता आत्मता इति ज्ञप्तिः विद्या-तत्त्वविवेकः । अत्र नित्यत्वं तु उत्पादव्ययवरूपेऽपि अर्पितानर्पित प्रकारेण द्रव्यास्तिककूटस्थनित्यता ज्ञेया, इयं विद्या परमार्थसाधनपढ़ी योगाचार्यैः योगः-ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकमोक्षोपायः तस्य आचार्याः-तदाचरणकुशलाः तैः प्रकीर्तिता । अत्र भेदज्ञानं साधनं । उक्तं च अध्यात्मबिंदौ “ यावंतो ध्वस्तबंधा अभूवन् , भेदज्ञानाम्यास एवात्र मूलं, यावंतोऽध्वस्तबंधा भ्रमंति, भेदज्ञानाभाव एवात्र बीजं" ॥१॥ यः पश्येन्नित्यमात्मनमनित्यं परसङ्गमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥२॥
यः पश्येदिति-य आत्मार्थी आत्मानं नित्यं' सदा अचलितस्वरूपं 'पश्येत्' अवलोकयेत्, 'परसंगम' शरीरादिकं 'अनित्यं' अध्रुवं पश्येत् तस्य-साधनोद्यतस्य मोहो-मौढ्यं मुह्यता-मिथ्यात्वादिप्रांतिरूपा स एव मलिम्लुचः-तस्करः 'छलं छिद्रं लब्धं 'न शक्नोति' न समर्थों भवति, इति अनेन यथार्थज्ञानवतः रागादयो न प्रवद्धते, तस्यात्मा मोहाधीनो न भवति ॥२॥ तरङ्गतरलां लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् । अदभ्रधीरनुध्याये-दभ्रवद् भङ्गरं वपुः ॥ ३ ॥
तरंगेति-'अदम्रधीः' पुष्टबुद्धिः लक्ष्मी तरंगवत्-जलधिकल्लोलवत् तरला-चपला तां तरंगतरलां अस्थिरां अनुध्यायेत्, 'आयुः जीवितं याति तद् वायुवत् 'अस्थिरं गत्वरं प्रतिसमयविनश्वरं अध्यवसानादिविघ्नोपयुक्तं 'अनुध्यायेत्' चिंतयेत् 'वपुः' शरीरं पुद्गलस्कंधनिचितं अभ्रवद्भगुरं-भंगशीलं अनुध्यायेत्, इदं
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ज्ञानमंजरी टीका.
२९५
च यथार्थचिंतनं भावना च, स्वसंपद्विमुक्तेन पृथ्वीकायस्कंधा संपद्रूपेण उपचरिता न च ते संपत्, तथा जीवः ज्ञानदर्शनवीर्यसुखरूपैः भावप्राणैरेव जीवति । आयुर्जीवनं तु बाह्यप्राणसंबंधस्थितिहेतुतया तन्नात्मस्वरूपं तथा वर्णगंधरसस्पर्शाचेतनशरीरोपचयश्च न स्वरूपं, तदपि अस्थिर, इत्येवं अस्थिरपरभावे स्वात्मधर्मप्रध्वंसके कः प्रतिबंधः ?, तदर्थं च स्वगुणान् चेतनावीर्यादीन् कः परभावग्रहणोन्मुखान् करोति ? । अत आत्मनि आत्मगुणप्रवृत्तिरेव करणीया ॥३॥ शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं, समर्थेऽशुचिसंभवे । देहे जलादिना शौच-भ्रमो मूढस्य दारुणः ॥४॥
शुचीन्यपीति-'मूढस्य' अज्ञस्य यथार्थापरयोगरहितस्य देहेंद्रियायतने 'जलादिना' पानीयमृत्तिकादिसंगेन शौचभ्रमः श्रोत्रियादीनां । ..:.' भयकृत, यश्च जात्याशुचिः स किं जलव्यूहैः शुवीभवति ?, कथंभूते देहे ?-शुचीन्यपि-कर्पूरादीन्यपि 'अशुचीकर्तुं समर्थे, देहसंगात् मलयजविलेपनादयोऽप्यशुचीभवंति, पुनः कथंभूते देहे ? 'अशुचिसंभवे' अशुचि आर्तवं मातुः रक्तं पितुः शुक्रं, तेन संभवः उत्पत्तिः यस्य स तस्मिन् । उक्तं च भवभावनायां
सुकं पिउणो माउऍ, सोणियं तदुभयपि संसठं । तप्पढमाए जीवो, आहारइ तत्थ उप्पन्नो ॥१॥ यूकाइसुणयभक्के, किमिकुलवासे य वाहिखित्ते य । देहम्मि अवधुविहुरे, सुसाणत्थाणे य पडिबंधो ॥ २ ॥
अतः अस्थिरे अपवित्रे औपाधिके अभिनवबंधकारणे द्रव्यभावाधिकरणे कः संस्कारः ॥ ४ ॥
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विद्याष्टकम्.
अथ देहे आत्मत्वारोपोऽपि बहिरात्मदोषौचः । अतः तन्निवार्य स्वरूपे आत्मनः पावित्र्यं करणीयं । तदुपदिशति-- यः स्नात्वा समताकुण्ड, हित्वा कश्मलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचिः॥५॥
यः स्नात्वेति-स अंतरात्मा देहात् भिन्नात्मज्ञानी स्वपरविवेकी 'परः' प्रकृष्टः 'शुचिः' पवित्रः ज्ञेयः पुरुषः, समता अरक्तद्विष्टता तद्रूपे कुंडे स्नात्वा 'कश्मलजं' पापोत्पन्नं मलं हित्वा पुनः मालिन्यं 'न याति' न प्राप्नोति सम्यक्त्वभावितात्मा परमः शुचिः 'बंधे ण वोलइ कयावि' इति वचनात्, सम्यग्दृष्टिरनेनाशेन स्नातकः न पुनः उत्कृष्टां स्थिति बध्नाति, एतदेव सहजं पवित्रत्वम् ॥ ५॥ आत्मबोधो न वः पाशो, देहगेहधनादिषु । यःक्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु, स्वयं बन्धाय जायते ॥६॥
आत्मा इति-भो भव्याः ? वः युष्माकं आत्मबोधः आत्मज्ञानं न पाशः न बंधहेतुः केषु ? देहगृहधनादिषु य आत्मना क्षिप्तः स पाशः रागपरिणामः स्वस्य आत्मन एव बंधाय जायते इत्यनेन देहगृहादिषु यो रक्तः स सर्वभवपाशैः बध्नाति स्वस्य बंधहेतुः इत्यनेन परभावा रागादयः आत्मनो बंधवृद्धिहेतवः ॥१॥ मिथो युक्तपदार्थाना-मसंक्रमचमक्रिया। चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषैवानुभूयते ॥ ७ ॥
मिथो युक्त इति-परस्परं युक्तानां मिलितानां पदार्थानां-धर्मादिनामेकक्षेत्रावगाहिनां पुद्गलानांचस्वक्षेत्रपरिणतानां असंक्रमचम
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ज्ञानमंजवाटीका
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किया नः संक्रमापरूप-अमीलनवर चमक्रिया चमत्कारः, एकक्षेत्रावगाहार अषि नपरस्परं व्यापारका भवन्ति इलनेन स्वरुपतो भिन्ना एव, एषां चमक्रिया विदुषा एव, अनुभूयतेपंडितेनैव विभज्यते, कथंभूतेन विदुषा १-'चिन्मात्रपरिणामेन' ज्ञानमात्रपरिणामेन ज्ञानमात्रबलेन इत्यनेन पंचास्तिकायानां कैश्चित्साधारणगुणैः अगुरुलघ्वादिभिः तुल्यानापि असाधारणगुणैः गतिस्थित्यवगाहचेतनापूरणगलनादिलक्षणैश्च भेद एव, स्वाशुद्धग्राहकतागृहीतपुद्गलेष्वपि न स्वगुणसंक्रमः, नाऽपि पुद्गलगुणसंक्रमः यावत् एषां भेदचमक्रिया भिन्नद्रव्ये स्वद्व्यगुणपर्यायाणां एकद्रव्यं व्याप्यावरियतानां आधाराधेयत्वेनामेदरूपाणामपि स्वस्वधर्मपरिणतिरूपाभेदचमकिया, एवं द्रव्याद् द्रव्यस्य, गुणाद् गुणस्य, पर्यायात्पर्यायस्य स्वभावस्य भेदलक्षणा चमकिया विदुषापंडितले अनुभमतको नान्येम । द्रव्यानुयोगज्ञानविकलेन। उक्तंति च-सम्मतौक
अण्णोष्णाणमयाणं, इमं च तं चत्ति विभणयमजुतं । . जह दुद्भपाणियाण, जावन्ति विसेस पज्जाया.॥४७॥ जं दवखित्तकाले, एगत्ताणंपि भावधम्माणं । सुअनाणकारणेणे, भेए नाणं 'तु “सा विज्जा ॥२॥
इति । हरिभद्रपूज्यैः द्रव्यानुयोगलीनामां आथाकादिन दोषमुख्यत्वग्न मतं। तथा च भमक्संगे" समणोबासरस्स णं भंते ! तहाल्कं समन्वा माहम वा-अफासपणं असमिज्जेमं असमानामखाइमसाइमं पडिलाभमाणे : किं कजई-१, गोयमा ! बहुतरा से निज्जरा कन्नई, अप्पतरे से पावे-कम्से कजईभ । तवृत्तिः इह च केचित् मन्यते- असंस्तरणादिकारणे एवाप्रासकार दिदाने बहुदरनिर्जरा भवति- नाकारणं, यत उक्तं
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विद्याटकम्
संथरणम्मि असुद्धं, दोण्हवि गेण्हंतदितयाणहिअं । आउरदिट्टतेणं, तं चेव हियं अ संथरणे ॥१॥
अन्ये त्वाहुः कारणेऽपि गुणवत्पात्रायामासुकादिदाने परिणामवशात् बहुतरा निर्जरा भवति अल्पतरं च पापं कर्म इति, निर्विशेषत्वात् सूत्रस्य परिणामस्य च प्रामाण्यात् । आह
परमरहस्समिसीणं, समत्तगणिपिङगधरियसाराणं । परिणामि पमाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं ॥१॥ इमे पुनः"चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा ।
चरणकरणस्स सारं, निच्छयसुद्धं न याणंति ॥२॥ अहागडाइं भुजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलित्ते वियाणिज्जा, अणुवलित्तेत्ति वा पुणो, ॥ १ ॥ एतेहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारेण विज्जइ। एतेहिं दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥२॥ इति द्वितीयाः योगे २१ अध्ययने इत्यादि गीतार्थस्याकल्पं कल्पं, एषा लब्धिः तत्त्वज्ञानवतामेव ॥७॥ अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा विद्याञ्जनस्पृशा। पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः॥८॥
- अविद्या इति-हि निश्चये 'योगिनः' समाधिदशावस्थाप्रवृतचायोगिनः ‘आत्मनि एव' स्वात्मनि एव 'परमात्मानं' उत्कृएनिष्पनसिद्धात्मानं 'पश्यंति' आत्मनि परमात्मत्वं निर्धारयंति, कया ? 'विद्यांजनस्पृशा दृशा, विद्या तत्वबुद्धिरूपा सा एवं अंजनं तस्य स्पृशा हशा-चक्षुषा, व सति ? अविद्या-अज्ञानं भयोधः अयथार्थोपयोगो वा तदेव तिमिरं तस्य व्यंसः तस्मिन्
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ज्ञानमंजरी टीका.
AAAAAAAAAAAAAAPARAN
इत्यनेन मिथ्यात्वतिमिरध्वंसे जाते सम्यग्दृष्टयः आत्मानं आत्मनि पश्यंति, अत एव अनेकोपयोगेन श्रुताभ्यासेन आत्मस्वरूपोपलंभाय तत्त्वपरीक्षणाय यतितव्यं, यथार्थ आत्मस्वरूपपरिज्ञानं विद्या परमोपकारिणी इति ज्ञेयं ॥८॥
इति चतुर्दशं विद्याष्टकम् ॥ १४ ॥
अथ विवेकाष्टकम् ॥ १५॥ सा च तत्त्वविद्या विवेकेन-स्वपरविभजनन स्फुटीभवति, अतो विवेकस्याभ्यासः कर्त्तव्यः, तत्र विवेचनं हेयोपादेयपरीक्षणं विवेकः, नामस्थापनाविवेकौ सुगमौ, द्रव्यविवेकः लौकिकः धनोपार्जनराजनीतिकुलनीतिदक्षस्य भवति, लोकोत्तरस्तु धर्मनीतिदक्षस्य भवति, भावतो विवेकः बाह्यः स्वजनधनतनुरागविभजनरूपः, आभ्यंतरश्च ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्माशुद्धचेतनोत्पन्नविभावितादिभावकमैकत्वविभजनरूपः, तत्स्वरूपश्चायं. आगमें" पुष्विं रागाश्या विभावा सबओ विभजिज्जा पच्छा. दवा कम्मा सबविमिन्नो नियो अप्पा ॥१॥" तथा च प्रामृते' समस्तकाचशकलव्यू हपतितं रत्नं परीक्षको गृह्णाति एवं सम्यग्दृष्टिः सर्वविभावपरभावपरिणतमध्यस्थं आत्मानमचलमखंडमव्ययं ज्ञानानंदमयं स्वत्वेन विभज्य उपादत्ते' । श्रीहरिभद्रपूज्यैश्च प्रथम क्रुद्धादिदोषोपशमे मार्गानुसारिगुणैः तत्त्वजिज्ञासा, तत्त्वज्ञगुरुसेवनतः अतिमधुरत्वेन श्रुतरसिकः यथार्थजीवाजीवविवेचनतः सर्वपरभावमिन्नमात्मानमुपलभ्य भेदज्ञानी भवति, स च क्रमेणात्मनः परं त्यजन् सर्वपरभावत्यागी सिद्धयति, तत्राधनयत्रयेण लौकिकलोकोत्तरविवेकः । ऋजुत्रनयेन धर्मसाधन
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विवेकाटकम्
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विवेकः शब्दादिनयत्रयेण विभावविभजनक्षयोपशमसाधनोपयोगादिक्षायिक साधक परिणतिविवेकः इति यथाक्रममवगंतव्यं । तत्रामनः कर्मसंयोगैकत्वं विवेचयन्नाह - कर्म जीवं च संश्लिष्ट, सर्वदा क्षीरनीरवत् । विभिन्नीकुरुते योऽसौ, मुनिहंसो विवेकवान् ॥ १ ॥
कर्म जीवं च इति-कर्म ज्ञानावरणादिकं जीवं च सच्चिदानंदरूपं 'सर्वदा' सर्वकालं क्षीरं पयः नीरं जलं तद्वत् 'संश्लिष्ट एकीभूतं यः 'विभिन्नीकुरुते' लक्षणादिभेदैः पृथक् पृथक् कुरुते असौ : मुनिहंसः 'विवेकवान्' भेदज्ञानवान् जीवो नित्यः, पुद्गल - संगा अनित्याः; जीवोऽमूर्त्तः, पुद्गला मूर्त्ताः जीवोऽचलः, पुद्गलाः चलाः; जीवो ज्ञानाद्यनंतचेतनालक्षणः, पुद्गला अचेतनाः; जीवः स्वरूपकर्त्ता, स्वरूपभोक्ता, स्वरूपरमणाभावविश्रांतः, पुद्गलाः कर्तृत्वादिभावरहिताः; इत्यादिलक्षणैः विभज्य यो विरक्तः स मुनिः श्रमणो विवेकवान् विवेकयुक्त इति ज्ञेयम् ॥ १ ॥ देहात्माद्यविवेकोऽयं सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्यापि तद्भेद- विबेकस्त्वतिदुर्लभः ॥ २ ॥
देहात्मा इति - आत्मा त्रिविध:- बाह्यात्मा १ अन्तरात्मा २ परमात्मा ३ चेति, यस्य देहमनोवचनादिषु आत्मत्वभासः, देह एवात्मा एवं सर्वपौगलिक प्रवर्त्तनेषु आत्मनिष्ठेषु आत्मत्वबुद्धिः सबाह्यात्मा १ मिथ्यादृष्टिः एषः, पुनः सकर्मावस्थायामपि आत्मनि ज्ञानाद्युपयोगलक्षणे शुद्धचैतन्यलक्षणे महानंदस्वरूपे निर्विकारा मृताव्याबाधारूपे समस्तपरभावमुक्ते आत्मबुद्धिः अंतरात्मा सम्यगदृष्टिगुणस्थानकतः क्षीणमोहं यावत अंतरात्मा उच्यते
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ज्ञानमंजरी टीका.
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२, यः केवलज्ञानदर्शनोपयुक्तः शुद्धसिद्धः स परमात्मा सयोगी केवल सिद्ध स परमात्मा उच्यते । सर्वत्र परमात्मत्वसत्ता समाना, अतो भेदज्ञानेन सर्व साध्यं इति । देहात्मा देहः - शरीरं आत्मा - जीवः आदिशब्दात मनोवाक्कायादिषु आत्मा अयं इत्यविवेकः 'सर्वदा' सर्वकालं 'सुलभः सुप्रापः 'भवे' संसारे, तदेदविवेकः- तस्य शरीरात्मना भेदविवेकः- भिन्नताविवेचनरूपः भव - कोट्यापि 'अतिदुर्लभः' दुष्प्रापः अनादिकालैकस्वगृहीतपरभावात्मना स्वस्वलक्षणभेदेन भेदज्ञानं - अतिदुर्लभः सम्यग्दृष्टिरेव भेदज्ञानं करोति, आत्मना तनिश्चयः दुर्लभः । उक्तं च समयप्राभृते-
1
सदपरिचिदाणुभ्रता, सबस्सवि कामभोगबंध कहा । एगत्तमुचलभोणवरिणसुलभो विभत्तस्स ॥ १ ॥
आत्मा ज्ञानानंदमयः, परभावा रागादयः तेषां विभजनरूपः आत्मस्वरूपरसिकत्वोपयोगः दुर्लभः || २ ||
शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद्, रेखाभिर्मिश्रता यथा । विकारैर्मिश्रता भाति, तथात्मन्यविवेकतः ॥ ३ ॥
शुद्ध इति- 'यथा येन प्रकारेण शुद्धे 'योनि' आकाशे 'तिमिरात' चक्षुपि भ्रमकारकतिमिररोगात रेखाभिर्नीलपीतादिभिः मिश्रता शबलता करता दृश्यते तथा तेनैव प्रकारेण अविवेकतः असदुपयोगतः विकारै: रागाद्यशुद्धाध्यवसायः 'मिश्रता' एकता 'भाति' शोभते इति, अनादिविकारविक्रियापरिणता दृश्यते इत्यनेन निश्चयनयेन निर्विकाराखंडचिन्मूर्त्तिः तथापि परैकत्वेन विकारांकितो भासते इति ॥ ३ ॥
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विवेकाष्टकम्
आत्मनः परभावकर्तृत्वाभावे परोपाधिजननशुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिरात् रेखामिर्मिश्रता यथा विकारैः, अन्येन विकारेण विकारता कयमिति निवारयन् आहयथा योधैः कृतं युद्धं, स्वामिन्येवोपचर्यते। शुद्धात्मन्यविवेकेन, कर्मस्कन्धोर्जितं तथा ॥४॥
यथा योधैरिति-यथा 'योधैः सुभटैः कृतं युद्धं समरस्वामिनि नृपे उपचर्यते जयपराजयहविषादश्लोकाश्लोकादिकं स्वामिनि एव 'अयं नृपः जितः अयं पराजितः ' लोके इत्युक्तिर्भवति तच्च स्वामित्वांशं ममत्वैकत्वेन तथा संग्रहेण शुझे आत्मनि 'अविवेकेनः अज्ञानेन असंयमेन; कर्म ज्ञानावरणादि तस्य स्कंधः-समूहः तस्य ऊर्जितं-साम्राज्यं अस्ति इत्यनेन स्वस्वरूपकर्तृत्व-भोक्तृत्व-परावृत्तौ ग्राहकतादिशक्तिपरिग्रहणेन तदकर्तृत्वापत्तिर्जीवस्योपचर्यते-उपचारः क्रियते, असदारोप उपचारः परभावकतृत्वादिपरिणत्यभावेष्वौपाधिककर्तृत्वाद्युपचारोऽनादी न इति॥४॥
पुनस्तदेव कथयति; परप्रसङ्गाञ्चैतन्यव्यामोहं दर्शयति-- इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथेक्षते । आत्माभेदभ्रमस्तद्व-देहादावविवेकिनः ॥ ५॥ __इष्टकाद्यपि इति-कश्चित् पीतोन्मत्तः पीतेन-कनकेन पंक्तिस्थन्यायेनार्थः धतूरकेणोन्मत्तः-धर्मितः 'इष्टकाद्यपि मृन्मयस्कं. धानपि हीति निश्चितं स्वर्ण 'ईक्षते' विलोकते; तद्वत् 'अविवेकिनः, तत्वज्ञानविकलस्य 'देहादी' शरीरादौ 'आत्माभेदभ्रमः आत्मना-चेतनेन सह न भेदः-अभेदः तस्य भ्रमो भवति । शुद्धामाश्रवणादज्ञातवपरविभेदः परं स्वात्मत्वेन जानन आत्मानं परेणकत्वं मन्यमानो अमत्यनंतकालं, अतोऽयमविवेकरन्याज्यः ॥५॥
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ज्ञानगंगारी टीका. पुनः शुद्धताहेतुत्वोपदेशं कथयति । इच्छन् न परमान् भावान् , विवेकादेः पतत्यधः। परमं भावमन्विष्यन् , अविवेके न मज्जति ॥ ६ ॥
इच्छन्न परमानिति-परमान् भावान् परमभावग्राहकनयेन संमतशुमचैतन्यानुगसर्वधर्मपरिणमनेन 'परमान्' उत्सर्गशुद्धनयोपदिष्टान् नित्यानित्याद्यनंतान् 'न इच्छन्' न वाञ्छन् 'विवेकाद्रेः' तत्त्वज्ञानतत्त्वरमणगिरेः शृंगात् अधः पतति विवेकरहितो भवति, 'परमं' शुद्धं तादात्म्यतागतं सर्वविशुद्धात्मस्वभावं स्याद्वादोपयोगेन 'अन्विष्यन्' गवेषयन् शुद्धचैतन्यमुपादेयतया कुर्वन् 'अविवेके' अज्ञाने असंयमे 'न मज्जति न मग्नो भवति । अध्यात्मस्वरूपैकत्वानुभवकरणप्रवृत्तः परभावचूरणचक्रवर्ती एव इति समस्तपरभावोन्मादमंथनपटुशुद्धात्मज्ञानरमणानुभवने यतितव्यं, नार्शचीनपरिणतौ, अत एवापूर्वकरणप्रविष्टमुनिरनेकर्खिलामे न संगतिमंगति । अपूर्वकरणं च सर्वामिनवगुणप्राप्तौ भवत्येव ।
संमदरसजोबविरई, अणविसंजोयदंसखवगे य। मोहसमसंतखवगेखीणसयोगीयर गुणसेढी ॥१॥
एवं एकादशगुणश्रेणिषु प्रथमगुणश्रेणौ करणत्रयं, शेषासु दशसंख्यासु अपूर्वकरणानिवृत्तरूपं करणद्वयं करोत्येव; एवं अपूपूर्वकरणारोहणेन कर्मपटलविग्रमो भवति । उक्तं चसातरिसेष्वगुरुः, प्राप्यद्धिविमतिमसुलभामन्यैः । सक्तः प्रशमरतिसुखे; न भजति तस्यां मुनिः संगम् ॥१॥ या सर्वसुखर्द्धिविस्मयनीयानगारदिर्नार्थयति । सहस्रभाग कोटिशतसहस्रगुणितापि ॥ २॥ ॥६॥
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विवेकाष्टकम्.
आत्मन्येवात्मनः कुर्यात्, यः षट्कारकसङ्गतिम् । क्वा विवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ॥७॥
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व्या०-- आत्मन्येवात्मन इति — य आत्मनः कर्तृत्वव्यापारविभजनदक्ष आत्मनि एके स्वात्मद्रव्ये एवं आत्मनः स्वीया षट्कारकसंगतिः षट्कारकाणां कर्तृ-कर्म-करण-संप्रदानापादानाधिकरणरूपाणां संगतिं एकत्वं कुर्यात; अस्य पुरुषस्य अविवेकोऽज्ञानं स एव ज्वरः तस्य वैषम्यं विषमत्वं क्व कथं भवति ? ज्वरस्य हेतुत्वमाह जडमज्जनात् 'जडिमजवात्' इति पाठे जडिमा मौठ्यं तस्य जवो वेगः तस्मात्, अथवा जलमज्जनात् जलमज्जनेन महाज्वरोत्पातः तस्मात् । अत्र षट्कारकव्याख्या श्रीविशेषावश्यकानुसारेण उच्यते-आत्मा कर्ता तथा च यः कर्तात्मापरः स कारकचकोपेत एव । आत्मा कर्ता स्वगुणपरिणमनात्मकज्ञप्तिक्रियाकारकत्वात्, ज्ञानाद्यनंतगुणप्रवृत्तिः कार्य, गुणाः कारणभूताः, गुणपर्यायाणां उत्पादपर्यायाणां पात्रत्वात् संप्रदानं, व्ययीभूतपर्यायाणां विश्लेषास्पदत्वात् अपादानं, तथानंतगुणपर्यायाणां आधारत्वात् आधारः; आत्मनि आत्मा आत्मानं आत्मना आत्मने आत्मनः परिणमनवृच्या करोति । उक्तं च श्रीजिनभद्रपूज्यैः
कारणमहवा छडा, कत्ता सततोत्ति कारणं कत्ता । कज्जं पसाहगतमं, करणंमि उ पिंडदंडाई ॥ १ ॥ व्याख्या - अथवा कारणं षोढा । तत्र स्वतंत्रः कर्त्ता यः स्वतंत्र स्वाधीनं कारणं स कर्ता यथा घटस्य कर्ता कुंभकारः, तथा आत्मनि व्याप्यावस्थितानामभेदरूपाणां गुणानां स्वस्वपरिणमनकार्यव्यापारप्रवृत्तिरूपां क्रियां करोति तेनात्मा कर्ता १ कार्य प्रसाधकतमं कारणं करणं उपादाननिमित्त मेदात द्विभेदं तत्र घटे
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ज्ञानमंजरी टीका.
३०५
मृत्पिडं उपादानं, दंडादि निमित्तं; तथा चात्मा ज्ञानादि कार्य तत्र स्वसत्तापरिणतिः उपादानं, स्वरूपशुओं शुद्धपारिणामिककार्ये निमित्ताभाव इति कर्मक्षपणशुद्धात्मप्राग्भावलक्षणे साधनकार्येऽप्यात्मा कर्ता, तवसिद्धिः कार्य, आत्मगुणा ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यरूपाः स्वधर्म साधनावलंबिनः कारणं उपादानं, निर्विकारवीतरागवाक्यादयः निमित्तं इति-
कम्मं किरियाकरणं, मिहनिविट्ठो जह न सा होइ । अहवा कम्मं कुंभो, सकारणं बुद्धि उत्ति ॥ १ ॥ भव्वोत्तिवजोगोत्तिव, सक्कातिवसोसख्वलाभस्स । करणं सन्निन्भंसि, विजन्नागासत्यमारंभो ॥ २॥ बज्झं निमित्ताविरकं, कज्जं चिय कज्जमाणकालंमि । ets कारणमिहरा, विवज्जया भावयाहोज्जा ॥ ३ ॥
1
क्रियते कर्त्रा निर्वृत्यते इति व्युत्पत्तेः कर्म भण्यते । काऽसौ क्रिया ? कुंभं प्रति कर्तृव्यापाररूपा सा च कुंभलक्षणकार्यस्य कारमिति प्रतीतमेव । आह - ननु कुलाल एव कुंभं कुर्वन्नुपलभ्यते, क्रिया तु न काचित् कुंभकरणे व्याप्रियमाणा दृश्यते । इत्याह- इह निश्रेष्टः कुलालोsपि यस्मान्न प्रसाधयति निष्पादयात या तस्य चेष्टा सा क्रिया इति कथं न तस्यां कुंभकारणत्वमिति । अथवा - कर्तुः ईप्सिततमत्वात् क्रियमाणः कुंभ एव कर्म, तर्हि कार्यमेवेदमतः कथमस्य कारणत्वं ?; नहि सुतीक्ष्णमपि सूच्यग्रमात्मानमेव विध्यति, ततः कार्यनिर्वर्त्यस्यात्मन एव कारणमित्यनुपपन्नमेवेत्याह सकारणं स कुंभः कारणं हेतुः कुंभस्य कुतः प्रस्तावात् कुंभबुद्धिहेतुत्वादिदमुक्तं भवति सर्वोऽपि बुद्धौ संकल्पः कुंभादिकार्य करोति, इति व्यवहारः । ततो बुद्धयव्यवसितस्य
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विवेकाष्टकम्.
कुंभस्य चिकीर्षतो मृन्मयक्कुंभः तद् बुद्धयावलंबनतया कारणं भवत्येव न च वक्तव्यमखिन्नत्वादसत्तन्नासौ तबुझेरपि कथमालंबनं स्याद् द्रव्यरूपतया तस्य सर्वदा सत्त्वादिति । ननु य एवेह मृन्मयकार्यरूमो घटः तस्यैव कारणं चिंत्यते इति प्रस्तुतं बुद्धयवसितस्तु तस्मादन्य एवेति तत्कारणामिधानमप्रस्तुतमेव । सत्यं भाविनि भूतवदुपचारन्यायेन तयोरेकत्वाध्यवसानाददोषः स्थासकोशादिकारणकालेऽपि हि किं करोषीति पृष्टः कुंभकारः कुंभ करोमीत्येवं वदति बुद्ध्यवसितेन निष्पन्नस्यैकत्वाध्यवसायादिति। अथवा-भव्यो योग्यः स्वरूपलाभस्येति शक्य उत्पादयितुमतः सुकरत्वात्कार्यमप्यात्मनः कारणमिष्यते; अवश्यं च कर्मणः कारणत्वमिष्टव्यं यतः तस्मात् समस्तकारणसंनिधानेऽपि नैव कोशार्थमारंभः किंतु विवक्षितः कार्यार्थमतस्तदविनाभावित्वात तत्क्रियायाः कार्यमप्यात्मनः कारणमिति । एतदेव भावयति बाह्यानि कुलाल चक्रधीवरादीनि यानि निमित्तानि तदपेक्षक्रियमाणकाले तरंगबुद्धयालोचितं कार्य भवति, स्वस्यात्मनः कारणं स्वकारणं मान्यथा, यदि बुद्धया पूर्वसंपर्यालोचितमेव कुर्यात् तदा प्रेक्षापूर्व शून्यमनस्कारभावपर्यायो भवेत् घटकारणसंनिधावष्यन्यत् 'किमपि शरावादि कार्य भवेदभावो वा भवेन्न किंचित्कार्य भवेदिस्यर्थः। तस्माद् बुद्धयवसितं कार्यमप्यात्मनः कारणमेवेष्टव्यं । किं बहुना ! यत्र यत्र यथा यथा युक्तितो घटते तथा तथा सुधिया कर्मणः कारणत्वं वाच्यं; अन्यथा कर्मणः कारकत्वे करोतीति कारकमिति घण्णां कारकत्वानुपपत्तिरेव स्यादिति ।
दे स जस्स तं संपयाणमियतंपि कारणं तस्स । होई तदत्थिता तु कीरए लं विणा जं सो ॥१॥ स अमिनवपर्यायो यस्य देयः स तं प्रति संप्रदानं, सदपि
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ज्ञानमंजरी टीका..
३०.७
तस्य कारणं यद्वस्तु तदस्तित्वैतदरूपत्वे भवति न अभिनवपर्यायग्रहणं तर्हि न कार्योत्पत्तिः इदमुक्तं भवति - अभिनवपर्यायग्रहणेनैव कार्यसिद्धिः ।
भूपिंडावायाओ, पिंडो वा सक्करादवायाउ । चक्कमहवा वोपादाणं कारणं तं पि ॥ १ ॥
भूपिंडस्य अपायः शर्करादीनामपायः चक्रादीनां उपपतौ एवमपादानं कारकं कारणं भवति, भूरपादानं पिंडापावेऽपि धवत्वात्, अथवा विवक्षया पिंड: अपादानं तव्रतशर्करादीनामपायोऽपि विवेकेऽपि ब्रुवत्वात् पृथ्वी घटापाया चक्रमाया कोवापादानमिति ।
वसुहा संचकमरूव मिचाई संनिहाणं जं । कुंभस्स तंपि कारणमभावओ तस्स जह सिद्धी ॥ २ ॥
घटस्य चक्रं संनिधानमाधारः, तस्यापि वसुधा, तस्या अन्याकाशमस्य पुनः स्वप्रतिष्टत्वात् स्वरूपमाधारः इत्येवमादि यत्कि - मपि आनंतर्येण परंपरया या संनिधानमाधारो घटस्य विवक्ष्यते तत्सर्वमपि तस्य कारणं तदभावस्य घटस्य यद्यस्मादसिद्धिः, एवमात्मनोऽपि यथा आत्मा कर्त्ता स्वगुणानां स्वस्वज्ञप्तिदृष्टिरमणानुभवलक्षणानां प्रवृत्तिः कार्य ते एव गुणाः सत्तास्था निरावरणाकरणरूपाः तेषामेवोत्पादपरिणतिपर्यायामिनवाविर्भावळक्षणः संप्रदानः । तेषामेव पर्यायाणां ज्ञानादीनां पूर्वपर्यायव्ययलक्षणः अपादानः । आत्मनः असंख्येयप्रदेशरूपस्वक्षेत्रत्वं समस्तगुणपर्यायाणामाधारः इति स्वस्वरूपषट्कारकाणां सर्वकार्यनिष्पत्तिः परिणतानां ज्ञानं सद्विवैकस्तद्विवेकता सर्ववैषम्याभाव इति श्लोकार्थः । अत्रायसायात मुच्यते, कारकता बु आत्मप
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विवेकाष्टकम् .
रिणतिकर्तृस्वरूपात्मशक्तिपरिणाम: स च सदैव निरावरणोऽपि बंधकार्यकर्तृत्वेन कर्मरूपस्य कर्ता एवं सम्यगज्ञानोपयोगगृहीतस्वरूपलाभाभिलाषी स्वगुणाभावस्वरूपस्वसाधन कार्यकर्ता स एव निष्पन्नः पूर्णानंदसिद्धत्वे स्वरूपगुणपरिणमनज्ञायकतादिमूलकार्यकर्ता इति ज्ञेयं ॥ ७ ॥
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संयमास्त्रं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं मुनेः । धृतिधारोल्वणं कर्म, शत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥ ८ ॥
संयमास्त्रं इति संयमः परभावनिवृत्तिरूपः तदेव अस्त्रं विवेकेन स्वपरविवेचनेन शाणेन 'शरार्णे' इति भाषा उत्तेजितं उत्कृष्टतेजस्वितां नीतं । धृतिः संतोषः तद्रपा धारा तया उल्वणं तीक्ष्णं संयमास्त्रं ज्ञानावरणादि तदेव शत्रुः तस्य छेदः तस्मिन् क्षमं समर्थ भवति इत्यनेन अनादिमिध्यात्वा संयमाज्ञानाधिष्टः विशिष्टोत्कृष्टरूपस्वधर्मभ्रांत्या परभावैकत्वोत्पन्नविपर्यासकर्तृत्वभोकृत्वग्राहकत्वाद्यशुद्धपरिणत्या संगृहीत कर्मोपाधिः तदविपाकप्राप्त शुभाशुभसंयोगभोगेन रागद्वेषपरिणतः संसारे संसरति जीवः स एव त्रिलो
वत्सलार्हदुक्तपरमागमसंयोगपीततच्चरहस्यः स्वपरविवेकेन परभावविभावाभ्यां निर्वृत्तः शुद्धात्मीयस्वभावरुचिः सर्वास्रवनिर्वृत्तः परमात्माको भवति । अत एव स्वपरभेदज्ञानरूपविवेकाभ्यासः करणीयः ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं विवेकाष्टकं पंचदशमम् |
अथ माध्यस्थ्याष्टकम् ॥ १६ ॥
अथ विवेकी रागद्वेषाभाववान् भवति, शुभाशुभसंयोगे मध्यस्थो भवतिः अतो माध्यस्थ्यं निरूपयति । अत्र भावना - धर्म -
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ज्ञानमंजरी टीका.
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ध्यानालंबनरूपा चतुष्प्रकारा, मैत्री १ प्रमोदा २ मध्यस्था ३
करुणा ४ । एवं च-
3
मा कार्षीत्कोऽपि पापानि मा च भूत्कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा, मतिर्मैत्री निगद्यते ॥ १ ॥ अपास्ताशेषदोषाणां वस्तुतच्चावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्त्तितः ॥ २ ॥ दीनेष्वार्त्तेषु भीतेषु, याचमानेषु जीवितम् । उपकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ ३ ॥ क्रूरकर्मसु निःशंकं, देवतागुरुनिन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥ ४ ॥
"
इति भावनालक्षणं योगशास्त्रोक्तं । व्यवहारनयेन निश्चयनयेन, सर्वजीवपुलेषु शुभाशुभपरिणतेषु अरक्तद्विष्टतारूपा परिणतिः मध्यस्था सा नामादिभेदतः चतुर्द्धा, तत्र द्रव्यमध्यस्था अनुपयुक्तस्य साध्यसाधनशून्यस्य, भावमध्यस्था मुनेः मध्यस्थपरिणतिः आद्यनयचतुष्टये द्रव्यमध्यमा अंत्यनयत्रये भावमध्यमा साधनकाले साधनारूपा वीतरागस्य सर्वान्यजीवपुद्गलसमूहे न रागो न द्वेषः । एषा सिद्धरूपा उत्सर्गेवंभूतरूपा मध्यमा सा प्रतन्यते-स्थीयतामनुपालम्भं, मध्यस्थेनान्तरात्मना । कुतर्ककर्करक्षेपै - स्त्यज्यतां बालचापलम् ॥ १ ॥
व्या० - स्थीयतामिति - भो उत्तमाः ! बालचापलं बालस्याज्ञस्यैकांताज्ञानरक्तस्य चापल्यं वस्तुस्वरूपानपेक्षिवचनरूपं चापल्यं त्यज्यतां मुच्यतां । कैः ? कुतर्काः कुयुक्तयः ते एव कर्करा उपलाः तेषां क्षेपास्तैः तदा किं कर्त्तव्यमित्याह - मध्यस्थेन राग
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माध्यस्थ्याष्टकम् -
द्वेषाभावेन अंतरात्मना साधकात्मना साधकत्वे अनुपालंभं स्थीयतां मध्यस्थस्य स्वभावोपघातरूपोपालंभः ॥ १ ॥ मनो वत्सो युक्तिगवीं, मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुच्छेन, तुच्छाग्रहमनः कपिः ॥ २ ॥
व्या० - मनो वत्स इति - मध्यस्थस्य मनो वत्सः चित्तमित्यर्थः, युक्तिगवीं यथार्थवस्तुस्वरूपविभजनोपपत्तिः युक्तिः सा एव गौः तां युक्तिगवीं; अनुधावति अनुगच्छति पक्षपाताभावात् यथार्थोपयोगता एव भवति । तां सम्यग्ज्ञानतां गावं तुच्छाग्रहमनः कपिः तुच्छः स्याद्वादोत्सर्गापवादानयनतोपयोगशून्यः मनसः ग्रहः कदाग्रहः तन्मयं मनो यस्य स कपिः वानरः पुच्छेन आकर्षति गतिस्खलनाय भवतिः न तादृग् यथार्थयुक्तिः प्रसरति कदाग्रहमनसां पक्षदृष्टिरेव न तच्वदृष्टिरिति ॥ २ ॥ नयेषु स्वार्थसत्येषु, मोघेषु परचालने । समशीलं मनो यस्य, स मध्यस्थो महामुनिः ॥३॥
व्या० - नयेषु इति स महामुनिः मध्यस्थ उच्यते, यस्य नयेषु समशीलं नयांतरोक्तवस्तुधर्मेषु तत्प्रवर्त्तनेषु मनः समभावलक्षणं स्वपक्षपातरहितं भूतेषु नयेषु स्वार्थसत्येषु, स्वस्य अर्थः स्वार्थः, तस्मिन् सत्येषु स्वाभिमतस्थापन कुशलेषु परचालने परस्थापने मोघेषु निष्फलेषु, परपक्षस्थापनासत्येषु स्वमतस्थापने वीरेषु यः शमः इष्टानिष्टतारहितोपयोगः यथार्थविभजनशीलः स मुनिः मध्यस्थः । नयस्वरूपं गीयते - अनेकधर्म कदंब कोपेतस्य वस्तुनः एकेन धर्मेणोन्नयनमवधारणात्मकं वस्तुनः एकांशपरिच्छेदकं ज्ञानं नयव्यपदेशमा स्कंदति । नयस्य
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ज्ञानमंजरी टीका.
३११
स्वार्थग्राहकता नित्यमेवेदं, अनित्यमेवेदं इत्येकांतज्ञानं एकपक्षस्थापनरूपं मिथ्याज्ञानं सर्वनयस्थापनपरं सर्वस्वभावात्मवस्तुस्वरूपसापेक्षं गौणमुख्यत्वेन अर्पितानर्पितोपयोग एकांशज्ञानं नयज्ञानं, तदन्यनयोच्छेदरूपं दुर्नयव्यपदेशं लभते । सर्वसापेक्षतया स्वरूपवृत्तिज्ञानं सुनयः । उक्तं च सम्मतौ
तम्हा सत्वेवि नया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोणणिस्सिया पुण, हवंति संमत्तसब्भावा ॥ १ ॥
ते च नयाः सप्त, नैगमः १ संग्रहः २ व्यवहारः ३ ऋजुसूत्रः ४ शब्दः ५ सममिरूढः ६ एवंभूतः ७ एवं । एषु चत्वारो द्रव्यनयाः, त्रयो भावनयाः, इति पूज्याशयः, दिवाकरस्तु-आद्याः त्रयः द्रव्यनयाः, तथा शेषाः चत्वारो भावनयाः । तत्र निगम्यते परिच्छिद्यन्ते इति नैगमा लौकिका अर्थाः, तेषु निगमेषु भवो योऽय : ... स नैगमः, स च सामान्येनापि व्यवहरति सामान्यबुद्धिहेलना सामान्यवचनहेतुना च अत्यंतभेदेभ्योऽन्यत्वरूपेण सत्तामात्रेण सामान्यबुद्धिचेतना, अशोकवनादिषु सत्स्वप्यनेकजातिवृक्षेषु वनस्पतिसामान्यात् 'वनं' इत्यवबोधः वचनहेतुता च द्रव्यं, इत्यादि जीवाजीवविभागविकल्पः तद्धि विशेषेणापि बुद्धिवचनहेतुतारूपा अत्यंतसामान्यादन्यस्वरूपेण व्यवहरति परमाणुनिष्ठत्वेन तथा सामान्यविशेषेणापि गवादिना सर्वगोपिंडेष्वनवृत्त्यात्मकेन व्यवहरति, तथा तेन व्यवहर्त्तव्यमिति । लोकश्योपदिष्टैः प्रकारैः समस्तैः व्यवहरति प्रवचने च विशति, प्रस्थकनिदर्शनद्वयेन विभावितः कणभुज्राद्धांतहेतुवगंतव्यः, स च अंशकल्पभेदाद् द्विविधः, स च सत् असत् योग्यताभूतपूर्वारोपभेदात् अतीतानागतवर्तमानतदारोपादिभेदात
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माध्यस्थ्याष्टकम् .
अनेकविधः, नामनिक्षेपतो द्रव्यनिक्षेपवृत्तिः अंशोपलंभे सर्वारोपः, अन्यसमस्तसापेक्षः नैगमः सुनयः । अभेदेन वस्तुसामान्येन संग्रहणात् सर्वस्य संगृह्णातीति संग्रहः, वस्तुसत्ताग्राहकः संग्रहः, यदि भावनाभिः संबद्धस्यैव भावत्वमभ्युपगम्यते ततः परिसमापिता(त)स्वरूपित्वात् भावस्य प्रांतिसमुपपत्तिबंधनघटादिविकल्पमानर्थक्यं, यदि घटादिविकल्पोऽपि भवनप्रवृत्तिः तंत्रमेवेत्येवं सति भाव एव तदनांतरत्वात् तत्स्वात्मवत् एतदर्शनपुरःसरा एवं च सर्वनित्यैकत्वाकारणमात्रवादाः कालपुरुषस्वभावादयश्चेति । अत्र द्रव्यास्तिकभेदा जीवाजीवयोग्यत्व-स्वद्रव्य उपचारद्रव्य-एकत्वाभेदागोचरभेदादनेकभेदः भावनिश्चयसामान्याभेदसंगृहीतानां विधिपूर्वकावस्थादिभेदेन विभजनभेदकरणलक्षणं तद्धर्मप्रवृत्तिभिन्नज्ञानरूपो व्यवहारः, यदि घटादिभेदश्रुत्या स्वसामान्यानुबद्धस्य निरस्तसामान्यांतरसंबंधस्य श्रूयमाणत्वानुगुणमेव ग्रहणं न स्यात् किंतु सर्वव्यपदेशविशेषाभिव्यंगाभाव एव तेन तेन रूपेणाभिव्यज्यते । ततो घटादन्यतरभेदश्रुतौ सर्वरूपाभावप्रतीतिप्रसंगः, ततश्च घटपटकादिरूपव्यतिकरभावप्रसंगः, उपदेशक्रियोपभोगापवर्गव्यवस्थादीनां चाभावात्सर्वसंव्यवहारोच्छेदः, सर्वविशेषाव्याकरणे च तिर्ति (?) बंधनभवनाभावात् भावाभाव एव अविशेषत्वाभेदत्वानिरूप्यत्वादितश्च नैवासौ भावः खरविषाणादिवत् तस्माद् व्यवहारोऽपतितसामान्यो निबंधनं तु यदा द्रव्यं पृथिवी घटादि व्यपदिश्यते; तदेव तत्तदा त्रैलोक्याविभिन्नरूपं सततमवस्थितापरित्यक्तात्मसामान्यं महासामान्यप्रतिक्षेपेण संव्यवहारमार्गमास्कंदतीति । एवंविधवस्तूपनिबंधनेनैव च वर्णाश्रमप्रतिनियमयमगम्यागम्यभक्तादिव्यवस्था कुंभकारादेश्व मृदानयनतावमर्दनशिवकस्थासकादिकरणं प्रवृत्तौ चेतनका
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ज्ञानमंजरी टीका.
~~~~ ~~~~ दिदानस्य साफल्यं व्यवहार्यत्वाच्च शेषमवस्तु व्योमेंदीवरादिवदिति । ऋजु-सममकुटिलं सूत्रयति ऋजुता श्रुतमागमोऽस्येति सूत्रपातनिबद्धो ऋजुसूत्रः यस्मादतीतानागतवस्तुपरित्यागेन वर्तमानपदवीमनुधावन् यः सांप्रतकालावरुद्धपदार्थत्वात् ऋजुसूत्रः । एष च भावविषयप्रकारातीतानागतवस्तुपरित्यागविषयवचनपरिच्छेदे प्रवृत्तः सर्वविकल्पातीतातिप्रमुग्धसंग्राहाग्रहाविशिष्टत्वात् । व्यवहारस्यायथार्थतां मन्यमानः अचरणपुरुषगरुडवेगव्यपदेशवत् वर्तमानक्षणसमवस्थितिपरमार्थ व्यवस्थापयति । अतीतानागताभ्युपगमस्तु खरविषाणास्तित्वाभ्युपगमान्न भिद्यते, दग्वध्वस्तविषयश्च न कस्यचिदपि स्यात् , अवटादिलक्षणमृदाद्यांतरत्वाच घटादिकालेऽपि घटादि नैव स्यात् न च तदेकं मृद्दव्यमन्यथा वर्त्तते, किं तर्हि ? अन्यदेवान्यत्प्रत्ययवशात् अन्यथोत्पद्यते इति । न च पिंडादिक्रियाकाले कुंभकारख्यपदेशः, यदि चान्यदपि कुर्वन्न तस्य कर्तुरित्युच्यते पटादिकरणप्रवृत्तोऽपि प्रत्याख्यातविज्ञानांतरसंबंधः स्यादेव कुंभकारस्ततश्चाशेषलोकव्यवहारोपरोध इत्यतः पूर्वापरभागवियुतः सर्ववस्तुगतो वर्तमानक्षण एव सत्यो नातीतानागतं वा चास्ति-वर्तमानवादिनो नास्तिकादयः एतद्दर्शनं च “ वरखाद ” इत्यादि “ एतावानेव लोकोऽयं यावानिद्रियगोचरः ” इत्यादिसूक्ष्मस्थूलभेदात् परिणतिसामान्यविशेषपरिणतिक्षयोपशमिकौदयिकादिवर्त्तमानग्रहरूपशब्दनयः शब्द एवासौ अर्थकृतवस्तुविषयविशेषाप्रत्याख्यानेन शब्दकृतार्थविशेषं मन्यते । यो यः अर्थः धातोः विशेषः स्यान्न शब्दकृतः तेन घटवर्तमानकाले घट एव निर्विशेषः स्यात् । कर्म-करण-संप्रदानापादान-स्वाम्यादिविशेषान् नाप्नुयात् ततश्च घटं यत्सत्येवमादिः कारककृताव्यवहारो विद्यतेऽतः समानलिंगादिशब्दसमुद्भावितमेवाभ्युपैति ।
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माध्यस्थ्याष्टकम्
वस्तुनेतरत् नहि पुरुषः स्थाणुर्यदाख्यातवचनार्थहानिः स्यात् । भेदाथै हि वचनं, अतः स्वाति-तारा-नक्षत्रमिति लिंगतः निंबाम्रकदंब-वनमिति वचनतः स पचति, त्वं पचसि, अहंपचामि, पचावः पचामः इति पुरुषतः एवमादि सर्व परस्परविशेष व्याघातादवस्तुपरस्पख्याघातत्वे एवमादि अवस्तु प्रतिपत्तव्यं । यथा शिशिरो ज्वलनः तथा विरुद्धविशेषणत्वात् तटः, तटी, तटमित्यवस्तु रक्तनीलमिति तथा तथा यद्वस्तु तद्विरुद्धविरुद्धविशेषमभ्युपयंति संतो यथा घटः कुंभः तथा चोच्यते यत्रार्थो न व्यमिचरति अमिघानं तदेवमयं समानलिंगसंख्यापुरुषवचनं शब्दः एतद्दर्शनानुगृहीतं चोच्यते अर्थप्रवृत्तितत्त्वानां शब्द एव निबंधनं इति । तत्त्वार्थे शब्दनयस्त्रिभेदः सांप्रतसमभिरूढैवंभूतभेदात्, सांप्रतं वर्तमानं भावाख्यमेव च स्वाश्रयत इति वर्तमानक्षणवर्त्तिवस्तुविषयोऽध्यवसायः तद्भवः सांप्रतः, स्वार्थे को वा सांप्रतिकः । अनुयोगद्वारादिषु भिन्नाख्यानेन मिन्नैव व्याख्यायते, यां यां संज्ञां अभिधत्ते तां तां समभिरोहतीति समभिरूढः, सोऽभिदधाति यदि लिंगमात्रभिन्नवस्तु विसंवादित्वात् नीलतादिवत् एवं सति मूलत एवं भिन्नशब्दं कथं वस्तु स्यात् ? शब्देन हि अर्थनिरुक्तिः क्रियते एतस्मानिरुक्तादेष इति यत्र तवेदस्तदभिन्नमेव यथा तु पूर्वनयेनैकं कृत्वोच्यते. इंद्रशक्रादितथा तदवस्तुघटज्वसनादिनिमित्तत्वात् अनयोरेकत्वेन अवस्तुता, एवं घटकुटयोरपि चेष्टाकौटिल्यनिमित्तभेदात्पृथक्तौ तथा प्रकृतिप्रत्ययोपात्तनिमित्तभेदात् भिन्नौ शकेंद्रशब्दौ एकार्थिनौ न भवतः विविक्तनिमित्तावबद्धत्वात्, गवाश्वशब्दवत , प्रतीतिश्च लोके चैवं निरूढत्वात् इंद्रशब्दस्य पुरंदरादयः पर्यायाः, इत्येतदनुत्पन्नं एवं हि सामान्यविशेषयोरपि पर्यायशब्दत्वं स्यादेवः यतः प्लक्ष इत्युक्ते
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ज्ञानमंजरी टीका.
३१५
AshoeAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAvive
प्राक् वृक्षेऽस्ति संप्रत्ययः अस्तित्वे संप्रमोहे च संज्ञांतरकल्पनायामिहापि तयुक्तादनुक्तप्रतिपत्तौ सत्यां पर्यायत्वप्रसंगः। प्रविश, पिंडं भक्षयेत्यस्य गमात् तथास्ति-भवतिपरे प्रथमपुरुषेऽप्रयुज्यमानेऽप्यस्तीति गम्यते, वृक्षः प्लक्षोऽस्ति इति गम्यते न्यायादस्तिपर्यायः प्राप्तः तस्माद्भदस्यार्थनयात् हस्तिनोऽश्वकत्वाप्रसंग इति,एवं संज्ञातराभिधानमवस्तु एवेति। एवंभूतनय आह-निमित्तां क्रियां कृत्वा शब्दः प्रवर्त्तते, नहि यहच्छाशब्दोऽस्ति अतो घटमान एव घटः कूटश्च कूटो भवति, पूरणप्रवृत्त एव पुरंदरः, यथा दंडसंबंधानुभवनप्रवृत्तस्यैव दंडित्वं अन्यथा व्यवहारलोपप्रसंगः न चाऽसौ तदर्थः अनिमित्तत्वात् पुनः नयस्यावयवविभागेन व्याख्यानमाह निश्चयेन गम्यते उच्चायते प्रत्युच्यन्ते येषु शब्दास्ते निगमा जनपदाः, तेषु निगमेषु जनपदेषु ये अक्षरात्मकानां ध्वनीनां सामान्यनिर्देशा अमिहृता उद्धारिताः शब्दा घटादयः तेषामर्थाः जलधारणादिसमर्थशब्दार्थपरिज्ञानं चेति शब्दस्य घटादिरर्थोऽभिधेयः, तस्य परिज्ञानमवबोधः घट इत्यनेनायमर्थ उच्यते, अस्य चार्थस्य अयं वाचकः यदेवंविधमध्यवसायांतरं स नैगमः, स सामान्यविशेषालंबादेतदर्शयतिदेशसमग्रग्राही यदा हि स्वरूपतो घटोऽयमिति निरूपयति तदा सामान्यवटः सर्वसामान्यव्यक्त्याश्रितं पटाभिधानप्रत्ययहेतुमाश्रयत्यतः समग्राहीति, तथा विशेषतः सौवर्णो मन्मयो राजतः श्वेत इत्यादिकं विशेषं निरूपयति ततो देशमाहीति भण्यते नैगमनयः । सांप्रतं संग्रहस्य अवयवार्थमाह-अर्थानां सामान्यविशेपात्मकयोरेकीभावेन ग्रहणमाश्रयणमेवंविधाध्यवसायः संग्रहो भण्यते, एकीभावेन ग्रहणमेव द्रष्टव्यं, यो हि सामान्यविशेषौ नैगमाभिमतौ संपीड्य संग्रहनयः सामान्यमेव केवलं स्थापयति सत्ता
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माध्यस्थ्याष्टकम्.
स्वभावं यतः सत्तातो न व्यतिरिच्यते विशेषः व्यवहारलक्षणाभिधित्सयाह - लौकिका विशेषाः तैरेव घटादिभिर्व्यवहरन्ति तेषां उपचारप्राय इति " उपचारो नामान्यत्र सिद्धस्यार्थस्यान्यत्रारोपादयः " । यथा - कुंडिका स्रवति, पंथा गच्छति, उदके कुंडिकास्थे स्रवति सति इत्युच्यते । पुरुषे च गच्छति पंथा गच्छति एवमुपचारबहुल इत्यर्थः । विस्तृतिविस्तीर्णानेकार्थो यो यस्य स बिस्तृतार्थः अध्यवसायविशेषो व्यवहार इति निगद्यते । ऋसूत्रलक्षणं व्याचिख्यासया आह- सतां विद्यमानानां न खलु पुष्पादीनामसतां तेषामपि सतां वर्त्तमानानां अर्थानां अभिधानं शब्दः परिज्ञानं अवबोधी विज्ञानं यावत्संभवति ऋजुसूत्रः, एतदुक्तं भवति - तानेव व्यवहारनयाभिमतान् विशेषानाश्रयन् विद्यमानान् वर्त्तमानान् क्षणवर्त्तिनोऽभ्युपगच्छन् निधानमपि वर्त्तमानमेवाभ्युपैति, नातीतानागते तेन अनभिधीयमानत्वात् कस्यचिदर्थस्य तथा परिज्ञानमपिवर्त्तमानमेवाश्रयति नातीतमागामि वा, तत्स्वभावानवधारणात्, अतो वस्त्वाभिधानं विज्ञानं चात्मीयं वर्त्तमानमेवेतीत्थं अध्यवसाय ऋजुसूत्र इति यथार्थाभिधानं । शब्दनयः यथेति येन कारणेन भावरूपेण नामस्थापना द्रव्यविते नार्थो घटादि यथार्थः तस्याभिधानं शब्दः यथार्थाभिधानं तदाश्रयी योऽध्यवसायः शब्दनयः, तथाभिधीयते वर्तमानमात्मीयं विद्यमानं भाववटमेवाश्रयति नेतरा इति । अर्थे अभिधेये यः प्रत्ययो विज्ञानं स सांप्रतो नयः, एतदुक्तं भवतिनामादिषु प्रतिविशिष्टवर्त्तमानपर्यायानेध्या प्रसिक वाचकः तथा यः शब्दः तस्मात् शब्दात् भावाभिधायिनः तद्वाच्येऽर्थे भावरूपे प्रवृत्तोऽध्यवसायः सांप्रताख्यामासादयति, यतो भाव एव शब्दाभिधेयो भवति, नाशेपाभिलषितः, कार्यकारणादिति । अथा
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ज्ञानमंजरी टीका.
धुना समभिरूढलक्षणं दर्शयन्नाह विद्यमानेषु वर्तमानपर्यायापन्नेषु अर्थेषु घटादिषु असंक्रमः इत्यन्यत्रागमनं शब्दस्य यत्सोऽसंक्रमः यथा घट इत्यस्य शब्दस्य विद्यमानं घट चेष्टात्मकं विरहय्य अन्यत्र कूटाद्यर्थेऽभिधानसामर्थ्यमस्ति अभिधेयत्वात् । यदि चास्य शब्दस्य कूटादिरोंऽभिधेयो भवेदेवं सति यथोक्तसर्वसंकरत्वादयो दोषा उपजायते तन्नित्यतो न शब्दांतराभिधेयोऽर्थोऽन्यस्य शब्दस्याभिधेयो भवति एवमसंक्रमणगवेषणपरोऽध्यवसायः सममिरूढः । एवंभूतस्वरूपमाह व्यंजनं शब्दस्तस्यार्थोऽभिधेयो वाच्यं तयोव्यंजनार्थयोरेव संघटनं करोति, घट इति यदिदं अभिधानं तच्चेष्टाप्रवृत्तस्यैव जलधारणाहरणसमर्थस्य वाचकं चेष्टां च जलाद्यानयनरूपां कुर्वाणो घटो मतः, न पुनः क्रियातो निवृत्तः, इत्थं यथार्थतां प्रतिपद्यमानोऽध्यवसायः एवंभूतोऽभिधीयते । ननु नया इति कः पदार्थः ? " नयंते प्रदश्यते इति नयाः " सामान्यादिरूपेणार्थ प्रकाशयंति स्वार्थप्रापणेन प्रापकाः। कुर्वति तत्तद्विज्ञानं आत्मन इति कारका अपूर्व साधयंति, शोभनामन्योन्यव्यावृत्त्यात्मिकां विज्ञप्ति जनयंति, अतः साधका एव । निवृत्तकोपलंभकादिपर्यायाः तत्त्वार्थतो ज्ञेयाः । अत्र कर्तृकिययोः अभेदोऽस्ति, यतः स एव पदार्थः कर्ता इत्येवं व्यपदिइयते स्वतंत्रत्वात्, तथा स एव च साध्यात्मना वर्तमानक्रिया इत्याख्यायते, अतोऽनयोनत्यिंतको भेदः । अथैते नयाः तंत्रांतरीया मतान्तरीयाः अथ च स्वतंत्राः सप्त वा जिनवचनविभजनशीलाः पक्षग्राहिणः मतिभेदा वा एवं सर्वत्र मिथ्यात्व दपि मतिपत्ति प्राप्नोति तेन पुनः सरिराह-इति अत्रोच्यते नैते तंत्रांतरीया नापि स्वतंत्राः किं तर्हि ? तदाह-विज्ञानगमस्य जीवादेः स्वसवेदस्य वाच्यस्यार्थस्य घटपटादेव्यवसायांतराणि विज्ञानभेदाः
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माध्यस्थ्याष्टकम्.
वस्त्वेवानेकधर्मात्मकाने का कृतिना ज्ञानेन निरूप्यते, एकवस्तुवि - षया ज्ञानविशेषाः ते चोदाहरति । घट इत्युक्ते नैगमः, लोकप्रसिद्धकुंभकारचेष्टानिर्वृत्तः पृथुबुध्न्नादराकारः जलघृतक्षीरादीनां आहरणेन देशांतरसंचरणेन समर्थः पाकजादिक्रियानिष्पन्नः द्रव्यविशेषः कनकोपलजादिसमग्र सामान्यविशेषव्यक्तिभेदग्राहकः संकल्प योग्यतत्सत्ता दिदेशग्राहकविज्ञानविशेषेण वटः । एवं जीवोऽपि लोकप्रसिद्धचेतनायोगव्यापारचेष्टानिर्वृत्तः शरीराकारासंख्येयप्रदेशानेकसंस्थानरूपः आहारविहारक्रियासमर्थः नरनारकामरादिरूपः सन् ज्ञशरीराद्यपर्याप्तादिसमग्रतः पर्यायादिद्रव्यविशेषो जीवः । संग्रह एकस्मिन् घटे बहुषु वा घटेषु नामस्थापनाद्रव्यलक्षणेषु अतीतानागतवर्त्तमानेषु पर्यायेषु सामान्यजीवसत्ताग्राहकज्ञानविशेषः सूक्ष्मनिगोदात् सिद्धत्वपर्यंतेषु तच्छरीरेषु च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपेषु च तुल्यजीवज्ञानविशेषसंग्रहाव्यवसायः आधिक्येनावसीयंते परिच्छिद्यंते ततो येन सोऽव्यवसायः । व्यवहारस्तु जला हरणादिव्यवहारयुक्तो घटो घटः, सुखदुःखवेत्तृत्वादिव्यवहारपरो जीवो जीवः । ऋजुत्रस्तु वर्त्तमाननामस्थापनाद्रव्यभावघटानां चेष्टादिपर्यायाणां वाचके घटः, एवं चतुर्निक्षेपमयो जीवः द्रव्यभावप्राणाधारत्व जीवत्ववस्तुतया वर्त्तमानो ग्राह्यः, सांप्रतस्तु घटत्वशब्दवर्तमान सर्वपर्याग्राही जीवत्वादिनामावयवाश न्यवर्त्ती जीव इति, समभिरूदरतु घटे कुटत्वादिपर्यायासंक्रमरूपः यत्पर्यायवृत्तितत्समदितपर्यायाभिधायि जीवान्यतरपर्यायो संक्रमस्व पर्यायवाचको जीवः, एवंभूतस्तु ज्ञानदर्शनसं पूर्ण पर्याय प्रवृत्तिवर्त्तिजीव इत्यभिधायिका । उक्तं च तत्त्वार्यवृत्तौ नैगमेन देशग्राहिणा, पण सामान्यग्राहिणा, व्यवहारेण विशेषग्राहिणा, ऋजुसूत्रेण वर्त्तमा वस्तुग्राहिणा, शब्देन वर्त्तमानभावग्राहिणा, समभिरूढेन प्रतिशब्दं भिन्नार्थग्राहिणा,
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ज्ञानमंजरी टीका.
३१९
एवंभूतेन स्वस्वपर्यायग्राहिणा, इत्याद्यनेकजीवाजीवेषु नयचालिनीतत्त्वार्थवृत्तितो ज्ञातव्या । तत्र ज्ञाने किञ्चिद् भाव्यते-तत्र नैगमः अक्षरानंतभागरूपश्चेतनांश एकेंद्रियावस्थः ज्ञान संग्रहसामान्यसत्तास्थो ज्ञानपरिणामः ज्ञानं व्यवहार अष्टप्रकारमपि ज्ञानं वस्तुपरिच्छेदकत्वात् ऋजुसूत्रः सम्यग्दृष्टेः इह तदभिहततत्त्वश्रद्धायिनः यदिद्रियजमनिंद्रियजं च तत्सर्वं ज्ञानं मिथ्यादृष्टेः सर्वमेव विपर्यासः, शब्दस्तु-श्रुतज्ञानं केवलज्ञाने ज्ञानं, तत्र सांप्रतः श्रुतादिज्ञानचतुष्टयं ज्ञानं, समभिरूढः श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने ज्ञानं, एवंभूतः केवलज्ञानं ज्ञानं, इत्येवं स्वपक्षस्थापनपरैर्नयैः स्वाभिमतप्रकाशकैः अनेके वक्तारः प्रतिवदंते विवादास्पदीभवंति । तत्र येषां मनः समशीलं ते मध्यस्था उच्यते इत्येवं माध्यस्थ्यं समाश्रयणीयम् ॥३॥ स्वस्वकतावेशाः, स्वस्वकर्मभुजो नराः। न राग नाऽपि च द्वेषं, मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥४॥
व्या०-स्वस्वकर्म इति-तेषु कर्मोदयेषु मध्यस्थः समचित्तः न रागं च पुनः न द्वेषं गच्छति । कथंभूता नराः ? स्वस्वकर्मकृतावेशाः स्वे स्वे कर्मणि आत्मीयात्मीये कर्मणि कृतः आवेशो यैस्ते स्वकीयकर्मवशा इत्यर्थः । सर्वे स्वस्य कर्मणः भोक्तारः इत्यनेन स्वकर्मकृतकर्मविपाकोदये शुभे च अशुमे च विपाकं प्राप्ते सति समानचेतोवृत्तिः यः सुरेंद्रवृंदवंदितचरणोऽपि तथादीनजनैः लुब्धकधीवरैः विडंब्यमानोऽपि न रागं च न द्वेष च गच्छतिः स मध्यस्थः समचित्तः उच्यते । उक्तं चावश्यकनियुक्तौ--
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माध्यस्थ्याष्टकम्
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वंदिज्जमाणा न समुक्कसंति, हेलिज्जमाणा न समुज्जलंति । दंतेण चित्ते न चलति वीरा, मुनी सया इ अरागदोसा ॥ १ ॥ मनः स्याद् व्यापृतं यावत्, परदोषगुणग्रहे । कार्यं व्ययं वरं तावन्मध्यस्थेनाऽऽत्मभावने ॥ ५ ॥
व्या०-मनः स्याद् व्यापृतं इति - परदोषगुणग्रहणे यावत् मनः व्यापृतं व्यापारवत् स्यात्, तावत् आत्मभावने आत्मस्वरूपचिंतने व्यग्रं तदायत्तं वरं प्रधानं कार्य, केन मध्यस्थेन पुरुषेण समभावास्वादनरसिकेन इत्यनेनात्मस्वरूपस्यामूर्त्तस्यागुरुलघुषड्गुणहानि
वृद्धिपरिणमनोत्पादव्ययत्रौव्यतालक्षणस्वरूपचिंतनगुणप्रवृत्तिः गुणांतरसहकारप्रवृत्तिस्वरूपचिंतनादिकं तत्र चिंतने व्यग्रस्य सांसारिकगुणदोषचितनावकाश एव न भवति, अत एव निर्ग्रथाः चिंतयंति भावनाचक्रं, घोषयंति द्रव्यानुयोगग्रंथं, प्रश्नयंति परस्पस्वभावविभाव परिणाम, विलोकयंति आत्मस्वरूपं साऽऽवरणं निरावरणं, विभजयंति हेतुगणपरिणामं त्यजति अशुद्धनिमितानि, विचारयति निक्षेप, संमीलयंति नयाऽनुयोगं, तन्मयीभवंति ध्यानादिषु यतः अनादिविभावानुगतचेतनावीर्यप्रवर्तनगृहीत परस्वरूपोपादेयतया परदोषगुणावलोकना शुद्धचिंतननिवारणार्थं मनः स्याद्वादानंत पंचास्तिकायस्वरूपावलोकनाजीवहेयजीवोपरिज्ञानं कार्यमिति ॥ ५ ॥
विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥६॥
"
व्या० - विभिन्ना अपि इति -- विभिन्ना अनेकभेदभिन्ना अपि पंथानः पंच ध्यानमार्गाः साधनपद्धतयः साधनोपाया अनेके द्रव्या
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ज्ञानगंजरी टीका.
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चरणतः शुक्कुध्यानं यावत् सम्यग्दृष्टि-अपुनर्बंधकादयः, जिनकल्पाः स्थविरकल्पादयः, मध्यस्थभाववर्त्तिनां एकं अक्षयं परं ब्रह्म प्राप्नुवंति । इत्यनेन सर्वे साधनोपाया एकं शुद्धं आत्मस्वरूपं समतरंति । सर्वेषां मोक्षसाधकानां साध्यैकत्वात् । कमिव ? समुद्र सरितां इव यथा नद्यः समुद्रं गच्छंति एवं तवैकत्वपरिणामानां सर्व साधनं शुद्धात्मभावे अवतरति । अतो रागद्वेषाभावो हितम् ॥ ६ ॥
स्वागमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा ॥७॥
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च्या० - स्वागमं इति स्वागमं गणधरोक्तं आगमं, वयं न रागमात्रेण श्रयामः यच अस्मत्परंपरानुगतैः इदं एवामिमतं, अस्माकं कल्पमिदं, इति रागातुरत्वेन न जिनागमे रागः; वा अथवा परागमं कापिलादिशास्त्रं, न केवलद्वेषमात्रेण परकीयत्वात न द्वेषः तेन न त्यजामः; किंतु परीक्षया यथार्थवस्तुस्वरूपनिरूपणेन सम्यग्ज्ञानहेतुत्वात्, नित्याऽनित्याद्यनंत स्वभावकथनेऽ प्यविरोधित्वात् मध्यस्थया दृशा जिनागमं श्रयामः । विपर्यासोपेतवस्तुस्वरूपपरीक्षणाऽक्षमत्वेन त्यजामः, न द्वेषमात्रेण त्यागयोग्यत्वात् त्यजामः । उक्तं च---
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १ ॥
इति ॥ ७ ॥
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न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव वीरमभुमाश्रिताः स्मः ॥ २ ॥
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माध्यस्थ्याष्टकम्
मध्यस्थया दृशा सर्वे-वपुनर्बन्धकादिषु । चारिसजीविनीचार-न्यायादाशास्महे हितम् ॥८॥ ___ व्या०-मध्यस्थया इति-वयं मध्यस्थया दृशा सर्वेषु मैत्री प्रमोदकरुणादिषु हितं कल्याणं आशास्महे इच्छामः, सर्वत्र रागद्वेषपरित्यागानुकूलभावनया हितं सिद्धयति, कस्मात् ? चारिसजीवनीचारन्यायात्। तत्रोदाहरणं यथा-कश्चित्पुरुषः अजाननपि पशुं संचारयन् पशुत्वपरित्यागचक्षु?तकहेतुः जातः, स च चारिसंजीविनीचारणरूपो दृष्टांतः तन्न्यायात्। तथा चरणादिषु मंदप्रयनोऽपि अध्यात्मानुगसमभावपरिणतः आत्मानमनादिपशुत्वभावगतमपहाय स्वरूपोपलब्धिरूपं दक्षत्वमेदज्ञानरूपं चाक्षुषत्वं करोति । अत एव सर्व साध्यसापेक्षस्य साधनं हितं साधनस्य बालक्रीडास्पं । उक्तं च वीतरागस्तोत्रे
तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलनपि । विश्रृंखलापि वागवृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥ १ ॥ . पुनः केषु ? अपुनबंधकादिषु, अपुनर्बाधकस्वरूपं श्रीह
भद्रसूरिवचनात् ज्ञेयं, आदिशब्दात् मार्गामिमुखमार्गपतिताविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतसर्वविरतादिषु सर्वत्र परभावरागद्वेषविनिर्मूतात्मस्वभावानुकूलता एव साधनं । उक्तं च योगशास्त्रे
आत्मैव दर्शनज्ञानचारित्राण्यथवा यतेः। यत्तदात्मक एवैष, शरीरमधितिष्ठति ॥ २ ॥ आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद् यदात्मनः । तदेव तस्य चारित्रं, तज् ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥ २ ॥ i, आत्माज्ञानभवं दुःख-मात्मज्ञानेन हन्यते ।
तपसाप्यात्मविज्ञान-हीनैइछेत्तं न शक्यते ॥ ३ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
३२३
सोऽयं समरसीभाव-स्तदेकीकरणं मतम् । आत्मा यदपृथक्त्वेन, लीयते परमात्मनि ॥ ४॥८॥ इति व्याख्यातं मध्यस्थाष्टकम् ॥ १६ ॥
अथ निर्भयाष्टकम् ॥ १७॥ माध्यस्थ्ये स्थिरत्वं निर्भयस्य भवति, भयमोहोदयात् पार णामचापल्यं भवति, अतो भयपरिहारः कार्यः, आत्मा हि शुद्धचिद्रूपाविनश्वरः तेन निर्भय एव, नामस्थापनानिर्भयौ सुगमौ, द्रव्यनिर्भयः सप्तभयरहितः, भावनिर्भयः कर्मबंधहेतुविभावपरिगतिरहितः, बंधहेतुपरिणामः आत्मसत्तारोधकामिनवकर्मबंधक त्वान्महाभयं तत् च संवरपरिणामपरिणतानां न भवति । नैगमेन सर्वद्रव्याणां, संग्रहेण वस्तुसत्ताया, वस्तुवृत्त्या विनश्वरत्वात्, व्यवहारेण कर्मोदयाव्यापकस्य धीरस्य, ऋजुसूत्रेण निग्रंथस्य, शब्दनयेन ध्यानस्थस्य, सममिरूढनयेन केवलिनः, एवंमूतनयेन सिद्धस्य, निर्भयत्वं अविनश्वरसर्वगुणप्राग्भावात् । अत्र च यथार्थात्मस्वरूपविज्ञातुरोदयिकभावनिर्ममस्य साधने निर्भयो भवति, अतो निर्भयाष्टकं व्याख्यायवेयस्य नास्ति परापेक्षा, स्वभावाद्वैतगामिनः । तस्य किं नु भयभ्रान्ति-क्लान्तिसन्तानतानवम् ॥१॥
व्या०-यस्य नास्तीति-यस्य 'परापेक्षा' पराश्रया, पराशा वा, नास्ति तस्य ‘स्वभावाद्वैतगामिनः स्वभावस्य यत् अद्वैतं एकत्वं स्वभावाद्वैतं तत्र गमनशीलस्य 'भयः' त्रासः 'मांतिः' अमः 'क्लांतिः' खेदः तस्य ‘तानवं ' अविस्तारो नु भवति ? काक्वर्थः; इत्यनेन परवस्तुसंरक्षणे पराशादिना भयं भवति, यः परभावनिःस्पृहः तस्य परभावाभावेन खेदः कुत एवेति ॥२॥
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निर्भयाष्टकम् .
पुनर्निर्भयमूलभावनां दर्शयन्नाह--- भवसौख्येन किं भूरि-भयज्वलनभस्मना । सदा भयोज्झितं ज्ञान - सुखमेव विशिष्यते ॥ २ ॥
व्या० - भवसौख्येनेति - 'भूरि' बहु भयं इहलोकपरलोकादि, तदेव ज्वलनः तस्य 'भस्मना' छारभूतेन चौरदायादराजभयज्वलनदग्धेन भवसौख्येन इंद्रियजेन मन्यमानसौख्येन जात्या दुःखरूपेण किं ? न किमपि नैवेत्यर्थः । ज्ञानं तच्चपरिच्छेदानुभवरूपं तस्य सुखं निर्भयं एव अवशिष्यते । सर्वाधिकत्वेनांगीक्रियते सुखस्वरूपं च ज्ञाने एव, पौद्गलिके सुखे सुखारोपो भ्रम एव । उक्तं च
जं एग्गलजं सुक्खं, दुक्खं, चेवत्तिजहयतत्तरस गिले मट्टिअलेवो, विडंबणा खिसणामूलं ॥ १ ॥ अतः पुद्गलग्रहणं न सुखं अकार्यमेव ॥ २ ॥ न गोप्यं वाऽपि नारोप्यं, हेयं देयं च न क्वचित् । क्क भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः ॥ ३ ॥
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व्या०-न गोष्यमिति मुनेः परमात्मभावद साध्योपायरतस्य स्वतच्त्वज्ञानानुभवस्वसंवेदनपटो: 'गोप्यं' गोपनं आच्छादनं तद्योग्यं न किमपि, स्वधर्मस्य परैर्ग्रहीतुमशक्यत्वात् गोप्यं कथं भवति ? च पुनः ' नारोप्यं आरोपोऽसद्गुणस्य स्थापन तदपि न यतः स्वरूपेणैवानंतगुणमयत्वात् परगुणेन न गृणित्वप्रसंगः, आरोग्यमपि । क्वापि नास्ति, क्वचित हेयं न सर्वयस्य हेयत्वेन कृतत्वात्, तथा देयं अपि न, स्वधर्मव्यूहस्य परत्रागमनात अतो मुनेः भयेन संत्राणाभिलाघवता क
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ज्ञानमंजरी टीका.
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स्थेयं ? न क्वापि, स्वयमेव स्वस्य त्रातुं समर्थत्वात् कथंभूतस्य मुनेः ? ' ज्ञेयं' स्वपरपदार्थस्य समूहं ज्ञानेन अवबोधेन पश्यतो
ज्ञायमानस्य ॥ ३ ॥
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एकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निघ्नन्मोहचमूं मुनिः । बिभेति नैव सङ्ग्राम- शीर्षस्थ इव नागराट् ॥४॥
व्या०. - एकमिति - मुनिः स्वरूपतः परभावविरतः, न बिभेति न भयवान् भवति, किं कुर्वन् ? मोहचमूं निघ्नन्, मोहसैन्यस्य ध्वंसं कुर्वन् किं कृत्वा ? 'ब्रह्मास्त्र' ब्रह्मज्ञानं आत्मस्वरूपावबोधः तदेवाखं शस्त्रं आदाय गृहीत्वा क इव ? संग्रामस्य शीर्ष तत्र तिष्ठति संग्रामशीर्षस्थ : 'नागराद' नागराजो गजश्रेष्ठ इव, यथा गजश्रेष्ठः संग्रामे न बिभेति तथा मुनिः कर्मपराजये प्रवृत्तः न भयवान् भवति, यो हि स्वरूपासक्तः तस्यं परभावध्वंसनो - द्यतस्य भयं न भयं हि परसंयोगविनाशे भवति तद्विनाशश्वास्य क्रियमाण एव अतो न भयं वाचंयमस्य शरीरादिसर्वपरभावविरतत्वात् ॥ ४ ॥
मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत्, प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भयसर्पाणां, न तदानन्दचन्दने ॥ ५ ॥
व्या० - मयूरी इति - 'मनोवने' चित्तोद्याने 'चेत्' यदि 'ज्ञानदृष्टि: ' स्वभावपरभावविवेचनदृष्टिः मयूरी ' प्रसर्पति' स्वेच्छया विचरति तदा 'आनंदचंदने' स्वरूपानुभवानंदचंदने भयस वेष्टनं न भवतीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति - ज्ञानेन स्वपरयोर्विभेदे कृते स्वस्यामूर्त्तचिघनत्व निर्धारपर संयोगस्य परत्यनिर्धारे जाते भयस्योदयो न भवति ॥ ५ ॥
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निर्भयाष्टकम्
कृतमोहास्त्रवैफल्यं, ज्ञानवर्म बिभर्ति यः ।
क भीस्तस्य क्व वा भङ्गः कर्मसङ्गरकेलिषु ? ॥६॥
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व्या० - कृतमोहास्त्रेति तस्य स्वरूपानंदभोक्तुः 'कर्मसंगरकेलिए' कर्मक्षयकरणसंग्रामे 'भी: ' भयं क ? भंगः क्व ? नैवेति, तस्य कस्य ? यः कृतमोहास्त्रवैफल्यं कृतं मोहास्त्रस्य वैफल्यं निष्फलत्वं येन एवंविधं ज्ञानवर्म ज्ञानसन्नाहं बिभर्त्ति धत्ते, सर्वमोहविदारणदारुणज्ञानसंनाहधरस्य, कर्मकृतस्वगुणघातभीः क्व ? इदमुक्तं भवति येन नयविभजनपरीक्षितः स्वपरपदार्थः तस्य मोहादीनां भयं न ॥ ६॥ तूलवल्लघवो मूढा, भ्रमन्त्य भ्रं भयानिलैः । नैकं रोमापि तैर्ज्ञान-गरिष्ठानां तु कम्पते ॥ ७ ॥
व्या० - तूलवदिति- 'मूढा' स्तवज्ञानविकलाः तूलवलघवः अप्रे आकाशे 'भयानिलैः ' भयपवनैः प्रेरिता भ्रमंति, ज्ञानगरिष्ठानां एक रोमापि तैः पवनैर्न कंपते इत्यनेन सप्तभयसंनिधाने मूढाः परभावात्मत्वज्ञानमुग्धाः तद्वियोगभयेन कंपमाना इतस्ततो भ्रमंति, ये चासंख्यातप्रदेशानंतज्ञानमयस्यात्मनः स्वरूपावलोकिनो ज्ञानगरिष्ठा अविनाशिचैतन्यभावरक्ताः तेषां अध्यवसायरूपं रोमापि न कंपते किं च गत्वरैः गतैरिति अध्यात्माभ्यासैकत्वानंदानंदिताः सदा निर्भयाः स्वरूपे स्थिराः तिष्ठति ॥ ७ ॥ चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम् । अखण्डज्ञान राज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम् ॥८॥
व्या० - चित्ते इति-यस्य निर्ग्रथस्य 'अकुतोभयं न विद्यते कुतः कस्माद् भयं यस्य तत् चारित्रं स्वरूपस्थिरत्वलक्षणं
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ज्ञानमंजरी टीका.
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परिणतं चेतनावीर्यादिसर्वगुणेषु तन्मयीभूतं तस्य साधोः कुतः कस्माद् भयं ? न कस्मादपि । कथंभूतस्य मुनेः ? अखंडज्ञानराज्यस्य अचूर्णितज्ञानराज्यस्य, इत्यनेन वचनधर्मक्षमामार्दवार्जवपरिणतस्य शुद्धज्ञानरमणस्य साधोः द्रव्यभावमुक्तियुक्तस्य परम किंचनस्य न भयं । यथा श्रीकेशिगौतमाध्ययने --
एगप्पा अजिए सत्तू-कसाया इंदियाणि अ। ते जिणित्तु जहा नायं, विहरामि अहं मुणी ॥१॥ रागदोसादयो तिवा, नेहपासा भयंकरा । ते छिंदित्तु जहानायं, विहरामि जहकमं ॥ २ ॥ तथा च नमिराजर्षिवचनं-- बहु खु मुणिणो भई, अणगारस्स मिक्खुणो।
सबओ विप्पमुक्कस्स, पुगंतमणुपस्सओ ॥१॥ इत्यादिपर संयोगे। यथार्थज्ञानवतो न भयं ॥ ८ ॥
॥ इति व्याख्यातं निर्भयाष्टकम् ।। ॥ अथ अनात्मशंसाष्टकम् ॥ १८ ॥ निर्भयत्वं सर्वपरभावत्यागे भवति, परभावत्यागश्च तेषु परभावेषु अनात्मज्ञानेन भवति, तदर्थ यदात्मव्यतिरिक्तं तदनात्म तस्य शंसनं कथनं तत्स्वरूपं अनात्मशंसाष्टकं व्याख्यायते । तत्र नामस्थापना सुगमा, द्रव्यतः अनात्मशंसनं द्विविध, बाह्य अंतरंग च, तत्र बाह्य लौकिकं यत्स्वभोगादिप्रयोजनाभावे परधनगृहकलबादौ न ममेदं इत्याग्रहरूपं, तथा बाह्यं लोकोत्तरं यत् धनस्वजनतनुप्रमुखं विनाशित्वेन परभवे असहायत्वेन दुःखोत्पत्तिरूपेषु स्वार्थप्रतिबद्धस्वजनेषु यत् परत्वैकाचिंतनरूपांतरस्य
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अनात्मशंसाष्टकम्
ज्ञानं, भावतः पुनः कुमावचनिकं अशुलं मोक्षाभिलाषपूर्वकं यत् तामिलस्य परित्यागतुल्यं, शुझं तु सम्यग्दर्शनपूर्वकतत्त्वविवेचनोपयुक्तं सम्याज्ञानेन आत्मनः स्वद्रव्यस्वक्षेत्रस्वकालस्वभावात् जिन्नं उपाविश तत्सर्वमपि पररूपं न मदीयं इति वास्तव्यं भेदज्ञानं तदनात्मशंसनं तत्करणे तत्त्वज्ञानं भवति, तदपि अनिष्टेषु अजीवेषु जीवाश्रितकर्मपुद्गलेषु तद्विपाकेषु तन्निमित्तोत्पन्नाशुविभावपरिणामेषु अनात्मत्वं यावद् व्यवहारः तावदसन्निमित्तपरायत्तचेतनावीर्यपरिणत्या भावयोगचेतनाविकल्पेषु परत्वं ऋजुसूत्रः द्रव्यौदयिकसदाचारसत्यभाषासत्यमनोयोगादिषु साधनसंवराध्यवसायेषु सन्निमित्तावलंबिस्वात्मपरिणामेषु परत्वं शब्दः रूपातीतशुक्लध्यानशैलीकरणादिपरत्वं, समभिरूढः स्वात्मपरिणामिकभावानंतज्ञानदर्शनात् अन्यत्सर्वमपि परं इति, एवंमूतः एवं अनात्मत्वं सर्वत्र अध्या सम्यग्दर्शनिनां भिन्नीकरणेन मुनीनां भिन्नीभावेन जिनानां सर्वथा अभावेन सिमानां विरतिश्रध्या स्थाप्यं तत्करणीयं नहि परभावकर्तृत्वभोक्तत्वाश्रयत्वसंयोगित्वं चेतनस्य कार्य इति साधकावकाशः । आत्मैव सामायिकं सामायिकार्थ इत्याधर्हद्वाक्यानुसारिभवितव्यं । उक्तं च योगशास्त्रे
अमूर्तस्य चिदानन्द-रूपस्य परमात्मनः । निरञ्जनस्य सिमस्य, ध्यानं स्याद्रपवर्जितम् ॥ १ ॥ इत्यजस्रं स्मरन् योगी, तत्स्वरूपावलम्बनः । तन्मयत्वमवाप्नोति, ग्राह्यग्राहकवर्जितम् ॥ २ ॥ अनन्यशरणीभूय, स तस्मिन् लीयते तथा । ध्यातृध्यानोभयाभावो, ध्येयेनैकं यथा व्रजेत् ॥३॥ सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं मतम् । आत्मा यदपृथक्त्वेन, लीयते परमात्मनि ॥ ४ ॥
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ज्ञानमंजही दीका. --- - r n o...commmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm......
अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात्स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् ।
सालम्बाच्च निरालम्ब, विशुझं तत्त्वमञ्जसा ॥५॥ इत्यात्मस्वरूपध्यानी सर्व परमनात्मत्वेन जानाति स आत्मवित् प्रशंसां न करोति तदेवाहगुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया । गुणैवासि पूर्णश्चेत्कृतमात्मप्रशंसया ॥१॥
व्या-गुणैरिति--" यदि गुणैः " केवलज्ञानादिमिः पूर्णः न असि तर्हि 'आत्मप्रशंसया' व्यर्थात्मस्तुत्या ‘कृतं ' नाम श्रितं निर्गुणात्मनः का प्रशंसा ? पौद्गलिकोपाधिजा गुणा इति मूढा वदंति तैर्न प्रशंसा 'चेद् यदि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोरूपैः साधनगुणैः क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्ररूपैः सिद्धगुणैः पूर्णः तर्हि वाचकात्मकप्रशंसया कृतं श्रितमित्यर्थः प्रारभाविता गुणा स्वतएव प्रकटीभवंति नेक्षुयष्टिः पलालावृता चिरकालं तिष्ठति इति का स्वमुखात्स्वगुणप्रशंसना ॥१॥
पुनर्व्यवहारेण दर्शयतिश्रेयोद्रुमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षांभः प्रवाहतः। पुण्यानि प्रकटीकुर्वन् , फलं किं समवाप्स्यसि ? ॥३॥ ___ व्या०-श्रेयोद्रुम इति-भो भद्रः ! 'पुण्यानि ' पवित्राणि " श्रेयोद्रमस्य मूलानि " कल्याणवृक्षस्य मूलानि “ स्वोत्कभिः प्रवाहतः" स्वस्य उत्कर्षः औत्सुक्यं स एव अंभ: प्रवाहः तस्मात् “ प्रकटीकुर्वन् ” व्यक्तं कुर्वन् किं फलं सम प्स्यसि ? अपि तु नैव यस्य द्रमस्य मूलं खातं तेन लोतिर्न भवति ॥२॥
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विवेकाष्टकम्.
आलम्बिता हिताय स्युः परैः स्वगुणरश्मयः । अहो स्वयंगृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥ ३ ॥ व्या० - आलंबिता इति -" स्वगुणरश्मयः " आत्मीगुणरज्जवः “ परैः " अन्यैः “ आलंबिता: " स्मरणचिंतनेन गृहीता हिताय " कल्याणाय स्युः, स्वसुखाय भवंति, अहो इति आश्चर्ये स्वगुणाः स्वयंगृहीता भवोदधौ पातयंति. स्वमुखेन स्वगुणोत्कर्षः न कार्यः ॥ ३ ॥ उच्चत्वदृष्टिदोषोत्थ- स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो भृशं नीचत्वभावनम् ॥ ४ ॥
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व्या० - उच्चत्वदोष इति - अभ्यासात्प्राप्तज्ञान विनयतपोरूपगुणांतर्ज्वलितमहामोहोदयेन आत्मनि उच्चत्वं ' अहं गुणी मया प्राप्तमिदं, ज्ञानं विनयगुणवानहमिति उच्चत्वदृष्टिदोषेण उत्थो यः स्वोत्कर्षः स एव ज्वरः तस्य शांतिकं उपशमकारणं पूर्वपुरुषाः अर्हदादयः ते एव सिंहाः तेभ्यः आत्मन्यूनत्वभावनं मानोदयतापनिर्वापणं ज्ञेयं ।
धन्नो धन्नो वयरो, सालिभद्दो य थूलभद्दो अ ।
जेहिं बिसयकसाया, चत्ता रत्ता गुणे नियए ॥ १ ॥ धन्याः पूर्वपुरुषा ये वान्ताश्रवा अनादिभुक्तपरभावास्वादनरामणीयकं त्यजंति, सदुपदेशज्ञातसत्तामुखेप्सया आत्मधर्मश्रवणसुखं अनुभूयमानाः चक्रिसंपदो विपद इव मन्यन्ते, स्वगुणेषु धन्यः स्थूलभद्रः योह्यत्यातुररक्तकोशा प्रार्थनाऽकंपितपरिणामः, तु अहोस्वयंगृहीतास्तुपातयंतिभवोदवौ । उच्चत्वदृष्टिदोषोत्थः स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकं, पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो भृशंनीचत्वभावनम् । शरीर रूप लावण्य, ग्रामाराम् धनादिमि रुक्तर्षः परपर्यायै चिदानन्द
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ज्ञानमंजरी टीका. ३३१ घनस्य कः। अहं तु निरर्थककुविकल्पैः चिंतयामि विषयविषोपायान् । उक्तं च ।
संतेवि कोवि उज्झई, कोवि असंतेवि अहिलसई ।
भोएचय इयरचयेणवि, दटुं पभवेण जह जंबू ॥१॥. इत्यादिभावनया स्वदोषचिंतनेन आत्मोत्कर्षपरिणामो निवार्यः॥४॥ शरीररूपलावण्य-ग्रामारामधनादिभिः। उत्कर्षः परपर्यायै-श्चिदानन्दघनस्य कः ॥५॥ ___व्या०-शरीरेति-" चिदानंदघनस्य " चिद्ज्ञानं आनंदः सुखं ताभ्यां धनस्य आत्मनः परपर्यायैः संयोगसंभवैः पुद्गलसंनिकर्षोद्भवैः क उत्कर्ष उन्मादः कैरिति शरीराणि औदारिकादीनि विनाशिस्वभावानि रूपं संस्थाननिर्माणवर्णनामकर्मोद्भवं लावण्यं चातुर्य सौभाग्यनामोदयनिष्पन्नं वेदादिमोहसंनिकर्षसंभवं ग्रामः जननिवासलक्षणः, आरामाः वनोद्यानभूमयः, धनं गणिमधरिमादि तेषां द्वंद्वः तैः क उत्कर्षः परत्वात् कर्मबंधनिबंधनात् स्वस्वरूपरोधकात् तत्संयोगः निंद्य एव तर्हि क उत्कर्षः ? उक्तं चउत्तराध्ययने
धणेण किं धम्मपुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहिं चेव । समणाभविस्सामो गुणोह धारी, बहिं विहाराअमिगम्ममिक्कु ॥१॥ न तस्स दुरकं विभजंति णाईओ, न मित्तवग्गा न सुआ नबंधवा। इक्कोसयं यच्चणु होइ दुःख्ख, कत्तारमेवं अणुजायकम्मं ॥ २ ॥ अतः आत्मगुणानंदपरिणतानां कर्मोपाधिसंभवे उत्कर्षो न भवति॥५॥ शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन, पर्यायाः परिभाविताः। अशुद्धाश्चाप्रकृष्टत्वात्स्वोत्कर्षाय महामुनेः॥ ६॥ व्या०-शुद्धाः प्रत्यात्मइति-तहामुनेःनिग्रंथस्य पाकोत्तीर्णजा
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माध्यस्थ्याष्टकम्.
मध्यस्थया दृशा सर्वे - पुनर्वन्धकादिषु । चारिसञ्जीविनीचार - न्यायादाशास्महे हितम् ॥ ८ ॥
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व्या० - मध्यस्थया इति-वयं मध्यस्थया दृशा सर्वेषु मैत्री प्रमोदकरुणादिषु हितं कल्याणं आशास्महे इच्छामः, सर्वत्र रागद्वेषपरित्यागानुकूल भावनया हितं सिद्ध्यति, कस्मात् ? चारिसंजीवनीचारन्यायात् । तत्रोदाहरणं यथा - कश्चित्पुरुषः अजानन्नपि पशुं संचारयन् पशुत्वपरित्यागचक्षुद्यतकहेतुः जातः, स च चारिसंजीविनीचारणरूपो दृष्टांतः तन्न्यायात् । तथा चरणादिषु मंदप्रयत्नोऽपि अध्यात्मानुगसमभावपरिणतः आत्मानमनादिपशुत्वभावगतमपहाय स्वरूपोपलब्धिरूपं दक्षत्वभेदज्ञानरूपं चाक्षुषत्वं करोति । अत एव सर्व साध्यसापेक्षस्य साधनं हितं साधनस्य बालक्रीडारूपं । उक्तं च वीतरागस्तोत्रे
तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विश्रृंखलापि वागवृत्ति: श्रदधानस्य शोभते ॥ १ ॥
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पुनः केषु ? अपुनर्बधकादिषु, अपुनर्बाधकस्वरूपं श्रीहरिभद्रसूरिवचनात् ज्ञेयं, आदिशब्दात् मार्गामिमुखमार्गपतिताविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतसर्वविरतादिषु सर्वत्र परभावरागद्वेषविनिर्मुक्तात्मस्वभावानुकूलता एव साधनं । उक्तं च योगशास्त्रे - आत्मैव दर्शनज्ञानचारित्राण्यथवा यतेः । यत्तदात्मक एवैष, शरीरमधितिष्ठति ॥ २ ॥ आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद् यदात्मनः । तदेव तस्य पारिनं आत्माज्ञानभवं ख-यात्मज्ञानेन हन्यते । तपसाप्यात्मविज्ञान -- ही नैइछेत्तुं न शक्यते ॥ ३ ॥
ज्ञानं तच दर्शनम् ॥ २ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
MAAN
ranatarnaanawarana
सोऽयं समरसीभाव-स्तदेकीकरणं मतम् । आत्मा यदपृथक्त्वेन, लीयते परमात्मनि ॥४॥८॥
इति व्याख्यातं मध्यस्थाष्टकम् ॥ १६ ॥ __ अथ निर्भयाष्टकम् ॥ १७ ॥ माध्यस्थ्ये स्थिरत्वं निर्भयस्य भवति, भयमोहोदयात् परिणामचापल्यं भवति, अतो भयपरिहारः कार्यः, आत्मा हि शुद्धचिद्रूपाविनश्वरः तेन निर्भय एव, नामस्थापनानिर्भयौ सुगमौ, द्रव्यनिर्भयः सप्तभयरहितः, भावनिर्भयः कर्मबंधहेतुविभावपरिणतिरहितः, बंधहेतुपरिणामः आत्मसत्तारोधकामिनवकर्मबंधकत्वान्महाभयं तत् च संवरपरिणामपरिणतानां न भवति । नैगमेन सर्वद्रव्याणां, संग्रहेण वस्तुसत्ताया, वस्तुवृत्त्या विनश्वरत्वात्, व्यवहारेण कर्मोदयाव्यापकस्य धीरस्य, ऋजुसूत्रेण निग्रंथस्य, शब्दनयेन ध्यानस्थस्य, सममिरूढनयेन केवलिनः, एवंमूतनयेन सिद्धस्य, निर्भयत्वं अविनश्वरसर्वगुणप्राग्भावात् । अत्र च यथार्थात्मस्वरूपविज्ञातुरोदयिकभावनिर्ममस्य साधने निर्भयो भवति, अतो निर्भयाष्टकं व्याख्यायतेयस्य नास्ति परापेक्षा, स्वभावाद्वैतगामिनः। तस्य किंनुभयभ्रान्ति-क्लान्तिसन्तानतानवम् ॥१॥
व्या०-यस्य नास्तीति-यस्य 'परापेक्षा' पराश्रया, पराशा वा, नास्ति तस्य ‘स्वभावाद्वैतगामिनः' स्वभावस्य यत् अद्वैतं एकत्वं स्वभावाद्वैतं तत्र गमनशीलस्य 'भयः' त्रासः 'भ्रांतिः' भ्रमः 'हांतिः' खेदः तस्य तसवं' अविस्तारो नु भवति ? काक्वर्थः; इत्यनेन परवस्तुसंरक्षणे समादिना भयं भवति, यः परभावनिःस्पृहः तस्य परभावामावेन खेदः कुत एवेति ॥२॥
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तवष्टषष्टकम्
तत्त्वं वस्तुस्वरूपं जीवे जीवत्वं तत्त्वं अनंतचैतन्यरूपं अजीवे अचैतन्यस्वरूपं तत्त्वं नाम अविपरीतस्याद्वादगोचरं जीवादिपदा
स्वरूपं तत्रापि स्वस्वस्थाने धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवानां तत्त्वत्वं तथापि अस्य ममात्मतः मत्स्वरूपं शुद्धचिद्रपं अनंतानंदरूपं असंख्येयप्रदेशानंतज्ञानादिपर्यायपरिणामिकोत्पादव्ययत्रौ व्यात्वषड्रगुणपरिणतागुरुलघुपारमार्थिकैकांतिकात्यंतिकनिरतिशयाबाधनिः श्रेयसरूपं स्वतवं तत्र दृष्टिः दर्शनं श्रद्धाप्रतिप्रेक्षणं वा तवावलोकनं यथार्थावबोधयुक्ता श्रद्धादृष्टिः तत्त्वदृष्टिः, सा च नामतः उल्लापः अनेकानां, स्थापनातः तद्विचारणा स्थिरचित्तानां मुद्रान्यासाद्यवलंबिनां, द्रव्यतः संवेदनज्ञानं विविक्ततत्वानां, भावतः अनुभावात्मस्पर्शज्ञाननिमग्नचित्तानां संवेदनज्ञानं यावन्नयचतुष्टयं नयत्रयं स्पर्शज्ञानात्मकसम्यग्दर्शनसम्यक् चारित्रैकत्वध्यानैकतानिष्पन्न केवलज्ञानिनां उत्सर्गतः तत्त्वदृष्टिबोव्या सर्वोपायसमूहतः स्वतत्त्वे दृष्टिः कार्या तदर्थमुपदेशः । रूपे रूपवतीदृष्टि, र्दृष्ट्वा रूपं विमुह्यति । मज्जत्यात्मनि नीरूपे, तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी ॥ १॥
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व्या० - रूपे इति - " रूपवती दृष्टिः " पौद्गलिकापौद्गलिकात्मिका पुनलस्वरूपग्राहिणी ' दृष्टिः चक्षुः ' रूपं श्वेतादिभेदं दृष्ट्वा ' रूपे ' वर्णादौ वर्णगंधरसस्पर्शलक्षणे ' विमुह्यति ' मोहसाद्भवति पुनः ' अरूपिणी ' रूपरहिता दृगू ज्ञानरूपा आत्यचैतन्यशक्तिलक्षणा तत्त्वदृष्टि: ' नीरूपे ' निर्गतमूर्त्तधर्मिणि वर्णादिरहिते आत्मनि शुद्धचैतन्यलक्षणे ' मज्जति मग्नतां प्राप्नोति स्वरूपलीना भवति अतः बाह्यदृष्टित्वं अनादि विहाय स्वरूपोपयोगे दृष्टिः कार्या ॥ १ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
भ्रमवाटी बहिर्दृष्टिभ्रमच्छायान्तरीक्षणम् । अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाऽऽशया ॥२॥
व्या-अमवाटी इति-" बहिष्टिः” प्रमोत्पमा भ्रमहेतुरिति निवारणीया भवहेतुत्वार तत्त्वदृष्टिः श्रेयोऽम्रमवाटी भो भव्य बहिर्दृष्टिः बाह्यभावावलोकनं 'शोभनं इदं सोमनं इदं कृतं, इदं करोमि इदं कार्य ' इत्याधवलोवनरूपा हतिः भ्रमवाटी भ्रमस्य वाटी रक्षिका वृत्तिः भ्रमविकल्पवर्मनी बाहावलोकनेन तदिष्टानिष्टतादिचिंतनेन विकल्पकल्पना जायते, चेतना च परावलोकनव्याकुलिता स्वतत्त्वविमुखा तत्रैव रमते । उक्तं च ।
रागे दोसे रत्तो, इठ्ठाणिहहिं भमसुहं पत्तो। कप्पेइकप्पणाओ, मज्झेयं अहंपि एयस्स ॥ १ ॥
तदीःणं भ्रमप्रकाशः ताहगेकांतारोपजं ज्ञानं तु शुभपुद्गल संयोगे सुखारोपः तदप्राप्तौ अशुभप्राप्तौ दुःखारोपरूपं ज्ञानं प्रमच्छाया प्रमस्य शीलनता तत्र प्रमालव एव रमंते तु पुनः अप्रांतः तत्त्वदृष्टिः यथार्थतत्त्वे स्याद्वादे स्वपरस्वभावदर्शने दृष्टिः यस्य तत्त्वज्ञः स्वरूपानुमवरक्तः अस्यां प्रमच्छायायां सुखाशया सुखप्राप्तीच्छया न शेते किंतु पूर्वकर्मोदयेन तत्र वर्तमानोऽपि तप्तलोहशिलापादमोचनवत् सशंकः साशंका च दुःखमेवेदमिति जानन् निदवानेव भवति । उक्तं च
एएविसया इट्टा, तत्तोविन्नूणमिच्छदिट्ठीणं । विन्नाईयतत्ताणं, दुहमूलदुहफलाचेव ॥ १ ॥ जह चम्मकरो चम्मस्स, गंधं नो णायइफले लुभो । तह विसयासी जीवा, विसये दुक्खं न जाणंति ॥ २॥
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३३६
तस्वदृष्टयष्टकम्
सम्पदिट्ठी जीवो, तत्तरुह आयभावरमणपरा ।
वि.ये भुजंतो विदु, नो रज्जइ नो वि मज्जई ॥३॥ अतः वामावलंबिवेतनावीर्या कार्या च स्वरूपावलंबिनी ॥२॥ ग्रामारामादि मोहाय, यद् दृष्टं बाह्यया दृशा। तत्त्वदृष्ट्या तदेवान्त तं वैराग्यसम्पदे ॥ ३॥
व्या०-ग्रामारामादि इति-" बाह्यया दशा ” बाघदृष्ट्या यद् ग्रामारामादि दृष्टं मोहाय भवति अयंममबद्धये भवति तदेव ग्रामादिकं “तत्त्वदृष्टया" स्वपरभेदकृत्रिमाकृत्रिमहंन्त्रया (हशा) " अंतर" आत्मोपयोगमध्ये " नीतं " प्रापितं “वैराग्यसंपदे" वैराग्यं औदासीन्यं तत्संपदावृद्धये भवति । उदाहरणं । एगे आयरिआ नाणचरणप्पहाणा सुअरहस्सपारगा भव्वजीवाणं अणेगसमणगणपरिबुडाः गामाणुगामं दुइज्जंता वाचणाइहिं समणसंचं गायंता मग्गे पंचसमिइतिगुत्तिजुत्ता, अणिचाईभावीयसजोगा, पत्ता एग वणं अणेगलयाईणं नीलं नीलाभासं सउणगणनिवासं, तओवणस्स पुप्फफल लच्छी पासिऊण निग्गंथाणं वयंति ईअ वणं भो भो निग्गंथा पासह. एए पत्ता पुप्फागुला फुला जे. चेयणा लरकणाणंतसत्तिं आवरीऊण नाणावरणदंसणावरणाचरित्तमोहमिच्छबलमोहांतराय उदयेण दीणाहीणादुट्टिया एगेंदियमावन्ना कंपंता सहा बलहया दुहया अत्ताणा, असरणा, जम्मणा मरणावगाढा अहो अणुकंपाजुग्गए एए को एस अणुकंपं कुणई मणसवणनयणविगलाणं, इअ भणिऊण जणिअसंवेग्गचलंति पुरओ ते निग्गंथावि नाणावरणाई बंधकारणे दुगंछता पंथओ चलिया अहह-आयाआयं
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"
ज्ञानमंजरी टीका.
३३७
हाइ आयं गुणेसंतएव धंसे इमइ विसए रम्मे चयई नाणाइ गुणभावे । १ । इय चिंतंतागच्छेति तात्रप महानपरं अणेमीयवाइयरवेणं विवाहाईऊसवेण देवलोगरूपेरमणिज्जं मूढाणा आयरिओ समणसंवं भणइ - भो भो ? निग्गंथा ! अज्जं एयंम्मि नयरे मोहवाडी निवडिया, तेण एए कहंति लोगा उच्छलंति भओविग्गता अप्पाणं न जुज्जई इत्थपवेसो मा को विधायविहलोहविज्जाहि पासबद्धा लोगा अणुकंपणिज्जा, मोहसुरामत्ता नो उवएस जुग्गत्ता अग्गेनिगच्छह, ता साहवो भणति चारु कहियं मोहाय सयपुट्ठेविसयपत्ते खित्ते गमणु न जुज्जई ईयवे - रग्गयरा विहरई तेणं आयसु हट्ठियाणं गामनगराई वेरग्गकारणं हवइ इति ॥ ३ ॥
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बाह्यदृष्टेः सुधासार - घटिता भाति सुन्दरी । तत्त्वदृष्टस्तु साक्षात्साविण्मूत्रपिठरोदरी ॥ ४ ॥
व्या० - बाह्यदृष्टेरिति - " बाह्यदृष्टेः " संसाररक्तस्य "सुंदरी " स्त्री " सुधासारवटिता भाति " अमृतमयी इव भाति तदर्थ - मर्जयंति धनं, त्यजंति प्राणान्, मोहयुक्ता मुंजादयोऽनेके तु पुनः " तवदृष्टे " निर्मलानंदात्मस्वरूपावलोकनदक्षस्य “सा " सुंदरी " विण्मूत्रपिठरोदरी " भाति " वि ” विष्ठा " मूत्रं " " प्रस्रवणं " पिठरं " अस्थि तेषां उदरी भाजनरूपा भाति । उक्तं च ।
रसासृग्मांसमेदोऽस्थि - मज्जाशुक्रांत्रवर्चसाम् ।
अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः १ ॥ १ ॥ वंचकत्वं नृशंसत्वं, चंचलत्वं कुशीलता ।
इति नैसर्गिक दोषा, यासां तासु रमेत कः १ ॥ २ ॥
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तत्त्वष्यष्टकम् .
भवस्य बीजं नरक-द्वारमार्गस्य दापिका ।
शुचां कन्दः कलेमूलं, दु:खानां खानिरङ्गना ॥ ३ ॥ अन्यशास्त्रेऽपि
कान्ताकनकसूत्रेण, वेष्टितं सकलं जगत । तासु तेषु विरक्तो यो, द्विभुजः परमेश्वरः ॥ १ ॥
इत्यादि तत्त्वज्ञस्य नारी मोहहेतुत्वात भवबीजरूपा भाति ॥ ४ ॥
पुनः उपदिशति--. लावण्यलहरीपुण्यं, वपुः पश्यति बाह्यदर । तत्वदृष्टिः श्वकाकानां, भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम् ॥५॥
व्या०-लावण्येति-" बायहम् ' लोकानुगतदृष्टिः “वपुः ॥ शरीरं " लावण्यलहरीपुण्यं : सौंदर्यलहरीपवित्रं पश्यति तत्त्वदृष्टिः सम्यग्ज्ञानी तत्तु " श्वकाकानां भक्ष्यं " कृमिकुलाकुलं कृमिमयं पश्यति । उक्तं च--
नवस्रोतः स्रवद्विस्ररसनिस्यन्दपिच्छले । देहेऽपि शौचसङ्कल्पो, महन्मोहविजृमितम ॥ १ ॥
अतः कर्मोपाधिजं शरीरमहितं बंधहेतुत्वात् नत्र रागाभाव एव वरम् ॥ ५ ॥ गजाश्वैर्भूपभुवनं, विस्मयाय बोहदृशः । तत्राश्वेभवनात्कोऽपि, लेदस्तत्त्वदृशस्तु न ॥ ६ ॥
व्या०-गजाश्चैरिति-"बहिर्दृशः' बहिदष्टेः नरस्य "भूपभुवनं" नृपगृहं " राजाश्चैः " वारणाशगोर्याप्पं . शिग्मयाय "
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ज्ञानमंजरी टीका.
आश्चर्याय भवन्ति, “ तत्त्वदृशः ” तत्त्वज्ञानिनः तत्र राजमंदिरे अश्वेभवनात् करितुरगवनात् कोऽपि भेदः न, अनंतज्ञानानंदाद्वैतात्मानुभवरक्तो वनं नगरतुल्यं जानीते ॥ ६ ॥ भस्मना केशलोचन, वपुधृतमलेन वा। महान्तं बाह्यदग बत्ति, चित्साम्राज्येन तत्त्ववित् ॥७॥ ___व्या०-भस्मनाइति- बाह्यदृग् " बाह्यदृष्टिः “ भस्मना केशलोचेन " केशाकर्षणेन “ वपुषा " शरीरेण धृतो मलो येन तेन महत्वं सावत्वं आचार्यत्वं वेत्ति. महत्त्वस्वरूपापरिज्ञानी जानाति “ नचवित " तत्त्वज्ञानी अरूपात्मस्वरूपावबोधी “ चित्साम्राज्येन ज्ञानपूर्णत्वेन रत्नत्रयीपरिणमनेन शुद्धाखंडानंदसाधनप्रवृत्या स्वगुणप्राग्भावेन महांतं " वेत्ति " जानाति । उक्तं च षोडशके
बालः पश्यति लिङ्गं, मध्यमवृत्तिर्विचारयति वृत्तम् । आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥ १ ॥ उत्तराध्ययनेऽपि-~नवि मुंडिएण समणो, न उँकारेण बंभणो । न मुणी रनवासेण, कुसचीरेण न तावसो ॥ १ ॥ समयाए समणो होई, बंभधेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होई. तवसा होई तावसो ॥ २ ॥
आत्मा सामायिक भवति, इत्यादि व्याख्यायां अतः आत्मज्ञानरमणविश्रामानुभवलीना अदीना मुनयो भवंति ॥ ७॥ न विकाराय विश्वस्यो-पकारायैव निर्मिताः। स्फुरत्कारुण्यपीयूष-वृष्टयस्तत्त्वदृष्टयः ॥ ८॥
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३४०
तत्त्वदृष्टयष्टकम् .
व्या०-न विकाराय इति-आचार्यैः गुरुभिः ग्रहणसेवनाशिक्षादानेन सूक्ष्मागमरहस्य शिक्षणेन यैः पाठकैः तत्त्वदृष्टयः पुरुषाः " निर्मिता " निष्पादिता “ विकाराय न ” रागद्वेषोपाधिद्धये न किंतु “ विश्वस्य ” त्रिभुवनस्य " उपकाराय " सदुपदेशदानशुद्धतत्त्वोपलंभाग्रुपकाराय निर्मिता इति भावना यथाऽनादिमिथ्यात्वासंयमग्रस्तानां वयं निर्यामकास्तथान्येऽपि यथार्थभावनदक्षा उपकाराय भविष्यति तेन एभ्यः श्रुतरहस्यं पाठितव्यं। उक्तं च विधिप्रपायां ॥ निजामउ भवणवत्तारणसधम्मजाणवत्तमि मोख्खपह सत्थवाहो अन्नाणंधा ण चख्खुध ॥ १ ॥ अत्ताणाणं ताणं नाहो, अनाहाणभवसत्ताणं, तेणं पुण्णसप्पुरिसगुरुअगच्छमारे नियुत्तोऽसि ॥२॥ इत्यादि । 'भदं बहुस्सुयाणं, बहुजनसहेह पुच्छणिज्जाणं ' । बहुश्रुताध्ययने-- समुदगंभीरसमा दुरासया; अचक्किया केणइ दुप्पहंसगा। सुयस्सपुणो विउलस्स ताइणो, खवित्तुं कम्मं गईमुत्तमं गया ॥१॥
इति तत्त्वदृष्टित्वं हितं न अनेकशास्त्रव्यायामे बहुश्रुतत्वं निश्चितसमयज्ञो बहुश्रुतः। उक्तं च संमतौ--
जो हेउवायपख्खम्मिहेऊउ आगमे य आगमिओ । सो समयपणओ, सिकंतविराहओ अन्नो ॥१॥
इति नयप्रमाणप्रमाणीकृतस्वपरसमयसाराः स्वरूपासारा निरुमोहप्रचारास्तत्त्वदृष्टयः किंभूता ? इत्याह स्फुरंती कारुण्यं भवसमुद्रतारणोपकारित्वलक्षणं यत् पीयूषं तस्य वृष्टिवर्षा यत्र ता इति जगज्जनतारणकरुणाऽमृतवृष्टिमया इत्यनेन कथं ते लोकाः तत्त्वविमुखाः विषयरक्ताः आत्मानं ध्वंसयन्ति ? जैनागमे सति च अनंतगुणपर्यायसत्तात्मके आत्मनि स्वभ्रांत्या रमंते
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ज्ञानमंजरी टीका.
३४१
भवाटव्यां अतः कथयामः धर्मरहस्यं इत्युपकारपराः तच्त्वज्ञाः यति महात्मानः सेव्य । इति बाह्यदृष्टित्वं परित्यज्य आंतरतत्वावभासनरसिका भवंतु भव्याः ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं तत्त्वदृष्ट्यष्टकम् ॥ १९ ॥ अथ सर्वसमृद्ध्यष्टकं ॥ २० ॥ व्याख्यायते |
सर्वा समग्रा समृद्धिः संपदा सर्वसमृद्धिः तत्र नामसमृद्धिः उल्लापनरूपा जीवस्याजीवस्य, स्थापना समृद्धिः शक्तिरूपा, द्रव्यसमृद्धिः धनधान्यादिरूपा, शक्रचक्रचादीनां लौकिका, लोकोत्तरा पुनः मुनिलब्धिसमृद्धिरूपा ।
आमोसहि विप्पोसंहि, खेलो हिजलमोसहीचेव । संभिन्न सोयं उज्जुई, सबो सहि चेव बोधवा ॥ १ ॥ चारणआसी विसंकेबलीय मणनांणिणोवपुचधरी | अरिहंत देवा वासुदेवा य ॥ २ ॥
इत्यादिब्धयः ऋद्धयः, तत्र केवलज्ञानादिशक्तिर्लोकोत्तरा भार्वद्धि:, सं- सम्यक प्रकारेण ऋषिः समृद्धि : सर्वाचासौ सर्वसमद्धि:, अत्र सातत्त्वज्ञानां या तादात्म्यानुभवयोग्या समृद्धि: अव नयाय प्रस्थकदृष्टांतभावनया तत्कारणेषु तद्योग्येषु तदुच्यते तेषु तपोयोगिषु आयाः तद्गुणेषु सापेक्षेषु अंत्या इति । अत्र प्रथमं आत्मनि समृद्धिपूर्णत्वं भासते तथा कथयति । बाह्यदष्टिप्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः अन्तरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः ॥ १ ॥
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सर्वसमध्यष्टकम् :
AnnanoranranArranneelon.
व्या०-बाह्यदृष्टिप्रचारेषु इति-"महात्मनः" स्वरूपपररूपभेदज्ञानपूर्वकशुद्धात्मानुभवलीनस्य सर्वसमृद्रयः स्फुटाः प्रकटाः “ अंतरेव " आत्मांतः एव स्वरूपमध्ये एव भासते, यतः स्वरूपानंदमयोऽहं, निर्मलाखंडसर्वप्रकाशकज्ञानवानह, इंद्राद्यर्द्धय औपचारिकाः अक्षयानंतपर्यायसंपत्पात्रोऽहं, इति स्वसत्ताज्ञानोपयुक्तस्य स्वात्मनि भासते, कीदृशेष सत्सु ? बाह्यदृष्टिप्रचारेषु मुद्रितेषु सत्सु “बाह्या दृष्टिः' विषयसंचारात्मिका तस्याः “प्रचारा” विस्ताराः “मुद्रितेषु" रोधितेषु न हि इंद्रियप्रचारचलोपयोगैः कर्ममलपटलावगुंठिताप्यात्मसंपद् ज्ञायते इति इत्यनेन बहिर्गमनमुपयोगस्य न कर्त्तव्यमिति ॥ १ ॥ समाधिनन्दनं धैर्य, दम्भोलिः समता शची। ज्ञानं महाविमानं च, वासवश्रीरियं मुनेः ॥ २॥
व्या०-समाधिरिति-"मुनेः" स्वरूपज्ञानानुभवलीनस्य साधोः "इयं" उच्यमाना “वासवस्य" इंद्रस्य "श्रीः" लक्ष्मीः शोभा वर्तते । अत्र मुनेः पवित्ररत्नत्रयीपात्ररूपेंद्रस्य “समाभिः" च्यानध्याताध्ये यैकत्वेन निर्विकल्पानंदरूपः समाधिः स एव नंदनं वनं, हरेः नंदनवनक्रीडा सुखाय उक्ता, साधोः समाधिक्रीडा सुखाय, तत्राप्यौपाधिकात्मीयकृतो महान् भेदः, स च अध्यात्मभावनाज्ञेयः, अस्य धैर्य वीर्याकंपता औदयिकभावाक्षुब्धतालक्षणं "वज्र" दंभोलिः पुनः “समता" इष्टानिष्टेषु संयोगेषु अरक्तद्विष्टता सर्वेऽपि पुद्गलाः कर्करचिंतामण्यादिपरिणताः जीवाश्च भक्ताभक्ततया परिणताः ते सर्वे न मम भिन्नाः एतेषु का रागद्वेषपरिणतिरित्यवलोकनेन समपरिणतिः समता सा शची स्वधर्मपत्नी “ज्ञानं" स्वपरभावयथार्थावबोधरूपं “विमान” सर्वा
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ज्ञानमंजरी टीका.
३४३
वबोधकरं महाविमानं, इत्यादिपरिवृतः मुनिः वज्रीव भासते । उक्तं च योगशास्त्रे--
पुंसामयत्नलभ्यं ज्ञानवताभव्ययं पदं भूतम् । यद्यात्मन्यात्मज्ञानमात्रमेतत्समाहितं ॥ १ ॥ श्रयते सुवर्णभावं, सिद्धिरसस्पर्शतो यथा लोहम् ।
आत्मध्यानादात्मा, परमात्मत्वं तथाऽऽनोति ॥ २ ॥ विस्तारितक्रियाज्ञान-चर्मच्छत्रो निवारयन् । मोहम्लेच्छमहावृष्टिं, चक्रवर्ती न किं मुनिः ॥३॥ ___व्या०-विस्तारितेति-"मुनिः” समस्तास्रवविरतः द्रव्यभावसंवररतः किं चक्रवर्ती न ? अपितु अस्त्येव, किं भूतः ? विस्तारितभियाज्ञानचर्मच्छत्रः, क्रिया च ज्ञानं च क्रियाज्ञाने चर्म च छत्रं च चर्मच्छत्रे क्रियाज्ञाने एव चर्मच्छत्रे क्रियाज्ञान विस्तारिते क्रियाज्ञानचर्मच्छत्रे येन सः, विस्तारित इन सत्रियोवतः सम्यग्ज्ञानोपयुक्तः । मोह एव म्लेच्छः तस्य महती वृष्टिः तां निवारयन् मोहम्लेच्छा उत्तरखंडाद्यास्तत्प्रयुक्तमिथ्यात्वदैत्यकृता कुवासनावृष्टिः स्वशुद्धसम्यग्दर्शननिवारितकुवासनाचयः मुनिः भावचक्रवर्तीव भासते ॥३॥ नवब्रह्मसुधाकुण्ड-निष्ठाधिष्ठायको मुनिः । नागलोकेशवद्भाति, क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ॥ ४ ॥
व्या-नवब्रह्मेति-"मुनिः" भेदज्ञानगृहीतात्मध्यानः, “नागलोकेशवत्" उरगपतिवत् भाति, किं कुर्वन् ? "क्षमा” पृथ्वी क्रोधापहरणपरिणतिः वचनर्मात्मिका क्षमा तां रक्षन् धारयन् इति । उरगपतेः क्षमाधारकत्वं लोकोपचारतः, नहि रत्रप्रभाद्या
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सर्वसमृश्यष्टकम्.
भूमयः केन घृता, उपमा तु महत्त्वज्ञापिका सामर्थ्यज्ञापिका च । पुनः कथंभूतो मुनिः ? नवं यद् ब्रह्मज्ञानं तदेव सुधा तस्याः कुंडः, “निष्ठा' स्थितिः तस्या अधिष्ठायकः, इत्यनेन तत्त्वज्ञानामृतकुंडस्थैर्यरक्षक इति ॥ ४ ॥ मुनिरध्यात्मकैलाशे, विवेकवृषभस्थितः। शोभते विरतिज्ञप्ति-गङ्गागौरीयुतः शिवः ॥५॥ ___व्या०-मुनिरध्यात्मेति, अत्र श्लोकत्रये महादेवकृष्णब्रह्मोपमानं औपचारिक, नहि ते कैलाशगंगासृष्टिकरणोद्यताः, किंतु लोकोक्तिरेषा, तेन श्लेषालंकारार्थं हि वाक्यपद्धतिः, न सत्या । "मुनि' तत्त्वज्ञानी "अध्यात्मं” "आत्मस्वरूपैकत्वं' तद्रपे कैलाशे आस्थाने, “विवेकः” स्वपरविवेचनं स एव “वृषभः” बलीवर्दः, तत्र स्थितः, "विरतिः" चारित्रकलाम्रवनिवृत्तिः, ज्ञप्तिः ज्ञानकला शुद्धोपयोगता, एव गंगागौरी, ताभ्यां युतः 'शिवः' निरुपद्रवः, उपचारात् शिवः रुद्रो भासते, रुद्रस्य गंगायुतत्वं विद्याधरत्वे पार्वतीमनोरंजनाय विक्रियाकाले वाच्यम् ॥ ५॥ ज्ञानदर्शनचन्द्रार्क-नेत्रस्य नरकच्छिदः। सुखसागरमग्नस्य, किं न्यूनं योगिनो हरेः? ॥६॥
व्या०-ज्ञानदर्शनेति-“योगिन" रत्नत्रयपरिणतस्य "हरेः” कृष्णात् किं न्यूनं ?, न किमपि, किंमूतस्य योगिनः ? “ज्ञानदर्शनचंद्रार्कनेत्रस्य" ज्ञानं सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषावबोधः, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यावबोधः दर्शनं, ते एव चंद्राओं नेत्रे यस्य स तस्य, हरेः चंद्राकनेत्रत्वं तु लोकोक्तिरेव, पुनः किंभूतस्य योगिनः ?-'नरकच्छिदः' नरकगतिनि
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ज्ञानमंजरी टीका.
वारकस्य, हरेस्तु-नरकाभिधानशत्रुविदारकस्य, सुखसागरमग्नस्य, कृष्णार्थे इंद्रियजसुखलीलासमुद्र मन्नत्वं, योगिनः सुखं सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रसमाधिनिष्पन्नं तस्य सागरः तत्र मनस्य, आध्यात्मिकसुखपरिणामभाजनस्य साधोः केन सह न्यूनता ?, न केनापि इति ॥ ६॥ या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी। मुनेः परानपेक्षान्तर्गुणसृष्टिस्ततोऽधिका ॥७॥
व्या०-या सृष्टिब्रह्मण इति-या “सृष्टिः” रचना "ब्रह्मणो" विधातुः सा "बाह्या” लोकोक्तिरूपा असत्या, पुनः बाह्या वा अपेक्षा तस्या अवलंबिका, "मुनेः” स्वरूपसाधनसिद्धिमग्नस्य "अंतः" मध्ये आत्मनि व्यापकरूपा गुणानां सृष्टिः-रचना गुणप्रागभावप्रवृत्तिपरिणतिरूपा, बाह्यभावतः अधिका, “कथंभूता" गुणसृष्टिः ? परानपेक्षा, परेषां अनपेक्षा अपेक्षारहिता पराश्रयालंबनविमुक्ता स्वरूपावलंबनपरा गुणरचना सा सर्वतोऽधिका इति ॥ ७॥ रत्नस्त्रिभिः पवित्रा या, स्त्रोतोभिरिव जाह्नवी। सिद्धयोगस्य साऽप्यर्हत्पदवी न दवीयसी ॥ ८॥ ___ व्या०-रत्नस्त्रिमिरिति-सिद्धयोगस्याष्टांगयोगसाधनसिद्धस्य साधोः, साऽपि अर्हत्पदवी ज्ञानाद्यनंतचतुष्टयात्मकाष्टप्रातिहा
र्यान्विता जगद्धर्मोपकारिणी न दवीयसी-न दूरा इत्यर्थः । किंभूता पदवी ?-त्रिभिः स्नैः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैः पवित्रा, का इव ? स्रोतोमिः-प्रवाहैः जाह्नवी-गंगा इव, इति त्रैलोक्याद्भुतपरमार्थदायकत्वाद्यतिशयोपेता अर्हत्पदवी साधकपुरु
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सर्वसमृद्धयाष्टकम्.
वस्य यथार्थमार्गोपेतस्य न दवीयसी, आसन्ना एव इति, एवं सर्वमपि औपाधिकं अपहाय स्वीयरत्नत्रये साधना विधेया, येन सर्वा ऋद्धय निष्पद्यते ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं सर्वसमृद्धयष्टकं ॥ २० ॥
अथ कर्मविपाकचिंतनाष्टकम् ॥ २१ ॥
,
अथावसरायातं निर्ग्रथत्वसाधनभावनार्थं समतानिष्पत्तिहेतुमूतं कर्मविपाकचिंतनाष्टकं कथ्यते, तत्र यदुत क्रियते मिथ्यात्वादिहेतु समन्वितेन जीवेनेति कर्म- ज्ञानावरणादिकं, अत्र कश्चित् कर्माभावं मन्यमानः प्राह - नास्ति कर्म, प्रत्यक्षानुमानादिप्रमाणागोचरत्वात्, प्रत्यक्षं कर्म, अतींद्रियत्वात् नाप्यनुमानसाध्यं अनुमानस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्, धूमादिलिंगोपेतमहानसादो दृष्टे चाहार्ये च तावदनुमानसंभवः, न च तादृशं लिंगं कर्मानुमानजनकं, तस्मात् नाप्यनुमानगम्यं, उपमायाः प्रत्यक्षस्वभावात्, आगमस्य हि नानावाकयात् इति न कर्म, इत्याद्यनेकयुक्तिनिवहं वदंतमाद- प्रत्यक्षं कर्म अस्ति, केषां ? - सर्वज्ञानां, अन्येवामपि कार्यानुमानेन प्रत्यक्षं अस्ति सुखदुःखानुभवस्य हेतु:, कार्यत्वादंकुरस्येवेति । अथ यदि भवतः प्रत्यक्षं कार्य तर्हि कर्म ममापि प्रत्यक्षं कस्मान्न भवति ? न हि यदेकस्य प्रत्यक्षं तेनापरस्यापि प्रत्यक्षेण भवितव्यं, न हि सिंहसरभादयः सर्वस्य लोकस्य प्रत्यक्षाः, तथापि दक्षैः प्रत्यक्षाः मन्यते लोके, एवं सर्वज्ञप्रत्यक्षीकृतकर्म ज्ञानावरणीयं पुनः प्रतिप्राणिप्रसिद्धयोः सुखदुःखयोर्हेतुरस्ति, कार्यत्वादंकुरस्येव वीजमिति, यश्चेह सुखदुःखयोर्हेतुः तत्कर्मैवेत्यस्ति, तदिति स्यात् मतिः - स्त्रचंदनांगना
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ज्ञानमंजरी टीका.
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विषकंटकादय इति दृष्ट एव सुखदुःखयोर्हेतुरस्ति, किमदृष्टस्य कर्मणस्त तुकल्पनेन ?, तदयुत्तां, व्यभिचारात् । इह यस्तुल्यसाधनयोरिष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरनिष्टार्थ-साधनसंप्रयुक्तयोश्च बहूनां वा फले सुखदुःस्वानुभवलक्षणविशेषस्तारतम्यरूपो दृश्यते, नासौ अदृष्टहेतुमंतरेणोपपद्यते, अनुमानांतरं श्रीविशेषावश्यके।
किरियाफलभावाओ, दाणाइणं फलं किसीएच । तंच दाणाई फलं, मणप्पसायाइ जई बुझी ॥१॥ किरियासामन्नाओ, जं फलमस्सावि तं मयं कम्मं । तस्स परिणामस्वं, सुखदुक्खफलं जओ भुज्जो ॥२॥
इत्यादि अग्निभूतिवादस्थले ज्ञेयं । तत्र नामस्थापना सुगमा, द्रव्यकर्म कर्मवर्गणागतपुद्गला बध्यमाना बद्धाः सत्तास्थाः, अथवा त तवोऽपि, भावतः कर्म ज्ञानावरणादिविपाकप्राप्ता गुणरोधादिस्वकार्यरूपाः, नैगमतः मिथ्यात्वादिबंधहेतुजनकपापंडिपरिचयप्रशंसादयः, संग्रहतः तद्योग्यताविशिष्टौ जीवपुद्गलौ, व्यवहारतो गृह्यमानवगणासमूहः, प्राणातिपातादयश्च, ऋजुसूत्रतः बंधहेतुपरिणता; सत्तास्थाः कर्मदलिका वा, शब्दतः चलोदीरणादिपूर्वकाः विपाकगतदलिकाः; स भिरूढतः ज्ञानाद्यनंतगुणानां मध्ये यद्गुणरोधः तत्तस्यावरणं, एवंभूततः स्वकर्तृता ग्राहकता वेत्तृता व्यापकता कर्मकार्यकरणप्रवृत्ता इति, सिद्धसेनास्तु-“कर्मकर्तृता शब्दनये, वेदकता व्यापकता सममिरूढनये, गुणावरणत्वं एवंभूतनये" इत्यादि भावना कार्या, तत्र विपाकप्राप्ते कर्मणि शुभाशुभोदये माध्यस्थ्यं करणीयं तदर्थमुपदेशः ।
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कर्मविपाकचिन्तनाष्टकम्
दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्सुखं प्राप्य च विस्मितः। मुनिः कर्मविपाकस्य, जानन्परवशं जगत् ॥१॥
व्या०-दुःखं प्राप्य न दीनः स्यादिति-"मुनिः” तत्त्वरसिकः “दुःखं” असातादि, प्राप्य दीनः न स्यात् , कृतभोगे का दीनता ?, करणकाले अविचारेण करणेन तद्विपाक ईश, एवं च पुनः "सुखं" सुतादिराज्येश्वरराज्यादि प्राप्य विस्मितः न स्यात्, को विस्मयः ?, स्वगुणावरणभूते विपाकमिष्टे कर्मणि, "जगत्” लोकं “कर्मविपाकस्य" शुभाशुभोदयस्य “पखशं" पराधीनं जानन् , सर्व जगत् कर्माधीनं तत्त्वज्ञानी एवं कर्मविपाकमवगणय्य तत्त्वसाधने यत्नवान् भवति ॥ १ ॥ येषां भ्रूभङ्गमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि । तैरहो कर्मवैषम्ये, भूपैर्भिक्षापि नाप्यते ॥२॥ ___ व्या०-येषां भ्रूभंगेति-'येषां' पुरुषाणां 'भ्रूभंगमात्रेण, भूविक्षेपेण, 'पर्वता' गिरिवरा अपि भज्यंते, तै पैः कर्मणां वैषम्यं कर्मजनिता विषमता तस्मिन् कर्मोदये दुःखावस्थायां, मिक्षापि — न आप्यते । न प्राप्यते, इति शुभाशुभविपाकवैचिश्यम् ॥ २ ॥ जातिचातुर्यहीनोऽपि, कर्मण्यभ्युदयावहे । क्षणाद्रकोऽपि राजा स्यात्, छत्रच्छन्नदिगन्तरः॥३॥
व्या०-जातिचातुर्येति-कश्चित् रंकोऽपि 'क्षणात्' क्षणमात्रेण, 'अयुदयावहे' शुभोदर्के कर्मणि राजा 'स्यात् भवेत् , कथंभूतः रंकः ?-जातिमातृका चातुर्य-दक्षत्वं ताभ्यां हीनः
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ज्ञानमंजरी टीका.
३४९
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-रहितः अपि भूपो भवति, किंभूतो राजा ?-'छत्रेण' आतपत्रेण, 'छन्नं' छादितं आक्रांतं दिगंतरं येन स इति चक्री अखंडाज्ञावान् भवति, विपाकपाकेन, तत्र नाश्चर्य दुर्लभं हि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रं शुद्धात्मधर्मम् ॥ ३ ॥ विषमा कर्मणः सृष्टिदृष्टा करभपृष्ठवत् । जात्यादिभूतिवैषम्यात्का रतिस्तत्र योगिनः ॥४॥ ___ व्या०-विषमा कर्मण इति कर्मणः-"सृष्टिः” रचना करभपृष्ठवत् विषमा दृष्टा, कस्मात् ?-जात्यादिभूतिवैषम्यात् जातिः कुलं-उच्चनीचादिसंस्थानवर्णस्वरसंपदादिभेदात् तस्य महद् वैषम्यं तस्मात् । उक्तं च प्रशमरतौ
“जातिकुलदेहविज्ञानायुर्बलभोगभूतिवैषम्यम् । दृष्ट्वा कथमिह विदुषां, भवसंसारे रतिर्भवति ? ॥ १॥"
इति । 'तत्र' शुभोदये ऐश्वर्यादिकाले अनेकाशुद्धाध्यवसाये परसंयोगोत्पत्तिरूपे, 'योगिनः' रत्नत्रयीपरिणतस्य का रतिः ? न कापि । उक्तं च
सुहजोगो रईहेऊ, असुहजोगो अरईहेउत्ति । रागो वढ्ढई तेणं, अवरो दोसं विवढेई ॥ १ ॥ सिवमग्गविग्धभूया, कम्मविवागा चरित्तबाहकरा । धीराणं समया तहि, चायपरिणामओ हवई ॥२॥४॥
कर्मस्वरूपस्य मोक्षमार्गध्वंसित्वं दर्शयतिआरूढाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च । भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥ ५॥ व्या०-आरूढा इति केचित् मुनयो निश्चयरत्नत्रयीपरि
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३५० कर्मविपाकचिन्तनाष्टकम्. .....~~~~~~ णामतः तीव्रक्षयोपशमभावावाप्तसाधनाः अपूर्वकरणबलेन उपशमचारित्रपरिणतिं आरूढाः सर्वथा मोहोदयरहिताः, च पूर्व श्रुतकेवलिनः अपि 'दुष्टेन कर्मणा' सत्तागतेन मोहेन उदयावस्थायोग्यभूतेन, अथवा आयुःकर्मप्रांतकरणेन प्रतिपातमापन्नाः अहो ? अनंतसंसारं भ्राम्यते ते चतुर्गतिषु भ्रमंति, अतः कर्मायत्ता चेतना न करणीया, विपाककाले स्वकीयक्षयोपशमस्वरूपानुयायी रक्षणीयः, नहि विपाकः प्रतिपाताभिनवकर्मबंधहेतुः किंतु स्वकीयचेतना वीर्य च मोहोदयानुगतत्वेन हेतुत्वपरिणत्या बंधः, अतः हेतुतैव वारणीया, तदा च परकृतैव कर्मकर्तृता आत्मशक्तेः अप्रवर्त्तमानत्वात्, न ह्यप्रवृत्ता शक्तिः कर्मकी, तेन नोदनाहेतुता, किंतु मिथ्यात्वादिहेतुमिरुदयभूतैः सम्यक्त्वादयो गुणा आच्छादिताः, पुनः चेतनावीर्यदानादयः क्षायोपशमिकदुर्विपरीतश्रद्धानभासनपररमणिकपरिणताभिनवकर्म - हेतुतामास्कंदंति, अतः अशुद्धतया परिणमितात्मापरिणतिरमिनवकर्महेतुः, निदर्शनं च सूक्ष्मैकेंद्रियाणां तु अशुद्धानुगक्षयोपशमबाहुल्येन तीव्रबंधकता इत्यादि भाव्यं, उक्तं च-"अप्पा करेइ कम्माई, अप्पा वेएई परवसो एसो" इत्यादि । च भगवतीप्रज्ञापनादौ-" अत्तकडा कम्मा बंधन्ति नो परकडा अप्पवगाढा नाप्या नवगाढा” उत्तराध्ययने-"अत्ता कता विकत्ता य सुहाण आहाण य” इत्यादि । पुनः आचारांगे "शायाणां सागडभि" इत्यादि स्वतो योज्यं, श्रेणिप्रतिमा विकार आवश्यकनियुक्तो
उवसाम उवणीया, गुणमहया जिणचरित्तसरिसपि । पडिवायंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे ॥ १॥ .
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ज्ञानमंजरी टीका.
३५१
जइ उवसंतकसाओ, लहई अनंतं पुणोवि पडिवायं । न हु मे वीससियचं, थोवेवि कसायसेसंमि ॥ २ ॥ अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । न में विससिअहं, थोवंपि तं बहू होइ ॥ ३ ॥ दात्तं देइ रिणं, अइरा मरणं वणो विसप्पंतो । सबसदाहमग्गी, दिति कसाया भवमणंता ॥ ४ ॥ इति कर्मोदयेन आत्मा दीनो भवति ॥ ५ ॥ अर्वाक् सर्वापि सामग्री, श्रान्तैव परितिष्ठति । विपाकः कर्मणः कार्यपर्यन्तमनुधावति ॥ ६ ॥
व्या० - अर्वाक् सर्वेति-- सर्वापि सामग्री अर्वाक् श्रांता एव परितिष्ठति, नहि कार्यकरणसमर्था, कर्मणः विपाकः 'उदयकार्यपर्यंतं' चरमकारणं 'अनुधावति' अनुप्रवर्तते, अतः बाह्यसामग्री उपकरणरूपा हि कर्मोदयश्रिता, तेन कर्मोदयो बलवत्तरः, अतः कर्मक्षयाय यतितव्यमिति ॥ ६ ॥
असावचरमावर्ते, धर्म हरति पश्यतः । चरमावर्त्तिसाधोस्तु, च्छलमन्विष्य हृष्यति ॥ ७ ॥
व्या० - असाविति "असौ” कर्मविपाकः "पश्यतः” पश्यत एव 'अचरमावर्त्ते' चरमपुद्गलपरावर्त्तादर्वाक् धर्म 'हरति ' चोरयति, तु पुनः 'चरमावर्त्ति' चरमपुद्गलपरावर्त्तान्तरवर्त्तमान मार्गांनुसार, यस्य साधोः निर्ग्रथस्य छलं अन्विष्य गवेषयित्वा 'हृष्यति' हर्ष प्राप्नोति इत्यनेन मार्गानुसारिनिर्ग्रथस्य क्षायोपशमिकगुणत्वात् प्रमादादिदोषात्, शंकाद्यतिचारावसरे हृष्यति, नाम वर्त्तते इत्युपचारः, अतः कर्मविपाके रक्तदिष्टता न करणीया ॥ ७ ॥
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३५२
कर्मविपाक चिन्तनाष्टकम्.
साम्यं विभर्ति यः कर्म विपाकं हृदि चिन्तयन् । स एव स्याच्चिदानन्द मकरन्दमधुव्रतः ॥ ८ ॥
व्या० - साम्यमिति य आत्मार्थी 'कर्मविपाकं' शुभाशुभवि - पाकं चिंतयन्, 'हृदि' चित्ते 'साम्यं' तुल्यत्वं इष्टानिष्टतारहितं विभर्त्ति स एव योगी चिदानंदमकरंदमधुव्रतः, ज्ञानानंदस्य मकरंद: - रहस्यं तस्य मधुव्रतः - रसास्वादी 'स्यात्' भवति, आत्मानं - दभोगी भवति, इत्यनेन आत्मानंदरसरसिकः शुभाशुभविपाकोदयेन रागद्वेषवान् न भवति, सर्वान् प्रति समवृत्ति मुनिः इत्येवं कर्मविपाके समानत्वचिंतनाष्टकं समाप्तं ॥ ८ ॥
इति कर्मविपाकध्यानाष्टकम् व्याख्यातं ॥ २१ ॥
अथ भवोद्वेगाष्टकम् ॥ २२ ॥
कर्मविपाकोद्विग्नभावात् संसारात् उद्विजति, अतो भवोद्वेगाष्टकं लिख्यते, तत्र नामभवः रुद्रादिः, अथवा - तन्नाम सर्वोल्लापरूपं, स्थापनाभवः लोकाकाशः तदाकारो वा, द्रव्यभवः भव - भ्रमणे हेतुरूपधनस्वजनादिः, भावभवः चतुर्गतिरूपः जन्ममरणादिलक्षणः, नयस्वरूपं च द्रव्यनिक्षेपे यावत् नयचतुष्टयं, भावनिक्षेपे शब्दादिनयत्रयं ज्ञेयं । अत्र च भवमग्नानां जीवानां न धर्मेच्छा, इंद्रियसुखास्वादलीना मत्ता इव निर्विवेका भ्रमंति, दुःखोद्विग्ना इतस्ततः दुःखापनोदार्थ, अनेकोपायचिंतनव्याकुला भ्रमति शूकरा इव इति महामोवभवांभोवो किंमन्यत् सर्वसि - द्धिकरं श्रीमद्वीतरागवंदनादिकं कुर्वति, इंद्रियसुखार्थं च तप उपवासनादिकष्टानुष्ठानमा जन्मकृतं हारयंति निदानदोषेण, गणयंति
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ज्ञानमंजरी टीका.
मोहहेतुरूपजैनशासनदेवादि सुखहेतुरूपं, व्यामुांति ऐश्वर्यादिषु भवाब्धिमत्स्या इव मिथ्यावासिता जीवाः, तेन भबोद्वेग एव करणीयः, यत्रात्मसुखहानिः तस्य कोऽमिलापः लामिति ? इत्येवोपदिशति-- यस्य गम्भीरमध्यस्याऽज्ञानवजमयं तलन। रुद्धा व्यसनशैलौघैः, पन्थानां यत्र दुर्गमाः ॥१॥ पातालकलशा यत्र, भृताः तृष्णामहानिः। कषायाश्चित्तसङ्कल्प-वेलावृद्धिं वितन्वते ॥२॥ स्मरौर्वाग्निर्बलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादि-मत्स्यक पसङ्कुलः ॥३॥ दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहैर्विद्युदुर्वातगर्जितैः । यत्र सांयात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पातसङ्कटे ॥४॥ ज्ञानी तस्माद्भवाम्मोधेर्नित्योद्विग्नोऽतिदारुणात् । तस्य सन्तरणोपायं, सर्वयत्नेन काक्षति ॥५॥
यस्येति १ पातालेति २ स्मरौति ३ दुर्बुद्धीति ४ ज्ञानीति ५ श्लोकपंचकं व्याख्यायते । ज्ञानी तस्य भवसमुद्रस्य संतरणोपायं पारगमनोपायं सर्वयत्नेन 'कांक्षति' इच्छति इत्यर्थः, तस्य कस्य ? यस्य गंभीर मध्यं यस्यं गंभोरमध्यस्तस्य अप्राप्तमध्यस्य भवार्णवस्य अज्ञानं जीवाजीवविवेकरहित तत्त्वबोधशून्यं मिथ्याज्ञानं, तदेव वज्रमयं तलं दुर्भेदं यत्र भवांभोद्यौ, व्यसनशैलौवैः कष्टपर्वतसम हैः रुद्धाः पंथानः-मार्गाः सतिगमनप्रचाराः दुर्गमा
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भवोद्रेगाष्टकम्. aai गंतुमशक्या भवंति, इत्यनेन अज्ञानतलातिगंभीरमध्यस्य संसारपारावारस्य रोगशोकवियोगादिकष्टपर्वतैः रुद्धमार्गस्य जंतोः सह गमनमशक्यं भवति । पुनः यत्र भवसमुद्रे कषायाः-क्रोधमानमायालोभरूपा पातालकलशाः तृष्णा विषयपिपासा तद्रपैः महानिलैः भृताः, चित्तं-मनः तस्य संकल्पाः अनेकजलसमूहाः तद्रपा वेला-जलप्रवाहरूपा तपः शुषि वेलागमनं 'वितन्वते,' विस्तारयंति, इत्यनेन कषायोदयात् तृष्णावातप्रेरणया विकल्पवेलां बर्द्धयंति, भलजलधौ संसारांबुधौ इति ॥ २ ॥ यत्र जन्ममरणसमुद्रे स्मरः-कंदर्पः तद्रपः अंतर्मध्ये और्वाग्निः-बाडवानलः ज्वलति, यत्राग्नौ स्नेहेंधनः स्नेहो-रागः स एव इंधनं-ज्वलनयोग्यकाष्ठसमूहः यस्मिन् अन्यत्र वडवानौ जलेधनं इति, किंभूतः रागः ? यः घोररोगशोकादयो मत्स्यकच्छपाः तैः संकुलः व्याप्त, इत्यनेन रागाग्निप्रज्वलनरोगशोकतापितप्राणिगणः एवंरूपो भवाब्धिः पुनः यव सांयात्रिकाः-प्रवहणस्था लोकाः, अत्रापि व्रतनियमादिपोतस्था जीवाः उत्पातसंकटे कष्टे पतन्ति, कैः ? दुष्टा बुद्धिः मत्सरः असहनसंयुक्ताहंकारः, द्रोहः कापट्यं इत्यादयः एव विद्युद्दुतगर्जितानि नैः दुर्बुद्रिविद्युता मत्सरदुर्वातेन द्रोहगर्जितेन व्रतादिपोताः प्रवर्त्तमान! अपि पंकरखलनाद्युत्पातान् लभते, इत्यनेन महाभववारिधी एते महाव्यावातः सन्मार्गप्राप्तौ तस्मात् अतिदारुणान् महाभयात् नित्योद्रिग्नः सदोदासीनः तस्य संतरणोपायं सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं, कांक्षति-अमिलषति, इति तीव्रभवभीत इव तिष्ठति, चिंतयति चमम शुद्धज्ञानमयस्य, परमतत्वरमणचारित्रपवित्रस्य, रागद्वेषक्षयसमुत्थपरमशमशीतलस्य, अनंतानंदसुखमग्नस्य, सर्वज्ञस्य, परमदक्षस्य, शरीराहारसंगमुक्तस्यामूर्तस्य, कथं शरीरादिव्यसनसमू
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ज्ञानमंजरी टीका.
३५५
हभारभुग्नता भुग्नस्वशक्तिवत्वं युज्यते ? नाहं सशरीरा सपुगला सकर्मा सजन्ममरणा चेतना मम कथमयं महामोहावर्च : १ इत्युद्विग्नाः स्वरूपभासनर मणैकत्वमनोहरं, सम्यग्दर्शनप्रतिष्ठानं क्षांत्यादिधर्माष्टादशशीलांगसहस्रविचित्रफलकनिविडघटनाविराजितं,
सम्यग्ज्ञाननियमकान्वितं सुसाधुसंसर्गकाथसूत्रनिविडबंधनबद्धं, संवरकीलप्रभग्ननिःशेषास्रवद्वारं, सूत्रितसामायिकच्छेदोपस्थापनीयभेदविभिन्नरम्यभूमिकाद्वयं, तदुपकल्पितसाधुसमाचारकरणमंडपं, समंततो गुप्तित्रयप्रस्तरगुप्तं, असंख्यशुभाध्यवसायसन्नद्धदुर्योधं, यो सहस्रदुरवलोक, सर्वतो निवेशित सद्गुरूपदेशवल्लीनिकुरूंबमध्यमवस्थापितस्थिरतरानिशलसद्बोधकूपस्तंभतद्विन्यस्तप्रकृष्टशुभाध्यवसायसितपटं, तदग्रसमारूढप्रौढसदुपयोगपंजरदौवारिकं तदका - द्वाप्रमादनगरनिकरसमायुक्तसर्वांगसंपूर्णतया प्रवहणं चारित्रयानपात्रं, तेन चारित्रमहायानपात्रेण संतरणोपायं कुर्वति ॥ ५ ॥
तैलपात्रधरो यद्वत्, राधावेोद्यतो यथा । क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः ॥६॥
व्या० - तैलपात्रधर इति - यथा तैलपात्रवरः मरणभयभीतः अप्रमत्तः तिष्ठति, तथा मुनिः स्वगुणवातभयमीतः संसारे अप्रमत्तस्तिष्ठति । यथा केनचित् राज्ञा कंचन पुरुषं लक्षणोपेतं वधाय अनुज्ञापितं, तदा सभाजनैः विज्ञप्तः स्वामि क्षमध्वमपराधं, मा मारय एनं, तेन सम्योक्तेन राज्ञा निंग देतं, यदा महास्थालं तैलपूर्ण सर्वनगरचतुष्पथे अनेक नाटकवा चतूर्याकुले तैलबिंदुमपतंतं सर्वतो भ्रामयित्वा आयाति तदा न मारयामि, यदि च तैलबिंदुपातः तदास्य तस्मिन्नवसरे प्राणापहाः करणीय, इत्युक्तोऽपि स पुरुषस्तत्कार्य स्वीचकार तथैवाने कजनसंकुले मार्गे
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३५६
भवोद्गाष्टकम्.
तैलस्थालं शिरसि धृत्वा अपेक्षयोगः अपतिततैलबिंदु ः समागतः । तद्वन्मुनिः अनेक सुखदुःखव्याकुले भवेऽपि स्वसिद्धयर्थं प्रमादरहितः प्रवर्त्तते, पुनः दृशंतयति, यथा-स्वयंवरे कन्यापरिणयनार्थ Taraधोद्यतः स्थिरोपयोगयोगतया लघुतालाघविकः स्थिरचितो भवति, तथा मुनिः भवभीतः संसारसंसरणगुणावरणादिमहादुःखाद् भीतः क्रियासु समिति गुप्तिकरण सपतिकरणरूपासु अनन्यचित्तो भवति, न अन्यत्र अपरभावे चित्तं मनो यस्य स अमन्यचित्तः स्यात् एकाग्रमानसः भवति उक्तं च-
गाईज्जति सुरसुंदरीहिं, वाइज्तावि वीणमाइहिं | तहवि समसत्ता वा, चिरंति मुणी महाभागा ॥ १ ॥ पत्र सिलायलगया, भावसिएहि कडअफासेहिं । उज्जलवेयणपत्ता, समचित्ता हुंति निरंगंथा ॥ २॥ अभिसमुद्धेणवणे, सीहेण य दाढवकसंगहिआ । तहविहु समाहिपत्ता, संवरजुत्ता मुणिवरिंदा ॥ ३ ॥ ६॥ कथमविपाके निर्भया निर्यथाः ? इत्युपदिशन्नाह ।
विषं विषस्य वह्निश्च वह्निरेव यदोषधम् । तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः ॥ ७ ॥ व्या० - विष वि इति यथा - कश्चिन् विषयार्त्तः विषस्य औषधं विषमेव करोति या सर्वदष्टः निंबादिचर्वणेन विभेसति अथवा कथित् अग्निः पुनरपि अग्निदाहपीडावारणाय पुनः अग्नितापं अंगीकरोति, इति तत्सत्यंयत् यस्मात्कारणात् भवभीतानां मुनीनां उपसर्गेऽपि भयं न, कर्मक्षपणोद्यतस्य उपसर्गे बहुकर्मक्षपणत्वं मन्वानः साधुः तदपचयं विदन् न भयवान् भवति, साध्यकार्यस्य निष्पद्यमानत्वात् इति ॥ ७ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
स्थैर्ये भवभयादेव, व्यवहारे मुनिर्ब्रजेत् । स्वात्मारामसमाधौ तु तदप्यन्तर्निमज्जति ॥ ८ ॥
३५७
ब्या० - स्थैर्य भवेति- मुनिः तत्त्वज्ञानी 'भवभयात्' नरकनिगोददुःखोद्वेगात् एव व्यवहारे एषणादिक्रियाप्रवृत्तौ स्थैर्य व्रजेत गच्छेत्, लभेत स्वात्माराम समाधौ स्वकीयात्मारामः स्वचेतनः, तस्य समाधौ ज्ञानानंदादिषु तद् भवभयं अंतर्मध्ये निमज्जति लयीभवति, स्वएव विनश्यति आत्मध्यानलीलालीनानां सुखदुःखे समानावस्थानां भयाभाव एव भवति, इत्यनेन संसारोद्विग्नः प्रथमज्ञानदर्शनचारित्राचाराभ्यासतो दृढीकृतयोगोपयोगः स्वरूपानंतस्याद्वादतच्चैकत्वसमाधिस्थः सर्वत्र समावस्थो भवति, “मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः" इति एवं स्वरूपलीनसमाधिमग्नानां निर्भयत्वं इति वस्तुस्वरूपावधारणेन विभावोत्पन्नकर्मोदयलक्षणे संसारे परसंयोगसंभवे आत्मससामिने निर्वेदः कार्यः ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं भवोद्वेगाष्टकम् ॥ २२ ॥
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अथ लोकसंज्ञात्यागाष्टकम् ॥ २३ ॥
अथ निर्वेदी जीवः मोक्षसाधनोद्यमवर्त्ती लोकसंज्ञायां न मुह्यति, लोकसंज्ञा हि धर्मसाधनव्याघातकरा तैस्त्याज्या, इति तदुपदेशरूपं लोकसंज्ञात्यागाष्टकं विस्तार्यते । लोकः सप्तविध:नामलोकः शब्दालापरूपः, स्थापनालोकः अक्षरः लोकनालियंत्रन्यासरूपः, रूप्यजीवाजीवात्मकः द्रव्यलोकः, ऊर्ध्वाधस्तिर्य ग्लक्षणः क्षेत्रलोकः, समयावल्यादिकालपरिमाणलक्षणः काललोकः नरनारकादिचतुर्गतिरूपः भवलोकः, औदयिकादिभावपरिणामः
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लोकसंज्ञात्यागाष्टकम्
भावलोकः, द्रव्यगुणपर्यायपरिणमनरूपः पर्यवलोकः, इदं च सर्वमपि आवश्यक नियुक्तितः ज्ञेयं । अथवा - द्रव्यलोकः संसाररूपः अप्रशस्त भावलोकः परभावैकत्वजीवसमूहः, अत्र भवलोकाप्रशस्तभावलोकस्य संज्ञा त्याज्या, लोकसंज्ञा च नयसप्तकेन धर्मार्थिभिः परिहरणीया । प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं, भवदुर्गाद्रिलङ्घनम् । लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तर स्थितिः ॥ १ ॥
व्या० - प्राप्त इति - 'मुनिः संयमी आस्रवविरितः षष्ठं' सर्वविरतिलक्षणं प्रमत्ताख्यं प्राप्तः 'लोकसंज्ञा' लोकैः कृतं तत्कर्त्तव्यं गतानुगतिकतानीतिरित्यत्र 'रतः ' रागी गृहीतग्रहः न स्यात् लोकैः कृतं तदेव करणीयं इति मतिं निवार्य आत्मसाधनोपायरतः स्यात्, किंभूतं षष्ठं गुणस्थानं ? भवः संसारः स एव दुर्गाद्रिः विषमपर्वतः तस्य लंघनं, किंविशिष्टः मुनिः ? लोकोत्तरस्थितिः लोकातीतमर्यादया स्थितः, लोको हि विषयाभिलाषी, मुनिः निष्कामः, लोकः पुद्गलसंपत् ज्येष्ठत्वमानी मुनिर्ज्ञानादि - संपदा श्रेष्ठः, अतः किल लोकसंज्ञया किं तेषाम् ? ॥ १ ॥ तथा चिन्तामणि दत्ते, बठरो बदरीफलैः । हहा जहाति सद्ध, तथैव जनरञ्जनैः ॥ २ ॥
व्या० - यथा चिंतामणिमिति - 'यथा येन प्रकारेण कश्चित् 'बठरः' मूर्खः बदरीफलैः चिंतामणिं दत्ते, तथैव मूढः 'जनरंजनैः '' लोक श्लाघाभिलाषैः सद्धर्म द्रव्याचरणतत्त्वानुभवलक्षणं 'हहा' इति खेदे 'जहाति' त्यजति, इत्यनेन जिनभक्ति श्रुतश्रवणाहारत्यागादिकं यशः पूजादिना हारयति । उक्तं च
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ज्ञानमजेरी टीका.
त्वत्तः सुदुःप्रापमिदं मनासं, रखत्रयं भूरिभवग्रमेण । प्रमादनिद्रावशतो गतं तत्कस्याग्रतो नायक! पूत्करोमि॥१॥ वैराग्यरङ्गः परवञ्चनाय, धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय । वादाय विद्याध्ययनं च मेऽभूत्किंयद् ब्रुवे हास्यकरं स्वमीश ॥२॥ लोकसंज्ञामहानद्यामनुस्रोतोनुगा न के। प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः॥३॥
व्या०-लोकसंज्ञेति-'लोकसंज्ञा' लोकरीतिरूपा महानदी, तस्याः ‘अनुस्रोतः' प्रवाहः तस्य 'अनुगाः' अनुयायिनः के न भवंति ? अनेके इत्यर्थः तत्र प्रतिस्रोतानुगः सन्मुखप्रवाहचारीतु एक एव महामुनिः शुद्धश्रमणः राजहंसनामा इति, तेन लोकरूढिरूढा बहवो जीवाः . निग्रंथः स्फुरद्रत्नत्रयसाधनोद्यतः स एव स्वरूपानुगामी । उक्तं च दशवैकालिके।
आसो वा बहुजणंमि, पडिसोयलद्धलरकेणं । पडिसोयमेव अप्पा, दायबो होउ कामेण ॥ १ ॥ अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसमो सुविहयाणं । अणुसोउ संसारो, पडिसोउ तस्सउत्तारो ॥ २ ॥
तेन मुनिर्लोकसंज्ञानुयायी न स्यात् ॥ ३ ॥ लोकमालम्ब्य कर्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत् । तदा मिथ्यादृशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात्कदाचन ॥४॥
लोकमिति-चेत् यदि यत् बहुभिः कृतं तत् कर्त्तव्यं लोकं आलंब्य एवं क्रियते तदा मिथ्यादृशां धर्मः कदाचन कदापि न त्याज्यः स्यात्, तच्च बहुभिः क्रियमाणत्वात् स्वेच्छाचरणो
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३६०
लोकसंज्ञात्यागाष्टकम्.
लोकः बहुतरः यतः अनार्येभ्यः आर्याः स्तोकाः, आर्येभ्यः जैनाचाराः स्तोकाः जैनाचारवर्तिषु जैनपरिणतिपरिणताः स्तोकाः, अतः बहुलोकानुयायीन, भवनीयमिति ॥ ४ ॥ श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च । स्तोका हि रत्नवणिजःस्तोकाश्च स्वात्मसाधकाः॥५॥
व्याo-श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांस इति-'लोके' ब्राह्यप्रवाहे 'श्रेयोऽर्थिनः' धनस्वजनभुवनवनतनुकल्याणार्थिन 'भूयांसः' प्रचुराः संति, च पुनः ' लोकोत्तरे' अमूर्तात्मस्वभावाविर्भावलक्षणे प्रवतमानाः 'नचा नैवेति 'हीति' निश्चितं रखवणिजः स्तोका, तथा 'च' पुनः 'स्वात्मसाधकाः' स्व आत्मा तस्य साधकाः निरावरणत्वनिष्पादकाः स्तोका इति ॥ ५ ॥ लोकसंज्ञाहता हन्त !! नीचैर्गमनदर्शनैः । शंसयन्ति खसत्यागमर्मघातमहाव्यथाम् ॥ ६ ॥
व्या०-लोकसंज्ञेति-'हंत' इति खेदे, 'लोकसंज्ञाहता' लोकसंज्ञाव्याकुलाः 'नीचैर्गमनदर्शनैः। वक्रीभूतशरीरभून्यस्तदृष्ट्या गमनस्य दर्शनैः, 'स्वसत्यागमर्मघातमहाव्यथां स्वीयो यः सत्यागः जैनवृत्तित्यागः स च लोकरंजनाध्यवसायबहुलेन मर्मणि घातं लभते, तस्य घातस्य महाव्यथां महापीडां शंसयंति ज्ञापयंति, 'वयं पीडितेन वक्रशरीरा भ्रमामः' इति शंसयंति कथयति वेति उत्प्रेक्षा, लोकोक्तिभीतित्यागवंतो जीवा आत्मस्वरूपवातका इति ॥ ६ ॥ आत्मसाक्षिकसद्धर्म-सिद्धौ किं लोकयात्रया? । तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च, भरतश्च निदर्शनम् ॥ ७ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
commam
व्या-आलस चालान किमपि
____ व्या०-आत्मेति-हे उत्तम 'आत्मसाक्षिकः' आत्मा एव साक्षिकं आत्मसाक्षिकः, स चासौ 'सत्' शोभनः धर्मः, तस्य 'सिद्धौ' निष्पत्तौ लोकयात्रया किं ? न किमपि, लोकानां ज्ञापनेन किमित्यर्थः, तत्र प्रसन्नचंद्रः चपुनः भरत इति निदर्शनं दृष्टांतः सति द्रव्यलिंगे कायोत्सर्गे प्रसन्नचंद्रस्य नरकगतिबंधः, असति लिंगे मोहकलाकेलिभूतवनितान्यू हपरिवृतोऽपि भरतः संप्राप्तात्मसाक्षिकत्वैकत्वरूपधर्मपरिणतः केवलं प्राप, इति आत्मसाक्षिको धर्म-धर्म इति दृष्टांतः, अतः आत्मसाक्षिक एव धर्मः करणीय इति ॥७॥ लोकसंज्ञोज्झितः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोह-ममतामत्सरज्वरः॥८॥ ___व्या०- लोकेति-'सावु' परमात्मसाधनोद्यतः, सुखं 'आस्ते' तिष्ठति, कथंभूतः साधुः ? 'लोकसंज्ञोज्झितः' लोकसंज्ञारहितः, पुनः किंभूतः ? परब्रह्मणः शुद्धात्मस्वरूपस्य 'समाधिः स्वास्थ्यं. तद्वान् तन्मयः, आत्मज्ञानानंदमग्नः पुनः कथंभूतः ? 'गतः' नष्टः 'द्रोहः । मोषणशीलो ममता परभावेषुममकारता, 'मत्सरः ' अहंकारः एव ज्वरः तापो यस्य स, इत्यनेन कषायकालुष्यरहितः स्वात्मारामः' स्वात्मज्ञानी तत्त्वानुभवयुक्तो मुनिः सुखं तिष्ठति । लोकसंज्ञात्यागेन स्वरूपयोगभोगसुमना निग्रंथा औदयिकं इंदियसुखं दह्यमानस्वगृहप्रकाशवद् मन्यते न सुखमस्ति ॥८॥
इति व्याख्यातं लोकसंज्ञात्यागाष्टकम् ॥ २३ ॥
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शास्त्राष्टकम्
अथ शास्त्राष्टकम् ॥ २४ ॥ अथ क्रमायातं यथार्थोपयोगकारणभूतं शास्त्राष्टकं प्ररूप्यते, तव शास्त्रस्वरूपं, ऐकांतिकात्यंतिकनिद्वनिरामयपरमात्मपदसाधनस्याद्वादपद्धत्या यत्र शास्यते तत्र शास्त्रं शासनं, न भारतरामायणादयः इहलोकशिक्षारूपाः शास्त्रव्यपदेशं लभन्ते तथाजैनागममपि सम्यग्दृष्टिपरिणतस्य शुद्धवक्तुरेव मोक्षकारणं, मिथ्यात्वोपहतानां तु भवहेतुरेव । उक्तं च-नंदीसूत्रे तच्चैवं-“दुवालसंगं गणिपिंडगं सम्मत्तपरिगाहिअं सम्मसुअं, मिच्छत्तपरिग्गाहिअंमिच्छसुअंग ॥ तथा च पूज्यैः ।
सदसदविसेसणाओ, भवहेउज्जहडिओवलंभाओ।। नाणफलाभावाओ, मिच्छादिहिस्स अन्नाणं ॥१॥
इत्यादिजीवाजीवादिगुणपर्यायविभजनसस्रिवत्यागकर्तुरपि तनैश्चयिकक्षाकृतेन सम्यग्दर्शनं, तेन यथार्थस्वपरविभागविभक्तस्वरूपोपादेयत्वपरिहेयत्वविज्ञानपूर्वकनिमित्तोपादानकारणनिर्धारशुद्धाविनश्वरस्वसिद्धपरिणतौ धर्मत्वप्रतीतिः सम्यग्दर्शनं इत्येवं सम्यग्दर्शनयुक्तस्य रुचिकृतपरमात्मभावस्य तत्साधनोपायानवच्छिन्नकथनं शास्त्रं, तच्च नामादिभेदतः, नामतः आचारांगादि। स्थापनातः सिचक्रादौ स्थापितं श्रुतज्ञानं । द्रव्यतः पुस्तकन्यस्तं, अथवा-अनुपयुक्तपुरुषस्य क्षयोपशमगतं जैनागमं । नयविचारे तु-नैगमेन वचनोल्लापव्यंजनाक्षरादिकं, संग्रहतः जीवपुद्गलौ-द्रव्येद्रियभावेंद्रिये शास्त्रं तद्धेतुत्वात्, व्यवहारतः पठनपाठनश्रवणात्मकं, ऋजुसूत्रतो मनननिदिध्यासनरूपं, शब्दतः तत् श्रुताधारात्मस्पर्शज्ञानपरिणामलक्षणं, भावक्षयोपमोपयुक्तस्य, सममिरूढतः तन्मयस्य सर्वाक्षरलब्धिमतः शुद्धोपयोगं, एवंभूततः
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ज्ञानमंजरी टीका.
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सर्वाक्षरसंपन्नस्य, निर्विकल्पोपयोगकाले उत्सर्गभावशास्त्रपरिणमनोपयुक्तत्वात् इति । अतः परमकारुणिकोपदिष्टं शास्त्रं हितं उक्तं च तवार्थभाष्ये--
एकमपि जिनवचनादस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ता सामायिकमात्रपदसिद्धाः ॥ १॥ तस्मात्तत्प्रामाण्यात्समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् । श्रेय इति निर्विकारं, ग्राह्य धार्य च वाच्यं च ॥२॥ न भवति धर्मः श्रोतु, सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या, वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥३॥ श्रममचिन्त्यात्मगतं, तस्मात् श्रेयः सदोपदेष्टव्यम् ।
आत्मानं च परंच, हितोपदेष्टानुगृह्णाति ॥ ४ ॥ इति अत एव शास्त्रादरोत्पादनार्थमुपदिशति-- चर्मचक्षुर्भूतः सर्वे, देवाश्चावधिचक्षुषः । सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः, साधवः शास्त्रचक्षुषः॥१॥ ___व्या०-चर्मचक्षुर्मत इति-सर्वे तिर्यग्मनुष्याः चर्मचक्षुर्मतः, मतिश्रुतज्ञानावरणीयवीर्यातसयक्षयोपशममूलजातिनामकर्मपर्याप्तिनामकर्मशरीरनामकर्मनिर्माणनामकर्मोदयजन्यचक्षुर्भूतः तद्धराः, च पुनः 'देवाः सुरा अवधिचक्षुषः अवधिज्ञानावरणीयावधिदर्शनावरणीयक्षयोपशमसमुत्थज्ञानदृष्टयः, सिद्धाः सर्वचक्षुर्धराः सर्वग्रदेशकेवलोपयोगमयाः, “साधवः' निग्रंथाः, शास्त्रचक्षुषः शास्त्रावलंबिविज्ञानधराः । उक्तंच।
आगमचक्खू साहू, चम्मचक्खूणि सबभूआणि । देवा य ओही चक्खु, सिद्धा पुण सबओ चक्खू ॥१॥
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AAAAAAAAAAPARNAARVA
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३६४
शास्त्राष्टकम्. अतो निग्रंथानां वाचनादिस्वाध्यायमुख्यत्वम् ॥ १॥ पुरःस्थितानिवोधिस्तियक्लोकविवर्तिनः । सर्वान् भावानवेक्षन्ते, ज्ञानिनः शास्त्रचक्षुषा ॥२॥ ___व्या-पुरःस्थितानिति-ज्ञानिनः' 'शास्त्रचक्षुषा' आगमोपयोबेन 'ऊर्ध्वाधस्तिर्यगविवर्तिनः, त्रैलोक्यवर्तिनः 'भावान्' पदार्थस्वरूपान् 'सर्वान्' सूक्ष्मबादरान् सहजान् विभावजान परोक्षानपि क्षेत्रांतरस्थानपि आगमबलेन पुरः स्थितानिव सन्मुखस्थानिव अवेक्षते पश्यति । अत्र दर्शनं श्रुतक्षयोपशमं ज्ञेयम् ॥२॥ शासनात् त्राणशक्तेश्च, बुधैः शास्त्रं निरुच्यते । वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ॥३॥
व्या०-शासनादिति-'बुधैः' विद्वद्भिः च पुनः 'त्राणशक्तेः' भवभीतकर्मावगुंठीतविभावभुग्नजीवानां त्राणं रक्षणं तस्य शक्तिः सामथ्र्य यस्य सः, तस्य शासनात् शिक्षणात् शास्त्रं निरुच्यते व्युत्पाद्यते, मोक्षमार्गस्य शासनात् शास्त्रं इति तत्त्वार्थकृत्, पुनः तद्वीतरागस्य सर्वमोहक्षयनिष्पन्नपरमशमस्वभावस्य वचनं मोक्षमार्गोपिदेशकम् । उक्तं च उमास्वातिपूज्यैः ।
केवलमधिगम्य विभुः, स्वयमेव ज्ञानदर्शनमनंतम् ।
लोकहिताय कृतार्थोऽपि, देशयामास तीर्थमिदम् ॥ १ ॥ अतस्तस्यैव वचनं मोक्षांगं अन्यस्य कस्यचित् असर्वज्ञस्य सर्वज्ञमानिनः वचनं न मोक्षहेतुः ॥ ३॥ शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद्वीतरागः पुरस्कृतः। पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्नियमात्सर्वसिद्धयः ॥४॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
३६५
व्या० - शास्त्रे पुर इति - तस्मात्कारणात् 'शास्त्रे' सिद्धांते 'पुरस्कृते' मुख्ये कृते ' वीतरागः अर्हन् 'पुरस्कृतः' अग्रेसरीकृतः, पुनः तस्मिन् वीतरागे पुरस्कृते 'नियमात् ' निश्चयात् सर्वसिद्धयः भवंति । उक्तं च ।
अस्मिन् हृदयस्थे तिष्ठति ततो मुनीन्द्र इति । हृदयस्थिते च तस्मिन्, नियमात्सर्वार्थसिद्धिः ॥ १ ॥ पुनः आगमे—
आगमं आयरंतेण, अत्तणो हियकंखिणो । तित्थनाहो सयंबुद्धो, सव्वे ते बहुमन्निया ।। १ ।। अतः आगमादरी अर्हन् मुनिः संवादरवान् इति ॥ ४॥ अदृष्टार्थे तु धावन्तः, शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे ॥ ५॥
"
व्या० - अदृष्टेति - जडाः मूर्खा, 'शास्त्रदीपं विना आगमप्रकाशं विना 'अदृष्टे' अनुपलब्धे 'अ' कार्ये संवरनिर्जरामोक्षामिधाने 'धावंतः ' पदे पदे प्रस्खलंतः स्खलनां प्राप्नुवंतः 'परं' प्रकृष्टं 'खेदं' क्लेशं प्राप्नुवंति लभंते, अज्ञातशुद्धमार्गा अनेकोपायप्रवृत्ता अपि स्खलनां लभते इति ॥ ५ ॥ शुद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राज्ञा, निरपेक्षस्य नो हितम् । भौतहन्तुर्यथा तस्य, पदस्पर्शनिवारणम् ॥ ६ ॥
व्या० - शुद्धोञ्छाद्यपि - 'शास्त्राज्ञा निरपेक्षस्य' आगमोक्ताज्ञारहितस्य शुद्धोञ्छाद्यपि द्वाचत्वारिंशद्दोषरहिताहारग्राहकस्यापि नो 'हितं' न सुखं, यथा भौतहंतुः तस्य स्वगुरोः पदस्पर्श
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शास्त्राष्टकम्
निवारणमहितं, अत्र यथैकस्य शबरस्य जीवद् भौतपदस्पर्शनिवारणं स मयूरपिच्छार्थी भौतं हत्वा पश्चात् स्पर्श चकार, तथा आत्मानं हत्वा षट्जीवनिकायान् रक्षन् तद्वत्करोति, अतो मौढ्यं निवार्य तत्त्वज्ञानवता भवनीय, शुद्धाहारादिकं तनुयोगः स्वरूपावलंबनं महदनुयोगः, इति तेन स्वरूपाचरणमंतरेणाहारस्कंधात्मसाधनबुद्धयः भौतहिंसकवद् ज्ञेयाः ॥ ६॥ अज्ञानाहिमहामन्त्रम्, स्वाच्छन्द्यज्वरलवनम् । धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुमहर्षयः ॥ ७॥ - व्या०-अज्ञानाहीति-'महर्षयः' महामुनीश्वराः अज्ञानमेव 'अहिः' सर्पः तहमने महामंत्र, च पुनः 'स्वाच्छंद्य' स्वेच्छाचारित्वं तदेव ज्वरः तदपगमाय लंघनं 'धर्मारामसुधाकुल्यां' धर्म एव आरामः तस्मिन् 'सुधा' अमृतं तस्य 'कुल्या नीकिः, तां अमृतं शास्त्रं उक्तवंतः, अतः शास्त्राभ्यासः महासुखायेति ॥७॥ शास्त्रोक्ताचारकर्त्ताच, शास्त्रज्ञःशास्त्रदेशकः । शास्त्रैकदृग् महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ॥८॥
व्या०-शास्त्रोक्तति-एवंविधः महायोगी 'परमं उत्कृष्टं पदं स्थानं पामोति, कथंभूतः 'शास्त्रोक्ताचारकर्ता, शास्त्रे जैनागमे उक्तः य आचारः तस्य कर्ता करणशीलः, 'शास्त्रज्ञः' शास्त्रं स्याद्वादागमं जानातीति शास्त्रज्ञः, पुनः 'शास्त्रदे० शास्त्रस्य देशकः कथकः पुनः कीदृशः ? शास्त्रे एका अद्वितीया रहस्यग्राहिणी हर दृष्टिर्यस्य स इति एवं शास्त्रोक्तमार्गकारी तत्त्वज्ञः तदुपदेशकः परमं उत्कृष्टं पदं प्राप्नोति, अतः सर्वादरेण जैनागमाभ्यासः करणीयः, येन तत्वावाप्तिः निखिलसिद्धिसाधकता,
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ज्ञानमंजरी टीका.
३६७
अतएव निर्ग्रथा वाचयंति प्रवचनं प्रयच्छंति रहस्यं, परिवर्त्तयंति सूत्रालापकान्, अनुप्रेक्षयंति भावनया तदर्थ, तन्मयीभवंति आगमतत्त्वेषु मग्नाश्वानंदयंति स्वात्मानं, तल्लाभलीलालालितचेतसः कुर्वति धर्मकथां, अनुमोदयंति च महासूरिनिवहं, अतएव योगोपधानक्रियामारचयंति, वसंति यावज्जीवं गुरुकुले शास्त्रावबोधप्रवीणतामिच्छंतः ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं शास्त्राष्टकम् ॥ २४ ॥
अथ परिग्रहाष्टकम् ॥ २५ ॥
परिग्रहग्रहगृहीतस्यानेकोपार्जनसंरक्षणगोपनाविकलचेतनावतः न शास्त्रज्ञानं सम्यग् भवति, अतः परिग्रहत्यागोपदेशमुपदिशति । तत्र परि-समंतात् ग्रहः ग्रहणरूपः परिग्रहः । तत्र द्रव्यतः धनधान्यादि, भावतः परवस्त्विच्छापरिणामः आशंसारूपः, तत्रात्मनः स्वपचामित्वपरिणतेः स्वपर्यायावरणे तदभावात्, अशुद्ध बलवीर्य गृही कर्मविपाकेषु शुभेषु तद्धेतुषु प्रशस्तपरिणामेषु ममकारः परिग्रहः, स्वशुद्धसत्तागुणगणेभ्यः अन्यममकारस्वीकारसंरक्षणापरिणतिरूपा चेतनादिप्रवृत्तिः परिग्रहः, आत्मनः स्वस्वरूपभासनरमणानुभवव्याघातः । अतएव स त्याज्यः । द्रव्यपरिग्रहस्य भावपरिग्रहत्वं संग्रहेण, भाष्ये च, “द्वितीयपंचमाश्रवौ सर्वद्रव्येषु" इति वाक्यात् व्यवहारपरिग्रहः धनादिकयुक्तः, ऋजुसूत्रेण तदभिलाषी, शब्दनयेन पुन्याशंसा इत्यादिना भावनीयं, अतः तदुपदेशः ।
न परावर्त्तते राशे, वक्रतां जातु नोज्झति । परिग्रहग्रहः कोऽयं ? विडम्बितजगत्रयः ॥ १ ॥
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परिग्रहाष्टकम्.
व्याख्या-न परावर्त्तते इति 'राशेः' अनादिराशितः परिग्रहो न 'परावर्तते' न निवर्त्तते, पुनः वक्रतां 'जातु' 'कदाचित्' न 'उज्झति, न 'त्यजति, अत एव हे आत्मार्थिन् अयं दुःखमूलः परिग्रहग्रहकः विडंबितजगत्रयः त्रैलोक्यविडंबनाहेतुः इहक् परिग्रहस्य दृढानुराग इति ॥१॥ परिग्रहग्रहावेशाद्, दुर्भाषितरजाकिराः। श्रूयन्ते विकृताः किं न? प्रलापा लिङ्गिनामपि ॥२॥
व्याख्या-परिग्रहेति 'लिंगिनामपि जैनटेषविडंबकानामपि 'प्रलापाः' असंबद्धव्यसनव्यूहाः किं न श्रूयन्ते अपि तु श्रूयंतेएव । कथंभूताः प्रलापाः ? परिग्रहावेशात् परिग्रहस्य ग्रहः 'मन्यत्वं तस्यावेशः, तस्मात् 'दुर्भाषितं' उत्सूत्रवचनं एव रजसः 'किराः' समूहाः, अत एव विकृताः विकारमया इति, एवं हि परिग्रहामिलाषमया ज्ञानपूजनाथुपदेशेन परिग्रहमेलनासक्ताः उत्सूत्रं वदंति, पोषयंति विषयान्, परिग्रहीकुवैति ज्ञानोपकरणानि, महांतयंति ज्ञानोपकरणैः । उक्तं च उपमितिभव प्रपंचायाम् । "सजातः कदाचिल्लब्धार्यकुलश्रावकसामग्रीसंयोगः श्रुततत्त्वोपदेशाप्तवैराग्यगृहीतव्रतः मुनिसंघसंयुतः श्रुतलामेन संपूज्यमानः श्रावकवगैः ज्ञानभक्तोपरचितोल्लोचादिसदुपकरणः तैरेव रमणीयकताममत्वाहंकारदूषितः तीवज्ञानावरणीयकर्मवशात् पतितो निगोदे अनंतभवभ्रमणरूपे, इत्यावर्तस्वरूपं भावनीयमात्महिताय सद्भिः, अतः निवारणीयमेव धर्मलिंगविषयपरिग्रहपोषणादिकम् ॥ २ ॥ यस्त्यक्त्वा तृणवबाह्यमान्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदाम्भोज, पर्युपास्ते जगत्रयी ॥३॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
...mx ____ व्या०-वस्त्यक्त्वेति यः साधुः ‘बाह्य धनादि, 'आंतरं'' रागादि परिग्रह, तृणवत् 'त्यक्त्वा' संत्यज्य 'उदास्ते' उदासीनः परिग्रहेण मोहकारणेन व्यासंगमूलेन आत्मावलिप्तपंककल्पेन वस्तुतः निस्सारण ! न एष मम नाहमनेन सुखी, मदिरामत्तपंकावलेपतुल्येन, अहं तु ज्ञानाद्यनंतगुणपूर्णः कथं पुद्गलेषु रमे ? इत्यादिभावनया त्यक्तपरिग्रहः, तत्पदांभोजं “जगत्त्रयी" असुरनरामरणिः पर्युपास्ते सेवते इत्यर्थः स त्रिजगद्वंद्यः भवति, तेन स्वरूपानंदरसिकानंदपरिग्रहासक्तिः ॥ ३ ॥
पुनः बाह्यभोगेन निग्रंथत्वमानिनं शिक्षयति-- चित्तेऽन्तर्ग्रन्थिगहने, बहिनिम्रन्थता वृथा। त्यागात्कञ्चुकमात्रस्य, भुजगो नहि निर्विषः ॥४॥ _ व्या०-चित्तेंऽतथिगहन इति 'अंतः' चित्ते चेतनापरिणतो, ग्रंथिः तेन गहने परिग्रहलालसामग्ने, बहिः निर्ग्रथता वृथा निष्फला, यथा-कंचुकमावत्यागात् भुजंगः सर्पः निर्विषो नहि भवति, एवं बाह्यत्यागेन त्यागी न भवति, अंतर्ममत्वपरिहारेण त्यागी भवति ॥ ४ ॥ त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः। पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥ ५॥
व्या०-स्यक्ते इति साधोः-परिग्रहे त्यक्ते सति 'सकलं , रजः कर्मसमूहः 'प्रयाति' गच्छति । दृष्टांतयति, “सरसः सलिलं' सरःपानीयं ' पालित्यागे , पालिक्षये क्षणादेव क्षयं यांति, अतः सामान्यपरिणतो लोभपरित्यागेन अनुक्रमेण कर्माभावता भवति ॥ ५ ॥
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परिग्रहत्यागाष्टकम् .
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त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मुळमुक्तस्य योगिनः। चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य, का पुद्गलनियन्त्रणा ॥६॥
व्या०-यक्तपुत्रेति 'त्यक्ते' दूर नीते 'पुत्रकल।' संतानवनितासंयोगो येन सः, तस्य 'मूर्छा'सतः परिग्रहस्य संरक्षणा, तया 'मुक्तस्य' रहितस्य 'योगिनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मनः चिद् ज्ञानं 'तन्मात्रे एव ज्ञाने एव 'प्रतिबंधः' आसक्तत यस्य स, एवंविधस्य तत्त्वज्ञमुनेः 'पुद्गलनियंत्रणा पुद्गलैकता का नकापीत्यर्थः । भावना च पुत्रवनितासंगरहितस्य पुद्गलसंगो. पनाविकलस्य स्वरूपैकत्वकरणबनचेतनोपयोगस्य स्वभावानंदपरिभासवर्णिकारूपशुद्धज्ञानानुभवभोगिनः अचेतननश्वरोच्छिष्टानंदविमुक्तेषु पुद्गलेषु रागपरिणतिः न भवति, अत्र वृक्षसंप्रदायेन दृष्टांतः । अउजानयरे सिरिवरो राया, अचंतमिच्छदिट्ठी, तस्स सिरिकतो कुमरो, रूवलावण्णसोहग्गकुसलो पुरंदरो इव सोभंतमाणसंठाणो, जीवाजीवाईतत्तविउ, सुत्तत्थसवणरसिओ, बालभावणभोगलालसाविमुत्तो, सो अणेगाहिंरायकन्नाउ प्रति भाति ? कुमरेणुत्तं भो भद्दे ! कह तुन्भे पिउवरं विमुत्तूण इह समागयाओ ? ताओ भणंति तुह रागामिलासणीओ, तुझं इंटकंतरागपइमिच्छामो, ताहे कुमारो भणइ जिणंदवारियकम्मबंधणमूलं भवविवढणं को कुणई ? लोलीभूए कारणेणं धम्मकरे एगत्तमागए देहे विनिवारिओ सव्वदंसीहिं, ता परदेहेरागो को करेइ सदक्खिन्नो ? निम्मलचरणाचरणं केवलनाणस्स रोहगं रागं अरिहंताई सुवरं, तंपि निच्छयपए तच्चंताव अनत्थपहाणं, विसयरागं कह करिजत्ति ? सुहिणो य वीयरायाया नियसहावेस
१ अत्रकिमपित्रुटितं
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ज्ञानमंजरी टीका.
समासत्ता ममं न जुज्जए रागो अन्नेसु तुब्भंपि न जुज्जए एवं इति उवएसेण पडिबोहियकन्ना एवं रागत्यागः कार्यः तर्हि परिग्रहरागो हि नात्महिताय कदापि ॥ ६॥ चिन्मात्रदीपको गच्छेन्निवीतस्थानसन्निभैः। निःपरिग्रहता स्थैर्य, धर्मोपकरणैरपि ॥ ७ ॥
व्या०-चिन्मात्रेति-अप्रमत्तसाधोः “चिन्मात्रदीपकः" ज्ञानमात्रस्य प्रदीपः “गच्छेत्” लभेत कैः निर्वातस्थानसन्निभैः पवनप्रेरणारहितस्थानसंयोगैः, तथा ज्ञानदीपकस्य 'स्थैर्य स्थिरत्वं निःपरिग्रहता परिग्रहाभाव एव साधयति, इत्युपदिष्टे कश्चित् धर्मोपकरणस्यापि परिग्रहत्वं जानन् तत्परिहाराय यतते, अतः धर्मोपकरणैः अपि स्थैर्य वर्द्धते, इति “धर्मसंग्रहण्यां” सर्वमप्युक्तं शीतातपदंशादिपरीषहोदये स्वाध्यायव्याघाते निःस्पृहत्वेन धर्मोपकरणग्रहणं समाधिस्थिरताहेतुः अमूर्छितस्य न तत्परिग्रहता, नहि पुद्गलजीवयोः एकक्षेत्रावगाहिता परिग्रहः, किंतु चेतनातद्रागद्वेपपरिणतपरिग्रहग्रहत्वं प्राप्नोति, अतः उपकरणानां निमित्तता एव तत्त्वसाधने यथार्हद्गुरुसंसर्गः निमित्तं आत्मनि स्वरूपस्थेन पुद्गलस्कंधाबाधका आत्मैव तदनुगतः बाधकत्वं करोति ॥ ७॥ मूर्छाछन्नधियां सर्व, जगदेव परिग्रहः। मूर्छया रहितानान्तु, जगदेवापरिग्रहः॥८॥
व्या०-छिन्नेति “मूर्छा" ममत्वं तेन ‘छन्ना' छादिता 'धी' बुद्धिः येषां ते तेषां मूर्छामग्नानां स्वकीयतया अप्राप्तमपि सर्व जगत् परिग्रह एव, तेषां स्वामित्वभोगित्वसुखबुद्धेः समन्वितत्वात् तु पुनः मूर्छया रहितानां पुद्गलेषु मिन्नत्वाग्राह्यत्वेन
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परिग्रहत्यागाष्टकम्.
mmmmmmmmmmmmm त्यामक्तां जगदेव न परिग्रहः, तत्र रमणाभावात् । उक्तं च श्रीविशेषावश्यके । “तमा किमच्छिय यच्छं गंथोगच्छमच्छममुच्छाईणिच्छयउवगच्छाई तेणं जं जं संजमसाहणमरागदोसस्स य तं तमपरिग्गहोवि य परिग्गहो जं तदुववाइ ॥ " अत एव आत्मनः परभावरसिकत्वं परिग्रहः ततः तद्धर्मत्वाभावात् आत्मस्वरूपरमणं युक्तम् ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं परिग्रहत्यागाष्टकम् ।। २५ ॥
अथ अनुभवाष्टकम् ॥ २६ ॥
अथ श्रुताभ्यासपरिग्रहत्यागादयोऽप्यनुभवयुक्तस्य मोक्षसाधकाः, अनुभवशून्यस्य नेति, तत्प्रतिपादनायानुभवाष्टकं निरूप्यते । अनुभवशून्यं ज्ञानं उदककल्पं अनुभवयुक्तं तु सानुभवस्य । तथा च अनुयोगद्वारे । “वायणापुच्छणा परियट्टणा धम्मकहा सरअक्खरवंजणसुझा अणुप्पेहारहियस्स दवसुयं, अणुप्पेहाभावसुयं” इत्यनेन भावश्रुतं तु संवेदनरूपं न तत्त्वनिपादकं, स्पर्शरूपं तत्त्वनिष्पादकमिति, हरिभद्रपूज्याः तत्स्पर्शज्ञानं अनुभवयुक्तस्यैव, तल्लक्षणं च योगदृष्टिसमुच्चयानुसारेण लिख्यते। " यथार्थवस्तुरूपोपलब्धिपरभावारमणस्वरूपरमणतदास्वादनैकत्वमनुभवः हेयोपादेयज्ञानसुखास्वादरूपानुभवः, नामतः अभिधानं स्थापनातः स्थाप्यमानं, द्रव्यानुभवः भुज्यमानं शुभाशुभविपाकेषु अनुपयोगः " अणुवओगोदव्व " मिति वचनात, भावानुभवतः अप्रशस्तःसांसारिकविषयकषायानामनुभावकत्वं, प्रशस्तः अहंद्गुणानुरागैकत्वं, शुद्धानुभवः स्वरूपानंतपर्यायपरिणतवैचित्र्यज्ञानास्वादनैकत्वविश्रांतिलक्षणः, अत्र भावानुभवावसरः स च
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नैगमतः तदिच्छकः, संग्रहतः उपयुक्तानुपयुक्तस्य तत्कारणाश्रितयोग्यत्वे, व्यवहारतः श्रुताभ्यासवाचनापृच्छनाभोक्तुः, जुसूत्रेण मनसो विकल्परोधपूर्वक तन्मयत्वे वर्त्तमानस्य, शब्दनयेन ज्ञानोपयोगगृहीतानंत धर्मात्मकात्मद्रव्यानंतताज्ञानानुभवे सति, समभिरूढनये तु मुख्यज्ञानदर्शनगुणात्मकत्वानि तद्मणतद्भोगतदैकत्वरूपानुभवः, एवंभूतनयेनैक मुख्यपर्यायतन्मयत्वानुभवः, अत्र यस्यानुभवस्तस्य भावना कार्या । इत्येवं स्वरूपानुभवमंतरेण ज्ञानाचरणादिकं द्रव्यरूपमेव, अतः सानुभवेन भवितव्यं, सर्वत्र गुणपरिणतौ अनुभवेनैवानंदता, नो चेत् शब्दज्ञानशून्यशब्दश्रवणवत् अपार्थकमेवेति । श्रूयते च कष्टानुष्ठान कोटिकरणेऽपि न तवप्राप्तिः, कुलबालकादीनामिवानुभवमंतरेण परिग्रहप्रसंगोपचितविषयसंगसद्भावेऽपि अन्तर्मुहूर्तात्मानुभवाभ्याससाध्यरसिकैः तदादरोपदेश उपदिश्यते ।
सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् । बुधैरनुभवो दृष्टः, केवलार्कारुणोदयः ॥ १ ॥
"
व्या०-संध्येवदिनरात्रिभ्यामिति 'बुद्धैः' अवगततत्वस्वरूपैः । यथा दिनरात्रिभ्यां यथामध्यं संध्या एव दृष्टा तथा केवलश्रुतयोः केवलज्ञानश्रुतज्ञानयोः मव्यं अनुभवः दृष्टः, श्रुतज्ञानस्य चिरकालाभ्यासितस्य कार्यरूपः केवलज्ञा नस्य सम्यगदृष्टिगुणस्थानकसाध्यत्वेन लक्षीकृतस्यासाधारणकारणरूपः अनुभवः अध्यात्मैकत्वानंदरूपः दृष्टः, कथंभूत अनुभवः केवलं सकलासहायिज्ञानमेवार्कस्तस्य अरुणोदयः अरुणः सूर्यसाराथेत्तस्य उदयः पूर्व अरुणोदयेन तत्सूर्योदयो भवति, एवं अनुभवोदय केवलादयः अतोऽनुभवपूर्वकं केवलज्ञानं अनुभवश्च
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अनुभवाष्टकम् mmmmam मावनाज्ञानैकत्वरूपः करणीय इति । उक्तं च समुच्चये, मतिश्चतोत्तरभावकेवलात् अव्यवहितपूर्वभावी प्रकाशोऽनुभवः ॥ १ ॥ व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शन एव हि । पारन्तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः॥२॥
व्या०-व्यापार इति-'सर्वशास्त्राणां चपुनरनुयोगकथकानां, 'व्यापार' उद्यमः अभ्यासः 'दिक्प्रदर्शन एव' मार्गदर्शक एव, यथाहि-पथिकस्य मार्गदर्शकः मार्ग दर्शयति, परं पुरप्राप्तिः सुखचंक्रमणेनैव, एवं शास्त्राभ्यासः परमप्रयासा स्वतत्त्वसाधनविधिदर्शकः, 'भववारिधेः भवसमुद्रस्य पारं तु एकः अनुभवः प्रापयति, नान्यः श्रीसूत्रकृताङ्गादिषु अध्यात्मभावेन सिद्धिरित्युक्तत्वात्, तेन सद्गुचरणचंचरीकैः आत्मस्वरूपभासनतन्मयत्वं निष्पाद्यम् ॥२॥ अतीन्द्रियं परब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना । शास्त्रयुक्तिशतेनापि, न गम्यं यद्बुधा जगुः ॥३॥ . व्या०-अतीन्द्रियमिति 'बुधाः' पंडिता इति जगुः इतीति किं ? 'शास्त्रयुक्तिशतेनापि' शास्त्रस्य युक्तयः तेषां शतेनापि अनेकागमरहस्यावबोधेनापि 'विशुद्धानुभवं विना निर्मलानुभवमंतरेण अतींद्रियं इंद्रियज्ञानागम्यं परं उत्कृष्टं ब्रह्म चैतन्यं न गम्यं न ज्ञातुं शक्यं । न घटपटादिपदार्थसार्थसमर्थनशब्दसाधनस्वस्वमतन्यासमुधाचिंतनविकल्पतल्पस्थाः सम्यग् ज्ञानिनः स्याद्वादानेकांतधर्मास्पदीभूतानंतपर्यायोत्पादव्ययपरिणमनाखर्वसंज्ञयावबोधामू खंडानंदात्मस्वरूपज्ञानं तु तत्त्वानुभवलीना एवास्वादंते, न वचोयक्तिव्यक्तीकृतवाग्विलासा इति ॥ ३ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
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ज्ञायेरन् हेतुवादेन, पदार्था ययतीन्द्रियाः। कालेनैतावता प्राज्ञैः, कृतः स्यात्तेषु निश्चयः॥४॥
व्या०-ज्ञायेरन् इति-'यदि' यावता कालेनातींद्रिया अगोचराः पदार्था धर्मास्तिकायादयः हेतुवादेन युक्तिप्रमाणसमूहेन, केषां न कल्पनादर्वाग् अनुभवः कृतः स्यात् तदा तेषु धर्मास्तिकायादिषु शुद्धात्मनिश्चयः कृतः स्यात् प्राज्ञैः, इत्यनेन परद्रव्यचिंतनकालमात्रेणात्मस्वरूपचिंतने स्वपरावबोधो भवति, तेन सद्भिः स्वस्वभावभावने मतिः कार्या, येन निःप्रयासत एव 'जे एगं जाणइ ते सव्वं जाणइ' इति वचनात् बोधपरित्यागपरिणतिर्भवति ॥ ४ ॥ केषां न कल्पनाद:, शास्त्रक्षीरानगाहिनी। विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥ ५॥ ___ व्या०-केषांनेति-केषां पुरुषाणां कल्पना मतिप्रवृत्तिरूपा दर्वी पाककरणचाटुका शास्त्रमेव क्षीरानं परमानं तस्य गाहिनी अवगाहिनी न ? अपि तु अस्त्येवेति बुद्धिविकल्पनया शास्त्रगाहिनी मतिर्बहूनां परं अनुभवजिलया तद्रसास्वादविदः तेषां शास्त्राणां रसः तद्रसः तस्यास्वादः तस्य विदः ज्ञानिनः विरला अल्पाः शास्त्रस्वादग्राहिण इति ॥५॥ पश्यन्ति ब्रह्म निद्वंद, निढानुभवं विना। कथंलिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमयी ॥६॥
व्या०-पश्यंति इति-'लिपि मयी' संज्ञाक्षरमयी, 'वाङ्मयी' व्यंजनाक्षरमयी, 'मनोमयी' दृष्टिः योगप्रवृत्तिरूपा 'निद्वानुभवंविना
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अनुभवाष्टकम् .
परोपयोगे मुक्तशुद्धानुभवं शुद्धज्ञानं विना (ज्ञानिनः ) 'निर्द्वनं' पर - संनिकर्षरहितं, 'निर्मलं ब्रह्म ज्ञानं आत्मानं कथं पश्यंति ? नहि कर्मोपाधिरूपा बाह्यप्रवृत्तिः परब्रह्मग्राहिका भवति, अनुभवज्ञानी एव शुद्धात्मस्वरूपं पश्यति ॥ ६ ॥ न सुषुप्तिर मोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ । कल्पना शिल्पविश्रान्तैस्तुयैवानुभवे दशा ॥ ७ ॥
घ्या०-न सुषुप्तिरिति तथा च नयचक्रे दशाश्चतस्रः, तत्र बहुशयनरूपा मिथ्यात्वस्थानां ' शयनावस्था' सम्यग्दृशां, 'जागरा' प्रमत्ताप्रमत्तमुनीनां, तुर्या च ' उत्तरा' ध्यानस्थानां, उत्तरोत्तरा सयोगिकेवलिनां । पुनः श्रीविंशतिकायाम् ” सुषुप्तिः तीत्रनिदाघूर्णि तचेतसां अनुभवज्ञानिनः न, कस्मात् ? अमोहत्वात्, अनुभवी मोहरहितः सुषुप्तिस्थः मोहमयः, तेनानुभवज्ञानवतः सुषुप्तिर्न, तवानुभविनः स्वापदशा तथा जागरापि न, एतद्दशाद्वयं कल्पनोपेतं अनुभवः कल्पना विकल्पचेतना, तस्याः शिल्पं विज्ञानं तस्य विश्रांतिः अभाव इत्यर्थः, तस्याः अनुभवे तुर्या एव दशा वाच्या, यद्यपि तुर्या दशा सर्वत्र तथापि यथार्थश्रुतभावितचेतनानां केवलकरणत्वेनोपचारात् स्वरूपाच्च तुर्यैव दशा वक्तुं शक्या, नहि दशात्रयसंभवः तेनानुभवः समाधिहेतुः ॥ ७ ॥ अथ सिद्धान्तीकरोति । अधिगत्याखिलशब्द- ब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः । स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति ॥ ८ ॥
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व्या० -अधिगत्येति पूर्वपूर्वसेवनास्थाने 'शास्त्रदृशा' शास्त्रग्रहणबुद्ध्या 'अखिल' समस्तं ' शब्दब्रह्म षभाषावाङ्मयं 'अधि
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ज्ञानमंजरी टीका.
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AAAAAAAAAAAWAJ
गत्य' ज्ञात्वा तदनंतर मुनिः 'अनुभवेन' स्वरूपग्राहकदृष्ट्या 'स्वसंवेद्यं स्वेन आत्मना संवेद्यं ज्ञानस्वादनयोग्य 'परब्रह्म' शुभास्मस्वरूपं 'अधिगच्छति' प्राप्नोति । अत उक्तं च आगमे-"स समयं जाणेई, परसमयं जाणेई, ससमयं परसमयं जाणित्ता अप्पाणं भाविता भवई ॥” अत एवं आगमाभ्यासपटुमतिः तत्त्वज्ञानानुभवेनात्मस्वरूपं प्राप्नोति तेलानुभवाभ्यासो विधेयः ॥८॥
इति व्याख्यातं अनुभवाटकम् ॥२६॥
अथ योगाष्टकम् ॥ २७॥
अथ योगाष्टकं चितन्यते, अत्र मिथ्यात्वादिहेतुगतमनोवाकाययोगत्रयं तच्च कर्मवृद्धिहेतुत्वात् न ग्राह्य, किं तु मोक्षसाधनहेतुभूतं शुझात्मभावनाभावितचेतनावीर्यपरिणामसाधककारकप्रवर्तनरूपं ग्राह्य, द्रव्यभावमेदं बाह्याचारविशोधिपूर्वकाभ्यन्तराचारशुद्धिरूपम् । मोक्षण योजनाद्योगः, सर्वोप्याचार इष्यते। विशेषस्थानवार्था--लम्बनैकाग्र्यगोचरः॥१॥ ___व्या०-मोक्षेणेति सकलकर्मक्षयो मोक्षः, तेन “ योजनात् योगः " उच्यते स च सर्वोऽप्याचारः जिनशासनोक्तचरणसमतिकरणसप्ततिरूपः, मोक्षोपायत्वात् योग इष्यते, तत्र तत्र विशेषेण स्थानं १ वर्णः २ अर्थः ३ आलंबनं ४ एकाग्रता ५ इति पंचप्रकारः योगः मोक्षोपायहेतुः मतः, इत्यनेनानादिपरभावासक्तभवनमणग्रहात् पुद्गलभोगमन्नानां न भवति, अयममिप्रायःयतोऽस्माकं मोक्षः साध्योऽस्ति, स च गुरुवचनस्मरणतत्वजि
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योगाष्टकम्,
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ज्ञासादियोगेन स्वरूपं निर्मलं निस्संग ‘परमानंदमयं संस्मृत्व तत्कथाश्रवणप्रीत्यादिकं करोति, स परंपरया सिद्धियोगी भवति, नहि मरुदेवावत् सर्वेषामल्पपयासात् सिद्धिः, तस्या हि अल्पाशतनादोषकारकत्वेन निष्प्रयासा सिद्धिः, अन्यजीवानां चिराशातनाबद्धगाढकर्मणां तु स्थानादिक्रमेणैव भवति ॥ १॥
अथ योगपंचके बाह्यांतरंगसाधकत्वमुपदिशतिकर्मयोगहषं तत्र, ज्ञानयोस्त्रयं विदुः।। विरतेष्वेव नियमाद्, बीजमात्रं परेष्वपि ॥ २ ॥
व्या०-कर्मयोगद्वयमिति तत्र मोक्षसाधने योनद्वयं, 'कर्मयोगद्वयं क्रियाचरणा योगरूपं निरूप्यते, तत्र स्थापनस्वरूपं कायोत्सर्गादिजैनागमोक्तक्रियाकरणे करचरणासनमुद्रारूपं, उक्तं च विशतिकार्य
गणवन्नस्थालंबण, रहिओ तं तंमि पवहिए। दुगमित्थकम्मयोगो, तहानियं नाणयोगो ओ ॥ १॥
एष पंचप्रकासे योगः, 'विरतेषु देशविरतेषु नियमात् भवति। योगपंचकं हि चापल्यवारणं, तेन योगवता भवितव्यं, 'परेषु' मागानुसारिप्रमुखेषु 'बीजमात्र' भवति, किंचिन्मात्रं भवति । उक्तं च-विंशतिकायां
देसे सो य तहा, नियमेण सो चरित्तिणो होइ । इयरस्स बीयमित्तं, इति चुअ केइ इच्छंति ॥ २ ॥२॥
__ अत्र योगोत्पत्तिहेतवः प्रोच्यतेकृपानिर्वेदसंवेग-प्रशमोत्पत्तिकारिणः। भेदा प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्धयः॥३॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
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व्या० - कृपानिर्वेद इति 'कृपा' अनुकंपा, दुःखितेषु दुःखमोचनलक्षणः आर्द्रतापरिणामः । 'निर्वेद:' भवोद्वेगः चतुर्गतिषु चारकवद्भासनं । संवेगः मोक्षाभिलाषः । 'प्रशमः' कषायाभावः । एते परिणामाः, योगो मोक्षोपायः, तस्योत्पत्तिकारिण: कारणशीलाः, एतादृग्परिणामपरिणतस्य संसारोद्विग्नस्य, शुद्धात्मस्वादेच्छकस्य, योगसाधना भवति । अत्र योगपंचके 'प्रत्येकं एकैकस्य चत्वारो भेदा भवति, ते च इमे - इच्छा १ प्रवृत्तिः २ स्थिरता ३ सिद्धिः ४ इत्येवं मेदा ज्ञेया । उक्तं च विंशतिकायां-
इक्किको य चउद्धा, इत्थं पुन तत्तणो मुणेयधो । इच्छा पवितिथिरसिद्धिमेयओ समयनीईए ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ ३ ॥ इच्छा तद्वत्कथाप्रीतिः, प्रवृत्तिः पालनं परम् । स्थैर्य बाधकभीहानिः सिद्धिरन्यार्थसाधनम् ॥४॥
व्या० - इच्छा तद्वदिति, 'इच्छा' साधकभावाभिलाषः, तत् योगपंचकं येषु विद्यते ते तद्वंतः श्रमणाः तेषां कथासु गुणकधनादिषु प्रीतिः इष्टता । उक्तं च हरिभद्रपूज्यैः- "तनत्तकहापीई सगयावि परिणामणी इच्छा" इति तस्य सम्यग्दर्शनादिगुणमवृद्धिहेतुभूतं क्रियाश्रुताभ्यासपालनं परंपरा उत्कृष्टा सा प्रवृत्तिः । उक्तं च "सवन्नुपामसारं, तप्पालणगा पवित्तीओ" || इति इत्येवं योगद्वयं बाह्यरूपत्वात् क्रियामुख्यत्वात् साध्यावलबिनां कारणरूपं । शेषाणां तु शुभबंधनिबंधनं स्थैर्य बायकाशुद्धाध्यवसाया अतिचाराः तेषां भीर्भयं तस्या हानिः अभावनिरतिचारगुणपालनारूपं यत्र क्षयोपशमोऽपि अतिगुणसाधनापरिणमनेन सहजभावत्वात् निर्दोषगुणसाधना भवति यत्र तब
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३८०
"योगाष्टकम्
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स्थैर्य। उक्तं च-"तह चेव पयपाहगचिंतारहिय थिरत्तणं ने । शुद्धानां अर्थानां परमात्मरूपाणां साधनं स्वरूपावलंबनं सिद्धिः । उक्तं च-सव्वं परमत्थसाहगं रूचं पुण होइ सिद्धत्ति । एवं समभेदं ज्ञेयम् ॥ ४॥ __ यावत् ध्यानैकत्वं न भवति तावत् न्यासमुद्रावर्णशुद्धिपूर्वक आवश्यकचैत्यवंदनप्रत्युपेक्षणादिकं उपयोगयोगचापल्यवारणार्थमवश्यं करणीयं, महद्धितकरं सर्वजीवानां, तेन स्थानवर्णक्रमेण तत्वप्राप्तिरिति । अर्थालम्बमयोश्चैत्य-चन्दनादौ विभावनम् । श्रेयसे योगिनः स्थान-वर्णयोर्यत्न एव च ॥ ५॥
व्या०-अर्थालंबनयोरिति 'अर्थों वाक्यस्य भावार्थः, 'आलंबनं' वाच्ये पदार्थे अर्हत्स्वरूपे उपयोगस्यैकत्वं, अर्थश्च आलंबनश्च अर्थालंबनौ, तयोः चैत्यवंदनादौ अर्हद्वंदनाधिकारे 'विभावनं स्मरणं करणीयं श्रेयसे कल्याणार्थ, च पुनः स्थानं वंदनककायोत्सर्गशरीरावस्थानं आसनमुद्रादि, वर्णः अक्षरादि, त्योः शुद्धौ यत्मः श्रेयसे कल्याणाय भवति । उक्तं चावश्यके-"जं. वा इदं वच्चामेलियं, हीणखरं, अचक्खरं, पयहीणं, विणायहीणां, जोमहीणं, घोसहीणं, सुदिन्नं, दुडुपडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' इत्यनेन द्रव्यक्षेत्रकालविशुद्धौ भावसाधनसिद्धिः तेन द्रव्यक्रिया हिता ॥५॥ आलम्बनमिह ज्ञेयं, द्विविधं रूप्यरूपि च । अरूपि गुणसायुज्य-योगोऽनालम्बनं परम् ॥६॥
व्या०-आलंबनमिति इह जैनमार्गे 'आलंबनं द्विविधं ज्ञेयं
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ज्ञानमंजरी टीका.
द्विप्रकार ज्ञेयं, एकं रूपि, अपरं अरूपि, तत्र रूप्यालंबनंजिनमुद्रादिकपिंडस्थपदस्थपर्यंतं, यावदर्हदवस्थालंबनं तावत्कारणावलंबनं शरीरातिशयोपेतं रूप्यवलंबनं, तत्र अन्नादिपरभावशरीरधनस्वजनावलंबी, परस्त्र परिणतचेतनविश्वैश्वर्याद्यर्थ तीर्थकराद्यवलंबनमपि भवहेतुः, तथैव यः स्वरूपानंदपिपासितः स्वरूपसाधना प्रथमकारणरूपं जिनेश्वरं वीतरागादिगुणसमूहैः अवलंबते, यावत् मुद्राद्यावलंबनी तावत् रूप्यवलंबनी, स एव अर्हत्सिद्धस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्राद्यनंतपर्यायविशुद्धशुद्धाध्यात्मधर्म अवलंबते, इति अरूप्यालंबनी, तत्र भाव्यते अनादितो जीवो मूर्तपुद्गलस्कंधावलंबपरिणतः कथं ? प्रथमत एवामूनिंदरूपं स्वरूपमवलंबते अतः अतिशयोपेतवीतरागमुद्रादिकं परं मूर्त चालंब्य विषयकषायवृद्धिकरं स्त्रीधनाद्यवलंबनं त्यजति, इत्येका परावृत्तिः, पुनः स एव अतिशयादिरूपमूर्तावलंबनीयः, अहं तु अमूर्तभावरसिकत्वेनोपयुज्यते, अद्यापि अर्हतः संबद्धं तथापि औदयिकं नालंबन, मम तु गुणावलंबिनी मूर्त्तान् भवान् न रसिकत्वेन गृह्णाति, सापेक्षः परत्वेन पश्यति इति द्वितीया परावृत्तिः । एवं अमूर्तात्मगुणरसिको भवति तेन परमेष्ठिस्वरूपकारणेनावधार्य स्वकीयासंख्यप्रदेशव्याप्यव्यापकभावावच्छिन्नद्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकानंतस्वभावममलामूर्त्तानंदमयं ध्येयत्वेनालंबते, इति किं तृतीया परावृत्तिः, इति साधनपद्धतिः सर्वेषां तत्स्वरूपसाधनं अरूपिगुणाः सिद्धमुणाः तेषां भावनं सायुज्यं तदात्मता, तया योगः, आत्मोपयोगयोजनं यद्यपि ईषदवलंबनं श्रुतादीनां, तथापि अनालंबनमेव यः उत्कृष्टो योगः, उक्तं च “पाठकः तत्राप्रतिष्ठितः खलु यतः प्रवृत्तश्चलत्यतस्तत्र सर्वोत्तमा भुजः तेनानालंबनोज्झितः ॥ ६॥
निरालंबनयोगेन धारावाही प्रशांतवाहिता नाम चित्तं तस्य
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'योगाष्टकम्
स्वरसन एव मनः सहजधारायां वर्तते, न प्रयासो भवति । उक्तं च विंशतिकायां
आलंबणं पि एयं, रूविमरूवि य इत्थपरमात्ति ।
तगुणपरिणइमित्तो, सुहुमो आलंबणो नाम ॥ १ ॥ ___ एकाग्रयोगस्यैवापरनाम अनालंबनयोग इति, एवं स्थानाद्याः पंच इच्छादेर्गुणिता विंशति (२० ) भवंति, ते च प्रत्येकमनुष्ठानचतुष्कयोजिता अशीति (८०) प्रकारा भवंति तत्स्वरूपनिरूपणायोपदिशतिप्रोतिर्भक्तिवचोऽसङ्गै, स्थानाद्यापि चतुर्विधम् । तस्मादयोगियोगाते-मोक्षयोगः क्रमाद्भवेत् ॥ ७॥ ___ व्या०-प्रीतिभक्तीति एते स्थानादयः, 'प्रीतिः' 'भक्तिः 'वचन' 'असंगः' इति भेदचतुष्टयेनाशीतिभेदा भवंति, तस्मात् योगात्कमेण अयोगिनामा योगः, तस्याप्तिः प्राप्तिः भवति, अयोगियोगं । शैलेशीकरणं, सकलयोगचापल्यरहितो योगंप्राप्नोति, तेन पुनः क्रमान्मोक्षः सर्वकर्माभावलक्षणः “आत्मनः तादात्म्यावस्थानं मोक्षः” एवं योगसंयोगः क्रमात् अनुक्रमेण भवति । ____ अथ-प्रीत्याद्यनुष्ठानस्वरूपं षोडशकतो लिख्यते--अस्य चानुष्ठानता सांसारिकपरिणतो, सा च परावृत्य तत्वसाधने करणीया । यत्रादरोऽस्ति परमः, प्रीतिः स्वहितोदयात् भवेत्कर्तुः । शेषत्यागेन करोति यत्तु तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ॥१॥ इति । प्रीतिलक्षणं । गौरवविशेषयोगाद् बुफिमतो यद्विशुफ़्तरयोगं । क्रियते तत्तुल्यमपि ज्ञेयं तद्भक्त्यनुष्ठानम् ॥ २ ॥ अत्यंतवल्लभा खल्लु पत्नी तद्वधिता च जननीति । तुल्यमपि कृतमनयोतिं स्यात्प्री
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री टीका.
- ३८३
MARAVADHAAR
तिभक्तिगतम् ॥ ३ ॥ इति भक्तिलक्षणं । वचनात्मिका प्रवृत्तिः सर्वज्ञौचित्ययोगतो या तु । वचनानुष्ठानमिदं चारित्रवतो नियोगेन ॥ ४ ॥ इति वचनलक्षणं । यत्त्वभ्यासातिशयात्सात्मीभूतमिव चेष्टते सद्भिः। तदसंगानुष्ठानं, भवति चैतन्न देवधियम् ॥५॥ चक्रप्रमणं दंडात्तदभावे चैव यत्परं भवति । वचनासंगानुष्ठानयोस्तु तद् ज्ञापकं ज्ञेयम् ॥ ६॥ अभ्युदये फले वाद्ये निःश्रेयससाधने चरमे । एतदनुष्ठानानां विज्ञेये महतायते यतः ॥७॥ इति एवं क्रमेण योगसाधनारतः सर्वयोगरोधं कृत्वा अयोगी भवति ॥ ७॥ स्थानाद्ययोगिनस्तीर्थोच्छेदाद्यालम्बनादपि। सूत्रदाने महादोष, इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ८॥ ___ व्या०-स्थानाद्ययोगिन इति स्थापनादिप्रवृत्तियोगरहितस्य सूत्रदानं महादोष इति आचार्या हरिभद्रादयः 'प्रचक्षते' कथयंति, कस्मात ? तीर्थीच्छेदाद्यालंबनात्, निरास्तिकस्य सूत्रदाने कदाचित् कुप्ररूपणाकरणेन तीर्थोच्छेदो भवति । उक्तं च विंशतिकायां
तित्थे सुच्छेदाइविलंबणजसएयएमेवा। सुत्तकिरीयाईनासो, एसो असमंजसविहाणो ॥१॥ सो एसवंक उचियनेयसमसमयमावियाणविय । सायंपि भावियव्वं, इह तित्थुच्छेयभीरुहिं ॥ २॥ मुत्तूण लोगसन्नं, उणयसाहूसमयसब्भावं । सम्मं परियहिव्वं, वृद्वेण मई निउणबुद्धीए ॥३॥
एवं प्रथम स्थानादिविशुकिं कृत्वा इच्छादिपरिणतः क्रमेण स्वरूपावलंबनादि गृहीत्वा प्रीत्याद्यनुष्ठानेन असंगानुष्ठाने गतः
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नियागाष्टकम्
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सर्वज्ञो भूत्वा अयोगीमूय सिद्धो भवति । अतः क्रमसमासाधना श्रेयस्करी ।
इति व्याख्यातं योगाष्टकम् ॥२७॥
अथ नियागाष्टकम् ॥ २८ ॥ 'नियागः कर्मदहनं तत्र 'नितरां' निश्चयेन 'यागः' यजनं नियागः । उक्तं च---"सुसंवुडा पंचहिं संवरहिं इह जीवियं अणवकंखमाणा वोसट्टकाया सुईचत्तदेहा महाजयं जयति जन्नसेह॥१॥के ते जोइ केव ते जोईठाणा का तेसु या किंचतेकारसंगं पहायते कयरा संति भिक्खू कयरेण होमेण हुणासिजोइं ॥२॥ तवो जोई जीवो जोइ ठाणंजोगासुआसरीरं करीसंगं कम्मपहा संजमजोगसंतिहोमहुणाभिइसिणं पसत्थं ॥ ३ ॥” उत्तराध्ययने नियागपहिवत्ते, श्रीआचासंगसूत्रे नियुक्तितः निक्षेपादिकं ज्ञेयं तत्स्वरूपं निवेदयतियः कर्म हुतवान् दीते, ब्रह्माग्नौ ध्यानध्यायया। स निश्चितेन यागेन, नियागप्रतिपत्तिमान ॥१॥
व्या०-यः कर्मेति यः ब्रह्माग्नौ आत्मस्वरूपैकत्वरूपाग्नौ ध्यानध्यायया ध्यानधनेन दीप्ते सति कर्म ज्ञानावरणादिकं 'हुतवान्' होमं कृतवान् स मुनिः 'निश्चितेन' आभ्यंतरेण यागेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैकत्ववीर्यतीक्ष्णत्वरूपेण युक्तः नियागप्रतिपत्तिमान् उच्यते ॥ १ ॥ पापध्वंसिनि निष्कामे, ज्ञानयज्ञे रतो भव।
द्यैः कर्मयज्ञैः किं ?, भूतिकामनयाविलैः॥२॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
3
व्या० - पापध्वंसिनीति - भो दक्ष । निष्कामे सर्वपरभावाभिलापरहिते 'पापध्वंसिनि' पापकर्मविनाशके आत्मस्वरूपे ज्ञानं स्वपरावयवभासकं तद्रूपे यज्ञे रतो भव तन्मयो भव । किं 'भूति - कामनया' इहलोकसुखेच्छया 'सावद्यैः पापसहितैः 'आविलैः ' म्लानैः यज्ञैः किं ? न किमपि न हिताय ते तत्करणं न युक्तं, आत्मस्वरूपो यागः तन्मयैकत्वपरिणतिः कर्माभावकरी तेन तत्र यतितव्यम् ॥ २ ॥ वेदोक्तत्वान्मनः शुद्ध्या, कर्मयज्ञोऽपि योगिनः । ब्रह्मयज्ञ इतीच्छंतः, श्येनयागं त्यजति किम् ? ॥३॥
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व्या० - वेदोक्तत्वादिति - वेदोक्तत्वात् मनः शुद्ध्या कर्मयज्ञोऽपि ब्रह्मयज्ञ इति इच्छंतः श्येनयागं किं त्यजति ? इति स्वमतकल्पनां कुर्वेति मूढाः ते निषेधनीयाः, नहि संसारकामनया हिंसा सुखकरी भवति, साध्यशुद्धिमंतरेण न प्रयासो हिताय, अतो नैव कर्तव्यं इति ॥ ३ ॥ ब्रह्मयज्ञः परं कर्म, गृहस्थस्याधिकारिणः । पूजादि वीतरागस्य, ज्ञानमेव तु योगिनः ॥ ४ ॥
·
व्या० - ब्रह्मयज्ञ इति - 'गृहस्थस्य' सावद्यप्रवृत्तस्य 'अधिकारिणः' योग्यस्य न्यायोपार्जितादिवित्तवतः वीतरागस्य पूजादिकर्मकरणं परं उत्कृष्टं ब्रह्मयज्ञ इति ज्ञेयं, संवराभावे आस्रवाणां परावृत्तिः प्रशस्तकरणं युक्तं । उक्तं च-
३८५.
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अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणे, दव्वथये कूवदितो ॥ १ ॥
इति रागपापस्थानस्य प्रशस्तताकरणोपदेशः । आगमे सर्वा
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३८६
नियागाष्टकम्
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सवाणां मशस्ता साधने गृहीता, तथा च मुनिविनये शासनविनये हर्षादिजीवघातोऽपि न वधाय । तथा प्रज्ञापनायांभाषाचतुष्टयमपि मुनीनां, इत्यादिकं, ततः श्रावकाणां तु हिंसादिसर्वपरवृत्तिगुणिभक्तिरूपा हिता, तु पुनः योगिनः ज्ञानं ज्ञानरमणमेव हितं, नहि मुनि यत्तिरतः ज्ञाने रममाणस्तत्वं साधयति ॥४॥ भिन्नोद्देशेन विहितं, कर्म कर्मक्षयाऽक्षमम् । क्लप्तभिन्नाधिकारं च, पुत्रेट्यादिवदिष्यताम् ॥५॥ ___ व्या०-मिन्नोद्देशेनेति-भिन्नोद्देशेन परमात्मसाधनोदेशमंतरेण 'मिनेन' पुण्यादिवांछोद्देशेन 'विहितं' कृतं 'कर्म' पूजादिकार्य कर्मक्षयाय अक्षमं असमर्थ भवति, नहि मिनसाध्येन कृतं दयादानादिकं धर्मसाध्यशून्यता सत्प्रवृत्तिः बालक्रीडातुल्या कल्पितमिन्नाधिकारं कर्म कार्य पुढेष्टयादिवत् इष्यतां इति, यथा जलार्थिनी वनिता कूपोपकंठे जलार्थ वटे च रज्जुबंधं कुर्वती परपुरुषरूपव्याकुलितचित्ता स्वपुः एव पाशबंधं कृतवती दुःखभाजनं भवति, एवं साध्यच्युतानां क्रिया दुःखहेतुरूपा उक्ता ॥५॥ ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्म, यज्ञान्तर्भावसाधनम् । ब्रह्मानौ कर्मणो युक्तं, स्वकृतत्वस्मये हुते ॥ ६ ॥ ___व्या०-ब्रह्मार्पणमिति-भो विद्वन् । यदि त्वं ब्रह्मार्पणं सर्व स्वकृतं ब्रह्मणि परमेश्वरे यदर्पणं प्रयच्छनं तत्रैवारोपणं एतत्सर्व परमेश्वरकृतं जातं मत्कृतं न किंचनेति धीरिति यावत् । तत् ब्रह्मयज्ञान्तर्भावसाधनं ब्रह्मयज्ञो ज्ञानयज्ञस्तस्य योऽन्तर्भाव आत्मीयभावफलप्राप्तिस्वीकारस्तस्य साधनंतन्निष्पादकत्वकारणं मन्यसे,
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Muna
AnnanAmAAAAAAAAAA
ज्ञानमंजरी टीका.
wwer mirmirmwarima यद्वा तत्फलमीच्छसि । तर्हि त्वं तत्कृते स्वकृतत्वस्याये स्वस्य जीवस्य यत्कृतं निर्मितं कर्म तद्भावस्तत्वं तद्पो यः स्मयोऽहंकारस्तस्मिन् निमित्तभूते । हुते. हुतमग्नौ प्रक्षेषणं मयाः निर्मितमिति अहंकारहोमनिमित्त इति यावत् । कर्मणो ज्ञानावरुणादिकस्य ब्रह्मांझौ. ब्रह्म शुद्धतीवोपयोगिज्ञानं निराशंसतपश्च तद्रषो योऽग्निरूच गच्छतीति व्युत्पत्तिमत्तेजस्तस्मिन् : आहुतिकरणं युक्तं घटमानं, न तु पश्चादेरित्यर्थः ॥ ६ ॥ . अथ श्लोकद्वयेन स्वरूपफलदर्शनपूर्वकमुपसंहरतिब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो, ब्रह्मदृग्ब्रह्मसाधनः। ब्रह्मणाजुह्वदब्रह्म, ब्रह्मणि ब्रह्मगतिमान् ॥ ७ ॥ ___व्या०-ब्रह्मण्यर्पणमपीति 'ब्रह्मणि आत्मनि अर्पितसर्वस्वः, आर्पितं स्थापितं सर्वस्वं सर्वात्मपरिणमनरूपं इत्यनेन ज्ञानवीर्यलाभभोगादयः स्वक्षयोपशमीभूता · भावे आत्मनि एवार्पिताः स्थापिता येन सः । तथा 'ब्रह्म' आत्मज्ञान का 'हम्' दृष्टिदर्शनं श्रद्धानं ब्रह्मणि साधनं यस्य स ब्रह्मसाधनः, अथवा-- 'ब्रह्म' आत्मा एव साधने यस्य स एवंविधः साधकजीवः ‘ब्रह्मणि' साधकावस्थापरिणतस्वात्मनि आधारभूते ब्रह्मणात्मज्ञानवीर्यायां, अब्रह्म अज्ञानं पुद्गलकम चात्मनः मिन्नं अजुहवत् भस्मीचकार, कथंभूतः साधकपुरुषः ? 'ब्रह्म' ब्रह्मचर्य स्वरूपरमणरूपं तस्य गुप्तिमान् तद्गुप्तियुक्तः इत्यनेन चात्मा कर्ता आत्मस्वरूपेण करणमूतेन आत्मस्वरूपरोधकं ज्ञानावरणादि: कर्म आत्मनि:स्थितं निवारयति ॥७॥ ब्रह्माध्ययननिष्ठावान् , परब्रह्मसमाहितः। ब्राह्मणो लिप्यते नापैर्नियागप्रतिपत्तिमान् ॥८॥
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भावपूजाटकम्
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व्या-ब्रह्माध्ययनेति ब्राह्मणो मुनिः श्रमणो द्रव्यभावब्रह्मचर्ये रतः ब्राह्मणः अवैः पापैः न लिप्यते न लेपवान् भवति, कथंभूतः ब्राह्मणः ? ब्रह्माध्ययनं आचारांगप्रथमश्रुतस्कंधनवमाध्ययनं तस्मिन् उक्ता निष्टा मर्यादा तद्वान्, परिणतिपरिणतः पुनः परब्रह्म शुद्धात्मस्वरूपं, तेन समाहितः समाधिमयः, पुनः नियागः कर्मक्षपणं, तस्य प्रतिपत्तिः तद्रूपता तद्वान् परिणतः, मिक्षुः पापैर्न लिप्यते, नावगुंठनावान् भवति, अत एव स्वरूपभासनरमणपरिणतः अनादिकर्मपटलक्षयं कृत्वा सिद्धबुद्धः परमानंदमयो भवति, अतो भावनियागः कर्मदहनरूपः करणीय इति, तत्त्वम् ॥८॥
इति व्याख्यातं नियागाष्टकम् ॥ २८ ॥
अथ भावपूजाष्टकम् ॥ २९ ॥ अथ द्रव्यपूजोपस्काररूपं भावपूजास्वरूपभावनोपचाररूपं भावपूजाष्टकं वितन्यते । तत्र गृहस्थः अनेकसंसारभावत्रस्तः कदाचिद् निर्विकारानंदरूपां जिनमुद्रां विलोक्य प्राप्तवैराग्यः भवोद्विग्नः सर्वासंयमत्यागाभिलाषी परमसंवररूपं परमेश्वरं सद्भक्त्या पूजयति, स्वयोगसपरिग्रहादिकं सर्वथा त्यक्तुमसमर्थः सर्वमपि तीर्थकरभक्तियुक्तं करोति, ततश्च आत्मा स्वगुणपरिणतः स्वरूपसाधनारूपां भावपूजां करोति । तत्स्वरूपं नामतः पूजा इति कथनं । स्थापनातः तल्लिंगाचरणं । द्रव्यतः चंदनादिमिः, शून्योपयोगेन च । भावतो गुणैकत्वरूपा सा व्याख्यायते-- दयाम्भसा कृतस्नानः, सन्तोषशुभवस्त्रभृत् । विवेकतिलकम्राजी, भावना पावनाशयः ॥ १॥
.२००
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ज्ञानमंजरी टीका.
भक्तिश्रद्धानघुसृणोन्मिश्रकश्मीरजद्रवैः। नवब्रह्मगतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ॥ २ ॥
व्या०-दयांभसा इति भक्तिश्रद्धानेति-श्लोकद्वयस्य युग्मतो व्याख्यानं दर्शयति । हे उत्तम ! एवंविधं 'शुझात्मानं' अनंतज्ञानादिपर्यायं आत्मरूपं देवं, नव इति नवप्रकारब्रह्मरूपं गतः अर्चय पूजां कुरु, कीदृशो भूत्वा ? इत्याह-'दया' द्रव्यभावस्वपरमाणरक्षणारूपा सा एव 'अंभः' जलं पानीयं तेन कृतं स्नानं पाविश्यं येन सः । संतोषः पुद्गलभावपिपासा शोकाभावरूपः स एव शुभानि वस्त्राणि तेषां 'मृत्' धारकः । विवेकः स्वपरविभजनरूपं ज्ञानं तदेव तिलकं तेन माजी शोभमानः । पुनः कथंभूतः ? 'भावना' अहंद्गुणैकत्वरूपा तया 'पावनः' पवित्रः "आशयः' अमिप्रायः यस्य स पुनः ‘भक्ति' आराध्यता 'श्रमा' प्रीतिः 'एसअटे परम?' एवंरूपा तद्रपेण घुसणेन उन्मिभं कश्मीरजं तस्य द्रवाः तैः शुद्धात्मा परमेश्वरः स्वकीयात्मापि दीव्यति स्वरूपे इति देवस्तं अर्चय पूजय तद्भक्तिरतो भव इति ॥ १ ॥ २ ॥ - अथ अनुक्रमेण पूजाप्रकारानाहक्षमापुष्पसजं धर्म-युग्मक्षौमद्वयं तथा । ध्यानाभरणसारं च, तदङ्गे विनिवेशय ॥३॥
व्या०-क्षमापुष्पस्रजमिति-हे भव्य ! तदंगे आत्मस्वरूपरूपे अंगे 'क्षमा' क्रोधोपशमनवचनं धर्मक्षमारूपां 'स्रज' पुष्पमालां निवेशय' स्थापय । तथा तथैव 'धर्मयुग्मं' श्रावकसाघुरूपं श्रुतचारित्ररूपं वा क्षौमवस्त्रद्वयं निवेशय । च पुनः
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'ध्याने' धर्मशुक्ले. ते एव आभरणस्य सारं प्रधानं परमात्राणि निवेशय । इत्येवं गुणपरिणमनरूपां पूजां कुरु ॥ ३ ॥ मदस्थानभिदात्यागैर्लिखाग्रे चाष्टमङ्गलम् । खानानो शुभसङ्कल्प-काकतुण्डं च धूपब ॥ ४ ॥ . व्या०-मदस्थानेति-'मदः' मानोन्मादः तस्य स्थानानि तानि एव मिदाः तापां 'त्यागैः, वर्जनैः अष्टमंगलं अये लिखच ज्ञानादौ ‘शुभसंकल्पः शुभरागपरिणामः तद्रूपं 'काकतुण्डं' कृष्णागरुं धूपयः । इत्यनेन रागाध्यवसायाः शुभाः पुण्यहेतवः सिकिसाधने त्याज्या एव अतो ज्ञानबलेन तत्त्यागो भवति ॥ ४ ॥ प्राग्धर्मलवणोत्तारं, धर्मसन्न्यासवहिना । कुर्वन् पूरय सामर्थ्य-राजन्नीराजनाविधिम् ॥ ५॥
व्यो -प्राग्धर्मेति अत्रात्मस्वरूपार्चने 'धर्मसन्न्यासवह्निना' वर्नः स्वरूपसत्ता सहजपारिणामिकलक्षणः चंदनगंयतुल्यः तस्य सम्यग् न्यासः स्थापनं स एव वह्निः तेन प्राक् पूर्वसाधनरूपः धर्मः सविकल्पभावनारूपः तदेव लवणं तस्योत्तारं निवारणं निर्विकल्पसमाधौ साधकस्यापि संविकल्पधर्मस्य त्याग एव भवति, एवं भावरूपं अपवादसाधनरूपलवणोत्तारं कुर्वन् सामर्थ्यराजनीराजनांविधि पूर्वसामर्थ्ययोगस्वरूपा राजंती शोभमाना नीराजना आरात्रिका तस्याः विधिः तं पूरय । सामर्थ्ययोगस्वरूपं च यत्र कर्मबंधहेतुषु प्रवर्त्तमानवीर्यस्य न ताक् प्रवृत्तिः स्वात्मधर्मसाधमानुभवैकत्वे प्रवर्त्तमानः निष्प्रयासत्वेन प्रवर्तते. स योगः समर्थ उच्यते ॥५॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
marrioran
स्फुरन्मङ्गलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः। योगनृत्यपरस्तूर्य-त्रिकसंयमवान् भव ॥६॥
व्या०-स्फुरन्मङ्गलेति च पुनः 'स्फुरंत' देदीप्यमानं सर्वद्रव्यभावोपद्रववियुतं मंगलदीपं भावप्रकाशं 'अनुभव' स्पर्शज्ञानं आत्मस्वभावास्वादनयुक्तं ज्ञानं 'पुरः' अग्रे स्थापय, योगाः मनोवाक्कायरूपाः तेषां साधनप्रवर्त्तनरूपं "नृत्यं तांडवं तत्र 'तत्परः' सोद्यमः सन् परमाध्यात्मधारणाध्यानसमाधिरूपसाधनयोग्ययोगपरिणमनरूपतूर्यादिपूजात्रयमयो भव, इत्यनेन आभ्यंतरपूजया तत्त्वानंदमयश्चैतन्यलक्षणं स्वात्मानं तद्रूपं कुरु ॥ ६ ॥ उल्लसन्मनसः सत्य-घण्टा वादयतस्तव। भावपूजारतस्येत्थं, करकोडे महोदयः ॥७॥ ___ व्या०-उल्लसन्मनस इति इत्थं भावपूजारतस्य तव 'महोदयः' मोशः 'करक्रोडे' हस्ततलेऽस्ति किं कुर्वतः १ उल्लसम्मनसः भावोल्लासयुक्तचित्तस्य सत्यपर्यायरूपां घंटां वादयतः शब्दं कुर्वतः इत्यनेन सहर्षसत्यमनउल्लासरूपां घंटां नादयतः सतः पूर्वोक्तपूजाकरणेन सर्वस्वशक्तिप्रादुर्भावरूपो मोक्षो भवति ॥ ७॥ द्रव्यप्रजोचिता भेदो-पासना गहमेधिनाम। भावपूजा तु साधूना-मभेदोपासनात्मिका ॥८॥
व्या-द्रव्यपूजेति 'गृहमेधिनां' गृहस्थानां "भेदोपासनारूपा" आत्मनः सकाशात् अर्हन् परमेश्वरः भिन्नः निष्पलानदचिद्विलासी तस्योपासना सेवना निमित्तालंबनरूपा द्रव्यपूजा 'उचिता' योग्या तु पुनः साधूनां अभेदोपासनात्मिका परमा
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ध्यानाष्टकम्.
त्मना स्वात्माभेदरूपा भावपूजा उचिता । यद्यपि सविकल्पकभावपूजा गुणस्मरणबहुमानोपयोगरूपा भावपूजा गृहिणां भवति, तथापि निर्विकल्पोपयोगस्वरूपैकत्वरूपा भावपूजा निर्ग्रथानामेव, एवं आस्रवकषाय योगचापल्यपरावृत्तिरूपद्रव्यपूजाभ्यासेन अर्हद्गुपास्वात्मधर्मैकत्वरूपभावपूजावान् भवति तेन च तन्मयतां प्राप्य सिद्धो भवति, इत्येव साधनेन साध्योपयोगमुक्तेन सिद्धिः निष्कर्मा भवति ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं भावपूजाष्टकम् ॥ २९ ॥
अथ ध्यानाष्टकम् ॥ ३० ॥
अथ ध्यानाष्टकं विस्तार्यते । ध्यानलक्षणं निर्युक्तौ-अंतो मुद्दत्तमित्तं, चित्तावत्थाण एगवत्थुमि ।
उत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ १ ॥ नामादिकं स्वतो वाच्यं तत्र ध्यानस्वरूपं निरूपयन्नाहध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्र्यं यस्यैकतां गतम् । मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःखं न विद्यते ॥ १ ॥
व्या० - ध्याता ध्येयमिति यस्य पुरुषस्य ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं एतत् त्रयं यस्य जीवस्य 'एकता' एकभावं गतं तस्य मुनेः 'अनन्यचित्तस्य' तद्रूपवेतनामयस्य अर्हत्स्वरूपात्मस्वरूपतुल्योपयोगगृहीतस्य 'दुःखं' स्वगुणावरणरूपं पुद्गलसंनिकर्षजन्यं न विद्यते नास्तीत्यर्थः । उक्तं च प्रवचनसारे
जो जाणई अरिहंते, दत्तगुणत्तपज्जवत्तेहिं । सो जाणइ अप्पाणं, मोहो खलु जाइ तस्स लयं ॥ १ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
३९३
ध्याता आत्मा ध्येयं तत्स्वरूपं ध्यानं तत्रैकता तत्र अभेदता एतत् त्रयं एकत्वं प्राप्तं मोहक्षयाय भवति ॥ १ ॥ ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्त्तितः । ध्यानं चैकाग्रसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥ २ ॥ व्या०-ध्यातेति । ध्यातृस्वरूपं उक्तं श्रीहेमचन्द्रसूरि पूज्यै:
अमुञ्चन् प्राणनाशेऽपि, संयमैकधुरीणताम् । परमात्मवत्पश्यन् स्वं स्वस्वरूपापरिच्युतम् । । १ . उपतापमसंप्राप्तः, शीतवातातपादिभिः । पिपासुरमराकार - योगामृतरसायनम् ॥ २ ॥ रागादिमिरनाक्रान्तं क्रोधादिभिरदूषितम् । . आत्मारामं मनः कुर्वन्, निर्लेपः सर्वकर्मसु ॥ ३ ॥ विरतः कर्मरागेभ्यः, स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगाद् हृदि निर्मग्नः, सर्वत्र समतां श्रयन् ॥ ४ ॥ नरेन्द्रे वा दरिद्रे वा, तुल्मकल्याणकामनः । अमात्रकरुणापात्रं, भवसौख्यपराङ्मुखः || ५ | सुमेरुरिव निष्कम्पः, शशीवानन्ददायकः । समीर इव निःसङ्गः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥ ६॥
इति ध्यातृस्वरूपं । एवंविधः ध्याता ' अंतरात्मा ' साध कात्मा, तु पुनः 'ध्येयः' ध्यातुं योग्यः परमात्मा क्षीणघातिकम अर्हन्, नष्टाष्टकर्मा सिद्धो वा सुवृत्या सत्तागतः सिद्धात्मा ध्येय प्रकीर्त्तितः च पुनः एकाग्रसंवित्तिः ऐकाग्र्यं तन्मयत्वेन परमा त्मस्वरूपे अनंतपर्यायात्मके एकाग्रत्वेन 'संवित्तिः' ज्ञानं ध्यान उच्यते इत्यनेन अर्हदादिशुद्धगुणज्ञानसंवेदनतन्मयता ध्यानं चेत
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ध्यानाष्टकम् wwmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww
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मावीर्यादीनां सर्वक्षयोपशमानां स्वरूपोपयोगलीनत्वं ध्यानंतत्र ध्यातुः ध्येये तदेकाग्रतारूपे ध्याने समापत्तिः निर्विकल्पता तारतम्यरहिता चित्परिणतिः एकता ज्ञेया ॥२॥
तत्र दृष्टांतेन कथयतिमणौ बिम्बप्रतिच्छाया, समापत्तिः परात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले ॥३॥
व्या०-मणौ बिबेति । यथा 'मणौ रत्ने बिंबस्य प्रतिच्छाया तथा 'अंतरात्मनि' स्वस्वरूपे 'परात्मनः' निर्मलात्मनः "ध्यानात् समापत्तिः सिद्धात्मनः स्वात्मत्वैकतारूपा भवेत्, कथंमूते अंतरात्मनि ? 'निर्मले' कषायविकल्पमलरहिते पुनः किंमूते ? 'क्षीणवृत्तौ ' क्षीणा वृत्तिः पराजीविका यस्य स क्षीणवृत्तिः तस्मिन् एव समापचौ ध्यानसिधिः भवति इत्थं पूर्वोक्तप्रकारेण अन्यत्रोक्तं
मणेरिवामिजातस्य, क्षीणवृत्तेरसंशयम् ।
तात्स्थ्यात्तदंजनत्वाच्च, समापत्तिः प्रकीर्तिता ॥ १॥ . ___ अंतरात्मनि परमात्मनः अभेदारोपः ध्यानफलं तच्च संसगारोपतो भवति, संसर्गश्चात्र निष्पन्नानंततात्त्विकसिझात्मनामुपयोगः तच्च चलचित्तानामिंद्रियरोधमंतरेण न भवति, इंद्रियरोधश्च जिनप्रतिमादिकारणमंतरेण न जायते; अतः स्थापना तखो'पकारकारिका ॥३॥
आपत्तिश्च ततः पुण्य-तीर्थकृत्कर्मबन्धतः । सजावाभिमुखत्वेन, सम्पत्तिश्च क्रमाद्भवेत् ॥ ४ ॥
व्या०-'आपत्तिश्चेति' च पुनः 'आपत्तिः' जिनभक्तिस्तन्म
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ज्ञानमंजरी टीका.
मत्वं ततः पश्चात् 'पुण्यं०' पुण्यप्रकृतिरूपं तीर्थकृत विश्वोपकारि संघस्थापकातिशयरूपं नामकर्म तस्य बंधतः तद्भावाभिमुखत्वेन तदुपयोगेन क्रमात् संपत्तिः भवेत्, परमैश्वर्य भवेत् । इदं च निरनुबंधरूपं फलं दर्शितम् ॥ ४ ॥
___अथ ध्यानशून्यत्वेन सफलं नेति दर्शयतिइत्थं ध्यानफलायुक्तं, विंशतिस्थानकायपि । कष्टमात्रं त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवेत् ॥ ५॥
व्या०-इत्थमिति । इत्थं पूर्वोक्तप्रकारेण 'ध्यानफलात्' त्रिविधध्यानोपयोगात् विंशतिस्थानकाद्यपि विंशतिस्थानप्रमुखं गुणिबहुमानेन युक्तं कर्तुं उचितं, अभव्यानां तु अन्यत् सम्यग्दर्शनादिगुणिबहुमानध्यानोपयोगशून्यं विंशतिस्थानादि तपोव्यूह 'कष्टमात्र कायक्लेशरूपं 'भवे' संसारे नो दुर्लभं बाह्याचरणं जैनोक्तः मपि बहुशः अभव्यैः कृतपूर्वमिति ॥ ५॥
अथ ध्यानकारकस्य स्वरूपं निदर्शयन् श्लोकत्रयमाहजितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः। सुखासनस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥६॥ रुद्धबाष्पमनोवृत्तेर्धारणाधारया रयात् । प्रसन्नास्याप्रमत्तस्य, चिदानन्दसुधालिहः ॥७॥ साम्राज्यमप्रतिद्वंद्वमन्तरेव वितन्वतः । ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि ॥८॥
व्या०-जितेंद्रियेति, रुद्धबाष्पेति, साम्राज्यमिति । एवंविधस्य घ्यानिनः 'हि' इति निश्चितं 'सदेवमनुजेऽपि लोके' ससुरनरे
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३९६
ध्यानाष्टकम्
ath तिर्यग्नारकाग्रहणं तु तयोर्दुर्गतित्वात् इत्यनेन त्रिभुवने उपमा सादृश्यन, तत्वज्ञानानुभवलीनस्य सहजानन्दविलासकस्य तुलना केन क्रियते ? इति । किं कुर्वतस्तस्य अंतरे च आत्मांतरमध्ये एव अप्रतिद्वंद्वं बाह्याभ्यंतरविपक्षरहितं सर्वपरभावागम्यं साम्राज्यं स्वगुणसंपत् स्वभावपरिवारोपेतं राज्यं स्वाधीनं वितन्वतः विस्तारयतः स्वगुणानंदासंख्येयप्रदेशनिर्व्याघातं स्वराज्यमनुभवतः । अतः सर्वेऽपि षष्ठयंत्या ध्यानिनो विशेषणे संयोज्याः । कथंभूतस्य ध्यानिनः ? 'जितेंद्रियस्य' जितानि स्वरूपोपयोगे क्लृप्तानि पौद्गलिकवर्णादिष्वपरिणमनात् जितानि इंद्रियाणि येन सं तस्य, 'धीरस्य' स्ववीर्यसामर्थ्येन परीषहोपसर्गेऽकंप्रस्य, स्वरूपनिष्ठस्य, पुनः 'प्रशांतस्य' कषायनोकषायोद्रेकरहितस्य धीरः शांत एव आत्मानमास्वादयति, पुनः 'स्थिरात्मनः स्थिरः आत्मस्वरूपरमणे आत्मा यस्य स तस्य सुखासनस्य साधनपरिणतौ सुखमय आत्मा यस्य स तस्य पुनः नासाग्रे चापल्यरोधनाय 'न्यस्ते' स्थापिते नेत्रे येन स तस्य योगिनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयीपरिणतस्य, रुद्धा बाचेंद्रियानुसारिणी मनसः वृत्तिन स तस्य, इंद्रियानुयायिमनोवृत्तिनिवृत्तस्य, कस्माद् ? ध्येये चित्तस्य स्थिरबंधनं धारणा तस्या धारा तया धारणाधारया रयात् रुद्धमनसः तत्त्वज्ञानं सुनिश्चितं भवति, पुनः 'प्रसन्नस्य' कालुध्यरहितस्य 'अप्रमत्तस्य' अज्ञानाद्यष्टप्रमादनिवृत्तस्य पुनः 'चिदानंदसुधालिहः' चित् ज्ञानं तस्यानंदः स एव सुधा अमृतं तां लिह्यतीति तस्य लिहः, ज्ञानानंदास्वादकस्य, एतादृशस्य ध्यानिनः आत्मिक साम्राज्यानुभवं विस्तारयतः तुल्यत्वं केन भवति ? न केनापि । अतः सर्वपरभावपरित्यागरूपावलोकनतत्त्वैकत्वध्यानामृतस्वभोग्यभोक्तुः परमसाम्राज्यं । अतः सर्वप्रकारेण तदेव कर
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ज्ञानमंजरी टीका.
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यं । यदर्थं रचयंति यमनियमप्रचारान्नू, संकोचयन्ति शरीरं आसनमुद्रादिभिः साधयंति रेचकपूरककुम्भकप्राणायामान्, वसंति निर्जने वने, त्यजंति सर्वेद्रियविषयान्, तत्साम्यसुखमूलं आत्मैकत्वोपयोगं साध्यं स्वहितार्थिभिः ॥ ६ ॥ ७ ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं ध्यानाष्टकम् ॥ ३० ॥ अथ तपोऽष्टकम् ॥ ३१ ॥
अथ तपोऽष्टकं वितन्यते । तत्र पौगलिकसुखाभिलाषरंकाणां यत्कष्टक्षमणं, अथवा लोकसंज्ञाभीतानां पराधीनानां दीनतया आहारत्यागरूपं न तपः, आस्रवमूलत्वेन कषायोदयाश्रितत्वात् कर्मबंधकत्वाच्च । पूर्वीतरायोदयासातावेदनीयविपाक एव श्रीप्रज्ञापनावृत्तौ निरूपित एव, आचारांगचूर्णौ चापि " अंगत्थमुत्तं समविविवागं" इति वचनात्, अतोऽमिनवेंद्रियसुखाभिलाषरहितस्य निर्मलात्मद्रव्यसाधकस्य कष्टाचरणं तप इति, अत्र पंचवस्तुके " उपवासादिषु असातानिर्जरेति भोजने सातानिर्जरा साम्ये उपवासादिकरणं किमर्थमिति ? " तत्रोच्यते भोजनादिषु षट्कायपलिमंथः उपवासे च तदभावात् अशुभंनवकर्मबंधाभावे संवरपूर्वक सकामनिर्जरामूलत्वात हितं तथा चास्यात्मनः साताविपाके सरागहेतुत्वेन इष्टसंयोगकता अन्नादिसहजपरिणमनात् आतापनादिषु कर्मविपाकोपयोगत्वे तया परिणमनात् असंगताकारणत्याग एव साधनमूलं च भरतादयः निदर्शनं तच्चाल्पकालसावनासिद्धिवतां, नहि चिरकालसाधनावतां सातादि । शुभसंनिकर्षे अव्यापकत्वपरिणामः । उक्तं च विशेषावश्यके —— “रतिक्षमत्वात्कल्पानां तेनातापनादिकरणमुचितं मुनीनां" । निक्षेप
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तपोऽष्टकम् -
नयानां व्याख्या तु - नामतपः स्थापनातपः सुगमं, द्रव्यतपः आहारत्यागादि, भावतपः आत्मस्वरूपैकाग्रत्वरूपं, अत्र द्रव्यपूर्वकभावतपोग्रहणमिति ।
ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात्तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥ १ ॥
व्या० - ज्ञानमेवेति । बुधाः पंडिताः 'कर्मणां ' आत्मप्रदेशसंश्लिटानां तापनात तीक्ष्णं ज्ञानं एव तपः प्राहुः, तत्तपः आभ्यंतरं अंतरंगं प्रायश्चित्तादिकं इष्टं बाह्यं अनशनादिकं तदुपवृंहकं आभ्यंतरतपोवृद्धिहेतु, द्रव्यनिक्षेपस्य कारणरूपत्वात्, द्रव्यतपसोऽपि भावतपसः कारणत्वमेव तेन इष्टं ॥ १ ॥ आनुश्रोतसिकी वृत्ति - बलानां सुखशीलता । प्रातिश्रोतसिकी वृत्तिर्ज्ञानिनां परमं तपः ॥ २ ॥
व्या० - आनुश्रोतसिकीति — संसारप्रवाहपद्धतिः अनादि प्रवृत्तिः आनुश्रोतसिकी वृत्तिः बालानां मूढानां 'सुखशीलता' इंद्रियसुखमग्नता, सुखाभिलाषता 'प्रातिश्रोतसिकी' प्रवाहसंभुखता, संसारसंमुखत्वमपहाय संसारपराङ्मुखी प्रवृत्तिः तदेव परमं तपः ज्ञानिनामुक्तमिति, आत्मधर्मानुगसंसारप्रतिकूलप्रवृत्तिस्तप उच्यते, इत्यनेन प्रायश्चित्तादिभावतपः परिणामः स्वरूपतन्मयत्वं तत्तपसा एव सकलकर्मक्षयः ॥ २ ॥ धनार्थिनां यथा नास्ति, शीततापादि दुस्सहम् । तथा भवविरक्तानां तत्त्वज्ञानार्थिनामपि ॥ ३ ॥
व्या० - धनार्थिनामिति । यथा धनार्थिनां शीततापादि दुस्सहं नास्ति, धनोपार्जनकुशलाः शीतादिकं सर्वमपि क्षमंते, तथा
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ज्ञानमंजरी टीका.
तत्त्वज्ञानार्थिनां भवविरक्तानां अनशनादिकं तपो न दुस्सहं, कार्यार्थी कारणे न प्रमाद्यति, अतः परमानंदकार्यकर्ता अनशनादितपःकष्टानुष्ठाने न दुस्सहत्वं मन्यते ॥ ३ ॥ सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः। ज्ञानिनां नित्यमानन्द-वृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥४॥ ___ व्या०-सदुपायेति । 'तपस्विनां तीव्रतपोमग्नानां साधिकषण्मासांतं सर्वाहारपरिहारातापनाकायोत्सर्गादिजिनकल्पपरिहारविशुद्धि 'मुनीनां' ज्ञानिनां सूक्ष्मानंतस्वपरपर्यायविवेकमग्नीकृतचैतन्यानां 'तपसि' परीषहादौ वननदीगह्वरवासेऽपि आनंदवृद्धिरेव । तथाहिकश्चिदधमर्णः प्राप्तद्रव्योपचयः उत्तमर्णाय द्रविणं ददत् आत्मानं धन्यमेव मन्यते, अथवा लब्धिसिद्धयर्थी पूर्वसेवायां उदाहुः अधोमुखादिमहाकष्टानुष्ठानमपि तत्सिद्धिसाध्यामिलाषी यथात्यंतकष्टं चेष्टते, तथा हर्षमेति एवं परमानंदाव्ययशुद्धात्मसिद्धिसाधनार्थी तद्विघातककर्मक्षयाय तपःकष्टादिषु आत्मानमानंदयति, कुतः ? इत्याह-उपेयमधुरत्वतः, 'उपेयस्य मोक्षस्य निर्मलाव्ययपदस्य यन्मधुरत्वं माधुर्य तस्मात्, सिद्धिमाधुर्यरतस्य तत्साधनोपायभूतं निष्परिग्रहत्वादि सर्व हितं जानाति, कथंभूतानां तपस्विनां ? 'सदुपायप्रवृत्तानां, सन् शोभनः उपायः साधनं संवरनिर्जरारूपं तत्र 'प्रवृत्तानां' उद्यतानां, इत्यनेन स्वधर्मसाधने साधूनामानंदः न दुःखं, यस्य साधने कष्टत्वबुद्धिः स न साधकः । उक्तं च षोडशके ॥ ४ ॥ इत्थं च दुःखरूपत्वात्,तपो व्यर्थमितीच्छताम्। बौद्धानां निहता बुद्धि-बौद्धानन्दापरिक्षयात् ॥५॥
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तपोऽष्टकम् .
व्या० - इत्थं चेति । इत्थं यत्तपः कष्टं इति भासनपूर्वकं तत्तपः 'व्यर्थ' निष्फलं, कस्मात् ? दुःखरूपत्वात् तपःकरणे एव दुःखोद्वेगौ यत्र नादरः स कथं हिताय भवति । तथा 'इच्छतां ' इति परभावसुखं इच्छतां वांछतां बौद्धानां बुद्धिः 'निहता' निश्चवेन हता, कस्मात् "बौद्धानंद: " बौद्धं ज्ञानं तस्य आनंदः तस्य परिक्षयः तस्मात् ज्ञानानंदधाराक्षयात् कष्टरूपं तपः निष्फलम् ॥ ५ ॥ यत्र ब्रह्म जिनाच च, कषायाणां तथा हृतिः । सानुबन्धा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥ ६ ॥
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व्या० - यत्र ब्रह्मेति, यत्र यस्मिन् तपसि 'ब्रह्म' 'मैथुनत्यागः विषयानभिष्वंगः अस्ति । यत्र जिनानां 'पूजा' तत्त्वभक्तिर्वर्त्तते पुनः यत्र 'कषायाणां क्रोधादीनां 'हृतिः' नाशः च पुनः यत्र 'जिनाज्ञा' श्रीवीतरागोक्तप्रवचनपद्धतिः 'सानुबंधा' सापेक्षा तत्तपः शुद्धं इष्यते । भावना च प्रथमं इंद्रियाभिलाषनिरासे शांत परिणत्या सिद्धांतोक्तविधिना निरभिलाषस्य तपो विशुद्धं भवति, अन्ना दिपरभावसुखस्पृहया किं केन न कृतं कष्टानुष्ठानं ? यच्च स्वरूपनिरावरणार्थं निःसंग निर्मोहकतत्वैकत्वरूपं व्यावातकपरभावाहारादिग्रहणनिवारणलक्षणं तपः तत् श्रेष्ठमिति । उक्तं च-निरणुट्टाणं मयमोहरहियं सुद्धतत्तसंत्तं ।
असम्भभावणा एवं तवं कम्म सुयहेउ ॥ १ ॥ ६॥ तदेव हि तपः कार्ये, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा ॥७॥
"
व्या० - तदेव हीति । हीति निश्चितं, तदेव तपः ' कार्य करणीयं यत्र दुर्व्यानं पुद्गलाशंसारूपमनिष्टतारूपं नो भवेत् । येन
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ज्ञानमंजरी टीका.
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"
L
तपसा 'योगा' मनोवाक्कायरूपा 'न हीयते' स्वरूपरमणं तवानुभवतो न हीयते यत्र इंडिया 'क्षीयंते' 'धर्मसावकस्वाध्यायाहिंसादि तत्कार्यप्रवृत्ति ते क्षयं न लभते, इत्यनेन साधनाभूतचेतनावीर्याणां हानिः न स्यात्, तत्तपः शुद्धं 'कार्य' कर्त्तव्यं इति ॥ ७ ॥
मूलोत्तरगुणश्रेणि-प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये । बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं, तपः कुर्यान्महामुनिः ॥ ८ ॥
"
व्या० - मूलोत्तरगुणेति - 'महामुनिः' परमनिर्ग्रथः इत्थं तपः कुर्यात् किंभूतं तपः ? “मूलोत्तरगुणश्रेणिप्राज्य साम्राज्यसिद्धये " मूलोत्तरा मूलभूता ज्ञानचारित्रादयो गुणा ' उत्तराः समिति - गुप्यादयो गुणाः तेषां 'श्रेणिः' विशेषतः गुणप्राग्भावरूपा तया 'प्राज्यं' प्रचुरं यत् ' साम्राज्यं प्रभुत्वं तस्य ' सिद्धिः ' निष्पत्तिः तस्यैइत्यनेन स्वकीयगुणप्रभुत्वनिष्पत्यर्थ बाह्यं लोकोल्लासकारणत्वात् प्रभावकतामूलं आभ्यंतरं अन्यलोकैः ज्ञातुमशक्यं स्वगुणिकतारूपं च तपः कार्यम् ॥ ८ ॥
इति व्याख्यातं तपोऽष्टकम् ॥ ३१ ॥
अथ सर्वनयाश्रयणाष्टकम् ॥ ३२ ॥
तपो द्विविधं संवरात्मकं ( ज्ञानात्मकं च ) तत्र संवरात्मकं ज्ञानचारित्रयोः तीक्ष्णत्वं सचेतनावीर्यादीनां स्वरूपकैकत्वं, द्वितीयं तु ज्ञानचारित्रवीर्यभोगगुणसंकरसंभवं गुणास्वादैकत्वानुभववत् सर्वपरभावास्पृहतारूपं, जघन्यतः अंशत्यागपूर्वकदेशतोऽनीहागुणकत्वं, उत्कृष्टतः शुक्रुध्यानचरमाध्यवसायलक्षणं, परभावावचोचो
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सर्वनयाश्रयणाष्टकम् .
दुर्लभः असंख्येयसमयेनापि देशज्ञायकत्वात्, तस्य ज्ञानं गौणमुख्यतारूपेण प्रवर्त्तते । उक्तं च तचाबें- "अर्पितानर्पित सिद्धेः” सूत्रस्य व्याख्याने, सर्वज्ञानां तु सर्वमपि एकसमयेनैव ज्ञातत्वात् गौणमुख्यताज्ञानं वचसि क्रमवर्तित्वाद् भवति एवं न्यूनशक्त्या गौमुख्यत्वं न रागद्वेषपरिणत्या रागद्वेषपरिणामो बंधहेतुः, अतो नयस्वरूपेण यथार्थबोधाय वस्तुविवेचनं हितं न रक्तद्विष्टता तेन ज्ञानसाम्यं करणीयं ज्ञानसाम्यमेव चारित्रं तदर्थमेव निरूपयतिधावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः । चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः ॥ १ ॥
"
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व्या० - धावतोऽपि नया इति । सर्वे नयाः 'चावंतः ' स्वस्वपक्षस्थापनपुरःसरा अपि 'भावे शुद्धात्मधर्मणि कृतविश्रामाः स्युः स्थिरा भवंति, अतो मुनिः ' चारित्रगुणलीनः ' चयरिक्तीकरणं चारित्रं तदेव गुणः तत्र लीनः वर्द्धमानपर्यायः 'सर्वनयाश्रितः' स्यात् द्रव्यनये कारणग्राहके भावनये तत्कार्यत्वग्राहके ' क्रियानये साधनोद्यमरूपे ज्ञाननये तद्विश्रामरूपे 'आश्रितः' आसक्तः स्यात् भवेत् इत्यर्थः । उक्तं चानुयोगनारे-
"
ससि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता | जं सव्वनयविद्धं तं चरणगुणओि साहू ॥ १ ॥ अत उक्तं श्रीभगवतीटीकायां
" जइ जिणमयं पवज्जह, ता मा विवहारनिच्छए सुबह । ववहारनओच्छेए तित्थुच्छेओजओ
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अतः साम्यं हितं ।
पुनस्तदेव द्रढयति-
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ज्ञानमंजरी टीका.
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पृथग्नया मिथः पक्ष-प्रतिपक्षकदार्थताः। समवृत्तिसुखास्वादी, ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥२॥ ____ व्या०-घृथग् नया इति । एते मिथः परस्परं पृथग् मिन्नं मिन्नं पक्षप्रतिपक्षकर्थिताः बादप्रतिवादकदर्थनाविडंबिता नया दुर्नया इत्यर्थः । अत एव ज्ञानी यथार्थभासनया सर्बनयाश्रितः सर्वनयमार्गसापेक्षावबोधमग्नो भवति । कथंभूतः ज्ञानी समवृत्ति इष्टानिष्टत्वाभावः तस्याः सुखास्वादनशीलः । उक्तं च--
अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद्, यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन् , न पक्षपाती समयरतथा ते ॥१॥ उवाविव सर्वसिंधवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभिन्नासु सरित्विवोदधिः ॥२॥
तथा च सम्मतौ “ण य तइओ आत्थि नओ, ण य सम्मं णएसु पडिपुन्नं । जेण दुवे एगंता, विभज्जमाणा अणेगंता ॥१॥ जह ए तह अणेगत्ते दुणयाणया सव्वे हंदिदुमूलणयाणं पत्तेयविसेसियं बिंति ॥ २॥
सर्वनयस्स्यास्वादनलोलाशुद्धपरिणाममपहाय स्वरूपानंदमनतारूपं करणीय, अभिनवकर्माग्रहणरूपः संवरः पूर्वसत्लागतादिकर्मनिर्जरणात्मकं तपः, तपसा हि देवादिफलामिलाप एव न युक्तः निर्जरात्मकेन कथं शुभबंधः यच्च तपोविद्भिः देवायुःप्रभृति निबद्धं तच्च शोकरागादि प्रशस्ताव्यवसायहेतुकमिति, अपूर्वतः सर्वकर्मापगमप्रादुर्भूतानां तद् ज्ञानं दर्शनसिद्धिसुखं तस्योत्सर्गकारणं तप आध्यात्मिकं परभावशून्यस्वभावैकत्वानुभवतीक्षणलक्षणं परमं साधनमिति, व्याख्यातं तपोऽष्टकं । तद्व्याख्याने च साधनस्वरूप
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सर्वनाश्रयणाष्टकम् .
मर्षि व्याख्यातं । अथानेकनयात्मके जैनमार्गे एकांतता पक्षपातपरित्यागेन सर्वनयेषु समभावरूपपरिणामः रागद्वेषाभावलक्षणः स्वस्वस्थानसाधनविज्ञानरमणाध्यवसायः कार्यः । एकांतग्रह एवं मिथ्यात्वं । सर्वत्र सापेक्षता सम्यग्दर्शनं तच्च यथार्थोपयोगिनां यथार्थप्रवृत्तिमतां च भवति, अतः एकताग्रहत्यागसर्वनयसमाश्रयोपदेशकं द्वात्रिंशत्तममष्टकमुवाच श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायः परमरहस्यज्ञाता । अरे नास्ति धर्मः बाह्यपद्धत्या निमित्तका - रूपा सा । श्रीपंचमांगे प्राणातिपातसंवरादयः सर्वे अमूर्त्ता जीवस्वरूपा उक्ताः, येन हि जीवस्वभावरूपः शुद्धनिर्विकल्परत्नत्रयीलक्षणः धर्मः प्रतीतः स एव सम्यग्दृष्टिः, नहि कुशकाशावलंचनेन समुद्रतरणं भवति । उक्तं च श्रीहरिभद्रपूज्यैः-
आयप्पभवं धम्मं, आयतियं अप्पणो सरूवं च । दंसणनाणचरित्तेगत्तं जीवस्स परिणामं ॥ १ ॥ रे भव्य ! हिताय वदामः सर्वागमेषु धर्म आत्मनः शुद्धा परिणतिरेव निमित्तस्योपादानप्राकट्य हेतुत्वात् बाह्याचरणादिकं सावरम्यस्यते, तथापि धर्महेतुत्वेनोपादेयं श्रद्धावद्भिः, तत्स्वात्मक्षेत्र व्यापकरूपानंतपर्यायलक्षणं धर्मः उत्तराध्ययनावश्यकादिससिद्धांताशय इति तत्त्वं रागद्वेषरहितानां भवति, रागद्वेषाभावपरिणतेषु गौणमुख्यतारूपपरिहारः समः साध्यः, पूर्व मिथ्यात्वोदयेन मुख्ये मुख्यत्वबोधपूर्वक कांतवादः स च सम्यगदर्शनेन कारणकार्यतया अयं मुख्यश्चायं गौणः, नानंतपर्यायात्मके केववस्तुनि कस्यापि स्वपर्यायस्य गौणमुख्यत्वे क्षयोपशमज्ञानेन सर्ववम
एकमूहम्मि वि गिछिणउ उभयवायपणवओ । मूलणयाणओ आणं पत्तेय विसेसियं चिंति ॥ १ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
तम्हा सव्वेवि णया, मिच्छदिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णनिस्सिया पुण, हवंति सम्मत्तसम्भावा ॥ २ ॥ इत्यादि ॥ २ ॥
साम्यतां कथयन्नाह |
नाप्रमाणं प्रमाणं वा, सर्वमप्यविशेषितम् । विशेषितं प्रमाणं स्यादिति सर्वनयज्ञता ॥ ३॥
४०५
व्या०-नाप्रमाणमिति । सर्व वाक्यं एकांते न अप्रमाणं न वा अथवा प्रमाणं अपि न विधिनिषेधोपदेशः, प्रथमं तदेवं प्रमाणं गुणवृद्धौ ध्यानलीनानां तदेवाप्रमाणं यच्चानेषणीयादिकं पूर्वमप्रमाणं तदेव गीतार्थादिषु प्रमाणं भगवतीटीकातो ज्ञेयं तथापि गाथा ।
परमरहस्समिसीणं, सम्मत्तगणिपिडगधरिअसाराणं । परिणामिअं पमाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं ॥ १ ॥
पंचवस्तुटीकायां - "एसणभाई तेणुयोगा" इत्यादि सर्वमष्यविशेषितं, अन्यसमयस्थं सद्वचनं विशेषरहितं, विशेषणां, संयोजितं प्रमाणं स्यात्, विषयपरिशोधकनययोजितं प्रमाणं स्यात् उपलक्षणात् स्वसमयवचनमपि अननुयोगोक्तमप्रमाणं भवति, पंचमांगे मंडुकश्रावकाधिकारतो ज्ञेयं । उक्तं च
सुतत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तईओ अ निरवसेसो, एसविहो होइ अणुओगो ॥ १ ॥ अनुयोगशून्यं वचनं न प्रमाणं भवति । उक्तं च-
अपरिछिअसु अणिहसरस, केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सव्वुज्जुमेण विकय अन्ना भवे बहुं पडइ ॥ १ ॥
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४०६
सर्वनयाश्रयणाष्टकम्.
पुनः हेमाचार्यैः ।
तत्रापि न च द्वेषः, कार्यों विषयस्तु यत्रतो मृग्यः ।
तस्यापि सद्वचनं, सर्व च यत्प्रवचनादन्यत् ॥ १ ॥ इति विचार्य स्याद्वादोपयोगिसर्वनयज्ञता कार्या पुनः साम्यमवलंबनीयं पक्षपरिहारेण आत्मधर्मनिष्ठता हिता ॥ ३ ॥ लोके सर्वनयज्ञानं, ताटस्थ्यं वाप्यनुग्रहः । स्यात्पृथङ् नयमूढानां, स्मयार्तिर्वाप्यतिग्रहः ॥ ४ ॥
व्या०-लोके सर्वेति । 'लोके दक्षजनसमूहे 'नयज्ञानां सर्वनयरहस्यविज्ञानां 'ताटस्थ्य' तटस्थत्वं पार्श्ववर्तित्वं, 'वा इति व्यवस्थायां । 'अपि' समुच्चये, 'अनुग्रहः' उपकाराय भवति, सर्वत्र परीक्षकत्वं हितं, पृथङ्नयमूढानां एकैकनयपक्षग्रहवर्तिनां स्मयार्तिः मानोन्मादपीडा वा अथवा अतिग्रहः कदाग्रहः स्यात् भवति । उक्तं च--
कालो सहाव नियइ, पुवकयं पुरिसकारणे पंच । समवाये सम्मत्तं, एगंते होई मिच्छत्तं ॥१॥
अत्र पुरुषाकारस्य उपादानकारणत्वात् मुख्यत्वं, कालस्वभावपूर्वकृतां तु निमित्तासाधारणापेक्षया कारणत्वं, नियतेश्च कारणत्वं औपचारिकं, अस्या अनित्यत्वं विचारामृतसंग्रहे उक्तमस्ति, इति नियतपक्ष आजीविकानां मिथ्याग्रहरूपः न जैनानां, एवं अंशस्यापि जैनमार्गे विवक्षितत्वात् समुच्चयवचनं ॥ ४ ॥
एवं सापेक्षा श्रमा कार्या इत्युपदिशन्नाहश्रेयः सर्वनयज्ञानं, विपुलं धर्मवादतः । शुष्कवादविवादाच्च, परेषां तु विपर्ययः ॥ ५ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
४०७
व्या०-श्रेयः सर्वेति । धर्मगदतः कंठतालुशोषणमात्रः शुष्कवादः यथार्थताशून्यः कपायोपटभत्वात् त्याज्यः, परपक्षपराजयबुख्या स्वपक्षस्थापनपुरःसरः विवादः, सोऽपि हेयः, तत्त्वज्ञानी परस्परतत्वावबोधाय तत्त्वार्थिनं प्रति यद्वदति स धर्मवादः, सर्वनयज्ञानवान् धर्मवादतः वक्ता तत्वकथनरसिकः, इति श्रोता च तत्त्वज्ञानरसिक उपयोयथार्थयोगे धर्मकथनतः विपुलं श्रेयः कल्याणं यदि च न श्रोता ताहक तथापि तत्वबोधनेच्छया धर्मकथनं हिताय, च पुनः ष्कवादात् च पुनः विवादात् परेषां एकांतदृष्टीनां विपर्ययः अश्रेयः अकल्यागं, सूक्ष्मार्थकथनं पात्रयोग्यतया धर्महितकरणं तु भावानुकंपा ॥ ५ ॥
अथ सन्मार्गप्रशंसनामाहप्रकाशितं जनाना मत सर्वनयाश्रितम् । चित्ते परिषद, येषां तेभ्यो नमो नमः ॥६॥ ____ व्या०-प्रकाशित मिति । यैः सर्वज्ञाचार्योपाध्यायैः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतैः श्रीहरिभादिभिः संविग्नपाक्षिकैः यथार्थोपदेशकैः सर्वनयाश्रितं सर्वनयसापेक्षं स्याद्वादर्भितं मतं इष्टं शासनं मोक्षांगरूपं प्रकाशितं तेभ्यो नमः । शुद्धोपदेशका एव विश्वे प्रयाः । उक्तं च भवभावनायां--
भगमरसुआगं, बहुजणसंदेहपुच्छणिज्जाणं । उज्जोइअभुवणाणं, झाणमविकेवलं मयंके ॥ १ ॥ ते पुज्जा जिअलोए, सव्वत्यवि जाण निम्मलं नाणं ।
पुज्जाणवि पुज्जयरा, नाणी चारित्तजुत्ता य ॥२॥ तथा उपदेशमालायाम्--
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सर्वनयाश्रयणाष्टकम् .
सावज्जजोगपविजणाओ, सव्वुत्तमो जइधम्मो । बीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्खपहो ॥१॥ सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावगोवि गुणकलिओ। ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुइ ॥ २ ॥ संविग्गपक्खियाणं, लक्खणमेयं समासओ भणिों।
ओसनचरणकरणावि, जेणं कम्मं विसोहंति ॥ ३ ॥ सुदं सुसाधम्म, कहेइ निंदई य नियमायारं । सुतलियाण पुरओ, होई सव्वोमरायणिओ ॥ ४ ॥ वंदई न य वंदावई, किइकम्म कुणई कारवइ नेव । अता नवि दिक्खई, देई सुसाहूण बोहेउं ॥ ५ ॥
इत्यादिगुणोपेतैर्यदुपदिष्टं तत्सत्यं, च पुनः इदं स्याद्वादगर्भिततत्वधर्मस्वरूपं येषां चित्ते परिणतं श्रद्धानभासनरमणादरतया व्याप्तं तेभ्योऽपि नमः प्रणामोऽस्तु, सर्वज्ञोक्तमार्गानुसारिणोऽपि धन्याः, किं तत्परिणामपरिणतानां ? नमः सवेज्ञशासनाय; नमः सर्वज्ञमार्गवर्तिपुरुषसंधाय ।। ६ ॥ निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि । एकपाक्षिकविश्लेषनारूढाः शुद्धभूमिकाम् ॥ ७॥ अमूढलक्ष्याः सर्वत्र, पक्षपातविवर्जिताः। जयन्ति परमानन्द-सयाः सर्वनयाश्रयाः ॥ ८॥
व्या०-निश्चय इति, अमूढलक्ष्या इति । एवविधाः पुरुषाः 'जयंति' सर्वोत्कर्षेण वर्तते इति, कथंभूताः पुरुषाः ? 'निश्चये' शुझात्मपरिणतिरूपे, च पुनः 'व्यवहारे' वीर्यप्रवर्तनरूपे, च पुनः 'ज्ञाने' उपयोगलक्षणे, 'कर्मणि' क्रियापक्षे, 'एकपाक्षिक
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ज्ञानमंजरी टीका.
४०९
विश्लेषं' एकांतग्रहरूपं भ्रमस्थानं 'त्यक्त्वा' अपहाय शुद्धभूमिकां ज्ञानपरिपाकरूपां भूमिकां आरूढाः प्राप्ताः ज्ञानानुभवस्थानस्थाः पुनः अमूललक्ष्या लक्ष्यं वेव्यं अथवा -- लक्ष्यं शुद्धात्मस्वरूपं तत्र 'अमूहाः' मूहतारहिता अमूर: 'लक्ष्ये' तत्स्वरूपे ये ते सर्वत्र जीवाजीवेष्टानिष्टवस्तुनि पक्षपातः एकांतताग्रहरूपः तेन 'विवर्जिताः ' रहिताः । परमः अपूर्त्तः आनंदो येषां ते तन्मयाः सर्वे च ते नयाश्च सर्वनयाः तेषां 'आश्रयाः' आधाराः सर्वनयाश्रयाः, एवंस्वरूपाः पुरुषा जयंति सम्यग्दर्शनादिगुणपूर्णाः, इत्यनेन स्वससाधर्मसाधनोद्यतस्वकायचेतनादिपरिणतिरूपचक्रस्य साधनव्यापारप्रवृत्तस्य प्रेरकाः समस्तपरभावप्रसंगवर्जिताः स्याद्वादनयमागौपलक्षितयथार्थवस्तुस्वरूपा आचार्योपाध्याया जयंति, विश्वविश्वव्यामोहनिवारणप्रवणवाक्यामृत दाननिरस्तानादिमोह कालकूटाः स्वतत्त्वानंतसंपद्विलासलीलाकलिता निर्ग्रथा अपि महाराजा, असंगा अपि अनंतगुणसंवारणाव्याप्ताः, निराकुला अपि स्वतवसा - धनव्याकुलाः, मनवासिनोऽपि स्वपर्यायमकरंदपानमग्नाः श्रीमत्सर्वज्ञोक्ताज्ञानिर्वाहचौरेयाः, मार्गानुसारिणोऽपि यथाशक्तिगुणप्रवर्द्धननिलक्षाः द्रव्यभावसाधनेन शुरुपरमात्मसाध्यदत्तदृष्टयः ते एव ज्ञानसारग्रहणकुशला इति ॥ ७ ॥ ८ ॥
इति सर्वनयाश्रयणाष्टकं व्याख्यातं ॥ ३२ ॥ द्वात्रिंशदष्टक विवरणं निरूपितम्
सांप्रतमुपसंहाराय सर्वाष्टकानां भावनाभिधानकथनं निर्दिशतिपूर्णो मनः स्थिरोऽमोहो, ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तुसो, निर्लेपो निःस्पृहो मुनिः ॥१॥
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उपसंहारः
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व्या० पूर्ण इति । अनादिपरभावानंतग्रासग्रसनेऽप्ययं जीवः तृष्णाव्याप्तत्वादपूर्ण एव स स्वरसास्वादनेन स्वतत्त्वानंतकपूर्णः तदास्वादात्राधादिसर्वगुणनिष्पत्तौ पूर्ण इति पूर्णत्वस्वरूपाभिधायकं प्रथमाष्टकं । यः पूर्णः स एव मग्नः, तदनुभवलीनः स एव लीनतायाः स्वरूपी भवति, परभावली पता हि अनंतसंसारभ्रमणमूलं, अत एव सा मग्नता अनादिना त्याज्या या स्वरूपमग्नता सा एव मझता, इति तत्प्रतिपादनारूपं द्वितीयाष्टकं । यः मग्नः स स्थिरो भवति, न्यूनस्य ग्रहणेच्छया चापल्यं, पूर्णस्य ग्राह्याभावात् स्थैर्य ( अतः स्थिराष्टकं ) यः स्थिरः स अमोह: मोहरहितः ( अतः अमोहाटकं ) मोहरहितस्यैव तत्त्वज्ञता भवति, तेन तत्त्वज्ञानाष्टकं पंचमं । यः ज्ञानी स शांतः उपशमवान् भवति अतः शमाष्टकं । यः शांतः स एव इंद्रियाणि जयति अतः इंद्रियजयाष्टकं । यः इंद्रियविजयी स एव त्यागी परभावपरिहारी भवति च त्यागी ( अतः त्यागाष्टकं ) स एवं वचनानुक्रमतोऽसंमः क्रियारहितो भवति अतः क्रियाष्टकं । उक्तं च
बांधवधनेंद्रियत्यागात् व्यक्तभयविग्रहः साधुः । त्यक्तात्मा निर्यथस्त्यक्ताहंकारममकारः ॥ १ ॥
इत्युक्तलक्षणः अत एव तृप्तः आत्मसंतुष्टः तेन तृप्त्यष्टकं । यस्तृप्तः स निर्लेपः रागादिलेपरहितः तेन निर्लेपाष्टकं । निर्लेपः निःस्पृहो भवति तेन निःस्पृहाष्टकम् | ( यः निःस्पृहः स मुनिः मौनवान् भवति तेन मौनाष्टकं) ॥ १ ॥
विद्याविवेक सम्पन्नो, मध्यस्थो भयवर्जितः । अनात्मशंसकस्तत्त्व दृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥ २ ॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
४११
व्या०-विद्येति। पुनः 'विद्याविवेकसंपन्नः' विद्या श्रुताभ्यासः। विवेकः स्वपरविभजनात्मकः । ताभ्यां संपन्नः तत्कथिते विद्याष्टकविवेकाष्टके । यो हि विद्याविवेकसंपन्नः स मध्यस्थः इष्टानिष्टे वस्तुनि रागद्वेषरहितो भवति तेन माध्यस्थ्याष्टकं । मध्यस्थो हि भयरहितः तेन भयवर्जनाष्टकम् । भयरहितस्य नात्मश्लाघा इष्टा इत्यनेन अनात्मशंसा भवति तत्तनिरूपणाष्टकं । यः लौकिकश्लाघाकीाद्यभिलाषरहितः स तत्वदृष्टिः तेन तत्त्वदृष्टयष्टकं । यस्य तत्वदृष्टिः स एव समृद्धः परमसंपदावान् भवति तेन समृद्धयष्टकं॥२॥ ध्याता कर्मविपाकानामुहिनो भववारिधेः। लोकसंज्ञाविनिर्मुक्तः, शास्त्रदृग् निष्परिग्रहः ॥३॥
व्या०-ध्यातेति । यः समृद्धः स काले विचित्रबिपाकोदये कर्मविपाकामां ज्ञाता च्याता च भवति, अतः कर्मविपाकाष्टकं । यः कर्मविषाकध्यानी स एव भवात् संसारात् उद्विग्नो भवति, अत एव भवोद्वेगाष्टकं । यः भवोद्विग्नः स लोकसंज्ञामुक्तो भवति, तैन लोकसंज्ञात्यागाष्टकं । स एव शास्त्रदृग् च पुनः निष्परिग्रहो भवति । अत एव तत्प्ररूपकाष्टकद्वयं । ( शास्त्राष्टकं परिग्रहाष्टकं च ) ॥३॥ शुद्धानुभववान् योगी, नियागप्रतिपत्तिमान् । भावार्चाध्यानतपसां, भूमिः सर्वनयाश्रितः ॥ ४ ॥ ___ व्या०-शुद्धेति । यः निष्परिग्रहः स एव शुद्धात्मतत्त्वानुभववान् भवति, तेनानुभवाष्टकं । यः स्वरूपानुभवी स एव योगी योगध्यानमयः, यः योगी स एव निश्चयेन कर्मयागकर्ता तत्मरूपकाष्टकद्वयं । स एव भावार्चा भावपूजा तथा ध्यानेन
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उपसंहारः ।
ध्येयैकत्वं तदेव तपः तेषां भूमिः स्थानं भवति, एतत्स्वरूपनिरूपकमष्टकत्रयं, ततः सर्वनयाश्रयणं सम्यग्ज्ञानं तत्परूपकं द्वात्रिंशत्तममष्टकं ॥ ४॥
एवं कारणकार्यपूर्वकाधिकारद्वात्रिंशत्फलकोपेतं ज्ञानसारं नाम यांनपात्रं, यदारूढाः मिथ्याज्ञानभ्रमणमीषणं अतत्वैकतारूपजलगंभीरमसंयमपाथोधिमुलध्य सम्यग्दर्शनप्रतोलीमंडितं सम्यग्ज्ञाननिधानीपेतं सम्यक्चारित्रानंदास्वादमधुरं असंख्येयप्रदेशस्वसंवेद्यतत्ववेदकतासंपत्प्रवणं जिनप्रवचनप्राकारोत्सर्गापवादपरिखासंयुतं नियमनिक्षेपानेकगुणौघं लभंते स्याद्वादपत्तनं भव्या इति ज्ञानसारफलोपदेशकं ग्रंथस्य मौलिरूपं अंत्याधिकारमाह-श्रीमत्पाठकेंद्रः ॥ ४॥ स्पष्टं निष्टङ्कितं तत्त्वं, अष्टकैः प्रतिपन्नवान् । मुनिमहोदयं ज्ञान-सारं समधिगच्छति ॥ ५॥ ___ व्या०-स्पष्टं निष्टंकितमिति । 'मुनिः' त्रिकालाविषयी अष्टकैः स्पष्टं शब्दप्रकरं तत्त्वं वस्तुधर्म आत्मपरिणमनरूपं 'निष्टंकितं' निर्धारित 'प्रतिपन्नवान्' अंगीकृतवान् स मुनिः 'महोदय' मोक्षरूपं 'ज्ञा-सारं ज्ञानस्य सारं 'चारित्र' तथा परां मुक्तिं 'समघिगच्छति' प्राप्नोति । उक्तं च
सापाईयं सुअनाणं, जाव बिंदुसाराओ। तस्मवि सारो चरणं सारं चरणस्स निदाणं ॥१॥ मानो ? ॥ ५ ॥
र निरावाधं, ज्ञानसारमुपेयुषाम् । ... शाना, मोक्षोऽत्रैव महात्मना ॥६॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
४१३
व्या०-निर्विकारमिति । महात्मनां सम्यग् आत्मभावपरिणतानां, 'अत्रैव' अस्मिन्नेव भवे मोक्षः यद्यपि सकर्मत्वमोक्षाभाव एव तथापि अत्रानंदसमताशीलानां स्वभावसुखलीनानां वर्णिकारूपेण मोक्षस्यारोपः कथितः । कथंभूतानां महात्मनां ? निर्विकारं विकाररहितं निराबाधं सर्वा बाधा पुद्गलसंयोगरूपा तया रहितं ज्ञानं तत्त्वबोधः तस्य सारं तत्वैकत्वरूपं चारित्रं उपेयुषां प्राप्नुवतां, पुनः कथंभूतानां आत्मनाम् ? विनिवृत्ता निवृत्ता परस्य आशा येषां विनिवृत्तपराशानां, सर्वथा पुद्गलाशारहितानां निर्वाञ्छकानां इहैव मोक्ष इति ॥ ६॥ चित्तमार्दीकृतं ज्ञान-सारसारस्वतोर्मिभिः। नाप्नोति तीव्रमोहाग्नि-प्लोषशोषकदर्थनाम् ॥ ७ ॥ ___ ज्या०-चित्तमिति । ज्ञानसाराभिधो ग्रंथः तस्य सरस्वती वाणी तस्या इमे 'ऊर्मयः' कल्लोलास्तैः येषां चित्तं आर्दीकृतं तेषां जीवानां तीवो मोहाग्नेः प्लोषः दाहः तेन यः शोषः तस्य कदर्थनां पीडनां नाप्नोति इत्यनेन ज्ञानसारासारवर्षगार्दीकृतचितामां मोहाग्नितापो न भवति ॥ ७॥
पुनस्तदेव कथयति
अचिन्त्या कापि साधूनां, ज्ञामसारगरिष्ठता। गतिययोर्ध्वमेव स्यादधःपातः कदापि न ॥८॥
__ व्या०-अचिंत्येति । भो भव्य ! 'साधूनां परमपदनिष्पादकानां कापि 'अचिंत्या' चिंतितुमशक्या ज्ञानसारगरिष्ठता अस्ति ।
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४१४
उपसंहारः
'ज्ञानं' यथार्थस्वपरावबोधः तस्य सारं चारित्रं वैराग्यं तस्य 'गरि ठता' गरिमा गुरुत्वं तत्स्वरूपमचित्यं दुर्विचारं अन्या गुरुता अधोगमनहेतुः ज्ञानगुरुत्वं ऊर्व्वताहेतुः अत एवाचिंत्यमिति यया गरिष्ठतया ऊर्ध्वगतिरेव स्यात् अधःपातः कदापि न भवति । ऊर्ध्वता द्रव्यतः जीवेभ्य उच्चत्वगोत्रोदयादिरूपा, क्षेत्रतः ऊर्ध्वलोकगमनरूपा, भावतः सम्यक्त्वाद्युत्तरोत्तरगुणादौ रोहणरूपा, तेन यो ज्ञानगरिष्टः स ऊर्ध्वत्वं स्वर्गापवर्गलक्षणं सम्यक्चारिऋदिगुणलक्षणं प्राप्नोति ॥ ८ ॥
पुनः ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, न ह्येकस्यापि विरोधकः साधको भवति, क्रिया हि वीर्यविशोधिरूपा, ज्ञानं च चेतनाविशोधिरूपं चेतनावीर्ययोः शोधिप्राप्तयोः एव सर्वसंवरा तथापि क्रियातः ज्ञानस्याधिक्यं दर्शयति
शक्षयो हि मंडूक - चूर्णतुल्यः क्रियाकृतः । दग्धतच्चूर्णसदृशो, ज्ञानसारकृतः पुनः ॥ ९ ॥
0
व्या० - शक्षय इति । हीति निश्चितं 'क्रियाकृतः ' क्रियोद्यमविहितः क्लेशक्षयः कर्मक्षयः मंडूकचूर्णतुल्यः ज्ञेयः, यथा मंडूकचूर्णः पुनः घनयोगतः तत्रानेकाभिनवमंडूकोत्पत्तिहेतुर्भवति, तथा - क्रियया अशुभकर्म क्षयति तथापि शुभानां प्रचुरा वृद्धिः, पुनः शुभोपयोगकाले अशुभानां वृद्धिः इति ज्ञेयं । पुरा पूर्व ज्ञानसारकृतः कर्मक्षयः दग्धतच्चूर्णसदृशः इति इत्यनेन ज्ञानानंदकृतः कर्मक्षयः पुनः न प्रभवति, यथा- मंडूकचूर्णः दग्वो न मंडूकोत्पत्तिहेतुर्भवति, एतदुपदेशपदात्सर्वं ज्ञेयं, आगमेऽपि - "सीले सेयं सुअं सेयं" इत्यालापकेन । तथा पंचनिग्रंथशतके -
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४१५
मुनीनां अल्पश्रुतवतां आहारादिसंज्ञास्ति, बहुश्रुतानां आहारादिसंज्ञानिषेध इति सर्वत्र योज्यम् ॥ ९ ॥ ज्ञानपूर्ता परेऽप्याहुः, क्रियां हेमघटोपमाम् । युक्तं तदपि तद्भावं, न यद् भग्नापि सोज्झति ॥१०॥
व्या०-ज्ञानपूतामिति । 'ज्ञानपूतां ' ज्ञानेन पवित्रां क्रियां शुभयोगव्यापारात्मकां 'हेमवटोपमा' सुवर्णकलशसदृशां, ‘परेऽपि' अन्ययूथिका अपि आहुः, एतत् युक्तं तदपि हेमघटे भग्ने अपि तद्भावं हेममौल्यं न उज्झति, तथा सद्ज्ञानयुक्ता क्रिया ततः पतितस्य भग्नस्यापि नाधिकस्थितिबंधः “बंधेण न बोलई कयावि” इति वचनात् । ज्ञानी क्रियायुक्तः स्थितिक्षयं करोति ततः पतितोऽपि तत स्थितिस्थानं नातिक्रमति; अतः ज्ञानपूर्वका एव । तथा च उपपातिकोपांगे मिथ्यादृष्टिः एकांतेन द्रव्ययतिलिंगक्रिया युक्तः नवमौवेयकांतं गच्छति, तथापि स्थितौ पूर्णबंधक एव सम्या प्रतिपत्तौ तत्पतितोऽपि मिथ्यात्वभावं गतोऽपि एककोटाकोट्यंतरस्थितिं बध्नाति नाधिकां बधाति अतः ज्ञानस्याधिकत्वम् ॥ १० ॥
पुनः दृढयति-- क्रियाशून्यं च यद् ज्ञानं, ज्ञानशून्या च या क्रिया। अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥ ११ ॥ ___व्या०-क्रियाशून्यमिति । 'यद् ज्ञानं' तत्त्वावबोधः सत्स्वसंवेदनरूपं 'क्रियाशून्य' द्रव्यक्रिया आस्रवरोधनात्मिका तया शून्यं च पुनः क्रिया 'ज्ञानशून्या' तयोः अंतरं भानुखद्योतयोरिव ज्ञेयं, भानुतुल्यं ज्ञानं, खद्योतप्रकाशतुल्या क्रिया ज्ञानशून्या ज्ञेया इति ॥ ११ ॥
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चारित्रं विरतिः पूर्णा, ज्ञानस्योत्कर्ष एव हि । ज्ञानाद्वैतनये दृष्टिया तद्योगसिद्धये ॥ १२ ॥ ___व्या०-चारित्रमिति । 'पूर्णा विरतिः' चारित्रस्वरूपरमणं तत् ज्ञानस्यैव उत्कर्षः हीति निश्चितं ज्ञेयं ज्ञानस्य उत्कृष्टावस्था चारित्रं ज्ञानकत्वं चारित्रं आत्मनः मूलव्याख्यायां ज्ञानदर्शनगुणद्वयमयत्वमेव । उक्तं च श्रीविशेषावश्यके-उववाई उपांगेऽपि-असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणेयनाणेहिं " इत्यादिवचनात् । अतः ज्ञाने स्थिरत्वं चारित्रं ज्ञानस्यानंदः सुखं ज्ञानप्रकर्षावबोधः सुखं इति भाष्योक्तेः तथा झानस्यास्वादनं भोगः एवं भावना पृथग्गुणानां भावनापि विशेषावश्यके “ यतः चारित्रज्ञानादयः पृथग्गुणा इच्छंति ।” इत्यादिकं तेन अत्रोपयोगमयस्यात्मनः ज्ञानं मुख्यं तेनोच्यते ज्ञानाद्वैतनये ज्ञानवात्मा ज्ञानमेव साध्यं ज्ञाननिरावरणता सिद्धिः, एवं दृष्टिः देया, किमर्थ ? तद्योगसिद्धये, ज्ञानयोगस्य सिद्ध्यर्थं निष्पत्त्यर्थ अतः ज्ञानपूर्विका क्रिया हिता, तेन ज्ञाने स्पर्शाख्ये महान् अभ्यासो विधेयः इति रहस्यं । ज्ञानत्यागे न सिद्धिः सर्वत्र साधने ज्ञानमेव प्रधान इति ज्ञानसारस्यार्थितया भवितव्यम् ॥१२॥
अथ श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायैः एतद् ज्ञानसाराभि शास्त्रं रचितं तत्क्षेत्रादिप्रतिपादकं वृत्तमुच्यते--- सिद्धिं सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्धावहे लब्धवान्, चिद्दीपोऽयमुदारसारमहसा दीपोत्सवे पर्वणि। एतद्भावनभावपावनमनश्चञ्चच्चमत्कारिणा तेस्तैर्दीपशतैः सुनिश्चयमतैनित्योऽस्तु दीपोत्सवः ॥१३॥
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ज्ञानमंजरी टीका.
४१७
व्या० - सिद्धिं सिद्धपुरे इति । अयं ग्रंथः सिद्धपुरे नगरे सूत्ररचनया सिद्धिं लब्धवान् 'उदारसारम्हसा' प्रधानसारतेजसा 'दीपोत्सवे पर्वणि' दीपालिकादिने संपूर्णतां गतः, कथंभूतोऽयं ग्रंथः ? 'चिदीपः ' ज्ञानप्रदीपः एतद्भावनभावपावनमनश्चंचच्चमत्कारिणां जीवानां एतस्य ग्रंथस्य भावना आत्मतन्मयता तस्या भावा अर्थप्राप्तसमव्यवसायाः तैः 'पावनं' पवित्रं 'मन' चित्तं तत्र चचन् मनोहारी चमत्कारो येषां ते तेषां तैः तैः निर्मलोपयोगलक्षणैः दीपशतैः सुष्ठु निश्चयो वस्तुधर्मः तस्य यद् ज्ञानं तदेव मतं इष्टं तैः तेषां ज्ञानचमत्कारिणां दीपोत्सवः नित्यः निरंतरः अस्तु भवतु, इत्यनेन यथार्थज्ञानगृहीतात्मरसमग्रानां नित्यं दीपोत्सव एवास्ति ॥ १३ ॥ केषांचिद्विपयज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषावेगोदर्क कुतर्कमूर्च्छितमथान्येषां कुवैराग्यतः । लग्नालर्कमबोधकूपपतितं चास्तेऽपरेषामपि, स्तोकानां तु विकारभाररहितं तद् ज्ञानसाराश्रितम् ॥ १४ ॥
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9
व्या० - केषांचिदिति । 'अहो' इति आश्चर्ये, केषांचिज्जीवानां 'चित्तं ' मनः 'विषया' इंद्रियामिलाषा एव ज्वरः तेन 'आतुरं' क्लिष्टं अस्ति । पुनः परेषां केषांचित् मनः 'विषावेगः' इति विषस्य मिथ्यात्वस्य ' आवेगः' त्वरा तस्य 'उदर्कः ' उदयः तेन 'मूर्छितं ' व्याकुलीभूतं अस्ति, अन्येषां जीवानां 'कुवैराग्यतः' दुःखगर्भमोह गर्भ वैराग्यतः 'लग्नालर्क' लग्नः आलर्कः 'हडकवाय ' इति लोकभाषा यस्य तत् मनः अस्ति । च पुनः अपरेषां कुगुरुवाहितानां कुबोधपतितं कुज्ञानपतितं मनः अस्ति । तु
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उपसंहारः
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पुनः विकारा इंद्रियकामाः तेषां भारः तेन रहितं ज्ञानसाराश्रितं ज्ञानसारे परमात्मस्वरूपे आश्रितं व्याप्तं मनः स्तोकानां अस्ति । इह खलु जगति कामोद्विग्नाः स्वरूपोपयोगलीनचित्ताः शुद्धसाध्यदृष्टयः पुरुषाः स्तोका एव ॥ १४ ॥
पुनः ग्रंथाभ्यासरूपं फलं दर्शयति । जातोद्रेकविवेकतोरणततेर्धावल्यमातन्यते, हृद्रेहे समयोचितः प्रसरति स्फीतश्च गीतध्वनिः। पूर्णानन्दघनस्य किं सहजया तड्भाग्यभङ्गया भवन्नतद्ग्रन्थमिषात्करग्रहमहश्चित्रश्चरित्रश्रियः।१५॥
व्या०-जातोकेति। एतद्ग्रंथमिषात् ' ज्ञानसारग्रंथाभ्यासव्याजात् चारित्रश्रियः 'करग्रहमहः' पाणिग्रहणमहोत्सवः प्रसरति इति सटंकः, शेषं स्वत ऊह्यम् ॥ १५ ॥ भावस्तोमपवित्रगोमयरसैः सिक्तेव भूः सर्वतः, संसिक्ता शमतोदकैरथ पथि न्यस्ता विवेकस्रजः। अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशचक्रेत्र शास्त्रे पुरः, पूर्णानन्दघने पुरं प्रविशति स्वीयं कृतं मङ्गलम् ॥१६॥
व्या-भावस्तोम इत्यादि वृत्तं । 'पूर्णानंदघने' शुझात्मज्ञाने पुरं प्रविशति स्वीयं कृतं मंगलं इति वाक्यं इत्यनादिसंसारसंसरणमिथ्यात्वासंयमकषाययोगहेतुचतुष्टयोपचितज्ञानावरणादिकर्मावृतानंतपर्यायस्य अलब्धात्मसाधनस्य विषमरोगशोकादिकंटकाकुलायां अंतरायोदयालब्धाहारादियोगारतितापतप्तायां, महाव्यसनसहस्रसिंहव्याघ्रव्याप्तायां, कुपावचनिकलंटाकवाटीकुंकारगर्जितमीषणायां,
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ज्ञानमंजरी टीका.
४१९
कुदेववेतालवासितायां, इंद्रियविषये सुखबुद्धिलक्षणभ्रांतिमरुमरीचिकामूमिभूतायां, स्त्रीविलासादिविषवृक्षच्छायायुतायां, महाटव्यां धनादिपिपासाव्यालोलनेत्रस्य, तल्लाभादियोजनादिग्मूढस्य, परिप्रमतः जीवस्य, कदाचित् जगदुपकारपरविद्याधरवरः गुरुः तस्य संयोगो जातः, गुरुणापि मार्गभ्रष्टं इतस्ततः परिभ्रमंतं दीनमशरणमवलोक्योक्तं हे भद्र ! शृणु तवानंदकंदोपमं महोदयनगरस्य मार्ग, यत्र सदागमसरांसि तत्त्वपीयूषपूर्णानि, आचार्योपाध्यायनिग्रंथादयो नागरिकाः, सम्यग्दर्शनज्ञानोपयोगनिर्दारितमार्गप्रचाराः, यत्र क्षांत्यादिधर्मसम्यक्त्वादिगुणस्थानान्येव विश्रामभूमयः, स्वाध्यायविधिगीतवृन्दमनोहरा पद्धतिः, तत्वानुभवतत्त्वैकत्वादयः श्रममंतरेण मार्गलंघनोपायाः, यमनियमाद्यष्टांगानि वाहनानि, श्रीमदहन्महाराजराजनीतिनिगृहीततस्करकुटिलाः चारित्राचारप्रवीणसामायिकादिसंयमस्थानसंनिवेशाः, यत्र श्रकाधारणानिर्धारितसिद्धिपुरगमननिर्व्याघातप्रचार रत्नत्रयीलक्षणं । प्रवर्त्तय तन्मार्गे, येन कर्माष्टशत्रुव्यू हक्षयं कृत्वा निर्मलानंदशुद्धमव्याबाधमपुनरावृत्तिमहितं अनंतज्ञानदर्शनपूर्णपरमाह्वयं अमूर्तासंगनिरामयं निर्वाणनगरं निराबाधं द्रश्यसि, तेन भव्येन श्रमणादिसहायेन गृहीतस्तन्मार्गः, ततो गुरुणापि पाथेयोपमं दत्तं ज्ञानसाराख्यं यथार्थोपदेशमूलं शुझानुभवास्वादमधुरतरास्वादं शमतारसशीतलजलं, तेन निर्विकल्पं प्रवृत्तो मार्गोल्लंघनेन ।अतः परमपाथेयोपमं ज्ञानसारं मोक्षमार्ग गच्छता सुखनिर्वाहार्थं अभ्यस्यं, तस्य च चिरकालीनाक्षयत्वहेतुभूता तदास्वादवृद्धिकरणार्थ विहितेयं टीका तत्त्वार्थविशेषावश्यकधर्मसंग्रहिणी कर्मप्रकृत्यादिग्रंथालंबनपूर्वकं मया देवचंद्रेण स्वपरोपकाराय तत्त्वबोधिनी नाना, सा च चिरं नंदतादाचंद्रार्क । अत्र व यन्मया स्वमतिदोषेण प्रामिकं भाषितं, तच्छोधयंतु दक्षाः परोपकारपवणाः,
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४२०
- प्रशस्तिः
संतो हि गुणग्राहका एव, न खलु पुनः मत्सरिणो भवंति, तेन सतां प्रौढानंदकरी एवैषा टीका समाप्ता इति ॥ १५ ॥ ___अत्र सूत्रकृतः श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायाः न्यायाचा वाग्वादिनो लब्धवरा दुर्यादिमदाभ्रपटलखंडनपवनोपमाः। तेषां प्रशस्तिःगच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, प्रौढिं प्रौढिमधाम्नि जोतविजयप्राज्ञाः परामैयः। तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशोः, श्रीमन्न्यायविशारदस्य कृतिनामेषा कृतिःप्रीतये १६॥
इत्यध्यात्मज्ञानसारसूत्रं संपूर्णम् ।
(ग्रंथाग्रं २८१ सूत्रसंख्या.) व्या०-गच्छेति।श्री 'विजयदेव' सरिवराणां गच्छे श्री ‘जीतविजय' प्राज्ञाः तेषां सातीर्थ्यधराः श्री 'नयविजय प्राज्ञाः तेषां शिष्येण श्रीमद् “यशोविजयोपाध्यायेन” विहितोऽयं "ज्ञानसाराख्यः” द्वात्रिंशदष्टकप्रमाणो ग्रंथः मूत्रितः। तट्टीका च शुद्धगार्गदर्शकेन श्रीखरतरगच्छीयेन सदुपाध्यायश्रीदीपचंद्राणां शिष्येण देवचंद्रगणिना कृता ज्ञानमंजरी इति श्रेयः ।
स्वप्रशस्ति निवेदयति ( टीकाकारः) नमः स्याद्वादरूपाय, सर्वज्ञाय महात्मने । देवेंद्रवृन्दवन्याय, वीराय विगतारये ॥ १ ॥ श्रीगौतमाद् ज्ञानधरा मुनीशा, देवर्षीिपर्यतममेयोधाः । तेषां सुवंशे वरभास्कराभः, श्रीवर्द्धमानो मुनिराड् बभूव ॥२॥ संवेगरंगशाला-ग्रंथार्थकथनसूत्रधरतुल्यः । मुरिजिनेश्वराख्यः, सिजिविधिसाधने धीरः ॥ ३ ॥
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टीकाकारप्रशस्तिः
तच्छिष्या जिनचंद्राख्याः, सूरयो गुणभूरयः । तच्छिष्याभयदेवार्या, गच्छे खरतरेश्वराः ॥ ४॥ येन नवांगी वृत्तिरूपपाति सोपांगवृत्तिविस्तारः । विदधे पञ्चाशकादिवृत्तिर्या बोधवृद्धिकरा ॥ ५ ॥ तत्पट्टे जिनवल्लभ - सुरिजिनदत्तसूरयोऽभूवन् । पट्टानुक्रमभानुर्जातो जिनकुशलसूरिगुरुः || ६ | तेषां वंशे जातो, गुणमणिरत्नाकरो महाभाग्यः । कलिकाल पंकमग्नाँल्लोकान्निस्तारणे धीरः ॥ ७ ॥ श्रीमज्जिन चंद्राहः, सूरिर्नव्यार्कदीधितिप्रतापः । तस्यावदातसंख्या, गण्यते नो सुराधीशैः ॥ ८ ॥ तच्छिष्याः पाठकाः श्रीमत्पुण्यप्रधानसंज्ञिताः । सुमतेः सागराः शिष्यास्तेषां विद्याविशारदाः ॥ ९ ॥ तच्छिष्याः साधुरंगाख्या, राजसाराः सुपाठकाः । सर्वदर्शनशास्त्रार्थ - तत्त्वदेशनतत्पराः ॥ १० ॥ तच्छिष्या ज्ञानधर्माख्याः, पाठकाः परमोत्तमाः । जैनागमरहस्यार्थ -दायका गुणनायकाः ॥ ११ ॥ तेषां शिष्या महापुण्य - कार्यसंसाधनोद्यताः । पाठका दीपचंद्राख्याः, शिष्यवर्गसमन्विताः ॥ १२ ॥ येन शत्रुंजये तीर्थे, कुंथुनाथार्हतः पुनः । चैत्ये समवसरणे, प्रतिष्ठा विहिता वरा ॥ १३ ॥ चतुर्मुखे सोमजिता कृते यः पूर्णतां व्यधात् । प्रतिष्ठां नैकबिंबानां, चक्रे सिद्धाचले गिरौ ॥ १४ ॥ अहम्मदावादमध्ये, सहस्रफणाद्यनेकबिंबानाम् । चैत्यानां च प्रतिष्टां, चकार यो धर्मवृद्धये ॥ १५॥
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टीकाकारप्रशस्ति.
तच्छिष्येण स्वबोधार्थ, देवचंद्रेण धीमता। व्याख्याता सुगमा शुझा, टीकेयं तत्त्वबोधिनी ॥ १६ ॥ स्याद्वादस्य रहस्यानां, ज्ञानाल्लब्धोदयेन च । देवचंद्रेण बोधार्थ, सुटीकेयं विनिर्मिता ॥ १७ ॥ संवद्रसनिधिजलधिचन्द्रमिते (१७९६) कार्तिके सिते पक्षे । पंचम्यां नव्यपुरे, कृतेयं ज्ञानमञ्जरी ॥ १८ ॥ वाचनात् पठनादस्या, यो लाभो मे समागतः । तेनाहं भव्यसंघश्च, भवतां धर्मसाधकः ॥ १९ ॥ जयतु जिनराजस्य शासनं, दुःखनाशनम् । ज्ञानानंदविलासाढ्यं, सर्वसंपद्विवर्द्धनम् ॥ २० ॥ मंगलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमः प्रभुः । मङ्गलं स्थूलभद्राद्या, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ २१ ॥ इति श्रीज्ञानसारटीका ज्ञानमंजरी संपूर्णा।
श्रीशुभं भूयात् ।
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अनमःसिद्धम् ॥
अथ श्रीमद्देवचन्द्रकृतगुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाबालावबोधः॥
आर्यावृत्तम्. वीरस्स पए पणमिअ, सिरिगोयमपमुहगणहराणं च। गुरुगुणछत्तीसीओ, छत्तीसं कित्तइस्सामि ॥१॥
टबार्थकारनु मङ्गल-अभिधेयादिप्रणम्य परमात्मानं, शुद्धस्याद्वाददेशकम् । श्रीवीरं शासनाधीश, विश्वेशं प्रणमाम्यहम् ॥१॥ श्रीमदाचार्यवर्याणां, गुणानां षट्त्रिंशिका । टबार्थः शिष्यबोधाय, देवचंद्रेण प्रोच्यते ॥२॥ श्रीवीर चोवीसमा परमेश्वर त्रिशलानंदन मोहमलनीपवाने महावीर अभये परीसहोवसगाणं तेण कए महावीरे, एहवा श्रीमहावीर स्वामी तेहना 'पएः चरणारविंद प्रणमी---नमम्कार करीन तेहना प्रथम गणधर श्रीगौतम जेहना दीक्षित पचास २०००० हजार मुनि मोक्षानंदने पाम्या ते प्रमुख अग्निभूति आदिक जे गणधर ते सर्वने प्रणाम करीने आत्माने परमानंदतत्त्व निप्पत्तिनो मूळ शुद्ध श्रद्धान छे, ते शुद्ध श्रद्धान देवतत्त्व, गुरुतत्त्व, धर्मतत्त्व, एहनी शुद्ध भोळवाण प्रतीत करे थाय, तिहां देव जे श्रीअरिहंत सिद्धस्वरूपभोगी म्वगुणपर्याय प्रागभाव करव निर्मलीकृत स्वसत्तावंत स्वरूपकर्ता, स्वरूपभोक्ता, जेहन अवलंबी अनंता
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४२६
गुरुगुणपत्रिंशत् षट्त्रिंशिकाबालावबोध.
जीव शुद्धसत्ता करे पिण पोताना परना सत्ताना कर्चा नथी, ते देवतत्त्व नेहवो शुद्धानंद पूर्णप्राग्भावताना रुचि तेहना ज्ञायक ते स्वरूपरमणी, सर्व आश्रवना त्यागी, विषयकषायथी विरक्त, ते गुरुतत्त्वथी आचार्य तेह छत्तीस गुणे करी बिराजमान छे, ते छत्तीस छत्तीसी भिन्नभिन्नपणे छे तेहनो स्वरूप 'कित्तस्सामि कहीश्युं, भन्योने गुरुतत्त्व यथार्थ ओळखावा माटे. ( १ )
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तिहां हवे प्रथम छत्रीसी कहे छेचउँदेसंणर्केहकुसलो, चउभावर्णधम्मसारणाइरओ । चउविहचउज्झाणविऊ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥२॥
वार्थ इहां आचार्य ते जे रत्नत्रयी परिणम्या अने आत्मार्थी जीवने शुद्ध धर्मनी प्ररूपवाने माटे जे छत्रीसी कहेवी ते सर्व रत्नत्रयीमयीन कहेवी, ते माटे प्रथम गुण जे उपदेशक ते माने प्रथम छत्रीसीमां च्यार ४ देशना कहेवा मध्ये कुशळ माहीयार ( होंशीयार ). आक्षेपिणी १. विक्षेपिणी, २. संवेदनी, ३. निवेदनी, ४. आक्षेप कहेतां जे आत्मा मोहनीय उदयवश पड्यो तेहने आक्षेप करी कहेषो जे रे जीव ! तुने अनंतकाल परभावरंगीपणे वर्त्ततां गयो ते ते कर्म करी रडवडतां अनंतकाल गयो ते हवे तुं ए परभाव तजी परधर्म संगी न था, आत्म
रंगी था, जेहथी ताहरो स्वरूपानंद ते तुं भोगवे ते आक्षेपिणी कहीये. १ तथा - विक्षेपिणी ते जे विषय कषाय आश्रव अविधि आशातनानां फल पाडुआं ( खराब ) छे. ते उपर विषयवरों रावण, ब्रह्मदत्त, कीचकादिक कुगतें गया, कपायवरों दुर्योधन, तंदुली मत्स्य, प्रमुखना दृष्टांत कहे, आश्रव सेवतां दुःखविपाकी वसुराजा प्रमुख दुर्गर्ते गया, अविधि आशातनाऐ अनेक जीव भम्या ते माटे अविधि न करवी इम उपदेश देने
* पाठांतरम् - चउविहदेसणकह, धम्मभावणासारणाइकुसलमइ ||
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गुरुगुणपत्रिंशत्षट्त्रिंशिकाबालावबोध.
४२५
जे आत्माने दोषथी अरुचि उपजाववी ते विक्षेपिणी देशना कहेवी. २. संवेदनी जे मोक्ष निःकर्मापद अरूपी, अबाध, आत्मानंदनी रुचि उपजावानी जे देशना देवी ते संवेदनी देशना जाणवी. ३. निर्वेदमी-जे देशना देव मनुष्यनां सुख ते औडयिक भाव आवरण रूप छे ते माटे ते सुखथी जे उदासीनपणो ते निर्वेद कहीये. ४ ए. देशनामें कुशल.। कथा ४. अर्थकथा-धन उपजाववानी कथा. १, कामकथा-इन्द्रिय विषयनी कथा २, धर्मकथा जे दान, सील, तप, भावनानो स्वरूप कहेवो ते धर्मकथा, ३. अने ए सर्व भेळो कहेवो ते संकीर्णकथा. ए ४ कथामध्ये अर्थकथा, कामकथा ते त्यजवा योग्य, धर्मकथा ते कहेवा योग्य, संकीर्णकथा ते जाणवा योग्य. । भावना ४-ज्ञानभावना, १.जे आत्माने ज्ञानी थावा माटे भणवो, सांभळवो, विचारखो, वाचनादि पांच सज्झायनो करवो, ते ज्ञानभावना १, बीजी दर्शन भावना, २, त्रीजी चारित्र भावना, ३, चोथी वैराग्य भाधना. ४ ए च्यार भावना; वळी मैत्री भावना, १. प्रमोद २, करुणा, मध्यस्था भावना ए च्यार। च्यार धर्म-दान, शील, तप, भावरूप.। सारणा १, वारणा, २, चोयणा, ३ पडिचोयणा, ४ ना जाण । च्यार ध्यान-आर्तध्यान १, रौद्रध्यान, २, धर्मध्यान, ३. शुक्लध्यान, ४. ए च्यार ध्यान. प्रथम वे ध्यान ( आर्त रौद्र ) त्यजवां : अने धर्मयान, शुक्लध्यान करवा योग्य तेहना पाया. १६ ए छत्तीस गुण विराजमान ते गुरु जाणवा ॥ २ ॥ पणविहसम्मैचरणवये-यवहारायारसमिइसज्झाए। इग सेवेगे अ रओ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥३॥
टवार्थ---'पणविहसम्म'-पांच प्रकारे समकीत-उपशम; १. क्षयोपशम, २ क्षायिक, ३ सास्वादन, ४ वेदक, ५ एहना परिणामना जाण । पांच चारित्र-सामायिक १, छेदोपस्थानीय, २ परिहारविशुद्धि,
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४२८ गुरुगुणपत्रिंशत्पत्रिंशिकाबालावबोध.
..........---------- --- ३, सुक्ष्मसंपराय, ४ यथारुयात, ५ ए पांच चारित्र स्वरूपरमण, पररूप त्याग, व्रत-महानत पांच-प्राणातिपातविरमणादिक । पांच व्यवहार-- ऑगम व्यवहार, चौद पूर्वी मांडी अधिक ज्ञानीने श्रुतव्यवहार, बहु श्रृंतने, आताव्यवहार शेषमुनिने, धारणा व्यवहार आलोयण प्रमुखे, जीतव्यवहार भद्रक संघने छे.। पांच आचार-ज्ञानाचारादिक. । पांच ममिति इ-ममित्यादिक.।पांच सज्झाय-बायणा, पुछणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहादिक, एटला कार्यमां रक्त पिण संवेग-मोक्षाभिलाय सहित, एटले ए छत्रीस बोलमें मग्न ते छ पिण ए निर्विकल्प परमानंदमयी जे मोक्ष तेहन अभिसंवेग कहीये ते मध्ये रक्त छे. एटले बीजी छत्रीसीएं करी बिराजमानन जाणीनं एहवा गुणवंत ते आचार्य गुरुतत्त्व करी सदहवा. ए बीजी छत्रीसी. ॥ ३ ॥ इंदियविसंयपायासवेनिंदकुभावणापणगछको। छजीवेसु सजयणो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥४॥
टवार्थ----इन्द्रिय पांच । तथा पांच इन्द्रियना विषय जे वर्ण, गंध, रम, स्पर्श, शब्द, ए पांच मूल विषय । प्रमाद पांच-प्रमादकता अहंकारनी, विषय इन्द्रियना कषाय क्रोधादि, निद्रा आलम्यरूप, विकथा राजकथादिक ए पांच प्रमाद. । आश्रब पांच-प्राणातिपात १, मृषावाद २, अदत्तादान ५, मैथुन ४, परिग्रह ५, ए आश्रव पांच. । निद्रा १, निद्रानिद्रा, २, प्रचला, ३ प्रचलाप्रचला, ४ थीणद्धी, ५ । कुभावना पांच-- कंदर्पभावना, १, किल्वीपी भावना, २, आभियोगी भावना, ३ आसूरी भावना, ४, संमोही भावना, ५ । ए र पांच त्रीस ३० बालथी जे विरम्या अन छ कायना जीवनी जयणावंत छे एहवी बीनी छत्रीसीएं करी बिराजमान माहरा गुरु तत्त्व जाणवां. ३ ॥४॥
* पाठांतरम्--छसु कायेसु
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गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाबालावबोध.
छईयणदोसलेसविस्सयसवतर्कभासाणं। परमत्थजाणणेणं, छत्तीसगुणो गुरु जयउ ॥५॥ - टबार्थ---हवे चोथी छत्रीसी कहे छे-तिहां छ दोष वचनना तेहथी विरम्या होय, अलीक जे जूहूं बोलता नथी १, हीलना थाय ते बोलता नथी, २, खिसित-जे बोल्य लोक खिहाहिसा करे ( खिसा ) ते बोलता नथी. ३, कर्कस-कठोर जे बोलवाथी दुःख उपजे ते बोलता नथीं. ४ गहणीय, जे लोकमे गर्दा थाये ते बोलता नथी. ५, शमितो धिकरणोदीग्णा रूप जे शम्यो उपशम्यो जे अधिकरण-कषाय ते वळी उदीरे ते. ६ ए छ वचनथी निवा २. । तथा लेश्या ६ कृष्ण, १, नील. २, कापोत. ३, ए त्रण अप्रशस्तलेश्याथी निवा छे, तेजो ४, पद्म, ५, शुक्ल. ६ ए तीन प्रशस्त जांणी प्रवर्ते छे । तथा छ ६ आवश्यक-सामायिक ?, चोविसन्थय, २, वंदन, ३, पडिकमण, ४ काउसग्ग, ५, पञ्चक्वाण, ६ तेहना कारण कार्यपणे परिणमवावंत छे तथा द्रव्य ६ छ धर्मास्तिकाय, १. अधर्मास्तिकाय, २, आकाशास्तिकाय, ३, पुद्गलास्तिकाय, ४. काल, ५, ए पांच अनीव, छठो जीव । तथा तर्क ६ ( दर्शन )-जैन, १, मीमांसक, २, बौध, ३ नैयायिक, ४, वैशेषिक, ५, सांख्य, ६ । तथा भाषा ६ छ- संस्कृत, १. प्राकृत, २, अपभ्रंश, ३, सौरसेनी, ४, मागधी, ५, पिशाची, ६ ए छ-छ छत्तीस बोलना परमार्थना जांण ते माहरा गुरु तत्त्वनाणवा. ४. ॥५॥ सगर्भयरहिओ सगपिंडपाणएसणसुहेहिं संजुत्तो। अट्ठमयट्ठाणरहिओ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥६॥
टवार्थ---हवं पांचमी छत्रीसी कहें छे। सातभय-इहलोकभय, परलाकमय, २, अपराणभय, ३. मरणथय, चारभय, ५, अकस्मात्
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४३०
गुरुगुणषट्त्रिंशत्पत्रिंशिकाबालावबोध.
भय, ६ आदानमय, ७ ए सात भय रहित छे । तथा पिंडेसणा ७ तथा पाणेसणा ७-संसठ्ठा १ मसंसहा २ उद्धिय ३ तह अप्पलेणिया ४ चेव । उग्गहिया ५ पग्गहिया ६ उज्झिय धम्माय ७ सत्तमिहा. १--प्रथम पिंडेपणा-संसृष्ट खरडेला हाथ तथा पात्रादि २, असंमुष्ट हस्त असंसृष्ट पात्र एटले अखरडित दही एहवो पिंड ग्रहता अभिग्रह धारीने प्रथम पिंडेषणा, १, संसृष्ट बीजी, २, गाथामां व्यत्यये आण्यु छे ते सुनोच्चारण मात्र माटे असंसृष्ट हाथ संसृष्टपात्र वा असंसृष्ट पात्र, संसृष्ट हाथ एहवी भीक्षा ग्रहताने त्रीजी पिंडेषणा. ३, अल्पलेपा ते युं ? अल्प ते अभाववादी निप पृथक्यादि ग्रहताने चतुर्थी पिंडेषणा, ४ अवग्रा. हीता नाम भोजनकाति शरावलादिकने विषे थाप्यु जे भोजन जाति तेहवी भिक्षा लेवी ते पांचमी पिंडेषणा. ५, गृहीता नाम-भोजनबनाइ देताने उजमाल थाते करादिकथी पडयुं ते भोजन जात (च) ते, भोगववाने काजे करादिके जे ग्रह्यं ते छठी पिंडेषणा. ६ उजझीतमतिश्यु छोडवा योग्य भोजन जात द्विपदादिकं पण नवां छे ते वळी भर्द्धत्यक्तावशेषमात्र रेहताने सातमी पिंडेषण. । पाणेषणा पिण इमन सात प्रकारे ते मध्ये चोथी पिंडेषणा अप्पलेवा माहें नानापणुं आयाम सोवीरकादि निर्लेप जाणवू. इम १४ भेदना जाण. । तथा सात प्रकारना सुखें संयुक्त१-संतोष, २, करण इंद्रिय तेहनो जीपवो ते सुख बीजु, ३-प्रसन्नचित्तता, ४-दयाळपणो, ५, सत्यपणो, ६--पवित्रपणो. ७-दुर्जनथीं वेगळो रेहेवो ते सुख सातमुं ऐ २८. तथा आठ मदना स्थानकथी रहित जातिमद १, कुलमद, २, लाभमद, ३, बलमद, ४ अश्चर्यमद, ५, रूपमद, ६ विद्यामद. ७ अने तपमद ( अ आठ मदथी रहित. ए यांचमी छत्रीसी ए गुणतत्त्व रीते बिराजमान ते माहरा गुरु जाणवा. ५ ॥६॥ अट्ठविहाणदंसंण चारित्ताचारवाइणकलिओ। चउविहबुद्धिसमेओ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥७॥
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गुरुगुणपत्रिंशत्पट्त्रिंशिकाबालावबोध.
....~~~r.uttrummer m veer......~~~~~ ~~~~~ टवार्थ-अट्टविह-आट नातिना ज्ञानादिक आचार-काले १ विणए २ बहमाणे ३ उवहाणे १ तह, अनिन्हवणे, ५ । वंजण ६ अस्थ ७ तदुभये ८ अठविहो नाणामायारो ॥१॥ तथा दर्शनाचार (निम्संकिय ? निकंखिय, २ निवित्तीगिच्छा ३ अमूढढीठि अ ४ । उववूह ५ थिरीकरणे ६ वच्छल ७ प्पभावणे ८ अठ्ठ ॥ २ ॥ ए १६ तथा चारित्राचारना ( भेद ते पांच समिति, ऋण ३ गुप्ति, ए २४ बोल थया. वळी आचारवंत १, आहारवंत, २, व्यवहारवंत, ३ विहाखंत, ४ अपरिश्रानिवंत, ५, निर्जरावंत, ६ अपायदृशी, ७ एषणावंत ८ ए आठ गुणवंत गुरु. वळी च्यारबुद्धि ४ औत्पातिकी, १, वैनयिकी. २, कार्मिणिकी, ३ पारिणामिकी ४ ए सर्व मळी ३६ छत्रीस गुणे बिरानमान म्हारा गुरु जाणवा. ए छठी छत्रीसी. गाथा ॥ ७ ॥ अट्ठबिहकम्म, अलैंग जोगमहसिद्धिंजोगदिर्छि
विउ। चउविहअणओगनिउणो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ८॥
टबार्थ-हवें सातमी छत्रीसी कहे ले-आठ कर्म ज्ञानावरणादिक तेहना सूक्ष्म भावना जांण. ८ । वळी अष्टांगयोग-यम १, नियम, २, आसन, ३, प्राणायाम, ४ प्रत्याहार, ५, धारणा ६ ध्यान, ७, समाधि ८ ए अटांगयोग कहीये-तेमां यम ते प्राणातिपातविरमणादि महावत १. नियम-शौच, संतोषादि. २, आसन-पदमासनादि, ३ प्राणायाम श्वासनिरोधादिक चार अंग स्थिरता वधारवा माटे अभ्यास करवो. ४ पछी प्रत्याहार जे आत्माने विषयथी खेचीने म्वरूप सन्मुख करवो ते. ५, धारणा जे ध्येय अरिहंतादिक शुद्ध निमित्त अथवा आत्मस्वरूप ते ध्येय छे. तेहने विषे पोताना उपयोगनी एकाग्रता करवी ते धारणा ६ ते धारगायें अंतर्मुहूर्त सीम स्थिरता रहेवी ते ७ ध्यानप्रतें ध्यानना सुख मष्टये
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गुरुगुणपत्रिंशत्पत्रिंशिका बालावबोध,
लीन ते समाधि. / ए आठ योगना अभ्यासी. ८ । वळी आट महा सिद्धि अणिमादिक । तथा आठ. योगदृष्टि-- मित्रा १ तारा २ बला ३ दीपा ४ स्थिरा ५ कान्ता ६ प्रभा ७ परा. ( इहां पेहेली ४ च्यार दृष्टि मध्ये मार्गानुसारीथी मांडीने ग्रंथी भेदी मीम पुहचे मंवेदन ज्ञानी यद्यपि वैद्य संवेद्य पदने पुहचे नही, स्थिरादिमें आव्यो ममकीत पामे, पछी ते स्पर्शना ज्ञानी थको-अनुभव ज्ञानी को ते भेद खत्रयी परिणमी अभेद रत्नत्रयीने बले घनघाती ग्वपावीने केवळी याय तिवार आठमी दृष्टि पहोत्यो कहीये. ए गुणे युक्त। तथा च्यार ४ अनुयोगमा निपुण-द्रव्यानुयोग १, गणितानुयोग २, चरणकरणानुयोग, ३ धर्मकथानुयोग, ४ ए मर्व मळी २६ । ए मातमी छत्रीसी जाणवी । अथवा मूळ अनुयोग, उपक्रम जे ते पणे थवानो उद्यम ( उद्योग ) १. वस्तुने विषे समकालीद्योतक गुण ते निक्षेप. २, वस्तुना म्वरूपार्थ-फलार्थ प्रमुग्व अर्थना कहेवो ते अनुगम, ३. वस्तुना अवस्थांतरीभाव कथक ते नय. ४ ए पिणच्यार अनुयोग बीना नांणवा. ७ ।।८।। नवतत्तण्णू नवबंभगुत्तीगुत्तो नियाणनवरहिओ। नवकंप्पकयविहारो, छत्तीसगुणों गुरू जयउ॥९॥ _____टवार्थ --- हवे आठमी छत्रीसी कहे .-नव तत्त्वना जाण। नव वाट ब्रह्मचर्यनी तेना पालक. एकली स्त्री संघातें एकला ब्रह्मचारीये एक वमतिथे रात्रे वसवो नहीं १. स्त्रीनां शृंगार विलास विलापनी कथा न कहेवी, २. जे पाट, बाजोठे स्त्री बेठी, होय ते थांनके वे बडी माहे पुरुषे बेसवो नहीं, पुरुषने आमने स्त्रीयें बे तथा ४ बड़ी सीम बेसवो नहीं. ३. स्त्रीनो मनोहर गुह्य इन्द्री जोवो नहीं. ४ ज्यां स्त्री पुरुष भोगवतां हुवे ते कालना शब्दविलास सांभळवा नहीं, ५. ब्रह्मचारी पहेला भोग भोगव्या मंभारवा नहीं है. ब्रह्मचारीरों चीकणा आहार
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गुरुगुणषट्त्रिंशत्पत्रिंशिकाबालावबोध.
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करवा नहीं. ७ ब्रह्मचारीयें अतिमात्राों आहार करवो नहीं ८ ब्रह्मचारीये शरीरनी शोभा न करवी. ९ ए नववाडी पाळे. १८ । नव निर्माणा ९ रहित. २७. अने नव कल्पी विहारना करणहार-चोमासानो एक विहार, शेप कालना ८ महिनाना आठ विहार से नव विहारे वसति गोचरी स्थंडिल, सर्व पालटवी; क्षीण जंबाबल गीतार्थने विहारनो नियम नहीं "वाससयंमि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया" इत्युपदेशमाला वचनात् । ए आठमी छत्रीसीना धरणहार ते माहरा गुरु जाणवा. ॥९॥ दसभेय अ संवर, संकिलेसँउवघीयविरहिओ निच्चं। हासाइंछकरहिओ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ १०॥ ___टवार्थ-हवे नवमी छत्रीसी कहे छे-दस १० प्रकारना संवर संयुक्त-पांच इंद्रि वश ए पांच संवर, तीन योग रोकवा ए ३, औधिक, उपग्राहिक, उपधिनो मान ए दश संवर । दस १० प्रकारनो संक्लेश१ उपधि संक्लेश, २ वसति संक्लेश, ३ कषाय संक्लेश, आहार संक्लेश, ५-६-७ तीन योगनी चपलता ते संक्लेश, ८ अज्ञान संक्लेश, ९ अदर्शन संक्लेश, १० अचारित्रक्रियानो संक्लेश. ए १० दश संक्लेशथी रहित । तथा संजमना १० दश उपधात थी रहित. "दस संजमोवघाया, उग्गम १ उपायणे २ स ३ परिकम्मे ४। परिहरण ५ नाण ६ दसण ७ चरित्त ८ अचिअत्त ९ संरक्खे १० ॥२॥" वळी हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगंछा. ए ६ छ थी रहित । ए नवमी ३६ सी गुणे युक्त म्हारा गुरु जाणवा. ॥१०॥ दसविहसामायोरी, दसचित्तसमाहिठाणलीणमणो। सोलसकसायचाई, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥११॥
टवार्थ-दशमी छत्रीसी कहे छे. दस सामाचारी--इच्छाकार १.
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गुरुगुणपत्रिंशत् पत्रिंशिका बालावबोध
मिच्छाकार २ तहकार ३ छंदणा ४ निमंतणा ५ पुच्छणा ६ आपु -- च्छणा ७ आवस्सही ८ निस्सीही ९ उपसंपदा १० ए दस सामाचारी साधुनी नित्यनी । चित्तनी समाधिना स्थानक, नव वाडि ९ दशमो परिचय, ए २० । अनंतानुबंधी आदि १६ सोळ कषायना त्यागी एटले दश समाधि लीन, सोळ कषायत्यागना उद्यमी ते गुण ३६ सी बिराजमान म्हारा गुरु जाणवा । एदशमी छत्रीसी जांणवी. ॥११॥ पडिसेक्सोहि दोसे, दसदसविण्याइचउसमाहीओ। चउभेयार्डे मुणंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥१२॥
बार्थ - दश प्रकारनी प्रतिसेवा - द १, प्रमादे २, अणाभोगे ३, आतुरताओं ४, आपदायें ५, संकिए ६, सहसात्कारे ७, भयें ८, प्रदोषे ९, विचारणाओं १० ए दशे कारणे दोष लागे १०. ते लगाडता नथी । दश शोधि दोष- " आकंपइत्ता १, अनुमाणइत्ता २, जं दिट्ठे ३ बायरं ४ च ५ मुहुमं ६ वा । छन्नं ७ सदाउलयं ८ बहुजण ९ अवत्त १० तस्सेवी ॥ १ ॥ ए दस एवं २० | विनय समाधिना भेद ४, तपसमाधिना भेद ४, श्रुतसमाधिना भेद ४, आचार समाधिना भेद ४. ए १६ मिळ्या ३६ ना जांण ते माहरा गुरु जांणवा ए ११ मी छत्रीसी ॥१२॥
"
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दसविहवेअवच्चं, विर्णयं धम्मं च पडु पयासंतो । वज्जियअकपछक्को, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ १३ ॥
टबार्थ ---- दश प्रकारनो वेयावच्च - " आयरिय १ उवज्झाए २, तवस ३ से ४ गिलाण ५ साहुस्सु ६ । समणुन्न ७ संघ ८ कुल ९ गण १० - वेयावच्चं हवड दसहा || २ ||" तथा दश प्रकारनो विनय - अरिहंत १ सिद्ध २ चेइय ३, सुए ४ य धम्मे ५ य साहुवग्गे ६ य । आयरिय ७ उवज्झाए ८, पत्रयणे ९ दंसणे १०
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गुरुगुणषट्त्रिंशत्पत्रिंशिकाबालाक्बोध.
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विणओ ॥ १॥" एवं २० । तथा दशविध यतिधर्मने विर्षे सदा उद्यमी छे-खंती १ मद्दव २ अज्जव ३, मुत्ती ४ तव ५ संजमे ६ य बोधये । सचं ७ सोयं ८ अचिणं च ९ बंभं १० च जइधम्मो ।" एवं ३० पटु प्रकाशक । तथा दशवकालिके कह्यो जे अकल्प्य छक्क तेना वर्जवावाळा । ए ३६ गुणे युक्त म्हारा गुरु जाणवा. ए बारमी छत्रीसी. ॥१३॥ दसभेयाइ रूईए, दुवालसंगेसु बारउवंगेहुँ । दुविहसिक्वांइ निउणो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥१४॥ ___टवार्थ-दश १० रुचिवंत-"निसग्गुवएसरुई, आणरुईसुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई, किरिया संखेवधम्मरुइ ॥१॥" १०। अंग बार-“आयारो १ सूयगडोर ठाणं ३ समवायो ४ विवाहपन्नत्ती ५ णायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ अंतगडदसाओ ८ अणुत्तरोषवाइयदसाओ ९ पण्हावागरणं १० विवागसुअं ११ दिहियाओ १२” इति १२ बार अंग । तथा बार उपांग-उववाइ १, रायसेणी २, जीवाभिगम ३, पनवणा ४ जंबूद्वीपपन्नत्ती ५, चंद्रपन्नत्ती ६, सूरपन्नत्ती ७, (निरयावलिय) पुप्फीय ८ पुप्फचूलिया ९ (कप्पीआ १०) कप्पवडंसीया ११, वण्हीदसा १२ ए पांच सूत्र मिळी एक निरयावळी कहेवाय छे. एम १२ उपांगना जांण। तथा बे शिक्षा-ग्रहणाशिक्षा जे शुभज्ञाननो भणवो १, आसेवना शिक्षा जे सर्वक्रियानो शीखवो २. ए छत्तीस गुणे करी शोभित ते आचार्य गुणवंत जाणवा. ए तेरमी छत्रीसी युक्त म्हारा गुरु जाणवा. ॥१४॥ एगारसड्डपैडिमा, बारसवय तेरकिरियठाणेय । सम्म उवएसंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥१५॥
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गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाबालावबोध.
___टबार्थ--अगीयार प्रतिमा श्रावकनी-“दंसण १ वय २ सामाइय ३, पोसह ४ पडिमा ५ अबंभ ६ सञ्चित्ते ७। आरंभ ८ पेस ९ उदिवज्जए, १० समणभूए ११ अ ॥१॥" श्रावकनां व्रत बार १२-स्यूल प्राणातिपातविरमणादि पांच अणुव्रत, ५ त्रण गुणत्रत, ३ ४ च्यार शिक्षाबत. एवं बार। तथा तेर किरिया स्थानक सूयगडांगे कह्या ते-"अट्ठा १ ऽणट्ठा २ हिंसा ३ ऽकम्हा ४ दिहि ५ य मोस ६ दिने ७ । अज्जत्थ ८ माण ९ मित्ते, १० माया ११ लोहे १२ रियावहिया १३॥१॥" सम्यग् प्रकारे उपदेश देता ते छत्रीसगुणे बिराजमान म्हारा गुरु जांणवा । १४ ए चौदमी छत्रीसी जाणवी. ॥१५॥ बारसउँवओगविऊ, दसविहच्छित्तदाणनिउणमई। चउदसउँवगरणधरो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥१६॥ ____टबार्थ-बार उपयोगना जाण. पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, च्यार ४ दर्शन ए बार उपयोग। दश प्रायश्चित्त "तं दसविहमालोयण १पडिकमणो २ भय ३ विवेगे ४ तहेव उस्सग्गे ५। तव ६ छेय ७ मूल ८ अणवहिए ९ अपारंचिए १० चेव ॥१॥ ए दश १० प्रायश्चित्तना दातार निपुण बुद्धिमंत.। तथा १४ चौद उपकरणना धरणहार तेमां ७ पात्रनां उपकरण-"पत्तं १ पत्ताबंधो २,पायठ्वणं ३ च पायकेसरिया ४। पडलाइं ५, रयत्ताणं ६, गुच्छओ पायनिज्जोगो ॥२॥" ए ७ पात्रना उपकरण, अने सात ७ शरीरना-" मुहणंत १ रयोहरणं २, कंवले ३ कप्पग ४ चोलपट्टो य ५ । उत्तरपट्टो छठो ६, सत्तमो पायपूंछणयो ॥१॥" ए १४ उपगरण सूजता मानोपेत घरे, वधता न राखे, कारणे पाढेरु राखे, औपग्रहिक उपगरणनो मान नथी । एहवा गुणवंत ते माहरा गुरु जाणवा. ॥१६॥
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गुरुगुणषट्त्रिंशत् षट्त्रिंशिकाबालावबोध.
बारसभेयंमि तेंवे, भिक्खू पेंडिमासु भोवणासुं च । निच्चं च उज्जमंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥१७॥ बार्थ हवे सोळमी छत्रीसी कहे छे - बारभेदें तप छ बाह्य तप - " अणसण १ मृणोयरिया २, वित्तीसंखेवणं ३ रसचाओ ४ । कायकिलेसो ५, संलीणया ६ य बज्झो तवो होइ ॥ १||" तथा छ ६ अभ्यंतरतप - " पायच्छित्तं विणओ २. वेयावच्चं ३ तहेब सज्झाओ ४। झाणं ५ उस्सग्गोवि य ६, अभितरओ तवो होइ, ॥२॥ " ए बार तप । तथा भिक्षुनी - साधुनी प्रतिमा बार - पेहेली १ भासनी, बीजी बेमासनी, त्रीजी ऋण मासनी, इम यावत् सातमी सात मासनी, जघन्य एकांत रोपवास, उत्कृष्ट यथाशक्ति दीठे दंडाशनादिक आसने आतापना रात्र का सग्ग, ए ते करवानी आठमी सत्तमसत्तमिया, नवमी नवमनवमीया, दसमी दसमीया, इग्यारमी एकअठ्ठमनी, तीनरात्रिनी बारमी, एक अहोरात्रिनी । अने बार १२ भावना - "पढममणिच्च १ मसरणं २, संसारो ३, एगयाय ४ अन्नत्तं ५ । असुइत्तं ६ आसव ७ संवरो य ८ तह निज्जरा नवमी ९ || १ || लोगसहात्रो १० बोही ११ दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा १२ । एआओ भावणाओ, भावेयव्वा पयते ॥२॥ " ए सर्व मळी ३६ छत्रीस बोलना उद्यमी ते माहरा गुरु जांणवा । ए सोळमी छत्रीसी जांणवी ॥ १७ ॥ चउदसगुणठाणनिउणो, चउदसपडिवपमुहगुण
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कलिओ ।
अट्ठसुर्हमोवएसी, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ १८ ॥
टबार्थ-चौद १४ गुणठांणाना जांण, ते गुणटांणानां नांम-मिच्छे १ सासण २ मीसे ३, अवश्य, ४ देसे, ५ पमत्त, ६ अपमत्ते ।
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गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाबालावबोध.
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७ नियहि ८ अनियहि९ मुहम १०, उवसम ११ खीण १२ सयोग १३ अयोगि १४ गुणा ॥१॥" ए १४ । तथा प्रतिरूपादिक चौद गुण सहित-"पडिरुखो १ तेयस्सी २, जुगप्पहाणागमो ३ महुरवक्को ४॥ गंभीरो, ५ धीमंतो ६, उवएसपरो य ७ आयरिओ ॥ १ ॥ अपरिस्साधी ८ सोमो ९, संगहसीलो १० अभिग्गहमई अ११॥ अविकत्थको १२ अचवलो १३ पसंतहियओ गुरू होइ १४॥२॥ ए १४ मळी २८ । तथा अष्टांग निमित्त-दिव्य १, उत्पात २, आंतरिक्ष ३, भोमं ४, अंग ५, स्वर ६, लक्षणं ७, व्यंजनं ८, ए आठ अंग निमित्तना जाण पण निमित्तने प्रकाशे नही. ८ । ए सर्व मळी ३६ छत्रीसीना धरणहार ते माहरा गुरुतत्त्व जाणवा. । ए सत्तरमी छत्रीसी जाणवी. ॥ १८ ॥ पंचदेसजोगसन्नी-कहणेण तिगारवाण चाएण। सल्लतिगवजणेणं, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ १९॥
टवार्थ-पन्नर योग "सच्चेयरमोसअसच्चमीसमण ४ वय ४ विउच्च २, आहार. २, उरलं, २, मीस कम्मण १ इय योगा पनरभेएणं ॥१॥ १५॥ तथा संज्ञा पत्नर १५-आहारसंज्ञा १, भवसंज्ञा २, मैथुनसंज्ञा ३, परिग्रहसंज्ञा ४, क्रोधसंज्ञा ५, मानसंज्ञा ७, मायासंज्ञा ७, लोभसंज्ञा ८, लोकसंज्ञा ९, ओघसंज्ञा, १०, सुखसंज्ञा ११, दुःखसंज्ञा १२, मोहसंज्ञा १३, दुगंछासंज्ञा १४, शोकसंज्ञा १५, ए सर्व मळी १५ पन्नर संज्ञाएं धर्मने धर्ममें गिणता नथी. एहवा प्ररूपणाना धणी छे। गारव तीन ३-सातागारव १, रिद्धिगारव २, रसगाख, ३ ए ३ ना त्यागी छे. ३३ ॥ तथा सल्य तीन ते मायासल्य १, नियाणसल्य २, मिथ्यात्वसल्य ३ ए तीन सल्य रहित.। एह ३६ गुणे युक्त ते माहरा गरुत्त्व जाणवा. १८ ए अढारमी छत्रीसी जांणबी.॥१९॥
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Cinna
गुरुगुणषट्त्रिंशत्पत्रिंशिकाबालावबोध. ४३९ सोलससोलस उग्गम-उप्पार्यणदोसविरहिवाआहारे। चंउहाभिग्गहनिरओ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२०॥ ___टबार्थ-सोल उद्गम दोप-१६-सोलस उग्गमदोसा आहाकम्मु ? इसीय २ पूइयकम्मे ३ य मीसजाए ४ अ । ठवणा ५ पाहुडिआए ६ पाओयर ७ कीय ८ पामिच्चे ॥ १॥ परिअट्टिए १० अभिहडु ११-ब्भिन्ने १२ मालोहड १३ य अछिज्जे १४ अणिसिह १५ ज्झोयरए, सोलस पिंडुग्गमे दोसा ॥२॥" १६ । तथा सोल उत्पादना दोष १६-"धाई १ दूइ २, निमित्ते, ३, आजीव, ४, वणीमगे ५, तिगिच्छा य । ६ कोहे ७ माणे ८ माया ९, लोभे १० अ हवंति दस एए ॥ १॥ पुचि पच्छा ११ संथव, १२ विज्जा १३ मंतेय १४ चुण्ण १५ जोगे अ, उप्पायणाइदोसा १६, सोलसमे मूलकम्मे य ॥२॥" ए दोष रहित आहारना लेणहार. एम ३२ । तथा द्रव्य, १ क्षेत्र, २, काल, ३ भाव, ४ रूप च्यारभेद अभिग्रहना धरणहार ए ३६ गुणना धणी ते माहरा गुरुतत्त्व जाणवा । ए ओगणीसमी छत्रीसी जांणवी. ॥२०॥ सोलसवयेणाविहिन्नू, सत्तरसविहसंजमंमि उज्जुत्तो। तिविराहणांविरहिओ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२१॥
टबार्थ-सोल वचन विधिना जांण, १६-कालतिरं ३ लिंगति ३ वयणति ३ तहपरुक्ख १० पञ्चक्खं ११ । उक्यणाइचउकं १५, अज्झत्थं १६ चेवसोलसमं ॥१॥ तथा सत्तरंविधसंजम१७-पंचाश्रवथी विरमण ए पांच, पंचेन्द्रियनिग्रह ए १०, कपाय ४ अने दंड ३ नी विरतिरूप ए १७; अथवा-पुढवि-दग-अगणि-मारुअवणस्सई विति चउ पणिदि अजीवे १० पेहापेह पमज्जण, परि
* पाठांतरम्-( चउविह)
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गुरुगुणपत्रिंशत्पत्रिंशिकावालावबोध.
ठवण मणो वएकाए ॥१॥" ए पण १७ एम ३३ । तथा तीन विराधना ते ज्ञान विराधना १, दर्शन विराधना २, चारित्र विराधना ३ रहित. । ए छत्रीस गुणे बिराजमान ते माहरा गुरुतत्त्व जाणवा. ए वीलमी छत्रीसी जाणवी. ॥२१॥ नरदिक्वंदोस अट्ठारसेव अट्ठार पावठाणाई ॥ दूरेण परिहरंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥ २२ ॥ ____टबार्थ-~नर जे पुरुषना दीक्षाना दोष अढार १८ तेहना जाण- * वुड्ढो १ जड्डो २ कीवो ३ हजुत्तो ४ तहय गहिलो ५ अविणीओ ६ अभीरु ७ इत्यादिक आवश्यक निर्युक्तिथी जांणजो अढार ए १८ । अने अढार पापस्थानक-प्राणातिपात १ मृषावाद- २, अदत्तादान, ३ मैथुन, ४ परिग्रह, ५, क्रोध, ६ मान, ७ माया, ८, लोभ, ९ राग, १० द्वेष, ११ कलह १२, अभ्याख्यान, १३ पैशून्य १४ रति अरति, १५ परपरिवाद १६, माया मृषावाद, १७, मिथ्यात्वशल्य १८ ए अढार पाप स्थान दूरे परिहरता ए छत्रीस गुण बिराजमान ते आचार्य गुणवंत जाणवा. ॥२२॥ सीलंगसहस्साणं, धारंतो तह य बंभमेआणं । अट्ठारसगमुयार, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥२३॥
टवार्थ--अढार हजार सीलांगरथना धरणहार-ब्रह्मचर्यना भेद १८-"ओरालियं च दिवं, मणवयणकाएण करणयोएणं; अणुमोयण कारवणे करणे भेयहारस्स॥१॥"ए अढार अब्रह्मथी निवृत्त्या * बाले १ बुड्ढे २ नपुंसे ३ य, कीवे ४ जडे ५ य वाहिए ६ । तेणे ७ रायावगारी ८ य, उम्मत्ते ९ य असणे १० ॥ १ ॥ दासे ११ दुढे १२ य मूढे १३ य, अणत्ते १४ जुंगिए १५ इय ।
उवठिए १६ य भइए १७, सेहनिप्फेडिया १८ इय ॥ २ ॥
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गुरुगुणषट्त्रिंशत्पट्विंशिकाबालावबोघ.
४४१
छे-एथी अढार बंभचेर उदार कहीये ते ए ३६ ना धरणहार ते माहरा गुरु जाणवा. २२-॥२३॥ उस्सग्गेंदोसगुणवीस-वजओसत्तरभेॲमरणविहिं। भवियजणे पयडतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२४॥ ___टवार्थ-काउस्सग्गना १९ ओगणीस दोष रहित-घोडग १ लय २ खंभाई ३ मालू; इत्यादि भाष्यथी जाणी लेवा. १९ । तथा मरण समाधिना सत्तरं भेद १७ भगवतीथी जाणज्यो. इत्यादिक अर्थ भव्य जनने उपदेशे प्रगट करवा ए तेवीस २३ मी छत्रीसी गुणे बिराजमान ते गुरु जाणवा. ॥२४॥ वीसमसमाहिट्ठौंणे, दसेसणी पंच गासदोसे य। मिच्छत्तं च चयंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२५॥ ___टबार्थ-वीस असमाधि स्थानकना निवारक-"दवदवचारि १ पमज्जिय २, दुपमज्जियं ३रित्तसिज ४ आसणिए ५। रायणियपरिभासी ६, थेर भूओघाई ८ य ॥१॥ संजलण ९ कोहणे १० पिठमंसिये ११ भिक्खभिक्खमोहारी १२ । अहिगरणकरोदीरण १३, अकालसज्झायकारी १४ य ॥२॥ ससरख्खपाणिपाए १५, सहकरे १६ कलह १७ झंझकारी १८ य । सूरप्पमाणभोई १९, वीस इमे एसणासमिए २० ॥३॥" तथा दश एषणा दोष"संकीय १ मक्खिय २ निखित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छडि १०, एसणदोसा दस हवंति ॥१॥" तथा ग्रासदोष पांच-धूमांगारक प्रमुख, एकविध मिथ्यात्व तेनो त्याग, ए छतीसगुणे सहित ते गुरु जाणवा, ए चोवीस छत्रीसी थइ. ॥ २५ ॥
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गुरुगुणषत्रिंशत्पत्रिंशिकावालावबोध.
...........
इगवीससबलचाया, सिक्खासीलेंस पनरठाणाणि। अंगीकरणेण सया, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥२६॥
टबार्थ-एकवीस सबलना त्यागी ते गाथा--"तं जहओ हत्थकम्म कुर्वते मेहणुं च सेवंते रीइ भुंजमाणो आहाकम्मंच भुंजते ॥१॥ तत्तो यरायपिंडकीयं पामिच्चय, अभिहडं छिजं भुजते, सवलेउपञ्चक्खिय ॥२॥ छम्मासभितरओ, गणागणे संकमं करेमाणे; मासभितरतिनिउदग लेवाइ करेमाणे. ॥३॥ गिण्हते अ अदिक्खं, आउट्टि तहा अणंतवहीयाए; पुढवीयठाण सिज, निसहायं वा वि चेयते॥४॥मासभितर ओस्सायठाणाइतिन्निकूकंतो पाणायवाउट्टीं कुवंते, मुसावयं तेय. ॥५॥ एवं सस्सिणद्धाए ससरक्खाचित्तमंतगसिलले लूंकोलावासपइटाकोलथुणा ते सीया वासो. ६. सर्टसपाणस बीए जीवउवसंताणउ भवे तहयठाणाइ, वेयमाणे सबले आउट्टिआए अ ७. आउहि मूलकंदे, पुप्फेय फले अबीयहरिये या भुंजते सबलेउ, तहेव संवच्छरस्संतो॥८॥ दस दगदगलेवे कुवमाइटाणाइ दसयवरिसतेच उदियसीउदगवग्धारीयहथ्थमत्तेणं. ॥९॥
दव्वाइ भाययणेणं, वैदिजत्तभत्तपाणधित्तूणं, भुंजइ सवलो एसो, इगवीसमो होइ नायव्यो ॥१०॥" ए २१ तथा शिक्षाशीलनां पन्नर स्थानक-* अह पन रसठाणेहि-सुविणीएत्ति, वुच्चइ नियावित्ती अचवले अमाइ अकुतुहले. ॥ १॥ अप्पं चाहिविखवई पबंधं च न कुबई, मित्तिजमाणो भयई, सुअं लद्धं न मजई. ॥२॥ य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ १० । अपिप्यस्साविमित्तस्स, रहे कल्लाणभासई ॥३॥ कलहडमरवजए, बुद्धे * अह पनरसठाणेहिं, सिक्खासीलुत्ति वुच्चइ। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुतूहले ॥ इति पाठांतरम्.
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गुरुगुणषट्त्रिंशतपट्त्रिंशिकाबालावबोध.
४४३
अभिजाइए । हरिमं १४ पडिसलीणे १५ सुविणीउत्ति वुच्चइ. ॥४॥" ए ३६ छत्तीसगुणे बिराजमान गुरु जाणवा. ए पचवीसमी छत्रीसी जाणवी. ॥ २६ ॥ बावीसपरीसहेहियासणेण, चाएण चउदसण्हं च। अभितरगंथाणं, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥२७॥ ___टवार्थ:-बावीस परीषह. सहेवाने समर्थ तेनां नाम-खुहा १ पिवासा २ सी ३ उण्हं ४, दंसा ५ ऽचेला ६ रइथिओ ८। चरिया ९ निसीहिया १० सिज्जा ११, अक्कोस १२ वह १३ जायणा १४ ॥१॥ अलाभ १५ रोग १६ तणप्फासा १७, मल १८ सकार १९ परीसहा । पन्ना २० अन्नाण २१ सम्मत्तं २२, इअ वावीस परीसहा ॥२॥" तथा १४ चौद अभ्यंतर ग्रंथिना त्यागी तेनां नाम-"रागो दोसो य मिच्छत्तं ७ कसाया ४ हासछक्कगं ६। एगो वेउत्तिमे गंथा, अंतरंगा चउद्दस ॥१॥" ए चौद प्रकारनी ग्रंथिना त्यागी ए छब्बीसमी छत्रीसी गुणे बिराजमान ते माहरा गुरुतत्त्व जाणवा. ॥ २७ ॥ पणवेइंयाविसुद्धं, छदोसविमुकं पंचवीसविहं । पडिलेहणं कुणंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२८॥
टवार्थ-पांच वेदिका वांदणा देता-वे हाथ जार्नु विचे राखवा ए शुद्धवेदिका, १. बीजी च्यार ४ अशुद्धवेदिका. ए पांच वेदिकाएं विशुद्ध। वळी छ दोषथी विमुक्त-+ आरभडा संमदा, वजषय-वा य मोसली तइया, पप्फोडणा चउत्थी विक्खिसा अवेइया छठा ॥१॥ ए ६ छ दोष रहित वळी पचवील पंडिलेहणाना करता-दिछिपडिले+ आरभडा १ संमद्दा .२, मोसलि ३ पप्फोडणा ४ य पक्वित्ता ।
नच्चाविय ६ बिपडिलेहणाए वज्जिज छदोसे ॥
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४४४
गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिका बालावबोध.
·+
होगा, छउपक्खोडतिगतिगंतिरिया । अक्खोडपमज्जणाया, नवनव मुहपत्ति पणवीसं. १ ए पचवीस मुहपत्तीनी पडिलेहणाना करता ए सत्तावीसमी छत्रीसीगुणे करी सहित ते माहरा गुरु जाणवा २७ ॥ २८ ॥
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सत्तावीसविहेहिं, अणगारंगुणेहिं भूसियसरीरो । नवकोडिसुंद्धगाही, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ २९ ॥
बार्थ-साधु मुनिराजना २७ सत्तावीस गुणे युक्त- "वयछकfiदियाणं च निम्माहो भावकरणछकं च । समणा विरागयाचि य, मणमाईणं निरोही अ ॥ १ ॥ कायाण छकजोगम्मिजुत्तयावेयणाहियासणया । तह मारणंति अहियासणा एए अणगारगुणा ॥२॥” एटले साधुजीने मुणे करी शोभायमान छे शरीर जेहनो तथा नव ९ ते मन, वचन, कायाए करूं नही, करावं नही करतांने अनुमोदूं नहीं ए नवकोटि विशुद्ध आहार, वसति, पात्र, उपगरणना ग्राहक छे निर्दोष छे. ए छत्रीस २७-९ गुणे करी बिराजमान ते माहरा गुरु जाणवा २८॥२९॥ अडवीसलद्धिपयडण - पउणो लोए तहा पयासंतो । अडविहपभार्वगत्तं, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ ३० ॥
बार्थ - अठ्ठावीस महालब्धि प्रगट करवा महा निपुण छे तेहना जाण - " सम्माणुसव्वविरह, मल विष्पमोसखेल सब्बुसहीविउच्चि आसविसओही जल केवल संभिन्न, चक्कि जिण हरिबल
चारण पुत्र गणहरु पुलाए आहारग महु घय खीरे आसवो कुबुद्धीय बीयम पयाणुमारी २८. आठ प्रकारना प्रभावकना गुणे बिराजमान तद्यथा - "पावयणी २ धम्मकही २, वाई ३ नेमित्तिओ
+ पाठांतरे- पणवीस पडिलेहा.
२०
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गुरुगुणपट्त्रिंशतषट्त्रिंशिकाबालावबोध.
४४५
४ तवस्सी ५ अ । विज्जा ६ सिद्धो७ अ कई ८, अष्ठेव पभावगा भणिया ॥१॥" ए छत्रीस गुणे बिराजमान ते गुरु जाणवा. २९॥३०॥ एगूणतीसभेए, पावसुए दूरओ विवजंतो। सगविहसोहिगुणण्णू, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥३१॥ ___टवार्थः-एगूणवीस २९ पापश्रुतनी प्रवृत्तिना वर्जक छे-"अहनिमित्तंगाई, दिव्वुप्पायंतरिक्खभोमं च। अंगं सरलक्खण वंजणं च तिविहं पुणिक्विकं ॥१॥ सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावसुअमउणतीसविहं। गंधवनदृवत्थू-माउंधणुवेयसंजुत्तं ॥२॥" ए ओगणत्रीस २९ पाप श्रुतना उपदेश रहित। अने सात ७ शुद्धिना गुणे गुणी. (तं)लहुया? ऽऽल्हाईजणणं २, अप्पपरनियत्ति ३ अजवं सोही, दुकरकरणं ५ विणओ, ६ निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा ७ ॥१॥" ए त्रीसमी छत्रीसी गुणे बिराजमान ते माहरा गुरु जाणवा ३० ॥३१॥ महमोहबंधठाणे, तीसं तह अंतरारिछक्कं च । लोए निवारयंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥३२॥ ___टवार्थ-त्रीसमोहनी ७० कोडाकोडी सागरस्थितिबंधनां स्थानक जेणे वार्यो छे-“वारिमज्झऽवगाहित्ता, तसे पाणेवि हिंसइ १॥ छाएइ मुहं हत्थेणं, अंतोनायं गलेरवं २ ॥१॥ सीसावेढेण वेढित्ता संकिलेसेण मारइ ३ । सीसंमिजे य आहेतु दुहमारेण हिंसइ ४ ॥२॥ बहुजणस्स नेयारं, दीवं नाणं च पाणिणं ५ । साहारणे मिलाणम्मि पहुकिच्चं न कुव्वइ ६॥३॥ साहूण धम्मकम्माओ, जो भंसेइ उवटियं,। नेआउयस्स मग्गस्स, अवगारंमि वट्टइ८ ॥४॥ जिणाणं शंतनाणीणं, अवण्णं जे पभासइ ९! आयरिय उवज्झाए, खिसई मंदबुद्धिए १० ॥५॥ तेसिमेव य नाणीणं, सम्मं नो पडितप्पइ ११॥
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४४६
गुरुगुणषट्त्रिंशत्पट्त्रिंशिकाबालावबोध.
पुणो पुणोअहिगरणं,उप्पाए तित्थभेयए १२॥६|जाणं आहम्मिए, जोए पउंजइ पये पये १३॥ कामे वमित्ता पत्थेइ, इहमि भविये इय १४ ॥७॥ अभिक्खणं अ बहुस्मुत्तं, जे भासंति बहुस्सुए १५ तह य अतवस्सी य, जे तवस्सित्ति अहं वए १६॥८॥जायतेयेण बहुजणं, अंतो धूमेण हिंसई १७। अकिञ्चमप्पणा काउं, कयमेएण भासइ १८ ॥९॥ नियडुवहि पणिहीए, पलिउंचे साइजोगजुत्ते य १९ । बेइ सव्वं मुसं वयसि, अज्झीणं झंज्झए सया २० ॥१०॥ अद्धागंमि पविसित्ता, जो धणं हरइ पाणिणं२१। वीसं भित्ता उवाएणं, दारे तस्सेव लुप्पइ २२ ॥११॥ अभिक्खमकुमारेउ, कुमारेहिं च भासए २३ । एवमबंभयारीउ, बंभयारित्तिऽहं वए २४ ॥१२॥ जेणे वेसरियं नीए, वित्ते तस्सेव लुब्भइ २५ । तप्पभावुटिए वावि, अंतराय करेइ से २६ ॥१३॥ सेणावई पसत्यारं, भत्तारं च विहिंसइ २७। इस्स वावि निगमस्स, नायगं सिडिमेष वा २८ ॥१४॥ अपस्समाणे पस्सामि, अहं देवत्ति वा वए २९ । अवण्णेणं च देवाणं, महामोहं पकुव्वइ ३० ॥१५॥ ए ३० त्रीस महामोहनी स्थानक रहित तथा अंतरंगवेरी छ ६ थी रहित-काम १, क्रोध २, लोभ ३, हर्ष ४, मान ५, मद ६ ए छना त्यागी ते एकत्रीसमी छत्रीसीना छत्रीसगुणे विराजमान ते माहारा गुरु जाणवा. ॥३२॥ इगहियतीसविहाणं, सिद्धगुंणाणं च पंच नाणाणं। अणुकित्तणेण सम्म, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥३३॥
टबार्थ-श्रीसिद्धभगवंतना इगतीस ३१ गुण यथा-"पडिसेहण संठाणे, ५ वण्ण ५ गंध, २ रस, ५ फास, ८ वेजे ३ य । पण पण दु पण तिहा, इगतीसमकायसंगरुहा ॥१॥ अहवा कम्मे"नव दंसम्मि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते।सेसे दो दो भेया,
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गुरुगुणपत्रिंशत्पत्रिंशिका बालाषबोध.
खिणभिलावेण इगतीसं ||२||" ए एकत्रीस गुण तथा पांच ज्ञानमतिज्ञान, १ श्रुत, २ अवधि, ३ मनः पर्यव, ४ केवलज्ञान, ५ए सर्वना कहेवावाळा सम्म - भले प्रकारें ए छत्रीस गुणे करी बिराजमान ते माहरा गुरु जाणवा, ए बत्रीसमी छत्रीसी जांणवी. ॥ ३३ ॥ तह बत्तीसविहाणं, जीवणं रक्खणम्मि कयचित्तो । जियचउविहोवसंग्गो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥३४॥
४४७
टवार्थ - तिमज जीवभेद बत्रीस तद्यथा - "मुहुमेयर पुढविजलानलवाउवणणंत दस पत्तेया बितिचउसन्नियरयुआ, सोकस पज्जेयर बत्तीसं ॥ १ ॥ " ए वत्रीस भेद जीवना तेनी दयाना अधिकारी, अथवा आलोयणनिवलावे आवइमुहधम्मयाअनिस्सीओवहीणे; असिख्खानिप्पडिकम्मया ॥१॥ अन्नायया अलोभे अनिभिरुखा अज्जवेसुइसम्महिही समाहीअ, आहारे विणओवए ॥ २॥ धिइमइअ संवेगे पणहा सुविहि संवरे अत्तदो सोवसंहारे, सव्वकामविरत्तया ॥३॥ पञ्चख्खाणविउसग्गो, अप्पमाए लवालवे । झाणसंवरयोगे अ उदए मारणंतीए, ॥ ४ ॥ संगाणं च परिभाए, पायच्छित्तकरणे इय। आराहणाय मरणं, बत्तीसंयोग संगही ५. ए ३२ योगना जांण । अने जीत्या छे ४ च्यार गतिथी उपना उपसर्गादि तेथी ए ३२-४ छत्रीसीना पात्र ते जंगमतीर्थ महागुणसमुद्र मोक्षमार्गोपदेशक ते माहरा गुरु जाणवा. ए तेत्रीसमी छत्रीसी जांणवी. ॥३४॥ बत्तीसदोसविरहिय, वंदणदणस्स निञ्चमहिगारी | चउविहविगर्हविरत्तो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥३५॥
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टबार्थ - वांदणांना बीस दोसना त्यागी तेहनी गाथा - दोसम - गाढी १ थडीअ २ पछि ३ परिपिडियं च ४ टोलगइ ५
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४४८
गुरुगुणपत्रिंशत्प त्रिंशिकाना लावबोध.
अंकुस ६ कच्छभ ७ रिंगीय ८ मन्थु ९ व्वतं १० मणपउछ ११ वेइअ १२ बद्ध १३ भयं १४ भयगारव १५, मित्तकार - नातिनं १६ पडणीय १७ रुद्ध १८ तज्जीय १९ सढ २० हील, २१ विपलिअं २२ अंचि २३ दिमदि २४ संगं २५ करत २६ म्मोअण, २७ आलिद्धणालिद्धं, २८ ऊणं, २९. उत्तरचूलिअ, ३० मूढट्टर ३१ चुडलीअ, ३२ बत्तीस दोससुद्धं. ए ३२ दोषना टाळनार । तथा च्यार ४ विकथाना त्यागी ते राजकथा १, देशकथा २, भक्तकथा ३, स्त्रीकथा ४. एम ऐ ३२ - ४ = ३६ छत्रीसगुणे बिराजमान ते माहरा गुरु जांणवा. ए रीतें ए चोत्रीसमी छत्रीसी जाणवी. ए पांत्रीसमी गाथानो अर्थ जाणवो. ॥३५॥ तित्तीसविहासौयण - वजणजुग्गो अ वीरियायौरं । तिविहं अणिगृहंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ ॥ ३६ ॥
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टबार्थ — तेत्रीस ३३ आशातनाना वर्जक छे - " पुरओ पक्खा सने गंता चिण निसीयणायमणे । आलोयण पडिसुणणे, पुव्वालवणे अ आलो || १ || तहउवदंस निमंतण, अद्धाययणे तहअ पडिसुणणे | अद्धत्तिय तत्थगए, किंतु मतज्जायनो सुमणे ॥ २॥ एवं एयं होउ कहकहें, तस्स न सुमणो हवइ । तज्जाएणं हीलइ, पुणो पुणो निठुरं भइ || ३ || नो सिरसिकहं छित्ता, परिसंभिता अणु
आई | कहे संथारपाय घट्टण, चिटुच्च समासणे यावि ||४|| अहवा अरिहंताणं आसायणाए सिझाए किंचिनाहीयं । जा कंठ सुमुद्दिट्ठा तित्तीसासायणा इति || ५ ||" ए ३३ अने तीन प्रकारना वीर्य जिनशासरे कामे गोपवता नथी. ए छत्रीसी बिराजमान ते परमोपकारी माहरा गुरु तत्त्व जाणवा । ए पांत्रीसमी छत्रीसी जाणवी ॥ ३६ ॥
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Aartv..
गुरुगुणपत्रिंशत्पट्विंशिकाबालावबोध. ४४९ गणिसंपर्यट्ट चउविह, बत्तीसं तेसु निच्चमाउत्तो। चउविहविणयपवित्तो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥३७॥ ___टबार्थ-गणिसंपदा (-"आहार १ सुअ २ सरीरे ३ वयणे ४ वायण ५ मइ ६. पओग ७ सइ. ८ ए संपया खल्लु, अलुमि संगह परिन्ना ॥१॥ ए एकेकना च्यार ४ भेद मिळ्या ३२ बत्रीस भेद थाये ते ८४४=३२-आचारे, १ श्रुते, २ विनये, ३ व्याक्षेपे, ४ ए च्यार विनययुक्त इम छत्रीसमी छत्रीसीना धरणहार मोक्षमार्गना साधक, परभावविरक्त निर्मल शुद्धाध्यात्मभावध्यानी संपूर्णानंदरसी सारणा-वारणा चोयणा-पडिचोयणा-दक्ष, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाना परम धर्माधारभूत वर्तमान आगमधर ते आचार्य माहरा गुरु जाणवा. एम छत्रीस छत्रीसीना १२९६ बारसे छन्नु गुण जाणवा. ॥ ३७ ॥ .. . . जइवि हु सूरिवराणां, सम्मं गुणकित्तणं करेडं जे। सकोवि नेवसकाइ, कोहं पुण गाढमूढमई ?॥ ३८ ॥ ___टवार्थ---यद्यपि आचार्य यथार्थ धर्मप्ररूपक यथार्थ मार्ग वरतता जे सूरि कहेता आचार्य वर कहेता प्रधान तेहना. गुण क्षयोपशमी, क्षायकी, उपशमी, तथा औदयिक, सोपकारी, परोपकारीनो काइ अंत नथी. ते गुणनो कीर्तन करवाने इन्द्र. पण समर्थ नहीं तो हुँ जे गाढ मूढता सहित छे मति . जेहनी ते किम संपूर्ण गुण कही: शकुं ? पिण मोटकाना गुण कहेतां आत्मा गुणीरागथी एकत्व पाम्यो ते गुणनो अर्थी थाये, गुणार्थी थयो आत्मा स्वगुणने प्रगट करे ते माटे चेतना पोतानी गुणीना गुण गावा जगांडवी-जागृत करवी. ॥ ३८ ॥. तहविहु जहा सुआओ, गुरुगुणसंगहमयाउ भत्तीए। इअ छत्तीसं छत्तीसीआउ, भणियाउ इह कुलए॥३९॥ 57
२५
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गुरुगुणपत्रिंशत्पत्रिंशिकावालावबोध.
टवार्थ-तो पिण यथासूत्रे का छे गुरु जे शुद्धतत्त्वना कथक तेना गुणनी छत्रीसीओ कही ए कुलकने विष पोताना गुणना संग्रह करखा निमित्ते तथा भक्तिएं गुणनी छत्रीस छत्रीसी करतां १२९६ बोल थया ते कह्या. इति ॥ ३९ ॥ सिरिवयरसेण सुहगुरु-सीसेणं विरइअंकुलगमेयं। पढिऊणमसढभावा, भवा पावंतु कल्लाणं ॥ ४० ॥
इति गुरुगुणछत्तीसी समत्ता ॥ स्वार्थ-श्रीयुगप्रधान दश पूर्वधर संपूर्ण सूत्र अर्थना धारक, आकाशगामिनी प्रमुख महालब्धिना पात्र श्रीवज्रस्वामिना शिष्य जगत्रय उपकारी श्रीवज्रसेनगणि तेहना शिष्य जे गुणरागीमतिपणे ए कुलक रच्यो ते भणीने असठभावी एटले जिनशासनभावितमती जीव भव्यात्मा पामे कल्याणुनी परंपरा प्रत्ये. ए ४० मी गाथानो अर्थ. ॥४०॥
- हवे टवाकारप्रशस्तिश्रीमत्खरतरगच्छे, पाठका राजसारसत्संज्ञाः । तच्छिष्यपाठकोत्तम-धीराः श्रीज्ञानधर्मावाः ॥१॥ तेषां शिष्यावराः, पाठका दीपचंद्राभाः । तेषां शिष्येणायं, बालबोधो विनिर्मितः ॥ २॥ मुनिगुणस्मरणालंकृतः, विशुद्धचित्तेन देवचंद्रेण। भव्यजनानुग्रहकते, कृतः सदभ्यासरसिकेन ॥३॥ इति श्रीगुरुगुणपत्रिंशिकाबालबोधार्थः समाप्तः ॥
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अथ श्रीमद्देवचन्द्रकृतध्यानदीपिकाचतुष्पदी
श्रीगुरुभ्यो नमः। परमज्योति प्रणमुं प्रगट, सहजानंद सरूप; वसतौ निज परिवारसू, प्रणमुं चेतन भूप. श्रीजिनवाणी मन धरि, पाय नमी गुरुराज सारबुद्धिदाता सकल, तारण भवीयण जहाज.
२ परमातम समझाविवा, भविक जीव हित काज; ज्ञानसमुद्र अगाध गुण, देषाड्यो जिनराज. ३ संस्कृतवाणी वाचणी, केइक जाण जाण; ज्ञाता जननें हितभणी, भाषा करूं वषाण. गुणतां भणतां गावतां, टाली मन विषवाद, विकथा जांणी वारज्यो, मत को करो प्रमाद.
ढाल चउपई. ज्ञान सोभ आलिंगन करी, आनंदित परमारथ वरी; प्रणमुं हूं अज सहज विचार, परमातम अव्यय गुणधार. १ तीन मूवन कमलाकर सूर, धरम अमृत वर जलधर पूरः । जोग ध्यान कल्पतरुहेव, प्रणमुं रिषभदेव नतदेव. २ भवभय वह्निथकी संभ्रांत, जंतु जातिने करवा सांता सुधासमान चंद्रप्रभुस्वामि, ज्ञानसमुद्र सोभानो ठामि. ३
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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सुंदर संयम पाणी वरे, तीन जगत्त पवित्र ज करे शांतिनाथ स्वामि हूं नमुं, सख विघन दूरे हूं गमुं. ४ श्रेय कुमुद विकसावण भणी, पूरण चंद्र समोवड गिणी; । वंदू महावीर भगवान, अक्षय लिपमि दायक दान. ५ पूरण श्रुत नभ चंद्र समान, संयम लिषमि तिलक प्रधान; नमीय इंद्रभूति अणगार, ध्यानसिद्ध योगीस उदार. ६ सांतिरूप अति ही गंभीर, विद्या सकल धाम गुणधीर भव्यलोक सरणागत पाल, जय जिनसासन जगत कृपाल. ७ बोधि विवेक प्रसम हित भूप, सम्यक तत्त्व कथन ए रूप; ज्ञान ध्यान श्रुत तप ते सार, जिण निज रूप लह्यौ सुषकार. ८ इण दुषको संसार असार, जामि मुझे कुणसु विचार; मिथ्या ज्ञान प्रभव ग्रह जेह, निग्रह दक्ष सुजन सुष गेह. ९ एहवो कहूं ज्ञाननिधि ग्रंथ, दुत्तर जेम उदधिनो पंथ; मुझसू ए किम कहीयो जाय, जिणमें कोविद पिण मूंझाय. १० समंतभद्रादिक कविनी वाणि, दीपंती प्रभवे सुप्रमाण; तिहां ज्ञानलवधर जन कहे, पजुआ परि हासो ते लहे. ११ विविध कलंक जिनवाणि तणो, नासक देवनंदीथे थुणोः । जयवंतो जिनसेन वचन्न, जाण जोगी जिण निज धन. १२. श्रीजिनवाणि पवित्रित मती अनेकांत नभ ससि दीधती; भवि कलेसपीडित आतमा, जोगीपथ धरूं चितमां. १३
कवित तणौ अमिमान नहि, कीरति इच्छा कोई नाहि ग्रंथ उकत जे माहरी, केवल बोधन चाहिं. १४.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
वृथा जाणी भ्रम तजी, जागे मोक्ष निमित्तः ग्रहे राज्य समभावनौ, संभाली निज तत्त. वली केण उपाय करि, जन्म जात दुःष जाय; त्रिसना विषयतणी प्रबल, प्रसमे केण उपाय. पूज्य तेह गमाविवा, कारण कहीयौ ग्रंथ; करि उद्यम अपनो कहूं, बंध मोक्षको पंथ. ऊंची ध्वनि करि भविकने, गुरु धै ए उपदेश; जिण आवै निज शुद्धता, रहइ न दुरगति लेश. १८
वीर वाणी राणी चेलणाजी.
त्रिभुवन पूज्य इम उपदिशे जी, इह परलोक विशुद्धः शुभमती ज्ञान गुण सांभली जी, कुण ग्रहै ग्रंथ अशुद्ध १ उत्तम ग्रंथ तुमे सांभलो जी, छांडज्यो कुमतिनो पंथ; गुरु उपदेस मनमै धरी जी, टालि कुव्यान मनमंथ. लघुमती मदधर जगतमे जी, निज पर वंचक रूप; कीर्त्ति वंचक थका जग ठगै जी, तत्त्व विमुष अघकूप. ३ उ० शास्त्र तिणे सांभल्यां स्यूं हुवे जी, मन पँडै जेणै भवमांहि; आदि मीठो फल शून्य छे जी, विषम समौ विक्रिया झाझि ४ उ० अचरज अज्ञ मनुष्यनो जी, जे ग्रहे कुग्रह एहः सौ गमे तासु समझावतां जी, नवि तजै निज हठ तेह. ५ उ० शुद्ध नर शास्त्र ए वाचज्यो जी, दोष गुण एहना देषि; सुमतिधर द्वेष को मत करो जी, शास्त्र ए मोक्ष फल पेष. ६ उ० ग्राव जिम अवगुण गुण भणी जी, वहिचस्ये नियत मन लोक; दूषवै दुर्मती अतिभठी जी, भारती चंद्र जिम कोक. ७ ३०
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
चंद्रमा सहु भणी सुष करे जी, सूर्य पीडा करे सर्व;
ए गुण दोष सभावना जी, तेथ करवो किसो गर्व. एह आतम महामोहसुं जी, कलंकित होइ जिण शुरू; तेह मंदिर निज हित भणो जी, तेह पर ज्योति प्रतिबुद्ध. ९३० भुवन जम सर्प डंकित गणी जी, कुमति तजि ध्यान ग्रह लद्धः जन्म मरणादि दुष जाणिने जी, सम गिणइ तेहि ज सिद्ध. १० उ० इंद्रीय रक्ष स्मर सिंहथी जी, जन्म दुःष जाणिजे जाण; घूमीया मोह निद्रा की जी, जागे ए कोइ सुभ नाण. ११ उ० कुमति कषाय विष मंझिया जी, जीव सह संत कोइ शांतिः मुक्ति लक्ष्मी मुख देषवा जी, उत्सुक तजि पर भ्रांति. १२ ३० दुष पीडित जग गिणीजी, संत पामै भव तीर; कर्मकलंक अनादिना जी, तुरत धोवै मतिधीर. कर्मकलंक बाधा विना जी, सानंद शुद्ध स्वभाव; संत जिन मोक्ष इम वर्णवे जी, जिहां नही जनम दुषराव १४३० जीवित सर्वनो सार ए जी, नरभव दुरलभ जाण;
१३ ३०
छोडि परमा शुभमति धरीजी, आदरौ आतम नाण. १५३० सठ जन काल अहिलो गमै जी, बुद्ध फल लेइ दुरस्स दुष ज्वाला भर्यौ गहन है जी, एह सुष अंत विरस्स. १६ उ० काम धन जीवित चल अछै जी, वीजली जेम ए फंद; उत्तम जे तजै ते लहे जी, राजविमल सदानंद.
दृहा सोरठा.
संगी थकी विषाद, देहि छीजै रोगयी; आप मरण प्रमाद, आपद दिन प्रति हवे.
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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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नरक भयानक दुष, भोग सुपन सम ठग अछै; सेवै ज्ञानी सुख, पर स्वभाव निस्पृह को. नवि पामै कल्याण, आतम तच न ओलषे; जनम विनश्वर जाण, करमबिडंबन नवि लषे. ३ पोटो बुद्धि विनोद, करि मूरष आपो ठगै चंचल ए आमोद, कार्याकार्य न जाणही. ४ सर्व जीव सम भालि, निर्ममता मनमै धरे; टाली मननो साल भाव शुद्ध मनमें धरै. ५ भविजन चित्त विचार, भाव शुद्धि कारण भावना; मुनिजन मन आधार, कयौ संवेग सुहामणो. ६ भाषी श्रीभगवंत, भावना बारह भावसुं;
भावी टाली प्रांति, मुक्ति गेह सोपान सम. ७ दाल-आश्रव कारण ए जग जाणी यै ॥ एहनी.
भाव अनित्यपणो चित्य भाविइं, ध्यावो आतम ध्यान; इंद्रिय अर्थ विनश्वर जाणीय, सुष दुष असमान. १ भा० भवमें भमतां रे सगपण जे कीया, नीरस आपद थान; देह जोवन ते रोग जरा भयौं, धन जीवित चल मान २ भा० परभाते जे वस्तु निजर पडै, ते मध्याने रे जाय; संसारे सुष दुःख बे बोलतां, दुष अनंत गिणाय.३ भा० भोग भुजंग प्राणहरण कह्या, सेवंतां संसार; वस्तु विनश्वर सवि तूं जाणिनै, छोडि कदाग्रहद्वार. ४ भा० षिणकपणो इम आरिज ऊचरइ, घडीयाल दृष्टांत; घटिका जावे नावे ते फिरी, करि आतम हित षांत. ५ भा० देह अपूरव साश्वत जो हूवै, तो करियै अवकर्मः
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
पुत्र स्त्रीधन बांधव कारणें, स्यूं षीजे धरि भर्म. ६ भा० स्त्री किण साथ न आई आवश्यै, तौ स्यौ इण स्यूं रे राग; जे पूरव भव रिपु ते इण भवे, बांधव वचतै रे राग. ७ भा० जे बांधव ते बइरी आकरा, हणवा उच्छक दुष्ट; वनिता पासे बांच्यो तं पंडे, भवकूपे बहु कष्ट. ८ भा० जे भव पांडे ते बांधव नही, बांधव हितकर साधु; देह आयु तुटे षिण मोहथी, दीपे चित्र अगाधु. ९ भा० शीत जीवित भणी वह्नि विषाग्रहे, विषय थकी सुष नाहि; जे काजै तुं पातक आदरे, तें वंचे तुझ साहि. १० भा० तेह परिग्रह सूष कहि किम करे, निज गुण हाणिज थायः बाहि दृष्टि कुमति प्राणीया, दुधीया नरके जाय. ११ भा० नरभव एणे तेहि ज आदरे, उभय लोक सुषकार; वधारे विषपादप नवि करे, विहवे निज हित सार. १२ भा० रात्रे पंपी जिम नग आसरे, तिम प्राणि कुल थान; परभाते ऊडे ते पंषीया, तिम करमवस मान. १३ भा० परभाते जिहा गहमह गीतनी, सांझे विरूई वात; जे परभाते राज्ये थापीयौ, ते चिंता गृहे राति १४ भा० जे अणुआ तुझ अंगे आज छे, ते षांड्या लषवार; real पुद्गल कोइ रह्यो नही, न ग्रह्यो वपु आहार. १५ भा० देव असुर नर धन सहु चल अछे, इंद्रधनुष सम भायः आवै जावै जलकल्लोल ज्युं, को घाटइ को घाय. १६ भा० नदीय तरंग गयावलि बाहुडे, न थिरे जोवन प्रेम; आऊषो करजल ज्यूं नीगमे, कमल दहै जिम हेम. १७ भा० विषय संयोग सुपन सम क्षणक छे, सुषना वंचक पेष; कुल बल राज्य कीरति धन ए सहू, मेघघटा सम लेष्य. १८ भा०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
नर नारी वपु सुंदरता सहु, ते जलफेन समान; ज्योतिचक्र ऋतुगति ज्युं थिर नही, तिम वपुनी थिति मान १९भा पुरख पुदगल जे वल्लभ हुता, ते दुषदायक एथ;
इंद्रजाल जिम जगमें सह पंडे, हेत न जागे तेथ. २० भा० जे जे तीन भुवनमे वस्तु छे, चेतनथी ते भिन्न; जे ते सगली मुनिवर उपदिसे, क्षणक विनश्वर तन्न. २१ भा० संख्या वान समो स्त्रीनेह छे, वादल सम योवन्नः षिणक स्वरूप जाणी संसारनौ, विद्युत्ज्युं परजन्न. २२ भा० दुहा.
श्रीसदगुरु इम उपदिसे, सुणिज्यो भवियण लोय; अशरण भावन भावतां, भवदुष कदे न होइ.
ए संसार असार, सुर नर नागकुमार; रहि न सके पलभार, तूटै आयु जि वार.
४५९
ढाल - मेरे नंदनां एहनी.
एहवो प्राणी को नही रे हां, जे न पडै यह फंद; अशरण भावि यै रषवालो यमसिंहथी रे हां, कोई न योगी इंद.
१ अ०
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१
२
३ अ०
अ०
४ अ०
जीतौ जग इण एहकलै रे हां, जिण आगे हरि दीन; अ० मूरष शोक युंही करे रे हां, ए सहु करमाधीन. भुवन यमसापें डस्या रे हां, वीता पुरुष प्रधान; देव उपाये नवि रहै रे हां, तौ नरकै है ज्ञान. नित्य प्रयाणे जीवने रे हां, यम ल्यावइ निज गेह; यमभय रहित जिके अछे रे हां, धीरज धरि भजे तेह. ५ अ० जे परने ते तो भणी रे हां, सुष दूष सम करि जोइ; जिम इक तरु अनले बले रे हां, तिम वन बलइये सोइ ६ अ०
अ०
अ०
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४६०
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
बाल वृद्ध धन निरधनी रे हां, जिम कायर तिम सूरः अ० मन्त्रोषध सेना सहू रे हां, जूठी काल हजूर. ७ अ० ए नर सबलौ जां लगै रे हां, न सुणै रविसुत गाज; अ० मन आस्या मनमैं थकां रे हां, निरदे हणे ए काज.८ अ० जगत्त डरै गिर पडहडे रे हां, जेहना करडा नैण; अ० ते पिण कालै संहर्या रे हां, वांसे रहीया वैण. ९ अ० हरिहर हलधर रवि शशी रे हां, देव पवन अहिनाथ; अ० इत्यादिक राषे नही रे हां, साहे यम यदि हाथ. १० अ० नासै मृगली चेतना रे हां, यमकंठीव नाद; अ० ते तू राषि सके नही रे हां, तो भोगे किसो सवाद ११ सागर सुरपति गेहमें रे हां, पातले नग प्रांत, भूहरे पंजर ब्रजमे रे हां, पहचै आय कृतांत. इण अंतकमुष षाडमे रे हां, तीने लोक समायः काम भोग लालच पड्या रे हां, ते नर दुरगति जाय. १३ अ० ते सरणो तकि बापडा रे हां, जिणथी भाजे चिंता अ० ओलष गुण तूं आपणो रे हां, शिवपुर मारग तंत. १४ अ०
चोगति भमर भमै तिहां, दुष वडवानल जाल; भमै जीव तिहां बापडा, भवसागर भय झाल. उपजै विणसै कर्मवसि, त्रस वलि थावर जीव;
ऐ संसारी भावना, भावो भवीय सदीव. २ ढाल-तिणे अवसर बाजै तिहां रे, ढंढेरानो ढोल. एहनी. देव आयुष वसि देवता रे, पामे वैक्रिय देहः . च्यार निकाय अ कल्पना, मानै सुष ते सुसनेह रे. १
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
आतम गुणधारी, सगला सुष एह संसारी; चितमे दुषरूप विचारी, मद मारी रे होइज्यो हितकारी. २ आ० चवीय पवन परिभव भमी रे, पडे नर कगतिमाहिः जगत विडंबन ते लहै, तिहां ऊंच नीच कुल साहि रे. ३ आ० देव चवी कुकर हुवे रे, कुकर देव ज होइ; श्वान हुवै श्रोत्रीया मरि, मातगयी वडव जोइ रे. ४ आ० रूप ग्रहे बल छोड ने रे, नटुआ जेम सदीव; अति दुष मिथ्यातूं तप्या, ए पंच प्रकार जीव रे. ५ आ० द्रव्य क्षेत्र भव भावयी रे, कालादिक बहु दुक्ख; सख संग प्राणी लह्या, बस थावर करी रूप रे. ६ आ० चौगति योनि न का रही रे, को न रह्यो कुल देशः इण प्राणी सुष दुष पणे, लाध्या अनंत प्रदेश रे. ७ आ० बंधु न को न को रिपु अछे रे, इण संसार अगाहः राजा मरि कीटक हुवे, तिम कीटकथी नरनाह रे. ८ आ० मात सुता स्त्री अंगजा रे, भगिनी तेहि ज नारः । पिता पुत्र ते सुत पिता, ए पामे पद बहु वार रे. ९ आ० नरक दुषै क्षेत्रादिना रे, दीठा दुष अनेका भार मूष त्रिष श्रम घमे, तिर्यंचगति अविवेक रे. १० आ० मानव उद्यम बहु करै रे, रागदिक दुष देषः । भमतां इण संसारमे ते, दीठा दुष नितमेव रे. ११ आ.
दूहा. एण मुवन मरुदेसमे, पीडित नित दुष आग, फियौँ एकाकी जीवडो, पिण, न धर्यो वैराग. - कर्म शुभाशुभ भोगवै, इण देहै ए जीव;
देवादिक पिण, सुष सह, आपदरूप सदीव.
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४६२
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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गरभ जनम मरणादि वलि, सुष दुष जोग वियोग;
जीव इकेलो भोगवै, आधि व्याधि सह सोग. ढाल-नायक मोह नचावीयो. एहनी.
भावो एकल भावना, संग न कोइ संसारो रे इंद्र चंद्र नागेंद्र को, अंते नहि आधारो रे. १ भा० पाप करे परजन भणी, नरक दुष तूं पामे रे पावणवेला सहु मिले, दुष मंडे तुझ नामे रे. २ भा० जन्म मरण तूं भोगवे, एक थको अयाणो रे . आप सरूप जाण्या विना, जीव भमे विण नाणो रे. ३ भा० मोहवसे ए एकलौ, चंचल धन वर प्रांतो रे बंधे आपोआपने, कुलीया वड दृष्टांतो रे. ४ भा० एकपणो जे आदरै, पामी आपस्वभावो रे जन्म मरण दुष तो टले, तजि रागादि विभावो रे. ५ भा० कोइ दिव्य सुष भोगवै, केइ नरक दुष धावे रे. को क्रम बांधे क्रोधथी, के सह कर्म धपाइ रे. ६भा०
ए चेतन ए देहथी, ज्ञानरूप मिन्नत्व; बंधादिक निजगुण नही, भाषो भाव अन्यत्व. १
पुनरपि ढाल. पुद्गल जीव अनादिनो, बंध ज एक ज होई रे कनक उपल जिम एकता, निश्चय जूआ दोय रे. .
भावो अन्यत्व भावना, आंकणी.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
४६३
रूपी चंचल देहमें, अमूरतीक ए {झै रैः । अणु निष्पन्न शरीरने, ज्ञानी पर करि बूझे रे. ९ भा० जन्म मरण दुष उपजे, अन्य सहू ए संगो रे चल पुदगलथी ऊपनो, तिणसुं केहो रंगो रे. १० भा एह शरीर न ताहरौ, तो किम परजन धन्नो रे, पंच द्व्यनो संगते, चेतनथी सहू भिन्नो रे. ११ भा० मित्र स्त्री सुत संपदा, मात पिता वलि देहो रे ज्ञान भाव चित्तमें धरी, भिन्न गिणे सहु एहो रे. १२ भा० मिथ्या बंध्यो तूं भम्यो, भवमें दुष बहु पायो रे निश्चल भ्रम विण शाश्वतौ, हिव चेतन घर आयो रे. १३ भा०
नंदनीक मइलो सदा, अशुचिभर्यो ए देह शुक्रादिवथी ऊपनौ, जाणि दुगंछा गेह. अशा मां, लोहीभर्यो, जूनो कीकस थान; नशाबध दुरगंध ए, इणरौ किसौ वषाण. नवे द्वार झरता रहै, दूरमिगंध क्षण नीत; रोग जरा कृमि गेह ए, इणसू केही प्रीत. जे देषे इण देहमे, तेह दुगंछा गेहा
धोवे जे जलथी तिको, सहज बिगाडे एह. ढाल-धरम हीयै धरो. एहनी.
एह शरीर जे आपणो रे, वीट्याउ चर्म न होइन तो माषी कृमि कागथी रे, राषि न सके कोयो रे. १ भावना भावीय, भावन शिव सुष साथो रे; गुणनिधि सम अछे, इम आषे जगनाथो रे. २ भा०
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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
देह अशुचि रोगे भरी रे, पतनसरूप शरीर; एहनो फल एहज ग्रहो रे, धारो धर्म सधीरो रे. ३ भा० ए दुष वधुथी ऊपजै रे, देह अशुचिनो गेह; जे भव भमतो तूं सहै रे, ते दुष कारण देहो रे. ४ भा० केसर अगरने मृगमद रे, हर चंदन कर्पूर,
मइल ग्रहै वपुसंगयी रे, देह अशुचि भरपूरो रे. ५ भा० अस्थि चरम पंजर अछे रे, कुथित मृतकसम वास; जो षायम रोगादिना रे, प्रीति धेरै नहि तासो रे. ६ भा० दूहा. मन वच काया जोग गुरु, कह्या ज आश्रवरूपः ए तत्वज्ञानी परहरो, जाणी अवजल कूप. ढाल - तेहीज.
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जिम छिद्रे जल नौ ग्रहै रे, तिम योगे करि कर्म; संयम प्रशमादिक करी रे, घरे शुभाशुभ भर्मो रे. ८ भा० कर्म बीज रागादि छे रे, जन्मादिकनो जाण; विण व्यापारयुत ज्ञानसूं रे, सत्यवचन शुभ वाणो रे. ९ भा० नंदनीक दुष पंथ छै रे, पापाश्रवनौ धाम;
कुड कठोर वचन तणो रे, मत को आषौ नामो रे. १० भा० काउसगा तनुगुप्तथी रे, बंधायै शुभ कर्म,
आरंभ जंतु वातादिकै रे, पाप तणो भर हम्मों रे. ११ भा० क्रोध काम विषयादिकै रे, मिथ्या पंच प्रमादः
अशुभकर्म चेतन ग्रहै रे, ते तजि आश्रववादो रे. १२ भा०
दूहा. आश्रव सर्व निरोधनो, संवर आख्यो एह; द्रव्य भाव दोइ भेदथी, भवियण भावो तेह.
१२
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
कर्म मुक्ति संवर को, द्रव्यथकी मुनिरायः तजै कृपा संसारनी, संवरभाव कहाय. अविरतमय बाणे करी, मुनित्रत विभेदाप जेम सुभट संग्रामे, निजरिपुसाम्हो जाय. कर्मबंध आश्रव अछे, ते रुंधे मुनिदेव क्रोधादिकनै वारी, क्षांतादिक धर्म सेव.
ढाल - बहिनी रहि न सकी तिसइजी. तजि मिथ्या समकित थकी जी, रागादिक समयोग; फोडे तम अज्ञाने जी, ज्ञान सूर्य उपयोग.
१
विवेकी संवर भावना भाव.
दूहा.
कर्म गलै जिणथी सकल, जनम मरण अंकुर; मुनिवर भावै भावना, निर्जर नाम सनूर. ढाल - तेहीज.
४६५
क्रोधादिक रिपु भांजिवा जी, एहि ज उत्तम दाव. २ वि० सं० अविरत विष त्यागे मुनि जी, विरति सुधाकर पान
काम अकाम दुभेदनी जी, कहि निर्जरा देवः कही सकाम मुनीसनें जी, निकांमेइ सहु जीव. भविकजन निर्जर भावन एह,
59
१३
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३
जन्म न पांमे ते सही जी, द्वारक समज सुज्ञान. ३ वि० छोडे विकलप जानें जी, धारे मन चिद्रप
४ वि०
तेह मुनीश्वर जाणीयै जी, संवर परम सरूप. मूल सुमति यम षंध छे जी, फूल धरम सम साथ सुंदर फल जसु भावना जी, जय संवस्तरु आप. ५. वि०
४
१
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४६६
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
यतन थकी पोता थकी जी, दाप्यो फलनो पाक; तिम ही जांणै कर्मनौ जी, तजि जाणी किंपाक. ७ भ० कांचन सोझे अगनथी जी, तिम चेतन तप आगि; धीर अध्यातम तप तपै जी, जाय जन्म दुष भागि.८ भ० षट विध बाहिज तप कयौ जी, उपवासादि प्रधान; प्रायश्चित्त विनयादिए जी, अंतरंग षटमान. ९ भ० पामी पदवी ज्ञाननी जी, करेय तपस्या साध; तिम तिम तिणथी वेगला जी, नासै कर्म अगाध. १० भ० ध्यान अगनि कर बालीय जी, पूरव करम समूह; तद प्राणी उज्जल हुवै जी, जाणे सोवन व्यूह. ११ भ० तां लगि तप प्राणी करै जी, ध्यान धरै तां सीम; कर्म पपावी ते लहै जी, ज्ञान परम सुष नीम. १२ भ०
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जेण थकी तनु सुचि हुवे, धरै ज्योति तिहां तेही धरमकल्पतरु ते नमो, दया भावनो गेह. चिह्न धरमरा दस भला, दाध्या श्रीजिनराय; जासु अंस सेव्यां थकां, शिव पामे मुनिराय. मिथ्याती न कही सकै, तेहनो सुद्ध स्वभाव; हिंसा पोषक जेहनो, सहू ग्रंथनो राव. चिंतामणि निधि कल्पतरु, कामधेनुइं इत्यादिः सेवक सगला तासु जिण, लाध्यो धर्म अनादि. नर अहि असुर नराधिपति, पदवी आपे एहः पूजनीक त्रय भुवन जे, ते लिषमीनो गेह,
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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ढाल-रमणि आठे अति भलि एहनी.
जिनप्रतिमा जिनसरीषी वंदनीक. जे पड्या विसनै धर्मरइ, इण चराचर जगमांहि; ते सुष अमृत पूरीयो, पोषे जगत उछाह. १ भवियण भावझू धर्म धरो धरि हेत आंकणी. घन वायु सूरज चंद्रमा, क्षोणी समुद्र सुरेन्द्रः .. ए जगत उपगारी कह्या, रक्षक धर्म नरेंद्र. २ भ० ए सहू जनने पालिवा, दाषीया अधिके तेज; उपगारी निश्चय कयौ, जिनवर धरमसुं हेज. ३ भ० जगमांहि भुक्ति अरु मुक्तिनो, कारण कयौ इक धर्म; पाय नमै धर्मीतणा, देवादिक गति धर्म. ४ भ. गुरु मुक्ति स्वामी बंधु धर्म, सरणौ अनाथां नाथ; ए नरक पडता जीवने, काढे घाली बाथ. ५ भ० पडतां थकां प्राणी भणी, नरकांधकूप मझारः ए धर्म अवलंबन अछे, शुद्ध स्वरूप उदार. ६ भ० ए धर्म अतिशय बहु भयौँ, कल्याणमाला गेह; सर्वज्ञ वैभव द्ये सही, ए नर विघन अछेह. ७ भ० साथै रहै ए एह हित, छै एह रक्षावंत; ऊधरे जन्म कर्दमथकी, थापै पंथ महंत. भ० जिनधर्म सरिषो को नहि, भवमांहि सुषनो ठामः . आनंदपंकजरूप ए, पूजनीक हितधाम. ९ भ० अहि अनल विष व्याघ्रादियी, गजराज राक्षस चोरः ए धर्म टाले सहु भणी, राजादिक भय घोर. १० भ० ए धर्मशक्ति न कही सकै, सुरपति अहिपति कोइ। मुहडे थकी धर्म सहु कहे, तत्त्व न जाणे न लोइ.११ भ०
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ध्यानदीपिका चतुष्पदी.
क्षांत्यादि दसविध धर्म ए, गत वच तन मन दोष; मत बुरो वांछे परभणी, एहि ज धरमनौ पोष. १२ भ० नागेंद्रनगरी सुषकरू, ए धर्म नरभव सार; देवलोक सुषनो गेह ए, ए शिवसुष दातार. जो नरकदुषथी ऊभगे, देवलोक सुषनी चाह; जो मुगत सुष बांछा करे, तौ करि धर्म उच्छाह. १४ भ०
१३ भ०
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दूहा.
जिनमें सगला भाव छे, चेतन जड बे थोक; सेह लोक घट द्रव्यनो, थानक शेष अलोक. atest पवन त्रिलोकमय, तालरूप आकार, न कर्यो न धर्यौ नाश नहि, शाश्वत सहु साधार. अनादिकालनों सास्वतो, अंतर हित विण नाथ; जीव पदारथथी भयौं, सर्व द्रव्य जसु आथ. वित्रासन आकार तल, मध्ये झालरि जेम; अंते मादल सारिषौ, लौक रह्यो छै एम. तिहां कर्म वसि जीवडो, उपजे विणसे सर्व; जिहां उतपत्ति विनाशयुत, छए रह्या छे दर्व. सर्व वस्तु परिपूर्ण ए, सिद्ध अनादि पुरांण; तजि उपाधि समभाव ग्रहि, भावना लोक वषाण.
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१
३
ढाल - भरतनृप भावस्युं ए एहनी.
दुष दोहरा पीडित सदा ए, नरक तणी गति जोइ बोधि दुलभ अछे ए, थावरमांहि भमे वली ए. करमवसे त्रस होइ, १ दुरलभ समकित अ ए. आ०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
संज्ञी पर्यापति ह्वो ए, पंचेंद्री तिर्यचः नव नव गति प्राणी लहे ए, पाप पुण्यने संच. दु० २ नरभव कुल जात्यादिकें ए, पामे उत्तम योग दु० काकताली न्याये लह्यो ए, आउ बुद्धि अ सोग. ३ दु० विषय तजे सम आदरे ए, पूरव पुण्य प्रमाणः दु० निश्चय तत्त्वजो नवि ग्रहे ए, तो सुष सम सहु जाण. ४दु० अति दुरलभ जिन धर्म लही ए, म करि प्रमादनी तात; दु० रतन अय मारग लही ए, मूष ग्रहि मिथ्यात. ५ दु० पाप भ्रष्ट परने करे ए, मत पाषंड देषालि; दु० तजि विवेक माणिक समौ ए, आदरे अपनी चाली. ६ दु० अवर सासण मिथ्या अछे ए, अणजाण्या रमणीक; दु० ज्ञान विना इंद्रीदमे ए, विण लाधे धर्म ठीक. ७ दु० विरत न भवउदधिमें ए, नरने सोहिलो नांहि; दु० रयणउदधि पड्यौ आवणौ ए, दोहिलो जेम कहाय.८ दु० सुगम सकल वस्तु नगतनी ए, अहि-सुर-नर-पति राज; दु० कुल बल स्त्री सुष सोहिला ए, दुरलभ बोधि समाज. ९ दु० ज्ञानी भावना क्रीडतो ए, पामै अविचल राजा दु० मोह रागादिक क्षय गया ए, ज्ञान भाव सुणि गाज. १० दु० एहवी द्वादश भावना ए, निश्चय शिव दातारः जे शिव संगम लालची ए, ते करे भावना प्यार. ११ दु० प्रसन्न हृदय जोगीतणो ए, भावना करै उदारः सुभचंद्राचारिज कह्यो ए, भावनानो अधिकार. १२ दु० देवचंद्र कहै रंगस्यूं ए, शास्त्रतणे सहि नाण, दु.
साहाय्य कुंभकरण तणै ए, खंड चढ्यौ परमाण. १३ दु. इति श्रीज्ञानावे योगप्रदीपाधिकारे पंडितदेवचंद्रविरचिते ढालभाषाबंध-द्वादशभावनापरूपक-प्रथमपंडः संपूर्णः ॥ १ ॥
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
अथ द्वितीयखंड.
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दूहा.
किरिया ज्ञान मिल्या थकी, द्रव्य अनें परजाय; सोनो सुर गंध, मिलियां शोभा थाय. प्रथम खंड बीय खंड, मिलियां लहसी शोभ; भवियण सुणज्यो नेह धरि, तजी क्रोधमय लोभ. इण अनादि संसारमें, दुरलभ नरभव एह; काकातालीन्यायें लह्यो, सफलो कीजे तेह. पुरुषारथ नर जनमफल, तेह कह्या चउ भेद; काम धरमारथ नवनवा, यउथो मोक्ष अषेद. तीन वरग व्यवहार छै, जन्मादिकना ठांम ज्ञानी आतम साधिवा, मोक्ष अपूरव थांन. ध्वंसे कर्म मिथ्यातमल, जन्मादिक प्रतिकुल; मोक्ष नाम तेहिज कौ, शुद्धतम अनुकुल. वीर्यादि अनंत गुण, सहित रहित सहु क्लेश; चिदानंदमय सासतौ दाप्यो मोक्ष अलेश. विषयहीन उपमारहित, अविच्छिन्न सुषठाण; स्वयंसिद्ध नित सास्वतो, एह मोक्ष वषाण.
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१
३
ढाल - करमपरीक्षाकरण कुमर चल्यो रे एहनी. आतमरूप विचारौ प्राणिया रे, ध्यानतर्णै सहि नाण
निरमल सांत कलंकविना अछे रे, सिद्ध कृतारथ भाण. १ आ० जिण कारण बहु पंडित तप तपै रे, तजी बंध सम्यग्ज्ञानादिक जिनवर कह्या रे, शिवसाधनना दाव.
भावः २ आ०
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nirmirmanand
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. ४७१ ज्ञान सुधारस पान करी तुम्हे रे, भाजो भवदुषराजि; भवसमुद्र तरिवाने प्राणीया रे, साहौ ध्यान जिहाज. ३ आ० करम षप्याथी मौक्ष कहै मुनि रै, तेहनौ साधन ध्यान; छोडि कल्पना उपशमरस भजी रे, ग्रहज्यो ध्यान सुज्ञान. ४ आ० संग अविद्या तजि भजि स्वस्थता रे, ज्युं पसरै शुभ ध्यान; जन्म जलधि तारक ए आतमा रे, ध्यानरूप कर मान. ५ आ० ध्यान कहूं जो तुझ विवेकथी रै, थयौ हुवे थिर हीउ, मोहनिंदथी जो जाग्यौ अछे रै, तो ध्यान सुधारस पीउ. ६ आ० बाहिर अंतर पर मूरछा अछे रै, विषय प्रमाद निवार; तत्त्वरूप सुषकारण आदरौ रे, आतमध्यान उदार. ७ आ० रागादिक भ्रम जो तुझ क्षय गया रे, तो धरि ध्याननो व्याप; संवेगादिक धीरज धरि धरो रे, न वमे शुद्ध ए आप. ८ आ० काम भोग वपुनी ममता टलै रे, ध्यान योग्यता थाय; जन्म मरण दुषथी जो ऊभग्यौ रे, तौ धरि ध्यान उपाय. ९ आ० चित्त पवित्र करे दे मोक्षने रै, योगी गोचर ध्यान; ज्ञान ज रूपी साधक ज्ञाननो रे, साध्य रूप पिण ज्ञान. १० आ० के खेपरूचि विस्ताररुचि रे, चित्र विचित्र प्रकार दाप्यो सूत्रमांहि संक्षेपथी रे, आतम तीन प्रकार. ११ आ० पुण्य पाप उपयोगनी शुद्धता रे, दाष्या तीन प्रकार; पुण्य शुद्धलेश्यावसि ऊपजै रे, ध्यान द्रव्य सुविचार. १२ आ० मिथ्या पाप कषाय प्रमादियी रे, ऊपजे ध्यान अशुद्ध रागादिक क्षय आतम शांतता रे, हुवै शुद्धातम लद्धि. १३ आ० दिव्य सौख्य जन ध्यानथकी लहे रे, अनुक्रम तौ शिव थान; दुष्ट ध्यान दुरगतिकार अछे रे, अंत कडकफल मान. १४ आ०
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४७२
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
...
.....
..
...
ज्ञान राज्य फल छे इण ध्यानरौ रे, सहज साह भ्रममुक्तः । ध्यानसरूप कह्यौ संक्षेपथी रे,बंध मोक्ष फलयुक्त. १५ आ० मिथ्याज्ञान चरित्र कुनयथकी रे, लोक भ्रमे भ्रम पामिः छेदी ते सहु तुरत लहे मवी रे, शिवपद आनंदधाम. १६ आ०
दूहा.
च्यारे प्रकारे ते कयौ, जिनवर पहिला ध्यान; ते सुध करिवा दापस्युं, गुण अवगुणनौ थान. १ अन्वय कलि व्यतिरेकथी, गुण अवगुण परपंच; हेयादेय सुभावथी. ध्याता ध्यान तदंगत्रय, दरसन ज्ञान चरित्र; ध्येयतणा गुणओलषण, फल तसु ज्ञान पवि. आगमथी पंडित कह्या, च्थार प्रकार ज एह; ध्याता १ ध्यान २ सुधेय ३ फल ४, भविषण भावो तेह. ४ शांत चित्त मुनिवरजिको, संवरवंत सुधीर; जन्म मरणथी ओसयौँ, ध्यानी गुणे गहीर.
ढाल-के केई वर लाध्यो एहनी. ए तो उदयकरधनथकी, ऊपनौ दुष अनल अथाह रे; भवियण सुविचारौ तेण जगत्त दहै सहू, तिम रूंधे शिवपुर राहरे ॥१॥ भवियण सुविचारौ. दाहरूप इण जगत्तमें, वलि मोह अनलनौ गेह रे भ० मद प्रमाद छोडी करी, छुटा जोगीसर तेह रे. २ भ. पंडित जीप सकै नहीं, ए व्यसन पड्या ग्रहवास रे, भ० घरमै मन नवि थिर रहै, तिण छोड़ घरनी आस रे. ३ भ.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
४७३
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ए तो गृहना धंधा सोममै, पर आस्याए दुषधाम रे, भ. स्त्रीसंगे गृहवासमैं, न हुवै आतम हितकाम रे. ४ भ० एतो नित नित चिंता नवनवी, मिथ्या अज्ञानयी अंध रे; भ० अनल समै गृहवासमै, किम थायै नित्य निज गुण संधिरे; ५ भ० एतो पूता आपदपंकमे, रागज्वरपीडित एह जी; भ० परिग्रहसाप डस्या थका, नवि पामे ज्ञान अछेह रे. ६ भ० हित अहित जाण्या विण आपनें, बंधावै गृहीय सदीव रे; भ० बंधै निज कृत पापथी, जिम कुलिया वड जीव रे. ७ भ० सेना राग वैरी तणी, विण संयम जीपै कोण रे भ० जिण संगे गिरवर वले, तिण आगे मन तौ गौण रे. ८ भ० गगनपुष्प खरशृंग जो, गृहमे होवै तो ध्यान रे, भ. न हुवे गृहवासे वस्यां, मिल्यां काल देश वलि थान रे. ९ भ० सुपने पण मिथ्यामती, न करी सके ध्याननी सिद्ध रे; भ०, स्वेच्छा दृष्टि विकल थकी, देषे ते द्रव्यनी रिद्ध रे. १० भ० मत पाषंड कदाग्रही, जिनलिंगी तौ पिण मूढ रे भ० धर्म अनेक द्रव्यां तणौ, नवि जाणे पडिया रूढि रे. ११. भ. केइ अनित्य आषे वटी, केइ आपण नित्यरूप रे भ० मिथ्याती जाणे नही, ध्रुव अध्रुव लोक अनूप रे. १२ भ० भावना ध्येय जांण्या विना, दुषरूपी ध्यान अभ्यास रे. भ. किरियावादी एक सौ असी, सतसठि अज्ञान निवास रे.१३ भ० चोरासी अक्रियमत तणा, बत्रीस विनयमत धार रे भ० सिद्ध लामे इक ज्ञानथी, ज्ञानवादि मतिनौं सार रे. १४ भ० के सिद्ध कहै दरसणथकी, कारण सहु बीजा छोड रे भ० के चारितथी सिद्ध कहै, छोडी दे ज्ञानरी जोड रे. १५ भ०
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ध्यानदीपिकाचतुष्यदी.
के वलि कारण दोय, भाषे शिवप्रापति वाण रे;
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रे;
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कल्पै नव नव कल्पना, ते नर मिथ्याती जाण रे. १६ भ० ज्ञानहीन किरियाथकी, वांछे नर जे फल शुद्ध रे; चक्षुहीन चाहै तिकै, तरुळायाथी फल शुद्ध रे. अंध क्रिया पंगु ज्ञान है, श्रद्धा विण न सरे काज ज्ञान क्रिया दर्शन थकी, पामे सहु आतमराज रे. कारकक्रम सहु लोकमे, विवहार चले छे अद्य रे; एकांतवादी माने नही, निज पक्षग्रहंता सद्य रे. १९ भ० जसु मति जिनमतवादनी, ध्यान सिद्ध भणी ते योग्य रे; भ० चंचल मन मुनि ध्यानमें, जिनवचने का अयोग्य रे. २० भ० ध्यानयोग्य नही मुनिनाम जे, लिंगवारी सूत्र विरुद्ध रे; भ० मन वच काया भिन्न जै, ते न लहे ध्यान विशुद्ध रे. २१ भ० पूज्यपणो निजमे कहै, परने लघु जाणे जेह रे; कर्म विकलतामें पड्या, मतिहीन कया जिन तेह रे. २२ भ०
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दूहा.
संयम भार धरी करी, शील वीना मदवंत; इंद्रीवश मन चल थका, ध्यान न साधे तंत. कीरति पूजा वंदना, जे चाहै ज्ञानविहीन; अंतर मन निरमल विना, न लहे तत्त्व नगीन. ध्यान नही दूसम अरे, के कहै एहवी वाणि कामी मिथ्यामें पड्या, साधी न सक्कै झाण. मन चंचल अति जेहनो, पररंजन जसु ज्ञान; मौनपणे मार्जारसम, ते साधे किम ध्यान,
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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__ ढाल--जत्तीनी व्रत नीम न साजे आणी. कंदप्पादिक पण भेद, रंज्या धर काम उमेद; विण रूंध्या इंद्रीग्राम, नवि जाणे आतमराम. विण रूंध्या चंचलचित्त, पाम्यां विण ज्ञाननिमित्त निवेद संवेग विहीन, किम पामै निजगुण पीन. ये भोगथकी लयलीन, मन ज्ञान दयाथी हीन; पररंजक पापी दुष्ट, किम साधे ध्यान ते श्रेष्ठ. नवि रूंधे जे मन वाग, जे राता इंद्री रागा जे भारी कर्मने भारे, ते निज गुण ध्यान न धार. ४ जसु मनमें तीने शाल, विण कीधा आत्म निहाल, जे चढिया कोप ने मान, ते साधि न सकै ध्यान. बहु पाप अनुज्ञा लीन, अज्ञानज्वरे करि मीनाः वलि मोह निद्राथी मूझ्या, अति भोग लालचिआ लूझ्या. ६ जे राता परस्त्रीरंगे, शंकित भय भीति अनंगे; निज स्वारथ साधि न जाणे, भव साधे ध्यान अयांणे. ७ साता रस रिद्धिना लोभी, बहु पाप करै महादंभी; निज देव भणी नवि जोवे, विणु काज ए नरभव षोवे. ८ आकर्षण वसि विद्वेष, मारण उच्चाटण पेष; रस पाणी अनलनौ थंभ, जे साधे ए आरंभ. ९ ज्योतिष वैदिक इत्यादि, मन रंग करे नितवादि; निज देव न देषि सके ते, बे काम पड्या बहके ते. १० मुनिवेष धरि धनकाजे, बहु पाप करत नवि लाजे जिनमार्ग विराधे शस्य, ते पडशे नरक अवश्य. ११ अज्ञानी मूरष संग, गृहवास आरंभी चंग; यतिलिंगी परनें वंचे, तमु संग न कीजै रंच.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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पामी यतिवेष विशुद्ध, आरंभे कर्म विरूद्ध अहो ए अचिरजनी पात, देषो मन चंचलजाति. भोगवीया बहु स्त्रीभोग, वलि मेली धनसंयोग; वैरी जीता बहु आय, पांम्यां शिवकाज न थाय. एहवा जन ध्यान न साधे, परमारथ निज विण लाधे; तिण ध्यावौ अजर अनन्त, परमातम देव महंत. जिनवचनतणी रचनाथी, वाषाणे देव अनाथी; असा पंडित धन वांछे, कोडे गाने जगमै छे. आनंदसुधारस भीना, भवसंभवतापविहीना; एहवा जोगीसर राय, तीन च्यारेक नीचु लहाय. संयम स्वाध्याय विहीना, मद राग कदाग्रह पीना; विषयी भंडावै वेष, पडीया शंकाने द्वेष. एहवा न करी सकै ध्यान, नवि जाणे तप विज्ञान; ग्रंथ जीरणने सहि नाणे, मुनि देवचंद्र वाषाणे.
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परमारथ निश्चय करी, वधतै मन वैराग; इंद्री सुख निस्पृह थका, साधु इसा वड भाग. १ भावगुद्धि भवनमणथी, छूटा जे जोगीस; काम भोगथी उभग्या, तनरी स्पृहा न रीस. २ प्राण त्याग पिण ध्यानथी, छूट नही लिगार, परत्यागी मुनिवर तिके, ध्यानतणा आधार. ३ महा परीसह सापथी, जन निंदाथी जास; क्षोभ न पामे मन तनक, वसता निजगुण वास. ४
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གབཀའའབག་འའའཐའགའ་
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1
राग द्वेष राक्षस थकि, भय नवि पामै जेहा नारिथी मन नवि चले, अक्षय निजरस गेह. ५ तप दीपकनी ज्योतिथी, बाल्या कर्म पतंगः । ज्ञान राज्य त्रय लोकनो, विलसे जेह निसंग. ६ तपथी तनने पीडवे, उपशम रस भंडार; लोक सर्व सुखकारजे, मोह अगनि जलधार. ७ निज स्वभाव आनंदमय, शांत सुधारस ठाम; योग महागज जोपने, व्रतधारी समधाम.
ढाल-तार कर तार संसारसागरथकी. एहनी. महा समधार सुखकार मुनिराय जे,ध्यान ध्यावा भणी जोग थावे; देह आधार संसारसुख निस्पृही, तेह जोगीस निज देव पावे. १ म० शुद्ध ज्ञानरसपानथी शांत मन, थावर जंगम दया धारी; मेरु जिम अचल आकाश जिम निरमला, पवन जिम संग विणु
लोभ वारी. २ म० भव्यसारंग सुषकार उपदेशयी, देह शोभा तजी मोक्ष साघे; . ज्ञान शक्ति करी आतम निज ओलषे, शुद्ध निज. ध्यान ते मुनि
आराधे. ३ म० एण निज देवने मोक्षगृह चढणने, कही सोपानसम साधु सेवा; ध्यान ते साधुने मोक्षकारण कयौ,विमल विख्यात निजगुण वहेवा.४म० दांत मन विहग इंद्री भणी जे दमे, ज्ञानना गेह पातक विडारे, कर्मदल गंज नै चित्त निरमल थका, एम जोगीश शिव मग
सुधार. ५ म० गिरि नगर कंदरा गेह शय्या शिला, चंद्रकर दीप मृग संग चारी; ज्ञान जल तप अदन शांत आत्मा थका, धन्य निग्रंथ सुविहित
विहारी, ६ मा
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४७८
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
प्राण इंद्री वली देह संवर करी, रोकि संकल्प मन मोह भंजी; धन्य निज ध्यान आनंद आलंब धरि, शुद्धपद आत्मनी ज्योति रंजी. ७ म० हेय आदेय त्रिभुवन गणै साधु जे, क्षय करे पुण्यने पाप केरो; आत्म आनंद स्याद्वादथी विषयने, विष गिणी भंजता कर्म घेरो. ८ म० कार्य संसारना साधता ज्ञान विग, जगतमे एहवा बुहत दीसे; काटी भव दुप वलि ज्ञान जल झीलता, एहवा साध दोय
तीन दीसै. ९ म०
वडे प्रासादमै नरम पत्यंक परि, राति जै पौढता नारिसंगै; तेह गिरि कंदरा कठन शिला उपरे, रहे नित जागतां ध्यानरंगे
१० म०
चित्त थिर रागनै द्वेषनो क्षय करी, जीप इंद्रीय आरंभ छोडी; ज्ञान उद्दीपना थकी आनंदमय, देषि निज देवने कर्म मोडी. ११म० छोडि परसंग आत्मा भणी सिद्ध समा, ध्यावतां सुमतिसुं मोह वारे; आत्मस्वभावगत जगत सहु अन्य गिणि, ज्ञाननिधि मोक्षलक्ष्मी सुधारे. १२ म० तत्त्वचिंता करे विषयने परिहरे, स्वहित निजज्ञान आनंद दरीयो; सुमतिसंयुक्त तप ध्यान संयम सहित एहवो साथ चारित्र भरीयो. १३ म० हवा पंडित वचनरचनाथकी, नित थुणे आत्मने बहुत असा; शुद्ध अनुभूति आनंदसुं राचीया, कटै भवपास दुरलंभ तेसा. १४ म० हवा योगधारी जिके मुनिवरू, ध्यान निश्चल ति केइज राधैः ध्याननें योग अणयोग्यनी ए कथा, ग्रंथ अनुसार मुनिचंद भाषे. १५ म०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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४
दृहा. सम्यग दर्शन ज्ञान गुण, वलि तीजो चारित्र; तीन मिल्यां चेतन भणी, शिवमंदिर प्रापति. कर्म कठोर ज तोडिवा, कारण एहि ज तीन; ध्यानसिद्धि गुणत्रय सहित, निफल गुण त्रय हीन. रत्न त्रय विणु ध्यान जे, चाहै मूष कांत; कुसुम आकाशै सिल कमल, वंध्या सुत दृष्टांत. दरसण जे रुचि तत्त्वनी, तत्त्वकथक ते ज्ञान; शुरु द्रव्य श्रधान जे, ते समकित कहवाय. सहज थकी उपदेशथी, प्रापतिकारण दोय; क्षायक उपशम मिश्र ए, समकित त्रय विधि जोय. ५ पंचेंद्री परयापतौ, संज्ञी जीव सुभव्यः काल लबधि पाम्या लहे, समकित श्रद्धा नव्य. ६ सात प्रकृतिनो क्षय थयां, क्षायक उपशम बीय; उपशमीयां क्षय उपशम्यां, मिश्र लहे तव जीव.
ढाल-धरम सुणी राजा प्रतिबूधो ए ढाल. सांभल ज्ञानी समकित वाणी, उपशम आस्तानी सहि नाणी; सांभ० द्रव्य तणा गुण जाण्या पामे,दोष पचीस भणीजै नामै. सां० १ आं० जीवादिक सग तत्त्व पिछाणे, हेयादेयपणो जे जाणैः सां० जीव अनंतौ नित्यता धारी, एक सिद्ध बीजो संसारी. २ सां० नित्य अनंत चतुष्टय धारी, जन्म मरणरा दुष निवारी; सां० निज आत्मीक स्वभाव वहता, जयवंता इम सिद्ध अनंता. ३ सां० त्रस थावर आदिक बहुभेदी, जीव संसारी ए अतिषेदी; सां० भू आदिक थिर पंचधा जाणौ, वली अनेकत्रस भेद वषाणौ. ४ सां०
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ध्यानदीपिका चतुष्पदी.
चौगति भमता बहु दुष देषै, नाम धरे बहु कर्म विशेषै, सां० विककेंद्री वलि पांचे थावर, चित्त विना तिरि गति दुष आगर ५ सां० ज्ञान अंक संकोच विथारी, कर्त्ता भोक्ता ए तनुधारि; सां० जयवंतौ त्रयकाल अपंडित, जीव कहे तिण कारण पंडित. ६ सां० एक थकी मांडी दस पर्यंत, जीव भेद जाणौ मतिवंतः सां० शुद्धयें कर एक महंत, निज निज भावे द्रव्य अनंत. ७ सां० जीवराशि सहजे द्विप्रकारी, भव्य अभव्य लषो सुविचारी; सां० परमातम रिद्धिनें जे वरिस्यै, भव्य कह्या ते श्रीजगदी सै. ८ सां कबहि न जाणे आतमकाजै, तेह अभव्य कहा जिनराजे; सां० तीन काल ए भव में वास, न मिटे जनम मरण दुष जास. ९ सां० भव्य तिके शिवपुर योग, दूर करी त्रय कर्म कुरोग; सां० अनादि संयोगी कर्मने जीव, कनकोपल जिम जाणि सदीव. १० सां० भव्य भणी भव सांत अनादि, अभव्य भणी ते अनंत अनादि; सां० जीव समास अने गुणठाण, चवंदै भेद मारगणा जाण. ११ सां० गुणठाणादिक सगलि वाणि, संसारीनी दशा वषाणि; सां० शुद्धये करिए सह हेय, एक शुद्धता छै आदेय. १२ सां०
दूहा. अजीव तत्त्व बीजो हिवै, तेहना पंच प्रकार, धर्म अधर्म नभ काल, अणु पुदगल पंचम धार. शुद्ध रूप पूर्वै कयौ, छठो चेतन दर्वः अस्तिकाय पण काल विणु, भिन्न सहाइ सर्व. पांच अचेतन जीव विणु, अमुरतीक अणुहीन; थिति उतपत्ति विनाश युत, सदाकाल स्वाधीन. वरण गंध रस फरस युत, अणु स्कंध दो भेद; थूलादिक षड भेद घर, पुदगल वसु अ पेद.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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धर्म अधर्म आकासत्रयी, थिर अक्रिय अरूप; सर्वलोक व्यापि धरम, चलण सहाय अनूप. मीन चले जीम नीरमें, जीव धर्मसु तेम; अधर्म द्रव्य थितिकार छै, पंथीनै तरु जेम. जे देवे अवगाहना, ते कही यै आकाश; अनंतप्रदेशी नित्य छे, लोकालोक निवास. नव जीरण पुद्गल भणी, करै जेह ते काल; परावर्तरूपी समय, व्यवहार संभाल. गत आगत व्रतमानता, भजै जांणि ते काल; असंख्यात रेणुक प्रमित, अस्तिकाय विणु भालि. ९
मेघमुनि कांइ डमडोले रे ए. धर्म अधर्म नभ कालने जी, एक अर्थ पर्याय पुद्गल जीव भणी उभै जी, व्यंजन द्रव्य गिणाय. १ भविक जन सांभलि, तत्त्व तत्त्व स्वरूप; जिणथी निज गुण उलसैजी, प्रगटे ज्ञान अनूप. २ भ० जीव भणी पण भाव छै जी, पुद्गलनै दोय भाव; परमाणिक धर्मादिन, जी, समझिज्यो करि मत दाव. ३ भ० धर्म अधर्म चेतनतणा जी, छे असंघ परदेस; कालाणुक असंख्यात छे जी, व्योम अनंत कहेस. ४ भ० एक आदि अनंता लगे जी, पुद्गल देस विचार; व्यंजन पर्याय स्थूल छे जी, सूषिम अरथ संभारि. ५ भ० बंध तत्त्व चोद छे जी, थिति रस प्रकृति प्रदेस; ज्ञानावर्णादिक कह्या जी, अष्ट करम दुष देस. ६ भ०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
बंध हेतु पण दाषिया जी, मिथ्या अविरति योग; कपाय प्रमाद बसै करी जी, वाधै कर्मनो रोग. ७ भ० उत्कर्षण अपकर्षणा जी, तेह प्रकृतिनो बंध; थिति ते थितिबंध जाणीय जी, फल अनुभव रस बंध. ८ भ०
आठ कर्मनी वर्गणा जी, मेलै बंध प्रदेश बंध तत्त्व ए हेय छै जी, शुद्धातम निज देश. ९ भ०
आश्रव संवर निर्जरा जी, दाष्या भावनमांहि; मोक्ष तत्त्व हिव वर्णबु जी, ते सुणज्यो धरि उच्छाह.१० भ० अष्ट गुणें करि शुद्ध छै जी, अनंत ज्ञायक गुणषांणि; नित्य अरूपी सिद्ध छै जी, साधक दस गुणठाण. ११ भ० लोकालोक देषै अछै जी, समय समयमै जेह; थिति उतपत्ति विनाससुं जी, सिद्ध सुद्ध गुणठाण.१२ भ० द्रव्यार्थिक परज्यायथी जी, जाणि सरदहै जेहा स्व पर विवेचन जे करै जी, समकित धारी तेह. १३ भ० समकित रतन जिणे कयो जी, शिव सुपनो दातार; तप संयम श्रुत सफल छै जी, समकितरै आधार. १४ भ० समकित बिन किरिया सहु जी, हेय अछै निस्संदेहः कर्मरोग औषध अछै जी, समकित किरीया एह. १५ भ० समकितधारी जै अछै जी, शिवपुर साधक सोय; ज्ञान चरण दरसण विना जी, सिव साधक नवि होय. १६ भ० अनुपम सुषनो गेह छै जी, भव अंभोनिधि जिहाज; कर्मवक्ष परसी समो जी, आपे शिवपुर राज. १७ भ० हेय उपादेय जाणिनें जा, जाणिइ निजगुण जेहा नित्य अबाधित पामिसै जी, देवचंद पद तेह. १८ भ०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
४८३
दूहा. गुण पर्याय अनंत युत, अछै ज्ञान उपयोग; तीनकाल गत भावनें, जाणे जेह असोग. कर्मदाहने टालिवा, करिवा निज गुण ध्यान; लोकालोक प्रवास कर, जिनवर दाध्यौ ज्ञान. २ मति श्रुति अवधि पर्याय मन, तीस सतक छतीस विध; मतिज्ञान तूं जांणि. अंगादिक बहुभेदथी, शब्द रूप श्रुति देषि; देव नरकनें भवनित, अवविज्ञान संपेष. ४ गुण प्रत्यय नरतिरियमे, छविह अविधि अषेदः ऋजुमति विपुलमती गिणौ, मनपर्यय दुय भेद. ५
ढाल-चुघलै योबन झिलरयौ एहनी ॥ अनंत द्रव्य पर्यायसुं, प्रगट क्षायिक गुण धार; भवियण स्वापर प्रकाशक नित्य छे, निरमल ज्योति अपार.. १ भ० शुफ ज्ञान आदेय छै, ज्ञायकता गुणगेहा भवि० श्रांतिना गत कल्पना, निजस्वरूपी गतदेह. २ भ० शु० लोकालोक समस्त ए, जास अनंतम अंस; भ० तिण आगै रवि चंदनी, ज्योति सडु निलंस. ३ भ० शु० भवदुष संकट टालिवा, कारण समकित ज्ञान; भ० ज्ञान विना राहु अंध छै, ज्ञान जगतगुरु मानि. ४ भ० शु० ज्ञानमंत्रथी वसि हुवे, चल इंद्रीय मन नाग; भ० मोहशत्रु हगिवा भणी, ज्ञान कह्यौ वडषाग. ५ भ० शु० तजि निद्रा आलस सहू, मूनिवर तप जप लीन भ० साधै केवलज्ञाननें, अनुभवरससुं भीन. ६ भ० शु०
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४८४
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
अज्ञानी आश्रव कर, ज्ञानी संवरवंता भ० कोटि भवार्जित कर्मनौ, क्षणमांहि आणे अंत. ७ भ० शु० तप जप ध्यान क्रिया जिका, ज्ञान विना सर झुठ; भ० ज्ञानी ज्ञानबलै करी, देवै कर्मने पूट. ८ भ० शु० शिवमंदिर पिण ज्ञान छै, दुरति तिमिर रवि एह; भ० व्यसन विषय घन वायु ज्यु, तत्त्व दीप गुणगेह. ९ भ० शु० भव वनमय बन्धन पड्या, क्रोधादिकथी भीम; भ० मोहनीन अज्ञानथी, रडबडै चौगत सीम. १० भ० शु० ज्ञानउ य निज गुण लहै, भंजी कर्म नरिंद्र भ० शुमनीति शिव निग्रहै, देवचंद्र सुषकंद. ११ भ० शु०
दूहा. हिव चारित गुण वरण, जसु साधे मुनिवृंदा परपुदगलनी त्याग मति, ग्रहिवा निजगुण चंद. १ सामायिक पण ग्रहभेदथी, चरित कह्यौ जिणचंदा पंच महाव्रत सुमति पिण, तीन गुपति गुणवृंद. हिंसाऽनृत चोरि विरति, मैथुन परिग्रह त्यागि बत पंचे जिनवर कहे, अक्षय शिवपुरमाग. भाषा मन काया थकी, चर थिर सगला जंत; तेहतणी रक्षा करे, तेह अहिंसा संत. तेव हण्या हणीयां विना, अज्ञानीने बंध; ज्ञानी संवर भाव युत, सदा है वै निरबंध. संरंभादिक तीन गिण, जोग करण त्रय वेद, च्यार कषायथकी गुण्या, हिंसा-अठ सत भेद. १०८ ॥ ६
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'व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
तजि प्रमाद समभाव भाज, हरि हिंसा - परिणाम; हिंसा भवभ्रमकार छे, दुष अनंतनौ धाम. हिंसक जावै नरकगति, वलि निगोदे जाहि; क्षमा ध्यान तप फलतणौ, नास करे क्षणमांहि.
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ढाल - चंद्राउलीनी.
दान ज्ञान फल सहु गमें रे, हिंसारत ते जीव; अनुमत देता लोकने रे, नरकै करस्यै रीव. नरकै करस्यै व रे भाई, नव नव पीडा सहस्यै लाई; हिंसा करतां धर्म न थाय, दुष अनंतानंत नीहाइ जी. १ सांभल समकिती रे, एतौ दुरगतिनी दातारः
शिव मारग वट पार, दाषी केवली रे. आंकणी. निस्पृहता महता गमे रे, उदासीन तनु ताप; हिंसकनै सहु धूल छै रे, ए करै कुल संताप. कुलसंतापे कीर्ति गमावे, नित प्रति विघन कोडि उपजावे; सुष मंगलने दूर नसावे, गति निगोद लघु आयुष षावे जी. २ सा० शिला चढि जल तखा करै रे, ते मूर्खनो स्वामि; धरम बुद्धि प्राणी हणे रे, कहै शास्त्रनो नाम. he शास्त्रौ नाम ते गौला, परभवमें दुष सहसै बहुला; चारित्र ज्ञान दया विणु निबला, नासै हिंसाथी जिन सुकला जी. सांभली० ३
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भलो दया- अक्षर भण्यो रे, पापशास्त्र लष कुड; जीव हणै ओषध भणी रे, शुभफलनै धै घड निरंतर. नासे शील दया शम गुण कर, मोह कषाय बधारे बहुपरि; हिंसा जीवदया अंतर, जी० ४ सां०
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'व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सर्व ग्रंथनो सार छे रे, जीवदयावत एह
जग माता जग सुषकरू रे, कृषि उपरि जिम मेह. कृषि उपरि जिम मेह सुहावै, स्वर्ग मोक्ष सुख बीज कहाँवै; व्यसन विषय दहaट्ट गमावे, जिन वरया धरम गुण गाँवै जी. ५सां०
सप्त द्वीप भूदानयी रे, जाय न हिंसा पाप; स्वर्ण कोडि धनने सटे रे, प्राण तजै न को आप.
प्राण तजै न को आपणो लोक, स्नेहवसै हिंसा करै फोक; सूचक असि धनुष एथोक, राषै देव तिके युत सोक जी. ६ सां० मुष आषे मार्या थकां रे; पांमै सिवपुर वास; तो हणि निज परिवारने रे, पामै ते सुष पास. पाते सुप घास समाज, दीन अनाथ हणौ किण काज; हिंसाथी नभ सम दुष साज, हिंसा एह कही जिनराज जी. ७ सां०
ज्ञान ध्यान तप जप तणी रे, जीषदया कही माता; दयावंत इंद्री दमे रे, लहै ज्ञान शिव साता.
है ज्ञान शिव सात दयाथी, चित्त कठोर मधुर रसनाथी;
ते पण दायौ हिंसक साथी, लेज्यो भविक दया जय हाथीजी. ८ सां० नरक है झष तुं दली रे, हिंसाने परिणाम;
यी अधिकी अछे रे, जीवदया सुषधाम. जीवदया सुपधाम अपारू, जन्म मरण भय तणीय निवारू; शिवपुर मारग साथ ए वारू, पर तनु पीडा दुष नीकारू जी. ९ सां०
मानव पिण राक्षस समो रे, जे छे हत्याकार;
जीवदया माता समी रे, विद्यानी दातार. विद्यानी दातार ए वाणी, अभयदान द्यौ करुणा आणी; आवे संपत जेम न भाणी, ते न कही सकै इंद्र इंद्राणीजी. १० सां०
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
अभयदान जंतु जिण दीयो रे, दीया दान अनेक जिम जिम करुणा थिर दुवै रे, आवै तेम विवेक अपारै. कष्ट पड्यां करुणा न विसारै, जीवदयाथी सुष जस सारें; अनेक भवार्जित कर्म निवारे जी. ११ सां० भवमें कष्ट कष्ट दोहाग जे रे, ते हिंसाथी होय; ज्योतिष में रवि शशि वडा रे, सुमनसमी हरी जोय; सुमनसमें हरि जोय सदाई, गिरि मंदिर तरु कल्प वडाई; देवचंद्र जगनाथ कहाई, तेम दया धर्म्म सहनी याई जी. १२ स०
!
दहा. हिव बीज व्रत सांभलौ, शिवसुषनो दातारः सत्य वचन पादप तुम्हे, पालो संजम धार. जीवतणी रक्षा भणी, कूडतिको पिण साच जीव हणायै जिण थकी, दूर टाल ते वाच. तपथि जे दुष नवि गम, तेह गमावै एहः हिंसा आकूलता रहित, सत्य वचन गुणगेह. कैतो मोनपणौ भलौ, जो बोलै तो सत्यः भव कारण वच झूठ ए, भवियण टालै नित्य. मिथ्याग्रथ कदाग्रही, बदै झूठ खल लोय; स्याद्वाद सुणि वैण जै, दावे मुमिधन सोय. झूठ वचन विष सम कौौ, "मारे भव भव एह अइसो सुष कोई नही, बधे झूठथी जेह. कहियौ सुणिवो पिण नही, वचन पापनो धामः धर्म विरोधक नवि वदे, गुणी वचन बेकाम. धन्य तिकेइ ज मुष थकी, सत्यवचन भाषंत; जिन शासन कारिज पड्यां, सुषथी झूठ कहंत.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. ~~~~wwwwwwmorror-~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ढाल-इडर आंबा आंबिली रे. एहनी. मोह बसै श्रवणे सुण्या रे, बोल्या दुषनो धामः ध्वज कोलक इण संगथी रे, इण भव साधे काम. १ चतुर नर परिहर वचन अलीक, ए तो दुषदायक तहतीका चतुर नर प० ए आंकणी. झूठ कथकनौ मुष कह्यौ रे, नगरनि छार समान; तिरिय नरय गति मै भमै रे, पामै दुष विण ज्ञान २ चतुर० शीतल चंदन चंद्रयी रे, मीठी वाणि सुहाय, दव दाध्या वलि पालवै रे, वचन दाह न षमाय. ३ चतुर० मधुर बचन जग प्रिय छ रे, कटुक सत्य पिण छोडि; मधुर सत्य भाषीतणे रे, दरसणथी सुख कोडि. ४ चतुर० सुचिवादी नर जे अछे रे, सफल जनम तसु धारः । झूठा बोला मानवी रे, किम उतरे भवपार. ५ चतुर० व्रत श्रुत संजम भारनौ रे, सत्य वचन छै कोषः देव दानव न करी सकै रे, ते ऊपरि तिल दोष. ६ चतुर० आनंद करिए चंद्रयु रे, पाय नमै जसु देव रूप जाति धन हीन ज्युं रे, तेहनें एह ज टेव. ७ चतुर० तापस योगी मूंडीया रे, नागा चीवर धार; कूड वचन कहता थका रे, ते छे पातककार. ८ चतुर० बाघे धन परिवार जौ रे, तोय न बोलै अलीक; अन्य पुन्य सहु तोलतां रे, तो हि न ए सम ठीक. ९ चतुर० बहिरौ सठने बोवडो रे, ज्ञानहीन मुख रोग; योनि वली पर स्वाननी रे, पामै कूडनौ योग. १० चतुर० सातादिक गुणगणतणो रे, कूड केर छे हांणि; सुहणे संग न कीजियै रे, झूठ वचन दुष पाणि, ११ चतुर०
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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
१२ चतुर०
वंदनी त्रय जगने रे, बचे द्रव्य परिवार; सत्य वचनथी सुख लहे रे, सुचित्रादि अगगार. परकारण वच झूठे रे बोल्यां दें दुष लक्ष; असत्यवचनथी दुप या रे, वसुराजा परतक्ष. मानव दानव सुरपती रे, ग्रह खेचर जनपाल वंदे जिन ते पिण कहै रे, सत्य वचन व्रत पाल. १४ चतुर सत्यवचनथी सुख लहै रे, सत्य वचन सुवषाणि;
१३ चतुर०
सत्य वचन कहो प्राणिया रे, देवचंद्रनी वाणि. १५ चतुर०
दूहा.
तीज व्रत पाल्यां विना, शिवमग दुरगम होयः शिवनी इच्छा जो करो, मत ल्यौ परवन कोय. बाह्य माण धन जन तणा, दसे हण्या तसु प्राण; गुण विद्या जस सह गमे, चोरी दुषरी पाणि. परधन पर आमिष सभौ, ठीधां तप जस नासः गुरु बंधव माता पिता, करे न तसू वेसास.
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१
ढाल - मया मोहि दक्षिणीआणि मिलाइ एहनी. पवन आमिष सारियो रे, दुष है पंनग जेम तलु वेसास न को करे रे, तो आदरीयै केम. चतुर नर परिहर चौरीसंग ॥
२. चतुर०
चौरादी दुष ऊपजै रे, वलि होवै तौ मंग यात पिता सुत मिनी रेहन ह मानद डरतौ रहे रे, मृग जिम भवनो गेह. ३ च० षिण एक नींद करे नही रे, मरणथकी भयमंतः जो को मुझनै जागस्यै रे, तो करस्यै मुझ अंत ४०
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ध्यानदीपिका चतुष्पदी.
विद्या गरुवाई गमे रे, निज रक्षा नवि थायः सज्जन पण निंदा रहे रे, तस्कर संग पसाय. घात करें तृणनी परे रे, चोर भणी सह लोक पंडित पिण मूरष दुवे रे, मुनि पिण पामे शोक. ६ च० घोर नरक दुःष धैस सही रे, चोरी केरी बुद्धिः एहनी संगति ते तजे रे, जे चाहे निज शुद्धि गिरवर नपरन परबत में पड्या रे, परधन लीजे साहि तृण सम पिण परवस्तुनी रे, मत मन घरजे चाहि. ८० शिव सुपनी जे चाह छे रे, राषण चाहे धर्मः मुख चाहे परभवेरे, तो तजि एह कुकर्म. ९ च०
विरति मूल यम साष छे रे, संयम दल सम फूल: पंडितजन पंषी अछे रे, फल ते ज्ञान अमूल. धर्म वृक्ष एहवो दहे रे, चोरी मत मन आणिः परउपगारी आदरो रे. देवचंदनी वाणि.
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१० २०
११ च०
दूहा. ब्रह्मचर्य पाल्यां कां, ब्रह्म लहे योगींद्रः सप्रपंच ते वरण, धरज्यो ए व्रत चंद्र. ब्रह्मचर्यं जगे सत्य छे, मोटो महिमावंतः संयम जीवन एह छे, धर्मवंत गुणवंत. दीन हीन आचार विण, रापी सके नवि तेहः अंत विरस दुःषदाय छे, दसविध मैथुन एह. तनु शोभा रस सेवना, तीजो नारिस रंगः अशुभ संग चिंता विषय, वली देषे स्त्रीअंग. खाने आदरमान दे, याद करे ततः नवमी चिंच आगमन, दस
कसो पात.
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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
किंपाकफल सम भोग ए, आदि रम्य दुष अंत: दोष दशे च्युत भोग तजि, ब्रह्म गहौ मतिमंत. मैथुन कांक प्रकोपना, दोष जीप तजि नारिः जलधारा सींच्यो थको, न बुझै कामविकार. ग्रीषम रविथी पिण अधिक, अछे काम संतापः ग़ख करे तन मन सही, वाधारै दुष व्याप. इण विष मूस्यो जग गिणी, तनी जोगी ले ध्यानः काम सर्प मद गालिबा, ग्रहि तुं गरुड सुज्ञान.. ९ ॥ नदी यमुनाके तीर उडे दोइ पंषीया. एहनी ॥ एह मदन महामूर जगत जीतौ जिणे. मोटी परतो. शक्ति अवर सहू अवगिणेः पोडे ए जगधाम काम संका नही, एहवो कोय न दाव जाय जिणी वही. कालकूट महादुष्ट भणी ओषव लगे, कंदर्प विषनो नाश करी नवि को सके। काम अगनि महाताप व्याप तपीया बहू. पड़े धीया तनु कीच वीच जग ए सहू. २ विसन धार मरुदेशसमे संसारमे, काम ताप तृष व्यापथकी तनु नीगमेः नंदनीक अति कर भूरि पातीक लहै, मदन संताप्यौ जीव ससदीव संकट सहै. थाये ते मतिहीन दीन मन नित रहे, पीडित कंप बाण मान किहां नवि लहः देषत थाये अंध विबुध मूष हवे, पड़ीया केद्रप पाल दासता अनुभवे..
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सापङस्पा सगवेग पीडयी तनु जले, काम तणा दस वेग ते गका नवि चलै; पहिला बांधे चित बीय दरसण इच्छे, मेल्हे तीय निसात तूर्य ज्वर आग छे. पंचम दाहे अंग रंगथी नवि जिमे, सप्तम मूर्छावंत कि उन्माद आठमे; नवमे प्राणसंदेह देह दसमे गमे, एह उदयथी चित्त तत्त्वमे नवि रमै. मन संकल्प विकल्प जल्पथी ए वढे, काम अगनि संताप हृदयपद ए कढे गिरवर गदर मूल गुहाश्रित जनतणा. मदन उतारे मान इणे जोत्या घणा. कामवशे स्त्रीदास मूंज राजा भयो, माव मुंडायो सीस भोज घोडो थयो; धीरज श्रुत चारित्त बटे इण संगथी, कालो भवियण वित्त एउट्रपरंगयी. बेठां सूदां मित्र कुटुंब मेलापर, तेह ना पामे सुख मानने तापसुं; धन लज्जा कुल्नास मा देषे नही, पीडित वाम विकार का लोगे सही. मूल्य यह दुःख जिवि दे सके, तेहती पीडा थाय मदन : 'गटे थके सुंदर देषी नारी साररदिः । गमे, का दह्यो लहे मृत्यु बर: गुण ते वमे.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सूर ते कायर थाय वृद्ध लघुता रहे, पंडित थाये मूढ कामवसि दुःष सहेः वनिताकाजे लाज बहुत कामी करे, केंद्रपहठयी सूर मरण रणमे वरे. उपेडण श्रमवृक्ष मदन गजसम अछे, प्रथम गमावे देह मरण पामे पछे; चोर करे जिम कोप भोर दिन उपरे, तिम ब्रह्मचारी देषी द्वेष कामी घरे. हरि हर ब्रह्मा देव इंणे मदने नड्या, छोडि आपणी लाज नारी पाये पढ्याः घडी मात्र पिण छेक विवेक रहे नही, लागा केंद्रप बाण प्राण तजस्ये सही. पामी नरनो देह एह केंद्रप दमो, छोडी विषय विकार सार निजगुण रमो; बलतो केंद्र ताप व्यापथी जग सुणी; छोडे विषयासंग व पंडित मुणी. मारी मानो मान ध्यान आतम धरो, पामो भवनो पार सार संयम वरो देवचंद नागेंद्र मदनवसि सह पड्या, दीठा बहुला दुःख के भवमे रडवड्या.
महमाती ए कामिनी, जे जे साझ काज; तेहनो थोडो अंश पिए. कहि न सके कविराज. हृदय कुछ मुए मिः छे. ए नारी सहजे नीचः झाल यमदाढसम, दुःखदायक भववीच.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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गुणसमूह जावे वही, करतां स्त्रीनी वात; नागिण पाधा दुष करे, याद कीयां स्त्रीजात. अगनिदाहथी पिण अधिक, बाले नारी संग; नीच प्रीय चित अति कुटिल, नेह सांझिनो रंग. निज कुल गृह मेंलो करे, धूमसमि ए नारिः हृदय सट इत्यादि बहु, दूषण नारीमझार. पिता पुत्र पति लंधिने, रमे अन्यसू जायः .. स्त्री आगे मंत्र यंत्र ए, सगला कूडा थाय.. जे कारज नारी करे, करि न सके ते कोया तिलभर सूष काजे सहू, कुलक्षयकारक होय. दान प्रीति महता सुजस, निज हित दूरे जाया कुप्यो वाघ दुष नवि करे, जे नारीथी थाय. नरक लहे वार्ता कीयां, सीआलींगन टेक स्त्री पिशाच छलि नवि सके, सेवति को को देव. पंड्यो जग इक लीलमे, दुस्सह ज्वाला नारिः स्त्रीचात पापनो, कोय न पामे पार.
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९
ढाल-पारधीयारी, वज्रपात विष वीजयी रे, दूषकारण तूं जाणि रे, ए नारी. चित्त जुदी जुदी कायसु रे, बोले बीजी वाणि रे.. ए नारी० १ ए शिव मारग वट पारी, ए तो धूततणी धूतारी; ए तो निज गुणनी हत्यारी, तुं तजी दे तुं तजि
.. एहनो संग रे. ए नारी• आंकणी ।। ऊंचा पिण पडसी सही रे, स्त्री संगे कुच जेम; ए नारी० रवि शीतलता जो ग्रहे रे, तोउन स्त्री थिर प्रेम रे. ए नारी २
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व्यानदीपिका चतुष्पदी.
४९५
देव दानव गति जे कहे रे, ते न कहे स्त्री भास रे; ए नारी ०
ए नारी० ३
ए नारी
ए नारी० ४
रे.
भावी जे जाणे तिके रे, धाये स्त्रीनो दास रे. पोत चढी सायर तरे रे, दुत्तर स्त्री आचार रे; पिता पुत्र पतिने ठगे रे, संदेहे ए नारी रे. मीनथकी वनसिंहथी रे, चंचल छे स्त्री मन्न रे; मणि मंत्र को नहीं जिणथकी रे, वांक तजे स्त्री मन्न सुंदर पतिने मारिने रे, वांछे वस्थी भोग रे पुरुष अंक रमती थकी रे, चाहे वीयसुं योग रे, मंत्र विना नरने ठगे रे, नारी दुबनी गेह रे; अधम नीच जन जे हुवे रे, नारीने प्रिय तेहरे. सहस्र लक्ष योद्धा जिके रे, स्त्री आगल ते दीन रे; गुणवंत करिने मानिजे रे, अंते तु गुणहीन रे. रीस करे जी जी करयां रे, गुण ऊपरि दुधकारि अनाचार करी ढाकले रे, जग वंचक ए नारि रे. दाता भोक्ता पति भणी रे, मारे नारी साहि रे; विषयी जो अमृत हवे रे, तो स्त्री मन मल जाय वंध्या सुत नभपुष्प जो रे, थाये तो स्त्री शुद्धि रे; जाले दोनुं कुल भणीरे, जे मानव स्त्रीलुद्ध रे. निश्चल सुरगिरि सारषो रे, कंपावे स्त्री तेह रेह रोगी दुर्बल धन विना रे, छोडे पतिने एह रे; शूलीथी अधिकी कही रे, जनगन भेदन काज की कलंकी नारिये रे, क्षय वारी ग्रहराज रे. सूर भमे वली आयमेरे, संध्या नारी संगरे उदधि रहे नहीं योगयी रे, रोदन चपल तरंग रे.
रे;
रे.
रे;
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ए नारी०
ए नारी० ५
ए नारी ०
ए नारी० ६
रे;
ए नारी -
ए नारी० ७
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ए नारी० १४
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
रावण पिण नरके गयो रे, लोभागो इण नारि रे ए नारी नारी भय कलि एल रे, पापशोग दुवकारि रे. ए नारी० १५ नारी दोष अपार छ रे, कविजनथी न कहाय रे ए नारी भवासी जन बांबवा रे,
ए नारी० १६ दृष्टे देथे अबरने रे, मुष बोलावे ओर रे; ए नारी सांन करे किग औरने रे, मन तपे बीच टोर रे. ए नारी० १७ सुरपति सुरगुरु नवि कहे रे, नारी दूषण छेह रे, ए नारी० नारी दुप क्यारी गिणी रे, सुगुण तजो स्त्रीनेह रे. ए नारी० १८ तापलला दुवकाल छे रे, विषय जलधिनी वेलि रे; ए नारी नरकपोलि विषनी कुडी रे, परिहरी स्त्रीनी केलि रे. ए नारी० १९ कूडकप:गी शेपली रे, बोडो नारीनी टेक रे, ए नारी निजकुलमंडन काहुल्य रे, शाश्वती स्त्री एकरे. ए नारी० २० वियत पंडित सती रे, पृथ्वी में स्त्रीकाय रे ए नारी पंडित निस्पृह सम धणी रे, ब्रह्मवती मुनिराय रे. ए नारी० २१ अनुभवस्वादी जे हुस्ये रे, ते तजिस्ये स्त्रीपास रे, ए नारीक देवचंद्र इम जाणिने रे, मति करी स्त्रीवेसास रे. ए नारी० २२
.
इालदाह नैथुनयमी, सहे उपशमे जेहः आगि बुझाने मूर, अतःसयी तेह. नरकारची निंद्य छे, नारीनो भग एह; मूह काम ताप्या पडे, नारीपंके तेह.. स्त्रीसुष मनमान्यो तुम्हे, ते अंते दुपगेहः हषद कनकमे यो गिणे, भैयनसप तिम तेह.
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
रोगी जेम कुपथ्यने, कहे पथ्य तिम भोगः फल किंपाक समा अने, मुंह मीटा बहु सोग... ४ मैथुन आचरतो थको, नर पामे स्त्री लाल कामी मैथुन सुप कहे, पामी जेम पयाल. अशुचि अंग नारीतणो, चाटे कूकर जेमः कामी कष्ट बहू लहे, अय कोष्टादिक तेम.
हाल-सांझ थई दिन आथम्यो एहनी.. कूड कपट घर ए त्रिया, तिनको संग निवार रे भाई मैथुन दुषदायक तजी, आतम गुण संभार रे भाई. १ ना. नारी संग तजो तुम्हे, नारी दुपनी पाणि रे भाई.. . नारी संगे दुष हुवे, ए श्रीजिनवरवाणि रे भाई. २ ना पूत बहे जसु देहथी, काचो व्रण वहे जेम रे भाई। तिम स्त्रीजोनि अशुचि धरे, तिणपरे राचो केम रे भाई. ३ ना. मूत्रगेह दुरगंध छे, नारी भग दुष पाणि रे भाई; मूष रंग धरे तिहां, नवि राचे इसु ज्ञानि रे भाई. ४ ना० श्वान रुधिर निज जिम पीये, सुष माने मनमांही रे भाई कामी तिम स्त्रीसंगथी, चित्त धरे उछाह रे भाई. ५ ना० नारी योनि अशुचि अछे, नारी दुरगतिमाग रे भाई आदर न ये को वृद्धने, तो तरुण ऊपर स्यो राग रे भाई. ६ ना० सहूथी जोरावर अछे, नारी अबला नाम रे भाई योनिद्वार दुष द्वार छे, पंडित तजिजो वाम रे भाई. ७ ना० भोगवतां तनु नारीना, लागे छे सुकुमाल रे भाईः । भूलीथी करडी अछे, उदयागत रे काल रे भाई. ८ ना०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
मैथुन सेवंता थका, जीव मरे लप कोडी रे भाई: महानिसीर्थ दापीया, योनिलिंगने जोडी रे भाई. ना० दुरंगंध मलघर भयकरूं, मंडूकी आकार रे भाई: चरमरंध्र नारीतणे, राग किसो विण सार रे भाई. १० ना० सर्व अशुचिमय निंद्य ए, दुरगंध नारी एह रे भाई राचे मुरष मानवी, पंडित विरमे जेह रे भाई. ११ ना. कथितमृतक गंध जोनि छे. कृमिकुल पूरण एह रे भाई: क्षर मत्र झरती रहे, तिण उपर स्यो नेह रे भाई. १२ ना० ए सरूप जाणी तजे, पंडित स्त्रीनो संग रे भाई मदन मोह झीपी लहे, देवचंद्र पदरंग रे भाई. १३ ना०
दूहा. शिव प्राप्ति चाहे जीके, ते छोडे स्त्रीरंग; असनि जेम गिरि गेडवे, तिम ज्ञानी स्त्रीसंग. बती तपस्वी नारिने, संगे लहे कलंक घोर तपीने चालवे, नारी ए निःसंक. व्रत तप संयम गुण सरख, स्त्रीसंगे क्षय थाय; नारीमुष दरसण थकी, संयमगुण गैल जाय. संयम तां लगी थिर रहे, जां न मिले स्त्रीयोग भाषणसम जनमन गले, वनिता आग संयोग. काम वधे स्त्रीसंगयी, ज्यु अपथ्यथी व्याधि; श्रुतथिर मनने चालवे, नारी बडी उपाधि. तवदृष्टि तां थिर रहे, ज्यां न लगे सीजाल, तन मन दहे संकल्पथी, आरियां शकाण.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
संयम नासे संगथी, नरक देय स्त्रीवातः उत्तम शिव, खीसंगे तसुं घात. चित्र नारी देपी करी, मानव सवि मुर्झाय दीठी मनमांहे पछे, किंकर जिस गुणकाय. प्रेमबंधथी वेतन, मन वाधे जिम वेलि पछे सर स्मर अति करे, अंगअंगमे केलिनेह से वलि जो राम, चाहे तन मन भोगः हास विलास करन नित, व काम व रोग. पछे वियोगे तन तपे, बाधे अधिक ध्यानः तिण कारण स्त्रीसंग तजि, स्त्रीसंगति दुषधान.
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७
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१ ना०
|| ढाल -- रुडीरे रे बारण रामला पदमीनी रे. एहनी ॥ श्रुत संयम तप शील हे सह रे, वनिता अगनि अगाधः स्त्रीरागे दुष कोन कही सके रे, वाधे तिम मन आध. नारीसंग तजोथे प्राणीया रे, नारी दोषनो कोषः निच जाति छे ए वनितातणी रे, षिण रागी षिण रोष २ ना० नारीसंगति चारित्र दवे रे. गरुवाई सवि जायः नीच नारीसंगति मोटांतणी रे, जगमे निंदा थाय. चारित तरुवरने छेदण भणी रे, नारी संग कुठार; क्षणमाहे सहू जग एवश करे रे, नारीचरित अपार. स्त्री परि दृष्टि लगी नवि ऊतरे रे, हथिणी ज्युं वडकीच; एक वास वावणि दूंती भलो रे, पण स्त्रीदरसण नीच. देव सेव जेहनी नित साचवे रे, नारी पड्या तेहः लहे कलंक तजे चारित भणी रे, भंभेर्या स्त्रीनेह.
४ ना०
५ ना०
કક્ક
३ ना०
६ ना
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५००
व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
nommmmmar
मन वशील विनागत तेज छे रे, बूझे अगनि सम जाण; जेहने दरशणथी जग सुष लहे रे, स्त्री पंडे तसु माण. ७ ना मोटा तपसी ध्यानी स्त्री छल्या रे, न चल्यो बल तिलमात जिण वेगे गज गिरवर पिण वहे रे, तो सी मृगसुत वात. ८ ना। करबक तिलक अशोकादिक तरू रे, स्त्रीथी लहे विकारः । एहवी चंद्रमुषी दिठां रहे रे, को जोगी अविकार. ९ना हाव भाव नव नव करती थकी रे, मृगमद तिलक निलाड ती लोयण मटके निरषती रे, पंडितने करे बाल. १० ना तां लगि थिर मन श्रुत तप ऊपरे रे, तत्वदृष्टि थिर जानः । चंचल नारी लोयण बांगथी मन तन विंध्यो जात. ११ ना वनिता अंग बाण भारण भणी रे, घर संयम सन्नाहः ब्रह्मचर्य थिर कारण वारज्यो रे, नट विट संगति चाह. १२ ना काम अंध पापी वंचक जिको रे, उभय लोक दुषधाम; पंडितने पिण ए पंडित करे रे, घरी बूरी छे वाम. १३ ना ज्ञान ध्यान तप संयम आगला रे, निसंगी गुणपाण; ते पण नारी संगतिथी पड्या रे, बीजां के होमाण. १४ ना देग्यो पूठ म थाज्यो सामुहा रे, मत देषो स्त्रीम.प; देवचंद्र सिद्धांते दापवी रे, नारी भवदुष कूप. १५ ना
दृहा. विद्या विनय वधारिया, उभय लोक सुष काजः . भत्र समुद्र तवा भणी, वृद्धसेवना पाज. विषय कषाय गमाडिवा. रोगादिक नय हेत; . उपशम बीट पमाहिवा, अदिसेवनासेतु,
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
निज पर रूप पिछाके, शुद्ध बोध जिण लिद्धः वृद्ध ति केइज दाषव्या, सितकच थया न वृद्ध. वृद्ध ति के विषयादिके, जसु मानस न घलाय; शीलवंत आतमरुची, युवा वृद्ध ते थाय. कोई वृद्ध लोभीकके, ज्ञानी युवा मलीनः बूढापे तनु बल घटे, इंद्री विषय विहीन. वृद्ध वृत्तविण तरुण छे, तरुण चरणयुत वृद्धः वृद्ध सेव माता समीः हितं श्रुतकारी शुद्ध. कर्मयोग माता फिरे, पिण संत शिवसुष गेह संत वाणि जिण नवि लही, अंध अछे नर तेह. साधु संग अमृत थकी, वाधे वृक्ष विवेकः चित्त कमल बोधन रवी. संयमश्रीनी टेक.
हाल -- हरिया मन लाग्यो एहनी.
सेवो० १
वृद्ध सेवा जगतमें, तत्व न जाण्यो जाय रे; सेवो वृद्ध मणी ० वृद्ध सेव चारित सधे, सायर शशि करपाय रे. आशा अगनि गमाडिवा, वृद्ध सेव गुणराशी रे; क्रोधादि कमल अपहरे, वाधे चारित वास रे. विषय तृषा जांये मिटी, उत्तम संग पसाय रे ज्ञान भजे थिरता बढे, कातरता दुष जाय रे. सज्जन सेवाथी लहे, कुज्ञान सागर पार रे; तप श्रुत संयम ऊपरा, पीत बधे तसु सार रे. वज्र समो शुभ संग छे, भजन गिरि मिथ्यात रे:अज्ञपणो जाये सहू, न रहे तम तिलमात रे.
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५०२
व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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शुझातम चाहे जिके, चाहे जे भव नास रे ज्ञान वचे जग जय लहे, ते सेवे गुरु वास रे. से. ६ पुण्य वधे किरिया सधे, विनय वृद्ध निरोग रे, आगम अध्यातम सधे, उत्तम गुरु संयोग रे. से० ७ ध्यान सधे गुरुसंगथी, ज्युं हेम साधक आग रे, से० गुरुनी भय लज्जा करी, वाघे साहस भाग रे. भोजन देह संसारथी, विषयथी विरचे तेम रे से जिम जिम गुरु संगति बंधे, होवे तपवृद्धि तेम रे. से० ९ नृत्य देषि के कीरतणो, देषाडे निज पूठ रे; गुरु संगत सेव्या विना, जप तप सवलो जूठ रे. से० १० कामित पूरण सुरतरू, मोटा तणो य सहाय रे से. सुपने कुमति न ऊपजे, वलि वच मुगति प्रदाय रे. से० ११ गुरु पद सेवाथी लहे, जे सुख तिसो न अन्य रे से० मोह अंधारो टालवा, दीपसमा शुरु धन्य रे. पापकर्म बंधन दहे, बाधारे तप भाव रे, विस्तारे निज ज्ञानने, गुरुसेवा शिवदाव रे. पकि संग परपंचथी, मोह तजी निज जाण रे. से. गृह संयम स्वस्वरूपथी, शिव पुरुषारथ ठाण रे. से. १४ सुषनिधान गृह धाननो, निकलंक सम धान रे .. से० अविकारी जगज्ञायकू, भजि निज आतमराम रे. से० १५ धन्य २ तिके मुनि गणिवरू, श्रुतसंयम भंडार रे, से० नारी लोयण बाणथी, न भजि मन कुविकार रे. से० १६ प्रज्ञा गेह विवेकनो, उपगारी वच जासरे से० निष्कलंक चारित धरे, ध्यान करे कर्म नास है.. से० १७
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ज्ञानसुधारसपानथी, शांति चित गुणधार रेः से. काम विषय झीत्यो जिणे, धन्य तिके अणगार रे. से० १८ नारी नयन कुठारथी, जसु नवि मेदे शील रे. कामझाल व्यापें नही, ते पावे शिवलील रे. से० १९ विषय पिशाची जे गया, मोह नींद गई भाजि रे; से० जो नारी मनयी तजी, तो निज मारग लाग रे. सेवो० २० काम तपावे जगतने, शील करे जसु वाणि रेः से० देवचंद्र निज ज्ञानसं, मलज्यो कंद्रपमाण रे. सेवो० २१
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परिगृह केरे भारसं, भवसागर निवडंतिः ते परिग्रह दोय भेदथी, अंतर बाह्य करंति. विविध परिग्रह बाह्य छे, अंतरंग अज्ञान: दस प्रकार पहिलेतणा, चवद भेद वीय मान. वसु क्षेत्र धन धान्य वलि, द्विपद चतुष्पद यान: कुप्प भांड असन शयन, दसविध बाह्य पान. निपरिग्रह मूर्छा सहित, तेह परिग्रहवंत; तिण कारण मूर्छा तजो, धरि निज आतम संत. राग द्वेष मिथ्या दशा, हास्य कषाय त्रिवेदः ए अंतर परिग्रह तजो, जो शिवमार्ग उमेद. जती संवरी दुष लहे, आशातणे प्रसाद, मोक्षार्थी परिग्रह तजो, छोडी सवि विषवाद. गुण गाले अवगुण वधे, तिण उभय परिग्रह छोडि; पंषी तो ऊडी सके, उभय पंपनी जोडि. अंतरंगनी शुद्धी विणु, बाह्य शुद्धी वे काम; काम कोध हिंसाथकी, पामे नरक कुठाम.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
दाल - राग गोडी जीव जा गोरी एहनी. दुध कारण परसंग छे, सुण मांणी रे, रागादिकनो हेतु.
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समझी जिन वाणी रे;
सत्य क्षमा संतोषता, सु० नाम करण धूमकेतुः सम० मन आणी रे; नाणी तजी धन संग. सम० ए आंकणी.
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सम०
सम० २
सम०
देह पेह दुष गेह छे, स० पंडित जाणे असारः लोभ वधे धनवृद्धियी, सु० वा कामविकार. पर संगे विद्या घंटे, सु० उघेडे सुविवेकः काम भोग अहि विष वढे, सु० परिगृहकेरे टेक. धन संगे तृष्णा बधे, सु० मोह गांठ उपसर्ग सहि न सके मुनी, सु० सुरते कायर सोय.
सम
होय.
सम०
सम
सम० ४ परिग्रह संग न जे तजे, सु० निजगुण वातक तेह; सम० संजम जप तप श्रुत घटे, सु० परिग्रहसुं जसु नेह. सम० ५ पुण्यकाज मनशुद्धिने, सु० घात करे छे एहः मूढ न जाणे धर्म थकि, सु० वाघे कर्म अछेह शीत थाय रवि गीरगिडे, सु० तो संवर परसंग कर्मतिको किम हणी शके, सु० जे नवि तजे कुसंग सम० ७ कामराग प्रसंगनो, सु० धन जडतानो गेह;
सम० ६
सम०
सम०
लव धन विण जडजन भणी, स० लावे दोष अछेह. सम० ८ निसंगि नीभय सदा, सु० धनधारी भयवंतः
भीत रहे सुत आतनी, सु० राज चौर स्त्री नित्त. कर्म वधे धन आसयी, सु० भव भव दुष भंडार निस्संगी ध्यानी परो, सु० आतम संवर धार. धन आशा जेहनी टली सु० ते पामे सुष षेम. जे संबंध ए जन करे. सु० बाधे दुप जन तेम, सम० ११
सम०
१७.२
सम०
सम० ९
सम०
सम
ܕ
O
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
निज पाले पंषी मूयां, सु० मन आवे अपसोस; निस्संगी वन नगरमे, सु निरभय रहे निरोस. लह्यो दुषे दुष राषतां, सु० नाश हूवां दुष भूर; धन काजे गुरुयी लडे, सु० भक्ष्य काज षग क्रूर. सम० १.३ हिंसारंभ कषायने, सु० करे नरकमे स्थान;
सम ०
सुपने पिण न करी सके, सु० धनवारी निज ध्यान काल विषय दुष मूल छे, सु० नरक हेतु धन छोडि धरि संतोष अमंद ए, सु० जो चाहे शिव थोडि पाप वधे धन संगथी, सु० गया वधे दुष दाहः इम जाणी आशा तजे, सु० पाप ताप टली जाय. धन पायो स्थिर राखवा, सु० ते नित रहेय विचारः परंतां मन दुष षधे, सु० धन दुष रूप असार स्त्री त्यागी बहु जन अछे, सु० धन त्यागी को एक आशा तजी आतम भजे, सु० देवचंद्र धरि टेक. दूहा.
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५०५
सम०
सम० १२
सम
सम० १४
सम०
सम० १५
सम
सम० da
सम०
सम० १७
सम
सम० १८
हि अंतरता शुचि भणी, आशा छोडे संत; धन तन ममता ज्यां लगे, त्यां लगे मोह महंत १ ज्यां लगि आशा नवि घटे, त्यां नवि जाय मोह; जो आशा दूरे गई, तो पामेस निज सोह. संयम श्रुत रवि उदय वली, उपसम अने विवेक; निराशीने स्थिर रहे, शिवसुष लहे अनेक. आशा विषवल्लीसमी, आशा छे दुषवास; भवसागर तट तिण लह्यो, जिण जीती परआश. आशयुत मन थिर नही, आशा तजि भजि शुद्धिः न बधे कर्म निराशना, न हुवे तसु भववृद्धि,
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५३
४
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
आशा विणु सहु सत्य छे, श्रुत तप अने विवेका - पाप तापना नवि मिटे, जो आशानल टेक.
ढाल-टोडरमल्ल जितो रे अथवा आदीश्वर तूटा रे. एहनी॥ निस्पृहता अमृतथकी रे, पावन करि निज चित्ता भविक मन धारो रे, परिहर आश अनित्य सकल दुष वारो रे. १ जसु मन आशाथी टल्यो रे, तसु फलीयो तरुज्ञान; भ० आशाथी सुरपति दुषी रे, आश हण्या शिव मान. भ० २ सहू आशा जसु क्षय गया रे, तसु सिध्या सवि काम, भ० मन कषाय इंद्री दमे रे, नीरीसी सुषधाम. भ० ३. कासुं कहीये अतिवणुं रे, आशा दूर निवारः भ. . निराशी जन पूज्य छ रे, उभय लोक सुषकार. पर आशा भवभयकरु रे, आश गया शिवसार ए आलोची आचरो रे, जे जाणे हितकार. भ० ५ चलचितकारि जन विसरे रे, तो किम ये शिव एह भ० मारू विषय अरु त्यागनी रे, संकट घटि बटि गेह. भ. ६ अवसर लहि मुनिवर छले रे, आश पिशाची एहः भ० सहू जग आशा जीपीयो रे, ए जीपे धन तेह. राजसार पाठकरि धूरे, जैनागम गुणजाण; ज्ञान धरम मानसतटे रे, राजहंस सुप्रमाण. तासु शिध्ये इम उपदिश्यो रे, देवचंद्र सुषदाय; भ० प्रीतिवंत गुण आगरू रे, कुंभकरणम् सहाय. भ० ९
इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पंडितदेवचंद्रमुनिविरचिते ढालभाषाबंधे ध्यानसिकौ रत्नत्रयपंचमहावतवर्णनो नाम द्वितीयः षंडः संपूर्णः ॥२॥
भ०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
७०७
दूहा. दरसन ज्ञान चरित्रमय, मिलियां शिवपुर जंत; षीर खंड घृतसुं मिल्यां, अनुपम स्वाद लहंत. तिण तिय पंड सुण्यां थकां, वधस्ये आतमज्ञान; सावधान थई सांभलो, तजि दूरमति अमिमान. गुण गुरुताग्रह देवनत, ज्ञान रूप व्रत पंच; आदरज्यो पंडित तुम्हे, अक्षय सुष गुण संच. ३ भावना दाषी व्रत तणी, शुद्ध भणी पचवीस; ईर्यादिक पण समिति त्रय, गुपति कही जगदीस. ४ चैत्य देव गुरु वांदवा, जावंतां वड भाग; रवि फरस्यो जन बहु वह्या, मुनि चाले तिण माग. ५ दृष्टि देषि मग चालता, उपयोगे अप्रमादः ईर्यासमिति तणो कह्यो, धारक मुनि आह्लाद. - ढाल-दान उलटे धरी दीजीये एहनी ॥ साधुगुण एहवा सांभलो, निरदलो कर्मदल मूर रे, चोर कामी टगे आदर्यो, ते तजो वचन अति क्रूर रे. साधु० १ दोष दस रहित मुनिजन वदे, शुफ़ भाषा भय टाल रे, कर्कश दुष्ट कटु निष्ठुर, कोपकारी दुषकाल रे. साधु० २ दीन अतिमान अतिभय करी, भूतहिंसा करी जेह रे; दोष दस वचनना ए तजी, सत्य भाषे गुणी तेह रे. साधु० ३ षोडश दोष उद्गभतणा, सोल उत्पादना दोष रे ध्यार अंगार दूषण कह्या, दोष दस मलतणो.पोष रे. साधु० ४ दोष छ च्यालविणु मागिने, लेय आहार अणगार रे .. कालविला निज योग्य ते, एषणासमिति सुषकार रे. साधु०५
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
MAAAAMAn.
उपकरण शयनगृहे, देषीने वली पडिलेह रे साधु गुणषाणने ते कही, समितिआदान सुष गेह रे. साधु० ६ मूत्र श्लेष्मादि मल नाषतां, भूपरी सहज उपयोग रे, सुमति उत्सर्ग नीते धरे, मुनिजन नित्य निरोग रे. साधु० ७ छोडी संकल्प रागादिना, वसि करे चित्त निज सत्य रे; सूत्र सिमांतमे प्रेखे, मनतणी ते मनोगुप्त रे. साधु० ८ संवर मौनधारी यती, गोपवे आपणी जीह रे स्थिर करी देह उपसर्ग सहे, कायगुप्ति मुनीसिंह रे. साधु० ९ व्रततणी आठ माता कही, संयमवृद्धिने काजरे एहवो चारित आदरे, शुभमति मुनिराज रे. साधु० १० पंडित उपशम आदरो, पामि पांचे समवाय रे, त्रिभुवन पूज्य भजी एह ल्यो, शुद्ध आतम सुषदाय रे सावु० ११ मुक्तिनो हेतु हितु जीवनो, एह दाप्यो जिनराय रे, जे गया शिवजिके जायस्ये, जाय छे तास ए दाय रे. साधु० १६ आतम गुण जाणवो ज्ञान ते, दरसण चारित्त तेह रे . आत्म जाण्याथकी मुक्ति छे, विगर जाण्या भवगेहरे. साधु० १६ दरसण ज्ञान चारित्रनो, धाम छे ए निज देव रे; आत्म जाण्या पछी शिव भणी, चाहवी सी परसेवरे. साधु० १४ सिव भव कारण एहनी, शुद्ध अशुद्धता चाल रे, शेष संयोग सङ कर्मना, आय मिल्या लहि काल रे. साधु० १५ आत्म अनुभूतिथी सिद्ध ए, साधवा योग्य पिण एह रे, आत्म इण जाणवाने कथा, ग्रंथ सबला गुणगेहरे. साधु० १६ छोडी संकल्प निज रूप ग्रहे, अनुभयो निज चिदानंद रे, इंद्रिय उपसम्यां पामस्यो, आत्मदर्शी गुणचंद रे. साधु० १७
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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अक्षर शुक्र अमूरती, देव निज सेव नितमेव रे; दीपतो आतमज्ञान , कल्पनातीत निज देव रे. साधु० १८ शुक्र आनंद चिद्नेह जे, नित्य अनंत निरोग रे जग तजि ए वस्तुना रागीया, तेहथी जास नही जोगरे. साधु० १९ त्रिभुवन हेय छे जेहने, हेय छे सर्व परभाव रे; लोक अलोकने देषतो, अनुभवे निज शुद्ध भाव रे. सावु० २० परम आतमतणे ज्ञान , नवि लषे ते किसी रीत रे; अनुभवो आत्म अनुभूतथी, परम आनंद गुणमीत रे. साधु० २१ जन्मभ्रम मूक साहस धरी, धारज्यो शुभ गुण धाम रे; शुद्ध निश्चय गुण आगलो, राजविमल सुष ठाम रे. साधु० २२
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संयम उपशमने दहे, एह क्रोध वड आग; ज्ञानादिक गुण कोसने, दूर गमावण लाग. संयम अमृतने करे, विष सम एह कषाय; ज्ञानादिक गुणने दहे, एह क्रोध दुषदाय. क्रोध दहे निज धर्मने, दहे आगि तरु जेम; आप तपे पर तापवै, क्रोध अंध गतषेम. क्रोधे मुनि नरगे पडे, उभय लोक दुषवाह; क्रोधे द्वीपायन ऋषी, कीयो द्वारिकादाह. पाप नरक अपकारनो, कारक गुण रिपु रोष; काल अनादि कषाय ए, राहु समो दुष पोष.. क्रोध जीप शम ग्रहो, लहि जैनागम वाण; क्रोध तजो समजल अजो, संयम गुणनो ठाण. कीये मुनिवर क्रोक्ने, उभव लोक दुषहः रोषपोपने टालवा, भजिज्या भावना एह.
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G.
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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
दाल -- ओलगडीनी ॥
भावन भावन भवियण हवी भावज्यो रे, भाजे भवदुष जेहा करम करम पीडजे मुझनी ना गमे रे, शुद्ध मित्र मुझ तेह. भावन० : १ घातकर जे छे आतम गुणतणा रे, तीयां पोष्यां किम सुष; उपशम र आदरी तजि क्रोधादिने रे, जे शिवगम अभिमुष. भा० कुवचन २ परना मुषथी सांभली जी, मुनिवर घ्यावे एम; नहण्योर मुझने जो हणीयो इणे रे, पिण न लीया गुणहेम. भा०३ संयम गुणने दाहे क्रोधए रे, तो सी जीवत आस भोगवतार निज कीधे कर्मने रे, सुप दुष कारण तास. भा०४ मुझनेर रोष वधे तो फेरस्यो रे, पंडित अने अजाण; उदय करम आये दुष उपजे रे, रोष करे नवि जाण. भा०५ भोगवि२ पूरव दुष मन स्थिर करी रे, मत कर को आलोच; उपसम२ नास करे अति क्रोधयी रे, अज्ञानी अति सोच. भा०६ संकट२ अति आयां रूसे नही रे; जाणि कर्मनो घेर; कंटकर पीड्यां जो उपशम तजे रे, तो क्रोधी स्यो फेर. भा०७ बंधन२ क्लेश मिल्यां सपरूं थयूं रे, थास्ये कर्मनो छेहः पूरव २ उपसम ज्ञान परीक्षा रे, आव्या छे दुष एह. भा०८ उपसम२ छोड भजे जे क्रोधने रे, तत्रु स्यो ज्ञान सुजाण; निर्जर २ करवा सहेजे कर्मनी रे, सहो परीषह बाण. पंडित २ क्रोध करे पर ऊपरे है, तो स्यो मूरष दोषः मानव २ मातो जे संसारमे रे, रागद्वेष दुष कोस. पर प्रति २ बोधक गुण तुममे नही रे, पिण मत मूझो आप परविष २ हरन सके पिण आपने रे, कोण करे विषवाप भा० ११ मानव २ दोषी परी रूठा थई रे, अरु धरतां उपसम भाव, उत्तम २ सुष दायक ते ओलषी रे, आदरिज्यो धरि चाव. भा० १२
भा० ९
भा० १०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
तोषण २ परनेके तन धन तजे रे, रूसे किम तूं आज;
उपसम २ धार्या आतम शिव लहे रे, रोष कीयां दुषराज भा० १३ मरण २ कष्ट आयां पिण साहसी रे, धरे क्षमा शिवकार; करण २ परीक्षा कसवट ए मिली रे, इम जाणी शम धार. भा० १४ उपसम २ शुद्ध ति कोइज जाणज्यो रे, क्रोध मैल जिहां नांहि; उपसर्ग २ आयां क्रोध जिको करे रे, तसु सवलो तप जाहि. भा० १५ चंदन २ वांसा सम करि जे गिणे रे, शिव साधक मुनि तेह; कारण २ योगे उपसर्ग उपने रे, जसु मन मल न धरेह. भा० १६ पूरव २ कृत ए निर्ज्जर थाय छे रे, कर्म शुभाशुभ रूप; नरक २ छोडावी जे दे शिवपुरी रे, धरि ते उपसम भूप. भा० १७ करम २ सुसे भवभयसंक नसे रे, जिणथी ते धरि टेक
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दुनी २ आगी तपे संसारमे रे, वसतां दुष अनेक. भा० १८ उपशम २ ज्ञानहिन रिपु जैनना रे, मोही निर्दय बुद्धि; मुनिवर २ दोषी जो जन है नही रे, तो साधु लहे किम सिद्धि. भा० १९ मुनिवर २ आमच्यानी भव तजे रे, शुद्ध द्रव्य पिहचान; उपशम २ भाव भजे तजि क्रोवने रे, सुष दूष सरिषा मान. भा० २० करम २ षपावण मुनि तप बहु करे रे, दुक्कर कष्ट अलेषः सहज २ उदे आयां षपवा भणी रे, घमी हितकारि देष. भा० २१ धरम २ वृष दाहक दव रोप्पए रे, नासाडे सनीत; उपसम २ भजन निश्चल करज्यो सहू रे, देवचंद्र सुप्रीत. भा० २२ दूहा. ईश्वर कुलना मद थकी, पामे नीची जात; रतन विवेक न ले सके, जसु मन मदनी तांत. अहंबुद्धि गिरिशिर चढ्या, लोपे कुल मरजादः गमे विवेक शीलादिने, मान वडो परमादः
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च्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ज्ञान नसे अज्ञान दे, लोपावे गुरु नीत; इच्छा चाले विनय विणु, माने उद्धत चीत. निज चारित्त मैलो करे, नीचो झले काम; गुण मानि तेहज घरो, जेह लषे निजराम. आपा परवातक अछे, मान सर्वथा हेय; रंक करे राजा भणी, देय विडंबन केय. मसे मनोरथ चिंतवत, गाले कीरतिवेल; हणि त्रिवर्ग निज गुण हणे, मानव मदनी केल.. ६
॥ ढाल--एक लहरि ले गोरलो एहनी ॥ गृह अपयश शस्त्र ज्ञाननो रे, पाप पाड ए माय रे, निजगुण शिवपुर अरगला रे, शील दाहक दुषदाय रे. माया ममता परिहरो रे, कुगति कुमतिनी षाण रे, मायायुत व्रत अफल छे रे, सुपनराज जिम जाण रे. माया०२ मायायुतं किरिया करे रे, राषे शिवनी चाह रे, मायावी न टिकी सके रे, पल एक शिव मग माहि रे. माया०३ साधु ति केइ जस लहीय रे, जेह हवे गतसाल रे, भयकारी पंडित कह्यो रे, माया मोटो साल रे. माया०४ अपजस दे दुरगति करे रे, उभय लोक दुषकार रे, चितमे सोच रहे सदा रे, वाधे करम असार रे. माया०५ संयम मारग नासवे रे, भांजे शिवनी चालि रे; .. बकसम वंचक जग ठगे रे, परभवनौ भय टालि रे. माया०६ लोभ न करज्यो मानवी रे, लोभ गमावे सोभरे, “ए आंकणी" कष्ट करी भव नीगमे रे, करतो नव नव लोभ रे. लोभ० ७ पेट भराई नवि मीले रे, तो पिण चाहे राज रे मात पिता गुरुने हणे रे, लोभी धनने काज रे. लोभ०
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"यानदीपिकाचतुष्पदी.
ने जे कारण नरकना रे, ते सब लोभवी थाय रे;
रे;
लोभ० १०
श्रुतमे लोभ बुरो कह्यो रे, निरलोभी शिवराय रे. लोभ० ९ रोष दमो उपशमथकी रे, मद दमि मार्दव सोभ आर्जवयी माया दमो रे, निस्पृहताथी लोभ रे. योग मिल्यां विण नवि करे रे, क्रोधभणी ते साधु रे; क्रोधादिक जित्यां पछे रे, मोक्षमार्ग ते साधे रे. लोभ० ११ निज अनुभव प्रगट्यो हवे रे, पामे आतमसिद्धि रे; ज्वर कषाय जीती लहे रे, देवचंद्र पदऋद्धि रे.
लोभ० १२
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दूहा.
इंद्रिय गण जीत्या विना, नवि उपशमे कषायः क्रोधादिक जय कारणे, अक्ष दमे मुनिराय. इंद्रिय विकरयांथी वधे, क्रोध गहन वड व्याधिः तिम तिम इंद्रियसूं लहे, तेम वधे मद आधि. रिपु कषाय जयचाह जो, तो पहिलां इंद्रिय जीति; अक्ष कषाय निग्रह भणी, एह अपूव रीति. इंद्रिय सुष दुषसम अछे, सर्व क्लेशनी संधि, इंद्रिय गज व्रत रथ थकी, जोडि ज्ञान गुण बंधि इंद्रिय अहि विष टालिवा, मंत्र वीरजिन वाण; संयमपंजरमे तवे, इंद्रिय हरि निज नाण. शुद्ध बोध जसु मन अछे, तेहने न इंद्रिय जोर; तेह न जाणं केण विधि, राचे मूरष चोर. जिम जिम इंद्रिय वश करे, त्युं त्युं वाधे ज्ञान; विषय जेम रति आत्मसुं, कीधा शिवसुष मान. मोह तृषा दुष वीजए, अक्ष सौख्य मन धारि; नरक पंथ संबल समो, साटक शिवपुरद्वारि
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ढाल-मारो मन मोह्यो इण डूंगरे. एहनी. इंद्रिय विषय तजिजो तुम्हे, विघ्न आपद भय बीज रे, अक्षसुष इंद्रिय ग्राह्य छे, कारवे पग पग धीज रे. इंद्रिय० १ विषय जग वंचिवा चतुर ए, दक्ष ए नरक दुषदेण रे; सहज चंचल विषय दुषसमा, भाषीया जिनवर वेण रे. इंद्रिय० २ लालच दोष अति विस्तरे, विषययी जाय विवेक रे; विषयनेइं विषतणो अंतरो, मेरु सरिसव समो छेकरे. इंदिय० ३ रहित संवेग कामी पडे, जगतमे जन्म दुष जाल रे; अक्षय उपशम नवि धर्यो, तो आत्म कीयो दुषमाल रे.इंद्रिय० ४ ध्यान शिव अक्ष जीतां लहे, साधु अध्यात्म सुष जेह रे । आत्म आधीन अनंक्षडू, निरवधि अनंत अछेहरे. इंद्रिय० ५ साधु सेवे दमे अक्षने, आत्मथी आत्मने भाव रे; तेह अध्यात्म सुष आत्मने, शुद्ध आदेय शिवदाव रे. इंद्रिय० ६ अक्ष तस्कर मनग चढ्या, हरे माणिक्य निधान रे, विषय स्मरणीक आदेय छे, अंत्य विषपाक समान रे. इंद्रिय० ७ नीरयी जलधि शिषि इंधणे, तृप्ति पामे सुरजोग रे तो हि कामी विषय भोगथी,नवि लहे तृप्ति जगलोक रे.इंद्रिय० ८ विषय तुझ वंचिवा आवीया, थिर मन विषय तुंवंचि रे, दुरगति तापदुष गेह छ रे,विषय तजि अनुभव संचिरे.इंद्रिय ९ काम संकल्प जिम जिम वधे, वधे तृष्णा तिम व्याधि रे मोक्ष लहे नही तां लगे, जां लगे अक्ष उपाधि रे. इंद्रिय० १० आपद बीज महा निंद्य छे, कड विपाकी दुष ठाण रे; मूकी परपंच इंद्रियतणो, विषय सुष दुष सम जाण रे. इंद्रिय० ११ दुषनिधि धाम उपाधिनो, विषयथी जसु शिव चाह रे; क्रुद्ध नागेंद्रना दांतथी, कुडय घणण उच्छाह रे. इंद्रिय० १२
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इंद्रिय० १४
सर्व इंद्रिय सुष मिलणथी, लोभ वाधे निवेद रे; दुःख कुहर नरकदायक विषे, तेथ रंजे वडो घेदरे. इंद्रिय० १३ रसन वश मीन गज फरसथी, नयन पतंग वली भृंग रे; गंधपेमे मृग गीतथी, ते लहे बंधन भंग रे. मरण ये अक्ष इक मोकले, तो किसी सर्वनी वात रे; कूर्म्म जिम अक्ष जे संवरे, तसु हुवे कर्मनी शांति रे. इंद्रिय ० १५ विषयथी जसु मन ऊभग्यो, ते लहे सहेजे सुषकंद रे; श्रीजिनवाणी अनुसारथी, एम भाषे मुनिचंद रे. इंद्रिय ० १६
दूहा. गुणमणि सागर सर्व गत, ए आतम साक्षात; सरव जाण दरसी सकल, परम निरंजन जात. कर्म उदयवश आत्मनो, रूप न जाणे ततः वीतराग सुष आगले, सुरसुष भाग अनंत. निर्मल गुण निज अनुभवो, मूकी विषय विकार; ज्ञायक निज गुण तणा, अनंत चतुष्टय धार. शक्ति अनंत अगम्य छे, आतप अचल प्रताप; कर्म षपावी ध्यानसूं, परमातम है आप निज गुण विकसे ध्यानसूं, सर्व कर्म क्षय जाय; सर्व दव निज देवमे, गुणसागर कहेवाय. शुद्धतम शिवरूप ए, गरुड तत्त्व पिण एह; काम तच्च ए आतमा, अणिमादिक गुणगेह. निज स्वभावथी उपना, अनंत ज्ञान सुषधार; इस गरुड कंदर्प ए, आतम गुण भंडार.
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पांचमतपविध सांभलो. हिवे आतम गुण सांभलो, जिम पामो निजरूपो रे; द्रव्य चतुष्क निज लही, बहि अंतर सुष भूपो रे. हिवे. १ लहि स्वभाव त्रय गुणतणो, जसु आवरण विनासी रे . शुक्ल ध्यान ज्वाला बले, निज अतिशय शक्ति विकासीरे. हिवे. २ अनादि संबंधी जीवथी, विविध कर्मनो बंधो रे, तेह पपावी मूलथी, पाम्यो निजगुण सिंधो रे. हिवे. ३ अनंत चतुष्टय प्रगटीया, तम नासे जिम मूरो रे; आतम परमातम हिवे, ए शिव तत्त्व सनूरो रे. हिवे. ४ अविरत प्रभा प्रकाशथी, दीपे जिम जग भाणो रे शूरवीर क्षत्रीय समो, सरव भूभीनो राणो रे. हिवे. ५ एरावण हाथी चढ्यो, वज्र शस्त्र धरि हाथे रे सुर नर सुरपति ए सही, इंद्राणीने साथे रे. हिवे. ६ सर्व जीव सुष दुष लहे, जेता इण जगमाहे रे; पुण्य पाप रचना सहू, गरुड तत्त्वने मांहे रे. हिवे० ७ गगन गोचर भूषण अछे, जय विजय भुजंगो रे अनंत रूप परमीस ए, नभ चाले सुचंगो रे. हिवे. ८ रोगज्वर विषकाकनी, ग्रह किंनरने यक्षो रे मारि अरी द्विप हरि अनल, इत्यादिक भय लक्षो रे. हिवे. ९ यंत्र मंत्र दैत्यादिनी, टाले भीत समस्तो रे । गारुड सूद्रारूप ए, आतम रूप प्रशस्तो रे. हिवे. १० सरव तत्त्वनो सार ए, समय सार ए थायो रे कर्म नाग विष एह रे, निज अनुभव पंष वायो रे. हिवे. ११ अविनाशी अविकार ए, रतन त्रय गुण भूपो रे निज आतमस ए ग्रहो, गरुड तत्त्वनो रूपो रे. हिवे. १२
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
चमत्कारी सह जगतणो, कुसुमसायक ए कामो रे; शिवकामी जे मुनि कह्यो, अंतर आतम रामो रे. हिवे० १३
चंचलनी चालना, सुंदर रूप सहाया रे; स्त्री समूह रागी हूवे, ते ए चेतन राया रे. हिवे० १४ अविनाशी नित चेतना, ज्ञान ज्योति निज नारी रे; तसु चाह ए आमा, काम तत्व गुणधारि रे. हिवे ० १५ ऋतु वसंत फूली सहु, वनराय अढारह भारो रे; सरस मलय वाजीया, कंदर्प उदयना कारू रे.
हिवे० १६
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सुंदर लील विलासनी, रूपवंत गुणकारी रे; मुनिजन मनने चलाविवा, नारी बूतारी सारी रे. हिवे० १७ रोधक शिवपुरमग तणी, सहु जगनी जयकारी रे; नारी गुणधारी थयी, काम तत्व गुण चारी रे. हिवे ० १८ जे जे गुण छे जगतमे, जे गुण इण तनमांहे रे; ते सहु इण आतमतणा, गुण दाण्या ग्रंथ निवाहे रे. हिवे० १९ तिण ए आतम दाषीयो, गुणसागर सदा स्वरूपो रे; इंद्रियमे जे सुषतणो, तिण काम तत्त्वनो भूपो रे. हिवे० २० देव मानव अहि शक्ति जे, जे जग विस्मयकारी रे;
ते सहु आतम शक्ति छे, तिणआतम ध्यान धारो रे. हिवे ० २१ शक्ति अनंत चेतनतणी, दाषे कूण शक्ति सरूपो रे;
नव नव ध्यान पदे चढे, कटे करमनो धूपो रे. हिवे ० २२ चरणतले जग शक्ति छे, जसु ज्ञान ज्योतिने आगे रे; जगपति जगकारण गुरु, निजज्ञान करीने जागे रे. हिवे० २३ कर्म मले मेलो थयो, स्वेछाई कर्मने बंधे रे; नवि देषे निजरूपने, अज्ञान पटलथी अंधे रे.
हिवे० २४
६५
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५१८
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
राग अज्ञान वशे पड्यो, पामे भव दुष अपारो रे;
दृषद कंचन सम न मानो तो, बंधे बहु कर्मनो भारोरे. हिवे ० २५ सुष दुष परिणामे लहे, इष्ट अनिष्ट प्रभावे रे;
काम अर्थ लालच लगे ए, नव नव संकट जन पावे रे. हिवे ० २६ काम अरथ लालच तजो, ध्यावो जिनधर्म स्वभावो रे; निज अनुभव रस आदरो, ज्युं देवचंद पद पावो रे. हिवे० २७
दूहा.
हिवे केइ यम नियम वली, आसन प्राणायाम; प्रत्याहारने धारणा, ध्यान समाधि वसु नाम. यम नियमा द्वय टालिने, के अषे छे अंगः के मुनि बीजा छ कहे, उत्साहादिक चंग. ए कारण मन थिर भणी, थीर मनथी द्वे सिद्धि; क्लेशहीन मुनि मन दमे, यम नियमादिक लद्वि. अष्ट योग मन थिर करी, शिवमग साधक थाय; मन थिरी शिव लहे,
मन विकार संध्या लहे, मुनि अक्षय सुप छोडि; इण कारण मन वश करो, ज्युं नासे दुष कोडि. चित्त दम्यां निज गुण वधे, जन्म मरण भ्रम जाय; मन विणु जीते अफल सब, मन जीते शिव थाय. ७
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१
३
ढाल-नायकानी.
कुसल लाभ मन रोधथी रे, आतम तत्त्वनो लाभरे. सुगुण नर० आपा पर वंचे जिके रे लाल, निजमन थिरता साह रे. सुगुण० १
६६
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
५१९
मन गज वस कर ज्ञानसुं रे लाल, मन वशि विण शिव नांहि रे;
सुगुण०
ध्यान सिद्ध मन शुद्धयी रे लाल, भांजे भव दुष दाह रे. सुगुण० मन० २ तिन भुवन तसु दास छे रे लाल, जसु वशी मनमातंग रे; सुगुण • मुक्ति गेह ते जन लहे रे लाल, जसु मन छे निःसंग रे. सुगुण० मन० ३ जिम मननी शुद्धि हुवे रे लाल, तिम तिम वधे विवेक रे; सुगुण• शिव चाहे मन वश विना रे लाल, मृगतृष्णा सम भेक रे. सुगुण० मन० ४ ज्ञान ध्यान तप जप सहु रे, मन थिर कीधां साच रे; सुगुण • जग दुष दायक मन अछे रे लाल, विषय ग्राममे राच रे. सुगुण०. मन० ५ ज्ञान पराक्रम फोरिने रे, वश करी मन गजराज रे; सुगुण० नव वन मन कपि जिण दम्यो रे लाल, तसु सिद्धा सवि - काज रे. सुगुण० मन० ६ मन गज वश न करी सके रे, तसु ध्यानादिक षेह रे; सुगुण ० जे न सधे श्रुत तप थकी रे लाल, मन थिर साधे तेह रे. सुगुण० मन० अनंत कर्म च भेदना रे, मन थिर किवां जाय रे; सुगुण० जसु मन वश ते शिव लहे रे लाल, दंडो स्यांने काय रे. सुगुण० मन० ८ श्रुत तप यम मन वश विना रे, तुस षंडन सम जाण रे; सुगुण ० मन वश विणु शिव नवि लहे रे लाल, मन वशे शिव
.
सुष ठाण रे. सुगुण० मन० ९
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
मन वशे निगुण गुण लहे रे, जिण विण सहुगुण जाय रे सुगुण तिन भुवन जीत्या मने रे लाल, मन जयकारको थाय रे.
सुगुण० मन० १० श्रुतधर पिण मनवश विनारे,नवि जाणे निज रूपरे सुगुण. शांति विषय विणु मन करी रे लाल, मुनि थाये शिव
भूप रे. सुगुण० मन० ११ स्वर्ग मृत्यु पातालमे रे, द्वीपउदधी गिरसीस रे, सुगुण० तीन लोकमे नित भमे रे लाल, देवचंद्र गतराग रे.सुगुण० मन० १२
तजे विकल्प मन थिरसु रे, शुझातमनो वास; थिर मन पिण निज ज्ञानसुं, पंडे मोहने पास. १ शांत चित्त रागादियुत, भ्रमसागर निवडंतिः ते उद्यम करी बापडा, जिणथी मोह गडंति. रागादिक स्वभावथी, हणे ज्ञान गुणराज त्यागी योगी ते छले, रागादिक भवसाज. शंकित कंषित मूढ़ चित, रागादिकथी थाय; अति यतने करी वारता, रागादिक नवी जाय. रागादिक जीत्या विना, देहकष्ट वे काम; राग द्वेषने जीपने, मुनि पामे शिवठाम. मोहराग भ्रम क्षय गयां, मुनि देषे निजरूप; शिव इच्छक पग ज्ञानथी, हणे मोह भव भूप. ६
॥ ढाल-मेलो थापि चल्यो वलि रावण. एहनी ॥ मोह दमो निज आतम बलथी, निश्चल मने करि सिंह रे, ज्ञानरोह गिरथी चेतनने, पाडे मोह अवीह रे, मोह ?
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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mhinAmAnnaan
रागद्वेष तजि शिव साधन भजी, मुकी जनम क्षय भर्म रे रागद्वेष वंच्यो ए चेतन, नवि जाणे निज ब्रह्म रे. मोह० २ रागतास चित थिर वशिवाथी, मुनि जाणे सहु ज्ञेय रे । वीतराग आनंदने आगे, त्रिभुवन आनंद हेय रे. मोह० ३ वटे अज्ञान राग अभावे, राग वधारे ताहि रे सहज आतमसुष आगले भवसुष,अनंत भाग पिण नाहिरे.मोह०४ रागद्वेष अनादि महारिपु, भवदुष संतति बीज रे रागी बंधे हरे विरागी, जिनवच पिण एहिज रे. मोह० ५ ज्ञान भानु आतापथी सोषो, रागद्वेष ए नीर रे, रागद्वेष अणु मात्र थका पिण, नावे ज्ञान सुधीर रे. मोह० ६ नित्यानंदमयी शिवसंतति, पामे श्रीवीतराग रे । एक ठोड दो थाय अवश्ये, जिहां द्वेष तिहां रागरे. मोह० ७ ज्ञान राज्य चाहे मानव जे, ते छोडे रागने द्वेष रे, पंष विना जिम पंषी निबलो, तिम मन विण रागद्वेष रे. मोह० ८ रागद्वेष तरू मूल नीकंदी, वसि करि मनि कपि चाल रे मोहथी वाधे रागद्वेष तिण, मोह भणी तुं टालि रे. मोह. ९ राग रेष तरू बीज मोह छे, दोष सेनापति मोह रे भवप्राणी दावानल सम ए, कर्मबंध दृढ मोह रे. मोह० १० मोह नींद रागादिक वशथी, जीव लहे दुष कोडी रे लोकालोक ज्ञानी ते देषे, जे हणे मोहनी जोडी रे. मोह: ११ मोह अंनल जल श्रुत उपशमयी, शम पामे क्षणमांहि रे मोह सोहित संसारी कहीये, मोह विना शिवसाहि रे. मोह० १२ अज्ञानी निज पर न पीछाणे, मोहतणे वसे लागि रे; राग द्वेष मद मोह दमो ए, निश्चय शिवपुर माग रे, मोह० १३
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
मोह रागादिक भव कारण ए, तजिज्यो एहनो संग रे; देवचंद्र सुषरूप पिछाणे, निज अनुभवरस चंग रे. मोह० १६
दूहा.
मोह वह्नि उपशमविवा, उथेडण तस राग; संयमयी थिर करणने, भजि उपशम वड भाग. इष्ट अनिष्ट संयोगथी, जसु मन थिर सोभंत; काम भोग तनुराग तजि, उपशम भजि गुणवंत. भववागुरने छेदने, ग्रहि शिवपुरनो राज ; शम रवियी हरि राग तम, भजि आतम शिव ताज. ३ निज आत्मा निश्चय करी, जीव कर्म नित भिन्न; ज्ञान राज्य सुष तेहने, जे शमधारी धन्न. निज आतम गुण अनुभवो, तजि रागादिक भाव; राग बाग भंजे मुनि, उपशम गजने दाव. मोह राग बंधन गयां, वाघे उपशम कंति; - आश अविद्या नवि रहे, आयां उपशम शंति.
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१
ढाल - पास जिणंद जुहारिये. एहनी ॥ उपशम नाव धरो मुनि, जिम छूटे कर्म अनंतो रे; परम ध्यान संयम जिन दाष्यो, उपशम भाव महंतो रे. उप० १ शांतचित्त मुनि सुखीयो दाष्यो, ज्ञान व्यान गुणवारो रे; सहज सिद्धि सुष वांछे जे ते, धरस्ये उपशम सारो रे. उप० २ दोष जोग त्रय विणु निज आतम, भावे उपशम भावे रे; अन्य द्रव्य पर्यायथी आतम, भिन्न करण समदावे रे, उप० ३
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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अचल सौख्य अव्यय पद तेहने, जे उपशम गुण धामी रे; तेय जगत्रय शुभाशुभ रूपी, गृह आतम गुण स्वामी रे. उप० ४ क्रूर जंतु पण वैरि तजे निज, मुनि उपशम परसादो रे; पशु पिण मित्राई करे, तजि मच्छर विषवादो रे. उप० ५ क्रूर जंतु भय सहु टले, सम संगे घन जिम दाहो रे, निर निरमल मन थाये बली, आसू जल जिम वाहो रे. उप० ६ ग्रह जक्ष सुर नर भय टाले, सिंह सरभ भय जायो रे रोग वैर बंधन टाले, उपशमतणे सहायो रे. उप० ७ शशि रवि धरणी वायु ए, छे जगमे उपकारी रे, एथी पण अधिको अछे, मुनिवर शम अधिकारी रे. उप० ८ हरि हरिणी भेलां रहे, तिम हंस बिलीने रंगो रे नाग मोर भेला रहे, शमधारी मुनिने संगो रे. उप० ९ के वंदे नंदे कोइक वली, के मारे को पूजे रे, तो पिण समदृष्टि जे मुनि ते, निज स्वभावने पूजे रे.उप० १० पुर वन कनक दृषद अहि माला, शील शय्यादि अनेको रे; सुष दुष बेऊ जे सम जाणे, ते समधारी छेको रे. उप० ११ गृह स्मशान निंदकने वंदक, कुंकुम कर्दम लेपो रे कंटक कुसुमतणी शय्या जसु, शम मुक्ताफल सीपो रे.उप० १२ दिव्यरूप नारी जग प्यारी, देषी मन नवि चाले रे, अनुपम उपशम लीलविलासी, शुद्ध शिव निज भाले रे. उप० १३ मेरु चले पण उपसर्ग योगे, न चले मन शम धारो रे .. प्रांत मूढ सुतो मदमातो, मुनि जाणे जग सारो रे. उप० १४ सुरगुरु पिण उपशमनी महिमा, पूरण न शके दाषी रे पाठक राजसार गुणसागर, शुद्ध अर्थना भाषी रे. उप० १५
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
वाचक आगम परमागमना, ज्ञानधर्म गुणज्ञाता रे, आतम अनुभवरस मानससर, राजहंस विष्याता रे. उप० १६ शुफादेय अमोल अरूपी, देवचंद्र नित ध्यावो रे अक्षय निज परमातमनो शिव, आनंद सिंधु रस पावो रे. उप०१७
इति श्रीज्ञानानवे योगप्रदीपाधिकारे पं० देवचंद्रविरचिते ढालभाषाबंधे पंचसमितित्रिगुप्तिमोहजयवर्णनो नाम तृतीयः पंडः॥३॥
दूहा. दान शील तप भावसुं, मीलियां जिम सुषदाय; तिम आतम गुण साधवा, चोथो पंड कहाय. ? वसु सहज अणजाणता, जन छे अज्ञ अनेक आनंदी भवभय विना, दोय तीनके एक. उपशम मुनिने मन रह्यो, ध्यान विना थिर नाहि; ध्यान थिरे शम थिर अछे, भेद नही इणमाहि. ३ शम थिर थाये ध्यानथी, कर्म कोटि कटि जाय; धरे ध्यान समवंत मुनि, तजि विभाव पर्याय. ४ भंवदव दाह शम्या विना, ध्यान पीरनिधि जेम; ध्यान सिद्ध साधक प्रवर, दुरति काष्ट दव तेम. ५ अशुफ ध्यान दुष ध्यान तजि, मुक्ति बीज भजि ध्यान; के मूरख माने इसो, नरक दायने ध्यान. काम क्रोध पीडित करे, रिपु हणवाने ध्यान; चाहे कूडां शास्त्र कहि, निज पूजा अभिमान. उभयमार्गच्युत पापमति, ये अशुचि उपदेशः ध्यानी शिवधारक करे, शुद्ध ग्रंथ आदेश.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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चिंतारोध ते ध्यान छे, अपर भावना जाण; अनुप्रेक्षा चिंतन अरथ, लख्यो शास्त्र सहि नाण. ९ शुद्ध अशुद्ध दु भेदथी, ध्यान मोक्ष भव थान; निज ध्यानी निराग मुनि, घ्यावे शुद्ध ज ध्यान. १० अज्ञानि रागादियुत, ध्यावे ध्यान अशुद्ध, आर्त रौद्र कुध्यान छे, धर्म शुक्ल दो शुझ. ___ढाल-गौतमसामी समोसरया. एहनी ॥ आर्त रौद तजो तुम्हे, धर्म शुक्ल धरि ध्यान रे चउविध एहिज ध्यान छे, प्रथम ध्यान दुष थान रे. आत० १ प्रथम अनिष्ट संयोग छे, बीजो इष्ट वियोगो रे; राग प्रकोप तीजो दापव्यो, तुर्य निदान संयोगो रे. आत० २ दव वन विष मातंग हरि, दुर्जन रिपु वली रायो रे, धन तन घातक देषीने, पहिलो आरत थायो रे. आत० ३ उपज्या चर थिर भावथी, स्मृत दिठां वली दृष्टो रे; जे मन क्लेशने अनुभवे, तेही ज आर्त्त अनिष्टो रे. आत० ४ एह अनिष्ट गमाडिवा, चिंते तास उपायो रे प्रथम आर्त मन जल्पथी, जिनवर देव दिषायो रे. आत० ५ राज्य बंधु स्त्री नाशथी, शोक मोह भ्रम थायो रे, बीय आर्त दुःख आर्त्त ए, इष्टवियोग कहायो रे. आर्त० ६ कास श्वास ज्वर पित्तथी, श्लेष्म धात दुष धामो रे । आधि व्याधियी आर्त य, रोग चिंते इण नामो रे. आर्तक ७ स्वल्प रोग पिण उपना, चिंते बहुत उपायो रे चित्त षेद बहु अनुभवे, तीजो आर्त कहायो रे. आर्तक ८
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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ANM.NAHA
.
काम भोग स्त्री राजस्युं, अन्य सव आनंदो रे; .. इंद्रिय सुष नित चिंतवे, तूर्य आर्त भवकंदो रे. आत० ८ जिन सुरपति पदपुण्यथी, रिपु कुल क्षय पण तेमो रे; पूज्य लाभ चाहे हुवे, आर्त नियाणा एमो रे. आत० ९ सुख काजे रिपु मारिवा, जेह दुष्टपरिणामो रे, आर्त नियाणा नाम ते, दाप्यो दुषनो धामो रे. आर्त्तक १० एम संक्षेपथी चोविधे, कयो आर्त जिनरायो रे अनंत जीव परिणामयी, भेद अनंत कहायो रे. आत० १२ ए कुध्यान चउभेदथी, छे पांचे गुणधामो रे छठेमै त्रय भेद छे, नही नियाणा नामो रे. आत० १३ निंद्य लेशयी उपजे, एह दुरित दव धामो रे पूर्वबद्ध संस्कारयी, वली थाये दुघ धामो रे. आत० १४ फल तिरिंगति छे एहनो, काल महूरत मानो रे मिश्र भाव बल ए हुवे, दुक्ख अनंतनो थानो रे. आत० १५
शंका शोक प्रमादता, भय कलि चिंता भो रे, विषयोत्सुकं उन्मादता, प्रांति नींद तनु सम्र्मों रे. आत० १६ बाह्य लिंग ए आर्तना, दाप्या श्रुतमें एमो रे, हेय कुध्यान करी ग्रहो, देवचंद्र गुण हेमो रे. आत० १७
१
रौद्र ध्यान चउ भेद सुणि, रौद्र चित्त दुषनीम; क्रूराशय करुणा विना, रौद्र कार्य करी भीम. हिंसानंद प्रथम पय, बीये मृषा आनंद, तीय चौर्य आनंद सुणी, तुर्य संरक्षानंद.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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A.ANAR
पापकथक हिंसानिपुण, नास्तिक निर्दय मीत; सहज क्रूर कपट मदी, कह्यो रौद्र दुषमीत. हणे हणावे उपदिशे, चाहे शिवसुखगेहा जीव हणे अरचे गुरु, हिंसानंदन तेह. चर थिर जीव हण्या लहे, मनमे कौतक जेहा मन चाहे रणमांहि ए, हारे जी एह. वधवार्ता दीठां सुण्यां, हरषे जे दुखवाणि; हुँ मुज रिपु कदि मारिस्युं, एह रौद्रमति जाणि. ६ मुज वइरी जीइअ छे, हणस्युं कलबल पामिः हिंसानंदन रौद्रता, किता कहूं परिणामि. परने दुषीयो देषीने, मन पामे संतोष; परसुष देषी दुष लहे, एह रौद्रनो पोष. द्ये हिंसाना उपगरण, पोषे हिंसक जीव बाह्य लिंग ए रौद्रना, निर्दयपणो सदीव.
ढाल-अधिका ताहरा हूंता अपराधी. एहनी ॥ चतुर नर सैद्रध्यानने छांडो, मोटो कर्म मयवासी; बीजो सैद्र मृषा आनंदे, मूक उक्त मलवासी. चतुर० १ कूडा शास्त्र कुमत देवी, लेकां आसन लगावे हय गय रथ पुर कल्या धन वन, कूड मसा देय त्यावे. चतुर० २ भोला जनने धरमयी पाडे, जुठे पंथ चलावे; साचो जूठ करे रिपु मारे, कूड रौद्र परिभावे. चतुर० ३ व्यसन संकटमें पाडं जनने, कूड बोली धन जोडं वचन युक्तिवं भव कादममे, अज्ञानीजन बोलं. चतुर० ४
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कूडो बोल अकारज साधे, निजने वक्ता माने; . मृषा आनंद रौद्र ते कहीये, जूठ जल्प सुख जाने. चतुर० ५ चोरी कर्म वषाणे दाषे, चोरीनी विधि याची; चौर्यानंद रौद्र ते कहीये, दुष जल वापी साची. चतुर० ६ चौरी चित्त रहे नित मनने, चोरी करतो हरषे; चौर्यानंद रौद्र को जे, तिण नित परधन निरपे. चतुर० ७ दुष्ट चौरमति करि निजसाथी, परषाट्या धन लूटे; दसविध परिग्रह आणे चोरी, दीन मानवने चूंटे. चतुर० ८ इत्यादिक चोरी विधि नव नव, नित नित मनमे ध्यावे; तीजो रौद्र कह्यो दुषसागर, नरकनिगोद भमावे. चतुर० ९ बहु आरंभ परिग्रहरातो, मातो वीकलप मोहे; चोथो रौद्र संसारनो कारण, आठ मदे करी सोहे. चतुर० १० रिपु पुर ग्राम हणी रिपु मारी, अति ईश्वरता वरस्युं; जे मुझ जनपदनो तृण चोरे, तास कुलक्षय करिस्यु. चतुर० ११ मोटा सेवक धनमणिबहुला, सवि लोके शिर नाम्यु: तरि सागर तट भेदि अरि हणि, जगत राज्य में पाम्यु. चतुर० १२ विषय प्रयोग विश्वास करीने, रिपु हणिने धन आणुं; परिग्रह रक्षानंद इण नामे, तुर्य रौद्र दुष थाणु, चतुर० १३ परिग्रह मेलण राषण काजे, जे मन नित आलोचे; रौद्र करम उदयाचलि आव्या, नित भवभ्रम तो सोचे. चतुर० १४ क्रूर कठोर वंचक बचवादी, दंड दुष्ट निस्वंशी लिंग पांच ए रौद्र तणा गिण, कृष्ण लेश निस्त्रंशी. चतुर० १५ लाल नयण बांका अति भीषण, दुष्टाशय भयकारी; मिश्र महरथमति थिति छेय जसु, निच मार्ग संचारी. चतुर० १६
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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धर्मवृक्षमां दहे, एकुध्यान सहाये;
रोगी विषय कषाय गृहीने, निंद्य ध्यान बहु थाये. चतुर० १७ दृढ संस्कार पूरवकृतयोगे, मुनिने पण प्रस्तावे;
आवे पिण निज अनुभव आगली, कायर जिम नासी जीवे. चतुर०१८ ध्यानयुगल कटुफल मलआगर, दुरति कुगतिनो स्वामी; देवचंद्र ए हेय को छे, छोडो शिव विसरामी हो. चतुर० १९
दूहा.
उपशम धरी मन वश करी, तजी भोग अनुराग; अनुक्रमरूपे वर्णं, धर्मध्यान मग लाग. मैत्र्यादिक चउ भावना, ध्यान तणी गत शोग; जे ज्ञानी मुनि शांतमन, तेह ध्यानने योग. थावर जंगम जीव सव, के हिंसक के शांत; के सुष के दुषकारके, के विषयी के दांत. निज स्वभाव पाम्यो सकल; सहु पाम्यो सुष गेह; समदृष्टीभावे मुनि, मैत्रीभावन एह.
रोगी दीन सशोकभय, वध बंधनथी नद्ध; भूष तृषा श्रमसं नड्या, शस्त्रघात भय रुद्र. मरणभये पीडित भणी, रक्षानी मति जेहः अभयदान मति निरमली, करुणाभावन तेह. दरसन ज्ञान चरित्तयुत, तत्त्वलीन सम धारः जित कषाय तृष्णारहित, सुमति गुपति भंडार. जिनशासन परि भावना, नित नित वधती देषी; मन प्रमोद पाने अधिक, मुदिता भावन पेषी.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
निर्दय परस्त्रीलंपट, सबभक्षी अतिदुष्ट; मुनिनिंदक नास्तिकमति, निजसंगी गुणभ्रष्ट. एहवा जनने संग पणि, रहे मध्यता साहि; तेह अपेक्षा भावना, कही जिनागममांहि.
ढाल-धणरी बिंदली रंग लागो. एहनी. हारे मोरा लाल आनंद कर एभावना, रागहीन शिवमाग मोरा लाल; आत्मसौख्य मुनि अनुभवे, रमतो भावन वाग मोरा लाल. १ भावो जे गुणभावना, अध्यातमगुणरूप मोरा लाल; निरविषयी ज्ञानी मुनिः परमातम सुष भूप मोरा लाल. भावो० २ हारे० मोह मिटे ए भावतां, योग ध्यान थिर थाय मोरा लाल; परम सौख्य मुनि भोगवे, उदासीनता रोग मोरालाल. भावो० ३ हारे० निरागी मुनि एकता, ग्रहे ध्यान थिर काज मोरा लाल; निच ऊंच कुण ध्यान छे, साधन ध्यान समाज मोरा लाल भावो० ४ हारे० ठाम दोषथी चित्त ए, तुरत थाय सविकार मोरा लाल; तेह ठाम एकांत लहि, थाये शांत सुषकार मोरा लाल. भावो० ५ हारे० पाषंडी मिथ्यामति, म्लेच्छ नीच जिहां राय मोरा लाल, रौद्र भूत देवीतणो, नास्तिक मंदिर थाय मोरा लाल. भावो० ६ हारे० वेश्या व्यमिचारी वली, जिहां कुग्रंथ वंचाय मोरा लाल; मानी दुशीली जिहां, नट विट मेला थाय मोरा लाल. भावो० ७ हारे० कामी भील चंडालनो, राक्षस हिंसाधाम मोरा लाल; जूवारी मदपाननो, जे चीतारा ठाम मोरालाल. भावो० ८ हारे• नारी मनचलकारणी, वली नपुंसक गेह मोरा लाल; नीच करम कर गेहमे, न रहे ध्यानी जेह मोरा लाल. भावो० ९
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
हांरे० मोह क्षोभ मनने करे, अस्थि रुधिर हुवे जेथी मोरा लाल; भीमशब्द जीहां जीवना, ध्यानी न रहे तेथी मोरा लाल. भावो ०१० हांरे० ध्यानध्वंसना जगतमे, जिके कारण जाणि मोरा लाल; ते निश्चयस्युं मुनि तजे, देवचंद्रनी वाणि मोरा लाल. भावो० ११
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दूहा.
शेत्रुजादिक तीर्थ शीर, वली कल्याणक ठाम; सागर गिर बन गव्वरे, नदी तीर गढ धाम. तरु कोटर उद्यानमे, गुहागर्भ समशान; जिनगृह आदिक थानके, मुनि आरंभे ध्यानं. गतकोलाहल मन करी, निरुपद्रव सुष थान; हर मंडप शून्य गृह, मुनि आरंभे ध्यान. घन तप वायु बुषारथी, जिण थानक नहि हाण; जिहां नव धरे रागादि नित, मुनि आरंभे ध्यान. काष्ट शिला भूपट्ट परि, आसन मंडे साधु; वज्र वीर पर्यक तिमः कायोत्सर्ग अगाधु. जिन आसन मन थिर रहे, तेही ज आसन सार; काउसग पर्यक दो, आसन पंचम आर. प्रथम संघयणी निर्भयी, थिर आसन मतिवीरः शुद्धध्यान धरि आपणो, सिद्ध लहे मुनिवीर. नवि चाले स्वभावयी, आय मिल्यां अति दुषः सहे परिषह संवरी निज आतम सनमुष. हरि अहि हाथी असुर भय, भूमि भ्रमण विधान; चक्र शूल दुष उपना, धीर न छोडे ध्यान.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
निज धीरजथी मुनि भणी, भय नवि थाये कोय; निर्विषयी संवेग धर, निज निज ध्यानी सोय.
१०
ढाल -- सीता अतिसोहे. एहनी.
थिर मन विधन निवारो, शुद्धातम ज्ञान संभारो हो० मुनिवर ध्यान धरो १
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मुनिवर० २ मुनिवर०
मुनिवर० ३
मुनि०
मुनि० मुनि० ५
मुनि ०
थान आसन ए थोक, मन वश विण सवला फोक मुनिवर० थिर निरमल मन वीर, संवेगी ध्यायक वीर हो. बहु जन थानक शस्य, जो एकम थाये वश्य हो; सममुख पूरव उत्तर, ध्यानी छे सइग अंतरत्रिगुण सहित गतमच्छर, पहिला सिध्या बहु मुनिवर; मुख्य गौण मुनि भाष्या, अप्रमत्त प्रमत्त दोय दाप्या. मुनि० ४ अप्रमत्तथि काया, ने ध्याता ध्यान सुहाया हो; अप्रमत्त लघुज्ञानी, मुनि थाये धर्मनो ध्यानी हो. तूर्यथी सपतम तांई, धर्मध्यानतणा गुण थाई हो, ध्याता ध्यान त्रिभेद, लेश्याथी फलउमेद हो. मुनि आसन जयकारी, सुसमाधि अषंड विहारी हो; मुनि० आसन चली चल अंग, तिग वाघे षेदनो संग हो. मुनि० ७ वात धूप अतिपाले, आसनधर मन नवि चाले हो; लहि अभिमत थिर थाने, पर्यकासन धरे ध्याने हो. पर्यक मध्य उत्तान, विकसन करकमल समान हो; नासाग्रदृष्टि थिर शांत, निश्चल तारानी कांति हो. भ्रू चालि विकार विहीन, थिर अधर पलव मनमीन हो; मुनि० सुप्तमत्स्य सर जेम, थिर घदनकमल गतप्रेम हो.
मुनि० ६
मुनि० १०
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मुनि०
मुनि० ८
मुनि०
मुनि० ९
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
थिर मन ऋजु तन धारे, चित्राममूरति आकारे हो; मुनि०
मन मल धोय विवेके, निज ज्ञानयी राग न रोके हो. मुनि० ११ सागर जेम गंभीर, कनकाचल जिम अति धीर हो; शांत समस्त विकल्प, नाठी सह भ्रमणा जल्प हो. मुनि० १२ दृषद चित्रामसम जाणे, जसु मुरति सहू सम जाणे हो, मुनि० थिर आसन गुणगेह, शुद्धातमध्यानी तेह हो; मुनि० १३ इण विधि ध्यान जे ध्यावे, ते देवचंद्रपदवी पावे हो. मुनि० १४
दूहा. ध्यान सिद्ध निज शुद्धिने, मन घर प्राणायामः आगमरीति वर्णवु, कारण शिवसुख ठाम.
मन थिर प्राणायाम विणु, करि न सकेइ कोय; पूरक कुंभक रेचके, तीन भेद सो होय. बाहर आंगुल षांचिने, जे पूरिजे वायु; पूरक पवन को तिको, पवन जाणमे रायु रुंधे थिर करि पवनमे, नाभिकमल थिर पंति; कुंभ तणी परि तेहने, कुंभक पवन कहंत. हलवे हलवे नीसरे, कोठाथी जे वायुः चित्त शांत कारण तिको, रेचक पवन कहायु. नाभिकंद हृदिपदम विचि, पवन नाथनो ठाण आयु शुभ फल कहे, पवन चालिना जाण. जोगी पवनाभ्यास घर, जाणे चेतन चालि; हृदयकमलमें आणीने, पवन सहित मन वालि. विषयाशा मन जल्प सहु, घटे वधे निज नाण; अक्ष कषाय नासे अलग, स्वांतभावना आण.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
RANAVA.A
किहां पवन विश्राम छे, नाडी संक्रम केथि; कुण मंडल गति पवननी, सो हिव कहीई एथि. ढाल-प्रभु प्रणमुंरे पास जिणेसर थंभणो. एहनी ॥ मन थिर करी रे प्राणायाम अभ्यासीये, जिणपरतक्ष रे प्राणायाम प्रकासीये; प्राणायाममे रे मंडल वायु तपे करे, तसु चित्ते रे ध्यानसिद्धि अति विस्तरे; विस्तरे नासा विवरमांहे रच्या चारे मंडला, जूजूया लक्षण लक्षभेदे कह्या पवनसु मंगला; ते च्यार मंडल अति हि दुरगम जासु शक्ति अपार छे, स्वसंवेदनथकी जाणे सहु जगमें सार छे. हां सहू० १ तिहां आये रे पार्थिव बीय वरुण अछे, तीय मारुत रे चोथो वह्नि कह्यो पछे; धर मंडल रे भूमि बीज प्रभ हेमनी, वज्रलांछन रे चोकूणक धर षेमनी; ते मनी धर अरध चंद्राकार वारुणमंडलो, चंद्राभ वारुण वरुण मंडित झरे अमृत अति भलो; अति नील अंजन घनसप्रभ वृत्तबिंदु समाकुलो, अति चपल दुरगम पवन मंडल लहे पंडित गुणनिलो. २ ज्वालायुत रे भीम त्रिकोण मुप्रीत छे, वह्निमंडल रे स्वस्तिकबीज समेत छे; पुर चोमेरे एह पवन नित संचरे, तिणने नित रे प्रणिधान ज्ञानी अनुसरे;
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ते हवे नाशाविवर पुरि उष्ण पीले रंग जे, अति स्वस्थ हलूयो अष्ट अंगुल हृदय नासा संग जे; अति शीघ्र शीतल श्वेतवरणे वरुण वायु वहे सदा, अनुभवे पवन विहार जायक द्वादश अंगुलचर मुदा. ३ वहे तीछो रे छ अंगुल रंग श्याम ए, शीत उन्होरे फरुस पवन पुर धाम ए; चोरंगुल रे अर्द्धवृत्त नवदवसमो, अति उहोरे अग्नि तत्त्वथी मन दमो; थिर कार्य पार्थिव तत्व दाप्यो वरुण उत्तम कामने, चल मलिन काजे वायु वसिक जिनवह्नि तत्व सुधामने गज तुरग रामा राज्य धन शुभ लाभ मूतत्त्व उपदिसे, स्त्री राज्य धन सुष सुजन अभिमत सिद्ध वरुण समादिसे.४ भवपीडा रे शोकविघ्नपरंपरा, इम दाषे रे वह्नि तत्त्व दुषकंदरा; भय कलिकर रे वैरमणदायक अछे, वायुतत्त्वे रे सिम कार्य पण क्षय गछे; क्षय गछे षप्रवेशकाले तव चारे सुषकरू, से चलणवे अहित दुषकर तत्त्व च्यारे भयधरू; ते पेसता रवि सोम नाडी सुष कारण जाणिज्यो, जी नीकले द्धय नाडी सेती अछे दुषनी षाण तो. यामनाडे रे तत्त्वमूमि जल सुष मुणे, नीसरता रे आग्नि पवन रविथी हरणे; चोमंडल रे गमनागमन पवनने, तसु दाबूं रे भलो बूरो फल जन्नने
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
जन्नने मध्यम वाम नाडे चलत दहन समीर ए,
जल भूमि दक्षण नाडि चलतां मध्य फल कह्या धीर ए शशि शूर नाडी दाहत्रय त्रय कही शस्यसुलक्षणा, सितपक्ष वामा उदयकाले कृष्णपक्षे दक्षिणा.
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चंद्रनाडे रे उदय अस्त रविमे भलो, ए उवै रे पवन विपर्यय गुणनिलो; सितपक्षे रे प्रातसमे पडिवातणे, वामनाडे रे पवन चार सुष गण भणे; गण भणे ते विपरीत वहती प्रथम दिन मन भय करी, धन हाणि बीजे दिवस तीजे पंथ देशांतर चरी; अतियुद्ध अर्थविनास विभ्रम दुःख थान विकार ए, दे दिवस पांच लगे चलतो पवन पूठे चार ए. हां प० वाम नाडे रे अमृतमय हितकारणी, प्राणीने रे रविनाडी सुषवारणी; वामनाडी रे अमृत जेम तनु सुष धरे, तिम दक्षण रे सितपक्षे वर सुष करे;
सुख करे ते संग्राम भोजन सुरतकार्ये दक्षिणा, मन इष्ट उत्तम धर्म कार्ये वाम नाडि विचक्षणा;
करलिप्रश्ने रे पूर्ण नाडि पृच्छकतणो,
जय शून्ये रे वामे पर रिपुनो गिणो; पंडितनो रे नाम लेय निज ले पछे, तो सीझे रे कारिज विपरीतें न छे;
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जे काज ग्रहगण थकी न थाये तेह वामामे रह्यो, क्षिति वरुण तत्त्वे पवन राजा सर्व सुष साधक को. हां सर्व० ८
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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सम वरण ठामै नाडि वामे थित पृच्छकनो जय कह्यो,
नविना वेग विषम नामे शस्त्र संपातन लह्यो; रोगार्त्त भूतगृहीत सप्पै दष्टने ताजो करे,
शशि नाडि चारी ग्रहे मंत्री तो उभयनो दुष हरे. हां० उ० ९
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वाम नाडी रे वायु पूर्ण जल जो बसे, इहिती रे सिद्धि तुरत तिहां उपदिसे; जब जीवत रे धन तन लाभादिक बहू, निष्फल रे पवननष्टथी सुष सहू
सुष सह जाणे पवनसे ती पुष्प पाडे आपणो, ते पछी जाणे मरण जीवन सुष दुषनो यांपणो; अति शीघ्र लाभे वरुण भूमे बहु दिने कारज सरे, ए तुच्छ लाभे पवन अग्ने सिद्धता पिण क्षय करे. हां० सि० १० शीघ्र आवे रे जलतत्त्वे थिर भूमिमे, वीय ठामे रे कहे पवन मृत अगनिमे; वह्नितत्वे रे घोर युद्ध भय अनलमे,
भूमितत्त्वे रे युद्धे जय वली वरुणमे; वरुणमे झीपे अधिक दीपे सिंधु थाये रिपुथकी,
कै शत्रुदलनो भंग थाये वधे जगमे जस वकि; भूतखमांहे थाय वर्षा वरुणतत्त्वे अति सही, झड थाय घन विणु पवनत वह्निवे घन नही. ११ भूजलमे रे सस्य बहुत अति हे सही, नभ पवने रे मध्य अग्निमे ह्वे नही; गुरु राजा रे बंध वृद्ध मिलवा भणी, मने हित रे सिद्धि चाह नारीतणी;
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
जो चाह नारी तणी तुजने साधि पूरण नाडिका, रिपुयुद्ध चोरी दुष्टकाजे सहो रिक्ता नाडिका ; रिपु वाउसेती पूर्ण नाडी गात्ररक्षा जे करे, तसु अंग बीजे शस्त्र न लगे सर्व रिपुमे जय वरे. भूजल मे रे गर्भप्रश्नी सुत लहे, अग्नि पवने रे पुत्री गर्भने नभ दहे; अनाडी रे पृच्छक जो बेसे सही, सुत पामे रे रिक्ता नादि पुत्री कही; कही पुत्री समुष नाडी षंढ उतपति जाणवी, सुष्मणानाडे युगलसंक्रम गर्भहाणि वषाणवी; भवण, आषी अरु नासिका भुष ढांकी अंगुष्टादिथि, जे वामवेला चले दक्षिण अंग पीडा तो कथी. हां० अंग० १३
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विष घूम्या रे जीवे चंद्र नाडी करी,
रवि नाडे रे तेह मरे विष विस्तरी आकर्षण रे पूरक थिर कुंभक धरे, उथान रे रेचकथी योगी करे;
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शशि थानकरे वाम अग्रिम नाडी कही, रवि थान करे दक्षिण पूठ नाडी लही; संक्रमतो रे पवन जीव पंडित कहे, विक्रमतो रे वेह पवन निरजीव हे; निरजीव पवने जगत मृतसम जीव पवने जीवतो,
सुष दुख लाभालाभ फल पिण कहो इण विधि दीपतो; जे नाडि छोडे तिका रिक्ता पूर्ण संक्रम अवसरे, पूर्णांग पग जे धरे आगे सर्व कारिज तसु सरे. हां० सर्व ० १३४
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१२.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
एक रे योगी सरव कारिज पवनने परभावथी;जे करे नाडीतणो शोधन योग मारग दावी अति चपल ए छे पवन दुरगम वसतः भवने वासने,
तेषी जोगी तजी आलस करत नाडि अभ्यासमे. हांक० १५
दूहा.
हिव नाडीरी शुद्धिता, कहुं ग्रंथ अनुसार, जसु अभ्यासे जाणिये, पवनतणो परकार. कला सहित इक बिंदुयुत, रेफाक्रांत हकार; नामिकमलमे चिंतवे, अर्ह अक्षर सार. शोझै तेण हकारथी, रविमग भासुरकांतिः अग्निझालत अग्निकण, मालायी आकांत. चपल बीजसम धूमयी, रुंध्या दसदिसी षंड; इंद्र चंद्रने साध्य नहि, नभचारि ग्रह मंड. शरदचंद्रसम धवलप्रभ, मंद मंद नभचारः झरे सुधा शिशिनाडिमे, पूरे पवन उदार. नामिकमलमे आणिने, घरे पवन थिर देश; करे चित्तथी पवनने, निक्रम अने प्रवेश. नाभिकमल हृदय कुज, आणे धारे वायु; नाडिशुद्धि करे तिहां, दहन मंडले आयु. रवि नाडीथी निसरे, चंद्रे पेसे वायु; इम नाडीशुद्धि कीजतां, सहु इच्छा क्षय जाय.
ढाल - योग लियो राजा भरतरी . एहनी ॥
साढा च्यार घडी रहे, वायु एके नाडि; पीछे बीजी नाडिमे, जाये ते छांडि छांडि.
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३.
धरो ० १
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
एकवीस सहस उच्छ्वास ए, घटसत तिहां भेली; स्वस्थ मनुज अहोरात्रमे, आनपान सुमेलि. पवन चालि जाण्या विना, न लहे निज तवः नाडिवेध हिव चिंतनुं, चित चित्र निमित्त. करि निश्चल आलस तजी, ले श्वास सुगंध; जाती फल बहुलादिने, भूवेधनि संधि. कुंकुम अगर कपूरसम, छे वरूणनो वेध; थूल वेध ओलष करो, सूषम संवेध. अमर शलभ मृग पक्षिमे, नर तूरंग शरीर; धातु पक्ष पाषाणमे, भूवस तरु मीर. क मंडलथी निसरे, पेसे बीयठामः स्वेच्छाये वाले सदा, ए उत्तम धाम. नमरपुरमे संचरे, ए कौतक काज; प्राणायाम प्रसादयी, सीझे शिवकाज. काम दर्प मन जय करे, सहु रोग बिलाय; तन थिरता जोगी करे, वायुतणे सहाय. जन्म लक्ष कृत पापनो, क्षय करे तुरतः दोय घडीमे मुनिवरु, प्राणायामनीसत्त. एक बिंदु जलनो पीये, मास दोयने छेहः वो पिण प्राणायाम सम, नवि थाये तेह. प्राणायामनी साधना, निश्चयथी हेय; देवचंद्र जिनधर्ममे, ए नवि आदेय.
दूहा. इंद्रिय सुषथी पाचने, शांत करे निज चित्त; प्रत्याहार को तिके, इच्छातणी निवृत्ति.
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धारो० २
धारो० ३
धारो • ४
धारो० ५
धारो ०
धारो •
धारो० ८
धारो० ९
धारो० १०
धारो० ११
धारो० १२
० ६
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
निस्संगी मन संवरी, कछ जेम दमि अक्षा . शमधारी मुनि संवरी, धरे ध्यान सुप्रत्यक्ष. इंद्रिय दमि मन वश करी, धरे भाल धरी ध्यान; तजि उपाधि मन स्वच्छ करि, चित्त धरे सम थान. ३ प्राणायाम अभ्यासथी, मन नवि पामे थान; निज समाधि थिर साधिवा, प्रत्याहार प्रधान. शांत संवैगी रागविणु, मुनि नवि साधे वायु; आतमज्ञानी मुनि तजे, प्राणायाम उपायु. वायु चालणरा दुक्ख करे, मन पामे बहु घेदः अधिक सिद्ध पिणका नही, तिण न कह्या बहु भेद. ६ इंद्रि दमि सम आदरी, धर्मध्यान थिर चित्त; नेत्र श्रवण युग भाल मुष, नाभि हृदय सुष चित्त. ७ मासा अग्रा लालभ्र, इत्यादिक तन अंका तिहां इक थानक मन करी, घरे ध्यान उमंग..९ शांति चिस मुनिने वधे, ज्ञान ध्यान निज चित्तः । प्रत्याहार सुधारणा, दाषी ध्यान निमित्त.
ढाल-रंगीले आतम एहनी. गुण अनंतधर जीवने, वंचे भवमे कर्म; धरो निज भावना० १ राग द्वेष मुषहिवहढ्या, सनु हणुं धरि ध्यान; भरो० आत्म लपो निजज्ञानसुं, बाली कर्म अज्ञान. धरो० २ कर्म हणु तिम ध्यानसुं, जिम न पहुं भवमांहे; धरो० । भव ज्वर अज्ञाने नड्या, नवि दिठो शिव राह. धरो० ३ परमातम जगगुरु ठग्यो, नीरस विषयने संग; धरो० । सर्वज्ञ आत्म नवि लष्यो, भ्रम अज्ञाने रंग धरो० ४
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५४२
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
धरो० ७
धरो०
आतमरूप पिछाणवा, ज्ञानदृष्टि धरि देषि; धरो० पंच ध्येय अरु आतमा, ज्ञान गुणे इक लेषि. धरो० ५ नित्य छतो छ सहज तो, केवल गुण मुजमांहि; धरो० मोह दाह तिहां पिडवे, ज्ञान अमृत जां नाहि. धरो० ६ कर्म उदे चउगत भv , निश्चय शुद्धस्वरूप; धरो० कर्म न भंजू केम हूं, अनंत चतुष्टय भूप. तजिं आशा निज शक्तिस्यु, हुं आनंदस्वभाव; छेद अज्ञान अनादिरो, आज लह्यो मिज दाव. धरो० ८ इम जाणी धिरज धरी, रागादिक मल पोय; धरो० ध्यावे आतमशक्तिसं, धर्म शुक्ल ध्यान दोय. धरो० ९
ध्येयादेय स्ववेद ध्यान धरो० कर्महिन सर्वज्ञता, निरमल शिव भगवान. धरो० १० जड चेतन जीवादि ए, ध्येय स्वभाव पिछाणिः धरो० ध्यान लहो मन थिर करो, ज्ञान दयामे आणि. धरो० ११ परमेसर परमातमा, ध्येय अरूपी देव धरो० द्रव्यार्थिक नय सासतो, इक परमातम सेव. धरो० १२ दर्शन ज्ञान आनंदमय, अक्षर विगत विकारः इंद्रिय विणु निक्कल गुणी, शांत जाण शिव धार. धरो० १३ भवद्रम क्षय कर शुद्ध छे, ज्ञाननीथपर भिन्नः धरो जगत सकल आदर्शज्युं, जीर्ण ज्योतिमय धन्न. धरो० १४ शुज अष्टगुणयुक्त छे, निर्मल अमय अमेय; परत्यागी अक्षय गुणी, ज्ञानीने आदेय. अणुथी पण जे सूक्ष्म छ, नभथी पण जे वृक्ष धरो० जगत पूज्य निर्भय सदा, परमातम शिव सिद्ध. धरो० १६
धरो०
धरो
धरो० १५
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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ध्याने कर्म सह गले, जग गुरु अमर अनूप; जिण जाणे सह जाणीये, जाय अविद्या धूप. तत्वदृष्टि निज थिर हुये, जाणे निज अनुभूति; ध्येय ज्ञेय आदेय ते, अंतर आतम भूत. वचन अगोचर भ्रम विना, चीतवि सहज अनंत; जास ज्ञानमे अंशज्युं, भासे द्रव्य अनंत. आत्मज्ञानथी आत्मने, जाण्यां थाये सिद्धि; मुनि तन्मय गुण तिहां लहे, तजि ग्रहिक ग्रहि लद्वि. लीन थई ग्रहे एकता, ध्याता ध्यान सुधेयः परमातम अंतरातमा, एक अभिन्न अमेय. कटमै कट कर्त्ता तणी, दीसे दुविधा रीतः पिण ध्यान ध्येय ए आतमा, एथी न बीय परतीत. भवमे भन्यो अज्ञानयी, विण लावा निज नाणः परमज्योति जग दुषहरू, तेहिज अनुभव जाणि. भावे इम निज भावना, ध्यान बीज गुण धामः देवचंद्र सुषसागरू, ध्यान अमोलक पामि
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धरो०
धरो० १७
दूहा.
निज सरूप जाण्या विना, न कहे आतमरूप; तिम आतमगुण वर्णं, परमपुरुष सुख भूप. आत्मज्ञान विन जीव सब, कर्म थकी मुंझाय; आपा परनी भिन्नता, सुपने पण नवि थाय. तिण मुनि आतम थिर करे सर्व कल्पना मुक्त; त्रिविधरूप ते उपदिशे, द्रव्यार्थिक गुण युक्त.
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धरो०
धरो० १८
धरो०
धरो० १९
धरो ०
धरो० २०
धरो ०
धरो० २१
धरो०
घरो० २२
धरो०
धरो० २३
धरो ० धरो० २४
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५४४
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
बहिरातम इक भेद सुणी, अंतर आतम बीय; ध्यान ध्येय एक तत्व धर, परमातम प्रभुतीय. आतमबुद्धि तन उपरा, पररागी गुणहीन; सो बहिरातम जाणज्यो, मोहनीदलय नील. देहराग प्रेमराग तजि, निज आतम पहिचाण; परमातम सम भावीवो, अंतर आतम जाण. निर्विकल्प निर्लेप शिव, केवलज्ञान सुभान; शुद्ध बुद्ध आदेय शुचि, परमातम सुषषाणि. देह राग परभाव तजी, मूकि बहिर्मुख भाव;
निर्विकल्प मुनिभावयुत, सुद्धातम गुण व्याव. ढाल-म्हारे मीभलीयां नयणाणो पाणी लागणो पाणी रूजी एहनी.
चेतन पुदगल भिन्न करो निज भावथी, ज्ञानीजी तो मुरष माने एक विवेक अभावथी; ज्ञानी इंद्रिय देहसूं नेह तजो पररूपसुं, ज्ञानी सुर नर तिरियग योनि सहू दूषकूप ए. ज्ञानी० १ अज्ञानी नवि जाणे आतम अमूरती, ज्ञानी० परमातमसम जाणे जन तन सूरती
ज्ञानी० आतमबुद्धे शून्य अचेतन दर्वने. ज्ञानी० २ अज्ञानी धन पुत्र कलवने आपणा, ज्ञानी भिन्न अचेतन द्रव्यभणी निज जाणतो, तमु लाभादिक कारण निजने ठाणतो. ज्ञानी० ३ देहभणी निज बुद्धि अज्ञान अनादिनो, ज्ञानी देह जीव गिण एक हठी ते वादिनो; ज्ञानी० देहमित्र निज बुद्धि ठगे सहू लोक ए. ज्ञानी० ४
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ज्ञानी०
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ज्ञानी
इंद्रिय विषय दमो रमो निज ज्ञानस्युं, ज्ञानी० तजि बहिरातमराग लगो निज ध्यानस्युः ज्ञानी० जे तुज दीसे एह सहू पर हेय छे, ज्ञानी० ज्ञान सरूप अनुपसु आतमध्येय छे.. ज्ञानी० ५ ज्ञानी ज्ञेय ज एह अछे निज आतमा, तेह अज्ञानी अंध कीयो परतीतमाः
ज्ञानी निज रागी परत्यागी ज्ञानी निज मलो; ज्ञानी० रज्जु नागभ्रम जेम देहममता दलो. ज्ञानी० ६ नागतणो भ्रम भागे सांकलि तिण कही, ज्ञानी० देहयुझाने त्यागथी चेतना लह लही; ज्ञानी० एक दोय बहु वचन रचनमे प्रभु नहीं; ज्ञानी० ज्ञानगम्य पर ज्योति त्रिगुणमें ए सहि. ज्ञानी० ७ जिणसुरे जगसुप्त जगे जागे सहू ज्ञानी. निज संवेदन गम्य ए आतम गुण ग्रहू; ज्ञानी० रागद्वेषनो नाश हवे जिण ओलषे, नवी को मुज रिपु मीत न कोई मने लषे. ज्ञानी० ८ पूरवकृत भव रीत सुपन सम तेहने,
ज्ञानी. शत्रु मित्र सम रीत गृहे ते निज मने; ज्ञानी० शुद्ध सीपर ज्योति सनातन जाणहूं, ज्ञानी० अक्षय आतम देषो आतम नाणहूं.
ज्ञानी० ९ तजि बहिरातम राग भजो निज आतमा, ज्ञानी० निरमल जाणो नित्य जिसो परमातमा; ज्ञानी० पर संयोगे बंध मोक्षपर त्यागथी; ज्ञानी बंधमोक्षगुणी वालो मन रागथी.
ज्ञानी० १०
ज्ञानी
' ज्ञानी
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ज्ञानी
ज्ञानी रहे अबंध कि ज्ञान प्रसादथी, ज्ञानी० मिथ्यात्वि बंधाय अज्ञान प्रसादथी; ज्ञानी० नव मे दीठा दुःख सहू परसंगथी, ज्ञानी० न पडे भवमे कोय के ज्ञान उमंगथी. ज्ञानी० ११ ए आतम मिज पास अछे ज्ञानी लहे,
ज्ञानी बाहिर देषे तेह निकामे दुष है;
ज्ञानी सोहं सोहं आपरम्याथी सेहु रे, ज्ञानी ते परमेष्टीरूप तत्त्व निज गुणवरे. ज्ञानी० १२ सिद्धांतमे पण एह एह परमीश छे,
ज्ञानी० देषणहारो एह एह जगदीश छे
ज्ञानी० इंद्रियथी मनषा धरो निज ज्ञानमे, निज जाण्या विना दुष अछे तप दानमे. ज्ञानी० १३ ज्ञानसुधारस युक्त षेद दुष नवि सहे, ज्ञानी राग द्वेष मलहीन वीन निज गुण लहे; ज्ञानी० निर्विकल्प मन थापी करो निज काजने, ज्ञानी० चंचल चित्त न देषे ते निजराजने. ज्ञानी० १६ राग द्वेष अज्ञान हरो क्षण एकमे, ज्ञानी० ज्ञानानंद सरूप स्व आत्मविवेकमे;
ज्ञानी० निज अज्ञानेज कर्म जाय निज ज्ञानथी, ज्ञानी० कर्म न तूटे तपथी ते गले ध्यानथी. ज्ञानी० १५ देह बुद्धिथी बंधमोक्ष आतमगुणे, ज्ञानी तीन लिंग विणु नित्य शुद्ध आतमथुणे; ज्ञानी योगीने निज ज्ञानथकी परभ्रम पले. ज्ञानी० १६ अंतर तजे वहेलेह तत्त्वविण मूढथी, ज्ञानी शुद्धातम सुप्रत्यक्ष गहे अतिशुद्धयी; ज्ञानी
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
करे काज सह अन्य तोहि मन ज्ञानमे; भवसुख जाणे मूढ अने मुनि ध्यानमे. आत्मज्ञान गुणज्योति सदा आनंद छे, कर्म उदय वश दुःख तोहि सुख कंद छे; दुखतिको पिण सुख को मुनिरायने, ज्ञानविना अति दुःख को सुररायने. ज्ञेय ध्येय निज देव जाणि संशय हरी, देवचंद्र सुप्रीति धरो मन थिर करी.
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५४७
जानी ०
ज्ञानी० १७
ज्ञानी०
ज्ञानी०
ज्ञानी ०
ज्ञानी० १८
ज्ञानी ०
ज्ञानी० १९
दूहा.
विषयथकी सुष ना हवे, तोही घरे जड प्रीति; अति दाण्यां पिण मूढथी, न लषे आतम रीति पररागीकुं ज्ञान नहि, तिण उपदेश म देहि; अज्ञानी जडलीन छे, ज्ञानी ज्ञानने गेह. जो गति निज ज्ञानसुं, जोड्यां भवक्षय जोय पट जिम तन जूने हुये, आतम जीर्ण न होय. थीर जोगि ते जग सथिर, जाणी ते शिवजंति; ज्ञान ज्योति जाण्या विना, बंध छेदन करंति पुद्गलगण तनु आत्मसम, अज्ञानी मानंतिः आत्मज्ञान विना मुगति, अस्थिरता दुषयंति. स्थूल सूक्ष्म गुरु जीर्ण लघु, दीर्घ दुषी तन रंग; ध्यान काज ज्ञानी तजे, योग चपल मनसंग. गाम नगर तुज ठाम नहि, तुज थानक निज नाण; देह राग भव राग तजि, मिन्न आत्मतनु जाण.
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१
३
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
चेतनयी तनु परि गिण्यां, न पलाये मुनि नाण; जग काकर सम ते गिणे, शुद्ध ज्ञान सहिनाण. तन पर दायां शिव नही, जां नवी भेद प्रतीत; सुपने पिण तनुराग तजि, धरी आत्मगुण प्रीत.
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९
ढाल -- राग धन्याश्री.
भविक जन आतम ध्यान धरो, तजी संकल्प शुभाशुभ बंधक, निज परमारथ वरो. भविक० १ प्रथम बाह्य संयम छे साधक, निश्चय आत्म घरो; जन्म लिंग तन एह अनादि आतमसं ऊपरो. भविक० २
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अंध पंगु निम जोग अथिर छे, त्युं तन मे जीउरो, ज्ञानि आतमज्ञानसे दीन प्रति, तन थै भिन्न खरो. भविक० ३ मदमातो निज पर नवि बूझे, त्युंजी उपज करो; आपापर जाण्या तिन पटणी, निफल गिण सगरो. भविक० ४ वाटि दीपसंगति है दीपक, त्युं शिव यह जीउरो; परमातम रूप ध्यान आराध्यां चेतन उजरो. भविक ५ वचन अगोचर यह परमातम, थिर प्रतीत अपरो; बिना यतन अनुपमपददायक, आतम गुण समरो. भविक० ६ सुपन भ्रांति जाग्यां ज्युं भांजे, त्युं पर भ्रांति हरो; चिदानंद अविनाश अरूपी, निर्विकल्प आचरो भविक० ७ शास्त्राण पिण देहनो रागी, हे बंधक नबुरो, पराधीन सुख स्वाद तजो यह, ज्ञानस्वाद पकरो. भविक० ८ सुष मूल चिद तत्व भणो मुनि, निज शरणो अनुसरो, चढि स्वभाव जिहां जवि भ्रमको, नीरधिलंधि उतसे. भविक० ९
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राजसार मतिसागाक, जय इंद्री मदरो
ध्वानदीपिकाचतुष्पदी. ५४९
rrior त्रिभुवन जाण तत्त्व निरुपाधि. ज्ञानानंद भर्यो; परममुनि निज आतम ज्ञानी, निज ज्ञानने उचरो. भविक० १० धर्म शुक्ल ध्यान ध्येय भेद यह, आष्यो अर्थ परो । पाठक राजसार मतिसागर, ज्ञायक निज गुणरो. भविक० ११ आतमज्ञान धरम गुणवाचक, जय इंद्री मदरो राजहंस जिम भेद जामधर, चेतन अर तनरो. भविक० १२ अक्षर त्रय गुणसुं करि थिरता, ध्यान ज देवचंद्ररोः । आतमज्ञान आनंदसिंधूर चहि, अक्षय सुख वरो. भविक० १३
इति श्रीज्ञानाचे योगप्रदीपाधिकारे ढालभाषाबंधे पंडितदेवचंद्रमुनिविरचिते स्थाननेवारूपणाभिधानो नाम चतुर्थः खंडः संपूर्णः ॥
भविक० १२
पंच महाव्रत जिम मिल्या, शिव सुखना दातारः जिम पंचम षंड सांभल्या, अक्षय सुख आधार. १ मोह अज्ञान कदाग्रह, तत्वदृष्टि न रहाय, शुद्धातम जाण्या विना, निज तत्त्व थिर नवि जाय. २ मन थीरथी साक्षात हे, शुझातम स्वभाव, लक्ष थूल सालंबधी, सूक्ष्म निरालंब भाव. आझापाय विपाक वलि, लोकस्थिति आकार; इसे विवेके भावना, धर्म ध्यान चौधार.
ढाल-बेबे मुनिवर विहरण पांगुयाँ रे ए देशी. ध्यान धरमरो धिरज धरि धरो रे, आज्ञाविचय सुनाम रे; वसु तत्त्व सिद्धांते ले कथा रे,ध्यावे माने चिरपरिणाम रे. ध्यान १
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५५०
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
दोय प्रमाण निक्षेपा चारथी रे, सातनये युत ए स्याद्वाद रे; हेतु युकति करि ते हणवो नही रे, जिनवर न वदे कूडावाद रे.
ध्यान० २
स्वाभावि स्वाधीन त्रिकालमे रे, ए छे गुणपर्याय अनंत रे; आज्ञाना सिद्ध द्रव्यने मानितू रे, व्यय उत्पादन गुणवंत रे.
ध्यान० ३
श्रुत ज्ञान निरमल जिनवर दाषीयो रे, शब्द अर्थ यूं नित्यचितार रे; शुद्धाशुद्ध द्रव्य जाणे सहु रे, तेह शक्ति जिन श्रुतनी
सार रे. ध्यान० ४
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पूर्वापर अविरोधी शुद्ध ए रे, निक्कलंक अनादि गंभीर रे; सर्व जाण नय उपनय युक्त छे रे, गहन अरथ मुनि बंध सुधीर रे. ध्यान० ५ रत्नकर जिमे शोभे अतिघणो रे, पद अधिकार रंगथी युक्त रे; कुमति सर्प मिथ्यातम गालवा रे; ग्रीष्म रविसम जेहनी सक्त रे. ध्यान० ६ अनुयोगादिक चउ भेदरे; अनादि अछे गत
छेद रे. ध्यान०
त्रिभुवन पूज्य शुद्धि कर आत्मनो रे, जसु द्रव्यार्थिक पर्यायनये करि रे, सादि
नय निक्षेप करी कवटी समो रे, कुमति भुधर भंजणहार रे; उत्तम संत मुनिने ध्येय छे रे, आगम
जलधि अनंत
अपार रे. ध्यान०
त्रिभुवन पूज्य जन्म भय क्षय करे रे, स्यात्पद लक्षण युत व्येय रे; उत्पादादिक युत षद् द्रव्य छे रे, जिन भाष्यो श्रुत ए शिव देय रे. ध्यान० ९
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ध्यानदीपिकाच्चतुष्पदी.
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विबुधानंदन विद्यागेह छे रे, शिव प्रस्थान पडह सम एह रे; तत्त्व कथक अज्ञान विना सहु रे, उत्तम भणज्यो थे श्रुत एह रे. ध्यान० १० कुमतिभंजक रंजक मुनितणो रे, मोह गमावी शिव दातार रे; साधु बंध क्षय सुष द्ये जीको रे, एम जिनागम आदरि
सार रे. ध्यान० ११
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आज्ञायुत निज आतम भावज्यो रे, केवल ज्ञानादिक गुण खाणि रे; सरदहिज्यो निश्चय का करी रे, इम ए देवचंद्रनी वाणि रे.
ध्यान० १२
दूहा. कर्म नाश करवा भणी, धरे मुनिसर ध्यान; तेह अपाय विचय कह्यो, बाधा रे निज ज्ञान. स्यादवाद पाम्या विना, भवदुष लह्या अनंत; जिनवच पोत समो को भवसायर बूडंत. महा व्यसन दवदान ए, भव वन भमतां आज; आत्मज्ञान पामो तुम्हे, सीलण शिव सुख काज.
ढाल -- लाज गमावे रे लालची . एहनी ॥
1
ध्यानतणी विधि सांभलो, अपाय विचय जसु नाम; जन्मअंध कूपे पड्या, काढि ये शिव ठाम.
कर्मवशे किम दुख सहु, ढुं छं सिद्धस्वरूप; कर्म सैन्ययी वेगलो, ढुं छं निजगुण भूप.
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१
३
मिथ्या अविरत जोगयी, बांध्या कर्मकलंक; ते मुज जूठे रे किंणपरे, काज करूं य निसंक. ध्यानत० २
ध्यानत० १
ध्यानत्० ३
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५५२
ध्यामदौनिकासुम्पटी.
ध्यानि कर्म दही करी, कब हुवे आतम शुद्धि उपादेय निज आतमा, त्रिगुण सहित निज सिद्धि. ध्यानत० ४ आस्रवबंधनो हेतु को, कोण निर्जरा हेतु; मुज आतमगुण निरमलो, मुक्तिरूप सुखकेतु; ध्यानत० ५ मोक्ष लहुं किण हेतुथी, सहज सुखी निरबाध; सर्व जाण जगपूज्य ए, शुद्धातम आराध. ध्यानत० ६ सर्व जाणे एक आतमा, इण पूंठे सहु दवे; इक निज आतम जाणतां, वस्तु जाणीये सर्व. ध्यानत० ७ ज्यांलगे पर संयोग छे, त्यांलगे निज गुण हाण; इम शुद्धातम भावतां, पामीजे शिव ठाण. ध्यानत०८ कर्मविनाशन हेतु ए, अक्षय सिद्ध उपाय; कर्मथकी पर जाणज्यो, शुद्धातम सुखदाय. ध्यानत० ९ तजि प्रमाद नित्य ध्याईए, कर्म विनाशन ध्यान; अक्षर रत्न गुणयुत लहे, देवचंद्र शुभ थान. व्यानत० १०
द्रहा. कर्म चित्रता चितवन, तेहिज विचयविपाक; चेतन सुख दुःख आति सहे, कर्म उदय फलपाक. १ वस्त्राशन स्त्री नृत्य सुख, मित्र पुत्र मेलाप; सुरमि गंध बहु भोग रस, वनक्रीडादिक पाप. गृह गज हरि चाकर पुरि, अशन पान बहु सुख; कर्म उदयथी ते लहे, थये पुण्य सनमुख. काम भोग क्षेत्रादि वर, पाम्या माने सुख, तेहिज पापतणे उदये, थाये दायक दुःख. वध बंधन अरि योगथी, इष्टवियोगे शोग; जन्म मरण भव दुष बहु, थाये पापने योग,
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सहज रौद्र भयकार जे, क्षेत्रादिक दुःख थाना बहुत शीत तप घन रहित, ते रीत शुद्ध करि मान. ६ शीत ताप वर्षा प्रबल, इति भीति दुष हेतु; कर्म मिन्न निज भावयुत, प्रसन्न भाव सुष केतु. ७ ___ ढाल-सुगुण सोभागी हो साहिब मारा एहनी. कर्म विपाक विचारो इण परे, आतम भिन्न असार सोभागी; मूल भेद आठ कर्मतणा कह्या, जन्म मरण भ्रमकार. सोभागी० कर्म०१ ज्ञानावर्ण कर्म अज्ञानमय, घाती पंच प्रकार; सो० बीजो घाति नवविध कर्म छे, दर्शन ढांकणहार. सो० कर्म० २ मधुयुत असिधारा सम वेदनी, दुविध वेदनीय जाण. सो० सुरनर उत्तम मद सुन अक्षना, साता उदय प्रमाण सो० कर्म० ३ आधि व्याधियी मुंजे प्राणीयो, तेह असाता रे कर्मः सो० दर्शन मोह हणे समकित भणी, तीन भेद बहु भर्म. सो० कर्म० ४ चारित्र मोह उदे निज भावथी, न लहे चारित्र शुद्ध सो० लाधो पण पाडे परमादथी, भेद पचीस विरुद्ध. सो० कर्म० ५ सुर नर तिर्यग नरक चोभेदथी, आयुकर्म हडि जेम; सो० तीन पुण्यमे एक छे पापमे, सुख दुख दायक तेम. सो०कर्म० ६ नाम करमयी नाम बहु लहे, गति जात्यादिक भेद; सो० भेद त्रयाणुं चितारे समो, गोत्र करम दो भेद. सो० कर्म० ७ दानादिक पण शक्ति भणी हणे, तेह करस अंतरायः सो उत्तरः कला अडतालसो, चेतनने दुखदाय. सो० कर्मवि० ८ संवरवंत मुनितप आगल, चढतागुणनी श्रेणि; सो० कर्मांधने मंद करे वली, क्षयकारी पिण तेण. सो० कर्मवि० ९ लहि समवाय पपावे कर्मने, तुर्य ध्यान संयोगः सो. ज्ञानि निर्मल कर्म पपावीने, दीपे शुद्ध निरोग. सो० कर्म० १०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
mmunNAPRANA-----
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कर्मचित्रता इण परि चिंतवे, जन्म मरण दुषकारसो० चर थिर जोग तिभावजगत्रता, चेतनथी परधार. सो० कर्म० ११ कर्मउदयकरी बहुदुष जन लहे, जन्म मरण भयहानि; सो० कर्मभिन्न इम ध्यानी ध्यावज्यो, देवचंदनो ध्यान सो० कर्म० १२
दूहा. नभ अनंत जिनवर कयो, तामे लोकाकाश; असंखप्रदेशी त्रिगुणमय, छहूं द्रव्यका वास. उर्फ मध्य अध भागयी, त्रिभुवन कहीये लोक; त्रिविध वायु आधार छे, सर्व द्रव्यनो सोक. प्रथम धनोदधि बीय छे, धनमारुत तनवात; लोक धर्यो निजशक्तियी, अति ऊंचो जसु गात. लोकांते वनोदधि छे, तसु तलि वन तनुवात; अधोलोक सगराजनो, उपलोक रजु सात. वेअसमा आकार अव, मध्ये झालरि जेम; ऊरधलोक मृदंगसम, त्रिविध लोक थिर एम. अधोलोक सग नरक छे, नारक घंट वसंत दुख क्लेश प्राणी लहे, शीततृषादि अनंत. शीतवात तो सी कहूं, मेरु गले जसू ताप; हिंसादिक पण कारणे, नरक लहे दुखव्याप. मिथ्या अविरति रौद्रता, कृष्णलेश अति क्रोध, छेदन भेदन ताडना, लहे नरकने सोध. बंध अधोमुख अगनितल, ज्वालन पिल्लन यंत्र; लोहकंटके चालवण, छेदन भेद अपत्र. दुस्सह रोगप्रकोपथी, पडे उपडे तेह; अतिदुषीया सरणो तके, पूरवकृत फल एह.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
मित्रबंध न तिको तिहां, निरदय पापी सर्व हुंडाकृति कुध्यानगत, रौद्रमुष विण दव. वहे पूति दुरगंध अति, करे रौद्र अति कूप; रौद्रध्यान अति चिंतवे, निज थिरतायी चूप. विभंगतणे बल जाणिने, निजकृत कर्म स्वभाव अज्ञानी अति दुख धरे, ज्ञाता उपशमभाव. १३
___ ढाल-सूरजसाम्हा हो पोलि. एहनी ॥ साध मोक्ष मुनि सहो ज्ञानी, संवेगे नरभव लही; म्हारा लाल. तजि विषया सारी सहो ज्ञानी, कर्म हणे तप आदरी हो० म्हा०१ साधे इच्छित तेह, ज्ञानी० कष्ट पड्यां धर्म नवि तजे; म्हा० क० तेहिज ज्ञाननो गेह, हो तजि प्रमाद निजगुण भजे. म्हाक०२ हितवत्सल गुणवंत हो. तिण मुनिने बहु दुख दीयां; म्हा० क० तिणनु दुख पडत हो• दुख सहित प्राणी निज कीयां म्हा० क०३ मे अज्ञानमे लाग हो० चर थिर जीव हण्या घणा; म्हा० क० परधन परस्त्री राग हो० व्यसन पड्यो पर रागथी. म्हा० क० ४ रौद्र ध्यान वश एह हो दुख लया में नरकना; म्हा० क० इंद्रिय सुखने नेह हो० लोक ठग्या में कूडयी. म्हा० क०५ जे ते मार्या पूठ हो० ते तूझ मारे न्यायथी; म्हा० क. रीस म करि इहां जूठ हो० एतो वारी आपणी. म्हा० क०. ६ निज हित नरभवमांहि हो न कीया तो हिव स्या हवे; म्हा० क. भंझी धर्मवो राह हो नीच करम बांध्या घणा. म्हा० क० ७ ग्राम नगर दे दाह हो. निरबल जीव हण्या घणा; म्हा० क० ते मुझ दुष दे साही हो० कर्म छोडे वचनी परे. म्हा० क० ८ स्युं करुं जावू केथ हो० असरण कर्मक्शे पड्यो। म्हा० क. हुं दुःख देषु एथ हो० अणुदिठाविण पारकाए. म्हा० क० ९
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५५६
ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
mmmmmmmmm पुत्र मित्र स्त्री दास हो के किहां मै तिणकारणे; म्हा० क. कीधा पाप विकास हो० पिण दुख देषु एकलो. म्हा० क० १० कर्म शुभाशुभ एह हो० एथी मुझवीय को नहीं; म्हा० क. नरकथी काढे जेह हो तेह धरम नवि आदर्यो म्हा० क० ११ निज गुण विना सहाय हो० कोय नही त्रयकालमे;म्हा०क० लव सुख काज उपाय हो कीधां दुख अनंत ए. म्हा० क० १२ जैनधरम जगमांहि हो दुख हरे सुखने करे; म्हा० क. रंज्या परिग्रह ग्राह हो० मरणतणा भय नवि लषे. म्हा० क०१३ सागर वसे असंख्य हो० मांसाहारी नरकमे; म्हा० क. भाजे करडि अंष हो० छेदन भेदन अति करे. म्हा० क. १४ पूरव वेर चीतार हो० लडे विडे सहू नारकी; म्हा० क. रौद्र कृत्य भयंकार हो० क्षेत्र दोषयी नारकी. म्हा० के० १५ कुंभी अगनिने पाक हो० न मरे वैक्रियतनबले; म्हा० क. परम अधर्मिकार हो० शतशत षंड करे तिहां. म्हा० क० १६ तातो तरूयो पान हो० फल ते मदिरापानना म्हा० क० भांस भषे तसु आन हो फल ते मांसाहारना. म्हा० ऋ० १७ परस्त्रीसंगे तस हो. लोहपूतली तिहां मिलै; म्हा० को दुष गृह नरक ए सप्त हो निमिषमात्र पण सुख नही. म्हा०क० १८ विसरचो घरव वेर हो. चितरावे सुर पापना; म्हा० क० भूष नरकमे ढेर हो. दुष तसु को न कही सके. म्हा० क० १९ अन्न पान तिलमात हो० न मले भूष तृषा घमे; म्हा० क० तिलसम पंड्यो गात हो० कर्मवसे वलि तमु मिले. म्हा० क० २० देह थान भज ध्यान हो. नरके सहू दुखकार छे; म्हा० क० अधोलोकनो थान हो० वरण्यो मध्य कहूं हिवे. म्हा० क० २१
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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MannA AAAAAAA
जंबू लवण आदि हो० अंत स्वयंभूरमण छेम्हा० क. संख्या तीन अनादि हो० द्विगुण प्रविस्तार छे; म्हा० क०२२ सार्द्धद्वीप क्षेत्र हो० मानुषोत्तर गिरथी उरइ; म्हा० क. तीस युगलीया क्षेत्र हो० कर्ममूमि पनरह गिणो. म्हा० क०२३ आरिज म्लेछ दुभेद हो० जन्म मरण दुख नरगते; म्हा० क० पराधीन दुख षेद हो० तिरिगतिमे दुख बहुत छे. म्हा० क०२४ कर्मवसे उदेवसि एह हो० सवि षमे प्राणी लहे; म्हा० क० अक्षरत्रय गुणगेह हो० देवचंद्र सुखसागरू. म्हा० क० २५
ज्योतिषीय तिण उपरा, चर थीर सुखी अपार रविचंद्रादि अंसख पिण, तिरछे लोक मझार. सोहमयी अच्युत लगे, उपराउपर कल्प; ग्रैवेयक विजयादि पीण, बहुत सुषी दुख स्वल्प. २ नहि विभाग दिनरातनो, रतन तेज दीपंत; घड ऋतु सुख सम काल छे, नहि अति शीत तपंत. ३ ईत भीत उत्पात अहि, सिंह चोरभय नाहि; पंचरंग मणि तेजसु, दीपे भुवन उच्छाह. रत्नवावडी रत्नसर, तिहां खेले सुरमारि, कल्पवृक्ष चिंतामणि, सार वस्तु आधारि. ध्वज छत्रांक विमानमे, स्त्रीसंगे सुखवंत क्रीडा गिरक वहीरमे, कबसें जेम न खंत. मेहके चंपक मालती, तमे मंगनी कोडि, लीलावन मंदारुतले, खेले स्त्रींनी जोडि. गावे देवी गीत गुण, वाये वीण मृदंग; गीते सुरने रीझवे, अमरी मनमे रंग.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सुखसंपद सुरधामनी, उपमा कही न जाय; पंचरंग मणी चैत्यगृह, वन वापि तिहां थाय. ९ गढ परिष्या तोरण सहित, पोलि चैत्यमणीरूप; सामानिक तनुरक्षकर, सग अनीक इक भूप. थिरश्रृंगार सुपीन कुच, शशीमुख सुरनी नारि; कामकेलि गुणआगरु, लक्ष्मीने अनुहारि. सुंदर गुण अणिमादियुत, भूषणयुत मतिधीर
पंडित विनय सुजाण नर, जसु अम्लान शरीर. १२ हाल---थारा म्होला उपर मेह झरूषे दामनी. हो लाल
झरोषे दामनी. एहनी ॥ नही य दुषी को रोग को तिहां दीन छे हो लाल, नको. थिर शोभा छे जास वास सुखमे अछे हो लाल; वास. सभ्य समानिक मंत्रलोक तनुपाल छे हो लाल, लोक० गायन नटूया एम विविध सुरमाल छे. विवि० १ देवलोक सुखओक सदा सुखमे रमे हो लाल, सदा० शीलरूप गुणवंत सहज मनमे गमे हो लाल; सह. नितनित नवनव रंग गीत जयजय सदा हो लाल, गीत. सातधातु गुण देहरूप सुखकर मुदा हो लाल. रूप० २ अतिसुकुमाल शरीर चतुर पंडितवरू हो लाल, चतु० दोष क्लेश भयहीन शांत जिम निशकरू हो लाल; शांत० ३ महारिद्धि गुणवंत जिहां सुर अति घणा हो लाल, जिहां बेठा सभा मोझार इंद्र सरीमा बण्या हो लाल, इंद्र० पुण्यउदे लहे सुख सदा मन ऊमहे हो, सदा० देवलोकनी भूमि सदा सुष गुण गहे हो लाल. सदा० ४
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'व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
कंप०
जैन०
देव०
सेवे अमर असं कंषम नही हो लाल, माने सहु जग आण ताहरी ए सदु हो लाल; ताह० पुण्य उदयनो सुख कहे कवि केटलो हो लाल, कवि० सुरपति आगे आय मंत्रि कहे एतलो हो लाल. मंत्रि० ५ सुरपति चेतन ताम काम ए पुण्वना हो लाल, काम० पूरव कृत तप शील चरण वर दानना हो लाल, चरण० पिण शिवसाधक माग एण गमे नही हो लाल, एन० एह विनासी सुख दुख गिणजे सही हो लाल. दुप० तिहां समकिती देव तत्त्व निज थिर करे हो लाल, तत्त्व ० सारे जिनवरसेव जैन महिमा करे हो लाल; कल्पवृक्ष दसभांति देग मनकामना हो लाल, इंद्रिय सुखकं तेथि नहि काई मना हो लाल. नहि का० देवलोक कितां अछे देवांगना हो लाल, अछे दे० अच्युत लगी सुर नारि जाय छे दुख विना हो लाल. दुष० उपर नही विकार इंद्रिय पिण को नही रे लाल, इंद्रि ग्रेवेका लगि चालि मिथ्यात्वीनी कही हो लाल; मिथ्या ० पंचानुत्तर देव सहित समकित अछे हो लाल, सहि ० सर्वारथसिद्ध देव एक भवभय छे हो लाल. चौगतिमे सुख दुख लह्यो में बहु परे हो लाल, लह्यो • षिणमे राच्या मुझ गरज न विकासे रे हो लाल; गरज० arrat fनश्चल देव सरखं जगजाण हो लाल, सरव० भमियो चवदह राज तोहि शिवठाण ए हो लाल. तोहि० १० तिन भुवननो जाण त्रिविध गुण राव ए हो लाल, त्रिविध० चोथो धर्म सुध्यान लोकथिति ध्याव ए हो लाल; लोक०
एक०
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
परमातम आदेय सदा थे आदरो हो लाल, सदा० अक्षर जयगुणयुक्त देवमुनि मन धरो हो लाल. देव० ११
दूहा. हिव पिंडस्थ पदस्थ वलि, रूपी रूपातीत;
और ध्यानविधि च्यार ए, घ्यावो धरि प्रतीत. तिहां पिंडस्थध्यानथी, पिण धारणा अनूप; पार्थिव आग्नेयी पवन, वरुण तत्त्व स्वरूप. मुनि तत तीन छे लोकसम, जलधि जेम आकाश; जंबूद्वीप सहस्रदल, मेरुसिंघासन भास. तिहां बेठो यो सवर, ध्यावे आलमध्यान; मन भमे ने वशी करे, सो पार्थिवगुण मान. थिर अभ्यासे नाभिमे, कमल सोल दल सार; पत्रे सूरगण चिंतवे, अहं मध्य उदार. तिण अर्हयी अग्निगण, हृदय अष्टदल देह; ऊंचे मुख अडंकर्मने, दहे बल ध्यान तेह. वह्नि बीज समकीतसहीत, मंडळे अग्नित्रिकोण; धूमरहित कलधौतयुति, दहे कर्म भगौण. दही कर्म ले शांतता, तृण विष्णु अग्नि समान; धरे शुद्ध निज धारणा, ए आग्नेयी मान.
दर. --कूमरी बुलाचे कूबडो. एहनी ॥ ध्यान डिस्य विचारीये, शुद्धातम गुणधामो रे; आतमशक्तिस्वभाव ए, लोकालोकनी सामो रे. ध्यान १ आतमशक्तिस्वभावथी, कर्मधूलि उडावे रे, ते पिंडस्थ सुध्यानथी, वायुधारणा थावे रे. ध्यान०२
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
--ARAHA...
करुणा धारणा ध्यावतां, मेघरूप ते घ्यावे रे आतमध्यान सुनीरथी, कर्ममेलने नसावे रे. ध्यान० ३ सात धातु तन मल विना, केवलज्ञाननो नाथो रे; ज्ञानादिकअतिशयधरू, परमातम सुखसाथो रे. त्यान० ४ मिनकर्म निरुपाधिए, देहमांहि निज देवो रे ध्यान पिंडस्थ हृदि चिंतवे, परमातम नितमेवो रे. ध्यान० ५ उज्ज्वल निर्मल आतमा, जिनसम कर्मविहीनो रे, धारक (गुण) अनंतनो, ध्यावे निजगुणलीनो रे. ध्यान० ६ भय ग्रह राक्षस सिंहनो, रिपु विषधर गजराजो रे भय पूरवकृत कर्मनो, नासे ध्यानथी आजो रे. ध्यान० ७ देहमांहि निज आतमा, सिद्धसमो जे ध्यावे रे निज अक्षस्त्रयगुण लही, देवचंद्रपद पावे रे. ध्यान० ८
दृहा. उत्तम पद आलंबिने, घर पदस्थ मुनीशः .. नित्य वरण माला स्मरे, श्रुतज्ञान गुण ईश. षोडश कमले स्मरे, षोडशे स्वरनी माल; हृदय पदम चोवीस दल, वर्ण पचीस विचाल. २ वदनकमल .अठ दल तिहां, चिंते अक्षर आठ; हरे रोग मन चिंतने, दहे कर्मवड काठ. वर्ण मंत्र पद नाथ ए, अर्ह अक्षर सार सरव देवनत सूर्यसम, हरे सर्व अंधकार. कनक गतमल सिद्धसम, ध्यावे मुनि निजदेव; ब्रह्मा हरि हर बुद्धके, जड बहु सारे सेव. जैन ध्यावे जिन भणी, निश्चय आतमराम; शिव साधिक भय क्षय करे, गुण अनंतनो धाम. ६.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सर्व देहमे संचरे, थिर धारे सहु देह, वधे सुधि कुंभक धरयां, अक्षय सुख दे एह. पावे निश्चल मनथकी, अहे उत्तम ध्यान; बाह्य रीत तजि दृष्टी धरि, निश्चल नासाथान. 'धुरि अकार हं अंतपद, रेफ बिंदु शिवरूप; ज्ञानज्योति गुण आगलो, निकर्मा सुख भूप. अन्य सरवयी पांचिने, मन राषे एक टामः साध्य सिद्धि एकत्व कर, साधे शिव सुख काम. १० परम मंत्र परमातमा, साध्यां सिद्ध लहंतः अंतर बाहिर भेदयी, ते दापीजै मंत.
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९
ढाल - आदर जीव क्षमा गुण आदर. एहनी ॥
व्यावो व्यान पदस्थ विचारी, अंतरंग बहुरूपी जी; अंतरंग शिव सुखनो साधक, बाह्य पुण्य सुख भूप जी. व्यावो० १ कामताप दुःख व्याप गमावे, ह्रीं अक्षर एहजी; ज्ञानरूप निरमल अविनासी, ओं ए गुण गेहजी घ्यावो० २
•
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११
उक्तं च-- अरिहंता असरीस, आयरिया उवज्झाया; तहा मुणिणो, पढमरकरनिप्पन्नो; ओंकारो परमिट्ठी. १
हृदय कमल धरयो कर्म नसावे, श्वेत वरण स्वर युक्त जी; रक्त वर्णयी जगमे क्षोमेः प्रीते रीपुथी मुक्ति जी. ध्यावो० ३ श्याम रंग व्यायां जग मोहे, बाह्यरूप ओंकार जी; जाणे को मुनि इणरो महिमा, बीजो न रहे पार जी. व्यावो० ४ पण परमेट्टी ज्ञानादि त्रय, दिशे विदिशे अड पत्र जी विचे ओंकार रूप शुद्धतम, दुविधे न साधे त्रस जी. ध्यावो० ५
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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भवकिलेस सहू नासे इणथी, शुफ करे निज देव जी; कृपानिधाने इण सम नही बीजो, परम मंत्र ए सेव जी.ध्यावो०६ इणथीने सुर थाये तिरजंच, ध्यान पुण्यनो गेह जी; परमसिद्धिदायक ए ऑपद, सोल वरणयुत एह जी. ध्यावो० ७ दोसत व्याने चोथफल, छठ पुण्ये इण ध्यान जी; अर्हत सिद्ध पड अक्षर ध्यायां, सिद्धसमो ए मान जी.ध्यावो. ८ ओमूल पांच हीपद, असिआउसा सारजी; मन थिर ध्यायां निस्संगे, जन्म मरण भय वार जी. ध्यावो० ९ चोमंगलयुत ए मंगलकर, जप्यां वरण वे सिद्ध जी;
ओं ह्रीं श्रीं अहंपद, नमः युत चे अतिरिद्ध जी. ध्यावो १० नमोसिद्धाणं कर्म विणासे, वधारे समभाव जी; मंत्रपदानि यथा
ओनमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनंतशुद्धिपरिणामस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानंतचतुष्टयाय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा इति मंत्रः ॥ इत्यादिक्गुणः सुतशिवसाधक, निज परमातम भाव जी. ध्यावो०११
ओनमो आहताणं पद, प्यावो करि थीर चित्त जी; मायावीज ध्यान ऑयुत, आपे इच्छित वित्त जी. ध्यावो०१२ धूमदि.खा प्रगटे छमासे, वरस वहिनी झालजी; इण ‘याने चूका विणु पामे, उपशमभाव विशाल जी. ध्यावो०१३ शिवविद्या ए कामतापहर, अमृतमय सुखधाम जी; झौं ए मंत्र नासाथाने निश्चल ध्यावो, उज्ज्वलगुण अमिरामजी
ओं अहं ध्यावो १४.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
प्रथम ह्रीं प्रणव दोय, आगे विची ए अक्षर सार जी; सः इस्त्रीहं अंते दोय प्रणवहीं सेती, विद्या ए जगसारजी. ध्यावो० १५ सिद्धचक्र ए मंत्रशिरोमणि, सहु विद्यानो सार जी; अरिहंताणं पापक्षयंकरं, सिद्धाणं सिद्धकार जी. व्यावो० १६ आचारिज निज गुणने चरचे, व्याधि हरे उपाध्याय जी; साधु सुखंकर निजगुण साधे, चोचुलकपद धार जी. व्याघो० १७ इत्यादिक उत्तमपद व्यावे, बाह्यालंबनरूप जी; मैत्रीभाव व सह उपर, निजगुण ग्रहो अनूप जी. ध्यावो० १८ वीतराग मुनि नित प्रणिध्यानि, परमसंसर्ग विहीन जी; स्यादवाद श्रुतसार लहीने, लेवे त्रिगुण नगीन जी. ध्यावो० १९ बाभावी मगनभाव तजि, निज शुद्धातम ध्यावे जी; अक्षरत्रय गुण लही अमोलक, देवचंद्र सुख पावे जी. व्यावो० २०
दहा.
"
हिव रूपस्थ तणी कथा; सुगो भविक चित लाय; सर्वजाण अर्हत प्रभु, सो परमेसर ध्याय . जगहित थीर मंदिरसमो, ज्ञानादिक गुणगेह; सप्तधातुविण संवरी शिवलखमीसु नेह. जस चरित्र अचिंत्य छे, जगबांधव जगजाण; वि कषायादिक दमी, भववव नीला माण. देवक को नवि कहे, जेहनी ज्ञान विभूति; भंजे सह मिथ्यातगिर, स्यादवादनी रीति. गुणनिधि ज्ञानी सर्वगत, परमातमपद धार; ए ज्ञानी निज आतमा, परमातमसन सार.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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दोष अढारे आ वस्यो, जनम मरण भय व्याप्त; ए आतम निज ज्ञानसु, ध्यावो निज सम आप्त. ६ परशासन सहु छोडीने, धारो सम्यक्त्व ज्ञान; गुण धर गुण धर ज्ञानयुत, ते पण आतम ध्यान. ७ जसु ज्ञान आदर्शमें, छए दर्व भासंत; लोकालोक प्रकाशकर, ध्रुवस्वभाव गुणवंत. जसु ज्ञानरविज्योतिथी, भासे कुनय षद्योत; सदा अगोचर सर्वनत, धरे अपंडित ज्योत.
__ढाल-वाह वाह वणायो विंझणो. एहनी ॥ ध्यान धरो निज धर्मनो, निज अक्षय सुखनो कार रे लाल; जसु फरसे शुचिथाये धरा, शिवमारग दाखणहार रे लाल. ध्या०१ जितो रवि भामंडले, ए देव अनाथां नाथ रे लाल, पडतां दुःख समुद्रमे, एहिज साहिब दे हाथ रे लाल. ध्यान०२ थिति सिंहासन उपरे, धरि छत्रत्रयनी शोभ रे लाल, सुरपति चामर विझवे, क्षय कीधो रागने लोभ रे लाल; ध्यान०३ पुष्पवृष्टि सुरदुंदुभि, वली वृक्षअशोके युक्त रे लाल अड प्रातिहारज करी, शोभे वीतराग विमुक्त रे लाल. ध्यान०४ शुक्लध्यानी शांत छे, भवदुःख हरे गतराग रे लाल, एक सनातन व्यक्त छे, गतकामी एशिव मान रे लाल. ध्यान०५ जगचक्षु जगनायक धणी,.ए ज्योतिरूप आनंद रे लाल; ईश चतुर्मुख कृष्ण ए, एहिज जिन आतम संतरे लाल. व्यान०६ सिद्ध सुमति जगज्येष्ट , मुनिवर अक्षर गुणधार रे लाल; निरागी जिन सर्वज्ञ ए, व अयप जीर्ण उदार रे लाल. ध्यान०७ इन एकत्व प्रतीतसु, ध्यानी थावे शिवरूप रे लाला जिण जाण्यां मुनिवर शिव लहे, आराध्यो ते गुणसूप रे, ध्यान
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ध्यानदीमिकाचतुष्पदी.
आतम अमृतस्वादथी, अक्षयपद लहे कर्म रे लाल भव्यकमल रविसारिषो, निश्चल भजिज्यो तजी भर्मरे लाल. ध्यान०९ आतम आतमज्ञानसु, निश्चयथी परमानंद रे लाल; परमज्योति गुणरंजीयो, मुनि ध्यावे ध्रुगुणचंद रे लाल. ध्यान०१० आतमज्ञान अमृतथकी, थिर मुनि नवि चूके ब्यान रे लाल; ज्ञान राज त्रयभुवननो, ते सुख आममनो थान रे लाल. ध्यान०११ निरमल चित्त थया मुनि, निज आतमज्ञानथी पीन रे लाल; निज व्यय गुणने अनुभवे, थाये लन्मय गुणलीन रे. व्यान०१२ तन्मय आतमध्यानथी, मुनि पामे केवलज्ञान रे लाल; परमातम शिवरूपी हवे, तिण धरी परमातमध्यान रे. ध्यान०१३ ए आतम निजशक्तियी, पामे निस्मल निज नाण रे लाल. एह अज्ञानताभावमे, सहु लोक भमे विण ठाण रे लाल. ध्यान०१४ थान पात्र भवजलधिमे, लोकालोकनो जाण रे लाला ए अष्टानंतक गुण धरी, मतराग अमल गुणराण रे लाल. ध्यान०१५ ए ध्यावो कंद आनंद अमंदनो, अक्षरत्रय नाथ अनंतरे लाल, इण परि निज रूप विचारतां, हुवे देवचंद गुणवंतरे लाल.कान०१६
वीतरागता ध्यावतां, मुनि थाये गतराग; क्रूरकर्मने आदरे, सग तणे मल लाग. मंत्रादिक कुध्यान बहु, चेतनतणो विभाव; भवदुःखकारण परिहरो, ग्रह निज थिरता भाव. निज समाधिगुण आदरयां, एहिज त्रिभुवननाथ; सौख्यहानि न कर कदे, आत्मध्यान गुण साथ. शुझमार्ग छुटां पछे, लहिवो दुकर एह, अध्यातम सुख नासवे, असद्ध्यान भवरेह.
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ध्यानदीपिकाचम्पदी.
परमानंदक मार्ग तजि, झले कवण कुमाग; आशादासकुध्यान धरि, पडे नरक धरि राग. जीव कर्मनो भेद कर, ते गुण व्येय अमेय; छे इण साध्ये सिद्धि तिण, परमातम आदेय. आश च्यानथी शिव नहीं, अछे ज्ञान गुण नाश; मुनि मन चंचल नवि करे, धरे शांत रस पाश. रूपस्थे थिर चित्त कर, व्यावे रूपातीतः शुद्धज्ञानमय मूर्ति विणु, ध्यावे आत्मविभूति.
ढाल-बूझि रे तूं बूझि रे तूं बूझि प्राणी. एहनी ॥ ध्यान रूपातीत ध्यावो, अनुभवो लिज रूप रे; एहीज सरणो ध्यान इणरो, ए अक्षय गुणभूप रे. ध्यावो० १ आत्मज्ञानसु आत्म जोडी, ध्यानी हे सुभाय रे । सामान्य करि सिजिसम सलू, व्यक्तिमेद्र लपाय रे. ध्यावो० २ नय प्रमाणे तत्त्व जाणे, तेह योगी बुध रे चरम अंग त्रिभाग ऊनो, शांत अध्युत सिद्ध रे. घ्यावो० ३ नीरोग निज गुणयोग निरमल, कसे जगतने सीस रे निकलंक जगगुरु शुद्धज्ञानी, लसु आकृती क्रिम दीसरे. ध्यावो०४ अमूरतीक नभसमो चेतन, जामु असंष परदेश रे, सर्व अनुपमगुणे लक्षित, नही बहनो केश हे. ध्यावो० ५ आत्मगुण अभ्यासथी इस, थाव प्रभु प्रत्यक्ष सर्वदर्शी सिद्ध भवविशु, निरंजन जगवाक्ष रे. ध्यावो० ६ नित्य चिन्मयमूर्चि मलविणु, एक परम अखेद रे ध्यान ध्याता ध्येय केरो, नहीं जीणसे भेद रे. ध्यावो० ७ अविकार निक्कल थिरसभावी, लोकालोकप्रकाश रे ज्ञान ज्ञाता साध्य साधक, एकरूप उलास रे. ध्यावो० ८
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न्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ध्यावो० १०
गतरागद्वेष अलेषज्ञायक, सिद्ध जग जगनाथ रे; अविकार वीतप्रपंच आतम, अज्ञानताप्रमाथ रे. व्यावो० ९ श्रीराजसागर प्रसिद्ध चिन्मय, नित्य ज्ञाननिधान रे; परम ज्ञान धरम उज्जल, राजहंससमान रे. देवचंद्र सुखी सदाई, अक्षरत्रय गुणयोग रे; चढ्या ज्ञानानंद सिंधुर, लषे लोग अलोग रे. ध्यावो० ११ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे ढालभाषाबंधे पं० देवचंद्रविरचिते पंचमः षंडः ॥ ५ ॥
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दूहा.
उपशम घरी हरी दोष सहू, आदरि आत्मस्वभाव; कर्मकोटि दुषने कटे,
राग द्वेष हणि थीर करे, मुनि आत्मपरिणामः अनुप्रेक्षा फल धारिने, कहूं तास गुणग्राम. दीप हणे जिम तम भणी, तिम मुनि दाहे कर्म मुनि मन चंचलता रहे, रागद्वेषने भर्म. प्रथम संघयणी दृढ, बली, शुक्लव्याननै योग; छेद्यो भेद्यो पिण जिको, न लहै कंप न सोग. न सुणे देषे न न कहै, मूर्तिलेपसम तेह; निस्संगी निश्चल यति, शुक्लध्याननी गेह. बहिरंतर समवायविणु, न सधै ध्यानसमाधि; जडपर तनममता तंजी, शुद्धतम आराधि.
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१
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ढाल - रामे सीता खबर करी. एहनी ॥ बहिरात ममता तजी प्राणी, अंतर आतम रूप जी; मन थिरता करी ध्यान ध्येय विधि, शुद्धात्मनो भूप जी.
गुण गावो० १
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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जिम शुद्धतमपद ध्यावो रे, जिम निरमल शिवपद पावो रे ॥ ए आंकणी ०
गुण असंष इक समय वधारे, कर्म असंष गमाय जी; उपशम श्रेणे उपशम पामे, क्षय कीना क्षय जाय जी. गुण गा० ३ धर्मध्यान थिति अंतर महूरत, मिश्रभाव शुक् लेश जी; धरी विवेक उपशम घर ध्यानी, परमातम सुख देश जी. गुण गा० ४ ध्यान विषे जो छोडे भव्य तनु, पामे ते सुरलोक जी; सर्वारथसिद्ध व वेके, पामे सुख अशोक जी. गुण गा० ५ सुमनस मालसहित वलिलांछन, शशीसम निर्मलवाय जी; वीरजबंध सहित कामच्युत, भोगवे सुरसुख पाय जी. गुण गा० ६ ग्रैवेयक अनुत्तरवासि सुर, अति उदार सुख सोध जी; वथती पुण्यपरंपर नित नित, ज्युं वारिधि शशि बोध जी. गुण गा० ७ सुरमुखथी असंख्यातगुणो छे, कल्पातीतने थान जी; काल न जाणे भवनो जातो, इंद्रीसुख अनुमान जी. गुण गा० ८ तिहांथी चवीने मानवभवमे, लहे उत्तम कुल जाति जी; तनु नीरोग सुभोग संयोगे, वधते सुख मन खंति जी. गुण गा० ९ भेदज्ञान वैराग्य प्रभावे, ते छोडे गृहवास जी;
निजरत्नत्रय सौख्य आराधे, मूकी दुष्ट परआस जी. गुण गा० १० संज्वलना चोकडी प्रभावे, न लहे श्रेणिनो ठाण जी; तीने समकित सत्तम गुण लगे, ध्यावे धर्म सुजाण जी. गुण गा० ११ रागादिक सह रोग विणासे, जीपे इंद्री चित्त जी; भवदुःख वारे ज्ञान सुधारे, मुक्तिस्त्रीनो मित्त जी. गुण गा०१२ मोह भंजी आतमगुण रंजी, निजपरभेदनो कार जी;
पोडी सम शिवमंदिर चढतां धर्मध्यान तिण धार जी. गुण गा०१३
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
दहा. विगकेंद्री अक्रिय छे, ध्यान धारणा हीन; ज्ञाता मुनि चउविधि धरे, शुकुज्ञान गुणपीन. त्रय चोकडी कषायनी, क्षय अथवा उपशांत; प्रथम दोय छद्मस्थने, केवलिने दोय अंत. पृथक्त्ववितर्क विचारयुत, प्रथम शुक्ल ते ध्यान; एक वितर्क विचार विणु, वीय शुक्ल शिव थान. शुद्ध नाम तीय शुकुरो, सूक्ष्मक्रिय प्रतिपातः शुद्ध साध्य शिवपद रमे, उछिने क्रिय बात. जेथ विचारे भिन्नता, ते सविचारवितर्क; निश्चय इक निज आतमा, जाण्या ए वितर्कव्यंजन व्यंजन अंतरे, अर्थातरमे अर्थः योगादिक योगांतरे, संक्रम करण समर्थ. शुद्ध द्रव्य गुणने स्मरे, ध्यानी विगतकषायः तीन योग दमि तीनी गुण, साधै पहिलै पाय. प्रथम शुक्ल परभावथी, मुनिवर विगत अपाय; केई कर्मने उपशमे, किणहीरा क्षय जाय. सात प्रकृतिने उपशमे, उपशम समकित थाय; चउत्थे छे अट्ठम थकी, उपशम श्रेणि चढाय. सत्तायै तितली रही, उदय उपशम मोह केइ पडे भवने क्षये, के अद्धा क्षय लोह. ढाल - सफल संसार अवतार ए हुं गिणं. एहनी ॥ ध्यान निज आतमा सिद्धसम ध्याईये, धोईये कर्ममल नित्य सुख पाईये; दर्शन मोह त्रय चोकडी प्रथमनी, एह शम उपशम्यां ज्योति
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उपसम्मनी. १
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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पछै बीय चोकडीबले तिय चोकडी, उपशम्यां प्रकृति इम ता
सुपरह झडी: २
पछै हास्यादि छ उपशमै तेहने, प्रथम द्वय वेदने तेह मुनिवर व, पछे उदयागत वेद तस उपशमैः उपशमै नवमगुण संज्वलत्रिक तिहां, दशम गुण
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हम पिण लोभ उपशमै जिहां. ३ चढे इग्यारमे थान निज ज्ञानथी, थाय उपशांत जिन शुक्लनिज ध्यानथी, चरण अहक्खाय गुण पाय वसि कलनै, के मरे के पडे मोहने झाल. ४ जै मेरे ते टिकै आय समकितगुणे, एग अवतार सव्व सिद्धे धुणे, जे पडे ते टिके सग छग पंचमे, कोय चउथे निये होइ पहिले रमे. ५ भाव पंचे हवे शुक्ल पहिलो स्मरे, च्यारस सहु कालने इकभवे दो करे; सर्वश्रुतिजाण मुनि शांत मुनि सेवरी, ध्यान ध्यावे तिको आत्मगुण आदरी. ६ ध्यान सवितर्कथी जीप कषायने, ध्यान एकत्वसवितर्क गुण ध्यायने; चित्त निर्मल करी ध्यान सुपृथक्त्वथी, ध्यान एकत्व ध्यावे निज सच्चयी. शुक्ल बीय पाय ध्यावे अछे क्षायकी, निरमल केवलज्ञाननी जसु वकी; एक निज आतमा त्रिगुणनी एकता, व्यान ध्यातातणी एकता थिरता. ८ द्रव्य पर्याय एकत्वथी जे धेरै, निश्चल द्रव्य एकत्वथी जे धरे; शुक्ल एकत्वता ध्यान अभ्यासथी, पामे केवल कर्मना नाशथी. ९ श्रेणि आरोहिने क्षपक कोई मुनि, करे अपूरवपणे गुण कर्मनी; कोडि थिति घात करि महूरत थिति करे, छेदि अनंतर सभाग अंतिम वरे. १०
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ध्यानदीपिका चतुष्पदी.
चढे गुणश्रेणि असंख गुण नित वधे, कर्मदल विहचिने तास नासन धरे; दशम गुण लोभनो क्षय करी बारमे, गुण चढी कर्म घाति भणी ते मे. ११
तेरमे थानके केवलज्ञानने, दरसण चरण वीरज्ज अनंतने; पूर्व नवि लद्ध ते गुणचतुष्टय लही, देव सर्वज्ञ भगवान ते सुख मही. १२ जेहना नामयी कर्मबंधन गले, जन्ममरणादिविनु सिद्धसुखने मिले; अगम अगोचर ज्ञानसंपद धरे, शेष अघाति चोकर्म हिव क्षय करे. १३ मास छ शेष आयुष थकां जे लहे, केवल ते समुदघात निश्चय वहे; आयुथी वेदनीकर्म जो अधिक छे, तो समुदघातने आदरी शिव गछे. १४ चवदह राजनो दंड पहिले समे, बीय कपाटमंथाण तीजे समे; भुवन पूरे सह आत्मपरदेशथी, समे चोथे जगव्यापक आपथी. १५ कर्मचतुष्कने सम करी केवली, ते वली संहर आत्मप्रदेशावली; अनुक्रमे च्यारविधि योसमे संहरे, अड समयमांहि त्रय समय नवि आदरे. १६
दूहा. कोय करे को नवि करे, समुद्वात विधि एह ज्ञानी धर्म वदे इशो, स्यादवाद गुणगेह. द्रव्य क्षेत्र काल भावथी, निजरूपे सहि अस्ति; परादिक देवता, नास्ति सहित सदु वस्तु. एक्स दोउं अछे, अस्तिनास्ति तिण थाय; अक्तव्य चोथो तिणे, जे एकसमे न कहाय. अव्ययुत भंगवय, मेल्या भांगा सातः सूक्ष्मनिगोदयी सिद्ध लगि, सप्त भंग थिर घात.
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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द्रव्यार्थिकपर्यायथी, अस्तिनास्तिता जाण; नित्यानित्यादिकपणे, एक अनेक वखाण. जिम घटमे घटअस्तिता, लकुटनास्तिता जाण;
अस्ति जीवमे चेतना, भडता नास्ति वखाण. सिम द्रव्यमे द्रव्य गुण, पर्याये करि होय; अस्तिनास्तिता भंग सम, द्रव्य एकता जोय. द्रव्यार्थिक उत्सर्गमग, पर्याये अपवाद; ए गुणधारक आतमा, सिद्धरूप स्याद्वाद.
ढाल-जिनदेव तुं जयकारी. एहनी ॥ बीजी देशी-देहु देहु नणद हठीली. ए देशी ॥ निज जाणननय गुण जाणो, जिम आतमरूप पिछाणो रे निज० नैगमनय कारिज साही, संकल्पमात्रनो ग्राही रे. निज० १ कारिजनो अंश न साधे, सत्तागुणने आराधे रे, निज० कोइक जन माणो लेवा, चल्यो क्न काठ ग्रहेवा रे. निज० २ कोईक पूछे किहां जास्यो, प्रस्थलेवण तिण भास्यो रे निज० । सक्ष्मनिगोदी जीव ते, दाख्यो सिद्ध सदीव रे. निज० ३ तेरम चवदम गुणधारी, ते जिन दाख्या संसारी रे, निज० दाखी नैगमनय वाणी, सुणि संग्रहनय सहि नाणी रे. निज० ४ लक्षण असाधारण एको, अविरोधी परथी छेको रे; निज० सहु गुणनो संग्रह थाये, विण दाख्ये गुण पर्याये रे. निज० ५ घट दाख्यो धने भावे, घटजाति लिंग सहू आवे रे, निज० तिम जीव चेतनगुण जाण्यो, ज्ञानादि त्रिगुण सह ठाणे रे. निज०६ द्रव्य कह्या छहकेरा, आवे गुण पर्याय भेरा रे; निज० संग्रहनय लक्षण एह, विवहार मुणो गुणगेह रे. निज० ७
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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संग्रहनय दाख्यो भावे, ते विहवे करि विधि दावे रे; निज० विहचे गुण पर्याय भेदा, ज्यां लगि अविभागी छेदा रे. निज० ८ घट दाख्ये घटनी जाति, आवे सहु न पडे प्रांति रे; निज० संग्रहनय भेद कहावे, चेतन जड भेद न पावे रे. निज० ९ पण जड एक चेतनवंत, संसारी सिद्ध महंतो रे, निज० दरसण नाण चरित्र, इकना त्रय नाम पवित्रो रे. निज० १० इत्यादिक विभजनकारि, नय व्यवहार विचारी रे निज. ऋजुसूत्रे ऋजुमग साहे, गतागत काल न चाहे रे. निज० ११ विद्यमान कालनी साखे, संसारी अरु शिव आखे रे; निज० दाखी ऋजुसूत्रनी वाणी, हिव सांभल शब्द कहाणी रे. निज० १२ लिंग संख्यादिक व्यभिचारो, न फरे जिहां अर्थ विचारो रे निज० घट अक्षर दोय भासे, तब नीर आधार प्रकाशे रे. निज० १३ जिहां चेतन शब्द कहावे, तिहां ज्ञानादिक गुण आवे रे; निज० निशहु संज्ञाशब्दे लहीये, हिव सममिरूढनय कहीये रे. निज० १४ नाना शब्दे इक अर्थे, आरोहे नांही अनर्थे रे, निज० इंद्र शक सुरईश, ए नाम भेदे कईसो रे. निज० १५ अथवा जे गुण छे जिणरा, तेहिज दाखे ते तिणरा रे; निज० रूपी चेतन नभ नाही, नही जडता चेतनमांही रे. निज० १६ आतमना नाम अनेक, तो पिण भावार्थे एक रे; निज० सममिरूढने गिणीये, हिवे एवंभूतनय भणीये रे. निज० १७ निज कारण पूरण साधे, यथार्थपणे आराधे रे; निज० जल भरीयो नारीसीस, तेहीज घटरूप जगीस रे. निज० १८ अष्टानंतक धर बुधे, शिववासी कहीये सिद्धो रे, निज० सिद्धगमन लो काल, तेम गिणे सिद्ध विचालो रे. निज० १९
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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एवंभूतक नय लीधो, पूरव पटनयसुं सिद्धो रे; निज० इक इकना सत सत भेद, जाणे ज्ञानी गतखेदो रे. निज० २० सूक्ष्म उत्तरोत्तर छ, तिमहीज कारण; कारज छे रे; निज० साते नय इक सदहीये, तदि सम्यग्ज्ञानी कहीये रे. निज० २१ इक इक भंगे सग नय छे, नयविष्णु भंगा शिवमै छ रे; निज० अक्षरत्रय गुण जब व्यावे, तब देवचंद्रपद पावे रे. निज० २२
दहा. इक प्रत्यक्ष परोक्ष बन, छे प्रमाण द्वे रूप; मति श्रुत ज्ञान परोक्ष, केवल परतिष भूप. मनःपर्य अरु अवधिगण, देसत परतष जाण; अनुमानादिक भेद सहु, जाणि परोक्ष प्रमाण. क्षीणमोह गुणठाणा लगि, सम्यग्ज्ञानी जीव छउमत्थ चोनाणी भणी, ज्ञान परोक्ष सदीव. निक्षेपा चोविध कह्या, नाम थापना दर्वः
भावनिक्षेपो मुख्य छे, अंशे साचो सर्व. निर्गुण गुणयुत वस्तुनी, संज्ञा करवी जाय; नामनिक्षेपो जेमको, नामे केवल थाय. थापीजे ते थापना, जैनबिंब जिनरूप; द्रव्यनिक्षेपो बाह्यरत, द्रव्यलिंगनो भूप. गुण यथार्थधारी प्रवर, मुख्यादेय सदीव; भावनिक्षेपो ते कयो, जे चेतनलक्षण जीव. नय प्रमाण निक्षेप विधि, नही सिद्धमे एहः द्रव्यार्थिक पर्याययुत, सिद्ध शुद्ध गुणगेह,
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ढाल - वधावानी अयोध्या हे राम पधारिया. एहनी ॥ परमातम निज घर आवीया, वलि पाम्या हे ज्ञानादिक गुणहेम; कायजोग बादर दमी, वलि रुंधे हे सूक्ष्मवचने तेम. परमा० १ काययोग सूक्ष्म दमी, वलि रुंधे हो बादरमननी हो चालि; सूक्ष्मकिरीया ध्यान जे, ते ध्यावे हो आत्मनिहालि परमा० २ प्रकृति बहुतर कर्मनी, तिहां क्षय करि हो शैलेशीनो काज; समुच्छिन्नक्रिय ध्यानने, ते व्याये हो निरमल शिवसाज. परमा० ३ तेरे प्रकृति खपाविने, शिव पावे हो सहू कर्म खपाय; निरमल शांत निरामयी, निरंजन हो शिव विगतअपाय. परमा० ४ काल वरण पण तेर हे, चवदम गुण हे तजी होय ते सिद्ध; अष्टानंतक गुणधणी, जगनायक हो वलि परम विशुद्ध परमा० ५ उरगति बललोकने, शिखरे ते हो जई वसेय उल्लास; धरम द्रव्यनय अलोकमे, तिण कारण हो तेहनो तिहां वास. परमा० ६ लोकाकाश शिखरे रह्यो, ते देखे हो सह लोक अलोक; ते सुखनीय नवि को लखे, अतिइंद्री हो परमातम सुखओक. परमा ०७ इंद्रिय सुख त्रयकालना, जिण आगे हो अंश अनंतः द्रव्यार्थिक पर्यायने, जाणे ते हो सहु द्रव्य महंत परमा० ८ दोष अढारह विणु सदा, निरंजन हो नित्यानंदनो मूप; परमेष्ठी परज्योति छे, ते जाणे हो त्रयलोकनो रूप परमा० ९ निज स्वभाव गुण देखतो, ते देखे हो सचराचर विश्व; गुण अनंत धारक प्रभु, निकलंकी हो नही दीरव हस्व. परमा० १० पुरख जे नवि अनुभव्या, तेहिज सुख हो लहे सिद्ध जिनेश; जाणे केवल ज्ञानथी, वचने करि हो न कही शके लेश. परमा० ११ परतिख लोकशिरोमणि, निरद्वंद्वी हो निजसह जसवाद; निरूपम थिर अविच्छेदतो, ते विलसे हो सुखसंग अनादि. परमा० १२
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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दरसण ज्ञान चारित्र वली, सुख वीरज हो जसु प्रगट अनंता भवतमध्वंसा भानुज्युं, सिद्धांतमे हो अतिमहिमा महंत. परमा०१३ ज्ञान सुधारससम सजे, अविकारी हो परमानंदनो धाम; देवचंद्र सुखसागरू, अक्षरत्रय हो गुण निजराम. परमा० १४
दृहा. श्रीजिनशासन अगमगुण, शिवसुखनो दातार; स्यादवाद परिणाम धरि, आतमदर्शक सार. मिथ्यातमभर भांजिवा, रविसम जिनमत एहः सिफ शुफ परमात्मरस, धारक निजगुणगेह. सूक्ष्म निगोदी सिद्धिथिति, बहु द्रव्य पर्याय; एकता व्ययउत्पादनी, इण विण बीय न कहाय. नामजैन जन बहुत छे, तिणथी सिद्ध न काय; सम्यग्ज्ञानी शुद्धमति, भावजैन शिवराय. सिद्ध साधिवा समकिती, आराधे निज ध्यान; तेह वखाण्यो जैनमे, अगम अपार प्रधान. सोकिरे इक आखरे, में वरण्यो छे एहः सुधासम झिलेज्यो तुरत, ग्रंथ तणो गुण लेह. पूरणध्यानतणी कथा, जाणे जिनवर देव,
निश्चय शिवसाधक गिणी, धरज्यो ते नितमेव... ढाल-राग धन्याश्री. इणपरि भाव भगत मन आणी. एहनी देशी॥ ध्यानकथामे एह वखाणी, आतमरूप पिछाणी जी; पूरवसूत्रतणी सहि नाणी, जिम दीठि तिम आणी जी. ध्यानक. १ पंडितजन मनसागर ठाणी, पूरणचंद्र समान जी; सुभचंद्राचारिजनी वाणी, ज्ञानीजन मन भाणी जी. ध्यानक० २
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
भविक जीव हितकरणी धरणी, पूर्वाचारिज वरणी जी; ग्रंथ ज्ञानार्णव मोहक तरणी, भवसमुद्र जलतरणी जी.ध्यानक० ३ संस्कृतवाणी पंडित जाणे, सरव जीव सुखदाणी जी; ज्ञाताजनने हितकर जाणी, भाषारूप वखाणी जी. ध्यानक० ४ ढाल अठावन षड अधिकारू, शुद्धातमगुण धारू जी; आखे अनुपम शिवसुखवारू, पंडितजन उरहारू जी.ध्यानक० ५ संवत लेश्या रसने वारो १७६६, ज्ञेयपदार्थ विचारो जी; अनुपम परमातमपद धारो, माधवमास उदारो जी. ध्यानक० ६ कृष्णपक्ष तेरस रविवासर, ए अधिकार प्रकास्यो जी; भणतांगुणतांसुणतां सुखकर,ज्ञानगेहमे आस्यो जी. ध्यानक. ७ खरतर आचारिज गच्छधारी, जिणचंदसूरि जयकारी जी; तसु आदेश लही सुखकारी, श्रीमुलतानमझार जी. ध्यानक० ८
अध्यातम श्रद्धाना धारी, जिहां वसे नरनार जी; • परमिथ्यामतना परिहारी, स्वपरविवेचनकारी जी. ध्यानक० ९ निजगुणचरचा तिहांथी करतां, मन अनुभवमे वरतां जी; स्यादवाद निजगुण अनुसरतां, नित अधिको सुख धरतां जी.१० भणसालि मिठूमल ज्ञाता, आतमसूरज ध्याता जी; तसु आग्रह करी चउपई जोडी, सुणतां सुखनी कोडी जी.
ध्यानक० ११ निज शुद्धातम ध्यानने ध्यावो, युगप्रधान गुण गावो जी; श्रीजिनचंद सूरनो दावो, महूरतमाहे पावो जी. ध्यानक० १२ निजगुणपाठक पुण्यप्रधाना, सुमतिसागर गुणथाना जी; आतम साधुरंग वरवाना, वाचक शुभ ग्रंथाना जी. ध्यानक० १३ जयवंता पाठकगुणधारी, राजसार सुविचारी जी; निर्मलज्ञान धरम संभारी, वाचक सहु हितकारी जी, ध्यानक०१४
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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
राजहंस सहू गुरुसुपसावे, मुझ मन सुख नित पावे जी; एह सुग्रंथ रच्यो शुभ भावे, भणतां अतिसुख पावे जी. १५ अक्षरत्रय गुणचाह सुसंगे, निजमनतणे उमंगे जी; मित्र कुभकरणने संगे, देवचंद्र मनरंगे जी. ध्यानक० १६ ढालबंध ए ग्रंथसु कीधो, मानवभवफल लीधो जी; आशीर्वाद एह मे दीधो, ज्ञान लहो सहु सिद्धो जी. ध्यानक०१७ ध्यानदीपिका एहवो नामो, अस्थ अछे अभिरामो जी; रविशशिलगि थिरता ए पामो, देवचंद्र कहे आमोजी.ध्यानक. १८
इति श्रीज्ञानार्णवे दालभाषाबंधे पंडितदेवचंद्रमुनिविरचिते शुक्लध्याने स्याद्वादाधिकारवर्णनो नाम षष्ठमो खंडः संपूर्णः ॥
___ इति श्रीव्यानदीपिकाचतुष्पदी समाप्तेयं ॥ वंछित पूरण सुरतरू जेहा, विविध वरण जसू देहा रे चोवीसे जिनवर गुणेगेहा, थुणतां वाधे नेहा रे. वंछित० १ वासुपूज्य पद्मप्रभु राता, सुविधि चंदपभु धोला रे । मुनिसुव्रत नेमिसर काला, सोवनवरणे सोला रे. वंछित २ मल्लि पास प्रभु दोउं नीला, केई माणेक केई हीरा रे पंच वरणनी माला गुंथी, हियडे पहिरे दोला रे. वंछित० ३ मणी जडियाने केहवो भाणिक, ध्यान कुंदण विच थापे रे, हियडे पहिरे जडावनी चोकी, पहियाथी सुख आपे रे. वंछित० ४ भूत प्रेतनो रोग न व्यापे, राज चोर भय पीडा रे भावसहित भगवंत भजंता, शिवपुरना सुख नेडा रे वंछित० ५
इति श्रीचोवीसभगवानरंगस्तवन संपूर्ण. ॥
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अथ
श्रीमद्देवचन्द्रकृतः कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
मूलगाथासिरिवीरजिणं वंदिय, कम्मविवागं समासओवुच्छं। कीरइ जिएण हेउहिं, जेणं तो भण्णए कम्मं ॥१॥ अर्थ---प्रणिपत्य जगन्नाथं, वर्द्धमानं गिरांपतिम् ।
गणभृगौतमं पूज्य, देवेन्द्रसूरिमुत्तमम् ॥ १॥ राजसारं गुरुं नत्वा, ध्यात्वा वाग्देवतां वराम् ।
सुखाथै कर्मग्रंथस्य, टबार्थः क्रियते मया ॥२॥ श्री चोत्रीस अतिशय सहित वीरजिणं महावीर भगवंत प्रते वंदिय वांदीने-शासननायक महावीर छ तिणे कारणे महावीर स्वामी प्रतें वंदिय कहेतां वांदीने कम्म आठ कर्मनो विवागं विपाकफल समासओ संक्षे वुच्छं. कहुं छु जे कर्म ते किस्युं जे ते कहे छे-कीरइ कीजीये-प्रारंभी ये छे जिएण जीवें हेउहिं च्यार ४ हेतुऐं करीने ते हेतु कहे छेमिथ्यात्व १, अविरति २, कषाय ३, योग ४, करीने जेणे तओ तिको भण्णए कहीजे. कम्मं कहेतां कर्म.ए प्रथमगाथार्थ.॥१॥
ते कर्मना च्यार भेद छेपयइंठिईरसपएसौ तं चउहा मोयगस्स दिनैता। मूलपगइट्टउत्तरपगईअडवन्नसयभेअं ॥२॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ---प्रकृतिबंध-कर्मनो स्वभाव १, स्थितिबंध कालनो मान २, रसबंध-चीकणाइ ३, प्रदेशबंध-दलनो मान ४, तं तिको कर्म च्यार भेदें छे. मोदकने दृष्टांते छे-जिम मोदक कोयक वायने हरे, कोयक पुष्ट करे, तिम कर्म पण ज्ञानावरणी ज्ञानने हरे, दर्शनावरणी दर्शनने हरे, इत्यादिक. स्थिति लाडूनी जेम दश दिन प्रमुख तिम कर्मनी स्थिति त्रीस कोडाकोडी आदि. रस लाडू मेथी प्रमुखमां मीठो कडवो कल्पाय छे तिम एकठाणीयो प्रमुख. प्रदेश दलमान एवं तिहां प्रथम प्रकृतिबंध कहे छे. मूलप्रकृति आठ छे-कर्म आठ छे अने उत्तर प्रकृतिआठ कर्मना उत्तरभेद १५८ एकसो अठ्ठावन छे, आप आपणो कर्मस्वभाव छे. ॥२॥ ___ हवे इहां आठ कर्मनां नाम कहे छे-- इह नाणदसणावरणवेयमोहाउनामंगोयाँणि। विग्धं च पणनवदुअहवीसचउतिसयदुपणविहं ॥३॥
अर्थ-प्रथमज्ञानावरणीय कर्म कहीए १. बीजो दर्शनावरणीय कर्म २, अमे वेय त्रीजो वेदनीयकर्म ३. मोह चोथो मोहनीयकर्म आऊ पांचमो आउखा कर्म. नाम छट्टो नामकर्म. गोयाणि सातमो गोत्रकर्म-ज्ञानावरणीयकर्म ज्ञानगुणने आवरे, दर्शनावरणीय दर्शनगुणने आवरे, वेदनीयकर्म अव्याबाध अनंतमुख गुणने रोके. मोहनीय कर्म सम्यक्त्व अने चारित्रगुणने रोके, आउखा कर्म अनवगाह गुणने रोके-(अक्षयस्थिति गुणने रोके) गोत्र कर्ग अगुरुलघुगुणने रोके. आठमो अंतराय कर्म वीर्य गुणने रोके. ए आठ नाम कया. हवे एहनी उत्तरप्रकृतिनो १५८ नो थडो को ते कहे छे-ज्ञानावरणीयनी पांच प्रकृति, दर्शनावर
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
५८३
णीयनी प्रकृति नव ९, वेदनीय कर्मनी बे प्रकृति २, मोहनीय कर्मनी अठ्ठावीस प्रकृति २८, आउखा कर्मनी ४ च्यार प्रकृति, नामकर्मनी एकसो त्रण १०३ प्रकृति, गोत्रकर्मनी बे प्रकृति २, अंतरायकर्मनी पांच प्रकृति ५. एवं सर्वप्रकृति १५८ एकसो अठावन छे. ॥३॥ मईसुर्यओहीमणकेवलाणि नाणाणि तत्थ मइनाणं। वंजणवग्गहँ चउहा मणनयणविणिंदियचउक्का ॥४॥ ____ अर्थ--हवे प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म तेहना भेद केहेवा ते ज्ञानावरणीय ज्ञानने रोके. तिणे प्रथम ज्ञानना भेद मंगलिक रूप वखाणे छे. ज्ञानना भेद पांच छे, मइ-मतिज्ञान, सुअ-श्रुतज्ञान, ओही-अवधिज्ञान, मण. मनःपर्यवज्ञान केवलाणि-केवलज्ञान. नाण णि ए पांच ज्ञान जाणीये. वस्तुस्वरूप जाण्याथी ते ज्ञान क.जे. हवे तिहां मतिज्ञानना भेद २८ कहे छे. मननी विचारणारूप ज्ञान ते मतिज्ञान कहीजे. (इंद्रियोनी अपेक्षापूर्वक ) व्यंजनावग्रह जे इंद्रियोना विषय मिळ्यां थकां जे अव्यक्त उपयोग असंख्यसमयात्मक ते व्यंजनावग्रह कहीजे तेहना भेद ४ छे. मन नयन कहीतां आंख्य मन विना च्यार इंद्रियने व्यंजनावग्रह छे. जे कारणथी मन, आंख्य अप्राप्यकारी छे. अने च्यार इंद्रियने प्राप्यकारी छे. स्पर्शेद्रियव्यंजनावग्रह १ रसनेंद्रियव्यंजनावग्रह २ घ्राणेंद्रियव्यंजनावग्रह ३ श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह. ४ ॥४॥ अत्युग्गहेईहोवार्यधारणा करणंमाणसेहि छहा। इय अटठवीसभेयं चउदसहाँ वीसही व सुयं ॥५॥
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कम्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ-अत्थुग्गह-अर्थावग्रह-किंचित् ज्ञान ते अर्थावग्रह, तेहना भेद छ छे. इहा-विचारणा, तेहना भेद ६ छे अवाय-इहितज्ञाननो निश्चय ते अपायना भेद ६ छे. अविस्मरण ज्ञान ते धारणा, तेहना भेद ६ छे (पांच इंद्रि मन करी एक एकना छ भेद छे.) स्पर्शनेंद्रिय अर्थावग्रह १ रसनेंद्रिय अर्थावग्रह २ घ्राणेंद्रिय अर्थावग्रह ३ चक्षुरिंद्रिय अर्थावग्रह ४ श्रोत्रंद्रिय अर्थावग्रह ५ मन अर्थावग्रह ६. स्पर्शनइहा १ रसनइहा २ घ्राणइहा ३ चक्षुइहा ४ श्रोत्रइहा ५ मनइहा ६. स्पर्शनअवाय १ रसनअवाय ३ चक्षुअवाय ४ श्रोत्रअवाय ५ मन अवाय ६. स्पर्शनधारणा १ रसनधारणा २ घ्राणधारणा ३ चक्षुधारणा ४ ओवधारणा ५ मनधारणा ६. ( एम ए सर्व मळी २८ भेद मतिज्ञानना जाणवा.)
हवे श्रुतज्ञानना भेद कहे छे-चउदसहा १४ भेदे छेश्रवणेंद्रिय अने श्रुतज्ञानस्युं थाय ते श्रुतज्ञान कहीजे. वीमहा वळी वीस भेद पण छे. ॥५॥
तेमां पेहेला १४ भेद कहे छे. अक्खरै सन्नी सम्म साइयं खलु सपजवसिय च। गमियं अंगपविलृ सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥६॥
अर्थ-अक्षरश्रुत-अक्षर बावने करी अवबोध ते १. अक्षर विना ज्ञान थाय. अंकादिक थकीज ते अक्षरश्रुत. २. संज्ञीपं. चंद्रीने जे श्रुत ते संज्ञीश्रुत ३ हवे असंज्ञीनुं श्रुत ते असंज्ञीश्रुत ४ समकितीनुश्रुत ते सम्यग्श्रुत ५ मिथ्यात्वीनं श्रुत ते मिथ्यात्वीश्रुत ६ सूत्रे करीगणधर नवां रचे लिणे सादीश्रुत ७ महाविदेहमां वर्ततुं श्रुतज्ञान ते अनादिश्रुत ८ तिमज सूत्रं करी तीर्थविच्छेद
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कम्मग्रन्थस्य वार्थः
५८५
भरते औरखतमे विनाश छे तिणे सपर्यवसितश्रुत ९ अर्थ करी महाविदेहक्षेत्र सूत्रे पण विच्छेद नहीं तिणे अपर्यवसित श्रुते छे १० गमियं सरखा पाठ नवें करी ते गमिकश्रुत कहीये ११ अने सामान्यपाठ ते अगमित कहीई अगमी ते बार श्रुत कहीये १२ द्वादशांगी सिद्धांत ते ए मूळअंग तेमाही जे अर्थ ते अंगप्रविष्टश्रुत १३ अने द्वादशांगी विना आवश्यकादि अनंग प्रविष्टश्रुत १४ सात मूलभेद सूत्रमांहि कला अने सात तेना प्रतिपक्षीभेद एम १४ थया. ॥ ६ ॥ पज्जर्यअक्खर्रपयँसंघायां पडिवत्ति तह य अणुओंगों । पाहुडँपाहुडपाहुड वथुपुत्रीं य ससमासीं ॥ ७ ॥
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"
अर्थ - पर्यायश्रुत ते सुक्ष्मलब्धी अप निगोदने भव प्रथम समयथी बीजे समये वृद्धि पामतुं श्रुत ते पर्यायश्रुत १ अनेक पर्याय जाणे ते पर्याय समासश्रुत कहीये.. २ अक्षरना ३ मेद - संज्ञाक्षर १ लब्ध्याक्षर २ व्यंजनाक्षर ३
सर्व अक्षरभेद जाणे विरोप ते एक जाणे
जाणे ते पद समास
एमांहि एकभेद जाणे ते अक्षरश्रुत ३ ते अक्षर समासश्रुत ४ पद अधिकार ते पदश्रुत कहीये ५ सर्व अनेकपद श्रुत कहीये ६ मार्गणा एक जाणे ते संघातश्रुत कहीये. ७ सर्व मार्गणा जाणे ते संघात समासश्रुत ८ बासठ मार्गणाए करी योगादि एकबोल जाणे ते पडिवत्तीश्रुत कहीये. ९ हवे बासठ मार्गणाए योगादि सर्व बोल जाणे ते पडिवत्तिसमासश्रुत कहीये. १० उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय, ए चार अनुयोगमांहि तथा संतपदादी नव योगमांहे एक अनुयोग जाणे ते अनुयोग श्रुत कहीये ११ सर्व अनुयोग जाणे ते अनुयोग
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
-~-.......................... ..... समास श्रुत कहीये. १२ पूर्वने विषे पाहुड-अधिकार विशेष ते एक जाणे ते पाहुड श्रुत १३ घणा जाणे ते पाहुड समास श्रुत कहीये १४ पाहुड पाहुड पण अधिकार विशेष तेहना मेद पण इम बे जाणवा १६ वस्तुश्रुत १७ वस्तुसमास श्रुत १८ पूर्वश्रुत १९ पूर्व समास श्रुत २० ए सर्व अधिकार विशेष छे ए वीस भेद छे । इंम बीजा क्षिप्रादिक अनेक भेद छे ते नंदीथी जाणजो. इहां न कह्या छे संक्षेपार्थ माटे. दश नाम सूत्रमें कह्या अने तेहिज दस समासपद जोड्यां वीस थयां ॥७॥ अणुगामि वड्ढमाणयपडिवाईयरविहा छहाँ ओही। रिउमई विउलमई मणनाणं केवलमिगविहाणं ॥८॥
अर्थ-हवे अवधिज्ञानना भेद कहे छे-जिहां उपनो विहांयी पछी सर्व साथे चाले ते अनुगामी अवधि १ अने जे उपना पछी वधतो होय ते वर्षमान अवधि कहीजे २ जे उपना पछी जाय ते पडिवाई अवधि कहीजे ३ वण भेद इतर प्रतिपक्षी लेवा. साथे न चाले ते अननुगामी अवधि कहीये ४ घटतो जाय ते हीयमान अवधि कहीये ५ जे उपना पछी जाय नहीं ते अप्रतिपाति अवधि कहीये. ६ एवं ६ छ भेद अवधिना जाणवा. यद्यपि अवधिज्ञानना भेद असंख्याता छे; परं इहां मोटा भेद लीधा छे.
मनःपर्यवज्ञानना भेद बे ते मननी वर्गणा जाणे ते मनः पर्यवज्ञान जाणवो. जे अढी अंगुल उणी अढाई द्वीप मास निरधारना मनोगतभाव जाणे. सामान्यपणे चरमशरीरीनो
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कर्म्मग्रन्थस्य date:
५८७
नियम नही ते ऋजुमति मनः पर्यव. १ अने संपूर्ण अढाइ द्वीप ना मनोगतभाव जाणे विशेषपणे तद्भव मोक्षगामीने विपुंलमति मनः पर्यवज्ञान २ ए बे भेद मनः पर्यवज्ञानना जाणवा यद्यपि मननी वात अवधिज्ञानी पण जाणे पण सूक्ष्म मननी वात मनः पर्यवज्ञानी जाणे.
अने केवल - असहाई निरावरण सर्व जाणे ते केवलज्ञान त्रिणकाल त्रिलोक छए द्रव्यना गुण पर्याय जाणे ते केवलज्ञान. ए ज्ञानना पांच भेद का सिद्धान्तमां ॥ ८ ॥
एसिं जं आवरणं, पडुब चक्खुस्स तं तयावरणं । दंसणचंड पण निद्दों वित्तिसमं दंसणावरणं ॥ ९ ॥
अर्थ -- ए पांच ज्ञानने आवरे ढांके ते ज्ञानावरणीय कर्म. आंख्यने जेम पाटो तिम तेहनो आवरण कहीजे. मतिज्ञानने आवरे ते मतिज्ञानावरणीय कर्म १ श्रुतज्ञानने आवरे ते श्रुत ज्ञानावरणीय २ अवधिज्ञानने आवरे ते अवधिज्ञानावरणीय कर्म ३ मनः पर्यवज्ञानने आवरे ते मनः पर्यवज्ञानावरणीय कहीये ४ केवलज्ञान आवरे ते केवलज्ञानावरणीय कहीजे. ५ एवं पांच भेद एले ज्ञानावरणीय कर्मना भेद कह्या.
हवे दर्शनावरणीय कर्मना भेद कहे छे तेमां दर्शनावरणीय च्यार भेदे छे अने पांच प्रकारनी निद्रा एवं नव ९ भेद छे. वित्ति - छडीदार समान दर्शनावरणीय कर्म जाणो ||९||
चक्बुदिट्ठिअचख्खूसेसिंदियंओहिंकेवलेहिं च ।
साह सामन्नं तस्सावरणं तयं चउहा ॥ १०॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थ
___अर्थ-चक्षुदर्शन दृष्टि जे आंख्यथी सामान्य उपयोग १ अचक्षुदर्शन में स्पर्शनं, रसन, घ्राण, श्रोत्ररूप च्यार इंद्रियनो जे सामान्य उपयोग ते अचक्षुदर्शन कहीये २ अवधिज्ञानीने सामान्य उपयोग ते अवधिदर्शन कहीये ३ केवलज्ञानाने जे सत्ताग्राहक सामान्योपयोग ते केवलदर्शन कहीये ४ इहां मनःपर्यवज्ञानने दर्शन न कथो ते इण कारण दर्शन इहां सामान्यनो उपयोग अने मनःपर्यवज्ञान ते विशेष उपयोगे ज छे तिणे दर्शन नको ते च्यार दर्शनने आवरे ते च्यार भेदे छे, चक्षुदर्शना वरणी १ अचक्षुदर्शनावरणी २ अवधिदर्शनावरणी ३ केवलदर्शनावरणी ४ ए. च्यार भेद छे. ॥१०॥ सुहपडिबोहा निही निहानिदों य दुक्खपडिबोहा । पयला ठिओवक्ट्ठिस्स पयलपयला उचंकमओ॥११॥ ___ अर्थ-हवे निद्राना पांच भेद छे ते कहे छे सुखे थोडे खरुके जागे पण तरत जागे ते निद्रा कहीजे १ दुःखे घणे साद करे अत्यंत पोकार करे कुकुआ करे जागे ते निद्रानिद्रा कहीये २ अने बेटा उभा निंद आवे ते प्रचला त्रीजी कहीजे ३ चालतां उधे घोडानी पेरे ते प्रचलाप्रचला कहीजे. ४ घोडो जेम बाजरी खाते कांकरो आवे त्यारे जागे तिम ते काम पडे जागे. ॥ ११ ॥ दिणचिंतियत्थकरणी थीणद्धी अद्धचकिअद्धबला। महुलित्तखग्गधारालिहणं व दुहाँ उ वेयणियं ॥१२॥ .. अर्थ-~अने दिननो चितव्यो काम रात्रे करे निद्रामा जेम
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
५८९
लघु चेले हाथीना दांत रात्रें काढ्या तिम दिनचिंती तेहने कहीजे ते यीणद्धी निद्रा पांचमी कहीजे एहनो बल अर्द्धचक्रवर्त्ति जे वासुदेव तिणथी आधोबल होवे निद्रामांही व्रत - वतां करे.
हवे वेदनीय कर्मनो स्वरूप कहे छे - मधु सहतथी लेपी खड्गनी धारा तेहनो जे चाटवो ते समान छे. जिम मीठास लागे ते सातावेदनी १ अने चाटतां कटाइ जे ते असातावेदनी २ दुहा: उ-दोइ भेदें वेदनीयकर्म छे. अव्याबाधगुणत्वं रोके छे वेदनीयकर्मनो स्वरूप छे. ॥ १२ ॥ ओसन्नं सुरमणुए सायमसायं तु तिरियनरएसु । मज्जं व मोहणीयं दुविहं दंसणचरणमोहा ॥ १३ ॥
अर्थ -- उसन्न - प्राये देवगतिने मनुष्यगतिमां सातावेदनीनो प्रबल उदय छे; अने तिर्यच नारकीने असाता प्रबल छे. इहां जिन भगवानना जन्म समये नारकीने पण साता थाय छे अने गजरत्न अश्वरत्न तिर्यचने पण साता छे पण ते कदा कालें थाय छे सदा नहीं तेणे न गणी.
हवे मोहनीय कर्मनो स्वरूप कहे छे-मदिरापान समान मोहनीयकर्म छे. जिम मदिरापान कीधां माणस गहेलो विव्हल थाय तिम मोहनीयकर्मथी पण जाणदो. ते मोहनीयकर्मना बे भेद छेएक दर्शनमोहनी जे दर्शन समकितगुणने मुंझावे ते दर्शनमोहनी १ अने चारित्रविरतिने मुंझावे ते चारित्रमोहनी कहीजे. १३ ॥ दंसणमोहं तिविहं सम्मं' मीसं तहेव मिच्छत्तं । सुद्धं अद्धविसुद्ध अविसुद्धं तं हवइ कमसो ॥ १४ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
Awrvinhemmannam
____ अर्थ-तिहां दर्शनमोहनीना त्रण भेद छे, त्रिणे गुण समकीतने रोके छे; यद्यपि समकितमोहनीना उदयथी क्षयोपशमसमकीत छे तोपण मिथ्यात्वनां शुद्ध दल वेदे छे (वेटिं छे) ते सम्यक्त्वमोहनी १ मिश्रमोहनी २ तेमज वळी मिथ्यात्व मोहनी त्रीजी कही. इहां ग्रंथिभेद करतां प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण थाय. सात कर्मनी स्थिति एक कोडाकोडी बाकी रहे सारे. बीजो पूर्वकरण एक अंतर्मुहूर्त प्रमाण करे. बीजो अनिवृत्तिकरण करीने सम्यक्त्व फरसे इहां मिथ्यात्वने चरम समये त्रीण पुंज करे एक शुद्ध पुंज बीजो अविशुद्ध पुंज बीजो अशुश्याम पुंज ए स्थितिना त्रण पुंज करे शुद्ध पुंजनो दल वेदे ते सम्यक्त्व मोहनी १ अर्द्धविशुद्ध पुंज वेदे ते मिश्रमोहनी. २ अशुद्धश्याम दलने वेदे ते मिथ्यात्वमोहनी. ॥१४॥ जियअजियपुनपावासवेसंवरबंधमुक्खनिजरणां। जेणं सदहइ तयं सम्म खइगाइबहुभेयं ॥१५॥ ___अर्थ-जीवतत्स्व चेतनालक्षण स्वरूपमय १. अजीवतत्व चेतना रहित शुष्क काष्टादि २. पुन्न-पुण्य शुभ कर्म ३. पावपाप अशुभ कर्म ४ आश्व कर्मआवरणनो हेतु ५. संवर नवां कर्म आवतां रोजे ६. बंध-जीव प्रदेश कर्म एकतारूप. ७. सकल कर्म क्षय पापे ते मोक्षतत्त्व कहीये ८. पूर्वकृतकर्मनी निजेरा ते निर्जरा उत्व कहीये ९. ए नवतत्व सूधा जाणे-निश्चये करी जाणे व्यवहारे करी प्रवते ते निश्चय सम्यक्त्व कहीजे ते समकीतना घणा भेद छे क्षायक १ क्षयोपशम २ उपसम ३. वेदकादि भेदें करी. ॥ १५ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अंतमुहु जहा अन्ने। नालियरदीवमणुणो मिच्छं जिणधम्मविवरीयं ॥१६॥
- अर्थ-मिश्रदृष्टिने राग नही द्वेष नही जिगधम्मे-जिन वीतरागना धर्मउपरें रागद्वेष नही ते मिश्रदृष्टि, अंतर्मुहूर्त एहनी स्थिति ज होय अन्ने जहा-जेम अन्न उपरे नालियेर द्वीपवासी मनुष्यने अन्न कदी आंखे नहीं दीठो तिणे तेहने अन्न उपरे राग नयी देष पण नथी इम मिश्रमोहनीवंतने जिनधर्म उपर रागदेष नयी. मिथ्यात्व जे ते जिनधर्मथी विपरीत जे अज्ञानमुद्रित थको जीव कुश्रधान जीवादि पदार्थ\ अरोचकबुद्धि ते मिथ्यात्व. ॥१६॥ सोलस कसाय नव नोकसायं दुविहं चरित्तमोहणियं। अणे अप्पचक्खाणों पञ्चक्खाणा ये संजलाँ॥१७॥ __ अर्थ-हवे चारित्रमोहनीना २५ भेद कहे छे-तिहां चारित्रमोहनीना दोय भेद छे. एक कषायमोहनी १ अने बीजी नोकषायमोहनी २ ते कषायमोहनीना १६. नोकषायमोहनीना ९ मेद छे. अ दोनु मोहनीना २५ पचवीस मेद छे. चारित्र गुणने रोके तिणे चारित्रमोहनी कहीजे. तिहां कषाय सोल १६ मेद छे अण अनंता-बंधीना ४ भेद-अनंतानुबंधी क्रोध १ अनंतानुबंधी मान २ अनंतानुबंधी माया ३ अनंतानुबंधी लोभ ४। अप्रत्याख्यान देशविरतिने रोके. तेहना ४ भेद-अप्रत्याख्यानी क्रोध १ अप्रत्याख्यानी मान २ अप्रत्याख्यानी माया ३ अप्रत्याख्यानी लोभ ४ । प्रत्याख्यान सर्वविरतिने रोके प्रत्याख्यान क्रोध १ प्रत्याख्यान मान २ प्रत्याख्यान माया ३ प्रत्याख्यान
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५९२
कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
लोभ ४ । संजलन ते यथाख्यात चारित्रने रोके -संजलनो क्रोध १ संजलनो मान २ संजलनी माया ३ संजलनो लोभ ४ ॥ १७ ॥ जाजीववरिसचउमासपक्खगा नरयतिरियनरअमरा । सम्माणुसव विरईअहक्खायचरितघायकरा ॥ १८ ॥ अर्थ - - हवं एहनो दृांत स्थिति कहे छे - कर्मस्थिति तो सोलकषायनी जवन्य अंतर्मुहूर्त्तनी, उत्कृष्ट ४० कोडाकोडी सागर छे. ए परिणामरूप स्थिति जाणवी. अनंतानुबंधीनी जावंजीव स्थिति अप्रत्याख्यानानी बरस १ स्थिति, प्रत्याख्याननी चउमास ४ मास स्थिति छे, संजलननी पक्ष १ स्थिति छे, अनंतानुबंधीने परिणामे मरे तो नरकगतिए जाय. १ अप्रत्याख्यानना परिगामे मरे तो तिर्यचगतिमांहे जाय. २ प्रत्याख्यानना परिणामे मरे तो मनुष्यगतिमांहे जाय ३ संजलनने परिणामे मरे तो देवगतिमांहे जाय. ४ अनंतानुबंधी समकीतने घात करे. १ अप्रत्याख्यान अणुव्रतनुं देशविरतिनो घात करें. २ प्रत्याख्यान सर्वविरतिनुं वात करे. साधुव्रतनुं वात करे आवण देवें नहीं ३ संजलन यथाख्यातचारित्रनुं घात करे एटले इंणि कषाय उदय थकां इतला गुण प्रगटे नहीं ||१८|| जलरेणुपुढविपवयराईसरिसो चविहो कोहो तिणिसलयाकट्ठट्ठिय | सेलत्थंभोवमो माणो ॥ १९ ॥
अर्थ -- संजलणो क्रोध जलरेखा समान छे. जिम जलमी रेखा तरत मिटे तिम संजलनो कोव तरत मिटे, प्रत्याख्याननो क्रोध रेणु - वेलूनी रेखा समान वाय प्रमुख लागे मिटे. तिम नमति खमति कीथां उतरे, अने अप्रत्याख्यानी क्रोध पुढवी
१२.
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कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः
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माटीची कणीनी रेखा समान छे, जे चीकणीमाटीनी रेखा मेह प्रमुख वूठे मीटे तिम घणे उपाये अप्रत्याख्यान क्रोध उतरे. अनंतानुबंधी क्रोध पर्वतरेखा समान छे. जिम पर्वतनी रेखा पडी पछी फरी मळे नहीं; तिम अनंतानुबंधी क्रोध जावजीव त्यांड मिटे नहीं ते अनंतानुबंधि ४. संजलनो मान नेतरनी छडी समान. जे तरत नमे, प्रत्याख्यान मान काष्ट लाकडी समान छे जे किणही कारणे नमे, अप्रत्याख्यानी मान अट्टी हाड समान छे-घणे जतन कीयां नमे तिम ते मानी पिण घणां जतन कीयां नमे. अनंतानुबंधी मान सेल पथ्थरना थांभा समान छे, जे किमही नमे नहीं; तिम अनंतानुबंधी मानवंत किमहि मान छोडे नही. ॥ १९ ॥
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मायावलेहिगोमुत्तिमिढसिंगघणवंसिमूलसमा । लोहो हलिद्दखंजणकद्दम किमिरागसारिच्छो ॥२०॥ अर्थ -- संजलनीमाया वलेही वांसनी छोल समान जे तरत वांक छोडे. प्रत्याख्यानी माया गोमूत्रिका समान जे किणही कारणे कपट छांडे, अप्रत्याख्यानी माया मिंढारा सिंग समान छे, किणही कारणे करी वांक छोडे, अनंतानुबंधी माया वंसमूल वांसनी जड समान छे, अति गूढ वक्र छे, बळ्यां पण ain छोड़े नहीं. एहवी माया अनंतानुबंधीनी संजलणो लोभ हलदरना रंग समान छे, जे लालचें थाय ते, तरत लालच छोडे, प्रत्याख्यानी लोभ खंजण - गाडीनी वांगण रंग समान छे जे जेने कीयां ते रंग उतरे. अप्रत्याख्यानीयो लोभ नगर कर्दमना
* समाणो ' इति पाठांतरम्..
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AMARuraniummam
५९४
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः रंग समान छे, अनंतानुबंधी लोभ किमिराग कृमजी-रंग समान छे, एटले सोले कषायना भेद कह्या ते सद्दहवा. ॥२०॥ जस्सुदया होइ जिए हास रई अरई सोगंभय कुच्छौं। सनिमित्तमन्नहा वा तं इह हासाइमोहणियं ॥२१॥
अर्थ-हवे हास्यादिक छ भेद कहे छे-जे कर्मप्रकृतिने उदयथी होवे जीवने हास्य घणो ते हास्यकर्म उदयथी. १ रतिहर्षकर्म. २ अरतिकर्म ते दिलगीरी. ३ सोग-मरणादिक करे, रुदनादि करे ते शोककर्म. ४ भयकर्म-डर घणो थाय. ५ कुच्छा -दुगंछा जे अशुभपुद्गलादिकशुं दुगंछा. ६ ए छए कार्य निमित्तकारण मिळ्यां पण उदय आवे किण हीन निमित्त विना पिण उदय आवे ते इहां हास्यादिक मोहनी कहीजे. हास्य १ रति २ अरति ३ सोग ४ भय ५ दुगंछा ६. ॥२१॥ पुरिसित्थितदुभयं पइ अहिलासो जबसा हवइ सो उ। थीनरैनपुंवेउदओ फुफुमतर्णनगरदाहसमो ॥२२॥
अर्थ--पुरुषनो अमिलाष थाय जेहने ते स्त्रीवेद कहीये १ अने जेने स्त्रीनो अभिलाष थाय ते पुरुषवेद कहीजे २ अने स्त्री पुरुष बिहुनोअमिलाप धरे ते नपुंसक वेद कहीजे. तिणे करी एटले स्त्रीने पुरुषस्युं बिहु साथे विषयनी चाह थाय अने पुरुषने स्त्रीसेव्यानी चाह थाय, स्त्री अने पुरुषसं विषयनी चाह घणी थाय, ए तीननो अमिलाप ते शायी थाय ? इम जे कर्मना उदययी थाय ते कर्म वेद कहीये. तिहां प्रथमस्त्रीवेद १, बीजो पुरुषवेद २, बीजो नपुंसकवेद ३, एहनी तृष्णा-ज्वाला एहवी छे के स्त्रीवेदनी अगनि फुफुम कोउनी दाह समान छे १ अने
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
पुरुषवेदनी अगनि तृणानी आग समान छे. जे दीसति झाळा दिसे पण टके थोडी; तिम पुरुषदाह तरत मिटे अने नपुंसकवेदनी अग्निदाह नगरदाह समान छे, जिम नगरनो दाह कदेइके बूझे नही; तिम नपुंसकवेदनी दाह कदी मिटे नहीं. एटले मोहनीयकर्मनी २८ प्रकृति कही. ॥२२॥ सुरेनरैतिरिनरयाऊँ हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं। बायालेतिनवईविहं, तिउत्तरसैयं च सत्तट्ठी ॥२३॥ ___अर्थ-हवे आउखाकर्मनी च्यार प्रकृति कहे छे-तिहां सुर देवतानो आउखो १ नर-मनुष्यनो आउखो २ तिर्यचनो आउखो ३ नरय-नरकनो आउखो ४ ए च्यार भेद छे. हडिसरिसं-खोडा समान छे, जिम खोडामां पग पड्या पछी काट्यो ज नीकळे तिम आउखो कर्म भोगव्यां छूटे,
हवे नामकर्मनो स्वरूप कहे छे-नामकर्म चीतारा समान छे-तेहना अनेकभेद अनेकप्रकारना छे ते जाणवा. हवे तिहां बेतालीस ४२ भेद पण छ, तिनवइ त्रयाणु ९३ भेद पिण छे. अने १०३ एकसोतीन भेद छे, वळी सडसठि ६७ भेद पण छे. ॥३॥ गईजाइत"उवंगा बंधणसंघायाणि संघयणां । संटाणवन्न गंधरसफासँअणुपुक्षिविहगगई ॥ २४ ॥
अर्थ--इवे प्रथम बेतालीस भेद कहे छे-गति १ जाति २ त-शरीरभेद ३ उपांगभेद ४ बंधनभेद ५ संवातनभेद ६ संश्यणभेद ७ संस्थानभेद ८ वर्णभेद ९ गंधभेद १० रसभेद ११ फरसभेद १२ अनुपूर्वीभेद १३ विहायोगतिभेद ते १४. २४
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VAAAAAAAAAN
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः पिंडपयडित्ति चउदसपरघोऊसासआयतुंजोयं । अगुरुलहुँतिर्थनिमिणोवघायमिर्यंअट्ठ पत्तेया॥२५॥
अर्थ-पिंडप्रकृति ए चौद छे. पिंड-जेहनी एक प्रकृतिना घणा भेद थाय ते पिंडप्रकृति कहीजे. ते चउदभेदे परा घातनामकर्म १ ऊसासनामकर्म २ आतापनामकर्म ३ उद्योतनामकर्म ४ अगुरुलघुनामकर्म ५ तीर्थकरनामकर्म ६ निर्माणनामकर्म ७ उपघातनामकर्म ८ ए आठप्रकृति प्रत्येक प्रकृति कहीजे. ए प्रकृतिनो उत्तरभेद कोइ थाय नहीं. ॥२५॥ तसंबायरपजतं पत्तेअथिरं सुभं च सुभगं च । सुसरीआइजजसं तसदसगं थावरदसंतु इमं ॥२६॥
अर्थ-वसनामकर्म १ बादरनामकर्म २ पर्याप्तनामकर्म ३ ३ प्रत्येकनामकर्म ४ स्थिरनामकर्म ५ शुभनामकर्म ६ सुभगनामकर्म ७ सुस्वरनामकर्म ८ आदेयनामकर्म ९ जसनामकर्म १० ए सदशक जाणवो. जाणणहारने हवे थावरदशक कहे छे बीजो. ॥२६॥ थावरसुहुमैअपंजं साहारणमथिरमसुभदुभगाणि । दूसर्रणाइजाजसमिय नामे सेयरा वीसं ॥ २७ ॥
अर्थ-प्रथम थावरनामकर्म १ सूक्ष्मनामकर्म वीजो २ अपर्याप्तनामकर्म त्रीजो ३ साधारणनामकर्म चोथो ४ अधिरनामकर्म पांचमो ५ अशुभनामकर्म छो ६ दुर्भगनामकर्म सातमो ७ दुःस्वरनामकर्म आठमो ८ अनादेयनामकर्म नवमो ९ अपजसनामकर्म दसमो १० ए थावरदशक कथु बीजु.
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कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
५९७
एटले सदशक थावरदसक मिळ्यां २० थयां हवे १४ पिंडप्रकृति ८ प्रत्येक २० सेयरा एसर्व मिळ्यो ४२ भेद प्रकृति थाय. एटले नामकर्मना ४२ बेतालीस भेद विवरीने कला छे. २७ ॥ ॥ तसचउँ थिरकं अथिरकं सुहमतिगंथावरंचउकं । सुभगतिगाईविभासा, तयाइसंखाहि पयडीहिं ॥२८॥
अर्थ- हवे संज्ञाविशेष कहे छे तसच त्रसचतुष्क कही बस १ बादर २ पर्याप्त ३ प्रत्येक ४ ए प्रकृति लेवी. थिरछकं-थिरछक कह्या - १ थिर, २ शुभ, ३ सुभग, ४ सुस्वर, ५ आदेय, ६ जस ए छ प्रकृति लेवी. एने थिरछक्क कहा. हवे अथिरछक्क - अथिरछ कथा १ - अथिर, २ अशुभ ३ दुर्भग, ४ दुःस्वर, ५ अनादेय, ६ अजस ए छ प्रकृति लेवी. ६ सूक्ष्म १ अपर्याप्त २ साधारण ३ ए ऋण प्रकृति सूक्ष्मत्रिक कहीजे. थावर १ सूक्ष्म २ अपर्याप्त ३ साधारण ४ ए थावरचतुष्क कहीजे. सुभग १ सुस्वर २ आदेय ३ ए त्रण सुभगत्रिक कहीजे. दुर्भग १ दुःस्वर २ अनादेय ३ ए दुर्भगत्रिक कहीजे. जे प्रकृति लाधी होये ते प्रकृतिथी आगठी संख्या प्रमाण गणी लीजे, तिवारे संख्या प्रमाण ठरे. २८ वन्नचउ अगुरुलहुचउ तसाइ दुतिचउरछक्क इच्चाइ | st अन्नावि विभासा तयाइ संखाहि पयडीहिं ॥२९॥
अर्थ- वर्णादिक च्यार ४ अगुरुलघुप्रमुख ४ च्यार. सादि बे, २ सादि त्रण, ३ त्रसादिक ४ च्यार, सादिक ६ छ, तेली संख्या लेतांहि तेहवो संकेत. हवे थीणद्धीत्रिक जिहां
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
कयुं तिहां थीणजी १ निद्रा२ प्रचला ३ ए तीन लेवी. विशेष जाणवा माटे कहे छे-वर्णचतुष्क सामान्ये कयां ते वर्ण १ गंध २ रस ३ स्पर्शनाम ४ ए ४ ने वर्णचतुष्क कहीये अने अगुरुलघुनाम १ उपघातनाम २ पराघातनाम ३ ऊसासनाम ४ ए अगुरुलघुचतुष्क कहीये. बस १ बादरनाम २ ए त्रसद्विक कहीजे. १ त्रस, २ बादर, ३ पर्याप्त ए त्रसत्रिक लीजे, अने त्रस १ बादर २ पर्याप्ता ३ प्रत्येक ४ ए ४ ने त्रसचतुष्क कहीजे. अने त्रस १ बादर २ पर्याप्त ३ प्रत्येक ४ स्थिर ५ शुभ ६ ए छने त्रसषक. एम जेटली प्रकृति होय ते त्रसादिनामथी जोइये. ॥२९॥ गइयाईण उ कमसो चउपणपणतिपणपंचछछकं। पणदुगपणट्ठचउदुग इय उत्तरभेयपणसट्ठी॥३०॥ ___अर्थ हवे ९३ वाणु प्रकृति कहे छे-गति आदिक १४ पेंडना उत्तरभेद कहे छे-गति ४ भेदे च्यार. जातिना पांच भेद ५, शरीरना पांचभेद, उपांगना तीनभेद ३, बंधनना पांचभेद ५, संघातनना पांचभेद ५, संघयणना छ भेद ६, संस्थानना छ भेद, वर्णना पांच भेद ५, गंधना दो भेद २, रसना पांच भेद ५, फरसना आठ ८ भेद, आनुपूर्वीना च्यार भेद ४, विहायोगतिना बे भेद २. एटले करी उत्तरभेद सर्व मिळ्यां पांसठ भेद थया. पिंडप्रकृतिना ए उत्तरभेद कह्या. ॥ ३०॥ अडवीसजुया तिनवैई संते वा पनरबंधणे तिसय । बंधणेसंघायंगहो तणुसुसामन्नवनचऊ ॥ ३१ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
अर्थ---इणे ६५ भेदमे आठ प्रत्येक, त्रसदस, थावरदस, ए अठ्ठावीस २८ भेद थया ओ लीजे त्यारे त्रांणु भेद थाय. ए ९३ सत्तामे गणीये अथवा बंधन पेहेलां पांच गण्याथी तिण ठामे पन्नरे १५ गणीये तिवारे एकसोतीन भेद पिण थाय. ते सत्तामे गणीये; अथवा एकसोतीन भेदमां पंनर बंधन, पांच संघातन ए वीस प्रकृति शरीरमांहे गणीजे एटले वीस काढीजे ए शरीरना ज उत्तरभेद छे अने वर्णादिकना २० वीस भेद छे ते इहां सामान्य च्यार ४ भेद लेवा. वर्ण १ गंध १ रस १ फरस १ एवं ४ बाकी १६ काढवा. ॥३१॥ इय सत्तट्ठी बंधोदए य न य सम्ममीसया बंधे। बंधोदयसत्ताए, वीसदुवीसट्ठवन्नसयं ॥ ३२ ॥
अर्थ-तिवारे ३६ प्रकृति काढ्यां सडसठि ६७ रहे, बंधे पण सडसठि ६७ छे. बंधोदय कहेतां बंध अने उदयमे पण ६७ सडसठि छे. वळी मोहनीकर्मनी २८ प्रकृति छे, तेमाहि सम्यक्त्वमोहनी १ मिश्रमोहनी २ ए बे प्रकृति बंधमां न गणवी, तिवारे मोहनीकर्मनी बंधे २६ छवीस प्रकृति छे. एटले सरवाळे पांच ५ ज्ञानावरणी, नव ९ दर्शनावरणी, बे २ वेदनीय, २६ छवीस मोहनी, ४ आउखो, ६७ नाम, २ बे गोत्र, पांच ५ अंतरायः ए १२० मुकसोवीस बांचे छे, तिहां मिश्रमोहनी २ भेळीजे विकरे उद्यमे १२२ छे, अने तिणमे नामकर्मनी सर्व १०३ ग्रणीजे, तिबारे सत्ताले एकसो अठ्ठावन १५८ छे.३२ निरयतिरिनरसुरंगई इगंविधतियचउँ पणिदिजाईओ ओरालविउवाहारगतेयकम्मणपणसरीरा ॥ ३३ ॥
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कर्मयन्थस्य बार्थः
अर्थ-हवे गतिनामकर्मना च्यार भेद कहे छे-नरकगति १ तिर्यग्गति २ मनुष्यगति ३ देवगति ४। एकेंद्री जाति १ बेंद्रीनी जाति २ तेंद्रीनी जाति ३ चौरेंद्रीनी जाति ४ पंचेंदीनी जाति ५. ए पांच जाति जाणवी. औदारिक शरीर १ वैक्रिय शरीर २ आहारक शरीर ३ तेजस शरीर ४ कार्मण शरीर ५. ए पांच शरीर जाणवां. ॥३३॥ वाहरु पिडि सिर उर उयरंग उवगं अंगुलीपमुहा । सेसा अंगोवंगा पढमतणुतिगस्सुवंगाणि ॥३४॥ ___ अर्थ--बाह्य दोय २, साथल दोय २, पुंठ १, सिर ( मस्तक) १ हीयुं १ पेट १ ए आठ अंग छे अने आंगळी प्रमुख उपांग छे. शेष-बाकी नख, केशादिक सर्व अंगोपांग जांणवा ते अंगोपांग पहेला त्रण शरीरनां छे.-औदारिक उपांग १ वैक्रिय उपांग २ आहारक उपांग ३: ए त्रण उपांग कह्यां. ३४ उरलाइपुग्गलाणं, निबद्धबझंतयाण संबंधं । जं कुणइ जउसमं तं उरलाईबंधणं नेयं ॥ ३५ ॥
अर्थ--औदारिकादिक पांच शरीर पुद्गल केइक बांध्या पूर्वे शरीरपणे परिणमाव्या अने बीजां नवां बांधतां जे पुद्गल तेहने जे संबंध एकमेककरवो जेणे करीने ते बंधनकहीजे कर्मनो उदय ते लाखनी पेरें जिम लाख लाकडीने एकमेक करे चोटाडि राखे तिम बंधन पुगलने ग्रहि राखे छे. ते बंधन औदारिक १ वैक्रीय बंधन २ आहारक बंधन ३ तैजस बंधन ४ कार्मण बंधन ५. ए पांच बंधन जाणवां. ॥३५॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
जं संघायइ उरलाइ-पुग्गले तणगणं व दंताली तं संघाय बंधणमिव तणनामेण पंचविहं ॥३६॥
अर्थ-जे कर्मना उदयथी संघातं कहेतां भेळा करे औदारिकादि पुद्गलोने जिम तृण गणना प्रतें जिम दंताली भेळा करे तिम पुद्गलने भेळां करे, ते संवातन कहीइं छे. जिम बंधनना पांच भेद कह्या तिम संघातनना पांच भेद कहेवा.
औदारिक संवातन १, वैक्रिय संघातन २, आहारक संघातन ३, तेजस संवातन ४, कार्मण संघातन ५. ॥ ३६ ॥ ओरालविउवाहारयाणं सगतेर्यकम्मजुत्ताणं। नवंबंधणाणि इयर-दुसहियाणं तिन्नि तेसिंच॥३७॥ . अर्थ-हवे १५ बंधन कहे छे. औदारिक औदारिक बंधन १, वैक्रिय वैक्रिय बंधन २, आहारक आहारक बंधन ३. ए त्रिण सग पोताना बंधनथी जाणवा अने ३ शरीरथी तेजस जोडिये वळी कार्मणने जोडिये तिवारे नव बंधन थाय. औदारिक तेजस बंधन ४, वैक्रिय तेजस बंधन ५, आहारकतेजस बंधन ६,औदारिक कार्मण बंधन ७, वैक्रिय कार्मण बंधन ८, आहारक कार्मण बंधन ९, ते ३ शरीरथी तेजस कार्मण जोडीये. औदारिक तेजस कार्मण बंधन १०, वैक्रिय तेजस कार्मण बंधन ११, आहारक तेजस कार्मण बंधन १२, कार्मण कार्मण बंधन १३, तेजस तेजस बंधन १४, तेजस कामण बंधन १५, ए बंधन जाणवयं एवं १५ पंदर बंधन थया. ॥ ३७॥ संघयगमठिनिचओ, तं छद्धा वजरिसहनारायं। तह य रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं ॥ ३८ ॥
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६०२
कग्रन्थस्य वार्थः
समूह-हाड मांहोमांहे सं.वज्रऋषभनाराच पहेलो
अर्थ -- संघयण कहेतां हाडनो बंध ते संवयणना छ भेद जाणवा. संघयण महाबलवंत खीली पाटो मर्कट बंधन छे १. तिम बीजो ऋषभनाराच. जे मांहे खीला नहीं, पार्टी मर्केट बंधन छे २. बीजो नाराच. जेढ़ने मर्कट बंधन छे ३. चोथो अर्द्धनाराच ४ जेहने एकपासे मर्कट बंधन छे. ।। ३८ ।। कीलिअँछेव इह, रिसहो पट्टो य कीलियावज्जं । उभओ मक्कडबंधो, नारायं इममुरालंगे ॥ ३९ ॥
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अर्थ -- पांचमो कीठीका संघयण. जेहने खीली छे. ५ छट्टो छेवटो संवयण. जिहां सर्वथा निर्बल छे. ६ ऋषभपाटो- पट्टो दोइ हाडनो संपुट मर्कटबंध उपरे पाटो छे, वज्र कहेतां खीली-मर्केट बंधने दोनु पासे कीली कहेतां खीली छे. उभओ-दोन पासे हाडनो आंटो ते मर्कटबंध कहीजे. ए सर्व पहेले संवयणमें छे. महाबलवंत थाय, ए संघयण कर्म औदारिक शरीर धारीने उदय आवे. एटले तिर्यच मनुष्यने छे; देवता नारकीने नयी. ॥ ३९ ॥
समचरं स निग्गोह- सांइखुज इवामणं हुई । संठाणा वण्णा किण्ह-नीललोहियहलिद्द सिआ ४० ॥
अर्थ -- समचोरस संस्थान जे च्यार दोरी पर्यकासन बेटां बराबर थाय अति सुंदर छे. १ निग्रोध संस्थान उपर त्रिग सुंदर छे, हेटलो त्रिक दुर्बल छे. २ सादि संस्थान बीजो नीचलो सुंदर छे ३ कुब्जसस्थान जे कुबडो होये. ४ वामन संस्थान जे देदमान छोटो होवे. ५. कुंडक संस्थान सर्वथा लक्षण
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६०३
रहित होवे ६ ए छ संस्थान कहां. हवे वर्ण पांच काळो भमरनो, नीलो सूडानी पांख सरीखो, रातो हींगो सरीखो पीळो कंचन सरिखो, श्वेत-बोळो रूपा सरीखो. ॥ ४० ॥ सुरहीदुरही रसापण, तित्तंकडुअंकसायअंबिलामहरा। फासा गुरूलहुंमिउखर-सीउहँसिणि रुक्खा४१ ___ अर्थ-सुरभिगंध १, दुरमिगंध २. रस पांच-तीखो ते लविंग सरीखो १, कडवो ते गळो सरीखो २, कसायलो ते हरडे सरिखो ३, खाटो ते लींबु आंब्ली सरिखो ४, मीटो ते खांड सरीखो कह्यो ५. हवे स्पर्श आठ कहे छे. गुरु-भारे लागे १, लहू-हळुओ २, मिउ-सुकमाल ३, खरखरो ते कठोर ४, सीटाढो ५, उपह-उन्हो ६, सिणिड-चीकणो ७, रुक्खट्ट-लूखो ए आठ फरस जाणवा. ॥ ४१ ॥ नोलकसिणं दुगंधं, तित्तं कडुअं गुरुं खरं रुक्खं । सीअं च असुहनवगं, इक्कारसगं सुभं सेसं ॥४२॥ ___अर्थ-प्रथम नीलवर्ण १, कीसन-काळोवर्ण २, दुरमिगंध ३, निलो रस ४, कडओ रस ५, गुरु-भारी स्पर्श ६, खरखरो ७, सीतल ८, लू वो ९, ए नव ९ अशुभ जाणवा. बाकी रह्या जे इन्वार वर्ण आदिक जे ते शुभ जाणवा. ए वचन प्रायिक निश्चये नहीं. ॥ ४२ ॥ चउहगइवणपुदी, गइपविदुगं तिगं निआउजुअं। पुजीउदओ वके, सुहअसुहवसुदृविहगगई ॥४३॥
अर्थ-व्यारगतिनी पेरे आनुपूर्वी जाणवी. नरकानपूर्वि १ .
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
Aamw
तिर्यंचानुपूर्वि २, मनुष्यानुपूर्वि ३, देवानुपूर्वि ४, गतिआनुपूईि मिळ्यां द्विक कहीजे. जिम देवद्विक-देवगति, १ देवानुपूर्वि २. नरकदुग-नरकगति, १ नरकानुपूर्वि २. इमज मनुष्यद्ग-मनुष्य गति १ मनुष्यअनुपूर्वि २. ए द्विकमांहि ते गतिनो आउखो भेळीजे तिवारे त्रिक थाय. जिम देवत्रिक ते देवगति ? देवानुपूचि २ देवआउखो ३. इम नरकादिक त्रिक जाणवो. आनुपूर्वीनो उदय वक्रगतिमे छे. जे भवांतरे जेवारे जीव जाय, तिवारे आनुपूर्षिकर्म उदय आवे छे. शुभविहायोगति १ जेथी जीवनी चाल्य शुभ थाइ, वृषभ गज हंसनी पेरे सुंदर चालि होवे १. अशुभविहायोगति. जे अशुभ चालि जे ऊंट रासभ सरखी चाल चाले महा असुंदर. ॥ ४३ ॥ परघाउदया पाणी, परोसिं बलिणंपि होइ दुद्धरिसो। उससिणलद्धिजुत्तो, हवेइ ऊसासनामवसा ॥४४॥
अर्थ-परावात नाम कर्मने उदयेयी प्राणी जीवने एरेसि अन्य वैरी बलवंतने पिण होवे दुर्धर्ष होये जे ते जीवने कोइके आक्रमसंगे नही ते परावात नामकर्म १. उसास ले पानी लब्धि थाये एटले उसास पर्यातिना उदयपी श्वासोच्छ्वास सुखे ले ते ऊसास नामकर्म कहीजे. ॥ ४४ ॥ रविबिंबे उ जिअंगं, तावजुअं आयवाउनउ जलगे। जमुसिणफासस्स तहि, लोहियवण्गस्त उदउत्ति ४५१ - अर्थ-सूर्यना मंडळमां जे प्राणीना जीवना अंग छे सूर्य विमानमे जे पृथ्वीकायना जीव ते ताप सहित छ तावडो करे छे ते आतापना नामकर्मनो उदय जाणवो; पण अग्निने
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कर्मग्रन्यस्य टबार्थः
~~~~~ विषे आताप नहीं. तो इयु जे छ ? जे कारणे अग्निमें फरस्य उन्हो छे अने लोहिअ रातावर्णनो उदय छे. आतपनो उदय नहीं. ॥ ४५ ॥ अणुसिणपयासरूवं, जिअंगमुज्जोअए इहुज्जोआ । जइ देवुत्तरविकिअ-जोइसखज्जोअमाइश्व ॥ ४६ ॥
अर्थ-अणुसिण उन्हो नहीं अने प्रकाशरूप अजुवाको करे छे, जीव प्राणीनो अंग शरीर उद्योत करे ते उद्योतनामकर्म कहीजे. यदि-जिवारे देवता उत्तरवैक्रिय करे, ज्योतिषी चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, ताराप्रमुखने यतिने आदिशब्दथी मणी, मोती, हीरा, माणिक्य प्रमुखने उद्योतनामकर्मनो उदय छे ते थकी तेज ज्योति छे. ॥ ४६॥ अंगं न गुरु न लहुअं,जायइ जीवस्स अगुरुलहुउदया। तित्येण तिहुअणस्स वि, पुज्जो से उदओ केवलिणो४७॥ ___अर्थ-जे कर्मथी जिण जीवनो शरीर घणो भारी न थाइ, न घणो हलको पणि थाइं. मध्यम शरीर थाइ जेहनो ते अगुरुलघुनामकर्म उदयपणि जाणवो. तिन-तीकरनामकर्मना उदयथी जीव तीन भुवनने पूजनीक थाय, चोत्रीस अतिशय, पांतीस वाणी, अष्ट प्रातिहारज होवे ते तीर्थकरनामकर्मनो उदय केवलीने थाय; केवलज्ञान उपन्पा पछी ते उदये आवे. ॥ ४७ ॥ अंगोवंगनियमणं, निम्माणं कुणइ सुत्तहारस। उवघाया उवहम्मइ, सतणवयवलंबिगाईहिं ॥४॥
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कर्मग्रन्थस्य टबाथैः
mmarAmAvaina
अर्थ-अंगोपांग नासिका आंख कान प्रमुख सखरा ठामने ठाम निपजावे, निम्माण-ते निर्मागनामकर्म कहीजे सूत्रधार सरखो कहीजे छे जिम सूत्रधार पृतळी घडे ते समी अंगोपांग सुंदर घडे. उपवातनामकर्मयी जीवनो शरीर हणाय; आपणे शरीरे वधती आंगुली जीभ-पडजीभी रसोली प्रमुख उपजे तिग शरीर कुरूप होवइ, कुरूप दीसई. ॥४८॥ बितिचउपणिदियतसा, बायरओ बायरा जिआथूला। नियनियपज्जत्तिजुआ, पज्जत्ता लद्धिकरणेहिं ॥४९॥
अर्थ-बितिचउ-द्री तेंद्री चौरेंद्री पंचेंद्री जीव सर्व चाले हाले छे तिणे ते त्रस कहीजे. बादरनामकर्मना उदयथी जीव दीर्थपणुं पामे. आप आपणी पर्याप्ति पूरी करे ते पर्याप्त नाम कहीजे. पजात्ता-ते पर्याप्ति बे प्रकारनी छेलब्धि पर्याप्त १ अने करण पर्याप्त २ तिहां आपरी पर्यात पूरी पारस्ये ते लब्धिपति १, जे पर्याप्त पूरी करी रह्या ते करणपर्श. २ ॥ ४९॥ पत्तेअतणपत्ते-उदएणं देतअहिमाइ थिरं । नानुवरिसिराइसुहं, सुभगाउ सधजणइट्ठो ॥५०॥
अर्थ-जे एक शरीरे एक जीव ते प्रत्ये नामकर्म वाहीजे. जेहना उदयथी दांत, झाड थिर रहे ते थिरनामक कहीजे. नामि उपरे मस्तक ह जे उपरलो कि ते शुभ कहीजे. सुभगनाममयी सर्व जगतने वलुभ थाय, मोहनकारी थाय. ॥ ५० ॥ ...
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ဖ
कर्मग्रन्थस्य टवार्थः सुसरा महुरझुणी, आइज्जा सबलोगगिज्झवओ। जसउ जसकित्तोओ, थावरदासगं विवज्जत्यं ॥५१॥
अर्थ-सुस्वरनामकर्मयी मीठी सुखकारी ध्वनि थाय, कंठ खरो वोयलना सरिखो था. आइय-आदेयनामकर्मथी सर्व लोकने तेहनो वचन मागनीक थाय. जसनाम कर्मयी जस थाय, कीर्ति थाय अने लोक जस थाय. ए वसदसक थयो इगयी थावरदसक विपरीतार्थ छे. थावर एकेंद्री १, सूक्ष्म-दृष्टि न दीसे २, अपर्याप्त पर्यात पूरी न करे. ३, अनंता जीवे एक शरीर ते साधारण. ४, हाड दांत हाले ते अथिर ५, हेठलो त्रिक ते अशुभ ६, दुर्भग लोकमे दोहाग थाय ७, दुस्वर-कंउ सरो न होय. ८, अनादेय-वचन कोइ न माने ९, अजत पणि जस न होय. ए थावरदसक कहीजे दस. ॥५१॥ गोअं दुहुन्चनीयं, कुलाल इव सुघडमुंभलाईअं। विग्घे दागे लाभे, भोगुवभोगेसु वीरिए अ॥५२॥ ___अर्थ-गोत्र कर्मना दोय २ भेद छ-प्रथम उच्चैर्गोत्र १, बीजो नीचैर्गोत्र २. ए बे भेद जाणवा. अलाल-कुंभारसमान छे; जिम कुंभार सुंदर घडो पणि करे अने अप्सुंदर घडो पणि करे तिम. हवे अंतरायकर्मना पांच भेद कहे छे. दानांतराय १, लाभान्तराय २, भोगान्तराय ३, उपभोगांतराय ४, वीर्यातराय ५. ॥ ५२ ॥ सिरिहरिअसम एअं, जह पडि कुलेण तेण रायाई। न कुणइ दाणाईयं, एवं विग्ण जोवो वि ॥५३॥
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६०८
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ-श्रीगृहक.-भंडारी समान अंतराय कर्म जाणवो. जिन भंडारी अपूंठे थकां जिम राजानी दान देवानी बुद्धि हो पणि ते पालितो दान देइ शके नहीं; इम अंतराय कर्मने उइये जीव दानादिक देइ शके नहीं. ॥ ५३ ॥
हो आठ कर्मबंधनां कारण कहे छे.. पडिणीअत्तणनिन्हव-उवधायपओसअंतराएण। अचासायणयाए, आवरणदुर्ग जिओजयइ ॥५४॥
अर्थ-तिहां पहेलां ज्ञानावरणी दर्शनावरणीनां बंध कारण कहे छे-प्रत्यनीकपणे जिनमतनो अगूंठो करे, निन्हव सिद्धान्तनां वचन उथापे, उपवात-ज्ञाननी प्रति प्रमुख फाडे, भणता होय ते उपरे द्वेष धरे, द्वेष करे ते पओस कहीये. वळी भगतां अंतराय करे, सिद्धांत, गुरु, प्रतिमानी अति आशातना करे; तो जीव अंतराय बांधे. आवरण दोय ज्ञानावरण १ दर्शनावरणी कर्म जीव इतरे कारणे बांधे. ॥ ५४॥ गुरुभत्तिखंतिकरुणा-वयजोगकसायविजयदाणजुओ। दढधम्माई अज्जइ, सायमसायं विवज्जयओ॥५५॥ ___ अर्थ--गुरुभक्ति करतां, क्षमा करतां, दया पळतां, व्रत पाळतां, योग वश करे, कषाय वश करे, दान देवे, दृढधर्मि होवे, धर्म उपरे स्थिर प्रतीत उपार्जे-बांवे सातावेदनी प्रत्ये अने एथी विपरीत जे हिंसा, अवत, कषायथी असातावेदनी बांचे. ॥५५॥ उम्मग्गदेसणामग्ग-नासणादेवदव्वहरणेहेिं । दसणमोह जिणमुणि-चेइअसंघाइपडिणीओ॥५६॥
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कस्यार्थः
६००९
अर्थ — उन्मार्ग - खोडो मार्ग देखाडे, मार्ग शुद्ध स्वाद्वाद न आवे एडले अशुद्ध मार्ग देखाडे देवदव्व - देहेरानो द्रव्य धन, साधारण दव्पनो हरवो, खावो, वावरे जीय दर्शनमोहनी कर्म बांधे. जिन, तीर्थकर, साधु, चैत्य, देहेरो, संव चतुर्विध, तेहनी प्रत्यनीक जीव मिध्यात्वमोहनी बांधे. ॥ ५६ ॥
दुविपि चरणमोहं, कलायहालाइ विसयविव समणो । बंधइ निरयाउ महारंभपरिग्गहरओ रुहो ॥ ५७ ॥
अर्थ-दुविहं - दोइ भेदें चारित्रमोहनी जीव कर्म बांधे. कषाय कोवादिक हास्यादिक पांच इंद्रोनो विषय तेहथी परवश पडयो एटले जे जीव विषयमें मस्त होवे ते चारित्रमोहनी बांबे. अने महारंभ वावडी, कुआ, तळाव, कोट, बाग, खेत्र प्रमुख मोटा आरंभ करती थी तथा मोटा परिग्रह धन धान्यमें मूर्च्छित थको परिणामे रौद्र ( रौद्रव्यानी ) ते नरक गति ज जाय ॥ ५७ ॥
तिरियाउ गूढहियओ, सदो ससको तहा मणुस्ताउ । पगइतणुकसाओ, दारुई मिगुणो ॥ ५८ ॥
अर्थ-तिनो आपखोबांचे ने जीयातो महागूढ गंठीलो होवे, मूर्ख अज्ञानी होवे, साल ( शल्य सहित होवे, कूड कपट घणो करे से तिर्यचनो आयु बांचे. तिम तेणी रीते मनुष्यनो आउखो बांधे जे जीव प्रकृति स्वभावे तणु-पातळो कषाय जेहने होवे, दान देवानी बुद्धि जेहने होवे, गुणे करी मध्यम गुणी होवे ते मनुष्यायु बांधे ॥ ५८ ॥
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६१०
कर्मयन्यस्य टवार्थः
-
vAAAAAAAAAAAAAAmAnamnmammarwari
अविरयमाइ सुराउ, बालतवोऽकामनिजरो जयइ। सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुहं ॥५९॥ . अर्म-अविरतिथी लेइ करीने सातमे गुणठाये ताइ जीव देवतानो ज आउखो बांधे, वळी अज्ञानतप करतो जीव, अकामनिर्जरा करतो जीव देवतानो आउखो बांव. सरलचित्त होवे, गर्व न करतो होय ते जीव नामकर्मनी शुभ प्रकृति बांचे अने कपटी अहंकार करतो होय ते नामकर्मनी अशुभ प्रकृति बांधे. ॥ ५९॥ गुणपेही मयरहिओ, अज्झयणज्झावणाई निचं । पकुणइ जिणाइभत्तो, उच्चं नीयं इयरहा उ ॥६॥
अर्थ-गुणग्राही-गुणरागी, मद अहंकार रहित, माननो पक्ष नहीं, भणवाने भणाववानी रुचि घणी होवे जेहने एहयो सरलबुद्धि जीव होवे वळी जे जीव जिन गुरु वचन बहु श्रुतनी भक्ति करतो होय ते जीव उच्चगोत्र बांचे. अने एहथी विपरीतपणे नीच गोत्रकर्म बांये. ॥ ६० ॥ जिणपूआविग्धकरो, हिंसाइपरायणो जयइ विग्छ । इय कम्मविवागोयं, लिहिओ देविंदसूरिहं ॥३१॥ ___अर्थ-जिनपूजा करतां जे अंतराय करे ते अंतराय कर्म बांधे वळी जे हिंसामां तत्पर-उजमाल होवे ते जीव अंतरापकर्म बांवे, एटले करी कर्मनो विपाक करो. एकलो अठ्ठावन प्रकृति कही अने पूर्वला सिद्धांत देखीने देवेंद्रसरि आचार्य लख्यो छे. ॥ ६१ ॥ इति कर्मविपाकनाम प्रथमकर्मग्रंथटबार्यः संपूर्णः ॥१॥
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अथ द्वितीयः कर्मग्रंथः
तह थुगिनो वीरजिणं, जह गुणठाणेसुसयलकम्माई। संधुदवोदीरणया, सत्तापत्ताणि खवियाणि ॥१॥
अर्थ--ह-तिम स्तवु छु, मन वचन कायाइ करी, वीर महार जेन प्रत्ये नमुं; जह-जेम गुणठाणाने अनुक्रमे निरमल परिणामे सकल कर्म ज्ञानावरणादिक बंधपणे, उदयपणे, उदीरणाणे, सत्तापणे पाम्या जे कर्म ते सर्व खपाव्या जेणे ते महावीर प्रते वांदीने नमीने. ॥१॥ मिच्छे सासणेमीसे,अविरयंदेसे पमतअपमत्ते नियहि। अनियंटिसुहुमुंबसमखोगसजोगिअंजोगिगुणा ॥२॥ __ अर्थ-हवे गुणठाणानो स्वरूप कहे छे-पेहेलो मिथ्यात्व गुणठाणो १, सास्वादन गुणठाणो २, मिश्र गुणठाणो ३, अविरति गुणठाणो ४, देशविरति गुणठाणो ५, प्रमत्त-गुणठाणो ६, अप्रमत्त गुणटाको ७, अपूर्वकरण गुणठाणो निवृत्ति बादर गुणठागो ८, अनिवृत्तिबादर गुगठाणो ९, सूक्ष्मसंपराय गुणठाणो १०, उपशान्तमोह गुणठाणो ११, क्षीणमोह गुणठागो १२, सजोगी केवली गुणठाणो १३, अजोगी केवली गुणठाको १४. हवे गुणठाणानो परिणाम कहे छे. जे जिनधर्भशुं विरीत ते मिथ्यात्व १, समीतइयुं पडी मिथ्यात्व में आवे ते पडता काळने सास्वादन कहीजे २, जिन
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कर्म्मग्रन्थस्य स्वार्थः
धर्म उपर न राग न द्वेष ते मिश्र कहीजे ३, नवतत्त्व सुधा सद्दहे ते अविरति समकित कहीजे ४, समकीत सहित श्रावकत्रत पाळे ते देशविरति कहीजे. ५, साबुना पंच महाव्रत पाळे पिण प्रसाद सेवे ते प्रभत्त कहीजे ६, प्रनाद सेवे नहीं ते अप्रमत्त कहीजे ७, प्रति समय अध्यवसायो भित्र भिन्न होवाथी निवृत्तित्रादर कहीजे ८, ज्यां क्रोध, मान, माया, उपशमावे अथवा खपावे ते अनिवृत्तिवादर वहीजे ९, लोभ उपशमावे खपावे ते सूक्ष्मसंपराय कहीजे १०, मोह उपशमावे ते उपशान्त कहीजे ११, मोहनीकर्म खपावे ते क्षीणमोह कहीजे १२, च्यार कर्म. खपावे, केवलज्ञान पामे ते सजोगी केवली, कहीजे १३, अघाती च्यार कर्म खपावे, मोक्ष जाय ते अजोगी केवळी कहीजे १४. हवे चौद गुणठाणानी स्थिति कहे छे+- मिध्यात्वगुणठाणानी स्थिति अभ व्यने अनादि अनंत, भव्य ग्रंथि भेदे नहीं तेने अनादिसांत, समकीत पडी मिथ्यात्वमे पडे तेहने जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनंतो काल १ सास्वादननी स्थिति ६ छ आ वळी छे. २. मिश्रनी स्थिति जवन्यने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तः सम्यक्त्व गुणस्थानती उत्कृष्ट ३३ सागर. देशविरतिनी उ देशूण
पूर्व कोड वर्ष प्रमत्त एहनी जवन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृट देशे
1
उणी पूर्व कोड. ( सर्व स्थिति एकत्र करतां ) आटमे गुणठाणे ( तथा अप्रमत्तना जघन्य समय ने उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्तने प्रवाहापेक्षा देशण पूर्व कोड वर्ष) शुं मांडी : बारमा तांई ( सुधी) पांच गुणठाणानी जघन्य एक समय. बारमानी जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येके अथवा सर्वनी एक अंतर्मुहूर्त, तेरणा गुणठाणानी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्स, उत्कृष्टी देशें ऊंण पूर्वकोडी.
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१४. चउदमे गुणठाणे स्थिति जघन्यः उत्कृष्ट पांच लघु अक्षर प्रमाण छे. ए गुगठाणानो स्वरूप कयो. ए सिद्धांतमत.छे.॥२॥ - हवे चौद गुणठागाने विषे बंध कहे छे. अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेग तत्व बीसस। तित्थयराहारगदुगवज मिच्छनि सतरसयं ॥ ३॥ ___अर्थ-नवां कर्मनो ग्रहग-लेयो, एले जीवने नवां कर्म लगाववां ते बंध कहीजे. ते बंधे सर्व सामान्ये एकसोवीस प्रकृति छे. पांव ज्ञानावरणी, नव दर्शनावरणी, बे वेदनी, छवीस मोहनी, ४ आउखो, ६७ नामकर्मनी, बे गोत्रकर्मनी, पांच अंतरायकर्मनी एवं १२० प्रकृति बांचे तिगमे तीर्थकर नामकर्म १, आहारक शरीर २, आहारक उपांग ३.ए तीन प्रकृति शुभ छे, समकीत सर्वविरति विना बंधाय नहीं; तिणेः ए तीन प्रकृति मिथ्यात्व गुगठाणे न बांधे, तिबारे बाकी मिथ्यात्वगुणठाणे ११७ एकसो सत्तरः प्रकृति कही तेली बांये तेमा ए तीन प्रकृति नामकर्मनी टाठी हे. ॥३॥ गरपतिग जाइयापरबाउ हुंडायवछेक्ट्ठनपंमिच्छं। सोलं तो इगहिअस सासमितिस्थिीगदुहगतिगं४॥
अर्थ- हवे सास्वादन गुणागे कहे छे-रचलिग-नरकगति १, नरकानुी २, नरकआउखो ३। जाति ४ एकेंद्री १, दी २, तेंद्री ३, चउरेंद्री ४। थावर १, सूक्ष्म २, अपर्वात ३, साधारण ४. ए ११, हुंडक संस्थान १२, आतापनाम १३, छेवटो संघयण १४, नपुंसकवेद १५, मिथ्यात्वमोहनी १६, ए सोळे प्रकृति अशुभ छे. मिथ्यात्वशुणठाणे. जीव जे होय ते
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कर्मग्रन्यस्प टवार्थ:
बांधे बीजा न बांधे तिणे सास्वादन गुणठाणे न बांधे तिवारे सोले प्रकृति वळी काढी; तिवारे सास्वादनगुणठाणे एकसोएक प्रकृति रही ते बांये छे.२ हये मिश्रणठाणे कहे छे-तिरितिग तिथंचगति १, तिर्थचनी आतुर्वी २, तिर्थचनो आउखो ३. थीगध्धीतिग-निद्रानिद्रा १, प्रचलाचला २, थीगदी ३. दुर्भगतिग-ते दुर्भग १, दुःवर २, अनादेय ३. एवं नव ते उपरांत वळी ॥ ४॥ अणमज्झागिइसंघयणचउ निउज्जोअकुखगइस्थित्ति पणवीसं तो मीसे, चउसयरि दुहाउअबंधा॥५॥ ___ अर्थ-अनंतानुबंधी क्रोव १, मान २, माया ३, लोभ ४. मध्यसंस्थान च्यार न्ययोव १, सादि २, वामन ३, कुब्ज ४. मध्यसंचयण ४ रिषभनाराच १, नाराच २,अर्द्धनाराच ३, कीलिका ४ ए४।नीचगोत्र १,उद्योतनाम १,अशुभविहायोगति १, स्त्रीवेद १. ए पचवीस २५ प्रकृति मिश्रगुणठाणे न बांधे त्यारे मित्रगुगठाणे ए टाळवी. तिवारे मिश्रणठाणे ७४ चीडंतर प्रकृति बांये. १०१ मांयी पच्चीस काढ्यां तो छहोतर ७६ होये तिसरे दोय आउखा मनुष्यनो आउखो १, देवतानो आउखो २. ए दोय वळी न बांवे तिवारे ७४ रहे. ॥५॥ सम्ने सगसगरि जिणाउबंधिवइरनरतिअधिक
साया। उरलदुगंतो देसे सत्तट्ठी तियकसायंतो ॥६॥ ___ अर्थ-हवे चोथे समकित गुणठाणे कहे छे-समकीत गुणठागे ७७ सतहत्तरि प्रकृति बांधे. इहां तीर्यकरनामकर्म १,
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कर्म्मग्रन्थस्प टार्थः
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मनुष्यनो आउखो २, देवतानो आउखो ३, ए तीन प्रकृति पहेलां काढी ते पाछी भेळीजे तिवारे ७७ सतहतुर बांबे. हवे पांच देशविरति णटागे कड़े छे-वज्रऋषभनाराचसंवयण १, मनुष्यगति २, मनुष्य आपूर्वी ३, मनुष्यतो आउखो ४, बीजी चोकडी ते अपत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ ४. उरल ुज-औदारिक शरीर १, औहारिक अंग २ ए दश १० प्रकृति देशविर तिगुणटा न बांधे; तिवारे ए १० काढीजे तिवारे ६७ सलसडी प्रकृति बांवे हवे प्रमत्तगुणगे कहे छे -त्रीजी चोकडी ते प्रयाख्यानी व १, मान २, माना ३, लोभ ४ ए चार कढीजे ॥ ६ ॥
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ते पत्ते सोगअरइ अथिरदुग अजसअस्तायं । वुच्छिज छ च सत्तव नेइ सुराउं जयानि ॥ ७ ॥
V
अर्थ-त्यारे ६३ त्रेसठ रहे, ते प्रमत्त छट्ठे गुणटाणे बांधे. हवे ने अमत्त णठागे कहे छे-सोग १, अरति २, अथिर ३, अशुभ ४, अजस ५, असातावेदनी ६, किणीक जीवन ए छ ६ काढीजे अने किमहिने तो सात काढीजे; जे देवनो आउखो काढीजे देवतानो आउखो खपाच्यो होवे अथवा न बांधतो होवे तो सात कढीजे ॥ ७ ॥ गुणसहि अप्पमत्ते, सुराउ बंध तु जइ इहागच्छे । अन्नह अट्ठावन्ना, जं आहारगदुगं बंधे ॥ ८ ॥
अर्थ-- जो छ काढीजे तो अगमत्तगुणठाणे गुण ५९ रहे, जिण कारणयी देवतानो आउखो जे जीव बांधतो थको सातमे गुणठाणे आवे तेहने ५९ अने जे जीव देवतानो
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arrate ear:
अखो खपावे सातमे गुणणे आवे तेहने अठ्ठावन ५८ रहे. इहां तो दोन प्रकृति घटे छे; सत्तावन अथवा छप्पन्न थाय छे. तिणे आहारक शरीर १, आहारक आंग २, ए दोन बळी वाली जे तिवारे गुणसठी ५९ तथा ५- थाय ॥ ८ ॥ अडकन अनुमानित छपन्नगभागे । सुदिपुखगइन उरलंवित गा ॥९॥
अरहिन अड्डा ५८ अपूर्वकरण आगे गटाने तेहने पहेले भागे बांधे, पछी बीजे भीजे चोथे ने छठ्ठे ए पांव भागे छप्पन्न ५६ प्रकृति बांबे. निद्रा १, प्रचला २, ए दोष प्रकृति काढीजे. पछी देवगति १, देवतानुपूर्व २. पंवेंद्री १. शुभविहायोगति १. स १, बादर २, ४, थिर ५, शुभ ६, सुभग ७, सुस्वर ८, नव तथा औदारिक विना ४ शरीर दोष आहारक शरीर २, तेजस ३, कार्मण शरीर ४. वैकिय उपन १, आहारक उपांग २. ।। ९ ।। समचउरनिमिगजिणन्नअनुरूलहुच उछलं सितीसं चरमे छत्रीसबंधो, हासरइकुच्छभयभेओ ॥ १० ॥
पर्यात ३, प्रत्येक आदेष ९. एसक्रिय शरीर १,
अर्थ- समचतुरस्त्र संस्थान १, निर्माण १, जिननाम १ वर्ण १, गंध १, रस १, फरत १, अरुण्ड १, उपात परावात १, उसास १, छड्डा भागने अंते ए त्रीस ३० प्रक काठीजे: तिवारे चरन छेहले सालने भागे हवीत २६ प्र बांधे. हवे नवमे अनिवृत्तिबादरगुणठाणे कहे छे - हास रति ९, दुगंछा १, भय १. ए प्यार काढीजे. ॥ १
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः अनियटिभागपणगे, इगेगहीणो दुवीसविहबंधो। पुमसंजलणचउण्हं, कमेण छेओ सतरसुहुमे ॥११॥ __ अर्थ-अनिवृत्ति गुणठाणाना पांच भाग छे. तिणमे पेहेले भागे बावीस बांधे, पाछले भागे सर्व एकेक घटाडीये बावीस मांहेयी घटाडीये अनिवृत्तिकरणने बीजे भागे पुरुषवेद काठीजे तिवारे एकवीस २१. बीजे भागे संजलनो क्रोध काढीजे; तिवारे २० वीस. चोथे भागे संजलनो मान काढीजे तिवारे १९ ओगणीस. पांचमे भागे संजलनी माया काढीजे तिवारे अढार १८. हवे दशमो सूक्ष्मसंपराय गुणठाणो कहे छे-तिणमांहीथी संजलनो लोभ काढीजे; तिवारे सत्तर दशमे गुणठाणे १७ बांधे. चउदसणुच्चजसनाणविग्धं दसगं ति सोलसुच्छेओ। तिसुसायबंधछेओ, सजोगि बंधतणंतो य ॥ १२ ॥
बंधो सम्मत्तो॥ अर्थ-हवे इग्यारमो उपशांतमोह कहे छे-च्यार दर्शनावरणि उच्चगोत्र, जसनामकर्म, पांच ज्ञानावरणि, पांच अंतराय ए दश ए सर्व सोळे प्रकृतिनो छेद कीजे; तिवारे इग्यारमे बारमे तेरमें ए तीने गुणठाणे बाकी १ एक सातावेदनी प्रकृति बंधमे रहे, पछे तेरमे सजोगी केवळीने छेडे तेपण खपावे, अबंध होवे, सर्व कर्मशुं रहित होवे. चौ मे गुणठाणे पछी अनंतो काल मोक्षपद पामे. १२ ए बंध अधिकार पूरो थयो छे. उदओ विवागधेयणभुदोरणमपत्ति इह दुवीससयं । सतरसयं मोच्छे मीससम्मआहारजिणणुदया ॥१३॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
- अर्थ--हवे चौद गुणठाणे उदय कहे छे-उदय कहेतां कर्मनो विपाक फल तेहनो भोगवणो शुभ सातादिक अशुभ असातादिक ते उदय कहीजे. अने उदय नाव्या कर्मने खेंची उदीरणकरणे करी जोरावरें करी उदय आणे ते उदीरणा कहीजे. इहां उदयमें उदीरणामें सामान्य एकसो बावीस १२२ के. मोहनीना २८ मेद लीजे, मिथ्यात्व गुणठाणे ११७ एकलो सत्तरनो उदय छे. जे कारणे पांच प्रकृति काढीजे-मिश्रमोहनी १, सम्यक्त्वमोहनी २, जिननाम ३, आहारक शरीर ४, आहारक उपांग ५. ए पांच काढीजे. ॥ १३ ॥ सुहुमतिगायवमिच्छ, मिच्छत्तं सासणे इगारसयं । निरयाणुपुविणुदया, अणथावरइगविगलअंतो॥१४॥ ___अर्थ-हवे सास्वादन गुणठाणे कहे छे-सूक्ष्मत्रिक ते सूक्ष्म १, अपर्याप्त २, साधारण ३. आताप १. मिथ्यात्वमोहनी १. ए पांचनो उदय मिथ्यात्वमें छे, सास्वादनों नहीं; तिवारे सास्वादनमें एकसो इग्यार प्रकृति उदय छे. सो एतो एकसो बारे रही तिवारे नरकआनुपूर्वि काढीजे तिवारे १११ रही. हवे मिश्रगुणठाणे कहे छे-अनंतानुबंधि क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४, थावर ५, एकेंद्री ६, विकलेंद्री ते मेंद्री ७, तेंद्री ८, चौरेंद्री ९, ए नव काढीजे. ॥ १४ ॥ मीसे सयमणुपुवीणुदया मौसोदएण मोसंतो। चउसयमजए सम्माणुपुचि खेवाबियकसाया ॥१५॥ .. अर्थ-तिवारे मिश्रगुणठाणे एकसो प्रकृति उदय छे. एतो एकसो दोय १०२ रही; तिवारे मनुष्यानुपूर्वि १, तिर्यंचानुपूर्वि १,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६१.९
देवानुपूर्वि १. ए तीन वळी काढीजे; तिवारे नवाणुं ९९ रहे. वळी मिश्रमोहनी भेळीजे, तिवारे पूरा सो १०० थाय.. . चोथे गुणठाणे कहे छे-मिश्रमोहनी काढीजे अने समभीतमोहनी १, आनुपूर्वि ४ च्यार, ए पांच प्रकृति भेळीजे; तिवरे चोथे गुणणे १०४ एकसोच्यार प्रकृतिनो उदय छे. पांचमे देसविरति गुणठाणे कहे छे-बीजी चोकडी कषायनीअप्रत्याख्यानी क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ. ॥ १५ ॥ मणुतिरिणुपुबीविउवट्ठ-दुहगअणाइजदुगसतरछेओ सगसीइ देसि तिरिगइआउनिउजोअतिकसाया१६॥ ___अर्थ-मनुष्यानुपूर्वी १, तिर्यचनी आनुपूर्वी १, वैक्रियाष्टक ते वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय उपांग २, देवगति ३, देवानुपूर्वी ४, देवनो आउखो ५, नरकगति ६, नरकानुपूर्वी ७, नरकआउखो ८, ए आठ. दुर्भग १, अनादेय १, अजस १, ए सतरे प्रकृति काढीजे; तिवारे देशविरति गुणठाणे सत्यासी ८७ प्रकृतिनो उदय छे. हवे छटो प्रमत्त गुणठाणो कहे छे-तिरजंचगति १, तिरजंच आउखो १, नीबैर्गोत्र १, उद्योतनामकर्म १ वीजी चोकडी-प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ.॥१६॥ अट्ठछेओइगसोइ, पमत्ते आहारजुअलपक्खेवा । थीणतिगाहारगदुगछेओ छसयरि अप्पमत्ते ॥१७॥ ___ अर्थ--ए आठ प्रकृति काढीजे तिवारे प्रमत्तगुणठाणे एकासी ८१ प्रकृति उदये छे. इहां गणासी ७९ थाय छे तिवारे आहारक शरीर १, आहारक आंग २, ए दोय प्रकृति भेळीजे; तिवारे ८१ एकासी थाय छे. हवे सातमे अपमत्त गुणठाणे
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६२०
कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
कहे छे-पीणीतिग-निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला २, श्रीणद्धी ३, आहारक शरीर ४, आहारक उपांग ५. ए पांच प्रकृति काढीजे; तो छोत्तेर प्रकृति अप्रमत्तगुणठाणे उदय छे. ॥ १७ ॥ सम्मत्तंतिम संघयणतिगच्छे बिसत्तरि अपु । हासाइछकअंतो छसट्टि अनियट्टि वेयतिगं ॥ १८ ॥
अर्थ-- हवे अपूर्वकरण कहे छे - समकीत मोहनी १ छेला तीन संघेण अर्धनाराच १, कीलिका १, छेवट्टो १, ए च्यार प्रकृति काढीजे; तिवारे आठमे अपूर्वकरणगुणठाणे बहोत्तर ७२ प्रकृतिनो उदय छे. ७२ नवमे अनिवृत्ति बादर गुणठाणे कहे छे. हास्य १, रति १, अरति १, सोग १, भय १, दुगंछा १, ए छ प्रकृति काढ़ीजे; तिवारे छासठ प्रकृतिनो उदय छे, नवमे अनिवृत्ति गुणठाणे. हवे दसमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे कहे छेवेद तीन - पुरुषवेद १, स्त्रीवेद २, नपुंसकवेद ३ ॥ १८ ॥ संजलणतिगं छछेओ, सट्टी सुहुमंमि तुरिअलोभंतो । उवसंतगुणे गुणसाह, रिसहनारायदुग अंतो ॥१९॥
अर्थ -- संजलणा तीन - संजलन क्रोध १, मान २, माया ३. ए छ ६ प्रकृति काढीजे; तिवारे दशमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे ६० साठ प्रकृतिनो उदय छे. हवे इग्यारमे गुणठाणे कहे छे-चोयो लोभ संजलगो लोभ १ ए एक प्रकृति काढीजे; तिवारे इग्यारमे उपशांतमोगुणठाणे गुणसठि ५९ प्रकृतिनो उदय छे. हवे नाले क्षीणमोहगुणठाने कहे छे-तिहां क्षीणमोह गुणठाणना बे भाग छे. तिहां पेहेले मागे ऋषभनाराच १, नाराच २. ए बे कालीये ॥ १९ ॥
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कुर्मग्रन्थस्य टमार्थः
६.२१
सगवन्न खीणदुचरमि निददुगंतो चरमि पणपन्ना । नाणंतरायदंसणचउछेओ सजोगिबायाला ॥२०॥
अर्थ--तिवारे पेहेले क्षीणमोह गुणठाणाना उपांत्यसमये सत्तावन ५७ प्रकृतिनो उदय छे अने बीजे भागे निद्रा १ मचला १ ए दोय प्रकृति काढीजे; तिवारे क्षीणमोहने छेहडे पंचावन ५५ प्रकृतिनो उदय छे. हवे तेरमे सजोगी केवळी गुणठाणे कहे छे-नाण-ज्ञानावरणी पांच अंतराय पांच, दर्शनावरणी ४ च्यार. ए १४ चौदे प्रकृति काढीजे; तिवारे तेरमे गुणठाणे बायाला - बेताळीस प्रकृति उदये छे. जो के थाय छे एकताळीस पण. ॥ २० ॥ तित्युदया उरलाथिरखगइदुगपरित्तितिगछसं ठाणा । अगुरुल हुवण्णचउनि मिणतेअकम्माइसंघयण ॥२१॥
अर्थ-ए एकताळीस रही तिवारे तीर्थंकरनाम एमां मेळीजे. तीर्थकरनामकर्मनो उदय ते केवळज्ञान उपन्या पछी होवे माटे ४२. हवे चौदमे अजोगीगुणठाणे कहे छे. तीस प्रकृति खपे ते कहे छे - औदारिक शरीर १, औदारिक उपांग २. अथिर १, अशुभ १. ए अधिरदुग तथा शुभविहायोगति १, अशुभविहायोगति १. ए खगतिदुग. प्रत्येक १, स्थिर ९, शुभ १. ए प्रत्येकतिग छ संस्थान ६ ते समचतुरस्र ९, न्ययोव २, सादी ३, वामन ४, कुब्ज ५, हुंडक ६, ए छ. अधुरुलघु १, उपवात १, पराचात १, उसास १, वर्ण १, गंध १, रस ९, स्पर्श १, निर्माण १, तेजसशरीर १, कार्मणशरीर १. आदि ते प्रथम वज्रऋषभनाराच संवयण. १ ॥ २१ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः दूसरसूसरसायासाएगयरं च तीसवुच्छेओ। बारस अजोगि सुभगाइजजसन्नयरवेयणीअं ॥२२॥
अर्थ-दुःस्वर १, सुस्वर १, सातावेदनी अथवा असाता ए दोयनु माहिली एक वेदनी एवं बीस प्रकृति खपावे; तिवारे चउदमें अजोगीगुणठाणे बार प्रकृतिनो उदय रहे छे. ते बार प्रकृतिनां नाम कहे छे-सुभग १, आदेय १, जस १, अने साता असाता मांहेली एक वेदनी जे रही होय ते साता अथवा असाता. ॥ २२॥ तसतिगपणिदिमणुआउगइजिणुचंतिचरमसमयंता।
उदओ सम्मत्तो। उदउव्वुदीरणया, परमपत्ताइ सगगुणेसु ॥ २३ ॥ __ अर्थ-वसत्रिक ते त्रस १, बादर २, पर्याप्त ३. पंचेंद्री जाति १, मनुष्यनो आउखो १, मनुष्य गति १, जिन-तीर्थ करनाम १, उच्चैर्गोत्र १. बारे प्रकृति चउदसमे १४ में गुणठाणे तेहने छेहले समये खपावे तिवारे सर्व कर्म रहित होय तेयी मोक्ष पामे. एटले करी १४ गुणठाणे उदय अधिकार पूरो कह्यो. हवे उदीरणा ते उदयनी जेम जाणवी. उदीरणा १२२ नी छे. मिथ्यात्वे एकसो सतरेनी उदीरणा छे, सास्वादने एकसो अगीयारनी छे, मिश्रे एकसो १०० नी छे, अविरते १०४ एकसो च्यारनी छे, देसविरते सत्यासी छे, प्रमत्त गुणठाणे ८१ एक्यासी छे. इम छठा गुणठाणा ताइ जाणवी. सातमे अप्रमत्त गुणठाणेथी फेर छे, ते आगली गाथाए करी कहे छे. ॥२३॥
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
AAWARANvrrena
५६१ बावन्न
एसा पयडितिगुणा, वेयणीआहारजुअलथीणतिगं। मणुआउ पमत्ता, अजोगिअणुदीरगो भयवं ॥२४॥
उदीरणा सम्मत्ता॥ अर्थ-ए तीन प्रकृति ऊणी कीजे ते प्रथम सातावेदनी १, असातावेदनी २, मनुष्यनो आउखो १. ए तीननो फेर छे. वेदनी २, आहारक २, थीमाद्रीतीन, मनुष्यनो आउखो १, ए आठ काढीजे. उदयमे पांच नोकळे छे उदीरणमे सात गुणठाणे ८ आठ काढीजे; तिवारे तिहत्तर ७३ उदीरणा छे. आठमे गुणहत्तर ६९ छे. नवमे तेसठि ६३ उदीरणा छे. दसमे सत्तावन छे. इग्यारमे छप्पन्न ५६ छे. बारमे पेहेले भागे चोपन ५४ उदीरणा छे अने बीजे भागे बावन्न ५२ उदीरणा छे. तेरमे गुणठाणे च्याळीस ४० उदीरणा छे. अने चौदमे अजोगी गुणठाणे उदीरणा नथी अनुदीरक छे. सिद्ध थाय ते अकर्मा छे. एटले चादे गुणठाणे उदीरणा पूरी थइ. ॥२४॥ सत्ता कम्माण डिइ, बंधाइअलद्धअत्तलाभाणं । संते अडयालसयंजाउवसमुविजिणुवीयतईए॥२५॥ ____अर्थ-हवे चौदे गुणठाणे सत्ता कहे छे-तिहां सत्तानो अर्थ कहे छे-जे कर्मनी स्थिति बांध्या पछी उदय विना अथवा उदय सहित जे जीवशुं लागा रहे; जिम घरनी नीमी तिम जे कर्म ते सत्ता कहीजे, जे बंधादिकपणे आत्माथी लोलीभाव पामे ते सत्ता जाणवी. हवे उपशमश्रेणिनी सत्ता कहै छे-जे जीव उपशम समकीती, उपशम चारित्री; तेहनी सत्तामें कांइ प्रकृति घटे नहीं, तेहने उपशम ११ इग्यारमे
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afrate carर्थः
गुणठाणा तांइ एकसो अडताळीस १४८ नी सत्ता छे. इहां सत्तामे एकसो अठ्ठावन १५८ छे. तिना नामकर्मना भेद१०३ एकसोतीन गुण्या छे अने जो बंधन १५ पन्नर न गणीजे ने पांचगणीजे तो नामकर्मना भेद ९३ त्राणु थाय. जिवारे नामकर्मना तिनवे ९३ भेद गणीजे; तिवारे १४८ एकसो अडताळीस थाइ ॥ २५ ॥ अपुवाइअचउक्के अणतिरिनिरयाउविणुबियालसयं । सम्माइचउसु सत्तगखयंमि इगचत्तसयमहवा ॥२६॥
अर्थ- हवे बीजे पक्ष कहे छे. जे उपशमश्रेणिवंत आठमे गुणठाणे अनंतानुबंधी चोकडी खपावे, एटले अपूर्वकरण आठमा गुणठाणाथी मांडी इग्यारमा उपशांतमोह गुणठाणा तां च्यार ४ गुणठाणे अनंतानुबंधी कोष १, मान २, माया ३, लोभ ४. ए च्यार. तिर्यचनो आउखों १, नरकनो आउखो. ए छ खपावे; तेहने इणे च्यारे गुणठाणे एकसोबेताळीस १४२ नी सत्ता छे. हवे कोइ जीव चोथे गुणठाणे सात प्रकृति खपावे, एटले अनंतानुबंधी क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४, ए च्यार समकित मोहनी १, मिश्र मोहनी २, मिथ्यात्व मोहनी ३. एम ए ७ सात प्रकृति जेणे खपावे ते जीव समकीतरां च्यारे गुणठाणे एकसो एकताळीस १४१ नी सत्ता:छे.. ए क्षायकसमकीती उपशमश्रेणि जीवने छे. ॥ २६ ॥ खवगं तु पप्पचउसुवि, पणयालं निरयतिरिसुराउविणा। सत्तगविणु अडतीसं, जा अनियपिढमभागे ॥२७॥ अर्थ- क्षपकश्रेणीने मते च्यारे गुणठागे अविरतिशुं मांडी
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
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अपूर्वकरण गुणठाणा तांइ एकसो पीस्ताळीसनी सत्ता छे. नरकनो आउखो, तिर्यंचनो आउखो ने देवायुष्य एम तीन आउखो खपावे; तिवारे १४५ एकसो पीस्ताळीसनी सत्ता छे. पछी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ४. समकीत मोहनी १, मिश्रमोहनी २, मिथ्यात्व मोहनी ३. ए ७ सात प्रकृति खपावे; तिवारे १४८ एकसो अडताळीसनी सत्ता रहे छे. अनिवृत्ति बादरने पेहेला भाग तांइ. अनिवृत्ति बादरना नव भाग छे. ॥२७॥ थावरतिरिनिरयायव-दुगथीणतिगेगविगलसाहार। सोलखओदुवीससयं, बियंमि बियतिअकसायं तो।२८।
अर्थ-हवे अनिवृत्तिबादरनो बीजो भाग कहे छेथावर १, सूक्ष्म १, तिर्यंचगति १, तियेचानुपूर्वि १, नरकगति १, नरकानुपूर्वि १, आताप १, उद्योत १, निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, थीणद्धी १, एकेंद्री जाति १, बेंद्री १, तेंद्री १, चौरेंद्री १, साधारण १, ए सोळ प्रकृति सत्तामे खपे; तिवारे एकसो बावीस १२२ नी सत्ता छे; ए अनिवृत्ति बादरने बीजे भागे १२२ नी सत्ता छे. हवे त्रीजे भागे कषायनी बीजी चोकडी अप्रत्याख्यान क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४. प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ. ए ८ आठ काढीजे. ॥ २८ ॥ तइआइसु चउदसतेरबारछपणचउतिहिअसयकमसो। नपुइथिहासछगपुंस उरिअकोहमयमायखओ॥२९॥'
अर्थ-तिबारे अनिवृत्तिबादरने बीजे भागे ११४ एकसो
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
चौदनी सत्ता छे. अनिवृत्तिकरणे चोथे भागे नपुंसकवेद खपे; तिवारे एकसो तेर ११३ नी सत्ता छे. पांचमे भागे स्त्रीवेद खपावे; तिवारे ११२ एकसो बारनी सत्ता छे. छठे भागे हास्य १, रति १, अरति १, शोक १, भय १, दुगंछा १, ए छ प्रकृति खपावे; तिवारे एकसो छ ६ नी सत्ता छे. सातमे भागे पुरुषवेद खपावे तिवारे एकसो पांच १०५ नी सत्ता छे. आठमे भागे संजलनो क्रोध खपावे; तिवारे एकसो च्यार १०४ नी सत्ता छे. नवमे भागे संजलनो मान खपावे; तिवारे एकसो तीननी सत्ता छे. ए नवमो गुणठाणो पूरो कह्यो पछी संजलनी माया खपावे तिवारे. २९ सुहुमि दुसयलोहं तो, खीणदुचरिमेगसयदुनिदखओ। नवनवइ चरमसमये, चउदसणनाणविग्धं तो॥३०॥
अर्थ-दशमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे एकसो दोय १०२ नी सत्ता छे. इहां क्षपकश्रेणि दशमे गुणठाणेथी बारमे गुणठाणे जाय. इग्यारमो न फरसे तिवारे बारमे गुणठाणे संजलनो लोभ खपावे; तिवारे क्षीणमोहने पेहेले भागे एकसो एक १०१ नी सत्ता छे. तिहां वळी निद्रा १, प्रचला १, ए दोय २, प्रकृति खपावे; तिवारे क्षीणमोहने बीजे भागे नवाणुं ९९ नी सत्ता छे. हवे दर्शनावरणी च्यार ४, ज्ञानावरणी पांच, ए चौदे प्रकृति खपावे तिवारे. ३० पणसीइ सयोगी अयोगि, दुचरिमेदेवखगइगंधदुर्ग। फासट्ठवण्णरसतणु-बंधणसंघायपणनिमिणं ॥३१॥
अर्थ-तेरमे सजोगी केवळी गुणठाणे पंच्यासी ८५ नी
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
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सत्ता छे. हवे अजोगी चौदमे गुणठाणाने पेहेले भागे तो पंचासी ८५ नी सत्ता छे. अने बीजे भागे बिहुतर खपावे ते कहे छे-देवदुग देवगति १, देवानुपूर्वि १. खगइदुग-शुभविहायोगति १, अशुभविहायोगति २, गंधदुगं-सुगंध १, दुगंध २, फास-फरस आठ ८, वर्ण पांच ५, रस पांच ५, शरीर पांच ५, संघातन ५, पांच अने निर्माण नाम कर्म ॥३१॥ संघयणअथिरसंठाणछक्कअगुरुलहुचउअपजत्तं । सायं च असायं वा, परित्तूवंगतिगसुसरनीयं ॥३२॥ ___ अर्थ-संघयण छ ६, अथिर १, अशुभ १, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, अजस ए अथिर छ ६. संस्थान छ ६, समचउरसादि छ. अगुरुलधु १, पराघात १, उपघात १, उसास १, अपर्याप्त १, साता अथवा असाता एक प्रत्येकतिग. उपांगतीन औदारिक उपांग १, वैक्रिय उपांग २, आहा
एक उपांग ३. सुस्वरनामकर्म १, नीचैर्गोत्र ॥३२॥ बिसयरिखओअचरिमे, तेरसमणुअतसतिगजसाइज । सुभगजिणुच्चपणिंदिय-सायासायेगयरछेओ ॥३३॥
अर्थ-ए बहोत्तेर ७२ प्रकृति खपावे; तिवारे अजोगी केवळीने छेहेले भागे तेर प्रकृतिनी १३ नी सत्ता छे, ते तेर १३ प्रकृतिनां नाम कहे छे-मनुष्यगति १, मनुष्य आनुपूर्वि २, मनुष्य आउखो १, बस १, बादर १, पर्याप्त १, आदेय १, सुभग १, जिनतीर्थकर १, उच्चैर्गोत्र १, पंचेंद्रीनी जाति १, साता असाता मांहेली एक प्रकृति जे रही होय ते पण ए तेरे छल्ले समये खपावी मोक्ष पामे. ॥३३॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः नरअणुपुविविणावा, बारसचरमसमयम्मि जो खविओ पत्तो सिद्धिं देविंद-वंदिअं नमह तं वीरं ॥३४॥ ... अर्थ-हवे मतान्तर कहे छे. मनुष्य आनुपूर्वि पहेलाइज काढीजे; तिवारे बाकी बार ज रहे ते चरमसमये खपावे जिवारे सर्व कर्म खपावी मोक्ष पहोचे, अकर्मा थइ सिद्ध मोक्षगति पहोचे एहवा श्रीमहावीरस्वामी इणि अनुक्रमे मोक्ष पहोत्या. देवेन्द्र महाराजा अने देवेन्द्रसूरि आचार्य नम्यो एहवा महावीर भणी वांदं छं. ॥३४॥
इति श्रीद्वितीयकर्मग्रन्थटबार्थ समाप्त ॥२॥
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ॐ नमः सिद्धम्। अथ तृतीयः कर्मग्रंथः
बंधविहाणविमुकं, वंदिअ सिरिवद्धमाणजिणचंदं। गईआइसु वुच्छं, समासओ बंधसामित्तं ॥१॥ ___अर्थ-बंधकर्मनो बंधनिकेरो विधान कहेतां करणो तिणयी रहित एहवा श्रीमहावीर भगवंत जिन सामान्यकेवलीमें चंद्रमा समान तेहने वांदीने गति आदिक ६२ बासठ मार्गणा विषे संक्षेपे करी बंधस्वामित्व-कोण जीव कितरी प्रकृति बांधे ते कहेशुं. ॥१॥ हवे बासठ ६२ मार्गणानां नाम कहे छे. गईइंदियेकाएं, जोएँ वेएँ कसायनाणे अ। संजमदंसंणलेसा, भवसम्मे सन्निआहोरे ॥२॥
अर्थ--गति ४, इंद्रिय ५, पृथ्वीआदिकाय ६, योग ३, मनयोग १, वचनयोग २, काययोग ३. वेद ३, पुरुष १, स्त्री २, नपुंसकवेद ३, कषाय ४. क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४. ज्ञान ८. मतिज्ञान १, श्रुतज्ञान २, अवधिज्ञान ३, मनःपर्यवज्ञान ४, केवलज्ञान ५, मतिअज्ञान ६, श्रुतअज्ञान ७, विभंगज्ञान ८. संजम ७. दर्शन ४, लेश्या ६, भव्य १, अभव्य २, सम्यक्त्व ६, संज्ञी १, असंज्ञी २, आहारक १, अनाहारक २. ॥२॥ जिणेसुरविउवोहारदुं, देवायुनिरयसुहुँमविगैलतिगं । एगिर्दिथावरी यवं, नपुंमिच्छं हुंडंछेवढें ॥३॥
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६३० कर्मग्रन्थस्य ट्वार्थ __ अर्थ-हवे पहेली नरकगति मार्गणाए बंधस्वामित्व कहे छे-जिनतीर्थकर नाम १, देवगति १, देवानुपूर्वि २, वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय उपांग २, आहारक शरीर १, आहारक उपांग २, देवतानो आउखो १, नरकगति १, नरकानुपूर्वि २, नरकआयु ३, सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्म १, अपर्याप्त २, साधारण ३, विगलतिग-बेंद्री १, तेंद्री २, चौरेंद्री ३, एकेंद्रीजाति १, थावरनामकर्म १, आतापनामकर्म १, नपुंसकवेद १, मिथ्यात्वमोहनी १, हुंडकसंस्थान १, छेवठ्ठो संघयण १. ॥३॥ अणमझाँगिइसंघयण-कुर्लगइनीइत्थेिदुहगंथीण
तिगं। उज्जोयतिरिढुंग, तिरिनराउनरंउरेलदुगरिसंहं ॥४॥
अर्थ-अनंतानुबंधि क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४. मध्यसंस्थान ४. न्यग्रोध १, सादि २, वामन ३, कुब्ज ४. मध्यसंघयण ४, ऋषभनाराच १, नाराच २, अर्द्धनाराच ३, कीलिका ४, अशुभविहायोगति १, नीचगोत्र १, स्त्रीवेद १, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, निद्रानिद्रा १, प्रचलामचला १, वीणद्धी १, उद्योत १, तिर्यंचगति १, तिथंचानुपूर्वि १, तिर्यंच आउखो १, मनुष्यआउखो १, मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वि २, औदारिक शरीर १, औदारिक उपांग २,वज्रऋषभनाराचसंघयण १, ए दोय गाथाए करी पंचावन प्रकृति ५५ कही. ॥४॥ सुरइगुणवीसेवजं इगसओ ओहेणबंधहिंनिरया। तित्थविणा मिच्छिंसयं, सासणनपुचउँविणा छनुई।५।
अर्थ-सुरगति आदिक ओगणीस १९ प्रकृति काढीजे
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
६३१.
देवगति १, देवानुपूर्व २. वैक्रिय २, आहारक २ देवायु १, नरकत्रिक ३, सूक्ष्मत्रिक ३, विगलत्रिंक ३, एकेंद्रि १, थावर १, आताप १. ए १९ काढीजे. एकसोवीसमांथी १९ काढीये; त्यारे १०१. पेहेली तीन नरकमे एकसो एकनो ओघ - सामान्ये बंध छे. जे पूर्वे कहीजे १९ प्रकृति, तिणमे नारकी न उपजे, तिणमे एकसो एक तीर्थकरनाम काढीजे; तिवारे मिथ्यात्वगुणठाणे १०० एकसो प्रकृतिनो बंध छे. तिणमांहिथी नपुंसकवेद १, मिथ्यात्व १, हुंडक संस्थान १, छेवठो संघयण १, ए च्यार काढीजे; तिवारे सास्वादन गुणठाणे छन्नु ९६ प्रकृति बांधे ॥ ५ ॥ हवे वळी तेमांहीयी.
विणुअणछवीसँमीसे, बिसयरि सम्मम्मिं जिर्णनराउं
जुआ ।
१००९६७०७१
इयरयणाइसुभंगा, पंकाइसुं तित्थयरैहीणो ॥ ६ ॥
अर्थ - - अनंतानुबंधि ४, मध्यसंस्थान ४, मध्यसंवयण ४, अशुभ विहायोगति १, नीचगोत्र १, स्त्रीवेद १, दुर्भग १, श्रीणी ३, उद्योत १, तिर्यंच ३, मनुष्यनो आउखो १, ए छवी काढीजे; त्यारे मिश्रगुणठाणे ७० सीत्तेरनो बंध छे; इणमांहे तीर्थकर १, मनुष्यनो आउखो १, ए दोय प्रकृति भेळीजे; तिवारे अविरतिगुणठाणे ७२ बहोत्तरनो बंध छे. नारकीमे ४, च्यार गुणठाणां छे. ए ४ गुणठाणां रत्नप्रभा १, शर्क रा प्रभा २, वालुप्रभा ३, ए त्रण तांइ जाणवां. पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा ए तीन नरके ओघ सामान्यमांथी तीर्थकरनाम काढीजे. त्यारे सोनो ओघ छे. इतले इणे नरकनो
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६३२
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
आव्यो तीर्थकरने थाय. मिथ्यात्वगुणठाणे सो १०० । प्रकृतिनो बंध छे. सास्वादनमे ९६, मिश्रमे ७०, समकितमे ७१, एक मनुष्यनो आयु भेळीजे. ॥६॥ अजिणेमणुआउ ओहे ,सत्तमिए नरदुच्चविणुमिच्छे। इगनवई सासाणे, तिरिआउँ नपुंसँचउवजं ॥७॥ ___ अर्थ-सातमी नरके ओघमांहेथी जिननाम १, मनुष्यनो आउखो १, ए दोय काढीजे; तिवारे सातमी नरके ओघे नवाणुं ९९ नो बंध छे. अने मिथ्यात्वगुणठाणे मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वि १, उच्चगोत्र १, ए ३ तीन काढीजे; तिवारे मिथ्यात्वगुणठाणे ९६ छन्नुनो बंध छे. सास्वादन गुणठाणे एकागुनो बंध छे. पांच प्रकृति काढीजे. तियंचनो आउखो १, नपुंसकवेद १, मिथ्यात्व १, टुंडकसंस्थान १, छेवठोसंघयण १, ए पांच वर्जीजे-काढीजे एटले ९१. ॥ ७ ॥ अणचउवीसविरहिया, सनरदुर्गुच्चार्य संयरि मीसदुगे। सत्तरसओओहेमिच्छे, पजतिरियाविणजिणाहौरंट
अर्थ-अनंतानुबंधी ४, मध्यसंस्थान ४, मध्यसंघयण ४, अशुभविहायोगति १, नीचगोत्र १, स्त्रीवेद १, दुर्भग ३, थीणद्वी ३, उद्योत १, तिर्यंचगति १, तिर्यचआनुपूर्वि १, ए चोवीस २४ काढीजे अने मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वि १, उंचगोत्र १, ए तीन भेळीजे; तिवारे मिश्रगुणठाणे ७० नो बंध छे, इतले नरकगति कही छे. पर्याप्ततिर्यंचने ओघे-सामान्ये एकसो सत्तर ११७, अने मिथ्यात्वगुणठाणे ११७ नो बंध छे केमके तीर्थकरनाम १, आहारक शरीर २, आहारक उपांग ३, ए त्रण काढीजे. तियंचगतिमे ए ३ नो, बंध नहीं. ॥८॥
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कर्मग्रन्थस्य Eate:
विणु निरयसोल सासणि सुराउ अणएगतीस
विणु मीसे । ससुराउ सरि सम्मे, बीअकसाए विर्णी देसे ॥९॥
>
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६३३
अर्थ - नरकादि १६ सोले काढीजे - नरक ३, जाति ४, थावर ४, हुंडक १, आताप १, छेवठो संघेण १, नपुंसकवेद १, मिथ्यात्वमोहनी १. ए १६ विना सास्वादन गुणठाणे १०१ नो बंध छे. देवतानो आउखो १, अनंतानुबंधी ४, मध्यसंस्थान ४, मध्यसंघेण ४, अशुभविहायोगति १, नीचगोत्र १, स्त्रीवेद १, दुर्भगत्रिक ३, थीणद्धी ३, उद्योत १, तिर्यच ३, मनुष्य ३, औदारिक २, वज्र ऋषभनाराचसंघेण १, एबीस ३२. (टबामां ४२ लखी छे ) काढीजे. तिवारे मिश्र गुणठाणे गुणहत्तर ६९ नो बंध छे. वळी देवतानो आउखो भेळीजे; तिवारे समकीत गुणठाणे ७० सीतेर प्रकृतिनो बंध छे. वळी अप्रत्याख्यानी ४ काढीजे; तिवारे देशविरति गुणठाणे ६६ छासठ प्रकृतिनो बंध छे. ए तिर्यंचगति कही. ॥ ९ ॥ इअ चगुणेसु वि नरा, परमजया सजिण आहे 'देसा जिण इक्कारसहीणं, नवसय अपज्जत्त तिरिअन ॥१०॥
१२०१
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अर्थ -- ए च्यार गुणठाण पेहेला मनुष्यगतिने, तिर्यंचगतिने समान जाणवां, परं एटलो विशेष छे जे ओघ सामान्ये सर्व छे. चोथे गुणठाणे जिननाम १ भेळीजे; इतले सामान्ये १२० एकसोवीस छे. मिथ्यात्वे ११७ एकसो सतरे बंध छे. सास्वादने १०१ एकसो एक छे. मिश्रे गुणहत्तर ६९ नो बंध छे. समकीते ७० सीत्येर छे. देसविरते ६७, प्रमत्ते ६३ छे. इम १४
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६३४
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
गुणठाणे जाणवो. बीजा कर्मग्रंथथी यथायोग्य लेवो. अने अपर्याप्तातिर्यंचने अने अपर्याप्ता मनुष्यने १०९ एकसो नवनो सामान्ये बंध छे. जिणादि ११ प्रकृतिनो बंध नहि - जिन १, सुर २, वेद २, वैकिय २, आहारक २, देवतानो आउखो १, नरकत्रिक ३, ए इग्यारे ११ नहीं. ए तिर्येच मनुष्य अपर्यावस्था में मरण पाने तेने मिथ्यात्व गुणठाणु होय. ॥ १० ॥ निरयव सुरा नवरं, ओहे मिच्छे इगिंदितिगसहिया । कप्पदुगेवि अ एवं, जिणहीणो जोइ भवणवणे ॥११॥
अर्थ -- जिम नारकीमे एकसो एक तिके देवताने पिण जाणवी, पिण सामान्यमें अने मिथ्यात्व गुणठाणे एकेंद्री १, थावर १, आताप १. ए तीन भेळीजे; तिवारे ओघे १०४ एकसो च्यारनो छे. मिथ्यात्वमें जिननाम काढीजे; तिवारे १०३ एकसो तीननो बंध छे. सास्वादने ९६, मिश्रे ७०, समकीते ७३, दोय पेहेले देवलोके सौधर्म इशान तांइ जाणवो अने ज्योतिषी, भवनपति, व्यंतर. एहने जिननामनो ओघ नहीं; तिवारे १०३, सामान्ये मिथ्यात्वे छे. सास्वादने ९६, मिश्र सित्तेर ७०, समकीते ७१ इकोत्तर जाणवी ॥११॥ रयणुन सणकुमाराईं, आणयाइउज्जोअचउरहिआ। अपज्जतिरिअवनवसय मिगिंदिपुढविजलतरुविगले १२
अर्थ -- सनत्कुमारसुं सहस्रार तांइ ए ६ देवलोक तांइ रत्न प्रभानरकनी पेरे एकसो एक सामान्ये सो १०० मिथ्यात्वे, ९६ सास्वादने अने मिश्रे ७०, तथा समकीतमे ७२ जागवी. आनतसुं उपरला प्यार देवलोक, नव ग्रैवेयक, पंचानुत्तरविमान
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MARAA-MA..-rahan
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः एहने-उद्योत १,तिर्यंचगति १, तिर्यचआनुपूर्वि १, तिर्यच आउखो ए ४ काढीजे; तिवारे सताणु ९७ वेरो सामान्य छे. ९६ मिथ्यात्वे छे.बाएं सास्वादने, सितेर मिश्र गुणठाणे, ७२ समकीत गुणठाणे, जिम अपर्याप्तें तिर्यचमे १०९ एकसो नव प्र० नो बंध सामान्ये अने मिथ्यात्वे कह्यो. तिमहीज एकसो नव प्रकृतिनो बंध १०९ नो बंध एकेन्द्री मार्गणा १, पृथ्वीकाय मार्गणा अप्काय मार्गणा, वनस्पतिकाय मार्गणा, बेंगी मार्गणा, तेंद्री मार्गणा, चौरेंद्री मार्गणा. इतली मार्गणामें एकसो नवनो सामान्य छे. एकसो नव मिथ्यात्वमें जाणवी. ॥ १२ ॥ छनवइ सासणि विणुसुहुमतेरकेइपुणबितिचउनवइ। तिरिअनराउहि विणा, तणुपज्जत्तिं न जंति जओ १३
अर्थ-सास्वादन गुणठाणे छन्नुनो ९६बंध छे. सूक्ष्मादिक तेरे काढीजे-सूक्ष्म ३, विगल ३, एकेन्द्री १, थावर १, आताप १, नपुं १, मिथ्यात्व १, हुंडक १, छेवठो १. ए १३ काढीजे. कोइक आचारज सास्वादन गुणठाणे ९४ चोराणुं कहे छे. तिरजंच मनुष्यनो आउखो ए बे काढीजे जे कांइ एकेन्द्रि, बेंद्री, तेंद्री चौरेन्द्री जीव सास्वादन गुणठाणे पूर्व भवथी लीधां आवे छे, ते आहारपर्याप्त तांइज सास्वादन भावमें वरते पछी शरीर पर्याप्त. मिथ्यात्व गुणठाणामें करे तेणे आउखो कोइ न बांधे तिणे सास्वादनमें चोराणुंनो बंध कहेवो. ॥१३॥ ओहुपणिदितैसे गइ, तसे जिणिकार नरतिगुच्चविणा। मणवयंजोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से ॥१४॥
अर्थ-पंचेन्द्रि मार्गणा त्रसकाय मार्गणाने ओघे सास्वाद
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६३६
कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
ननी पेरे १४ गुणठाणे बीजे कर्मग्रंथ मे कह्या तिम जाणवा. एकसोवीसनो बंध कह्यो छे. गतित्रस ते तेउकाय, वायुकायमें जिणादि ११ इग्यार काढीजे. जिन १, देव २, वैकिय २, आहारक २, देवतानो आउखो १, नरक ३. ए ११. पछी मनुष्य ३, उच्चगोत्र १. एम १५ काढवी; तिवारे ओघे मिथ्यात्वे एकसो पांच १०५ नो बंध छे. एहनो गुणठाणो एक छे. मनोयोग १, वचनयोगमें १३ गुणठाणा १२० बंध बीजा कर्म ग्रंथने परे जाणवी. औदारिक शरीरमें मनुष्यगतिनी पेरे जाणवी. एकसोवीस ओघे ११७ मिथ्यात्वे, १०१ सास्वादने, ६९ मिश्र, ७१ समकिते. इम १३ तेर गुणठाणे जाणवो. ॥१४॥ आहारछगविणोहे, चउदससे मिच्छि जिणपणग
होणं । सासणि चउनवइ विणा, नरतिरिआऊ सुहुमतेर॥१५॥
अर्थ - आहारक मिश्रकाय योगमें आहारक २, देवआउखो १, नरक २, ए छ काढीजे; तिवारे ११४ एकसो चौदे ओच सामान्ये छे अने मिथ्यात्व गुणठाणे जिननाम १, देव २, वैकिय २, ए पांच काढीजे; तिवारे १०९ नो बंध मिथ्यात्व गुणठाणे छे. सास्वादन गुणठाणे चोराणुंनो बंध छे. सूक्ष्म ३, विगल ३, एकेन्द्री १, थावर १, आताप १, नपुंसकवेद १, मिथ्यात्व १, ढुंडक १, छेवठो १, एवं १३. मनुष्य तिर्यचनो आउखो. ए १५ पनरे काढीजे. ॥१५॥ अणचउवीसाइ विणा, जिणपणजुअसम्मि जोगिणो
सायं । विणु तिरिनराउ कम्मे वि एवमाहारदुगि ओहो ॥ १६॥
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कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः
६३७
अर्थ - अनंतानुबंधी ४, मध्यसंघेण ४, कुखगति १, नीच गोत्र १, स्त्रीवेद १, दुर्भगत्रिक ३, थीणद्धीत्रिक ३, उद्योत १, तिर्यंच २, ए चोवीस काढीजे अने जिननाम १, देव २, वैक्रिय २ ए पांच भेळीजे; तिवारे ७५ बंध छे. समकित गुणठाणे छे. औदारिक मिश्रमें मिश्र गुणठाणो नहीं अने चोथे सुं पाछला १२, बारतांइ गुणठाणां नहीं अने १३ समुद्घात करतो छे, जिम औदारिक मिश्र तिमहीज कार्मण शरीरमें जाणवो. तिर्जच मनुष्यनो आउखो सामान्यमें काढीजे; तिवारे एकसो ११२ बारनो सामान्य छे. एकसो सात मिथ्यात्वे, ९४ सास्वादने, पंचहत्तर समकित एक सयोगी केवळीमे जाणवो. आहारक शरीर १, आहारक मिश्रमें छट्ठे गुणठाणे ते साठ ६० प्रकृतिनो बंध छे, त्यां एक छठ्ठो गुणठाणो छे. ॥१६॥ सुरओहो वेवे, तिरिअनराउरहिओ अ तम्मिस्से । वे अतिगाइम बिअतिअ - कसायनवदुचउपंचगुणा | १७ |
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अर्थ- जे देवतानो ओघ कह्यो ते वैक्रिय शरीरमे जाणो. एकसो १०४ च्यारनो ओघ छे. वैक्रिय मिश्रमें तिर्यच मनुयनो आउखो काढीजे; तिवारे १०२ एकसोबेना ओघ छे. गुणठाणा मिध्यात्व, सास्वादन, अविरत समकित ए तीन छे. वेद तीन मार्गणामे नव गुणठाणे छे. आदिम चोकडी अनंतातुबंधी कषाय ४ च्यारमें दोय गुणठाणा छे, बीजी चोकडी अप्रत्याख्यानी कषाय व्यारमे घुरला च्यारमें घुरला ४ च्यार गुणठाणा छे, त्रीजी चोकडी प्रत्याख्यानी कषाय ध्यारमें घुरला पांच गुणठाणा छे. इहां बंधनो ओघ गुणठाणा जिम जाणवो. वेद ३ मे १२० बंधे, अनंतानुबंधीमे ११७ बंधे, पछी अप्रत्या
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कर्मग्रन्थस्य. टबार्थः
ख्यानीमे ११८ नो ओघे बंध छे. गुणठाणा पूर्वलीपेरे जाणवां. ॥ १७ ॥ संजलणतिगेनव दस, लोहे चउअजइदुतिअनाणतिगे बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहक्खायचरमचऊ १८
अर्थ--संजलना क्रोध १, मान २, माया ३, ए त्रणमे नव गुणठाणा धुरला. ओघे १२० प्रकृति बीजो सर्व बीजा कर्मग्रंथनी पेरे जाणवो. संजलना लोभमें दस गुणठाणा धुरलां छे. अविरति मार्गणामे च्यार ४ गुणठाणा छे. ओचे ११८ मिथ्यात्वमे अज्ञान ३ मे गुणठाणा धुरला दोय अथवा तीन छे. अचक्षुदर्शनमे चक्षुदर्शनमें १२ धुरलां बार गुणठाणा छे. यथाख्यात चारित्रमे इग्यार ११ मो, १२ बारमो, १३ मो तेरमो, १४ चौदमो. ए ४ च्यार गुणठाणा छे. बंध एक सातानो छे. ॥१८॥ मणनाणीसग जयाइ, समइअछेअचउदुनिपरिहारे। केवलदुगि दोचरिमा, जयाइनवमइसुओहिदुगे ॥१९॥
अर्थ--मनःपर्यायज्ञानमें सात गुणठाणे जातां प्रथम गु. णठाणासु मांडी १२ तांई ओव ६५ पांसठनो छे. छठे बंध त्रेसठ ६३ नो छे. एवं सामायिक छेदोपस्थापनीय चारित्रमें छठो, सातमो, आठमो, नवमो. ए ४ च्यार गुणठाणा छे. परिहारविशुद्धि चारित्रमें छठो, सातमो दोय गुणठाणा छे. केवलज्ञान केवलदर्शनमें तेरमो, चौदमो ए दोय गुणठाणा छे. बंध एक सातावेदनीनो छे. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवविदर्शन मार्गणामे अजती चोयो अविरत गुणठाणासु मांडी १२ मो क्षीणमोहतांइ नव गुणठाणा छे. ॥ १९ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः अड उवसमि चउ वेअगि, खइए इक्कारमिच्छतिगिदेसे सुहुमि सहाणं तेरस,आहारगि निअनिअगुणोहो॥२०॥ _____ अर्थ-उपशमसमकितमे चोथेयी मांडी इग्यार ११ मा तांइ आठ ८ गुणठाणा छे, क्षयोपशम समकितमे चोथेथी मांडी सातमालगे च्यार गुणठाणा छे, क्षायकसमकितमें चोथेथी मांडी चौदमा ताइ इग्यार ११ गुणठाणा छे. मिथ्यात्वमार्णणामे एक मिथ्यात्व गुणठाणो छे. सास्वादन मार्गणामे सास्वादन गुणठाणो छे. मिश्रमार्गणाए मिश्रगुणठाणो छे. देसविरति मार्गणाए देसविरति गुणठाणो छे. सूक्ष्मसंपरायमार्गणाए सूक्ष्मसंपराय गुणठाणो छे. त्यां बंधप्रकृति गुणठाणा प्रमाणे जाणवी. आहारकमार्गणाए अयोगीकेवळी टाळी तेरे गुणठाणा छे. प्रकृति ओघ सर्व गुणठाणानी, जेम बीजे कर्मग्रंथमे कह्यो, तिम जाणवो. ॥ २० ॥ परमुवसमि वहता, आऊ न बंधंति तेण अजयगुणे। देवमणुआउहीणो, देसाइसु पुणसुराउविणा ॥२१॥
अर्थ हवे उपशमसमकीतमे जे फेर छे ते कहे छेजे जीव उपशम समकितमे वरते छे, ते जीव आउखो कोई न बांधे तिणे ओघे पंचहुत्तर ७५ नो जाणवो. जे अविरत गुणठाणे सत्तहत्तर ७७ हती, पिण देवतानो मनुष्यनो आउखो ए दोय प्रकृति टाळी; तिवारें पंचहत्तर ७५ रही अने देसविरति गुणठाणे देवतानो आउखो काढ्यो; तिवारे छासठि रही. प्रमत्ते बासठि, अप्रमत्ते अठावन्न. एवं सर्वत्र जाणवो. ॥ २१ ॥
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arrrrr care:
आहे अट्ठारसयं, आहारदुगूणमाइलेसतिगे । तं तित्थोणं मिच्छे, सासणासु सबहिं ओहो ॥ २२॥
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अर्थ -- ओघे - सामान्ये ११८ एकसो अढार प्रकृति छे. आहारक दोय काढीजे; तिवारे ११८ एकसो अढारेनो बंध छे. तीन लेश्या कृष्ण, नील, कापोतमे तीनमे तीर्थकर नाम काढीजे; तिवारे मिथ्यात्वमे एकसोसत्तर ११७ नो बंध छे, सास्वादन प्रमुखमे बीजे कर्मग्रंथमे कह्यो तिम जाणवो. ॥ २२ ॥ तेऊ निरयनवूणा, उज्जोअचड़निरयबारविणुसुक्का । विणु निरयवारपम्हा, अजिणाहारा इमा मिच्छे ॥ २३ ॥
अर्थ - तेजोलेश्यामे नरक ३, सूक्ष्म ३, विककेंद्री ३, ए ९ नव काढीजे; तिवारे एकसो १११ इग्यारनो बंध छे. उद्योत १, तिर्यंच ३, ए च्यार ४. नरक ३, सूक्ष्म ३, विगल ३, एकेंद्री १, थावर १, आताप १, ए १२ मळीने १६ काढीजे; तिवारे शुकुलेश्यामे १०४ एकसो च्यारनो बंध छे. अने नरकादिक १२ काढीजे; तिवारे पद्मलेश्यामे एकसो आठ १०८ नो बंध छे, ए तीने लेश्यामे जिननाम १, आहारक २, ए तीन काढीजे. मिथ्यात्वमे १०८, तेजोमे १११ एकसो इग्यार शुक्लमे १०४, पद्ममे १०८ जाणवो ॥ २३ ॥ सर्व्वगुणभवसन्निसु, ओहुअभवाअसान्न मिच्छसमा । सासणि असन्नि सन्निव, कम्मणभंगो अणाहारे ॥२४॥
अर्थ - भव्यमार्गणामे, संज्ञीमार्गणामे सर्व गुणठाणा छे. बीजा कग्रंथनी पेरे बंधप्रकृति जाणवी. अभव्यमार्गणामे एक गुण
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
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ठाणो प्रकृति ११७ बंध छे. असंज्ञीमार्गणामें मिथ्यात्वमें ११७ नो बंध छे. सास्वादन गुणठाणे १०१ नो बंध छे. जिम संज्ञीनो को तिम जाणवो. अनाहारकमार्गणामें कार्मणशरीरनी परे जाणवो. ११२ सामान्ये, ११७ मिथ्यात्वे, ९४ सास्वादने, ७५ समकित मे. तेरमे एकसाता १, अयोगिमे अबंध छे. ॥२४॥ तिसु दुसु सुकाइगुणा, चउसगतेरत्ति बंधसामित्तं । देविंदसूरिरइयं लिहियं, नेयं कम्मत्थयं सोउं ॥ २५ ॥
81
अर्थ - कृष्ण १, नील २, कापोत ३, ए तीन लेइयामे पहेला ४ च्यार गुणठाणा छे, तेजोलेश्या, पद्मलेश्यामे पहेला सात ७ गुणठाणा छे. शुक्कुलेश्यामे एक तेरमु १३ मुं गुणठाणुं छे. अयोगीगुणठाणे नहीं. ए बंधस्वामित्व बीजो कर्मग्रंथ पूरो थयो देवेन्द्रसूरि आचायें लिख्यो छे. कर्म्मस्तव बीजो कर्मग्रंथ भने पछी बीजो भणवो ॥ २५ ॥
इति तृतीयकर्म्मग्रन्थ वार्थसमेत समाप्त ॥३॥
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दिई
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ॐ नमः सिद्धम्। अथ चतुर्थः कर्मग्रंथः
___॥ आर्यावृत्तम् ॥ नमिअजिणं जियमग्गण-गुणठाणुवओगजोगलेसाओ। बंधप्पबहुभावे, संखिज्जाइ किमवि वुच्छं ॥१॥ .. अर्थनमस्कार करी जिन वीतराग देव प्रत्ये ते स्या भणी जे अबोधजीवने बुझव्या. जीवना १४ भेद छे, मार्गणाना ६२ बासठ भेद छे, गुणठाणां १४ चौद, उपयोग १२, योग १५ पंन्नर, लेश्या ते छ ६ छे, बंधादिक च्यार ४, बंधहेतु ५७, अल्पबहुत्व, भाव मूळ पांच, उत्तरभेदें ५३, संख्यातो, असंख्यातो, अनंतो ए बोल विस्तारीने कहेश्युं ते कई छ. ॥१॥ नमिअजिणं वत्तवा, चउदसजिअठाणएसु गुणठाणा। जोगुवओगो लेसा, बंधोदओदीरणासत्ता ॥
. पाठान्तरम् । चउदसजिअठाणेसु, चउदसगुणठाणाणि जोगा य। उवओगलेसबंधो-दओदोरणसंतअट्ठपए ॥२॥ तह मूलचउदमग्गण-ठाणेसु बासहिउत्तरेसु च। जिअगुणजोगुवओगा, लेसप्पबहुं च छठाणा ॥
पाठान्तरम ।। चउदसमग्गणठाणे-सु मूलपएसु बिसष्टि इयरेसु । जिअगुणजोगवओगा, लेसप्पबहुत्त छठाणा ॥३॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः चउदसगुणेसु जिअजो-गुवओगलेसा य बंधहेऊ य। बंधाइअचउअप्पा बहुं, च तो भावसंखाई ॥
पाठान्तरम् । चउदसगुणठाणेसु, जिअजोगुवओगलेस्सबंधा य। बंधुदयुदीरणाओ,संतप्प बहुत्तदसट्ठाणा दारगाहाओ४
हवे पेहेला जीवना चौद भेद कहे छे. इह सुहुमबायरेगिंदि, बितिचउ असन्नीपंचिंदी। अपजत्ता पजत्ता, कमेण चउदस जियठाणा॥५॥
अर्थ-सूक्ष्म एकेन्द्रिय ए एक भेद १, बादर एकेंद्रिय ए बीजो भेद २, बेंद्री ३, तेंद्री ४, चौरेंद्री ५, असंज्ञी पंचेन्द्री ६, संज्ञी पंचेन्द्री ए सात ७ पर्याप्ता, अने ए ७ सात अपर्याप्ता ए अनुक्रमे संसारी जीवनां १४ चौद स्थानक जाणवां.॥५॥ ___ हवे चौदे जीवस्थानके गुणठाणां कहे छे. बायरअसन्निविगले, अप्पजिपढमविअसन्निअपज्जत्ते। अजयजुअसन्निपजे, सवगुणा मिच्छसेसेसु ॥६॥ ____ अर्थ-बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तो १, असंज्ञी पंचेन्द्री अपर्यातो २, बेंद्री अपर्यातो ३, तेंद्री चौरेंद्री ५, अपर्याप्तो ए पांच जीवस्थानक भेदे पेहेलो मिथ्यात्व १, बीजो सास्वादन २, ए बे गुणठाणा छे अने संज्ञी पंचेन्द्री अपर्याप्तो इण एक जीवस्थानकमें तीन गुणठाणा छे. प्रथम मिथ्यात्व १, सास्वादन २, अने अविरति समकित ३ ए त्रण छे. संज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तामें इणे एक जीवभेदमांहे सर्व १४ गुणठाणा
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कर्मग्रन्थस्य वार्थः
छे. शेष बाकी सूक्ष्म अपर्याप्तो १, सूक्ष्म पर्याप्तो १, बादर एकेन्द्री पर्याप्तो, बेन्द्री पर्याप्तो, तेंन्द्री पर्याप्तो, चौरेन्द्री पर्याप्तो, असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तो, ए जीवस्थानक एक मिथ्यात्व गुणठाणो छे. ॥ ६ ॥
अपज्जत्तछक्की कमुरल, मीसा जोगा अपज्जसन्नीसु । ते सर्व मीसएस, तेणु पज्जेसु उरलमन्ने ॥७॥
अर्थ- हवे १४ जीवस्थानके १५ योग कहे छेसूक्ष्म अपर्याप्तो १, बादर अपर्याप्तो १, बेन्द्री अपर्याप्तो १, तेइंद्री अपर्याप्तो १, चौरेन्द्री अपर्याप्तो १, असंज्ञी पंचेन्द्री अपर्याप्तो ए छ ६. जीवस्थानक में कार्मण १, अने औदारिक मिश्र १. ए वे योग छे. अने संझी पंचेन्द्री अपर्याप्तामें कार्मण १, औदारिकमिश्र २, अने वैक्रियमिश्र ए त्रण ३ योग छे. अने शरीरपर्याप्त कीधां पछी औदारिक काययोग भेळे ए ४ च्यार योग छे. ॥ ७ ॥
सबे सन्निपज्जत्ते, उरलं सुहमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउब्विदुगं, पज्जसन्निस बार उवओगा ||८||
अर्थ - - संज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्ता में सर्व १५ योग छे. सूक्ष्म पर्याप्तामें एक औदारिक योग छे. बेन्द्री पर्याप्तो, तेंन्द्री पर्याप्तो, चौरेन्द्री पर्याप्तो, असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तो, ए च्यार जीवस्थानकमें दोय २, योग छे. औदारिक काययोग १, असत्या अषा वचनयोग २, बादर पर्याप्ता तीन योग के औदारिक १, वैक्रिय २, वैक्रियमिश्र ३, ए तीन योग छे. बादर वायुकाय आश्रीने वैक्रिय छे.
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
हवे जीवस्थामके उपयोग कहे छे. संज्ञीपंचेन्द्रीपर्याप्तामें बारे उपयोग छ १२. पांच ज्ञान, त्रिण अज्ञान, च्यार ४ दर्शन. ए बार उपयोग कया. ॥८॥ पज्जचउरिदिअसन्निसु, दुदंसदुअनाणदससु चक्षु
विणा। सन्नि अपज्जे मणनाण-चक्खुकेवलदुगविहणा ॥९॥ ___ अर्थ-चौरेन्द्री पर्याप्तामें, असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तामें दोय दर्शन, चक्षुदर्शन १, अचक्षुदर्शन २. दोय २ अज्ञान-मतिअज्ञान १, श्रुत अज्ञान २. ए ४ च्यार उपयोग छे. सूक्ष्म पर्याप्तो १, सूक्ष्म अपर्याप्तो२, बादर पर्याप्तो ३, बादर अपर्याप्तो ४, बेन्द्री अपर्याप्तो ५, बैन्द्री पर्याप्तो ६, तेन्द्री अपर्याप्तो ७, तेन्द्री पर्याप्तो ८, चौरेन्द्री अपर्याप्तो ९, संज्ञी अपर्याप्तो १०. ए दस जीवस्थानकभेदमें चक्षुदर्शनविना ३ ण ते मतिअज्ञान १, श्रुतअज्ञान २, अचक्षुदर्शन ए तीन उपयोग छे. संज्ञी पंचेन्द्री अपर्याप्तीने-मनःपर्यवज्ञान १, चक्षुदर्शन १, केवलज्ञान ३, केवलदर्शनं ४, ए च्यार ४ उपयोग नहीं; बाकी त्रण ज्ञान ३, त्रण अज्ञान ३, दोय दर्शन २. ए आठ उपयोग छे. ॥९॥ सन्निदुगिछलेसअप-जबायरे पढमचउतिसेसेसु । सत्तट्ठबंधुदोरण-संतुदया अट्ठ तेरससु ॥ १० ॥
अर्थ-हवे जीवस्थानके लेश्या कहे छे-संज्ञीपंचेन्द्री अपर्याप्तो ए दोयमे ६, छ लेश्या छे, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रीने पहेली च्यार ४ लेश्या छे-कृष्ण १, नील २, कापोत ३, तेजो ५, ए च्यार के. शेष ११, जीवस्थानके तीन लेश्या छे--
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कृष्ण १, नील २, कापोत ३, एवं त्रण ३. हवे संज्ञीसूक्ष्म एकेन्द्रीथी मांडी संज्ञीपंचेन्द्री अपर्याप्तते पर्यंत १३, जीवभेद ताई सातकर्म आउखो न बांधे; तिवारे आठकर्म सहित दोय बंध छे. इम उदीरणा पण सातनी अथवा ८ आठनी ज छे. संज्ञीपर्याप्तामे मूळकर्म आठ बांधे. ॥ १० ॥ सत्तट्ठछेगबंधा, संतुदया सत्त अट्ट चत्तारि । सत्तट्ठछपंचदुर्ग, उदीरणा सन्निपज्जत्ते ॥ ११॥ ____अर्थ-आउखा विना सात बांधे. मोहनी आयु विना छ ६ कर्म बांधे. दशमे गुणठाणे ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, नाम, मोहनीय, अंतरायनो बंध विच्छेद करे माटे ते विना ११ मे १२ बारमे गुणठाणे एक वेदनी कर्म बांधे. संज्ञीपंचेन्द्री पर्यातामे उदय अने सत्ता आठनी, मोहनी कर्म विना सातनी, ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय विना च्यार ४ नी जाणवी. संज्ञीपंचेन्द्रीपर्याप्तामे उदीरणामे आठनी, आउखा विना सातनी, आउखा वेदनी विना छनी, तिणमे मोहनी विना पांचनी, तिणमे ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय कालीजे; तिवारे दोयनी उदीरणा छे. ॥११॥ गइइंदिए अ काए जोए, वेए कसायनाणेसु । संजमदंसणलेसा, भनसम्मे सन्निआहारे॥ १२ ॥ ..अर्थ-हवे १४ मार्गणा मूळ अने उत्तर मार्गणा ६२, तेनां नाम कहे छे-गति ४, इंदिय ५, काय ६, योग ३, वेद ३, कषाय ४, ज्ञान ८, इझां अज्ञानमे लीया ते मार्गणा एकने वारते संयम ७, दर्शन ४, लेश्या ६, भव्य २, समक्रीत ६, सनि २, आहारक २. ए मार्गणानां नाम कह्यां ॥१२॥
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कर्मग्रन्थस्य वार्थः
६४७
सुरनरतिरिनिरयगई, इगबिअतिअचउपणिदि छक्काया। भूजलजलणाऽनिलवण, तसा य मणवयतणुजोगा १३
अर्थ -- हवे गति ४ नां नाम कहे छे – देवगति १, मनुष्यगति २, तिर्यंचगति ३, नरकगति ४. हवे पांच इन्द्री कहे छे- एकेन्द्री १, बेन्द्री २ तेंद्री ३, चौरेन्द्री ४, पंचेन्द्री ५. हवे छकाय कहे छे - पृथ्वीकाय १, अप्काय २, तेउकाय ३, वायुकाय ४, वनस्पतिकाय ५, सकाय ६. तीन योगनां नाम कहे छे - मनोयोग १, वचनयोग २, काययोग ३. ॥ १३ ॥ वेअनरित्थिनपुंसा, कसायकोहमयमायलोभत्ति । मइसुअओहिमणकेवल - विभंगमयसुअ अनाणसा
गारा ॥१४॥
अर्थ- हवे वेद त्रण नाम कहे छे- पुरुषवेद १, स्त्रीवेद २, नपुंसकये ३. ढवे कषाय ४ च्यारना नाम कहे छे-क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४. दवे ज्ञान पांच, अज्ञान त्रण नाम कहे छे. मतिज्ञान १, श्रुतज्ञान २, अवधिज्ञान ३, मनः पर्यवज्ञान ४, केवलज्ञान ५. मतिअज्ञान १, श्रुतअज्ञान २, विभंगज्ञान ३. ए आठ साकारोपयोग-विशेष उपयोग कहीजे. १४ सामाइयछेयपरिहार- सुहुम अहक्खाय दसजयअजया । चख्खू अचरख ओही, केवलदंसण अणागारा ॥ १५॥
अर्थ -- हवे सात संयममार्गणा नाम कहे छे- सामायक १, छेदोपस्थापना २, परिहारविशुद्धि ३, सूक्ष्मसंपराय ४, यथाख्या
.
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कर्मग्रन्थस्य वार्थः
तचारित्र ५, देशविरति ६, अविरति ७. हवे ४ दर्शन नाम कहे छे-चक्षुदर्शन १, अचक्षुदर्शन २, अवधिदर्शन ३, केवल दर्शन ४. ए च्यारे दर्शन अनाकार उपयोग-सामान्य उपयोग छे. ॥ १५ ॥ किण्णहानीलाकाऊ-तेऊपम्हा य सुक भविअरा। वेअगखइगुवसममिच्छमीससासाण सनिअरे ॥१६॥
अर्थ-हवे छ लेश्यानां नाम कहेछे-कृष्ण लेश्या १, नीललेश्या २, कापोतलेश्या ३, तेजोलेश्या ४, पद्मलेश्या ५, शुक्ललेश्या ६. हवे भव्ये नाम कहे छे-भव्य १, अभव्य २. समकीते कहे छे-क्षयोपशम समकीत १, क्षायक समकीत २, उपशम ३, मिथ्यात्व ४, मिश्र ५, सास्वादन ६. संज्ञी १, असंज्ञी २. १६ आहारेअरभेआ, सुरनिरयविभंगमइसुओहिदुगे। समत्ततिगे पम्हा, सुक्कासन्निसु सन्निदुगं ॥ १७ ॥ ____अर्थ-आहारक १, अणाहारक २. ए बासढ़ मार्गणानां नाम कयां. हवे बासठ मार्गणाए १४ भेद कहे छेन्देवगति १, नरकगति २, विभंग अज्ञान ३, मतिज्ञान ४, श्रुतज्ञान ५, अवविज्ञान ६, अवधिदर्शन ५, उपशम ८, क्षायक ९, क्षयोपशम १०, पद्मलेश्या ११, शुक्ललेश्या १२, संज्ञी १३, ए तेर १३ मार्गणा संज्ञीपंपेन्द्री पर्याप्तो अने संज्ञीपंचेन्द्री अपर्याप्तो ए बे जीवस्थानके लाभे बीजा नही. ॥१७॥ तमसन्नि अपजजुअं, नरे सबायरअपजतेऊए । थावरइगिंदि पढमा,चउबार असन्नि दुदु विगल॥१८॥
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कर्मग्रन्थस्य वार्थः
६४९
अर्थ - अने मनुष्यगति मार्गणामें दोय तेहज अने असेझी पंचेद्री अपर्याप्तो भेळीजे तिवारे संज्ञीयंचेंद्री पर्याप्तो १, अपर्याप्तो १, असंज्ञीपंचेन्द्री अपर्याप्तो १, ए तीन जीवमें भेद लाभे छे: मनुष्य असंज्ञी पर्याप्तो न थाय, १४, स्थानके उपजे परं अपर्याप्तोज मरे तिणेतीन जीवभेद का छे. तेजो लेस्यामे संज्ञीपंचेन्द्री पर्याप्तो १, अपर्याप्ते १, ए दोय अने बादर एकेन्द्री अपर्याप्तो १, ए ऋण ३, जीवस्थानक छे, कारणकें देवता मरीने एकेन्द्री आवे तेने अपर्याप्तपणे तेजोलेश्या होय.
थावर पांच पृथ्वी, अप्, तेउ, वाउ, वनस्पतिमे अने एकेन्द्री सूक्ष्म अपर्याप्तो १, पर्याप्तो १, बादर एकेन्द्री पर्याप्तो १, अपर्याप्तो १. ए च्यार ४ जीवनस्थानं लाभे. असंज्ञी मार्गणाए पहेलां १२ बारे जीवस्थान लाभे. बेन्द्री मार्गणा २, पर्याप्तो अपर्याप्ता. तेन्द्रमे तेज दोय, चौरेन्द्रीने तेना तेज दोय जीवस्थान छे. ॥१८॥ दसचरिमत से अजया- हारगतिरिंतणुक सायदुअनाणे ! पढमतिलेसाभविअर-अचक्खु नपुमिच्छवि ॥१९॥
अर्थ - बेंद्री १, तेंद्री १, चौरेन्द्री १, असंज्ञी १, संज्ञी १, ए पांच अपर्याप्ता ए दस जीवस्थानक त्रस्कायमे लागे. अविरति आदि मार्गणा १४, जीवस्थानक कहे छे-अविरति मार्गणामें १, आहारक मार्गणामें २, तिर्यंचगति ३, काययोग ४, कषाय ४ च्यारनी च्यारे मार्गणाए ८, मतिअज्ञान ९, श्रुतअज्ञान १०; प्रथम ऋण लेइया कृष्ण, नील, कापोत १३, भव्य - १४, अभव्य १५, अचक्षुदर्शन मार्गणा ए १६, नपुं
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६५०
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कर्मग्रन्धस्य टवार्थः सक मार्गणा ए १७, मिथ्यात्वमार्गणा १८ अढार मार्गणामे सर्व १४ जीवस्थानक छे. ॥१९॥ पज्जसन्नी केवलदुर्ग, संजममणनाणदेसमणमीसे। पणचरमपजवयणे, तिय छ वपज्जियर चक्खुम्मि २०॥
अर्थ-वळी केवलज्ञान १, केवलदर्शन १, सामायिक १, छेदोपस्थापनीय १, परिहारविशुद्धि १, सूक्ष्मसंपराय १, यथाख्यात १, मनःपर्यवज्ञान १, देशविरति १, मनोयोग १, मिश्रदृष्टि १. ए अगीयार ११ मार्गणामे पर्याप्तो संज्ञी जीवस्थानक ए एकज होय. वचनयोगे छेल्ला पांच पर्याप्ता जीवस्थान लाभे. बेंद्री १, तेंद्री २, चौरेन्द्री ३, संज्ञी ४, असंज्ञी पंचेन्द्री ५. ए पांचने भाषा छे, भाषापर्याप्ति कीधां पछी. चक्षुदर्शनमे त्रण अथवा छ जीवस्थान छे. चौरेन्द्री १, असंज्ञी पंचेन्द्री १, संज्ञी पंचेन्द्री १. ए तीन पर्याप्ता छ; अथवा एज ३ त्रण अपर्याप्ता अने पर्याप्ता ६ पिण जीवस्थान लामे ते पछी चक्षुदर्शनमें १. ॥ २० ॥ थीनरपणिदि चरमा, चउ अणाहारे दुसन्नि छ अपज्जा। ति सुहुमअपज्जविणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं॥२१॥
अर्थ-स्त्री वेदमे १, पुरुष वेदमे १, पंचेन्द्रीमे १, छेहेला ४ च्यार जीवस्थानक छे. असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्ता १, अपप्तिा १, संज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्ता १, अपर्याप्ता १. ए ४ च्यार जीवस्थानक छे. स्त्रीवेद १, पुरुषवेदमें १. संज्ञी पंचेन्द्रीमे न थाय. असंज्ञीमे नपुंसकवेदछे. परं इहां मान्या छे ते आचार्य
जाणे,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अनाहारकमार्गणामे संज्ञी अपर्याप्तो १, पर्याप्तो १, सूक्ष्म अपर्याप्तो १, बेन्द्री अपर्याप्तो १, तेन्द्री अपर्याप्तो १, चौरेन्द्री अपर्याप्तो १, असंज्ञी अपर्याप्तो १, बादर अपर्याप्तो १, ए आठ ८ जीवस्थानक छे. ए आठमेथी सूक्ष्म अपर्याप्तो काढीजे; तिवारे सास्वादने ७ सात जीवस्थानक छे. बादर अपर्याप्तो १, बेन्द्री अपर्याप्तो १, तेन्द्री अपर्याप्तो १ चौरेन्द्री अपर्याप्तो १, असंज्ञी अपर्याप्तो १, संज्ञी अपर्याप्तो १, संज्ञी पर्याप्तो १. ए सात छे. एटले ६२ मार्गणाए जीव भेद कह्या. ॥२१॥ ___ हवे बासठ मार्गणाए गुणठाणा कहे छे. पणतिरिचउसुरनरए, नरसन्निपणिंदिभवतसिसके। इगविगलभूदगवणे, दुदुएगं गइतस अभवे ॥२२॥ ____ अर्थ-तिर्यंचमें पेहेलां पांच गुणठाणा छे. सर्व देवता सर्व नारकीमां च्यार गुणठाणा छे. मनुष्यगतिमें १, संज्ञी मार्गणामें १, पंचेंद्रीमे १, भव्यमार्गणामे १, त्रसकायमे ए पांच मार्गणामे सर्व गुणठाणा छ १४ गुणठाणा छे. एकेन्द्रिय मार्गणामे, बेंद्रियमे, तेंद्रियमे, चौरेन्द्रियमे १, पृथ्वीकायमे १, अप्कायमे १, वनस्पतिकायमे १. ए सात ७ मार्गणामे मिथ्यात्व १, सास्वादन २. ए बे गुणठाणा छे. गतिवस ते वेउकाय १, वायुकायमें १, अभव्यमे १. ए त्रणमे एक १ मिथ्यात्व गुणठाणो छे. ॥ २२ ॥ वेअतिकसाय नवदस,लोभेचउ अजइदुति अन्नाणतिगे बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहक्खाइ चरमचऊ२३
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arts carर्थः
·
अर्थ -- पुरुषवेद १, स्त्रीवेद १, नपुंसकवेद १, क्रोध १, मान १, माया १ ए छ ६ मार्गणामे मिथ्यात्वसु मांडी अनिवृत्तिबादर पर्यंत नव गुणठाणा छे. लोभ कषायमे मिथ्यात्व सूक्ष्म पराय पर्यंत १० गुणठाणा छे. अविरतिमार्गणामे मिथ्यात्व अविरति तांइ ए ४ च्यार गुणठाणा छे. मतिअज्ञान १, श्रुतअज्ञान १, विभंगज्ञान १ ए ऋण ३ मार्गणाम पेहेला बे अथवा त्रण ३ गुणठाणा छे. अचक्षुदर्शन १, चक्षुदर्शनमे १, मिथ्यात्वसु क्षीणमोहतांइ बारे गुणठाणा छे. यथाख्यातचारित्रमे इग्यारमो बारमो तेरमो चौदमो ए च्यार ४ गुणठाणा छे. ॥ २३ ॥ मणमाणि सग जयाई, सामाइअछेअघउ दुन्नि परिहारे । केवलदुगि दोचरमा, जयाइ नवमइसुओहिदुगे ॥ २४ ॥
अर्थ -- मनः पर्यायज्ञानमे प्रमत्तगुणठाणेसु मांडी वीणमोह तांडू सात गुणठाणा छे. सामायिक १, छेदोपस्थापनीयमे छठ्ठे प्रमत्त गुणठाणे शुं मांडी नवमा तांइ ४ च्यार गुणठाणा छे. - दुन्नि परिहारे - परिहारविशुद्धिमा प्रमत्त अप्रमत्त ए दोय गुणठाणा छे. केवलज्ञान केवलदर्शनमे सयोग- अयोग ए दोय देहेणं गुणठाणा छे. मतिज्ञान १, धुतज्ञान १, अवधिज्ञान १, अवधिदर्शन १. ए प्यार मार्मणामे अजर अविरति गुणठाणे मांडीने क्षीणमोह तांइ नव गुणठाणा ९ छे. ॥२४॥ अड उवसमि चड वेअगि, खइए इक्कार मिच्छतिग देसे । सुहुने सहाणं तेरस, जोगआरए ॥ २५ ॥ अर्थ - उपशमसमकीतमे अविरतिसुं मांडी उपशान्तमोह तांड
सु
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कम्मग्रन्थस्य स्वार्थः
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आठ गुणठाणा छे. क्षयोपशमसमकीतमे अविरतिसुं अप्रमत्त ताइ च्यार गुणठाणा ४ छे. क्षायिकसमकीतमे अविरतसुं मांडी अयोगी केवळी तांइ ११ अगीयारे गुणठाणा छे. मिथ्यात्वमे मिथ्यात्व गुणठाणो छे. सास्वादन में सास्वादन गुणठाणो छे. मिश्रमे १ मिश्र गुणठाणो छे. देशविरतिमे देशविरति गुणठाणो छे. सूक्ष्मसंपरायमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणो छे. मनोयोग १, वचनयोग १, काययोग १, आहारक १, शुकुलेश्या १. ए पांच मार्गणा मिथ्यात्वसुं मांडी सयोगी केवळी तांइ १३ तेर गुणठाणा छे. ॥ २५ ॥ अनि पढमदुगं, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त । पढमंतिम दुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा ॥ २६ ॥
अर्थ - असंज्ञीमार्गणामे मिथ्यात्व १, सास्वादन २. ए दोय गुणठाणा छे. पेहेली तीनलेइयामे मिथ्यात्वसुं मांडी प्रमत्त तांइ छ ६ गुणठाणा छे. तेजोलेश्यामे, पद्मलेश्यामे, मिथ्यात्वसुं अप्रमत्त तांइ ७ सात गुणठाणा छे. हवे अणाहारक मार्गणाए - पेहेलां दोय ते - १ मिथ्यात्व २ सास्वादन, अंतमे दुग-दोय ते सयोगीकेवळी १, अयोगीकेवळी १, (ए समुद्र घातनी अपेक्षाए ) अने पांचमो अजय अविरति समकीत ए पांच गुणठाणा अनाहारक मार्गणामे छे. एटले ए ६२ बासठ मार्गणामे गुणठाणा कहा. ॥२६॥ सच्चे अरमीस असच - मोस मणवय विउवि आहारे । उरलं मीसा कम्मण, इअ जोगा कम्म अणाहारे२७॥
अर्थ- हवे इहां पन्नरयोगनां नाम कहे के सत्यमनोयोग १, असत्यमनोयोग २, मिश्रमनोयोग ३, असत्याअमृषामनोयोग
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कम्मग्रन्थस्य टबार्भः
४, सत्यवचनयोग ५, असत्यवचनयोग ६, मिश्रवचनयोग ७, असत्या अमृषावचनयोग ८, वैक्रियकाययोग ९, आहारककाययोग १०, औदारिककाययोग ११, वैक्रियमिश्रकाययोग १२, आहाकमिश्रकाययोग १३, औदारिक मिश्रकाययोग १४, कार्मणकाययोग १५. ए पन्नर योगनां नाम कह्यां. अनाहारक मार्गणामें एक १ कार्मण काययोग छे. ॥ २७ ॥ नरगइपणिंदितसतणु - अचक्खुनरनपुंकसायसम्मदुगे। सन्नि छलेसाहारग - भवमइसुओहिदुगे सवे ॥ २८ ॥ अर्थ - मनुष्यगति १, पंचेन्द्री १, त्रसकाय १, काययोग १, अक्षदर्शन १, पुरुषवेद १, नपुंसकवेद १, कषाय ४, क्षायिक समकीत १, क्षयोपशम समकीत १, सन्निमार्गणा मे १, छं लेश्या मार्गणाए ६, आहारक १, भव्य १, मतिज्ञान १, श्रुतज्ञांन १, अवधिज्ञान १, अवधिदर्शन १. एटली मार्गणामे सर्व १५ पन्नर योग छे. ॥ २८ ॥
सासण-अनाणउवसमअभवमिच्छेसु ।
तिरित्थि अजय तेराहारकदुगूणा, ते उरलदुगूण सुखरए ॥ २९ ॥
"
अर्थ - तिर्यंचगति १, स्त्रीवेद १, अविरति १, सास्वादन १, अज्ञान तीन ३ मे, उपशम समकित मे १, अभव्य मार्ग - णामे १, मिथ्यात्वमे १ एतळी मार्गणामे १३ तेर योग छे. आहारक दोय आहारक शरीर १, आहारक उपांग २. ए बे " काढीजे; तिवारे १३ तेर रहे, तेमांथी वळी औदारिकाद्विकऔदारिक शरीर १, औदारिक उपांग २. ए दोय काढीजे; तिवारें देवगति १, नरकगति १.११ अगियार योग छे. ॥ २९ ॥
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कम्मग्रन्थस्य बार्थः
६५५
कम्मुरलदुगं थावर, ते सविउवि दुगपंच इगपवणे । छ असन्नि चरमवयजुय, तं विउवि दुगूणचडविगले ३०
अर्थ -- पृथ्वीकाय १, अप्काय १, तेउकाय १, वनस्पतिकाय १, ए ४ थावर मार्गणाने कार्मण १, औदारिक २, औदारिक मिश्र ३. ए तीन योग छे. एकेन्द्री मार्गणामे, वायुकाय मार्गणामे पांच योग छे. ते काम १, औदारिक २, औदारिक मिश्र ३, वैक्रिय ४, वैक्रियमिश्र ५. ए पांच योग छे. असन्नी मार्गणामे चरम वचनयोग असत्या अमृषा मेळीजे; तिवारे पांच योग तेहिज एवं ६ छ योग छे. वळी ए छ मांहेथी वैक्रियद्विक काढीजे; तिवारे (विकलेन्द्री) बेन्द्री, तेन्द्री, चौरेन्द्रीने ४ च्यार योग छे. औदारिक १, औदारिकमिश्र २, कार्मण ३, असत्या अमृषा ए च्यार योग छे. ॥ ३० ॥ कम्मुरलमीसविणु मण वयसमइअछेअचक्खु मणनाणे उरलदुग कम्म पढमंतिममणवयकेवलदुगंमि ॥ ३१ ॥
अर्थ -- कार्मण १, औदारिकमिश्र ए दोय विना बाकी १३ तेर योग छे. च्यार मनना, च्यार वचनना, दोय वैक्रिय, एक औदारिक, दोय आहारक. ए तेर योग छे. मनोयोग १, वचन - योग १, सामायिक १, छेदोपस्थापनीय १, चक्षुदर्शन १, मनः पर्यवज्ञान १. ए छ ६ मार्गणाए तेर योग १३ छे. उरलदुग — औदारिक १, औदारिकमिश्र २, कार्मण ए ३, तथा पेहेलो अने छेलो मन अने वचनयोग ते सत्य मनोयोग १, असत्य मनोयोग १, सत्य वचनयोग १, असत्य वचनयोग १. ए सात योग ते केवळज्ञान १ अने केवळदर्शन १ ए बे मार्गणाए सात योग छे. ॥ ३१ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य स्वार्थः
मणवय उरला परिहारि, सुहुमि नव तेउ मीसि सविउष्वा देसे सविउविदुगा, कम्मुरलमीसअहक्खाए ॥ ३२॥
अर्थ -- मनोयोगना च्यार भेद छे. वचनयोगना ४ च्यार भेद ने औदारिक काययोग एवं नव ९ योग परिहारविशुद्ध संयममे छे. सूक्ष्म पराय संयममें ते नवयोग छे. अने मिश्रदृष्टि नव तेहिज. मनना ४, वचनना ४, औदारिक १ अने वैक्रिय काययोग भेळीजे: एटले ए दश १० योग छे. देशविरतिमें नव योग तेहिज अने वैक्रिय दोय २ मेळीजे; एटले ११ योग छे. यथाख्यात चारित्रमे नव तेहीज अने कार्मण १, औदारिकमिश्र २. ए बे भेळीजे; तिवारे ११ योग यथाख्यातमे छे. ए ६२ बासठ मार्गणाए योग कया. ॥ ३२ ॥ तिअनाण नाणपण चउ - दंसण बार जिअलक्खणुवओगा । विणु मण नाण दुकेवल-नव सुरतिरिनिरयअजएसु ३३ अर्थ- हवे बार उपयोग कहे छे तीन अज्ञान ३ ते मतिअज्ञान १, श्रुतअज्ञान २, विभंगज्ञान ३. पांचज्ञान ते मति १, श्रुत २, अवधि ३, मनः पर्यव ४, केवळ ५. च्यार ४ दर्शन तेचक्षु १, अचक्षु २, अवधि ३, केवल ४. ए बार जीवलक्षण उपयोग छे - मनः पर्यवज्ञान १, केवळज्ञान १, केवलदर्शन १, एण ३ विना बाकी ३ ज्ञान, ३ दर्शन, ३ अज्ञान ए नव उपयोग ९. देवगति १, तिर्यंचगति १, नरकगति १, अविरति १. ए च्यार मार्गणामे नव ९ उपयोग छे. ॥ ३३ ॥ तस जोय वेय सुक्का-हार नरपणिदिसन्नि भवि सर्व्व । नयणेयर पण लेसा, कसाय दस केवलदुगूणा ॥३४॥
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अर्थ - - त्रस्कायमे १, तीनयोग-मन १, वचन १, काययोगमे तीनवेद - पुरुष १, स्त्रीवेद २, नपुंसकवेद ३, शुक्ललेस्या १, आहारक २, मनुष्यगति १, पंचेन्द्री १, संज्ञी १, भव्यमे १, ए तेर १३, मार्गणामे सर्व १२, बारे उपयोग छे-चक्षुद्रर्शनमे, पांच लेस्यामे - कृष्ण १, नील २, कापोत ३, तेज ४, पद्म ५, मे च्यार ४ कषायमें दश १०, उपयोग छे - केवलज्ञान १, केवलदर्शन २, ए दोय उणा कीजे ॥३४॥ चउरिंदि असन्निदुअन्नाण, दंस इग बितिथावरि अचक्खू | तिअनाण दंसण दुर्ग, अनाणतिग अभविमिच्छदुगे ३५
अर्थ- चौरेन्द्री में १, असंज्ञीमे १, मतिअज्ञान १, श्रुतअज्ञान १, चक्षुदर्शन १, अचक्षुदर्शन १, ए च्यार ४ उपयोग छे- एकेन्द्री में १, बेन्द्री में १, तेंदीमे १, पांच थावरमें ५, ए आठ मार्गणा में दोय २, अज्ञान १, अचक्षुदर्शन ए तीन ३ उपयोग छे. अने त्रण अज्ञान ३ मे अभव्यमें १, मिच्छदुगे मिथ्यात्वमे १, सास्वादनमे १, ए छ ६ मार्गणामें पांच उपयोग छे-३, अज्ञान अने वे दर्शन ए पांच मंति अज्ञान १, श्रुतअज्ञान २, विभंगज्ञान ३, चक्षुदर्शन ४, अचक्षुदर्शन ५, ए पांच छे. ॥ ३५ ॥
केवल दुगे fragi, नव ति अनाण विणु खईय
अहक्खाए ।
दंसण नाणतिगं देसे, मीसिअन्नाण मीसं तं ॥ ३६ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ - केवळदुगे - केवलज्ञान केवलदर्शनमे आपणा एहिज केवलज्ञान केवलदर्शन ए बे उपयोग छे. हवे तीन अज्ञान विना बाकी नव उपयोग-पांच ज्ञान च्यारदर्शन ए ९ क्षायिक समकीत में तथा यथाख्यातचारित्र २, ए बे मार्गणामे छे. दर्शन ३, चक्षु १, अचक्षु १, अवधि १, तीनज्ञान मति १, श्रुत २, अवधि ३, ए छ ६ उपयोग देसविरतिमें अने एहिज छ उपयोग अज्ञान मिश्रित कीजे, ज्ञान काढीजे एटले दर्शन तीन ३ अज्ञान तीन ३, ए छ ६ उपयोग मिश्रमें छे. ॥ ३६ ॥
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मणनाण चक्खु वज्जा, अणहारे तिन्नि दंसचउ नाणा | चउनाण संजमोवसम, वेअगे ओहि दंसेय ॥ ३७ ॥
अर्थ -- मनः पर्यवज्ञान १, चक्षुदर्शन १, ए दोय काढीजे बाकी अनाहारकमें दश उपयोग १० छे. तीन दर्शन-चक्षु १, अचक्षु २, अवधि ३, च्यार ४, ज्ञान मतिज्ञान १, श्रतज्ञान २, अवधिज्ञान ३, मनः पर्यवज्ञान ४, ए सात उपयोग ते च्यार ज्ञानमें ४, व्यार ४, संयम में ४, उपशम समकीत १, क्षयोपशम समकीतमे १, अवधिदर्शनमे १, ए इग्यारे ११, मार्गणामे पूर्वोक्त ७, सात उपयोग छे. हिवे मतान्तर कहे छे - मनोयोग जीवभेद पेहेली १ को छे. इहां सत्ताभावी गुण विचारतां जीवभेद बे २ छे. सन्नी पर्याप्तो अपर्याप्तो गुणठाणा तेर छे. ॥ ३७ ॥
दो तेरतेर बारस मणे, कमां अट्ठ दु चउ चउ वयणे । चउदु पण तिन्निकाए, जिय गुणजोगोवओगन्ने ॥३८॥ अर्थ -- योग तेर छे. उपयोग १२ छे, मनोयोगमे अने
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
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वचनयोग पूर्वे कह्यो ते मनोयोग सहीत पण ग्रह्यो छे. इहां मनोयोग विना ग्रहे छे तिणे जीवभेद ८, बेन्द्री २, तेन्द्रीना २, चोरेन्द्री २, असन्नी २, ए आठ ८, छे जे सन्नीमे वचन छे परं इहां न गण्या जे मुख्यता वचनयोगनी छे. गुणठाणा बे छे मिथ्यात्व १, सास्वादन २, योग ४ च्यार के चौरेन्द्रीने कह्या ते ते पण उपयोग ४, च्यार छे ते इहां वचनयोग मनोयोग विना ग्रह्यो छे. काययोग पूर्वे वचनसहीत मनसहीत लीधा छे. इहां एकलो काययोग लीधो ते तो एकेन्द्रीने हवे तिणे जीवभेद ४, च्यार एकेन्द्रीना योग पांच उदारिक बे, वैक्रीय बे, कार्मण १, गुणठाणा बे, मिथ्यात्व १, सास्वादन उपयोग तीन, बे अज्ञान, १ अचक्षुदर्शन एवं ३ छे, श्रुतांतर २ छे, अन्य आचार्य इम कहे छे. ॥ ३८ ॥ छसुलेसासु सठाणं, एगिदि असन्निभूदग वणेसु। पढमा चउरो तिन्निय, नारय विगलग्गिपवणेसु॥३९॥ ____अर्थ-हवे बासठ मार्गणाए लेस्या कहे छे-तिहां छ लेस्या ६ मे आपआपणी लेस्या छे. कृष्णमे कृष्ण १, नीलमे नील २, कापोतमेकापोत ३, तेजमेतेज ४, पद्ममेपद्म ५, शुक्लमेशुक्ल ६ छे. ___ एकेन्द्रीमे १, असन्नीमे १, पृथ्वीकाय १, अप्काय १, वनस्पतिकाय १, ए पांच मार्गणामे पेहेली च्यार ४, ते कृष्ण १, नील २, कापोत ३, तेज ४ ए च्यार लेस्या छे. नरकगतिमे १, बेन्द्रीमे १, तेन्दीमे १, चौरेन्दीमे १, अग्निकायमे, वायुकायमे ए छ ६ मार्गणामे पेहेली तीन लेस्या छे, कृष्ण १, नील २, कापोत ३. ॥ ३९ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य टेवा :
अहखायसुहुमि, केवल दुगि सुक्का छाविसेसठाणेसु । नर निरयदेव तिरिआ, थोवा दु असंखणंतगुणा ॥ ४० ॥
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अर्थ -- यथाख्यात चारित्र में १, सूक्ष्मसंपरायचारित्र में १, केवलज्ञानमे १, केवलदर्शन १, में एक ९, शुक्ललेश्या छे बाकीनी मार्गणा ४१ एकतालीसमें छ ए लेश्या छे ते ४१ मार्गणा ते ३, गति १, त्रस १, तेद्री योग ३, वेद ३, कषाय ४, ज्ञान ७, संजम पांच दर्शन ३, भव्य बे समकीत ६, सन्नी १९, आहारक बे ए ४१ मार्गणाए ६ छ लेश्या छे हवे अल्पबहुत्व कहे छे - मनुष्य थोडा छे- संख्याता छे उत्कृष्टथी २९ आंकतांई छे. मनुष्यथी नारकी असंख्यात गुणा छे. नारकीथी असंख्यातगुणा देवता छे. देवताथी तिर्यच अनंतगुणा छे जे सूक्ष्म बादर एकेन्द्रीय सर्वमांहि गणवा. ॥ ४० ॥ पणचउ तिदुएगिंदि, थोवातिन्निहिया अणंतगुणा । तसथोव असंखग्गी, भूजलनिल अहियवणणंता ॥ ४१ ॥
अर्थ —— पंचेन्द्री थोडा पंचेन्द्रीथा चौरेंद्रि अधिका. चौरेन्द्रीयी न्द्री अधिका, तेन्द्रीय बेन्द्री अधिका, बेन्द्रीयी एकेन्द्री अनंतगुणा छे. एवं पंचेन्द्रीनी जाणवी, त्रसकाय थोडा छे, तिणसुं अग्निकाय असंख्यात गुणा छे, अग्निकायसुं पृथ्वीकायना जीव अधिका, पृथ्वीकाययी अपकाय अधिका, अपकायथी वाउकाय अधिका, वाउकाययी वनस्पतिकाय अनंतगुणा छे. ॥४१॥ मणवयणकायजोगी, थावाअसंखगुण अनंतगुणा । पुरिसायोत्रा इत्थि, संखगुणा तगुण कीवा ॥४२॥
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कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
६६१
अर्थ -- मनोयोगी थोडा छे, सन्नीजीव ग्रह्या छे, वचनयोगी असंख्यात गुणा बेन्द्रीयादिक सर्व जीव ह्या छे, वचनयोगीथी काययोगी अनंतागुणा छे, एकेन्द्री सर्व गण्या छे, पुरुषवेदी थोडा छे पुरुषवेदथी स्त्रीवेद संख्यात गुणा छे. जे तिर्यच में त्रिगुणी स्त्री छे. तीन वळी अधिकी मनुष्यमे २७ गुणी छे अने २७ वळी अधिकी छे देवता ३२ गुणी छे बत्रीस अधिकी छे. स्त्रीवेदीसुं नपुंसक अनंतगुणा छे. एकेन्द्रीयादिक सर्व लेवा ॥४२॥ माणी कोही माई, लोभी अहिअमणनाणिणोथोवा । ओहि असंखामइसुअ, अहिअसम असंख विप्रभंगा | ४३ |
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अर्थ -- कषायमे मानकषायी थोडा छे, मानकषायीथी क्रोधीसुं मायावी कपटी अधिका छे. मायाकषायीथी लोभी अधिका छे, मनः पर्याय ज्ञानी थोडा छे जे मनः पर्यायज्ञान मनुष्य साधुमेज होवे. मनः पर्यायज्ञानीथी अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा छे. जे च्यारगतिमे समकिते सर्व जीव छे. अवविज्ञानीथी मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी अधिका छे, जे च्यार ४ गतिना समकिती सर्व लेवा अने मति श्रत दोनुं बराबर छे. तिथी विभंग ज्ञानी असंख्यातगुण छे. मिथ्यात्वी देवता नारकी सर्व बीजा पण तीणथी ॥ ४३ ॥
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केवलिणो णंतगुणा, मइसुअ अन्नाणि णंतगुणतुला । सुहमाथोवा परिहार- संख अहखाइ संखगुणा ॥ ४ ॥ अर्थ--- केवली अनंतगुणा छे. सिद्ध भगवंतमांहे गण्या . तिणथीमति अज्ञानी श्रुतअज्ञानी अनंतगुणा छे. एकेंद्रीयादि सर्व लेवा मांहोमांही बराबर छे. सूक्ष्मसंपराय चारीत्रीया थोडा
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
घणा उत्कृष्टा एकसो बासठ १६२ छे. परिहारविशुद्धि संख्यगुणा छे. नवसो उत्कृष्टा होय छे. यथाख्यात चारीत्रीया संख्यात गुणा छे. उत्कृष्टा नक्कोडि छे. ॥४४॥ छेअ समईयसंखा, देस असंखगुण णंतगुणअजया। थोवाअसंख दुणंता, ओहिनयणं केवल अचख्खू ॥४५॥ __अर्थ-तिणसु छेदोपस्थापनीय संख्यातगुणा छे. उत्कृष्ट नवकोडिसो छे. सामायिक संख्यातगुणा छे. नवसहस्रकोडि छे. देसविरति असंख्यातगुणा तिर्यचगतिना भेळीजे. अविरति अनंतगुणा छे. दर्शन ४ च्यारनो अल्पबहुत्व कहे छे-अवधि दर्शनी थोडा छे. तिणसु चक्षुदर्शनी असंख्यातगुणा छे. तेथी केवलदर्शनी अनंतगुणा छे. तेथी अचक्षुदर्शनी अनंतगुणा छे. ॥४५॥ पच्छाणुपुवि लेसा, थोवा दो संखणंत दो अहिया। अभविअर थोव णंता, सासणथोवो वसम संखा॥४६॥
अर्थलेश्यानो अल्पबडुत्व कहे छे-पश्चानुपूर्विए कहीजे. शुक्ललेश्यावंत थोडा छे. पद्मलेश्यामे असंख्यगुणा छे. तेथी तेजो लेशी असंख्यगुणा. तिणसु कापोतलेशी अनंतगुणा. तिणसु नीललेशी अधिका. तिणसु कृष्णलेशी अधिका छे. अभव्य थोडा. भव्य अनंतगुणा छे. सास्वादन समकीती थोडा. तिणसु उपसम समकीती संख्यातगुणा छे. ॥४६॥ मीसाऽसंखावेयग, असंखगुण खइअमिच्छ दु अणंता सनिअर थोवणंता, णहार थोवे अर असंखा ॥४७॥
अर्थ-तिणसु मिश्र असंख्यातगुणा छे. तिणम क्षायिक
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कर्मग्रन्थस्य वार्थः
६६३
समक्रीती अनंतगुणा छे. तिणसु मिथ्यात्वी अनंतगुणा छे. अनाहारक थोडा. आहारक असंख्यातगुणा. निगोदनो असंख्यातमो भाग सदा विग्रहगतिमे छे. तिणसु इति ६२, मार्गणाए अल्पबहुत्व को छे. ॥ ४७ ॥
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सवजिअंठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज्ज सन्नि दुगं सम्मे सन्नि दुविहो, सेसेसुं सन्नि पज्जन्तो ॥ ४८ ॥
अर्थ -- मिथ्यात्व गुणठाणे सर्व जीवना भेद छे. सास्वादन गुणठाणे ७ सात जीवना भेद छे. पांच अपर्याप्ता अने सन्निद्विक मळी सात ७ - बादर एकेन्द्रीय अपर्याप्ता १, बेन्द्री अपर्याप्ता २, तेन्द्री अपर्याप्ता ३, चौरेन्द्री अपर्याप्ता ४, असन्नि अपर्याप्ता ५, सन्नि पर्याप्तो १, अपर्याप्तो २, ए सात समकीत गुणठाणामे जीवभेद बे छे- सन्नि पर्याप्तो १, सन्नि अपर्याप्तो १, ए दोय छे. सेसेसु - शेषमिश्र १, देसविरति पांचमुं प्रमत्त छठ्ठे अप्रमत्त ७, अपूर्वकरण ८, निवृत्ति बादर ९, सूक्ष्मसंपराय १०, उपशान्तमोह ११, क्षीणमोह १२, सयोगी केवळी १३, अयोगीकेवळी १४, ए सर्व गुणठाणे एक संज्ञीपंचेन्द्री पर्याप्तो जीव भेद लाभे. इणे गुणठाणे बीजो जीव चढे नही. हवे गुणठाणे पन्नर १५ योग कहे छे. ॥ ४८ ॥
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मिच्छ दुगि अजइ, जोगाहार दुगुणा अपुवपणगेउ ! मण वय उरलं सविउव, मीसि सविउच्व दुगदेसे ॥४९॥ अर्थ --- मिथ्यात्व, सास्वादन, अवरति, ए ३, गुणठाणे १३, तेर योग छे - आहारकद्विक २, नही च्यार ४, मनना च्यार वचनना ८, वैक्रीय १०, उदारिकबे १२, कार्मण १३, ए
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६६.४
कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
तेर योग छे. आहारक साधुने थाय. अपूर्वकरण ८ सु; अनि-वृत्ति बादर ९ मुं, सूक्ष्मसंपराय १० मुं, उपशान्तमोह ११ मुं, क्षीणमोह १२ मुं, ए ५ पांच गुणठाणे ४, मनना ४, वचनना १, औदारिक ए नवयोग छे. मिश्र गुणठाणे : नव तेहीज तेमां वैक्रिय १, भेळीजे तिवारे १० दस योग छे. देसविरतिमे नव तेही अने वैक्रीय बे भेळीजे तिवारे ११, योग थाय. ४९ ॥ साहारदुग पमते, ते विउवाहार मीसविणु इअरे । कम्मुरल दुर्गताइम, मणवयण सजोगि न अजोगि५०॥
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अर्थ -- ए इग्यार योग मांहे आहारदुंग आहारक शरीर १, आहारकमिश्र ए बे भेळीजे तिवारे प्रमत्त गुणठाणे १३ तेर योग छे. इण तेरमे वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र काढीजे तिवारे अप्रमत्त गुणठाणे ११ इग्यारे योग छे. नवी लब्धि न करे सातमो अप्रमादी छे, लब्ध प्रमादी फोरवे, कार्मण १, औदारिक बे, अंत्य आदिम, मनवचने भेळवे - सत्य मनोयोग, असत्यामृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्यामृषा वचनयोग, ए ७ सात योग तेरमे सयोगी केवळी गुणठाणे छे. समुद्घात करतां कार्मण योग छे. चौदमे अयोगि केवळी गुणठाणे योग एकपण नथी अयोगी छे. ॥ ५० ॥
ति अनाण दु दंसाइम, दुगे अजयदेसिनाण दंसतिगं । ते मी सिमीस समणा, जयाइ केवलि दुगंत दुगे ॥ ५१ ॥
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अर्थ -- हवे गुणठाणे उपयोग कहे छे- मिथ्यात्व १, सास्वादन २, ए वे गुणठाणे वर्ण ३ अज्ञान, वे दर्शन - चक्षु, अचक्षु ए पांच उपयोग छे. अविरति समकीत, देशविरति
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६६५
गुणठाणे त्रण झान, त्रण दर्शन, एम छ मतिज्ञान १, श्रुतज्ञान २, अवधिज्ञान ३, चक्षुदर्शन ४, अचक्षुदर्शन ५, अवधिदर्शन ६ उपयोग छे, मिश्र गुणठाणे एहीज ६ उपयोग छे, अज्ञानसहीत छे, अने छठे गुणठाणासुमांडी बारतांइ ७ सात गुणठाणे च्यार ज्ञान तीन दर्शन ए सात उपयोग छे. तेरमे चौदमे गुणठाणे केवलज्ञान १, केवलदर्शन २, ए दोय उपयोग छे. ॥५१॥ हवे सिद्धांत अने कर्मग्रंथे जेम भेद छे ते कहे छेसासण भावे नाणं, विउव्वगाहारगे उरल मोसं। नेगिंदिसु सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयंपि ॥५२॥
अर्थ-सिद्धांतमे सास्वादन गुणठाणे ज्ञान कह्यो छे, इहां सास्वादनमे अज्ञान कहे छे, अने वैक्रिय, आहारक शरीर नवो. करतां मूळगे औदारिक शरीरे मिश्रता थाप छे पण इहां न मान्यो छे, अने सिद्धांतमे एकेन्द्रियमे सास्वादन गुणठाणो नहीं कह्यो छे, इहां कोइ उपशम समकीत वमतो सास्वादनपणो पामे, ते एकेन्द्रीयमे उपजे, तिणे एकेन्द्रीयमे सास्वादन थाय, एटले बोले सिद्धांतना वचननो अधिकार कीधो नथी, ते इहां पूर्वानु, योग मुख्य छे तिणे न कह्यो छे. ॥५२॥
हवे लेश्या कहे छे--- छसु सवा तेउ तिगं, इन छसु सुक्का अजोगिअल्लेसा। बंघस्स मिच्छ अविरइ, कसायजोगतिचउहेऊ॥५३॥
अर्थ-छ गुणठाणामे छ लेश्या छे, अने एक सातमे गुणठाणे तेजो, पद्म, शुक्ल ए नीन ३ लेश्या छे, अने आठमा
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६६६
कर्म्मग्रन्थस्य date:
गुणठाणासुं मांडी तेरमा तांइ ६ छ गुणठाने एक शुक्र लेइया
छे. अयोगी गुणठाणे लेश्या नथी. अलेशी छे. ४ हेतु छे - मिथ्यात्व १, अविरति २, कषाय ३, च्यार कारणें करी जीवने कर्म लागे छे. ॥५३॥ अभिगहिय मणभिगहिया, भिनिवेसिअ संसइय मणा भोगं । पण मिच्छ बार अविरइ, मण करणानियमु छ जिय वहो ॥ ५४ ॥
बंधना च्याट योग ४ पु
अर्थ - - मिथ्यात्वना पांच भेद छे - अभिग्रहमिथ्यात्व परंपर मार्गज सत्य छे एम माने १ ( आपणो कदाग्रह लेवे ), बीजो अनभिग्रह मिथ्यात्व ते सर्व धर्म सत्य माने २, अभिनिवेशवीतरागवचननी खोटी प्ररूपणा करीने कदाग्रह छोडे नहि ३, संसय - वीतराग वचन उपर मनमां संदेह आणे ४, अनाभोगअज्ञानमिथ्यात्व एकेंद्रीसुं मांडी सर्व जीवने ए पांच मिध्यात्व जाणबां. बार प्रकारनी अविरति छे स्पर्श अविरति १, रसन अविरति २, घ्राण अविरति ३, चक्षु अविरति ४ श्रोत्र अविरति ५ मन अविरति ६, पृथ्वीकाय हिंसा ७, अप्काय हिंसा ८, तेउकाय हिंसा ९, वाउकाय हिंसा १०, वनस्पतिकाय हिंसा ११, सकाय हिंसा १२, ए बार अविरति कही. ॥५४॥ नत्र सोल कसाया पनर, जोग इअ उत्तरा उ सगवन्ना । इग चउ पण ति गुणेसु, चउ ति दु इग पञ्चओ बंधो ५५
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अर्थ -- नव नोकषाय हास्यादि ६ तीन वेद सोळे १६ कषाय अनंतानुबंधीयादिक ए पचीस २५ कषाय, १५ योग
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कर्मग्रन्थस्य card :
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४ मनना, ४ वचनना, ७ कायाना ए पन्नर योग ए सर्व मळी ५७ सत्तावन कर्मबंधनाहेतु छे. इणे प्रकारे जीव कर्म बांधे. एक मिथ्यात्व गुणठाणे च्यारे, मिथ्यात्व १, अविरति २, कषाय ३, योग ४, ए ४ बंधहेतु छे. ४ गुणठाणेसास्वादन, मिश्र, अविरति, देशविरति ए ४ गुणठाणे तीन बंधहेतु छे, मिध्यात्वविना कषाय, अविरति, योग, ए ३ तीन छे. अने पांच गुणठाणे-प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, निवृतिबादर, सूक्ष्मसंपराय ए पांच गुणठाणे दु-बे हेतु छे. कषाय अने योग ए बे बंधहेतु छे. अने उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवळी ए तीन ३ गुणठाणे १ योग बंधहेतु छे. ॥ ५५ ॥
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चड मिच्छमिच्छ अविरइ, पञ्चईया साय सोल पणतीसा जोगविणुतिपञ्चइया, हारग जिण वज्ज सेसाओ ॥ ५६ ॥
अर्थ - एक सातावेदनी तो च्यारे प्रकारेकरी बंधाय छे. अने नरक ३, जाति ४, थावर ४, ढूंडक १, छेवठ्ठो १, आतप १, नपुंसकवेद १, मिथ्यात्व १, ए सोळ १६ प्रकृति एक मिथ्यात्वसुं बंधाय छे. मिथ्यात्व विना बीजो कोइ इगोनो बंध हेतु नयी. १ अने पांत्रीस ३५ प्रकृति-तिर्यय ३, यीणी ३, दुर्भग ३, अनंतानुबंधि ४, मध्यसंस्थान ४, मध्यसंघयण ४, कुखगड़ १, नीचगोत्र १, उद्योत १, स्त्रीवेद १, वज्रऋषभनाराच १, मनुष्य त्रिक ३, बीजी चोकडी अप्रत्याख्यानी ४, औदारिकद्विक २, ए पांत्रीस प्रकृति मिथ्यात्वमे अने अविरतिमे बंधाय छे। अने योग विना तीन प्रत्ययथी एटले मिथ्यात्वथी, अविरतिथी, कषाययी ६५ पांसठ प्रकृति
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
बंधाय छे ते कहे छे ते सांभळो-त्रीजी चोकडी ४, सोग २, अरति १, अथिर २, अयश १, असाता १, देवायु, १, निद्रा २, देव २, पंचेन्द्री १, शुभविहायोगति १, त्रस ९, नवक, शरीर ३, उपांग १, समचउस्स १, निर्माण १, वर्ण ४, अगुरुलधु ४, हास्य १, रति १, भय १, दुगंछा १, पुरुषवेद १, संजलण ४ दर्शनावरणि ४, ज्ञानावरणि ४, अंतराय ५, जस १, उंचगोत्र १, ए ६५ पांसठ प्रकृति विण्य ३, प्रत्ययथी बंधाय छे. आहारकद्विक २, जिण ? ए त्रण्य ३ प्रकृति कषाय योगथी बंधाय छे ए १२० प्रकृतिनो बंध छे. ॥५६॥ पणपन्न पन्नतिय छहिय, चत्त गुण चत्त छ चउदुग वीसा सोलस दस नवनवसत्त, हेउणो नउ अजोगंमि ॥५७॥ , अर्थ-हवे गुणठाणे हेतु कहे छे. मिथ्यात्व गुणठाणे ५५ पंचावन हेतु छे, सास्वादनमे पचास ५० हेतु छे. मिश्रमे त्रेतालीस हेतु छे. समकीत गुणठाणे ४६ छेताळीस बंधना हेतु छे. देशविरति गुणठाणे ३९ ओगणचालीस बंधहेतु छे. प्रमत्त गुणठाणे छवीस २६ बंघहेतु छे. अप्रमत्त गुणठाणे २४ चोवीस बंधहेतु छे. अपूर्वकरण आठमे गुणठाणे बावीस २२ बंधहेतु छे. अनिवृत्तिबादर गुणठाणे १६ सोळ बंधहेतु छे. सूक्ष्मसंपरायमे दश १० बंधहेतु छे. उपशांतमोहमे नव बंधहेतु छे. क्षीणमोहमे नव बंधहेतु छे. सयोगिकेवळीमे सात बंधहेतु छे,
अयोगी गुणठाणु अबंधक छे, तेथी त्यां कोई बंधहेतु नथी. ॥५॥ पणपन्न मिच्छहारग, दुगुण सासाणिपन्नमिच्छविणा। मिस्सदुगकम्मअणविणु, तिचत्तमीसे अहछचत्ता ५८
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कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
६६९
अर्थ -- मिथ्यात्व गुणठाणे पंचावन हेतु छे, ते मूळे सत्तावन थाय तिणमांहे आहारक शरीर १, आहारकमिश्र २, काढीजे, तिवारे पंचावन बंध हेतु रहे ते छे. सास्वादन गुणठाणे पचास ५०, होय छे, ते पांच मिथ्यात्व काढवा तिवारे ५० पचास बंध हेतु छे. औदारिकमिश्र १, वैक्रियमिश्र २, कार्मण ३, अनंतानुबंधी ४, ए सात काढीजे तिवारे मिश्र गुणठाणे ४३ वेताळीस बंधहेतु छे. हवे छेताळीस होय छे ते कहे छे. ॥ ५८ ॥
सदुमीसकम्मअजए, अविरइ कम्मुरलमीस बिकसाए । मुत्तुगुणचत्तदेसे, छवीस साहार दु पमते ॥ ५९ ॥
अर्थ- समकीत गुणठाणे - औदारिकमिश्र १, वैक्रियमिश्र २, कार्मण ३, ए त्रण्य भेळीजे तिवारे ४६, छेताळीस बंधहेतु समकीत गुणठाणे छे. देसविरति गुणठाणे बसवधनी अविरति १, कार्मण १, औदारिकमिश्र १, अप्रत्याख्यानी ४, ए सात ७, काढीजे तिबारे ३९ गुणचालीस बंधहेतु छे. हवे प्रमत्त गुणठाणे छवीस २६ बंधहेतु छे - आहारक दोय भेळीजे एटले २६. ॥ ५९ ॥
अविरइ इगार तिकसाय, वज्ज अपमत्ति मोसदुगरहिया। चवीस अपुढे पुण, दुवीस अविउवाहारे ॥६०॥
अर्थ -- अविरति इग्यारे ११, त्रीजी चोकडी ४, ( प्रत्यारख्यानीय ) कषाय रहित छवीस हेतु होय आहारक दोय भेळीजे तिवारे छवीसनो बंध छे. अप्रमत्त गुणठाणे वैक्रियमिश्र १, आहारकमिश्र १, ए दोय काढीजे तिवारे २४ बंध
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६७०
कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
हेतु छे. आ अपूर्वगुणठाणे - आहारक दोय काढीजे तिवारे बावीस २२ बंध हेतु छे. ॥ ६० ॥
अछहास सोलबायरि, सुहुमेदस वेअसंजलणतिविणा खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पत्रुत्त सग जोगा ॥ ६१ ॥
अर्थ - - हास्यषट्क ६ विना सोळ १६ बंधहेतु बादर संपराये होय. सूक्ष्मसंपरा यगुणठाणे तीन वेद, तीन संजलणा३ - संजलण क्रोध १, संजलणमान २, संजलणी माया ३, ए छ काढीजे तिवारे दस १० बंधहेतु छे. उपशांत गुणठाणे अने क्षीणमोह गुणठाणे संजलननो लोभ काढीजे तिवारे नव ९ बंधहेतु छे. सयोगी गुणठाणे दोय मन, दोय वचन दोय औदारिक, अने एक कार्मण, ए पूर्वोक्त सात ७, योग छे अयोग गुणठाणे बंधहेतु छे नहीं. ॥ ६१ ॥
अपमत्तंतासत्तट्ठ, मीसअपुवबायरासत्त । बंधइ छ. सुमो एग, मुवरिमाबंधगा जोगी ॥ ६२ ॥
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अर्थ - - हवे चौद गुणठाणे बंध उदय सत्ता कहे छे-अप्रमत्त गुणठाणा तांइ सात ७, के आठ ८, कर्म बांधे. मिश्र गुणठाणे अपूर्वकरण गुणठाणे, अनिवृत्ति बादर गुणठाणे, सातकर्मनो बंध छे. सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे मोहनीकर्म खपावे तिवारे छ ६ कर्मनो बंध छे. इग्यारमे, बारमे, तेरमे गुणठाणे एक वेदन (साता) कर्म बांधे छे. अने अयोगी अबंधक छे. ॥६२॥ आसुमं संतुद, अट्ठवि मोह विणु सत्त खीणम्मि | चउचरिमदुगेअट्ठउ, संते उवसंति सत्तुदए ॥ ६३॥,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६७१ mrrrr-~~
__ अर्थ--सूक्ष्मसंपराय १०, गुणठाणा ताई सत्ता अने उदय पण आठ कर्मनो छे. सदा सर्व कर्म छै. मोहनी विना बारमा गुणठाणे सात कर्मनी उदय सत्ता छे. तेरमे चौदमे गुणठाणे ए बे गुणठाणे वेदनी १, नाम १, गोत्र १, आउखो १, ए च्यारनो उदय ने सत्ता छे. उपशांतमोह गुणठाणे उदय सात कर्मनो छे. सत्ता आठ कर्मनी छे. ॥ ६३ ॥ उइरंति पमत्ता, सगट्ठ मीसट्ठ वेअ आउ विणा। छग अपमत्ताइ तओ, छपंच सुहुमोपणुवसंतो ॥६४॥
अर्थ-उदीरणा कहे छे-मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरति, देशविरति, प्रमत्त, ए पांच गुणठाणे सात अथवा आठकर्म उदीरे छे. मिश्र मुणठाणे आठकर्म उदीरे छे, सदा उदीरणा छे अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अने बादर गुणठाणे वेदनी, आउखोविना ६ कर्म उहीरे छे. सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे छ कर्म, पछी मोहनी खपावे पछी पांच कर्म उदीरे छे. उपशांत मोह गुणठाणे पांच कर्मनी उदीरणा छे. ॥६४॥ पण दो खीण दुजोगी, णुदीरगुअजोगि थोव उवसंता। संख गुण खोण सुहुमा, अनिअट्टि अपुव सम अहिआ६५
अर्थ-हवे क्षीणमोह गुणठाणे पेहेलां पांच कर्म उदीरे छे. पछी ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय, ए ३ तीन खपे तिवारे दोय २, नी उदीरणा छे. सयोगी गुणठाणे दोयनी उदीरणा छे. अयोगी गुणठाणे उदीरणा नथी. हवे गुणठाणे अल्पबहुत्व कहे छे-उपशांत ११, अगीयारमे गुणठाणे थोडा जीव छे. उत्कृष्टे ५४, चोपन जीव लाभे छे. तिणसु क्षीण
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Awar
मोह गुणठाणाना जीव संख्यात गुणा छे. तिणसु सूक्ष्मसंपरायना जीव, अनिवृत्ति बादरना जीव, निवृत्तिना जीव अधिका छे. जे कारजे. कारजअर्थि उपशम, क्षपक; श्रेणे बेउ इंणे गुणठाणे छे अने माहोमांहे बराबर छे. । ६५ ।। जोगि अपमत्तइअरे, संखगुणा देस सासणा मीसा। अविरय अजोगि मिच्छा, असंख चउरो दुवेऽणंता ६६॥
अर्थ-तिणयी सयोगी केवळी जीव संख्यातगुणा छे, तिणसु अप्रमत्त गुणठाणाना जीव संख्यात गुणा छ, तिणसु प्रमत्त गुणठाणाना जीव संख्यात गुणा छे, तिणसु देशविरतिना जीव असंख्यात गुणा छ, तिणयी सास्वादनना जीव संख्यात गुणा छे. तिणसु मिश्र जीव असंख्यात गुणा छ, तिणसु अविरति समकीनी जीव असंख्यात गुणा छे. तिणसु अयोगी सिद्ध अनंत गुणा, तेहथी मिथ्यात्वी जीव अनंतगुणा छे. ॥६६॥ उवसम खय मीसोदय, परिणामा दु नवहारइग
वीसा। तिअभेय सन्निवाइअ, सम्मं चरणं पढमभावे॥६७॥
अर्थ-हवे पांच भाव कहे छे-उपशमभाव १, क्षायिकभाव २, क्षयोपशमभाव ३, औदयिकभाष ४, पारिणामिकभाव ५, तिहां प्रथम उपशमभावना बे २, भेद छे. क्षायिक भावना नव मेद छे; क्षयोपशमभावना अढार भेद छे. औदयिकभावना एकवीस भेद छे. अने पारिणामिक भावना तीनभेद छे. ए पांच भाव मळ्यां छतां जे संयोगी भांगा उपजे ते सन्नि पातिक भाव कहीजे. तिहां पेहेला उपशमभावना दोय भेद
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
१, उपसम भावनुं समकीत जे सात प्रकृति उपसमावे अने २, उपशम चारित्र जे पूर्वे मोहनीय कर्मनी प्रकृति उपसमावी छे ते. ॥६॥ बीए केवल जुअलं, सम्मं दाणाइ लद्वि पण चरणं। तइए सेसुवओगा, पण लद्वि सम्म विरइ दुगं ॥६॥ ___अर्थ-बीजा क्षायिक भावना नव ९ भेद छे ते कहे
छे. तिहां केवल ज्ञान १; केवल दर्शन २, क्षायिक समकित १, दानादिक पांच लब्धि-क्षायिकदान १, क्षायिकलाभ २, क्षायिकभोग ३, क्षायिकउपभोग ४, क्षायिकवीरज ५, ए पांच अने क्षायिकचारित्र १ ए नव ९ भेद क्षायिकना जाणवा. बीजा क्षयोपशमभावना १८ अढार भेद छे ते कहे छे. जे च्यार ४ ज्ञान, मतिज्ञान १, श्रुतज्ञान २, अवधिज्ञान ३, मनःपर्यायज्ञान ४, तीन अज्ञान-मतिअज्ञान ५, श्रुतअज्ञान ६, विभंगज्ञान ७, तीन दर्शन-चक्षुदर्शन ८, अचक्षुदर्शन ९, अवधिदर्शन १० ए दश क्षायोपशमिक उपयोग कहीजे. पांच क्षयोपशमिक लब्धि क्षयोपशमिक दान ११, लाभ, १२, भोग १३, उपभोग १४, वीरज १५, क्षयोपशमनु समकीत १६, देशविरति १७, सर्वविरति १८ ए अढारे क्षयोपशमभावना भेदजांणवा.॥६८॥
अन्नाण मसिद्धत्ता, संजम लेसा कसाय गई वेआ। मिच्छं तुरिए भवा, भवत्त जिअत्तपरिणामे ॥६९॥ ___ अर्थ-चोथा उदयिक भावना २१ भेद छे कहे छे. अज्ञान १, असिद्ध संसारी २, असंजमी अविरति ३, छ स्या, ४ कषाय च्यार, १३. गति च्यार. १७ वेद त्रण, २० 85
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
मिथ्यात्व, २१ ए एकवीस भेद औदयिक भावना जाणवा. पांचमा पारिणामिक भावना ३, तीन भेद-भव्यत्व १, अमव्यत्व १, जीवत्व १ ए ३ भेद जाणवा. ॥ ६९ ॥ चउ चउ गईसुमीसग, परिणामुदएहिं चउ सखइएहि। उवसमजुएहिं वा चउ, केवल परिणामुदय खइए॥७॥ ___ अर्थ-हवे सन्निपातिक भावना भांगा कहे छे-तिहां केतलाइक जीवने मिश्र कहेतां क्षयोपशम उपयोग १, परिणाम जीवपणो १, औदयिक गति लेश्या प्रमुख, क्षयोपसम १, परिणामिक १, औदयिक १ ए तीन भाव रूप १, एक रुप भांगो मूळ छे. ए भांगो च्यार गतिना जीवमे छे. तिणे उत्तर भांगा च्यार ४ थया. ४ अथवा किणही जीवमे क्षयोपसम १, औदयिक १, पारिणामिक १ ए तीन अने तिमहीज समकीत क्षायिक होवे तो ए ४ सयोगी मूळ भांगो बीजो थयो पण च्यार गतिना जीवमे छे तेणे उत्तरभंग एहना ४ च्यार इतले आठ थया. तिथंचगतिमे क्षायिकसमकितनो विसंवाद छे. परं इहां मान्यो छे. तथा क्षयोपशम औदयिक पारिणामिक तिमहिज जे जीवमे उपशम समकीत थाय तेहने पण चतुःसंयोगी ए विजो भांगो थयो. ए पण च्यार गतिआश्रि ४ थया इतले उत्तर भांगा बारे थया. ए अने संसारी केवलीमे पारिणामिक जीवपणो, औदयिक लेश्यापणो १, क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, ए त्रिकसंयोगी १ भांगो छे तिवारे मूळ भांगा ४ च्यार थया. उत्तरभांगा तेर १३ थया. ॥ ७० ॥ खयपरिणामे सिद्धा, नराणपणजोगुवसमसेढीए। इअ पनर सन्निवाइअ, भेया वीसं असंभविणो॥७॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६७५
अर्थ — अने सिद्धमे ज्ञान क्षायिक थाय छे, जीवपणो पारिणामिक छे, ए सिने द्विकसंयोगी एक भांगो छे. ए मूळ पांच भांगा थया अने उत्तर १४ चौद थया. अने कोइ मनुष्य उपशमश्रेणे छे पण क्षायिक समकीती छे तेहने उपशमश्रेणिमे एक भांगो थयो एतले मूळभेद छ ६ थया. उत्तरभेद १५ पन्नर सन्निपातिक भावे थया. अने बीजा पण वीस भांगा सनिपातिक उपजे परं असंभावी भेद छे, जे कारणे किणही जीवमे लाभ नहीं तेणे असंभावी छे. ॥ ७१ ॥ मोहे वसमो मीसो, घाइ अट्ठ कम्मसु अ सेसा | धम्माइ पारिणामिअ, भावे खंधा उदइएवि ॥७२॥
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अर्थ-उपशम भावतो मोहनीमेज थाय बीजा कर्ममे नही. क्षयोपशमभाव च्यार ४, घातिककर्म में छे बीजा केमां नही, अने औदयिक १, पारिणामिक १, क्षायिक १, ए त्रण भाव आठ कर्ममे छे. इतले मोहनीकर्ममे पांच भाव छे. ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय ए तीन कर्ममे च्यार भाव छे. उपशम भाव न होय. वेदनी, नाम, गोत्र, आउखो, ए ४ च्यारे कर्ममे तीन भाव छे. उपशम, क्षयोपशम नयी बाकी ३ तीन भाव छे. धर्मास्तिकायादिक ६ छ द्रव्यमे एक पारिणामिक भाव छे. खंध, पुद्गलीक, शरीरमें १ एक औदयिक भाव ने १ पारिणामिक भाव पण छे. ॥ ७२ ॥
सम्माइ चउसुतिगचउ, भावा चउपणुवसामगुवसंते। चउ खीणा पुढे तिन्नि, सगुणठाणगे गजिए ॥७३॥
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६७६ कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ-समकीत १, देशविरति २, प्रमत्त ४ ए च्यार गुणठाणे जीव छे ने क्षायोपशमिक समकीती छे तेहने ३ तीन भाव छे १ औदयिक, २ पारिणामिक, ३ क्षयोपशम ए ३ छे. अने जे जीव उपशमी के क्षायिक समकीती छे तेहने तीन ३ भाव तेहिज अने उपशम अथवा क्षायिक ए ४ च्यार भाव छे. उपशम समकीतीने उपशमश्रेणिये च्यार ४ भाव छे. उपशम समकित चारित्र १, औदयिक १, पारिणामिक १, क्षयोपशम उपयोग ए च्यार छे. अने क्षायिक समकिति उपशम श्रेणिमां होय तेने पांच भाव छे-अपूर्वकरण गुणठाणा ८ थी क्षीणमोह १२ मा ताइ च्यार ४ भाव छे-क्षायिक भाव १, औदयिक भाव १, क्षयोपशमिक १ पारिणामिक ए ४ भाव छे. शेष, मिथ्यात्व, सास्वादन मिश्र ए ३ गुणठाणे पारिणामिक १, औदयिक १, क्षयोपशमिक १, त्रण भाव छे अने तेरमे चौदमे गुणठाणे पारिणामिक १, औदयिक १, क्षायिक १, ए त्रण भाव छे. ए १४ चौद गुणठाणे भाव कह्या एक जीवआश्री गुणठाणे भाव कह्या. ॥ ७३ ॥ संखिज्जेगमसंखं, परित्त जुत्त निय पय जुयं तिविहं। एव मणंतंपि तिहा, जहन्नमज्झुक्कसा सवे ॥७४॥ ___ अर्थ-हवे संख्यातादिकनो द्वार कहे छे. संख्यातादिकना जे भेद छे ते कहे छे-तेमां संख्यातानो १, एक भेद छे, अने असंख्याताना तीन भेद छे-१ प्रत्येकअसंख्यातो, २ युक्तअसंख्यातो, ३ असंख्यातअसंख्यातो ए तीन ३ असंख्याता जाणवा. इम अनंताना तीन भेद छे..१ परित्त
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६७७
अनंतो, २ युक्तअनंतो, अने ३ श्रीजो अनंतानंतो छे. ए ७ सात थया. तेना वळी एकेकना जवन्य, मध्यम, उत्कृष्ट ए त्रिण त्रिण भेदो छे. जेमके जघन्य संख्यातो १, मध्यम संख्यातो २, उत्कृष्ट संख्यातो ३. एम सर्व त्रणगुणा करतां २१ एकवीस भेद थया. ॥ ७४ ॥ लहुसंखिजं दुश्च्चिय, अओ परं मज्झिमं तु जा गुरुअं । जंबुद्दीवपमाणय, चउपल्ल परूवणाइ इमं ॥ ७५ ॥
अर्थ -- जघन्य संख्यातो दोयने कहीजे अने ३ त्रणी उपरांत जतांइ (ज्यांसुधी) उत्कृष्ट न थाय त्यांतांइ (सुघी) मध्यम संख्यातो कहीजे. अने उत्कृष्ट संख्यातो जिवारे जंबुद्वीप प्रमाणे च्यारे ४ पल्यनी प्ररूपणा करतां जे थाय ते उत्कृष्ट संख्यातो कहीजे. ॥ ७५ ॥ तेहनो स्वरुप कहे छे.-पल्लाणवट्ठियसिलाग-पडिसिलागमहासिलागक्खा । जोयणसहसोगाढा, सवेइअंता ससिहभरिया ॥७६॥
अर्थ - पल्य पेहेलो अनवस्थितपल्य १, बीजो सलागपल्य २, बीजो प्रतिसिलागपल्य ३, चोथो महासिलागपल्य ४ ए च्यारे पल्य एक लाख योजनना आयाम विखंभ छे, एक हजार योजन ऊंडा छे. वेदीका योजन आठ ८ तांइ छे ते पर्यंत सरसवें करी भरीजे. एटले पेहेलो पल्य अनवस्थित भरीने. ७६ तोदी दहीसुइक्किक, सरिसवं खवियनिट्ठिएपढमे । पढवं व तदतं चित्र, पुणभरिए तंमि तह खीणे ७७ अर्थ -- ते अनवस्थित पल्य कोइक देवता उपाडे तेमां
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हिथी एक कण द्वीपें पछे एक कण समुद्रमें नाखतो जान तिवारे केतलाइक द्वीपमां नांखतां पेहेलो पल्य जिणे द्वीपें पूरो खाली थयो ते द्वीपने प्रमाणे बीजो नवो पल्य कल्पीइं ते पण सरसवें करी भरीजे तेपण एक कण द्वी एक कण समुद्रे नाखीजे, जिवारे ते पल्य खाली थाय, तिवारें एक सरसव सिलागापल्य मांहे घालीजे. तिहां कोइ कहेजे तेमांहेयी एक घालीजे. केइक नवो १ एक घालीजे.॥७७॥ खिप्पइसिलागपल्लेगु, सरिसवो इअसिलागखवणेणं। पुण्णो बोओअ तओ, पुर्वपि व तमि उद्धरिए ॥७॥ . अर्थ---इम सिलागापल्यमें एक दाणो मुक्यो पछे वळी त्रीजो अनवस्थित भरीजे, छेहेले द्वीप समुद्र प्रमाणे तेपण खाली थाय तिवारे बीजो दाणो सिलाकामध्य बालीजे, वळी जिणे द्वीपे समुद्रे त्रीजो अनवस्थित पूरो थयो छे तेटलो चोथो अनवस्थित कल्पीजे, ते वळी एक कण द्वीपें एक कण समुद्रे नाखतो खाली थाय, तिवारे एक त्रीजो कण सिलाकामे भेळीजे. इणे भांते (एवी रीते) नवनवा अनवस्थित भरीने खाली खाली करी एक कण सिलाकामें भेळतां सिलाकपल्प पूरो भराणो, तिवार पछी ते शिलाकापल्य पण पूरो उपाडी जे इमहीज द्वीप समुद्रे एक एक कण नांखतां खाली थाप तिवारें एक कण प्रतिसिलाकापल्यमें घालीजे. वळी तिहांयी नवनवा अनवस्थित करी भरीजे, खाली थाय तिवारे एक एक सिलाकामें घालीजे, वळी अनवस्थित काजे एक कण सिलाकामांही घालीजे, इम अनवस्थित नवनवा करी सिलाका बीजीवार भरीजे तेपण उपाडी जे द्वीपे समुद्रे ठोलाइजे. ॥८॥
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कर्मग्रन्थस्य टा.
६७९
खीणेसिलागतइए, एवं पढमेहिं बीययं भरसु । तेहिं तइयं तेहिय, तुरियं जा किर फुडा चउरो ७९ ॥
अर्थ - सिलाका खाली थाय तिवारें एक दांणो वळी प्रति सिलाकपल्य मांहे मुकीजे, इम अनवस्थितें करी सिलाका भरी, सिलाका खाली करी एक दांणो प्रतिसिलाकामांहे घालीजे इम करतां प्रतिसिलाका भरीजे, ते प्रतिसिलाका उपाडीजे इमही जे द्वीपें समुद्रे खाली कीजे तिबारे एक दांणो महासिलाकामांहे घालीजे वळी नवनवा अनवस्थितें करी सिलाका भरीजे, सिलाका खाली करी एक दांगो प्रतिसिलाकामांहे भेळीजे, इम अनवस्थिते करी सिलाका भरीजे, सिलाका करी प्रतिसिलाका भरीजे, प्रतिसिलाका खाली करीने एक महा सिलाका कण घालीजे इम अनवस्थितेथी सिलाका भरीजे, सिलाका प्रतिसिलाका भरीजे, प्रतिसिलाकाथी महासिलाका भरीजे, इम च्यारे पल्य भराय ए प्ररूपणायी जाणवो. ॥७९॥ पढमतिचल्लुद्धरिआ, दीवुदही पल्लचउसरिसवाय । सबोबिसरासी, रूचूणो परमसंखिजं ॥ ८० ॥
अर्थ- हवे ते सर्व त्रिये ३ पल्यें करी नसंख्या हता, जे सरसव ते सर्व मेळा कीजे अने लाख लाख जोजनना ३ पल्य वळी अनवस्थितनाए ४ पल्यना सरसवना वळी भरी मांहे नांखीजे तिबारे ते भेळा ढिग कीजे ए सर्व रासी एकठी थाय तिवारें रासीमांहीथी एक सरसव काडीजे, तिवारें उत्कृष्टो संख्यातो थाय ॥ ८० ॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
रूवजुअं तु परित्ताऽसंखंलहुअस्सरासिअभ्भासे। जुत्ताऽसंखिजंलहु, आवलिया समयपरिमाणं ॥१॥ ___ अर्थ-अने जे एक सरसव काढ्यो हतो ते भेळीजे तिवारे जवन्य परित्तअसंख्यातो थाय १ ए प्रथम असंख्यातो ए परित्त असंख्यातानी रासि छे तेहनो अभ्यास कीजीये तिवारे चोथो जवन्य युक्तअसंख्यातो थाय. इहां ए अभ्यासनी असत् कल्पना कहे छे ते किहां एक पांचनी एक रासी होवे तेमांहे पांच जुदा करी मांडीजे तेहनो धडो थाय ते सर्वनी नीचे मांडीजे पछी माहोमांहे ए गुणा कीजे-पांचो पंचा पचवीस, पचवीस पंचो १२५ थया तेने पांचगुणा कीजे ६२५ थया एहना पांवगुणा कीजे ते कीधे ३१२५ थया ए पांचनो अभ्यास थयो. इम परित्तअसंख्यनी रासी अभ्यास करतां जे थाय ते युक्त असंख्यातो जघन्य कहीजे. आवली एकमांहे जे समय छे ते ए चोथा असंख्याता प्रमाणे छे. ॥१॥ बितिचउपंचमगुणणे, कमासगासंख पढम चउसत्तागंता ते रूव जुया, मज्झा रूवूण गुरु पच्छा ॥२॥ ___अर्थ-हवे मतांतर कहे छे-जे मूल सातमेदनी अपेक्षाए द्वितीय तृतीय चतुर्थ ने पंचम राशीनो गुणणे-राशि अभ्यास करतां २१ उत्तरभेदनी अपेक्षाए सातमुं असंख्यातुं जघन्य असंख्यातासंख्यात, प्रथम अनंत ते जवन्य प्रत्येकानंत, चतुर्थ अनंत ते जघन्ययुक्तानंत, ने सप्तम अनंत ते जवन्य अनंतानंत अनुक्रमे थाय.
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६८१
ए सर्व जघन्य कह्या. एहमा एकरुप भेळीजे तिवारे सर्व मध्यय थाय, अने चोथे जघन्य अनंतेसु एकउणो कीजे तिवारे पेहेलो परीत्तअनंतो उत्कृष्टो थाय, तिवारे अने उत्कृष्टसुं एकरुप काढताई पिण मध्यराशि कहीजे. ॥ ८२॥ इअसुत्तुत्तं अन्ने, वग्गिअमिकसि चउत्थयमसंखं । होउ असंखाऽसंखं, लहुरूवजुयं तु तं मज्झं ॥३॥ ___ अर्थ-इय-इतले ए सूत्रोक्त पिण ए मान लघु थयो, तिणे पूर्वोक्तानुसारे मान कहे छे-जे चोथे जघन्ययुक्त असंख्याताने एकवार वर्गित कीजे, तिवारे सातमो जघन्य असंख्यातअसंख्यातो थाय, इहां वर्गित कहेतां जे राशि छे ते रासिने तेटला गुणो कीजे ते वर्ग कहीजे, जिम च्यारनो वर्ग १६, सोळ एम जाणवो ए जघन्य असंख्यातअसंख्यातो कह्यो. ए जघन्य असंख्यातअसंख्याता मांहे एकरुप भेलीजे, तिवारे मध्यम असंख्यातअसंख्यातो थाय. ॥३॥ रूवूण माइमं गुरु, तिवग्गिउं तत्थिमे दसक्खेवे । लोगागासपएसा, धम्माऽधम्मेगजियदेसे ॥४॥
. अर्थ--जाताइ (ज्यांसुधी) पेहेलो अनंतो एकरुप उंणो होवे, तिवारे उत्कृष्टो असं सातअसंख्यातो थाय. जघन्य असंख्याताने तीन वर्ग कीजे, अने दश असंख्याताना बोल भेळीजे, तिवारे पेहेलो जघन्य परित्तअनंतो थाय नहीं, तिवारे लोकाकाशना प्रदेश १, धर्मास्तिकायना प्रदेश २, अधर्माः स्तिकायना प्रदेश ३, अने एक जीवना प्रदेश ४, वळी ॥४॥
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६८२
कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
ठिइबंधज्झवसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा । दुह य समाण समया, पत्तेअ निगोअए खिवसु ॥ ८५ ॥ अर्थ — स्थितिबंधना अध्यवसाय ५, रसबंधनां स्थानक ६, योगना सूक्ष्मछेद - जेहनो वळी भाग न थाय तेहवा ७, उत्सर्पिणी अवसर्पिणीना समय ८, प्रत्येक वनस्पतिना जीव ९, सूक्ष्मनिगोदिनां शरीर १०, ए दश १०, असंख्याता भेळीजे. ॥ ८५ ॥ पुणरवि तंमि तिवग्गिय, परित्तणंत लहु तस्स रासीणं अभ्भासे लहुजुत्ता-, णंतं अभव जिअमाणं ॥ ८६॥
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अर्थ-वळी तीनवार वर्ग कीजे तिवारे पेहेलो परित्त अनंतो जघन्य थाय. ए परितअनंतानी राशिनो अभ्यास कीजे, तिवारे जघन्ययुक्त अनंतो थाय, जेटली जघन्ययुक्त अनंतामे संख्या छे एतला अभव्य जीव छे. ॥ ८६ ॥ तवग्गेपुणजायइ, णंताणंतलहु तं च तिक्खुत्तो । वग्गसु तहवि न तं हो - इणंत खेवे खिवसु छ इमे ८७
अर्थ - ए जघन्ययुक्त अनंताने वर्गित कीजे तिवारे जघ - न्य अनंतानंतो सातमो थाय. ए सातमो जघन्य अनंतानंतने तीनवार वर्गित कीजे, अने एमां छ अनंता बोल भेळीजे ते कहे छे. ॥८७॥
सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई काल पुग्गला चेव । सबमलोगनहं पुण, तिवग्गिउं केवलदुगंमि ॥८८॥ अर्थ -- सिद्धजीव १, सूक्ष्मनिगोदना सर्वजीव २, वनस्पति
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कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
६८३
कायना सर्वजीव ३, तीनकालना सर्वसमय ४, पुद्गल परमागुआ सर्व ५, सर्व अलोकना आकाश प्रदेश ६, ए छ बोल भेळीजे, वळी तीनवार वर्गितकीजे, अने केवलज्ञान केवलदर्शनना पर्याय भेळीजे. ॥ ८८ ॥ खित्तेणंताणंतं, हवेइ जिट्टंतु ववहरइ मझं । इअ सुहुमत्थवियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं ॥ ८९ ॥
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अर्थ -- एटला भेळ्यां उत्कृष्ट अनंतानंत नवमो थाय. उत्कृष्ट अनंतानंत थाय छे, परं जगत्रयनी सर्व वस्तु मध्यम आठमा अनंताइ छे ( व्यवहारमां प्रवर्ते छे), नवामा अनंता प्रमाणे वस्तु कांइ छे नहीं. ( माटे निष्प्रयोजन छे ) ए चोथो कर्म - ग्रंथ " सूक्ष्मार्थ विचार ” नामे संपूर्ण थयो लिख्यो जोड्यो देवेन्द्रसूरि आचार्ये ज्ञान हेते. ॥ ८९ ॥
इति श्रीषडशीतिक (सूक्ष्मार्थ विचार) चतुर्थो कर्म्मग्रन्थ बार्थसमेतं सुसमाप्तम् ॥ ४॥ छ ॥
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ॐ नमः सिद्धम्।
अथ शतकनामा पञ्चम कर्मग्रंथः
नमियजिणं धुवबंधो-दर्य सत्ता घाई पुन्नै परिया। सेयर चउह विवागा, वुच्छं बंधविहिँ सामी यें ॥१॥
टबाकार-मंगलम् प्रणम्य वीरं सदारं ज्ञानामृतपयोधरं । टबार्थ शतकारव्यस्य, देवचंद्रः करोम्यहं ॥१॥ अर्थ-नमस्कार करीने जिनवीतराग प्रत्ये, निर्मोहीमत्ये, ध्रुवबंध हेतु सद्भावे च्यार ४ गतिमे नियमा बांधीये लेथी प्रवबंधी कहीये. १ जे हेतुहोते बंधाय अथवा न बंधाय ते अवबंधी कहीये. २ च्यार गतिमे मिथ्यात्व गुणठाणे थकां सर्व जीवने उदय होवे ते योदय कहीजे. ३ च्यार गतिमे सामग्री योगे पिण उदय होवे अथवा न हुवे ते अध्रुवोदयी कहीजे. ४ च्यार ४ गतिना जीवने सदा सत्ता पांमीये ते ध्रुवसत्ता कहीये. ५ कोइ गतिमे सत्ता हुवे न हुवे ते अध्रुव सत्ता कहीये. ६ जे आत्माना गुण अनंता छे परं मुख्य गुण आठ छे ते मध्ये ४ च्यार गुण ते प्रगट थयां सिफता मीए, परं अन्य गुण ते प्रगट करवाना कारण थाय नहीं अहान १, दर्शन २, चारित्र ३, वीर्य ४ ए च्यार ४ गुण मतगुण प्रगट करवाना कारण छे ते भाटे ४ च्यार गुणने आवरे तेहने वातिकर्म कहीजे. ७ शेषकर्मने अघाति
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
anaaraamanraon
कहीजे.८ उदये आव्यांजे कर्म शुभ मीठां आल्हादकारी होयते पुन्य प्रकृति कहीजे.९ जे उदय आव्यां कडुआ दुःखकारी विपाक आवे ते पाप प्रकृति कहीजे. १० जे प्रकृति परावर्तनपणे थाय ते परावर्तन कहीजे. ११ अने जे न थाय ते अपरावर्त्तन. १२ एम मूलमां कहेल ६ छ ने इतर पदे भेळतां १२ द्वार थया. च्यार ४ विपाक जे प्रकृतिओनो विपाक मुख्यताए जीवनेज प्रवर्ते ते जीवविपाकी. १ जे प्रकृतिबंध बांधतां जे बांधी, ते उदय आवतां नवां औदारिकादिक पुद्गल नवां लेइने उदय आवे ते पुद्गलविपाकी कहीजे. २ गतिना अंतरालमां उदय आवे ते क्षेत्र विपाकी कहीये. ३ जे भव-नारकादिक मध्ये उदये आवे, ते भवविपाकी कहीजे. ४ एवं सोळ द्वार थयां. बंधना विधिभेद ४ प्रकृतिबंध १, स्थितिबंध २, रसबंध ३, प्रदेशबंध ४, इतले २० द्वार थयां. स्वामी-प्रकृतिबंध स्वामि १, स्थितिबंध स्वामी २, रसबंध स्वामी ३, प्रदेशबंध स्वामी ४ च कहेतां उपशमश्रेणि १,क्षपकश्रेणि २, एवं २६ छवीस द्वारे करी शतकनामे कर्मग्रंथ कहीशुं. १ तिहां प्रथम ध्रुवबंधि द्वार कहे छे. ॥१॥ वन्नचउतेयकम्मो, गुरुलहुँ निमिणोवघाय भयकुच्छौ। मिच्छे कसार्यों वरणों, विग्धं धुवबंधि सगचत्तीं ॥२॥
अर्थ---वर्णादिक ४ च्यार, वर्ण गंध २, रस ३, स्पर्श ४ ए समुदाये ध्रुवबंधी छे. श्वेतादिक भिन्न वर्ण ते अध्रुवबंधी छे, परं एक वर्ण हरकोइ नियमा बंधाय, तैजस शरीर १, कार्मण शरीर २, अगुरूलघुनामकर्म ३, निर्माण नामकर्म ४, उपघातनामकर्म ए नव नाम प्रकृति छे. भयमोहनी १, कुच्छा
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
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कहेतां दुर्गच्छा मोहनी २, मिथ्यात्व मोहनी १, कषाय १६ अनंतानुबंधीक्रोध, मान, माया, लोभ, ४ एम अप्रत्याख्यानी ४ पछी प्रत्याख्यानी ४ संज्वलन ४, ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी ४, अंतराय ५, ए सर्व सडताळीस ४७ प्रकृति ध्रुवबंधि छे. ए मध्ये नव नामकर्मनी ९ ओगणीस मोहनीनी १९ पांच ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी च्यार ४, पांच अंतराय ५, एवं ४७ सुडताळीस ध्रुवबंधी जाणवी. द्वार १. ॥२॥ तणुवंगागिईंसंघयण, जाई गई खगई मुवि जिणसासं। उज्जोयो यवे परघो, तसवीसौं गोर्य वेयणियं ॥३॥ ___ अर्थ-हवे अध्रुवबंधि ७३ कहे छ, तिहां तणु कहेतां शरीर १, औदारिक १, वैक्रिय २, आहारक ३ तैजस, कार्मण ध्रुवबंधिमे गण्या छे माटे इहां न कह्या. उपांग ३, अने संस्थान ६ संघयण ६, जाति ५, गति ४, खगति कहेतां विहायोगति २, आनुपूर्वी ४, जिननाम १, उश्वास १, उद्योतनाम १, आतप १, पराघात १, बस दशक थावरनी दस एवं वीस गोत्र २, वेदनीयकर्म २, हास्य रतिनो जोडो १,
अरति शोकनो जोडो एवं जुगल. ॥ ३ ॥ हासाइजुयलदुर्ग, वेय आउँ तेवुत्तरीअधुवबंधी दार। भंगा अणाइ साइ, अणंत संतुत्तरा चउरो ॥४॥ ___अर्थ-हास्यादि जुगल बे, वेद ३, आउखां ४ च्यार ए ७३ अनुवबंधि ते कोइवार बंधाय कोइवार न बंधाय, ए मध्ये ७ प्रकृति मोहनीनी, २ वेदनीयनी, २ गोत्रनी, ४ आ
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
युनी, ५८ नामकर्मनी छे. एवं ७३ छे. अने. ध्रुवबंधि ४७ अध्रुवबंधी ७३ मिळ्यां १२० एकसोवीस प्रकृति थइ, हवे चउ ४ भंगी अणाइ कहेतां अनादि १, साइ सादि २ तथा अनंत तथा सांत जोडीये, तिवारे अनादिअनंत १, प्रथमभंग अनादि सान्त ए द्वितीयभंग, सादि अनंत ए त्रीजो भंग सादिसान्त ए चोथो भंग, ए चोभंगी जाणवी. ॥ ४॥ पढमबियाधुवउदइसु, धुवबंधिसु तइय वजभंग तिगं। मिच्छंमि तिन्निभंगा, दुहावि अधुवा तुरिय भंगा॥५॥ ____ अर्थ-तिहां ध्रुवउदयी प्रकृतिमध्ये प्रथम १, तथा २, बीजो ए बे भांगा छे-अनादि सान्त भव्यमे २, ए बे भंगा छे. तथा ध्रुवबंधि प्रकृतिनेविषे बीजो वर्जीने तीन भंग छे. तिहां अभव्य आश्रयि अनादि अनंत छे. जे कारणे अनादिकाल बांधे छे, अने ते सदाकाल बांधे तिणे अनंतबंध छे, भव्यजी ने अना दे सान्त छे, ए योग्यतानो सूत्र छे. सादि अनंत ए भंग कर्म स्वरुपे संभवे नहीं. अने सादिसान्त भंग जीव उपशम श्रेणिए चढी इग्यारमे गुणठाणे सर्व प्रकृतिनो अबंध थस्रो, ते वळी पाछो पडीने सर्व बंध करे ते सादि, अने ते जीव वळी कर्म क्षय करीने सिम थाय तिवारे सान्त थाय, ए तीन भंग छे, मिथ्यात्वने ध्रुवोदये तीन एहिज भंग छे, तथा अध्रुवबंध तथा अध्रुवोदयनेविषे एक चोथो भांगो सादिसान्त ए छे. ॥५॥ निमिण थिरै अथिरै अगुरुय, सुहं असुहे तेअ कम्म
चउवन्नों। नाणे तराय दसणे, मिच्छ धुवउदय सगवीसौं ॥६॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
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अर्थ-निर्माण नाम १, स्थिरनाम १, अगुरुलघु नाम १, शुभ नाम १, अशुभनाम १, तैजसशरीर १, कार्मणशरीर १, वर्णनाम १, गंधनाम १, रसनाम १, स्पर्शनाम १, एवं १२, बार नाम कर्मनी प्रकृति पांच ज्ञानावरणी ५, पांच अंतराय ५, च्यार दर्शनावरणी ४, एक मिथ्यात्व मोहनी १, ए सत्तावीस २७, प्रकृति ध्रुवउदयी जाणवी. ते मध्ये वर्ण गंध रस, स्पर्श, ४, नी ए रीत छे, जे पांच वर्ण मध्ये कोइक वर्ण नियमा मुख्यताए उदय होवे, तिणे ध्रुवउदयी. इम गंधादिकनो जाणवो. ए सत्तावीस मध्ये ज्ञानावरणी पांच, अंतराय पांच, दर्शनावरणी ४, मोहनी १, नाम कर्मनी १२, एवं २७ छे. ॥ ६॥ थिरे सुभि अरे विणु अधुव-बंधी मिच्छ विणुमोह
धुवबंधीं।
निदो वघार्य मोसं, सम्मं पण नवई अधुवुदया॥७॥
अर्थ--हवे अध्रुवोदथी कहे छे-जे अब्रुवबंधि प्रकृति ७३, ते मध्ये थिर १, अथिर २, शुभ ३, अशुभ ४, ए ४, च्यारविना ६९ लेवी, अने मोहनीनी १९ ध्रुवबंधि कही छे, तेमांथी मिथ्यात्व मोहनी वरजीने शेष १८, रहे ते. पिण अध्रवोदयमे गणी छे. शरीर ३, उपांग ३, संस्थान ६, संघयण ६, जाति ४, गति ४, विहायोगति २, आनुपूर्वी ४, जिननाग १, श्वासोच्छवास १, उद्योत १, आतप १, पाघात १, थिर १, शुभविना त्रसादि ८, अथिर अशुभविना थावरादि ८,गोत्र २, वेदनीय २, हास्य १, रति १, अरति १, शोक १, वेद १, आउ ४, ए ६९, सोळ कसाय भय १,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः ६८९ दुगंछ। १, निद्रा ५, उपघात १, मिश्र १, सम्यक्त्वमोहनी १, ए ९५ अब्रुवउदयी सर्व गतिना जीवने सर्वकाले। उदय न हुवे ते माटे अवकहीजे. ए मध्ये दर्शनावरणी, ५, वेदनीय २, मोहनीय २७, आयु ४, नामकर्मनी ५५, गोत्र २, ए ९५, अध्रुवोदयि जाणवी. ॥ ७॥ तसवन्नवीस-सगतेयकम्म धुवबंधिसेसे वेयतिगें ।
आगिइति वेयर्णियं, दुजुयल सगउरलँ सासचउ ८॥ ____अर्थ-हवे ध्रुवसत्ता-त्रसवीस कहेतां त्रस १०, थावर १०, वर्ण २०-५, वर्ण २, गंध ५, रस ८, स्पर्श, एवं २०, तैजसकार्मण ७. तैजसशरीर, तैजसबंधन २, तैजससंघातन ३, कार्मणशरीर ४, कार्मणबंधन, ५, कार्मणसंघातन ६, तैजसकामणबंधन ७, शेष ध्रुवबंधि ४१, ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी नव ९, मोहनीय १९, अगुरुलघु १, निर्माण १, उपघात १, अंतराय ५, एवं ४१, वेद ३, आकृतित्रिक ३, तेहनी प्रकृति १७ संस्थान ६, संघयण ६, जाति ५, एवं १७, वेदनीय २, हास्य १, रति १, अरति १, शोक १, ए च्यार औदारिक सात-औदारिक शरीर १, औदारिकउपांग २,औदारिकबंधन ३, औदारिक तैजसबंधन ४, औदारिक तैजसकार्मणबंधन ५, औदारिक संघातन ६, औदारिककार्मणबंधन ए ७, एवं सात श्वासोच्छ्वासथी च्यार ४,-वासोश्वास १, उद्योत १, आतप १, परावात १, ए च्यार ॥८॥ खगई तिरिदुर्गनीय, धुवसंती सम्ममीलमणुयदुगं। विउविकारजिणाऊ, हारसगुच्चा अधुवसंता ॥९॥
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६९०
कग्रन्थस्य वार्थः
अर्थ — खगतिदुग- शुभविहायोगति १, अशुभविहायोगति २, तिरिदुग कहेतां तिर्यंचगति १, तिर्यचानुपूर्वी २, नीचगोत्र १, एकसोत्रीस ध्रुवसत्ता जाणवी. ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी ९, वेदनी २, मोहनीय २६, नामकर्मनी ८२, गोत्र १, अंतराय ५, एवं १३० ध्रुवसत्ता जाणवी. ध्रुव जे च्यार ४ गतिना जीवमां सदा छती पांमीये ते ध्रुव कहीजे. हवे अनुवसत्ता २८ नां नाम कहे छे. समकीतमोहनी १, मिश्र मोहनी २, मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वी २ वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय उपांग २, वैक्रिय बंधन ३, वैक्रियतैजसबंधन ४, वैक्रियकार्मणबंधन ५, वैक्रियतैजसकार्मणबंधन ६, वैक्रिय संवातन ७, नरकगति १, नरकानुपूर्वी २, देवगति १, देवा - नुपूर्वी २, एवं ११, जिननाम १२, आयु ४, आहारक ७, आहारक शरीर १, आहारक उपांग २, आहारक संघातन ३, आहारक बंधन ४, आहारकतैजसबंधन ५, आहारककार्मणबंधन ६, आहारकतैजसकार्मणबंधन एवं ७ मिळ्यां २८ अठ्ठावीस अध्रुवसत्ता. ए मध्ये २ मोहनी, २१ नामकर्मनी, ४ आउखो, १ गोत्र, एवं २८ अध्रुवसत्तानी प्रकृती जाणवी. ॥ ९॥
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पढमतिगुणेसुमिच्छं, नियमा अजयाइ अट्ठगे भन्नं । सासाणे खलु सम्मं, संतं मिच्छाइ दसगे वा ॥ १० ॥
अर्थ - दवे सत्ता में भांगा कहे छे-पढमतिगुणेसु-पेहेलां तीन गुणठाणा मध्ये मिथ्यात्व मोहनीनी सत्ता नियमा छे, एतले मिथ्यात्व गुणठाणे मिथ्यात्वनो उदय नियमा छे, तेहनी सत्तार्पिण नियमा छे, सास्वादन गुणठाणे २८ नी सत्ता नि
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
यमा छे. ने मिश्र गुणस्थाने २८, २७ ने २४ ए त्रण सत्तामां मिथ्यात्व अवश्य होय माटे, तथा अयत कहेतां चोथा गुणठाणाथी ११ मा गुणठाणा लगे आठ गुणठाणे भजना जाणवी. तिहां उपशम समकीतीने तथा क्षयोपशमकीतीने मिथ्यात्वनी सत्ता छे. अने क्षायिक समकीतीने सप्तक क्षय गयो छे तेहने ए मिथ्यात्वनी सत्ता नथी. सास्वादन गुणठाणे समकीत मोहनी नियमा सत्तायें होय. हवे मिथ्यात्वथी मांडी उपशान्तमोह पर्यंत दस गुणठाणे समकीत मोहनी सत्तानी भजना जाणवी. तिहां अनादि मिथ्यात्व तथा समकीत मोहनी उद्वेली हुवे ते जीवने मिथ्यात्व गुणठाणे वर्तते समकीत मोहनीनी सत्ता नथी, अने जे त्रिपुंजीकरण करीने मिथ्यात्वे आव्या छे तेहने छे. सम्यकत्वमोह उवेलीने जे मिश्र गुणठाणे आव्या छे, त्यां तेहने समकीत मोहनीनी सत्ता नथी. उवेलया विना जे मिश्र गुणठाणे आव्या छे, तेहने सत्ता छे. अने चोथा गुणठाणाथी इग्यारमा पर्यंत, तथा उपशमीने समकीत मोहनीनी सत्ता छे. क्षायिकसमकीतीने त्रणे मोहनीनी सत्ता नथी ते माटे भजना जाणवी. ॥ १० ॥ सासणमीसेसु धुवं, मीसं मिच्छाइ नवसु भयणाए। आइदुगे अण नियमा, भइया मीसाइ नवगंमि॥११॥ - अर्थ-सास्वादन गुणठाणे, मिश्र गुणठाणे ध्रुव नीश्चयथी मिश्रमोहनीयनी सत्ता छे, जे कारणे कृतत्रिपुंजी जीव ए गुणठाणे आवे, अने मिथ्यात्व १, अविरति समकीतथी उपलांक उपशान्तमोह सुधी एवं ९ नव गुणठाणे भजना जाणवी. हवे न होवे. तिहां अनादि मिथ्यात्वी छवीस सत्तावत छे,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
हने मिथ्यात्व गुणठाणे छतां मिश्रमोहनीनी सत्ता नथी, अने जे त्रिपुंजीकरण करीने पड्या जे मिथ्यात्व गुणठाणे आव्या छे. तेहने मिथ्यात्वनी सत्ता हुवे ए भजना, ए अविरति समकीसथी मांडी उपशान्तमोह पर्यत ८ गुणठाणे उपशम समकीतीने मिश्रनी सत्ता होय. क्षायिक समकीतीने सप्तक क्षय थयो छे, ते माटे मिश्रमोहनीनी सत्ता नथी. ते माटे भजना जाणवी. आईदुगे-मिथ्यात्व, सास्वादन ए बे गुणठाणे अनंतानुबंधीनी सत्ता नियमा होवे. अने मिश्रादिक नव गुणठाणे भजना जाणवी.तिहां मोहनी कर्मनी २४ सत्तावाळो क्षयोपशमसमकीती जीव चोथायी पडीने मिश्रे आव्यो, तेहने मिश्र गुणठाणे अनंतानुबंधीनी सत्ता नथी, अने जे २८ अठ्ठावीस सत्तावंत. क्षयोपशमसमकिती चोथायी पडी मिश्रे आव्यो, ते अथवा २८ सत्तावंत मिथ्यात्वी मिथ्यात्व मुंकी मिश्रे आव्यो, तेहने अनंतानुबंधीनी सत्ता छे, तथा अविरतिथी उपशान्तमोह सुधी क्षायिकसमकीतीने नथी, तथा उपशमीने छे ए भजना जाणवी. ॥११॥ आहारगसत्तगंवा, सवगुणेबितिगुणे विणा तित्थं। नोभयसंतेमिच्छो, अंतमुहुत्तं भवे तित्थे ॥ १२ ॥
अर्थ-आहारकसप्तकनी सत्ता सर्व गुणठाणे १४ गुणठाणानेविषे वा कहेतां भजना. होय अथवा न होय. जे जीव ७ तथा ८ गुणठाणे आहारक बांधीने ते पड्यो अथवा चड्यो, तेहने तो आहारकनी सत्ता होय, अने जे जीव आहारक बांध्याविना पडे अथवा चढे तेहने न होय. अथवा आहारक बांधीने उचलनाकरणे करी उवेली कान्यो तेहने
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mmmmmmmmmmmmmmar
-
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थ.
mmmmmmmm पण आहारक ७ नी सत्ता नथी. तथा तित्थे-तीर्थकर नामनी सत्ता बीजे सास्वादने वीजे मिश्र गुणठाणे सर्वथा नथी. मिथ्यात्व तथा अविरति समकीती प्रमुख अयोगी पर्यंत १२ बार गुणठाणे भजना जाणवी. जिणे जीव ४; तथा ५, तथा ६, तथा ७ मेने ८ में गुणठाणे जिननाम बांधी ए १२ गुणठाणे आव्या होवे, तेहने जिननामनी सत्ता पामीजे. जिणे बांध्यो न होय अथवा बांधीने उवेली आव्यो होय, तेहने जिननामनी सत्ता न होये. तथा जिननाम, आहारकनी युगपत् सत्ता जेहने होय, ते उभय सत्तावंत मिथ्यात्व गुणठाणे न आवे. तथा जेहने तीर्थकर नाम विपाकी सत्ता होय, ते जो मिथ्यात्व गुणठाणे ( नरकायुना) निकाचित उदय माटे आवे, ते पिण अंतर्मुहूर्तकाल मिथ्यात्वपणे रहे, पिण वधतो काल रहे
ही इम जाणवो. ॥ १२ ॥ केवलजुयलाबरणा, पणनिदों बारसाइमकसायों। मिच्छ ति सबघाई, चउनाणे ति दसणावरणां ॥१३॥
अर्थ-हवे घातीमध्ये २०, सर्व घाती कहे छे-केवलजुगल केहेतां २, केवलज्ञान १, तथा केवलदर्शन २, तेहना आवरण-केवलज्ञानावरणी १, तथा केवलदर्शनावरणी २, पांच निद्रा ५, आदि धुरला १२, कषाय अनंतानुबंधी ४, अप्रत्याख्यानी ४, प्रत्याख्यानी ४, ए १२, मिथ्यात्व १, ए २०, वीस सर्वघाती जाणवी, तथा देशघाती २५, पचीस प्रकृति छे ते कहे छे, च्यार ४, ज्ञानावरणी ४, त्रण्य दर्शनावरणी. ॥१३॥
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GT
६९४ कर्मग्रन्थस्य टवार्थः संजलण नोकसाया, विग्धं इअदेसघाइय अघाई । पत्तेय तणुठाऊ, तसवीसा गोअदुग वण्णा ॥१४॥
अर्थ-संजलणा ४, नोकषाय ९, अंतराय ५, एम पूर्वोक्त मेळवतां २५, पचीस ए देशघाती छे. तथा अघाती ७५, छे तिहां पराघात १, उश्वास १, आतप १, उद्योत १, निर्माण १, अगुरुलधु १, तीर्थकर १, उपघात १, तण आठनी प्रकृति ३५, शरीर ५, उपांग ३, संस्थान ६, संघयण ६, जाति ५, गति ४, खगति २, आनुपूर्वी ४, आउखा ४, बस १०, थावर दस १०, गोयदुग-बे गोत्र २, वेदनी बे २, वर्ण १, गंध, २, रस ३, स्पर्श ४, ए ७५, अघाती प्रकृति जाणवी, जे गुणनो घात न करे ते अघाती कहेवी.॥१४॥ सुरैनरैतिगुञ्चसायं, तसदस तणुंवंग वइरे चउरसं। परघासगं तिरिआउ, वन्नचउँ पणिदि सुभखगई।१५॥ ___अर्थ-हवे पुन्यप्रकृतिना ४२, भेद कहे छे-सुरत्रिकदेवगति १, देवायु २, देवानुपूर्वी ३, तथा मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वी २, मनुष्यायु ३, नरत्रिक मळी ६, उच्चैर्गोत्र ७, सातावेदनी ८, त्रसदशक, १८, शरीर पांच २३, उपांग त्रण २६, वज्ररुषभनाराच २७, समचोरस संस्थान २८, परावात सप्तक पराघात २९, उश्वास ३०, आतप ३१, उद्योत ३२, अगुरुलघु ३३, निर्माण ३४, तीर्थकरनामकर्म ३५, तिर्यंचआयु ३६, शुभवर्ण ३७, गंध ३८, रस ३९, स्पर्श ४०, पंचेन्द्री जाति ४१, शुभविहायोगति ४२, ए ४२, बेताळीस पुण्यप्रकृति जाणवी. जेहना विपाक भोगवतां मीठा लागे ते पुन्यप्रकृति. ॥ १५ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
६९५
बायालपुन्नपगैई, अपढम संठाणं खर्गेइ संघयेणा ।
तिरिदुंग असाये नीओ- येघांय इगे विगैल निरयतिगं१६
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अर्थ -- ४२, पुण्यप्रकृति थइ. हवे ८२, पाप प्रकृति कहे छे, अपढम - पेहेलुं संस्थान, पेहेली स्वगति - विहायोगति, संघयण ए ३ वजने बीजी सर्व पाप प्रकृति छे. न्यग्रोध संस्थान १. सादि, २, वामन, ३, कुब्ज, ४, हुंड ५, ए पांच संस्थान, तथा अशुभविहायोगति ६, तथा रुषभनाराच संघयण ७, नाराच ८, अर्धनाराच ९, कीलिका १०, छेवट्ठो ११, तिरिदुग - तिर्यंचगति १२, तिर्यचानुपूर्वी १३, असातावेदनी १४, नीचगोत्र १५, उपघात १६, एकेन्द्रीनी जाति १७, बिगलतिग द्वीन्द्रिय १८, त्रीन्द्रिय १९, चौरेन्द्रीनी जाति २०, नरकत्रिक ते नरकगति २१, नरकानुपूर्वी २२, नरकायु २३, ।। १६ ।।
थावर दर्स वन्नचउक्क, घाइपणयालसहिअ बासीई । पावपयडित्ति दोसुवि वन्नइगहा सुहा असुहा ॥ १७
अर्थ -- थावरनो दशक ३३, अशुभवर्ण ३४, रस ३५, गंध ३६, स्पर्श ३७, तथा घातीनी ४५, ते ज्ञानावरणी ५, मोहनी २६, अंतराय ५, एवं ४५, सहीत करीये, एटले ८२, प्रकृति पापनी जाणवी. इहां पापना ८२, भेद, तथा पुण्यना ४२ भेद, ते भेळतां १२४, प्रकृति थइ, ते बंधनी तो १२०, छे? तेहनो उत्तर - जे शुभवर्णादि ४, पुन्यमे गवेष्या, अशुभवर्णादि पापमे गवेष्या, ते माटे दुवारे ( बेवार ) गणतां १२४, थाय छे इमज. ॥ १७ ॥
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६९६
कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
नामधुवबंध नवगं, दंसणं पणनाणं विग्धे परघायं । भय कुच्छ मिच्छ सासं, जिणगुणतीसा अपरिअत्ता १८
अर्थ -- हवे अपरावर्त्तमान प्रकृति कहे छे-नामनी ध्रुवबंधी ९, वर्णादि ४, निर्माण १, अगुरुलघु १, उपघात १, तैजस १, कार्मण १, ए ९, तथा दर्शनावरणी ४, पणनाणज्ञानावरणी पांच, विग्धं - अंतराय पांच, पराघात १, भय, दुगंछा, मिथ्यात्व, उश्वास, जिननाम ए इगुणत्रीस २९, ए अपरावर्त्त - मान जाणवी. अपरावर्त्तमान एटले जे प्रकृति कोनो बंध तथा उदय रोक्या विना पोताना हेतु सद्भावे बंधाय, तथा उदय आवे, ते अपरावर्त्तमान कहीये. ॥१८॥
तअट्ठ वेअं दुजुअल, कर्सीय उज्जीअ गोदुगनिद्दाँ । तसैवीसा उ परित्ता, खित्तविवागाणुओ ॥ १९ ॥
अर्थ - - परावर्त्तमान प्रकृति ९१, कहे छे, जे तणुअट्ठशरीर ३, उपांग ३, संस्थान ६, संघयण ६, जाति ५, गति ४, खगति २, आनुपूर्वी ४, एवं ३३, तथा वेद त्रण ३६, दुजुयल - हास्य रति, तथा शोक अरति ४०, कषाय सोळ ५६, उद्योत ५७, आतप ५८, गोत्र बे ६०, वेदनीय बे ६२, निद्रा पांच ६७, त्रस थावरना दसकानी मळी वीस ८७, चार आउखा ९१, ए एकाणुं परावर्त्तमान प्रकृति जाणवी. जे ए बंध तथा उदयमां एकने रोकीने बंधाय अथवा उदये आज ते परावर्त्तमान कहीजे. हवे क्षेत्रविपाकी - क्षेत्र कहेतां आकाश तिहां जेहनो विपाक जे क्षेत्रविपाकी च्यार ४, आनुपूर्वी छे, जे एक भवयी बीजे भव जतां बाटे विपाके
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
६९७
उदय पाभीये छीये, जो प्रदेशोदय न मानीयेतो एहनी स्थिति किहां भोगवाये ते माटे. ॥ १९ ॥
510
घणघाई दु गोअ जिणा, तसिअरतिग सुभग दुभंग
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चउ सांसं ।
जाइ ति जियविवागा' आऊ चउरो भवविवाग ॥ २० ॥
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"
अर्थ -- हवे जीवविपाकीनी ७८, प्रकृति कहे छे. तिहां जे कार्मण वर्गणापणे जे बांध्यो कर्म, ते मुख्यपणे जीवनेज विपाक देखाडे, ते जीवविपाकी कहीये. तिहां घनघाती ४७, जे ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी नव, मोहनी अठ्ठावीस, अंतराय पांच, ए ४७, दुगोय बे गोत्र, बे वेदनीय ४, जिननाम १, सत्रिक त्रस १, बादर २, पर्याप्त ३, इअर - थावरत्रिक थावर १, सूक्ष्म २, अपर्याप्त ३, सुभगचउ - सुभग १, सुस्वर २, आदेय, जश ४, दुभगचउ - दुर्भग १, दुःस्वर २, अनादेय ३, अजरा ४, श्वासोश्वास १ जातित्रिक कहेतां - जाति ५, गति ४, खगति २, ए ११ इग्यार ए सर्व मिळी ७८ प्रकृति जीवविपाकी जाणवी तथा आउखां च्यार ४ भवविपाकी जागवां. आउखां पोताना भवमेज उदये आवे, पण बीजे भवे संक्रमण तथा नरेशपणे पिण उदय न आवे, ते माटे भव वेपाकी कां ॥ २० ॥ नामधुवोदये चउतणु, वघाय साहारणियर जोयतिगं । पुग्गलविवागि बंधो, पयइट्ठि रस पसति ॥ २१॥
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
वर्णादि ४, तैजस १,
अर्थ - नामकर्मनी ध्रुवोदयी १२, कार्मण १, निर्माण १, अगुरुलघु १, थिर १, अथिर १, अशुभ १, ए १२ चउतणु-शरीर ३, उपांग ३, संस्थान ६, संवयण ६, ए १८ तथा उपघात १, साधारण १, प्रत्येक १, उद्योतत्रिक - उद्योत १, आतप २, परावात ३ एवं ३६ छत्रीस प्रकृति पुद्गलविपाकी जाणवी. पुद्गलविपाकी कहेतां जे बंधकाले कार्मण वर्गणावणे बांध्यां, ते उदयकाले शरीरप्रत्ये विपाक देखाडे, ते पुद्गलविपाकी कहीजे. इहां कोई पूछस्ये जे कार्मणनी तो वर्गणा नवि लेवाये, ते पिण सोलगुणी छे, तो उश्वासनीपरें जीवविपाकीमें कां गणता नथी? तेहने उत्तर जेः- कार्मणवर्गणा तो आहारपर्याप्सिने बले लेवाये, ते माटे पुद्गल विपाकी छे. श्वासोश्वास, सुस्वर, ते तो उश्वासपर्याप्ति तथा भाषापर्याप्तिने उदयबले ले छे ते माटे जीवविपाकी गणी छे. हवे बंवना भेद ४ च्यार कहे छे. प्रकृतिबंध १ स्थितिबंध, २, रसबंध ३, प्रदेशबंध ४ तिहां teri प्रकृतिबंधना भेद कहे छे. ॥ २१ ॥ मूलपयडीण अड सत्त, छेग बंधेसु तिन्निभूगारा । अप्पत्तरा तिअ चउरो, अवट्ठिआन हु अवत्तवा ॥ २२ ॥
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अर्थ- मूळ कर्म आठ छे, तिहां मूळ आठ प्रकृति एक समे एक जीव बांधे. जे नवा भवनो आउखो बांधतो हुवे. ते आठ बांधे, जे जीव आपखो न बांधतो हुवे ते सात बांधे, तथा दसने गुणणे वर्तता मुनिने आउखो, मोहनी, बांचे तिवारे छ ६ बंधाये, तथा इग्यारमे, बारमे, तेरमे गुणठाणे एक सातावेदनीय बांधे, ते माटे एकविध बंध के.
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
एतले मूळ बंधनां थानक ४ च्यार छे. इहां तीन ३ भूयस्कार जाणवा, इग्यारमे गुणठाणे एक बंधक हतो, ते इग्यारमाथी पडी दशमे आवी ६ छ बांधे, तिवारे १ भूयस्कार, वळी नवमे गुणठाणे आवे तिवारे ७ सात बांधे, ते बीजो भूयस्कार, तथा ते जीव जीवारे आठ बांधे तिवारे त्रीजो भूयस्कार जाणवो, अल्पतर तीन छे, ते जे आठनो बंधक ते सात बांधे तिवारे एक अल्पतर, सातथी छ बांधे ते बीजो अल्पतर, अने छ थी एक बांधे तिवारे त्रीजो अल्पतर, ए तीन अल्पतर जाणवा. तथा आठनो १, अवस्थित सातनो बीजो अवस्थित, छनो त्रीजो अवस्थित, एकनो चोथो अवस्थित, ए ४ च्यार अवस्थित जाणवा. मूळ बंधे अवक्तव्य बंध नथी, जे मूळयी अबंधक थइने पाछो बंधक थतो नथी. ॥ २२ ॥ एगादहिगे भूओ, एगाईऊणगम्मि अप्पतरो। तम्मत्तोऽवट्ठियओ, पढमे समये अवत्तवो॥ २३ ॥
अर्थ-एकादिक अल्पबंधयी जे अधि को बंध बांधे तभूपस्कार बंध कहीये. जिम एक बंध करतो तिणे वळी एक अधिको बांध्यो, तिणे पहेले समये मूयस्कारकहीये,अनजे पूर्व बंधथी एक तथा घणा पिण ऊंणा बांधे ते अल्पतर. जिम आठनोबंध करतो ते सात बांधे ए अल्पतर जाणवो, अने जे थानक बांबतो हतो तेहिज बीजे समे बांधे, ते अवस्थित कहीये, ते मात्र ते ते प्रमाणेज बांधे ते अवस्थित बंध जाणवो, अने अबंध थइ प्रथम समये जे बांधे तेहने अवक्तव्य कहीये, जिम दसमे, इग्यारमे, मोहनी कर्मनो अबंधक हतो, ते पडतां नवमे गुणठाणे आवे
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७००
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
एक बांधे एहने अवक्तव्यबंध कहीये, कोयथी अधिको नथी तिणे भूयस्कार नही, कोयथी ऊणो नथी, तिणे अल्पतर नथी, तेनो ते पण नथी ते माटे अवस्थितपण नथी ए अवकतव्य कहीये. ॥ २३ ॥ नव छ ञ्चउ दंसे दु दु, तिदु मोहे दुइगवीस सत्तरस। तेरस नव पण चउतिदु, इकोनव अट्ठ दस दुन्नि ॥२४
__ अर्थ हवे दर्शनावरणी कर्मनां बंधस्थानक ३ तीन छे. पेहेलो नवनो स्थानक छे, ए मिथ्यात्व, सास्वादन गुणठाणे छे. पछे सास्वादनने अंते थीणद्धी तीन काढीजे तिवारे, मिश्रथी मांडी आठमा गुणठाणा सीम छनो बंध स्थानक छे, तथा आठमाना बीजा भागथी मांडी दसमा गुणठाणाना सीम च्यार ४ नो बंध इम थानक च्यार ४ नो छे, दर्शनावरणी कर्मने भूयस्कार बे छे. जे दसमे गुणठाणे च्यार ४ बांधतो हतो ते आठमे आव्ये ६ छ बांधे ते एक भूयस्कार, छथी सास्वादनमे आवी नव बांधे ते बीजो भूयस्कार, ए बे भूयस्कार जाणवा. अथवा नव बांधी छ बांधे ए पेहेलो अल्पतर, तथा ६ बांधी, ४ बांधे ते बीजो अल्पतर, तथा ९, तथा ६, तथा ४ ए तीन अवस्थित, तथा कोइ जीव इग्यारमे गुणठाणेथी पडी १० मे आवे ते अंबंधक थइ च्यार ४ वांधे ते पेहेलो अवक्तव्य, अथवा इग्यारमे मरण मामीने चोथे आवी ६ बांधे ए बीजो अबव्य जाणवो. ..ही मोहनीय कर्मनां बरयानक १० ते प्रथम २२ नो बीजो २१ नो, त्रीजो १७ ना, यो १३ ना, पांचमो ९ नो,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
७०१
छठो ५ नो, सातमो ४ नो, आठमो ३ नो, नवमो २ नो, दसमो १ नो, ए दस बंधस्थानक जाणवां, इहां नव भूयस्कार बंध छे. तिहां एकथी बे बांधे ते पेहेलो भूयस्कार, बेथी तीन बांधे ते बीजो भूयस्कार, तीनथी च्यार ४ बांधे ते त्रीजो भूयस्कार, च्यारथी पांच बांधे ते चोथो भूयस्कार, पांचथी नवनो पांचमो, नवथी तेरनो छठ्ठो, तेरथी सत्तरनो सातमो, सत्तरथी एकवीसनो आठमो, एकवीसथी २२ नो नवमो भूयस्कार जाणवो, अल्पतरमा बावीसथी २१ एकवीसनो बंध करे नहीं, जे माटे मिथ्यात्वथी सास्वादन गुणठाणे जीव न आवे, ते माटे बावीसथी सत्तरनो पेहेलो अल्पतर, सत्तरथी १३ नो बीजो, तेरयी ९ नो बीजो, नवथी पांचनो, पांचथी ४ नो, ४ थी ३ नो, ३ थी बेनो, बेथी एकनो, ए ८ अल्पतर जाणवा. तेह दस स्थानक ते दस अवस्थित जाणवा. ते जे मुनि इग्यारमें चढी मोहनीकर्मनो अबंधक थयो, ते पडतो नवमे आवी पेहेले समये १ लोभ बांचे, ते माटे एकनो अवक्तव्य बांधे ते पेहेलो अवक्तव्य, एह कोथी अधिको नो अल्प नथी अने अबंध थइ प्रथम बांन्यो ते माटे १ नो वक्तव्य कहीये, तथा जे जीव इग्यारमें काल करे ते चोथे गुणठाणे आवी १७ सत्तर बांधे ए बीजो अबक्तव्य, इहां भूयस्कार, तथा अल्पार, तथा अवक्तव्य बंधनो एक समय काल छे. शेष सर्व अवस्थितनो काल
छे. ॥ २४॥ सिण अट नहिया, वीसातीसगतीस इंगनामे छैस्संग अट्ठति बंधा, सेसेसुध ठाणमिकि॥२५॥
पयडिबधो समतो॥ १२१
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७०२
कार्मग्रन्थस्य वार्थः
अर्थ-ढवे नामकर्मनां स्थानक ८ आठ छे, तिहां पेहेलो वीसनो, बीजो २५ नो, बीजो २६ छवीसनो, चोथो अड्डावीस २८ नो, पांचमो २९ नो, छठ्ठों ३० नो, सातमो एकत्रीसनो ३१ नो, आठमो एक १ नो, ए भूयस्कार ६ छ जाणवा, तेवीसथी पचवीसनो पेहेलो भूयस्कार, पचवीसथी २६ नो बीजो, २६ थी २८ नो त्रीजो, २८ थी २९ नो चोथो,. २९ थी ३० नो पांचमो, ३० थी ३१ नो छठ्ठो, मूयस्कार छे. अल्पतर ७ छे ते ३१ थी १ नो पेहेलो अल्पतर, ३१ थी ३० नो बीजो अल्पतर, इहां कोइक जीव ३० थी १ नो बंध करे, पिण ते एकना अल्पतर मध्येज गण्यो तिणे जुदो गणवो नथी, तथा ३० थी २९ नो त्रीजो, २९ थी २८ नो चोथो, २८ थी २६ नो पांचमो, २६ थी २५ नो छठ्ठो, २५ थी २३ नो सातमो अल्पतर जाणवो, बंधस्थानक तेहज ८ अवस्थित जाणवां. इहां अवक्तव्य ३ तीन छे वे जे मुनि इम्यारमे गुणठाणे नामकर्मनो अबंधक छे, ते इम्यारमाथी पड्या १०. मे आवी १ बांधे, ए पेहेलो अवक्तव्य, तथा जे इग्यारमें काल करे ते चोथे आवे ते देवप्रायोग्य २८ बांधे ए बीजो, अथवा कोइक जीव २९ जिननाम सहित बांधे ए त्रीजो अवक्तव्य, ३१ थी १ नो पहेलो, ३१ थी ३० नो बीजो, ३० थी २९. नो चीजो, ए नामकर्मना ३ अवक्तव्य जाणवा. शेष जे ज्ञानावरणी. आयु, वेदनीय, गोत्रकर्म अंतराय, ए पांच कर्मनो एकेक बंधस्थानक, वेदनीय विना ४ च्यार कर्मने अवस्थित तथा अवक्तव्य ए बे बंध छे, वेदनी कर्मने एक अवस्थित बंध छे, वेदनीयनो अबंधक यह बंध करे नहीं, ते माटे अवक्तव्य नथी. ए प्रकृतिबंध अधिकार कह्यो, इति प्रकृतिबंध समाप्त. द्वा० १७ ॥ २५ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य स्वार्थः
७०३
areerकोडिकोडी, नामे गोएय सत्तरी मोहे । तीसयरचउसुउदही, निरय सुराउंमि तित्तीसा ॥२६॥
अर्थ- हवे मूळ कर्म आठ व्हेनी उत्कृष्ट स्थिति छे ते कहे छे - बीसयर - वीसकोडाकोडी सागर नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी उत्कृष्टी स्थिति छे ते जाणवी, मोहनीकर्मनी ७० सीत्तेर कोटाकोडी सागरनी उत्कृष्ट स्थिति छे, चउसु - ज्ञानावरणी, १ दर्शनावरणी २, वेदनीय ३, अंतराय ४, ए च्यार ४ कर्मनी ३० कोडाकोडी सागरनी उत्कृष्टी स्थिति जाणवी. नरकना आयु तथा देवताना आउखानी उत्कृष्टी स्थिति, तेत्रीस सागरोपमनी जाणवी. उत्कृष्ट स्थिति उत्तर प्रकृतिनी पिण इहांथी गणज्यो. हवे मूल कर्मनी जघन्य स्थिति कहे छे, मुत्तु-अकषायवेदनीयनी स्थिति, वर्जिने शेष सकषायीजीव, वेदनीयकर्मनी स्थिति जवन्यें अंतमूहूर्तनी बांवे छे. अथवा १२ मूहूर्तनी बांधे छे. ए दसमे
ठाणे बांधे. इहां दसमा गुणठाणाना आदि अध्यवसायें ॥ २६ मुअकसायठिइं, बारमुहुत्ता जहन्न वेअणिए । अट्ठट्ठनामगोए-सु सेसएसु मुहुत्तो ॥ २७ ॥
अर्थ- अकषायी ते ११ मुं, १२ मुं, १३ मुं, ए ३ गुणठाणामां काषायिक स्थिति जे छे तेने मुकीने एटले १० दसमे गुणठाणे जे जीव छे ते जीवने वेदनीयनी स्थिति १२ बार मुहूर्त्त जघन्यथी होय, दसमा गुणठाणाना पेहेले अध्यवसाये मुहूर्त्त मोटो लेवो, अंत्यअध्यवसायें मुहूर्त्त न्हानो लेवो, तथा क्षपकथी उपशमश्रेणियां बिमणो बंध जाणवो, नामकर्म, गोत्रकर्मनी जवन्य स्थिति आठ मुहूर्त्तनी छे. शेष जे ज्ञानावरणी तथा दर्शना
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
वरणी, आउखो तथा मोहनी, तथा अंतरायनी जघन्य स्थिति १ एक अंतर्मुहूर्त्तनी जाणवी. ।। २७ ॥ विग्धों वरण असाए, तोस अट्ठार सुहुम विगलतिगे। पढमागिई संघयेणे, दलदुबारेमेसु दुगवुट्ठी ॥२८॥
अर्थ-हवे उत्तर प्रकृतिनी उकृष्ट स्थिति जणावे छे.अंतराय पांच ५, ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी नव एवं आवरण १४ असातावेदनीय १ ए वीस प्रकृतिनी तीस कोडाकोडी सागर उत्कृष्ट स्थिति जाणवी. तथा सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, ए छ प्रकृतिनी अढार कोडाकोडी, यम संघयण वज्रऋषभनाराय, प्रथम संस्थान समचउरंसनी उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागर, पछी उपरले एक संघपणे एक संस्थाने दुग केहेतांबे कोडाकोडी सागरनी स्थिति वारवी, एटले ऋषभनाराच संघयणे तथा न्यग्रोध संस्थाने बार कोडाकोडी सागरनी स्थिति, तथा नाराच संघयणे, सादि संस्थाने चउद १४ कोडाकोडी सागरनी स्थिति, अर्द्ध नाराचसंघयणे, वामनसंस्थाने १६ सोळ कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति, किलीकासंघयणे, कुब्ज संस्थाने अढार १८ कोडाकोडी सागरनी स्थिति, छेवठु संघयण, हुंडक संस्थाननी स्थिति वीस कोडाकोडीनी जाणवी. ए गाथा मध्ये ३८ प्रकृतिनी स्थिति कही. ॥ २८ ॥ चालीसकसाएसु, मिउ लहु निद्भुण्ह सुरहि सिय
महुरे। दस दोसट्ठ समहिया, ते हालिदंबिलाईणं ॥२९॥ अर्थ-सोळ १६ कषायनी स्थिति ४० चाळीस कोडाकोडी
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
७०५
सागरनी स्थिति जाणवी, मिउ-मृदुस्पर्श सित - उजळो वर्ण, मधुरमीठो रस, ए छ प्रकृतिनी दस कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति जाणवी, तथा हवे एक वर्णे एक रसे अढी कोडाकोडी धारवी एटले हालि६ - पीळोवर्ण, अंबिल - खाटो रस तेहनी. साडाबार १२॥ कोडाकोडी सागरनी स्थिति जाणवी, रातो वर्ण, कसायलो रस, तेनी पंनर कोडाकोडि स्थिति, नीलोवर्ण, कडवो रस तेहनी १७ || साडासत्तर कोडाकोडी सागर स्थिति, काळोवर्ण, तीखोरस तेनी वीस कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति जाणवी ॥ २९ ॥
दस सुहविहगइ उच्चे, सुरदुगथिरछक्क पुरिसरइहासे । मिच्छे सत्तरि मणुदुग, इत्थीसाएसु पण्णरस ॥३०॥
"
अर्थ- शुभ विहायोगति १, उच्चगोत्र १, सुरदुग -देवगति, देवतानुपूर्वी २, थिरछक्क थिर १ शुभ २, सुभग ३, सुस्वर ४, आदेय ५, यश ६, ए छ थिरछक्क. पुरुषवेद. १, रति १, हास्य १, ए १३, तेर प्रकृतिनी दस कोडाकोडी सागर उत्कृष्टी स्थिति छे. मिथ्यात्व मोहनीनी सित्तेर ७०, कोडाकोडी सागरनी उत्कृष्टी स्थिति छे, मनुष्यगति, मनुष्यानु पूर्वी, स्त्रीवेद, सातावेदनी ए ४ नी पन्नर १५ सागर कोडाकोडी स्थिति छे. ॥ ३० ॥
भयकुच्छ अरइ सोए, विउधि तिरि उरल निरयदुग
नीए ।
तेयपण अथिर छक्के, तस चउ थावर इगपणिदि ३१ अर्थ - - भयमोहनी १, कुच्छ - दुगंछा १, अरति १,
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७०६ कर्मग्रन्थस्य टबार्थः शोकमोहनी १, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय उपांग, ए बे, तिर्यंचगति तिर्यंचानुपूर्वी, ए बे, औदारिक शरीर, औदारिक उपांग ए बे, नरकगति, नरकानुपूर्वी ए बे, नीचैर्गोत्र १. तैजस पांच-तैजस १, कार्मण २, अगुरुलघु ३, निर्माण ४, उपवात ५, ए पांच अथिरछक्क ते अथिर १, अशुभ २, दुर्भग ३, दुःस्वर ४, अनादेय ५, अजस ६, ए छ. त्रस ४, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक ए च्यार ४, थावर १, एकेन्द्री १, पंचेन्द्री १. ॥ ३१ ॥ नपुकुखगइसासचउ, गुरु कक्खड रुख्खसीय दुग्गंधे वीस कोडाकोडी, एवइआवाहवाससया ॥ ३२ ॥ ___अर्थ-नपुंसकवेद १, अशुभविहायोगति १, श्वासोश्वास चतुष्क-४, उश्वास १, उद्योत १, आतप १, पराघात १, गुरु-भारेफरस १, कर्कश फरस १, रुक्ष-लूखो फरस १, शीतटाढो फरस १, दुर्गध १, ए ४२ बेताळीस प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति वीस २० कोडाकोडी सागरनी जाणवी. एवइया एटलां वरस सय-सो वर्ष अबाधा जाणवी. एटले जे. कर्मनी जेटली कोडाकोडी स्थिति तेटला सो वरसनी अबाधा. बांध्या पछी तेटला सो वरस सीम (सुधी) उदय न आवे ते अबाधा कहीये. ॥ ३२॥ गुरु कोडि कोडिअंतो, तित्थाहाराणभिन्नमुहुवाहा। लहुठिइसंखगुणूणा, नरतिरियाणा उपल्लतिगं ॥३३॥
अर्थ--गुरु केहेतां उत्कृष्टी अंतो केहेतां मांही एटले कांइक उणी एक कोडाकोडी सागर तीर्थकर नामनी तथा
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कर्मग्रन्थस्य बार्थः
७०७
आहारक दुगनी स्थिति उत्कृष्टी जाणवी. तथा अबाधा प्रदेशोदयनी भिन्नमुहु-अंतर्मुहूर्त्तनी जाणवी. जघन्य स्थिति संख्यात गुण ऊंणी ते जे अतः कोडाकोडी स्थिति छे. तेहने संख्यातगुणी ऊणी करीये, जेटली थाय तेटली ऊणी जघन्य स्थिति जाणवी. एटले असंख्याता अध्यवसायनो फेर पडे छे. नर-मनुष्यनुं आयु तथा तिर्यंचायुनी उत्कृष्टी स्थिति तीन ३ पल्योपमनी जाणवी. ॥ ३३ ॥ इगविगलपुवकोडिं, पलियाऽसंखस आउचउ अमणा। निरुवकमाण छ मासा, अबाह सेसाण भवतंसो ३४ ____अर्थ-हवे जे जीवो आवता भवनो आयु जेटलो बांधे ते कहे छे. एकेन्द्रि तथा विकलेन्द्रिय आवता भवतुं, आयुः उत्कृष्ट बांधे तो पूर्वकोडि १ एकनो बांधे एथी अधिक न बांधे. तथा अमणा असंज्ञि पंचेन्द्रितियेच पर्याप्ता च्यार ४ गतिनो आउखो बांधे तो उत्कृष्टो पल्योपमने असंख्यातमें भाग प्रमाण बांधे, निरुपक्रम आउखावाळा देवता तथा नारकी तथा युगलिया एटला छ मास शेष थकी नवा भवनो आउखो बांधे. शेष जे सोपक्रमी तथा निरुपक्रमी मनुष्य तियेचनुं आयुष्य ते भवने त्रीजे भागे शेषे बांधे पिण पेहेला बे भाग मध्ये न बांधे, जो बीजे भागे न बंधाय तो नवमा भागे, अथवा २७ मे भागे इम विभाग करतां शेष अंतर्मुहूर्ते पिण बांधे. वर्णादिक वीसनी जुदी स्थिति कही. तिणे एकसोछवीस प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थितिकही. हवे जघन्य स्थितिकहे छे. ॥३४॥ लहु ठिइबंधो संजलण, लोहपणविग्घनाण दंसेसु। भिन्नमुहुत्तं ते अट्ठ, जसुच्चे बारस य साए ॥३५॥
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७०८
कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः
अर्थ - जे संज्वलन लोभ १, तथा पांच अंतराय ५, तथा पांच ज्ञानावरणी तथा दंसेसु च्यार ४, दर्शनावरणी १५ पंनर, प्रकृतिनी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त्तनी जाणवी. तथा जसनामकर्म, उच्चगोत्र १ नी आठ मुहूर्त्तनी जवन्य स्थिति जाणवी. सातावेदनीयनी जघन्य स्थिति बार मुहूर्त्तनी ते दस गुणठाणे बांधे, इग्यारमे, बारमे, तेरमे गुणठाणे साता बंधाय ते बे समयनी बंधाय. ॥ ३५ ॥ दो इग मासो पक्खो, संजलणतिगेपुमट्ठवरिसाणि सेसाणुकोसाओ, मिच्छत्तठिईए जं लद्धं ॥ ३६ ॥
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अर्थ-संज्वलनना क्रोवनी जघन्य स्थिति मास बेनी छे. संज्वलननामाननी १, एक मासनी छे, संज्वलन मायानी पक्ष १, ते पंदर दिवसनी छे, तिहां जे प्रकृति नवमे गुणठाणे वेहेली खपे तेहनी स्थिति जवन्यपणे कही हवे जे मोडी खपे तेही जघन्य स्थिति थोडी जाणवी. पुरुषवेद खपे तिहां सर्व प्रकृतिनी स्थिति एटलीज बंधाय छे, पुरुषवेदनी स्थिति जबन्य छे, हवे शेष जे एकसोएक प्रकृति वर्णादिक वीसनी उत्कृष्टी स्थितिने मिथ्यात्वनी उत्कृष्टी स्थितिथी भाग आपतां ज्यां जे आवे ते त्यां प्रकृतिनी जवन्य स्थिति जाणवी. तिहां निद्रा पांचनी जघन्य स्थिति सागर १ एकना जे सात भाग एहवा तीन भागनी जाणवी असातावेदनीय पिण सात इया तीन भागनी जाणवी, बार कषायना जघन्ये सातइया ४
च्यार भागनी जाणवी हास्य १, रतिनी सातइया बे भाग
भय, दुगंछा, अरति, शोक ए च्यार ४ प्रकृतिनी जघन्य स्थिति बे भाग, नपुंसकवेदनी स्थिति सातइया बे भाग,
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
७०१
स्त्रीवेदनी स्थिति सातइयो दोढ भाग, नामकर्ममध्ये देवगति देवानुपूर्वीनी एक हजार भाग नरकगति, नरकानुपूर्वीनी सातइया बे हजार भाग, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वीनी दोढ भाग एकेन्द्री जाति, पंचेन्द्री जातिनी जघन्य स्थिति सातइया बे भाग, विकलत्रिकनी सातइया पोणा बे भाग झाझेरा, औदारिक शरीर, औदारिक उपांगनी बे भाग, वैक्रिय शरीर वैक्रिय उपांगनी बे हजार भाग, तैजसकार्मणना बे भाग, प्रथम संघयण प्रथम संस्थाननी सातइयो १, एक भाग, बीजो संघयण बीजा संस्थाननी स्थिति ३५ सीया छ ६ भाग, त्रीजो संघयण बीजो संस्थान ३५, सीया ७, भाग चोथे संघयणे चोथे संस्थाने पांत्रीसीया (३५ या ) ८, भाग पांचमो संवयण पांचमो संस्थानना पांत्रीसीया नव ९ भाग, छठ्ठो संवयण, छट्टो संस्थानना पांत्रीसीया दस भाग, एटले सातइया बे भाग श्वेतवर्ण मधुररसनी १, भाग पीतवर्ण खाटारसनी सवा भाग शतावर्ण कसायला रसनी दोढ भाग नीलोवर्ण, कडयो रस पोगाबे भाग, काळोवर्ण, तीखारसनी बे भाग सातइया, सुरभिगंध, मृदुस्पर्श, लघुस्पर्श, स्निग्धस्पर्श, उणष्स्पर्श, नो सातइयो १, भाग शुभविहायोगतिनो जवन्य सातइयो १, एक भाग अशुभविहायोगति, पराघात, उश्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, त्रस, अथिरछक, थावरनाम ए सर्वना सातइया बे भाग, आहारक शरीर, आहारक उपांगनी, जिन नामनी एक कोडाकोडी सागर केटलाएक सागरोपमना सेंकडा ओछा, सूक्ष्मत्रिकनी सातइया पोंणा बे भाग झाझेरा, थिर ५ नो सातइयो १, भाग जघन्य स्थिति जाणवी. ॥३६॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अयमुक्कोसो गिंदिसु, पलियाऽसंखंस हीणलहुबंधो। कमसोपणवीसाए, पन्ना सय सहस्ससंगुणिओ॥३७॥ ___अर्थ---एक भाग छ भाग तीनभाग प्रमुख स्थिति कही ते एकेन्द्रीने उत्कृष्ट स्थिति जाणवी, बादर पर्याप्तो उत्कृष्टी बांधे, ए जे एकेन्द्रीयनी उत्कृष्ट स्थिति कही, ते मांहेयी पल्योपमनो असंख्यातमो भाग हीण कहेतां ओछो करीये, तिवारे एकेन्द्रीयनी जघन्य स्थिति जाणवी. कमसो अनुक्रमे पणवीसाए एकेन्द्रीथी बेन्द्री पचवीस गुणी स्थिति बांधे, तेन्द्री पचासगुणी स्थिति बांधे, चोरेन्द्री १०० सोगुणी बांधे, अने असंज्ञि पंचेन्द्री हजारगुणी स्थिति बांधे. ॥ ३७॥ विगलिअसन्निसुजिट्ठो, कणिठ्ठओ पल्लसंखभागूणो सुरनिरयाउ समादस, सहस्स सेसाउखुड भवं ॥३८॥
अर्थ-विकलेन्द्री (बेन्द्री, तेन्द्री, चौरेन्द्री) ने, असंज्ञिने ए स्थिति उत्कृष्टी जाणवी. कणिट्टओ-जवन्य स्थिति पल्यनो संख्यातमो भाग ऊणी, करवी ते पल्यनो संख्यातमो भाग ऊणो कीजे तिवारे बेन्द्रीयादिकनी जघन्य स्थिति जाणवी. सुर देवतानो आउखो, नरय-नारकीना आउखानी जघन्य स्थिति हजार १० दस हजार वरसनी जाणवी. शेष जे मनुष्य तिर्यचना आउखानी जघन्य स्थिति क्षुल्लक भव प्रमाण, क्षुल्लक भव २५६ आवलीनी छे ते जवन्य जाणवी. ॥३८॥ सवाणवि लहुबंधे, भिन्नमुहु अबाह आउजिठेवि। केइ सुराउसमंजिण, मंतमुहू बिंति आहारं ॥३९॥
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
७१.१
अर्थ — सर्व प्रकृतिना जघन्य स्थितिबंधे जघन्य अबाधा अंतर्मुहूर्तनी जागवी. एटले सर्वजवन्य स्थितिनी जवन्य अबाधा अंतर्मुहूर्तनी ते उपर स्थिति कंडक' एक वधे एक समय अबाधा वधे. इम उत्कृष्ट स्थितिमां उत्कृष्ट अबाधा जाणवी, अने आउखा च्यारनी उत्कृष्टी स्थिति जघन्य अबाधा दुवे, इहां चौभंगी छे, आउखो उत्कृष्टे अबाधा उत्कृष्टी १, आउखे उत्कृष्टे अबाधा जवन्य २, आउखो जवन्य अबाधा उत्कृष्ट ३, आउखो जवन्य अबाधा जघन्य ४ जाणवी. वळी वाचनान्तर कहे छे. कोइक आचार्य जिन नामनो जघन्य स्थितिबंध देवताना आयु प्रमाण जाणवो, एटले आठमा गुणठाणाना छठ्ठा भागना चरम समये जीननामकर्मनो जघन्य स्थितिबंध १० हजार वर्ष प्रमाणनो होय छे. आहारक दुगनी विपाकनी जघन्य स्थितिबंध अंतर्तनी छे, जे आठमा गुणठाणाना छठ्ठा भा गना चरम समये - आहारको जवन्य स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त होय छे. ॥ ३९ ॥ सत्तरसमहियाकिर, इगाणुपाणुंमिहुंतिखुडुभवा । सगतीस सयतिहुत्तर, पाणू पुण इग मुहुत्तंमि ॥४०॥
अर्थ — दवे क्षुलकभवनो मान कहे छे. एक आणपाण श्वासोश्वास मध्ये सत्तर भव पुरा अढारमा भवना १३९५ भाग अधिक एटले सत्तर भव झाझेरा एक श्वासोश्वास मांहे. थाय. ए क्षुल्लक भव जाणवो, क्षुल्लक एटले सर्वयी न्हानो भव ए भाग उश्वासना ३७७३ भाग करीये तेहवा १३९५ भाग लेवा, सडत्रीससे तिहत्तर ३७७३ पाणू, पुण कहेता श्वासोश्वास गये एक मुहूर्त थाय ॥ ४० ॥
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कर्मग्रन्थस्य टबाथः
पणसठि सहसपणसय, छत्तीसाइगमुहुत्त खुडुभवा। आवलियाणं दोसय, छप्पन्ना एग खुड्डभवे॥४१॥ ___ अर्थ-एक मुहूर्त ते बे घडी प्रमाणमे पेंसठहजार पांचसे छत्रीस भव थाये, सूक्ष्मनिगोदीयाथी मांडी समुर्छिछम मनुष्य पर्यंत ए प्रमाण जाणवो, तथा क्षुल्लक भव मध्ये आवली, २५६ जाये एटले मुहूर्तमे एक कोडि सडसठ लाख सित्तोत्तर हजार दोयसेने सोळ आवली जाणवी. ॥४१॥
अविरयसम्मोतित्थं, आहारदुगामराउ अपमत्तो। मिच्छदिहि बंधइ,जिटुंठिइसेस पयडीणं ॥४२॥ ____ अर्थ हवे उत्कृष्टी स्थितिबंधना स्वामी कहे छे. तीर्थकर नामनी उत्कृष्टी स्थिति अविरति समकीतीबंधक, समकितथी मांडी अपूर्वकरणना छठा भाग पर्यंत छे, ते सर्व जीवथी अधिक कषायी अविरति समकीती छे, ते अधिक कषायी तेथी स्थिति ते उत्कृष्टी बांधे आहारकदुग-२ आहारक शरीर तथा उपांग ए बे अमर-देवतानो आउखो उत्कृष्ट स्थिति अप्रमत्त गुणठाणे बांधे, तिहां आहारक अप्रमत्त अति संक्लेशना अध्यवसाये बंधक उत्कृष्ट स्थिति बंधे देवायु अप्रमत्त विशुद्धाध्यवसाये उत्कृष्ट स्थिति बांधे, शेषप्रकृति वर्णादिक वीस भिन्नगवेखेतो, १३२, तथा वर्णादि ४, गवेखीयेतो ११६, नी उत्कृष्टी स्थिति संज्ञीपंचेन्द्री पर्याप्सो मिथ्यादृष्टि बांधे ॥ ४२ ॥ विगलसुहुमाउतिगं, तिरिमणुया सुरविउवि निरयदुर्ग एगिंदिथावरायव. आईसाणा सुरुकोसं ॥ १३ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थ.
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. अर्थ-हवे मिथ्यात्वे च्यार ४ गतिना छे ते ते मध्ये जे बांधे ते लिखीये छे. विगल ३ सूक्ष्म ३ तिर्यंचायु १, मनुप्यायु १, नरकायु १, ए ३ आउखा देवगति १ देवानुपूर्वी, १ ए देवद्विक, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय उपांग, एबे वैक्रियद्ग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए नरकद्विक, ए १५ प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति संज्ञिपंचेन्द्रीपर्याप्तमिथ्यात्वी तिर्यच मनुष्य बांधे एना बंधक एज छे. तथा एकेन्द्रीजाति, थावरनाम, आतपनाम, ए तीन प्रकृति आइसाणा-भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, सुधर्म, इशान देवलोक पर्यंतना देव उत्कृष्टी स्थिति बांधे, आकरे तीव्र अशुद्धता ए परिणम्यो ए जीव एकेन्द्रीपणो उपार्जे. बीजी हीणी गतिमां एने जवू नथी ते माटे. ॥ ४३ ॥ तिरिउरलदुगुज्जो, छिवट्ठ सुरनिरय सेसचउगइया। आहारजिणमपुवो, अनियहि संजलण पुरिसलहुँ।४४। ___ अर्थ--तिर्यंचदुग, औदारिकदुग, उद्योतनाम, छेवठोसंघयण, ए ६ प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति मिथ्यात्वी देवता अथवा मिथ्यात्वी नारकी बांधे, शेष १०८ एकसो आठ, प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति च्यार गतिना मिथ्यात्वी बांधे, संज्ञिपर्याप्ता बांधे.
अथ जघन्य स्थितिना स्वामी कहे छे. आहारक तथा जिननामनी जघन्य स्थिति अपूर्वकरण गुणठाणे बांधे, ए प्रकृतिना बंधक मध्ये अति निर्मल परिणाम अहिंज छे. अनिवृत्ति गुणठाणे संजलना कषाय च्यार, पुरुषवेद, ए पांच प्रकृतिनी जघन्य स्थिति बांधे ॥ ४४ ॥
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कम्मग्रन्थ
७१४ कर्मग्रन्थस्य टवार्थः साय सुच्चावरणा, विघं सुहुमो विउवि छ असन्नि। सन्नीवि आंउ बायर, पज्जेगिंदी उ सेसाणं ॥४५॥
अर्थ—सालावेदनीय १, जसनाम २, उचैर्गोत्र १, ज्ञानावरणी पांच ५, दर्शनावरणी ४, अंतराय पांच ५, ए १७ प्रकृतिनी जवन्य स्थिति सूक्ष्मसंपराय दसमे गुणठाणे बांधे. देवड़िक २, नरकद्विक २, वैक्रियद्विक २, ए ६ छ प्रकृतिनी जधन्य स्थिति असंज्ञिपंचेन्द्री पर्याप्तो बांधे, जे कारणे एहनो प्रथमबंध एहिज छ, आउखा ४, नी जघन्य स्थितिनो बंधक संज्ञीपण छे असंज्ञीपिण छे. एहनो बंध परिणामनी तीवमंदताये छे, शेष १०१, अथवा ८५, प्रकृतियोनी जघन्य स्थितिना बंधक बादरपर्याप्ता एकेन्द्री जाणवा. स्थितिबंधमें सूक्ष्मसंपरायी साधुथी बीजे बोले स्थितिबंधक एकेन्द्री पर्याप्तो छे. ॥४५॥ उकोसजहण्णीयर, भंगासाई अणाइ धुवअधुवा। चउहा सग अजहन्नो, सेसतिगे आउ चउसुदुहा॥४६॥
अर्थ-हवे स्थितिबंधना भांगा कहे छे-तिहां उत्कृष्ट १, जघन्य १, इतर अनुत्कृष्ट अजघन्य १, ए ४, च्यार भांगा छे. तिहां जे प्रकृतिनी जे उत्कृष्टि स्थिति छे ते बांधे ते उत्कृष्टबंध कहेवाय, उत्कृष्टबंध एक जीवने लागट रहे तो अंतर्मुहूर्त रहे ते माटे ए सादि अध्रुव छे, तथा जे प्रकृतिनी जघन्य स्थिति जे बांधे ते जघन्य बंधक कहीये. ते एकएक समयमांज बांधे, एहने पिण सादि अध्रुव भेदज लागे, तथा उत्कृष्टी नही ते अनुत्कृष्ट, ते इहां
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
उत्कृष्टोबंध सादि अब्रुव जे हुवे परं ए अर्थ इहां लीधो नथी. (टबामां. लीधो नथी एम छे ) इहां तो जघन्य बंधकयी बीजो बंध ते सर्व अजवन्यमें गवेख्यो छे, अने प्रथम अर्थ करीये तो पिण अनादि सूक्ष्मनिगोदीया जीवने सदा अजवन्य बंध छे. जे जघन्य बंध तो बादर एकेन्द्रीने छ, अथवा गुणाधिकने छे ते माटे ए भांगे ४, भेद भासे छे, सातकर्म ( आउखा विना ) अजघन्य स्थिति बांधेतो सादि एक १, अनादि २, ध्रुव ३, अध्रुव ४, ए च्यारभेदे बांधे. जे छ कर्मनो जघन्य बंध १०, मे गुणठाणे, मोहनी कर्मनो जघन्य बंध नवमे गुणठाणे अंत्य अध्यवसाय क्षपकश्रेणिने, अने उपशमश्रेणि ते क्षपकथी बमणी स्थितिबांधे, ते माटे अजघन्य बंधक छे, तेहने इग्यारमे आव्ये अबंध थयो, ते अब्रुव, पाछो पडी वळी बांधे ते सादि, ए गुणठाणे आव्यो नथी तेहने अनादि, अभव्यने ध्रुव भव्यने अध्रुव ए रीते जाणज्यो १, सर्व जीवने अजघन्य बंध ते ए गुणठाणे चढ्या पड्याने सादी, चडस्ये तेहने अध्रुव, तथा अभव्यने अनादि ध्रुव छे, तेथी एज सातकर्म उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जवन्य ए तीन मांगे सादि अध्रुव बंध छे, ए ३, ना बंधनो काल अल्प छे, तथा आउखो कर्म उत्कृष्ट जघन्य, अजवन्य, ए ४, च्यारे भांगे स्थिति बांचे तो सादि अध्रुवकालज बांधे, जे कारणे भवमें आयु एकवार तथा अंतमुहूर्त सीम बंधाय ते माटे बे भेदज छे, शेष तीन उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य १, अनुत्कृष्टः भांगे बांध तो सादि अवकालसीम जे कारणे जघन्य बनो एक दम छ, यो : समयकाल छे, अत्कृष्ट ते उत्कृष्ट पछी थाय त भाट सादि अध्रुव छे, उत्कृष्टथी एक समये ऊणबांधे ते अनुत्कृष्ट बंध,
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७१६
कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
कहीये ए पिण उत्कृष्ट बंधक थया पछी बांधे ते माटे सादि अध्रुव लाभे, तथा जघन्यबंधक थइने एक समय अधिक अधिक बंधाय ते अजवन्य गणीये तो ॥ ४६ ॥ चउभेओ अजहन्नो, संजलणावरणनवगविग्धाणं । सेस तिगिसाइ अधुवो, तहचउहा सेसपयडीणं ॥४७॥
अर्थ - अजवन्यबंध च्यार भेदे पामीये, संजलण च्यार ४, ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी ४, ए नव, अंतराय पांच, ए १८ प्रकृतिनी अजघन्य स्थिति च्यार ४, भेदे छे, जे ए १८ प्रकृतिनो जघन्यबंध नवमे, दसमे, गुणठाणे छे तेहथी बीजा जीव सर्व अजघन्यबंधक छे, तेहमां जे ए गुणठाणे चढी पड्या छे तेहने सादि अवव छे, अभव्यने अनादि ध्रुव छे एहिज अढार प्रकृतिना, शेष तिग-शेष ३ भांगा सादि १, अध्रुव २, भेदे छे, भावना पूर्ववत्. शेष १०२ प्रकृतिनी, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, ए च्यार ४ प्रकारनी स्थिति सादि अध्रुव भांगे बंधाय, तिहां ७३ प्रकृति तो अव बंधिज छे. ते माटे किवारे बंघाये किवारे न बंधाये ते माटे सादि अध्रुव छे, २९ ध्रुवबंधिमांहेली छे ते सदा बंधाय पिण ए २९ नो जघन्यबंधक पिण एकेन्द्रीय छे, ते एकेन्द्रीयपणाने जघन्यबंध करे ते माटे जघन्य कर्या पछी अज वन्यबंध ते पिण सादि अव छे, ते माटे ए २९ प्रकृतिने सादि अनु छे. ॥ ४७ ॥
साणाई अपुते, अयरंतो कोडि कोडिओ नहिगो, बंधो न हु हीणो नय, मिच्छे भवियर सन्निमि ॥४८॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ-हवे गुणठाणे स्थिति कहे छे. सास्वादन गुणठाणाथी मांडी अपूर्वकरण पर्यंत अथर-सागरोपम अंतो-कोडाकोडी एक कांइक ऊणी स्थिति बांधे, एटले ए ७ गुणटाणे १ कोडाकोडी देशे उणी स्थिति बांधे, पिण नहिगो-अधिकी न बांधे, समकीतीथी देश विरति नवपल्य ओछी बांधे, तेथी सर्वविरति केटला सागर ओछी बांधे, तेथी अपूर्वकरण संख्याता सागरना सेंकडा ओछी बांधे, तथा मिथ्यात्व गुणठाणे अंतः कोडाकोडीथी ओछी न बांधे, अनादि मिथ्यात्वी जघन्य अंतः कोडाकोडी, उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी बांधे ए मिथ्यात्वी भव्य तथा अभव्य संज्ञी आश्रयि कह्यो छे. ॥ ४८ ॥ जइ लहुबंधोबायर, पज्जअसंखगुण सुहुम पजहिगो। एसिं अपजाण लहू, सुहमेअर अपज्जपज्जगुरु ॥४९॥ ___अर्थ-हवे ३६ बोलना स्थितिनो अल्पबहुत्व कहे छे. सर्वथी यती लहु-जघन्य स्थिति बंधके सूक्ष्मसंपराय चरमसमयी सर्वथी थोडी १ बांधे १ अंतर्मुहूर्त बांधे छे. तेहथी बादर पर्याप्तो जघन्य स्थितिबंधक असंख्यातगुणी बांधे, ए सागरना भागनो बंधक छे ते असंख्यातो काल छे ते माटे. तेहथी सूक्ष्म एकेन्द्री पर्याप्तो जघन्यबंधक काइक अधिकी बांधे, एहने थोडो काल वधे छे, एहज बे अपर्याप्ता लहुजघन्यबंधकना बे बोल कहेवा. तेहथी बादर पर्याप्तो जघन्यबंधक स्थिति अधिकी बांधे ४, तेहथी सूक्ष्मअपर्याप्तो जघन्यबंधक अधिकी बांधे ५, तेहथी सूक्ष्म अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे ६, तेहथी बादर अपर्याप्तो उत्कृष्ट स्थितिबंधक अधिकी बांधे ७, तेहथी सूक्ष्म अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे ८,
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कर्मग्रन्यस्य टबार्थः
तेहथी बादर पर्याप्तो उत्कृष्टबंधक स्थिति अधिकी बावे. एकेन्द्रीपणामे एज उत्कृष्टबंधक छे ९. ॥४९॥ लहु बिअपज अपजे, अपज्जेयर बिअगुरु हिगो एवं। तिचउ असन्निसु नवरं, संखगुणो बिअअमणपत्ते ५०
अर्थ--लहु-जघन्यबंधक बेन्द्री पर्याप्तो संख्यातगुणी बांधे १० तेहथी बेन्द्री अपर्याप्तो जघन्यबंधक अधिकी बांधे, ११ तेहथी बेन्द्री अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे. १२ तेहथी बेन्द्री पर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे. १३ इहां एकेन्द्रीयी बेन्द्रीने २५ गुणो बंध, ते माटे पेहेले बोले संख्यातगुणो कह्या पछी ते पल्यना असंख्यातमे भागे वृद्धि छे, ते माटे आधिकी बांधे. एवं-ए रीते च्यार ४ बोल कहेवा. तिहां १४ मे बोले तेन्द्री पर्याप्तो जघन्यबंधक स्थिति अधिकी बांधे, तेहथी १५ मे बोले तेन्द्री अपर्याप्तो जघन्यबंधक स्थिति अधिकी बांधे, तेहथी तेन्द्री अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे. १६ तेहथी तेन्द्री अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक ते अधिकी बांधे. १७ तेहथी चौरेन्द्री पर्याप्तो जवन्यबंधक अधिकी बांधे. १८ तेहथी चोरेन्द्री अपर्याप्तो जवन्यबंधक अधिकी बांधे, १९ तेहथी चोरेन्द्री अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे. २० तेहथी चोरेन्द्री पर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे, २१ तेहथी असंज्ञि पंचेन्द्री पर्याप्तो जघन्य बे० संख्यात गुणबंधक छे. ते २२, ए हजारगुणी बांधे ते पोरेन्द्रीथी नवगुणी साधिक थइ छ ते माटे तेहथी असंशि पंचेन्द्री अपर्याप्तो जघन्यबंधक अधिकी बांधे. २३ तेहथी असंशि पंचेन्द्री अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे. २४ तेहथी असंज्ञि पंचेन्द्री पर्याप्तो उत्कृष्टी
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कर्मयन्थस्य टबार्थः
७१९
बंधक आधिकी बांधे. २५ नवरं-विशेष एटलो फेर छे जे बेन्द्री तथा असंज्ञि पर्याप्तो तेनो पाठ ते संख्यातगुणो कहेवो.॥५०॥ तोजइ जिट्ठो बंधो, संखगुणो देसविरयहस्सिअरो। सम्मचउ सन्निचउरो, ठिइबंधाऽणुकम संखगुणा ५१ ___ अर्थ-तेहथी प्रमत्त गुणठाणे वर्तमान ते मुनिपणामे उत्कृष्ट बंधक छे संख्यात गुणी स्थितिबांधे २६॥ केटलाएक सागर उंणी एक कोडाकोडीना बंधक छे, तेहथी देशविरति जघन्यबंधकनी संख्यातगुणी स्थिति वृद्धि तो थोडी छे ते परं स्थितिस्थानक कषायनी चोकडीना वध्या, माटे असंख्यातगुणा वधे छे ते माटे असंख्यातगुणपणे लीधी छे २७ । तेहथी देशविरति उत्कृष्ट बंधक असंख्यात गुणीबांधे २८ । तेहथी समकीतीना च्यार बोल कहेवा, तिहां समकिति पर्याप्तो जघन्य बंधक संख्यातगुणी बांधे २९ । तेहथी समकिती अपर्याप्त जघन्यबंधकने संख्यातगुणी बंधाय ३० । तेहथी समकिती अपयाप्तो उत्कृष्ट बंधक संख्यातगुणी बांधे ३१ । तेहथी समकिती अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक संख्यातगुणी ३२ । तेहथी समकिती पर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे, तेहथी संज्ञी पर्याप्तो जघन्यबंधक संख्यातगुणी बांधे ३३ । तेहथी संज्ञी अपर्याप्तो जघन्यबंधक संख्यातगुणी बांधे ३४ । तेहथी संज्ञी अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक संख्यातगुणी बांधे ३५ । तेहथी संज्ञी पर्याप्तो उत्कृष्टबंधक संख्यातगुणी बांधे ३६ । एम स्थितिबंध संख्यातगुणा छे. ॥५१॥ सवाणवि जिट्ठठिई, असुहाजं साइ संकिलेसेणं । इअरा विसोहिओ पुण, मुत्तुं नरअमर तिरिआई ५२
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७२०
कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
___ अर्थ-सर्व प्रकृतिनी जिट्ठ-उत्कृष्टी स्थिति ते अशुभ जाणवी, जे साई-ते अति संक्लेश परिणामे एटले जिननामनो बंध चोथा गुणठाणाथी मांडी आठमा गुणठाणा लगे छे, पिण चोथे स्थिति उत्कृष्टी बांधे तेमें शुद्ध परिणाम छे ते माटे जवन्य बांधे. ए सर्व प्रकृतिनी ईअरा-जघन्य स्थितिने विशुद्ध परिणामे बांधे, एक तीन प्रकृति नर-मनुष्यायु, देवायु, तिर्यचायु, ए तीन प्रकृति मूकीने, एटले ए तीन प्रकृतिनी जघन्य स्थिति संक्लेश परिणामे बांधे, उत्कृष्टी स्थिति विशुद्ध परिणामे बांधे. ॥५२॥ सुहुमनिगोआइखणप्प-जोगवायर य विगलअमणमणा अपजलहु पढमदुगुरू, पजहस्सिअरो असंखगुणो।५३॥ ___अर्थ हवे २८ बोलना योगबलनो अल्पबहुत्व कहे छे. सूक्ष्मनिगोदादि प्रथम क्षणे प्रथम समये उपनो अपर्याप्त पणाथीज आव्यो तेहनो सर्वथी योगबल अल्प जाणवो. १ तेहथी बादर एकेन्द्री अपर्याप्तो प्रथम समय उपनो अपर्याप्तो अपर्याप्तपणाथीज आव्यो, तेहनो सर्वथी योगबल अल्प जाणवो. १. तेहथी बादर एकेन्द्री अपर्याप्तो प्रथम समय उत्पन्न जघन्ययोगीनो योगबल असंख्यातगुणो, २, तेहथी बेन्द्री अपर्शप्ता जघन्ययोगीनो योगबल असंख्यातगुणो, ३ तेथी तेन्द्री० ४ तेथी चोरेन्द्री० ५ तेहथी अनण-असंज्ञि अपप्तिानो जघन्य योगबल असंख्यातगुणो, ६ तेहथी मणासंज्ञि अपर्याप्तानो जघन्य योगबल असंख्यातगुणो ७, तेहथी पढम-पेहेला बे बोल गुरु-उत्कृष्टबंधक एटले सूक्ष्म अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योगबल असंख्यातगुणो, ८ तेहथी बादर अपर्याप्तानो
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उत्कृष्ट योगबल असंख्यातगुणो. ९ सूक्ष्म पर्याप्त जघन्य योगीनो योगबल असंख्यातगुणो. १० तेहथी बादर पर्याप्त जघन्य योगीनो योगबल असंख्यातगुणो, ११ तेहथी सूक्ष्म पर्याप्त उत्कृष्ट योगीनो योगबल असंख्यातगुणो. १२ तेहथी बादर पर्याप्त उत्कृष्ट योगीनो योगबल असंख्यातगुणो. १३ ॥५३॥ असमत्ततमुक्कोसो, पजजहन्नियर एव ठिइठाणा। अपज्जेयर संखगुणा, परमऽपजबीए असंखगुणा॥५४॥
अर्थ-असमत्त-अपर्याप्त ५, नो उत्कृष्ट योगीनो योगबल असंख्यातगुणो. ते पछी त्रस ५, पर्याप्ता जघन्य योगीनो योगबल असंख्यातगुणो, तेथी त्रसना ५, पर्याप्ता उत्कृष्टयोगीनो असंख्यातगुणो योग छे ते कहे छे-चौदमे बोले अपर्याप्त बेन्द्रि उत्कृष्टयोगीनो योगबल असंख्यातगुणो १५, तेहथी अपर्याप्त चौरेन्द्रिनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुणो, १६, तेहथी अपर्याप्त असंज्ञिपंचेन्द्रिनो उत्कृष्ट योगबल असंख्यातगुणो १७ तेहथी अपर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रिनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुणो १८, तेहथी पर्याप्त बेइन्द्रिनो जघन्ययोग असंख्यातगुणो १९, तेहथी पर्याप्त तेइन्द्रिनो जघन्ययोग असंख्यातगुणो २०, तेहथी पर्याप्ता चौरेन्द्रिनो जघन्ययोग असंख्यातगुणो २१,तेहथी पर्याप्ता असंज्ञिपंचेन्द्रिनो जघन्ययोग ख्यातगुणो २२, तेहथी पर्याप्ता संज्ञिपंचेन्द्रिनो जघन्य योग असंख्यातगुणो, २३ तेहथी पर्याप्त बेन्द्रिनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुणो, २४ तेहथी तेन्द्रिपर्याप्तो तेनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणो, २५ तेथी चौरेन्द्रि पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणो, २६ तेहथी असंज्ञिपंचेन्द्रि पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणो, २७ तेथी संज्ञिपंचेन्द्रि
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७२२
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणो २८. ए रीते स्थिति स्थानकनी अल्पबहुत्व २८ बोलनो जाणवो, वीर्यनी वृद्धिए स्थितिनी तीव्रमंदताना भेद पडे ते इहां लेज्यो. अपर्याप्ताथी इअर-पर्याप्तानां स्थितिस्थानक असंख्यातगुण छे, इहां जीव भेद एके स्थिति जघन्य मिथ्यात्वनी एकसागर पल्यने असंख्यातमे भागें ऊंणी बांधे, पिण कोइक तीव्र बांधे, कोइक जीव मंद तथा मंदतर रीतें एक स्थितिस्थानकमें ते स्थिति बांधवाना अध्यवसाय स्थानक असंख्यात थाये. एहवा एक जीवभेद सूक्ष्म अपर्याप्ताने बांधवानां अध्यवसाय स्थानक असंख्यात छे तेहथी सूक्ष्मपर्याप्ताना बंधाध्यवसाय संख्यातगुणा छे, तेथी बादर अपर्याप्ताना संख्यातगुणा छे, तेथी बेइन्द्रि अपर्याप्ताना बंधाध्यवसाय असंख्यातगुणा छे, तेथी बेन्द्रिपर्याप्ताना बंधाव्यवसाय संख्यातगुणा छे. इम १४ जीवभेदें कहेतां पण एटलो भेद जे बेइन्द्रि अपर्याप्तानां असंख्यातगुणांज. वसपणानो वीर्य तेहने वाध्यो ते माटे. तथा इहां स्थिति अपेक्षाए पहेला (?) ॥५४॥ पइ खण मसंखगुणविरिय, अपजपइठिइमसंखलोग
समा। अज्झवसाया अहिया, सत्तसु आउसुअसंखगुणा ५५॥ . अर्थ--हवे जीवने क्षयोपशमी वीर्य जे उपजवाने प्रथम समये छे ते असंख्यातो छे. ते पछी पइग्वण-प्रतिसमये एटले समय समयमे असंख्यातगुणो वीर्य वधे. पण अपर्यातावस्थासीम इम वीर्यवृद्धि जाणवी. एटले पेहेला समयथी बीजे समये असंख्यातगुणो वीर्य वधे, वीजे समये असंख्यातगुणो
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
७२३
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वीर्य वधे, अने वळी पइठिइ-प्रतिस्थितिए ( स्थितें) अध्यवसाय असंख्याता छे, ते अलोकमध्ये लोक जेहवा असंख्याता खंड कल्पीये तेहना प्रदेश जेटला एकस्थितिस्थानक स्थितिबंधना अध्यवसाय छे, ते ए सर्व जीवभेदें जाणज्यो. कषायना तरतमयोगें अध्यवसायना भेद जाणवा, ए अध्यवसाय अनंतजीवमां पण पामीये. अने कोइक वेळा असंख्याता अध्यवसाय जीव रहित पिण पामीये. हवे सातकर्मनी जघन्य स्थिति बांधे तेहना अध्यवसाय असंख्याता छे, अने एक समयाधिक बांधे तेहना पुंटली स्थितिना अध्यवसायथी कांइक अधिक जाणवा. इम तृतिय समयाधिकना अध्यवसाय अधिका इम वधारते २ उत्कृष्ट स्थितिस्थानकसीम अधिकाधिक कहेवा, आउखाकमना जघन्य स्थितिस्थानकथी समयाधिकनो जे स्थितिस्थानक तेहना अध्यवसाय असंख्यातगुणा कहेवा, सर्व वर्त्ततो आउखो बांधे पिण आउखानी स्थिति थोडी तिणे स्थितिस्थानक थोडां अने कषायस्थानकने वहेंचतां असंख्यातगुणा आवे, इम सात कर्मने पण स्थितिस्थानके करी कषायस्थानकनो अल्प बहुत्व कहेवो, हवे जे प्रकृति जेटला काल अबंध रहे ते प्रकृतिनो अबंधकाल कहे छे. तिहां ४७ प्रकृति तो ध्रुवबंधि छे ते निरंतर बंधाये छे, तेथी बीजानी भावना करीये छे.॥५५॥ तिरिनिरय ति जोयाणं, नरभव जुअस चउपल्ल तेसह। थावर चउइगविगलाय-वेसुपणसीइ सयमयरा ५६ ___अर्थ-तिहां तिथंच ३, नरक ३, उद्योतनामकर्म ए ७ सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट मनुष्यभवयुक्त पल्योपम च्यार अने एकसो तेसठ सागरोपम पर्यंत बांधे नहीं, तिहां भावना-कोइ
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७२४
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
युगलपणे तीन पल्योपम रही सौधर्म देवलोके एक पल्यने आउखे उपनो, तिहां समकित रहीत, ते माटे ए प्रकृति ७ न बांधी तिहांथी मनुष्यपणे समकित सहित विरतिपणे रही अच्युतनो २२, सागरनो आउखो बांधी देवलोक गयो, तिहाथी मनुष्य, वळी बारमे देवलोक, तिहांयी मनुष्य, वळी ३१ सागरने आउखे नवमे ग्रैवेयके, तिहाथी मनुष्य, ३३ सागरने आउखे अनुत्तर विमाने, इम एकसोत्रेसठ १६३ सागर पल्य ४ च्यार केटलाएक मनुप्यभव अधिककालसीम ए ७ सात प्रकृति न बांधे. तथा थावर ४, एकेन्द्रि जाति १ विगल ३ आतपनाम ए नव प्रकृति एकसो पंच्यासी १८५ सागर पल्य ४ केटलाएक मनुष्यभव अधिककालसीम न बांधे. तिहां भावनाजे छठ्ठी नरकें नारकीपणे २२, सागरने आउखे समकितीपणे रही त्यांथी चवी मनुष्य थयो ते युगलीयो पल्य ३ ने आउखे, तिहाथी पल्य १ ने आउखे देवता, तिहाथी मनुष्य, तिहांयी अच्युत, एम एकांतरे ३ वार मनुष्य ३ वार अच्युते जइ मनुष्य थइ ३१ सागरने आउखे नवमात्रैवेयके जाय. तिहांथी मनुष्य थइ ३३ सागरने आउखे विजयादिविमाने, तिहांथी मनुष्य थइ ३३ सागरने आउखे विजयादिविमाने जाय. इम सर्व भवें १८५ एकसो पंच्यासी सागर, पल्य ४ नरभव अधिककाल सीम ए नव प्रकृति जाणवी. ॥ ५६ ॥ अपढमसंघयणागिइ, खगई अण मिच्छ दुभगथीण
तिगं। नियनपु इत्थि दुतीसं, पणिंदिसु अबंध ठिइ परमा ५७
अर्थ-पेहेला संघयण विना पांच संवयण, पेहेला संस्थान
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
७२५
विना पांच संस्थान, अशुभविहायोगति १, अनंतानुबंधी ४, मिथ्यात्वमोहिनी १, दुर्भग ३, थीणद्धी ३, नीचगोत्र १, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, ए पचीस प्रकृति १३२ सागर, पल्य ४ नरभव अधिककालसीम न बांधे तिहां कोइक युगलिओ पल्य ३ आयुवाळो ते देवता पल्य १ ने आउखे उपजे, ते मनुष्य थइ. तीनवार बारमे देवलोके २२ सागरने आउखे जाय, ए ६६ सागर थाय, वळी मनुष्यभव करी विजयादिविमाने जाय, इम सर्व भवे एकसोबत्रीस सागर पल्य ४ मनुष्यभव प्रमाण अधिककाल थाय. ए सर्व पंचेन्द्रीपणे रहे ते जीवने ए प्रकृति ४१ नी अबंध स्थिति परमा-उत्कृष्टी कही. जघन्य सर्वनो अबंधकाल एक समय १ नो छे, शेष प्रकृतिनो उत्कृष्ट काल गवेख्यो नयी ते नीयमित नथी ते माटे इम धारवो. ॥५॥ विजयाइसुगेविज्जे, तमाइ दहिसय दुतीस तेसटें । पणसीइ सयय बंधो, पल्लतिमं सुरविउवि दुगे॥५८॥ ___अर्थ-विजयाइसु-बे भवे विजयादिविमाननी, आदि शब्दथी तीन भव अच्युतना भेळा करीये तो १३२ सागर कालमान थाय, ते बारमाना ३ भव कर्या पछी १ भव नवमा ग्रैवेयकनो थाय तो एकसोत्रेसठ सागरनो मान थाय, अथवा तमाइ-तमा ६ छठ्ठी नरकथी आदि भव मांडी अच्युतना ३ भव, ग्रैवेयकनो १ भव विजयादिकना बे भव, इम गवेखायतो १८५ एकसोपंच्यासी सागरमान काल थाय. ए रीते सर्व भावज्यो. हवे ७३ अब्रुवबंधीनो सतत-निरंतर बंधकालनो मान कहे छे-तिहां सुर-देवदुग, वैक्रियदुग, ए ४ प्रकृतिनो पल्य ३ तीन सीम निरंतर बंधाये, जे ३ पल्यने
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७३६
कम्मग्रन्थस्य टबार्थः
आउखे युगलिया तेहने बीजी गति जावो नथी ते माटे निरंतर ए ४ प्रकृति बांधे. ॥ ५८ ॥ समयादसंखकालं, तिरिदुगनीएसुआउअंतमुहू। उरलि असंखपरट्टा, सायट्ठि पूवकोडूणा ॥५९॥
अर्थ-समया-जघन्ये १ समय उत्कृष्ट असंख्यातोकाल, तिरिदुग २, नीचगोत्र, ए ३ तीन प्रकृति निरंतर बंधाय, जे कारणे सातमी नरकनो नारकी ३३ सागर सीम ए प्रकृति निरंतर बांधे, जे मिथ्यात्वी होय तेहने बीजी गति, ऊंचगोत्रनो बंध नथी, आउखो जघन्ये तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सीम निरंतर बांधे, जघन्य मुहूर्त्तथी उत्कृष्ट मुहूर्त मोटो जाणवो,
औदारिक शरीर, असंख्याता पुद्गलपरावर्त सुधी निरंतर बांधे, सूक्ष्म, बादर, निगोद, प्रत्येक, एकेन्द्रि मळीने गवेखी जोज्यो. जांसीम (ज्यां सुधी) वेदनीयनो बंध तांसीम अंतर्मुहूर्तथी अविककाल ए बे मांहेली प्रकृति बंधाय नहों परावर्तन छे ते माटे, सातावेदनी देशेऊणी पूर्वकोडि सीम निरंतर बांधे ए सयोगी केवळी गुणठाणानी अपेक्षाए छे. ॥ ५९॥ जलहिसयं पणसीयं, परघुस्सासे पणिदितसचउगे। बत्तीसं सुहविहगइ, पुम सुभगतिगुच्च चउरंसे ॥६॥
अर्थ-पूर्व रीते १८५ एकसोपंच्यासी सागर, पल्य ४ नरभव अधिक कालमान सीम, पराघात, उश्वासनाम, पंचेन्द्रि जाति, सच्यार ४, (बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक ) एम ए ७ प्रकृति निरंतर बंधाये. तथा आगळ कहेशे ते प्रकृति एकसोबत्रीस कालमान निरंतर बांधे. १३२ सागरोपम पूर्वोक्त रीते
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
७२७ निरंतर बांघे. शुभबिहायोगति १, पुरुषवेद १, सुभगत्रिक ३, उंचगोत्र १, समचौरंस १. ॥ ६ ॥ असुहखगइ जाइ आगिइ, संघयणाहारनिरयुजोयदुर्ग। थिरसुभजसथावरदस, नपुइत्थीदुजुअलमसायं ॥६१॥
अर्थ--अशुभविहायोगति १, एकेन्द्रि, विकलांत्रक, ए जाति ४ अशुभ संस्थान पांच, अशुभ संघयण पांच, आहारकद्विक, नरकद्विक, २ उद्योत, आतप, २, स्थिरनाम १, शुभनाम १, जसनाम १, थावरदसक १०, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, दुजुयलहास्य, रति, २. अरति, शोक, २. ए ४ असातावेदनीय १. ॥६॥ समयादंतमुहुत्तं, मणुदुगजिणवइरउरलुवंगेसु, तेतीसयहा परमी, अंतमुहू लहु वि आउ जिणे ॥३२॥
अर्थ--ए सुडलाळ स (टबामा ४१ लखी छे ) प्रकृति जघन्य एक समय बांधे, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तमान काल. बांधे, मनुष्य दुंग-मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी २, जिननाम १, वज्रऋषभनाराच संघयण १, औदारिक उपांग १, ए पांच प्रकृति तेत्रीस सागरोपम सीम. निरंतर बांधे, समकिती सर्वार्थसिद्ध विमाने रह्यो निरंतर बांधे ते अपेक्षाए उत्कृष्ट काल जाणवो, जघन्य बंधकाल, आउखा ४, जिननाम १, ए पांच प्रकृति, जघन्य पण एक अंतर्मुहूर्त कालमान जाणवो. शेष प्रकृति ६८ नो जघन्य बंधकाल एक समय जाणवो. ॥ ६२ ॥
ए स्थितिबंध अधिकार पूरो थयो. हवे रसबंध अधिकार कहे छे. इति सततबंधः द्वा० १८.
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७२८
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः तिबो असुहसुहाणं, संकेसविसोहिओविवज्जयओ। मंदरसोगिरि महिरय, जलरेहा सरिसकसाएहि॥६३॥ . अर्थ-तिबो-तित्र उत्कृष्टो अशुभनो तीव्ररस संक्लेश परिणामे बांधे, शुभनो तीबरस विशुद्ध परिणामे बांधे, विपर्ययपणे मंदरस बांधे, जिहां अशुभनो तीव्ररस बांधे तिहां शुभनो मंदरस बांधे, जिहां शुभनो तीव्र बांधे तिहां अशुभनो मंदरस बांधे, इहां दृष्टांत जे अनंतानुबंधि कषाय गिरिरेखा समान तेथी चोठाणीयो रस, तथा अप्रत्याख्यान कषाय महीरेखा समान एथी त्रिठाणीयो रस, प्रत्याख्यानी रजरेखा समान एथी बेठाणीयो रस, संज्वलनो जलरेखा समान तेथी एकठांणीयो रस जाणवो. ए दृष्टान्ते जाणवो. ॥ ६३॥ चउठाणाई असुहो, सुहन्नहा विग्ध देसघाइआवरणा। पुम संजलणिग दुति-चउट्ठाणरसासेस दुगमाई६४
अर्थ-चउठाणी-चोठाणीयादि (प्रमुख) रस अशुभनो तेथी अन्यथा बीजी रीते शुभ, एटले जिहां अशुभनो चोठाणीयो तिहां शुभनो बेठाणीयो, जिहां अशुभनो त्रिठाणीयो तिहां शुभनो बेठाणीयो, जिहां अशुभनो बेठाणीयो तिहां शुभनो विठाणीयो, जिहां अशुभनो एकठाणीयो तिहां शुभनो चोठाणीयो एम भावबु.
तिहां विग्ध-पांच अंतराय, तथा देशघाती आवरण ज्ञानावरणी ४, दर्शनावरणी ३, ए सात, पुरुषवेद १, संजलणाकषाय ४ ए १७ प्रकृति तेनो एकठाणियो रस बांधे, तथा बेठाणीयो बांधे, तथा त्रिठाणीयो बांधे, चोठाणीयो बांधे,
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
७२९
शेष - बाकी रही जे १०३ प्रकृति, तेहनो दुगमाइ - बे ठाणीयो, त्रिठाणीयो, चोटाणीयो, ए ३ जातिनो रस बांचे. ॥ ६४ ॥ निंबुइच्छुरसो सहजो, दु तिचउ भाग कढिइक्क भागंतो ।
इगठाणाई असुहो, असुहाण सुहो सुहाणं तु ॥६५॥
अर्थ - अशुभ प्रकृतिनो रस लींबडाना रससमान जाणवो. तथा शुभ प्रकृतिनो रस इक्षु सेलडीना रससमान जाणवो, तिहां सहज मूलगो रस ते इकठाणीयो जाणवो, ते मध्ये बे भाग कढीय- उकाळ्यो एटले अर्द्ध उकाळयो, अर्द्ध रह्यो ते बेटाणीयो रस जाणवो. तथा तिठाणीयो रस ते तीन भाग कढी उकाळ्यो ने १ भाग रह्यो ते तिठाणीयो रस, अने चभाग- जे मध्ये च्यार ४ भाग उकाळ्यो अने एक भाग रह्यो ते चोठाणीयो रस जाणवो, ए अशुभ कर्मनो जेम रस वधे ते अशुभ थाय, शुभ कर्मनो रस शुभ थाय, ए सर्व अशुभ कषाये अशुभ रस बांधे, शुभ कषाये शुभ रस बांधे. ॥ ६५ ॥
तिमिग थावरायव, सुरमिच्छा विगल सुहुम निरय
तिगं ।
तिरि मणुआउ तिरि नरा, तिरि दुग छेवट्ठ सुरनि
रया ॥ ६६ ॥
अर्थ- हवे उत्कृष्ट रसबंध स्वामी कहे छे तीव्र उत्कृष्टो रस एकेन्द्री जाति १, थावर नाम १, आतप नाम, ए तीन
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
प्रकृतिनो सुरमिछा-मिथ्यात्वी देवता उत्कृष्ट रस बांधे, तथा विगल ३, सूक्ष्म ३, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण ए ३, नरकगति १, नरकानुपूर्वी २, नरकायु ३, ए नरकत्रिक तथा तिरिआयु १, मनुष्यायु १, ए ११ प्रकृतिनो उत्कृष्टो रस तिथंच तथा मनुष्य मिथ्यात्वी बांधे, तथा तिर्यच दुग-तियेच गति १, तियेचानुपूर्वी ए बे अने छेवठो संघयण ए ३ प्रकृतिनो उत्कष्ट रस देवता, नारकी मिथ्यात्वी बांधे. ॥६६॥ विउविसुराहारग दुग, सुखगइ वन्न चउ तेय जिण सायं समचउपरघा तसदस, पणिंदि सासुच्च खवगा उ॥६७
अर्थ-वैक्रिय दुग-वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय उपांग २, देवद्विक २, आहारकाद्विक २, शुभ विहायोगति १, वर्णादि ४, तैजस शरीर १, कार्मण १, अगुरुलघु १, निर्माण १, जिननाम १, सातावेदनीय १, समचौरस संस्थान १, पराघात १, त्रसनो दशको १०, पंचेन्द्री जाति १, श्वासोश्वास १, उच्चगोत्र १, ए बत्रीस ३२ प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस खवगाउक्षपकश्रेणिमां बांधे तिहां साता वेदनीय १, उच्चगोत्र १, यशनाम १, ए ३ तीन प्रकृतिनो सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे उत्कृष्ट रस बांधे, शेष २९ प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस अपूर्वकरण गुणठाणे बांधे.॥६७ तमतमगा उज्जोयं, सम्मसुरा मणुय उरलदुग वइरं। अपमत्तो अमराउं, चउगइमिच्छा उ सेसाणं ॥६॥ ___ अर्थ उद्योतनामकर्मनो उत्कृष्ट रस तमतमगा-तमतमा नरकना नारकी बांधे, मनुष्यद्ग २, औदारिकदुग २, वज्र ऋषभनाराचसंघयण १, ए पांच प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस सम
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कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः
७३१.
किती सुरा - देवता उत्कृष्ट रस बांधे, तथा अमराउ - देवतानो आउखो उत्कृष्टरसे अप्रमत्त गुणठाणे बांधे, शेष ६४ प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस च्यार ४ गतिना मिथ्यात्वी तीव्रकषायी बांधे. ए उत्कृष्ट रसना स्वामी कह्या ।। ६८ ।।
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थीणतिगं अण मिच्छं, मंदरसं संजमुम्मुहो मिच्छो । बियतियकसाय अविरय, देसपमत्तो अरइ सोए ॥ ६९ ॥
अर्थ - हवे जवन्य रसना स्वामी कहे छे - थिणद्धी तीन निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला २, थिणद्धी ३, ए तीन, अनंतानुबंधी ४, मिथ्यात्वमोहनी १, ए आठ प्रकृति मंदरसे संयमने सन्मुख मिथ्यात्वी बांधे, एह प्रकृतिना बंधकमें वि-, शुद्ध परिणामी एहिज जीव छे, बियकषाय- बीजो कषाय अविर - अविरति समकीती बांधे, त्रीजो कषाय जघन्य रसे देशविरतेि बांधे, अरति, शोक, ए बे प्रकृति प्रमत्त गुणठाणे मुनि जघन्यर से बांधे ।। ६९ ।।
अपमाइ हारगदुगं, दुनिद्द असुवन्न हास रइ कुच्छा । भयमुवघायमपुत्रो, अनियट्टी पुरिससंजलणे ॥ ७० ॥
अर्थ - अप्रमत्त गुणठाणाना आदि समये आहारकदुग जवन्यरसे बांधे, बेनिद्रा, निद्रा १, तथा प्रचला २, अंशुभवर्णादि ४, हास्य, रति, दुगंछा, भय, उपघात, ए इग्यार ११ प्रकृतिनो अपूर्वकरण गुणठाणे जघन्यरस बांधे, पुरुषवेद, संजलणा ४, ए पांच प्रकृति अनिवृत्तिबादर गुणठाणे जघन्यरसे बांधे ॥ ७० ॥
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः विग्यावरणे सुहुमो, मणुतिरिआ सुहुम विगलतिगआऊ वेउवि छक्कममरा, निरया उज्जोय उरलदुगं ॥ ७१ ॥
___ अर्थ-विग्ध-अंतराय पांच, आवरण-ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी ४, ए ९, एम बधी मळी १४, चौद प्रकृतिनो
सुहमो-सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे जघन्य रस बांधे, तथा सूक्ष्मत्रिक .३, विकलत्रिक ३, आउखां ४, वैक्रियछक-देवद्विक २, नरकद्विक २, वक्रियद्रिक २, ए ६, छ मली सर्व १६, प्रकृति मणुतिरिय-मनुष्य ने तिर्यंच जघन्यरसे बांधे, उद्योतनाम, औदारिक २, अमरा-देवता निरया-नारकी जघन्य रसे बांधे॥७१ तिरिदुग नियं तमतमा, जिण मविरय निरयविणिग
थावरयं। आसुहु मायव सम्मो, वसाय थिर सुह जसा सियरा७२ ___अर्थ-तिर्यचद्विक २, नीचगोत्र १, ए ३ प्रकृतिनो जघन्य रस तमतमानारक ७ मीना नारकी बांधे. जिननामकर्मनो जघन्य रस अविरति समकिती बांधे, एकेन्द्री जाति थावरनामकर्म, नरक गतिविना तीन गतिना जीव जघन्य रसे बांधे, आतपनामकर्म आसुहुमा-सौधर्म देवलोक पर्यंतना देवता, जवन्य रसे बांधे, सौधर्म कहेवाथी इशान पिण ग्रहवो, सम्मोवसाय-सातावेदनी १, थिरनाम १, शुभनाम १, जश १, ए ४, प्रकृति समकिती पङो जवन्यरसे बांधे सिवर-एहथी इतर असाता, अथिर, अशुभ, अजश, ए ४, प्रकृति समकिती चढतो होय त्यारे जघन्यरसे बांधे ॥ ७२ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः
७३३
तस वन्न तेअ चउ मणु, खगइ दुग पणिदि सास परघुच्चं । संघयणा गिड़ नपु थी, सुभगिअर ति मिच्छचउ गइआ ॥७३॥ अर्थ-स, बादर, प्रत्येक, ए ४, तथा वर्णादि ४, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, ४ मणुअदुग- मनुष्यद्विक २, खगईदुग - शुभ तथा अशुभविहायोगति, पंचेन्द्रीनीजाति, श्वासोश्वास, पराघात, उच्चैर्गोत्र, संवयण ६, संस्थान ६, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, सुभगत्रिक ३, इअर - दुर्भगत्रिक ३, एवं ४० चाळीस प्रकृति मिच्छ-मिथ्यात्वी च्यार गतिना जवन्य रसे बांधे इहां भावना कहीये छीये-शुभ प्रकृति जिहां प्रथमयी बेधाय तिहां उत्कृष्टरसे बांधे, अने अशुभप्रकृति प्रथम बंधाये तिहां उत्कृष्टरसे बांधे. अने जिहां खपे तिहां जघन्यरसे बांधे, ए रीते विचारखो. ॥ ७३ ॥ चडतेय वन्न वेअणि, अनामणुक्कोस सेस धुवबंधी । घाईणं अजहन्नो, गोए दुविहो इमो चउहा ॥ ७४ ॥
अर्थ — हवे उत्कृष्ट रसबंधना भांगा कहे छे - चउतेय तैजस प्यार ४ तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, ए ४, तथा वर्णादि ४, च्यार ४, वेदनीय शब्दे साता वेदनीय, नाम कहेतां जसनाम अणुक्कोस- अनुत्कृष्ट बांघेतो चउहाच्यारभेदे - सादि १, अनादि २, ध्रुव ३, अब्रुव ४, ए च्यार भेदे बांधे. तिहां ए प्रकृतिनो उत्कृष्टरस क्षपकश्रेणि ए चढतो जीव बांधे, तथा बीजा जीव सर्व अमुत्कृष्टरस बांधे, ते अभव्यने अनादि ध्रुव छे. भव्यने घोलना परिणामे सादि छे,
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अने अबंध थशे ते माटे अध्रुव छे, ने घाती ध्रुवबंधी जे १९ ओगणीस अने मोहनी पांच, ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी ९, अंतराय पांच ए ३० नो, अजघन्यरस ४, च्यारेभेदे बंधाय, इहां पण जघन्यथी बीजो ते सर्व अजघन्य, ते ए ३८ प्रकृतिनो जघन्य बंध जिवारे प्रकृतिनो बंध टळे तेहथी प्रथम समये छे, तेतो एक समये बंध छे, तेहथी पेहेलां अजघन्यरस बंध छे, ते अभव्यने अनादि ध्रुव छे, भव्यने घोलना परिणामे सादि छे, अने अबंध थये अब्रुव छ, तथा गोत्रकर्ममध्ये उच्चगोत्रनो अनुत्कृष्टरस सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, पूर्वनीपेरे जाणवो, नीचगोत्र अजघन्यरसे सादि, अनादि, ध्रुव, अब्रुव, ए च्यार ४ भेदे छै, घातीनीपेरे भावना करवी. तथा इहां पयडीने आशये अर्थ लिखीये छीये-जे वेदनीय नामकर्म ए मूळकर्मनी अपेक्षाये अनुत्कृष्ट रस च्यार ४, प्रकारे कहेवो. पण-उत्तर प्रकृतिमां वर्णादि ४, तैजस च्यार ४, ए आठनो अनुत्कृष्टरस सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, कहेवो, ध्रुवबंधी छे ते माटे पण जशनाम सातावेदनीयना कोईभांगे च्यार ४, प्रकार न कहेवा अव बंधी छे ते माटे. बे सादि, अध्रुवपणोज पामीये, इम गोत्रकर्मनो पिण मूळकर्मनी अपेक्षाये च्यार ४, भेद कहेवा पिण उच्चगोत्र, नीचगोत्र, ए बे अव बंधी छे ते माटे सादि अब बे भेदे पामीये इम जाणवो, एटले सात मूळकर्ममां च्यार भेद कह्या इम जाणज्यो. ॥७४॥ सेसम्मि दुहा (अनुभाग बंधोसमत्तो) इग दुग,
णुगाइजाअभवणंत गुणिआणू। खंधा उरलोचिअवग्गणाउ, तह अगहणंतरिया॥७५
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
७३५
अर्थ-सेसम्मि-तैजसादि १०, प्रकृतिनो उत्कृष्ट, संघन्य, ए तीन ३, भांगे रस बांधे, ते दुहा सादि, अध्रुव, ए बे भेदे बांधे, जे एहनो बंधकाल अल्प छे ते माटे, तथा घाती ३८ नो उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्यरस, सादि, अब्रुव बे भेदे बंधाये. तथा उच्चगोत्रनो, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्यरस सादि अवव बे प्रकारे बंधाय छे, तथा नीचगोवनो उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य ए तीन भांगे रस बांधे ते सादि अवुव बांधे. तथा शेष प्रकृति ७२ नो जवन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट ए च्यारे ४, प्रकारनोरस ते सादि, अधुवभेदे बांधे, इहां पयडीने आशये शेषप्रकृति ७४ ग्रहे छे, गोत्रनी प्रकृति पिण अव बंधी छे ते माटे. तथा उपघात १, ध्रुवबंधी छे, परं ए प्रकृतिबंधे ध्रुवबंधी छे ते माटे ए अनुभाग रसबंधनो अधिकार कटो. . हवे प्रदेशबंध अधिकार कहे छे-तिहां प्रथम वर्गणानुं स्वरुप कहे छे-र-एकपरमाणु दुग-बे परमाणुआनो स्कंध, इम श्याक, इम संख्याताणुक, असंख्याताणुक, अनंतापरमाणु मिळे ते अभव्यथी अनंतगुणा मिळे जे खंध नीपजे तिवारे उरलोचिअ
औदारिकने उचित कहेतां ग्रहेवा योग्य वर्गणा जघन्य थाय, तह-तिमहीज अंतरित-एथी पाछली ते सर्व अग्रहण जाणवी. ए औदारिक वर्गणा बादर वीसगुणी छे. ।। ७५ ।। एमेव विउव्वा हार, तेय भासा णुपाण मण कम्मे । सुहुमा कमावगाहो, उणूणंगुल असंखंसो ॥७६॥ ___अर्थ--एमेव-इमही विउव्व-वैक्रिय वर्गणा, बीजी २, अने त्रीजी आहारक वर्गणा ३, तैजस वर्गणा ४, भाषावर्गणा
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
५, श्वासोश्वासवर्गणा ६, मनोवर्गणा ७, कार्मणवर्गणा ८, ए आठवर्गणा कमा-अनुक्रमे-सूक्ष्म छे-एटले औदारिकथी वैक्रिय सूक्ष्म, भाषाथी उश्वास सूक्ष्म, उश्वासथी मन सूक्ष्म, मनथी कार्मण सूक्ष्म जाणवी, अवगाहना एक वर्गणानी अंगुलने असंख्यातमे भागे छे, एकथी बीजी वर्गणानी तेहथी ऊंणी अवगाहना छे, एक एक परमाणु वधारतां जे औदारिक जघन्य ग्रहणयोग्य वर्गणा तेहने अनंतमे भागे जेटला परमाणुआ तेटला परमाणुआ वधे, तिवारे औदारिक उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य वर्गणा थाय, ते वर्गणामध्ये एक परमाणु वधे ते बर्गणा औदारिकने मोटा पडे, वैक्रियादिकने न्हाना पडे ते माटे अग्रहणयोग्य जाणवी, इम औदारिक उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य वर्गणाथी अनंतगुणा परमाणु वधे एहवो जे खंध ते वैक्रीयनी जघन्य ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. ते वैक्रिय जघन्य ग्रहणयोग्य वर्गणा एक एक परमाणुए वधतां ( वधारतां) जिवारे वैक्रिय जघन्य वर्गणाथी अनंतमा भाग जेटला परमाणुआ वधे ते वैक्रीयने उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य वर्गणा थाये. तेहथी उपरांत ते अग्रहणयोग्य जाणवी. ते वैक्रीय उत्कृष्ट ग्रहण वर्गणाथी अनंतगुण परमाणुआ वधे, तिकारे आहारकनी जघन्य ग्रहणयोग्य वर्गणा थाये. आहारक जघन्य ग्रहणयोग्य वर्गणाथी अनंतमें भागे वघे तिवारे आहारकनी उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य वर्गणा थाये, ते जिवारे अनंतगुणी वधतां सीम अग्राह्य पछी तैजसनी ग्रहण योग्य थाये,ए रीतेते कार्मणपर्यंत वर्गणा केहेवी. ए मध्ये औदारिक १, वैक्रिय २, आहारक ३, तैजस ४, ए च्यारे वर्गणा बादर वीसगुणी छे, अने भाषा, उश्वास, मन, कार्मण, ४ ए च्यार वर्गणा सूक्ष्म, सोलगुणी छे, स्पर्श-रुक्ष, स्निग्ध, शीत, उष्ण
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कर्मयन्थस्य टवार्थः ए ४ छे शेष ४ नथी. तैजसवर्गणा किहांएक सुक्ष्म कही छे. ॥ ७६ ॥ इकिकहियासिद्धा-णतंसो अंतरेसु अग्गहणा। सवत्थ जहन्नुचिया, नियणतंसाहिआ जिट्ठा ॥७७॥ ___अर्थ-जे वर्गणा मोटी थाये ते पिण सिद्धने अनंतमे भागे जेटला परमाणुआ थाये एक वर्गणाना, एम अनंतीवर्गणा जे एक समयमां अनंत प्रमाण दलिक थाय एह अनंता दलिक एक समय मध्ये जीव ग्रहण करे, ग्रहणने
आंतरे विचाले ते अग्रहण जाणवी, कार्मण उत्कृष्ट थाय पिण अधिका ते अग्रहण जाणवा. सर्व जघन्य वर्गणाथी निय-पोताने अनंतमे अंशे अधिक ते उत्कृष्ट वर्गणा जागवी. ॥ ७७॥ अंतिम चउफास दुगंध, पंचवन्नरस कम्मखंधवलं। सबजियणंतगुणस्स, अणुजुत्त मणतयपएसं ॥७॥ ___अर्थ हवे कर्मपणे जे परमाणुआ लेवराये तेहनो स्वरूप कहे छे--अंतिम छेहेला जे च्यार स्पर्श-टाढो, उन्हो, लूखो, चीकणो, तिमहीज बे गंध तथा पांच वर्ण तथा पांच रस संयुक्त गोल गुणी खंध्र तेहनो समूह ते कर्मपणे लेवा योग्य दल जावो ते दलना जे परमाणुआ तेमांहे. जे रस कषाय प्रत्ययी ते र जीवथी अनंतगुणो रस एक एक परमाणुभां हुवे. ते अणुयुक्त-परमाणुआयुक्त अनंत प्रदेशी कहेतां अनंता परमाणुआनो खंध ते कर्मपणे लेवाने योग्य जाणवो. ॥ ७८ ॥
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७३८
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
एगपएसागाढं, निअसवपएसओ गहेइ जिओ। थोवो आउ तदंसो, नामे गोए समो अहिओ ॥७९॥
अर्थ--एक प्रदेश अवगाह्यो जे कर्मदल तेने आत्मा सर्व प्रदेशने बले करीने ग्रहण करे, एटले एक प्रदेशे ले तो असंख्याते लेवराय, अने एक प्रदेशनो कर्म ले तो वीर्य चलनानो कंपन सर्व प्रदेशनो थाय, ते माटे सर्व प्रदेशे ग्रहे इम कह्यो छे. ते जे आकाशप्रदेशे कर्मदल ते प्रदेशे जे आत्मप्रदेश हुवे (होये ) ते आत्मप्रदेशे ग्रहे, भिन्न प्रदेशी दल न ग्रहे, हवे ते जीव एक समये आठ कर्म बांधे, ते कर्मदलिकनो वेहेचण कहे छे. जे सर्वथी थोडा दल आउखाने भागे आवे, तेथी नाम कर्म तथा गोत्रकर्मने अधिका दल आवे पिण बेने मांहोमांहे समान आवे. ॥ ७९ ॥ विग्यावरणे मोहे, सबोवरिवेअणीइ जेणप्पे । तस्स फुडत्तं न हवइ, ठिई विसेसेण सेसाणं ॥८॥ ___ अर्थ-नाम गोत्रथी विग्य-अंतराय तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरणीने आधिक आवे, ए तीनने परस्पर समान आवे, एहथी मोहनीकर्मने दल अधिक आवे. सर्व सात कर्मथी उपरि कहेतां अधिका दल वेदनीय कर्मने आवे, जे कारणे तस्स-ते वेदनीय कर्मनो फुड-प्रगट उदयपणो थोडे पुद्गले थाय नही, जे बीजा कर्मथी वेदनीनो विपाक-व्यक्त छे,- शेष जे सात कर्म तेहने जे दलनो भाग आव्यो ते स्थितिने विशेषे एटले आउखानी स्थिति थोडी तिणे सर्वथी थोडा दल आवे, तेथी
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कग्रन्थस्य बा.
७३९
नाम गोत्रनी स्थिति घणी ते माटे घणा दल आवे, इहां कोई पूछस्ये जे आउखाथी नामनी स्थिति संख्यातगुणी छे तो ते संख्यातगुणो भाग कां न कयो ? इहां उत्तर जे ए दलिक भोगवतां काल वतो लागे, आउखाना दलिक भोगवतां काल थोडो लागे ते माटे, तथा संक्रम्या दल ७ मध्ये घणा छे, घणी स्थिति सीम पहोचे परं दलिक अधिका लेवे परं संख्यातगुणा न लेवे एम सर्वत्र भावज्यो ए अर्थ. ॥ ८० ॥
निअजाइलद्धदलिआ - तंसो होइ सबघाईणं । बज्झतीण विभज्जइ, सेसं सेसाण पइसमयं ॥८१॥
"
अर्थ -- हवे उत्तरप्रकृतिनो वहेंचवो कहे छे. तिहां नियपोतानी जे जाति ज्ञानावरणी आदिक तेहने भाग प्रमाण लीधा जे दल तेहनो अनंतमो भाग ते सर्ववातीने आवे, शेष रहे ते थाकती प्रकृतिने आवे, तिहां जे ज्ञानावरणीने भागे आव्या जे दल तेहनो अनंतमो भाग अति रसवंत ते केवलज्ञानावरणीपणे परिणमे शेष रह्या जे दल ते च्यार ४ भागे मतिज्ञानावरणी प्रमुखने आवे, तथा दर्शनावरणीने ६ भागे आवे, शेष रह्यो ते चक्षुदर्शनावरणी प्रमुखने ३ भागे आवे. मोहनीने जे भाग आव्यो तेहना बे भाग थाय, तेमांयी एक भागनो तेने मले तथा मोहनीनुं अर्ध दल मिथ्यात्वने मळे छे, ए प्रमाणे तेमांहे जे स्थानके जेटला बंधाता हुवे तेटले भागे आवे, शेष रही जे ते जेटली देशवाती बंधाती हुवे तेटला भाग पडे, अंतरायने सर्ववाती नथी, तिणे एहना ५ भाग पडे. नामकर्मनो भाग जे काले २३ थी ३१
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७४०
कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
सुधीना बंधस्थानमा जेटली प्रकृतिनुं बंधस्थान वर्ते तेटला भाग पडे, तेमां बंधन संघातनने शरीर नामकर्ममांथी भाग मले, तथा वर्णादि मूल प्रकृतिना भागमां आवेलां दलिया ते पोतानी उत्तर प्रकृतिमांज वहेंचाय. कारणके एक समये सर्व वर्णगंधादि बंधाय छे. तथा गत्यादि पींड प्रकृतिओना भागमां आवेलुं दलिक ते सर्व एकेक प्रकृतिनुंज होय, कारणके एक समयमां गत्यादि एकज प्रकृति बंधाय छे. तथा गोत्र वेदनीय ने आयुष्य एत्रण मूलकर्मनो भाग बंधाती एकेक प्रकृतिनेज मले. ए सर्व वचण जे समये बांधे तेज समये करे छे एटले बंधसमयेज वढ़ेंचे छे ते सर्व कार्य एक समये थाय छे.
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सम्म देस (दर) सहविरई, उअणविसंजोअ दंस aar | मोह सम संत खवगे, खीण सजोगीअर गुणसेढी ८२
अर्थ - - हवे ११ श्रेणि कहे छे-तिहां प्रथम सम्म - समकितनी श्रेणि १, बीजी देशविरतिनी श्रेणि २, त्रीजी सब्वविरहसर्व विरतिनी श्रेणि ३, चोथी अण- अनंतानुबंधी सत्तामाथी काढवा खपाववानी ते श्रेणि ४, पांचमी दंस-दर्शनमोहनी ३ खपाववा रूप श्रेणि ५, तथा छठ्ठी ते मोहनीनी २१ प्रकृति शमाववा रुप आठमागुणठाणाथी दसमाना अंतलगें मोहशमरुप श्रेणि ६, सातमी सर्व मोह उपशमी रह्यो एहवी ११ गुणठाणा रूप श्रेणि ७, आठमी खवग - मोहनीनी २१ प्रकृति खपाववारुप आटमाथी दशमापर्यंत श्रेणि ८, नवमी सर्वमोह खप्यो ते रुप क्षीणमोह गुणठाणारुप श्रेणि ९, दशमी सयो
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
७४१
गीकेवळी तेरमागुणठाणा रुप श्रेणि १०, इग्यारमी अयोगीकेवळी ये चौदमा गुणठाणारुप श्रेणि ११ ए इग्यारे श्रेणि जाणवी. ॥ ८२॥ गुणसेढी दलरयणा, णुसमयमुदया दसंखगुणणाए। एअगुणा पुण कमसो, असंखगुण निजराजीवा ॥३॥ - अर्थ-गुणसेढी-गुणश्रेणि ते दलरचना कहीये, दलनो वहेंचवो एटले दलसंबंधपणे हतो ते चल करी जुदा जावा योग्य करवा ते दलरचना कहीजे, तथा श्रेणिमध्ये जे दल उदय आवे ते प्रथम समयथी बीजे समये असंख्यातगुंणा दल उदय करे अने श्रेणि वर्त्तते जीवने ज्ञानादिकने असंख्यात गुणा वधारे निरावरण थाये. वळी श्रेणि चढ्यो जीव प्रतिसमये असंख्यातगुण निर्जरा करे, इम श्रेणि पेहेलीथी बीजीए असंख्यातगुणी निर्जरा थाय, इम सर्वश्रेणिमां जाणज्यो. हवें गुणठाणानो अंतर कहे छे-१४ चौद गुणठाणामे बारमो, तेरमो, चौदमो गुणठाणो जीव एकवार पामे, बीजीवार कोइ जीवने स्पर्शवो न पडे, तिणे तेहने अंतर न कहेवाये, अने ११ गुणठाणा एक जीव अनेकवार पामे ते माटे ते इग्यार गुणठाणानो अंतर कहुंछं. ॥ ८३॥ पलियासंखंसमुह, सासणइअरगुणअंतरंहस्सं। गुरुमिच्छि बे छसट्ठी, इयरगुणे पुग्गलद्धंतो॥४॥ - अर्थ-पलियासंखस-पल्योपमनो असंख्यातमो भाग सासाणि-सास्वादन गुणठाणानो अंतर हस्सं-जवन्य आंतरो छे जे कारणे सास्वादनथी मिथ्यात्वे आवेला जीवने सम्यक
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७४२
कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
त्व ने मिश्रपुंज अवश्य सत्तामां होय, ते बन्ने पुंजने मिथ्यात्वे प्रथम समयथी उवेलवा मांडे ते यावत् पल्योमना असंख्यातमे भागे उवेली रहे, ने ज्यांसुधी ए बे पुंज सत्तामां होय त्यां सुधी पुनः उपशम पामे नहि, ने सास्वादने पण न आवी शके, ते माटे जवन्य अंतर पण पल्योपमनो असंख्यातमो भाग पडे, तथा इयरगुण-बीजां जे गुणठाणांमिथ्यात्व १, मिश्रादिक उपशान्तमोह पर्यंत नव १० गुणठाणे जवन्य अंतर अंतर्मुहूर्त्तनो पडे, जे कारणे ए गुणठाणे चढतो तथा पडतो पिण आवे ते माटे तथा गुरु-उत्कृष्टो अंतर मिथ्यात्व गुणठाणानो बे छसट्ठी-१३२ एकसोबत्रीस सागरोपमनो उत्कृष्टो अंतर पडे, जे कारणे छासठ सागर क्षयोपशम समकितपणे रहे, पछी अंतर्मुहूर्त मिश्रपणे रही वळी छासठ सागरोपम क्षयोपशम समकितपणे रहे तिवारे मनुष्यभव साधिक १३२ सागर काल पर्यंत मिथ्यात्व स्पश्यों नही, ते मिथ्यात्वनो अंतर इयर-सास्वादनादिक दश गुणठाणानो उत्कृष्ट अंतर अर्द्ध पुद्गल परावर्तकाल देश ऊंणो जे एटलो काल समकीतथी पड्यो मिथ्यात्वमें रही पछी पाछो समकित पामी मोक्षे जाय ते माटे अंतर कह्यो. ॥ ८४ ॥ उद्धार अद्ध खित्तं, पलिय तिहा समयवाससयसमए। केस वहारो दीवो, दहि आउतसाइ परिमाणं ॥५॥ ___ अर्थ-हवे पुद्गल परावर्तननो मान कहेवा माटे पल्योपमनो स्वरुप कहे छे. पल्योपमना ३ त्रण भेद छे. उद्धारपल्योपम १, अद्धापल्योपम २, क्षेत्रपल्योपम ३ ए पल्योपमना ३ तीन भेद छ, तिहां उद्धार पल्योपमनो मान समये
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कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
७४३
समये एक केश - वालाग्र अवहारो - ( काढतां ) योजननो कुवो खाली थये उद्धार (पल्योपम ) थाय, तथा सो वरसे एक वालाग्र काढीये तो कुवो खाली थये अछा पल्योपम थाय, तथा एक समये योजन प्रमाण कुवानो एक आकाश प्रदेश काढीये कुवो खाली थये क्षेत्र पल्योपम थाय. तिहां द्वीप समुद्रनो गिणवो ते उद्धार पल्योपमे करवो. पंचवीस कोडाकोडी पल्योपमना जेटला समय थाय तेटला द्वीप समुद्र छे. आउखो ते अछा पल्योपमे गणवो, बस जीवनो मान ते क्षेत्रपल्योपमे गिणवो, जिम पल्योपमना ३ तीन भेद तिम सागरोपमना तीन भेद जाणवा. ॥ ८५ ॥
हवे पुद्गल परावर्त्तनो स्वरूप कहे छे.
दवे खित्ते काले, भावे चउह दुह बायरो सुमो । होइ अनंतुस्सप्पिणि, परिमाणो पुग्गलपरहो ॥८६॥
अर्थ -- ते पुद्गल परावर्त्तनना भेद आठ छे. तिहां द्रव्य पुल परावर्तन १, क्षेत्र पुद्गल परावर्त्तन २, काल पुद्गल परावर्त्तन ३, भाव पुद्गल परावर्त्तन ४, ए च्यार ४ भेद ते एकेकना बे भेद छे-द्रव्य पुगल परावर्तन बादर १, द्रव्य पुगल परावर्त्तन सूक्ष्म २. ए बे, इम क्षेत्र पुगल परावर्त्तन बादर १, क्षेत्र पुद्रल परावर्तन सूक्ष्म २, काल पुगल परावर्त्तन बादर १, काल पुद्गल परावर्तन सूक्ष्म २, भाव पुगल परावर्त्तन बादर १, भाव पुद्गल परावर्त्तन सूक्ष्म २, ए आठे भेद जाणवा, बादर पुद्गल परावर्त्तन ते न्हानो छे, सूक्ष्म पुल परावर्त्तन ते मोटो छे. अनंत उत्सर्पिपणी, अवसर्पिपणी प्रमाणे पुद्गल परावर्त्तननुं मान थाये. ८६ ॥
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७४४ कर्मग्रन्थस्य टबार्थः उरलाइ सत्तगेणं, एग जिओ मुअइ फुसिय सवअणु। जित्तिअ कालि सथूलो। दवे सुहुमो सगऽन्नयरा॥७॥
अर्थ-डुवे द्रव्य पुद्गल परावर्तननो मान कहे छे. उरलाइऔदारिकादिक सात वर्गणा, आहारक विना, ते एक विना ते एक जीव सर्व पुद्गल ए ७ सात वर्गणाए फुसीय-स्पर्शीने मुइय-मूक्या जे सर्व परमाणु पिण अनुक्रमे नहीं जिवारे जे फरसे ते तिवारे गणीये तेहनो जे काल लागे ते द्रव्ये बादर पुद्गल परावर्त्तन थाये. तथा सर्व परमाणु सगन्नयरा-सात वर्गणापणे अन्यतर एक एक वर्गणापणे फरसे ते विचें बीजी वगणापणे फरसे ते स्पर्शना गणवी नही, इम अनुक्रमें एक एक वर्गणापणे सर्व पुद्गल फरसी मुके तिवारे द्रव्यथी सूक्ष्म पुद्गल परावर्तन थाये. ॥ ८७ ॥ लोगपएसोसप्पिणि, समयाअणुभागबंधट्ठाणा य। जह तह कममरणेणं, पुट्ठाखित्ताइथूलियरा ॥८॥ ___ अर्थ-लोकप्रदेश सर्व स्पर्शे क्षेत्रपुद्गलपरावर्त, उत्सर्पिणी अवसप्पिणीना समय स्पर्शे ते काल पुद्गल परावर्त्त, अनुभाग बंधनां स्थानक स्पर्शे भावपुद्गलपरावर्त्त, ते जहतह-जेम तेम स्पर्श तो ए ३ तीने थूल-बादर पुद्गलपरावर्त्त, अने अनुक्रमे स्पर्शे तो सूक्ष्म थाये ते देखाडे छे. जे लोकना प्रदेशमा लोकना अंतप्रदेशे मरण पामे, इम जेम तेम आगल पाछल करीने बधो लोक मरणे करी स्पर्श तिवारें क्षेत्रथी थूल-बादर पुद्गलपरावर्तन थाये, तेहज जे लोकने अंत्यप्रदेशे मरण करी वळी ते प्रदेशथी लगते प्रदेशे मरण करे ते भव गणवो, इम
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अनुक्रमे बधो लोक मरणे स्पर्शे ते आधा पाछा प्रदेशे जे मरण थाये ते न गणीये, इम संपूर्ण लोक स्पर्श त्यारे क्षेत्रथी सूक्ष्म पुद्गल परावर्त थाय. तथा एहनो जघन्य अंतर २५६, आवळीनो उत्कृष्ट अंतर अनंतकालनो तथा उत्सर्पिणी अवसर्पिणीने प्रथम समये जन्म पाम्यो, तेहिज वळी किहांक मरण पाम्यो, इम जे क्षेत्रे जे प्रदेशमे मरण पाम्यो, इम अनुक्रम विना जे हरकोइ स्थानकनो प्रदेश स्पश्र्यो, तिम उत्सर्पिणी अवसप्पिणीना समय मरणे स्पश्र्ये तिवारे कालयी बादर पुद्गल परावर्त थाये. तेहज कोइ उत्सर्पिणी अवसर्पिणीना प्रथम समये मरे पछी जघन्ये वीस कोडाकोडी सागर जाय तिवारे वळी बीजा कालचक्रनो बीजो समय आवे तिवारे मरण पामे अथवा अनंतेकाले अनंतमा कालचक्रने बीजे समये मरण, वळी जघन्ये वीस कोडाकोडी सागर पछी अथवा अनंताकाल पछी चीजे समय मरण, इम अनुक्रमे मरण करतां उत्सर्पिणी अवसर्पिणीना समयो मरणे करी स्पर्शे अनुक्रमे, तिवारे कालथी मूक्ष्म पुद्गल परावर्त्तन थाये, इम रसबंधनां स्थानक जे मरणे करी जेम तेम स्पर्शे ते भावथी बादर पुद्गलपरावर्त्त थाये, तेहिज रसबंधना स्थानक अनुक्रमे, मरणे स्पर्शे सारे भावथी सूक्ष्म पुद्गल परावर्तन थाये. ते भाव पुद्गल परावर्त कोइ जीवने थयो नथी इम आठ मेद जाणवा. ॥८८॥ अप्परपयडिबंधी, उक्कडजोगी अ सन्निपजत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं, जहन्नयं तस्स वच्चासे ॥ ८९॥ ____ अर्थ-जे जीव अप्पयर-अल्पतर थोडी प्रकृति बांधे, उकडयोगी-योगे उत्कृष्ट योगी हुवे अ कहेतां च शब्द संज्ञि
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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः
पर्याप्तो कुणई-करे, प्रदेशबंध उत्कृष्टपणे बांधे, एटले थोडी प्रकृति बांधे तेहने भाग थोडा. उत्कृष्ट योगबलवंत प्रदेश लेवे, घणा ते माटे, उत्कृष्टयोग वाला जे जीव ते अने अतिशये अल्प प्रकृति बंध करे, जहन्नयं-तेहथी विपर्यासे जघन्य प्रदेश बांधे, जे प्रकृति घणी बांधतो हुवे, योग मंद हुवे, असंज्ञि पर्याप्तो हुवे ते प्रदेशबंध जघन्य बांधे इम भाववो. ॥८९॥ मिच्छ अजय चउ आऊ, बिति गुणविणुमोहि सत्त
मिच्छाइ। छहं सतरस सुहुमो, अजया देसा बिति कसाए॥१०॥
अर्थ-हवे प्रदेसबंध उत्कृष्टना स्वामी कहे छे-मिथ्यात्व गुणठाणे अजयचउ-चोथा गुणठाणाथी मांडी ४ च्यार गुणठाणा एटले मिथ्यात्व १, अविरति १, देशविरति १, प्रमत्त १, अप्रमत्त १, ए पांच गुणठाणे आउखा कर्मनो उत्कृष्ट प्रदेश बांधे, बीजा वीजा गुणठाणाविना मिथ्यात्व १, अविरति १, देशविरति १, प्रमत्त १, अप्रमत्त १, अपूर्व १, अनिवृत्ति १, ए ७ सात गुणठाणे मोहनीकर्मना उत्कृष्ट प्रदेश बांधे. मूल कर्म छनो, तथा उत्तर प्रकृति ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी ४ च्यार, अंतराय पांच, सातावेदनी १, उच्चगोत्र १, यशनाम १, ए १७ सत्तर प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्म संपराय गुणठाणे बांधे, तथा अविरति गुणठाणे बीजी चोकडीनो उत्कृष्ट प्रदेशबांधे, देशविरतित्रीजी चोकडीनो उत्कृष्ट प्रदेश बांधे. ॥ ९० ॥ पणअनिअट्टी सुखगइ, नराउ सुर सुभगतिग विउविदुगं समचउरंस मसायं, वइरं मिच्छो व सम्मो वा ॥११॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~rrrrrrrrrrrrrrrअर्थ---संजलणः ४, पुरुषवेद १, ए पांच प्रकृति अनि. वृत्ति गुणठाणे उत्कृष्ट प्रदेशे बांचे, शुभविहायोगति १, मनुध्यायु १, सुरत्रिक ३, सुभगत्रिक ३, वैक्रियदुग २, समचौरस संस्थान १, असातावेदनीय १, वज्रऋषभनाराच संघयण १, ए १३ प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्यात्वी बांधे अथवा समकिती बांधे. ॥ ९१ ॥ निद्दा पयलादुजुअल, भयकुच्छातित्थ संमगोसुजई।
आहारदुगं सेसा, उक्कोस पएसगा मिच्छो ॥९२ ॥ ___अर्थ-निद्रा १, प्रचला १, दुजुअल-हास्य १, रति २, अरति १, शोक २, भय १, दुगंछा १, तीर्थकर नाम १, ए नव प्रकृति समकिती उत्कृष्ट प्रदेशबंधे बांधे, सुजईजे अपूर्वकरणी अथवा अप्रमत्त, आहारक दुगनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध बांधे, शेष ६६ छासठ प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेश संज्ञि मिथ्यात्वी बांधे. ॥ ९२ ॥ सुमुणी दुन्नि असन्नी, नरयतिगसुराउ सुरविउवि दुग। सम्मो जिणे जहन्नं, सुहुमनिगोआइखणि सेसा॥१३॥ ____ अर्थ-हवे जघन्य प्रदेशबंध बांधे ते कहे छे. सुमुणीभलो मुनि अप्रमादी, दुन्नी-आहारक दुगनो जवन्यबंध बांधे, असंज्ञी बांधे, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, वैक्रियदुग (टबामां सुराउनो अर्थ नथी लख्यो माटे देवत्रिकने ठेकाणे देवायु पछी देवद्विक अने वैक्रियद्विक, एम बेसे छे, तत्त्व बहुश्रत जाणे.) ए ६ प्रकृतिनो जघन्य प्रदेशबंध असंज्ञी पर्याप्तो बांधे, जिन नामनो जघन्य प्रदेशबंध समकिती बांधे, शेषा-शेष १०९
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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
प्रकृतिनो जघन्य प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदियो अपर्याप्तो बांधे हने बंध स्वामीत्वे पण १०९ नो बंधज, शेषनो बंध नथी, जघन्ययोगी माटे जघन्य प्रदेश बांधे. ॥ ९३ ॥
दंसणछग भय कुच्छा, बि ति तुरिअ कसाय विग्घनाणाणं ।
१४०
मूलछगे ऽणुकोसो, चउह दुहा सेसि सवत्थ ॥ ९४ ॥
अर्थ-दर्शनावरणी ६ - चक्षु दर्शनावरणी १, अचक्षु दर्शनावरणी २, अवधि दर्शनावरणी ३, केवल दर्शनावरणी ४, निद्रा ५, प्रचला ६, ए छ भय १, दुगंळा २, बीजी चोकडी ४, श्रीजी चोकडी ४, चोथी चोकडी ४, पांच अंतराय ५, पांच ज्ञानावरणी ५, ए उत्तर ३० त्रीस मूळ ६ छ कर्मनो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चउहा - सादि १, अनादि २, ध्रुव ३, अध्रुव ४, ए ४ च्यार भेदे जाणवो एहीज ३० त्रीस प्रकृतिनो जघन्यबंध, अजवन्यबंध, उत्कृष्ट प्रदेशबंध, सादि, अध्रुव, ए बे मेदे जाणवो, तथा शेष ९० नेवुने प्रकृतिनो, जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, ए ४ च्यार प्रकारनो प्रदेशबंध सादि, अध्रुव, भेदे पाभीये, तिहां ७३ तो अध्रुवबंधी छे ते माटे बे बे पामीये, अने मिथ्यात्व १, अनंतानुबंधी ४, यीणद्धी ३, नामनी ध्रुवबंधी नव ९ ए १७ प्रकृति ध्रुवबंधी छे पिण प्रदेशबंध उत्कृष्टादिक कोइ ध्रुव नयी. ३० त्रीस प्रकृतिनो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध, गुणठाणे चढ्या बिना जीवने ध्रुवबंध छे ते माटे ॥ ९४ ॥
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
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सेढिअसंखिज्जंसे, जोगट्ठाणाणिपयडिटिइभेआ । ठिबंधज्झवसाया, णुभागठाणा असंखगुणा ॥९५॥
अर्थ - घनीकृत लोकनी सातराजनी एकप्रदेशी श्रेणि तेहने असंख्यातमे भागे जेटला आकाश प्रदेश तेटलां योग स्थानक छे, तेथी प्रकृतिनां स्थानक तीव्र मंदता रुप असंख्यात गुणां छे, तेथी स्थितिभेद स्थितिनां स्थानक असंख्यातगुणा छे, तेथी स्थितिबंधना अध्यवसाय जीवभेदें तीव्र मंदतारुप ते असंख्यातगुणा छे, जे एकेके स्थितिस्थानके स्थितिबंधना अध्यवसाय असंख्यात छे, ते माटे ४ तेथी रसबंधना स्थानक असंख्यात - गुणा छे, जे छठाणवृद्धिरुप रसबंधना स्थानक अग्निकायनी सुइ छ दिशा फरतीना आकाशप्रदेश प्रमाण छे. ॥ ९५ ॥ तत्तो कम्मपरसा, अनंतगुणियातओरसच्छेआ (या) । जोगापयडिपएस, हिइ अणुभागं कसायाओ ॥ ९६ ॥
अर्थ -- ते माटे तेहथी कर्मवर्गणाना एकसमयगृहीत परमाणुआ अनंतगुणा छे, ६ तेहयी कर्मबंधपणे जे परमाणुआ बंधाणा तेमां जे एक परमाणु तेमांहे कषायप्रत्ययी रसना छेद ते अनंतगुणा छे, जे कारणे सर्व जीवथी अनंतगुणो रस हुवे (होप ) तेहिज कर्मपणे बंधाय. ७, ते माटे, तथा प्रकृतिबंध, १ ते योगथी बंधाय, स्थितिबंध तथा रसबंध ते कषायथी बांधे, मिथ्यात्व, अविरत ते दृढीकरणनो हेतु छे. ॥ ९६ ॥ चउदसरजू लोगो, बुद्धिकओ होइ सत्तरज्जु घणो । तदीहेग परसा, सेढी पयरो अ तवग्गो ॥ ९७ ॥
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कर्म्मग्रन्थस्य र्थः
अर्थ -- हवे श्रेणिनो स्वरुप कहे छे चौदराज प्रमाण लोक छे, बुद्धियें करीये तिवारें सातराज प्रमाण घन थाय. तेहनी दीर्घ लांबी एकप्रदेशनी श्रेणिने सेढी कहीये, ते सेढीनो वर्ग एटले तद्गुणो- गुणाकार करीये ते प्रतर थाय, तेहने वर्ग करे घन थाय ॥ ९७ ॥
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अणदंस नपुंसि त्थी, वेअ छक्कं च पुरिसवेअं च । दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उवसमेइ ॥९८॥
अर्थ -- हवे उपशम श्रेणि कहे छे-इहां उपशम श्रेणें उपशम समकिती लीधो छे, ते कहे छे- प्रथमयी चोथाथी मांडी सातमा गुणठाणा सीम अनंतानुबंधी ४ उपशमावे, पछे दर्शन मोहनी ३ तीन उपशमावे, पछी आठमे गुणठाणे आवी स्थिति घातादिक पांच ५ करण करीने नवमे गुणठाणे आवी नपुंसकवेद उपशमावे, १ पछी स्त्रीवेद उपशमावे १, पछी हास्यछक ६ उपशमावे, पछी पुरुषवेद उपशमावे, पछे बे बे कषाय उपशमावे, पछे एक उपशमावे (१) आंतरे अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी को २, उपशमावे, पछे संजलणो क्रोध, १ उपशमावे पछे अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी मान उपशमाच्या पछी संजलणमान उपशमावे पछी अप्रत्याख्यानी, प्रत्याखानी माया उपशमावे, पछी संजलानी माया उपशमावे, पछी प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी लोभ उपशमावी, संजलना लोभनी किट्टी करे, तेहनो अनंतमो भाग संजलना लोभनो ते दसमे गुणठाणे उपशमावे ए रीते सरखं सरखं उपशमावे पछी उपशांतमोही थाय हवे क्षपकश्रेणिनो क्रम कहे क्रे. ॥ ९८ ॥
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कर्मग्रन्थस्य स्वार्थः
अणमिच्छ मीससम्मं, तिआउ इग विगल थीण
. तिगुजो। तिरिनिरय थावर दुगं, साहारायव अड नपुत्थी॥९९॥
__ अर्थ-जे कोइ जीव लाघे स्वकृत्व रसे संसारोद्विग्न आत्मालंबी थको चोथे तथा पांचमे, छठे, सातमे गुणठाणे क्षयोपशम, अनंतानुबंधी ४ खपावे, पछी मिथ्यात्वमोहिनी खपावे, पछी मिश्रमोहिनी खपावे, पछी समकितमोहनी खपावे, पछी देवता १, नारकी १, तियेच १, नां आउखां खपावे, खपावीने नवमे गुणठाणे चढे पछी नवमाने बीजे भागे इग-एकेन्द्रीजाति, विगल ३, थीणद्धी ३, उद्योत १, तिर्यंचद्विक २, नरकद्विक २, थावर, सूक्ष्मद्विक २, साधारण १, आतप १, ए १० सोळ प्रकृति नवमाने बीजे भागे खपे, अड-आठ कपाय खपावे, त्रीजे भागे, तेथी पछी चोथे भागे नपुंसकवेद खपावे, पांचमे भागे स्त्रीवेद खपावे. ॥ ९९ ॥ छग पुं संजलणा दो, निदाविग्यावरण खए नाणी। देविंदसूरि लिहिअं, सयगमिणं आय सरणट्ठा ॥१०० इति शतकनामा पंचमकर्मग्रंथः समाप्तः ॥५॥
अर्थ-पछे छठे भागे हास्य ६ छ खपावे, पछी पुरुषवेद खपावे, पछी आठमे भागे संज्वलन क्रोध खपावे, नवमे भागे संज्वलन मान खपावे, नवमा गुणठाणाने अंते संज्वलननी माया खपावी दसमे सूक्ष्मसंपरायगुणठाणे आवी संज्वलननो लोभ खपावी बारमे गुणठाणे आवे तिहां बे निद्रा
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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
खपावे, पछी बारमाने अंते अंतराय पांच, ५, ज्ञानावरणी, ५, दर्शनावरणी च्यार, ४, ए १४.चौदने खपे आत्मा नाणीकेवलज्ञानी थाये-लोकालोक प्रत्यक्ष देखे, ए देवेन्द्रसूरि आचार्य महाराजे लिख्यो शतक नामे कर्मग्रंथ पिण आय-पोताने सरणा-संभारखाने अर्थे. इति पंचम कर्मग्रंथ टबार्थः समाप्तः १००
अथ टबाकार प्रशस्तिकार काव्यम् . श्रीमत् पाठक राजसारकृतिनां शिष्या जिनाज्ञापराः । श्रीमत् पाठक ज्ञानधर्मप्रवरां श्रीदीपचन्द्राह्वयाः । अर्हन् मार्गसुपाठका गुणलया तद्वाक्यसेवानुगः । सत्रार्थ गणिदेवचन्द्रमतिमान् संदर्शयन् शोभते ॥१॥ इति ॥५॥
संवत् १८६८ श्रावण शुक्लाष्टम्यां (श्रावण सुदि ८) रविवासरे लिपिकृते सकल पंडित सिरोमणि भट्टारक तपागच्छाधिराज पुरंदरप्रभु भट्टारक श्रीश्रीश्री १०८ श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री कीर्तिरत्नसूरीश्वरान् चिरंजीवी तत्शिष्य पं० बुद्धिरत्नेन लिपिकृते तत् शिष्य मुनि कान्तिरत्न पठनार्थ पठितः श्रीसूर्यपुरवरे श्री शान्तिनाथचरणप्रसादात् श्रीकल्याणमस्तु. ( ए जे उपरथी प्रेसकॉपी थइ ते प्रति लिख्यानी शाल विगेरे तेमांयी लीधेल छे.) इतिश्रीपंचम शतकाख्य कर्मग्रंथस्यटबार्थः समासः॥
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श्रीमद् देवचंद्रनी कम विचार रत्नसार.
प्रणम्थ श्रीमहावीरं, शंकरं परमेश्वरं । विचाररत्नसारस्य, क्रियते बालबोधकं ॥१॥
श्री जीनवाणीमहिमा वर्णन. श्रीवीतरागनी वाणी भववेकपाणी, संसारसमुद्र तारिणी, महामोहान्धकार दिनकरानकारिणी, क्रोधदावानलोकशामिनी, मुक्तिमार्गप्रकाशिनी, कलिमलप्रलयिनी, मिथ्यात्वछेदिनी, त्रिभुवनपादिनी, पापविशोधिनी, मन्मथस्तंमिनी, अमृतरस आस्वादिनी, हृदय आल्हादिनी, आगमोद्गारिणी, चतुर्विध संघमनोहारिणी, भव्यजनकर्णामृतश्राविणी, सकल कुमतिनिवारिणी, सर्वसंशय निबारिणी, योजनप्रमाण विस्तारिणी, एहवी श्रीवीतरागनी बाषी महा प्रभाविक अतिशयवंत जाणवी.
ते वाणी भव्य प्राणीओए अवश्य सदगुरु पासे सांभळवी, केमके १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आस्रव, ६ संवर, ७ निर्जरा, ८ बंध, ९ मोक्ष, १० धर्म, ११ अधर्म, १२ हेय, १३ ज्ञेय, १४ उपादेय, १५ निश्चय, १६ व्यवहार, १७ उत्सर्ग, १८ अपवाद, १९ आस्रव, २० परिस्रव, २१ अतिचार, २२ अनाचार, २३ अतिक्रम, २४ व्यतिक्रम, इत्यादि सांभळ्या विना शाखना भेद न जगाय,
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विचार रत्नसार.
परंतु पुण्यानुबंधी पुण्य विना श्रीजिनवाणी सांभळवानी रुचि जीवने थती नथी, केम जे सुठाम, सुगाम, सुजात, सुभ्रात, सुतात, सुमात, सुवात, सुकुल, सुबल, सुखी, सुपुत्र, सुपात्र, सुक्षेत्र, सुदान, सुमान, सुरुप, सुविद्या, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, सुवेश, सुदेश, ए बावीश प्रकारनी उत्तम जोगवाइ सुपुण्य विना न पमाय, अने ते पुण्यबंध तो सत्संगसेवन तथा कुसंगना त्यागवडेज थाय छे; माटे सुमति, शीलवंत, संतोषी, स्वजन, साचाबोला, सत्पुरुष, सुमेला, सुलक्षण, सुकुलीन, गंभीर, गुणवंत, गुणज्ञ, एहवा पुरुषोनो संग करीए तो धर्म पामीए; तथा चुगल, चोर, छलग्राही, अधम, अधम, अविनीत, अधिकबोला, अनाचारी, अन्यायी, अधीर, अधुरा, निःस्नेही, कुलक्षणा, कुबोला, कुपात्र, कूडाचोला, कुशीलिया, कुशासनी, कुलखंपण, मूंडा, मूंछ एढवा पुरुषोनो संग न कीजे.
प्रश्नोत्तर रत्नसार.
9999938FEESE
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१ प्र० - जीव धर्म केम पामे १
उ०- जीव ऋण प्रकारे धर्म पामे:- १ गुरुना उपदेशथी, २ पूर्वभवना अभ्यासथी, ३ सहज स्वभावे वैराग्यादि संयोगे पामे एम उपदेशसार नंदीपच्चीशीमां कयुं छे.
२ प्र० - अभ्यास केटला प्रकारना छे ?
उ०- चार प्रकारना:- १ सूत्रअभ्यास, २ अर्थ अभ्यास, ३ वस्तु अभ्यास, ४ अनुभव अभ्यास,
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विचार रत्नसार. ३ प्र०-जीवने पुण्य, पाप, अने वैर केवी रीते बंधाय छे, - अने ते केवा फळरूपे परिणमे छे ? । उ०-जीवने दयावडे पुण्य उपजे छे, अने हिंसावडे पाप
निपजे छे छकायना जीवने हणवाना परिणाम थाय, त्यां पाप निपजे, ते छकायना जीवने त्रिकरण योगे हणतां, वैर अने पाप बे निपजे; त्यां पापना उदये अशाता, आकुळता, उद्वेगता, अस्थिरता उपजे;
तथा वैरना योगे ते जीव आवी यथायोगे पीडे. ४ प्र०-धर्म, पुण्य, अने पाप कर्म शाथी उपजे ? उ०-त्रण प्रकारेः-१ दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयोपशमथी
धर्म उपजे, २ चारित्रमोहनीयना उदयथी पुण्य पाप उपजे; तेमां अविरतिनो उदय मंद थाय तथा क्षयोपशम थाय त्यारे विरतिनो उदय थाय, ते वारे षट्कायना जीव उपर दया परिणाम उपजे; तेथी पुण्य उपजे, ३ अविरतिना तीव्र उदये पाप निपजे.
हवे जे पुण्य पाप छे, ते चारित्रमोहनीयना उदयना मंदपणाए तीव्रपणाए होय; अने धर्म, दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयोपशम के क्षयथी होय; तथा पुण्य पापना फळ भोगवावे, ते वेदनीय कर्म तेना उदय वेदाचे ( फळ देखाडे ); तथा पुण्य पापनो बंध पडे ते मोहनीय कर्मनी मुंझवणे; पुण्य पाप परिणमे ते अंतराय कर्मने क्षयोपशमे.
ज्यां राजा न्यायी अने सौम्यदृष्टि होय, अने आचार्य निस्पृही होय, त्यां जैन धर्म विशेष प्रकारे प्रवः छे. ५ प्र०-देशना कोने कहिये ?
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विचार रत्नसार
उ०- ज्यां मिथ्यात्वनी पुष्टि न थाय, मार्ग बिरुद्ध न प्रकाशे, आत्मस्वरूप उपादेयरूपे प्ररूपे, तथा शुभ क्रियाने अत्यादरपणे प्ररुपे, शुभ क्रियाना फळनी वांछा न करावे, पापनी आसेवना टाळे, तिरस्कार रखावे इत्यादि आगमोक्तरीते शुद्ध प्ररूपणा ते देशना कहीये.
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६ प्र० - पुण्य क्रिया अत्यादरपणे सेबवी, पण तेना फळती वांछा न करवी तेनुं रहस्य शुं ?
उ०- जो पुण्यक्रिया शुभ व्यापारे शुभयोगे न आदरे तो मार्ग विरुद्ध थाय, परंपराए पण वीतराग मार्गे न जोडाय: अने जो पुण्यना फळनी वांछा करे तो निदान ( नियाणा ) रूप मिथ्यात्व परिणमे जो सहजस्वरूपे शुभ क्रिया करे तो कर्मनो काट निवारी afra मुक्तिपद पामे; ए रहस्य छे.
७ प्र० - हेय, ज्ञेय, उपादेय एटले शुं ?
उ०- समभावे हेय, यथायें ज्ञेय, स्वरूपे उपादेयः स्त्रांरांश के आत्मा स्वभावमा रहेतां सर्व अनात्मिक परभावनो हेय एटले त्याग थाय छे; यथार्थ ज्ञान थथे ज्ञेय एटले जागवा योग्य पदार्थोनुं ज्ञान थाय छे; अने ज्ञान दर्शनादि गुणोने अनुयायी चेतना थ स्वरूप ग्रहणरुप उपादेय थाय छे; एटले आत्मानं पोतां स्वरूप आत्माए ग्रहण करवुं ते उपादेयनो भावार्थ छे.
८ प्र० - काउससानुं विशेष स्वरुप कहो ?
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विचार रत्नसार.
उव
उ०- काउस्सग्ग द्रव्य अने भाव बे प्रकारे कह्यो छे. वाइ सूत्रमां द्रव्य काउस्सग्ग चार प्रकारना छे:शरीर काउस्सग्ग, २ उपधि काउस्सग्ग, ३ भत्तपाण काउस्सग्ग, अने क्रोधादि चार कषायना त्याग रूप काउस्सग्ग. ( कषायकायोत्सर्ग.)
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भाव काउस्सग्गत्रण प्रकारे छे:- १ कषाय काउस्सग्ग, २ संसार काउस्सग्ग, ३ कर्म काउस्सग्ग, ते मध्ये कषाय काउस्सग्ग क्रोधादि चार प्रकारना छे, संसार उसने (देव, मनुष्य, तिर्यच, अने नरक ए गतिनी इच्छा रहितपणा रूप ) चार प्रकारनो जाणवो, कर्म काउस्सग्ग आठ प्रकारनो; ते ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मना भेदे आठ प्रकारनो जाणवो. ९ प्र० - विधि अने अविधिए करेली क्रिया यथाक्रमे केवा फळ रूपे परिणमे १
उ०- शुभ क्रिया जे विधिनी छे ते स्वभावरुपे परिणमे, त्यां निर्जरा निपजे, तथा शुभ क्रिया जे अविधिनी छे ते बंधरुपे परिणमे; ते लौकिक यश सौभाग्यादि फळरूप परिणमे; तथा पुण्यरूप परिणमे ते बंधरुप थाय, अने तेथी संसार भ्रमण विशेष निपजे.
१० प्र० - जीवने खेद उपन्यो केम टळे ?
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उ०- जीवने खेद निवारखाने अर्थे पूर्वकृत कर्म संभारी ए. जेवां जीवे पूर्वे कर्म बांध्यां छे, तेवां उदये आवे छे; ते मध्ये केटलiएक कर्म प्रदेशथी वेदीने खेखे छे: केटलiएक निवड कर्म बांध्यां ते विपाके (रसो
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विचार रत्नसार.
दये) वेदीने खेरवे; पण दृष्टिमान् ज्ञानी तो, ते कर्मोंने समभावे भोगवतां थकां उदयने निष्फळ करे छे; आलोइ, निंदी, पश्चात्ताप करे, तेवारे अल्पबंध थाय, बहु निर्जरा करे; ते माटे बंब निवारखाने अर्थे उदय निष्फळ करे, एटले कर्मनो विपाक समभावे भोगवे अने शुद्रोपयोगे स्वरूप विचारे त्यारे बंध अल्प करे.
११ प्र० - धर्म कथा केटला प्रकारनी ?
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उ०- चार प्रकारनी :- १ आक्षेपिणी, २ विक्षेपिणी, ३ निर्वेदिनी ४ संवेदिनी; त्यां सत्य मार्गने विषे जीवने जोडावे ते आक्षेपिणी, अने मिथ्यात्व मार्गथी निवर्तावे ते विक्षेपिणी, तथा निर्वेदिनी ते वैराग्य उपजावे एटले संसार जे विषयकषायनी मलीनपरिणति ते थकी जीवने उद्विग्न खावे, अने संवेदिनी ते मोक्षामिला उत्पन्न करावे.
१२ प्र० - भावथकी नव निधान कयां ?
उ०- केवळी आश्रिने नव क्षायिक लब्धि उपजे ते नव निधान जाणवां; अने मुनिआश्रि पांच इंद्रियना विषयना विकारथकी, तथा क्रोधादिक चार कषाय थकी जे निवर्त्या ते महाभागने भाव थकी अखुट नव निधान प्रगट्यां जाणवां.
१३ प्र०-पांच इंद्रियोना विकार मटे त्यारे कया गुण निर्मळ
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थाय ?
३० - चक्षु इंद्रियनो विकार मटे त्यारे हृदयने विषे निर्मळ
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विचार रत्नसार.
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ज्ञानचक्षु प्रगटवारुप गुण निपजे; श्रोत्रेन्द्रियनो विकार मटतां जिन वचन श्रवण प्रीतिसहित प्रतीति पूर्वक थाय, जीव्हा इंद्रिय विकार मटतां आत्मिक अनुभव रसस्वाद प्रगटे; घ्राणेन्द्रिय विकार मटतां आत्मिक गुण सुवासना प्रगटे, स्पर्शेद्रिय विकार गये आत्मप्रदेशे स्वभाव परिणति स्पर्शन गुण प्रगटे. १४ प्र० - क्रोध, मान, माया, लोभ गये कया गुण प्रगटे ? उ०- क्रोध गये समता गुण प्रगटे, मान गये मार्दव गुण प्रगटे, माया गये आर्जव गुण मगटे, लोभ गये संतोष गुण नीपजे.
१५ प्र० - चार प्रकारे मिथ्यात्व छे ते केवी रीते ?
उ०- १ प्रदेश मिथ्यात्व २ परिणाम मिथ्यात्व, ३ प्ररूपणा मिथ्यात्व ४ प्रवर्तन मिथ्यात्व, ते मन्ये जीव व्यवहार समकित पामे त्यारे प्ररूपणा तथा प्रवर्तन मिथ्यात्व टळे, अने ग्रंथिभेद थई उपशम, क्षयोपशम, समकित पामे त्यारे परिणाममिथ्यात्व टळे, अने क्षायिक समकित पामे त्यारे प्रदेश मिथ्यात्व टळे.
१६ ०- देशना केटला प्रकारनी छे ?
उ०- १ धर्म देशना, २ गति देशना, ३ बंध देशमा, ४ मोक्ष देशना ते मध्ये धर्म एटले जीवनी शुद्धात्मपरिणति तेनी सन्मुख जीव जेथी थाय, ● तत्त्वाभिलाष जेथी प्रगटे, एवो उपदेश ते धर्म देशना, जे थकी जीवने विषय कषायनी मछीन परि
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विचार रत्नसार.
raasrmRAMAnnanARA
णति वधे, चतुर्गति भ्रमण विस्तार पामे एवी सावध देशना ते गति देशना, जे उपदेशथकी जीवने नाना प्रकारनां कर्मोनो बंध पडे एवी प्रवृति करवानुं मन थाय ते बंध देशना, जे सांभळबाथी जीव वैराग्य परमरस पामी, यथार्थ बोध लही पोतानुं शुद्ध आत्मस्वरूप जे सकळ कर्मथी रहित मोक्षरुप छे, ते निपजाववानी तीव्र रुचि प्रगटे ते मोक्ष
देशना कहिए. १७ प्र०-अनर्थ दंडना चार प्रकार कया ? उ०-१ अपध्यान एटले आर्त अने रौद्र ध्यान, २ प्रमा
दाचरण, ३ हिंसकशस्त्रप्रदान, अनर्थ दंड एटले जीव हिंसानां साधनो शस्त्रादि पूरां पाड्यां ते, ४ पापनो
उपदेश देवो. १८ प्र०-आठ प्रकारना वचन परिसह कया ? उ०-१, हीलणा परिसह ते मुनिनी पूर्व गृहस्थाश्रम
अवस्था हीन जात्यादि दूषणो काढी कठोर मर्म वचने साधुने हीले निंदे ते; २ खिसणा परिसह ते साधुना पूर्व कृत कर्म (जनित) अवगुण उघाडा पाडी निंदे, ३ निंदण परिसह ते साधुपुरुषनो निरादर करे दुगंछादि दर्शावे, ४ गर्हणा परिसह ते साधुओना समक्ष छता अछता अवगुणो बोले, ५ ताडणा परिसह ते साधुने मारे, कुटे, ६ तर्जना परिसह ते साधु प्रत्ये अतिशय आक्रोश करी अत्यंत कठोर वचन कहे, भयंकरता दर्शावे, ७ पराभव
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विचार रत्नसार.
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परिसह ते साधुनां वस्त्र पात्रादिक संजम उपकरणो हरे, भांगे, तोडे, फोडे. ८ एषणा परिसह ते साधुने भातपाणी प्रमुखनो अंतराय पाडवानो भय देखाडी त्रास उपजावे, ए आठ वचन परिसह, साधु पुरुषे सम्यक प्रकारे सहन करवां, पण धर्मयी चलायमान थं नहि.
१९५० - १ सिझ्झइ, २ बुझ्झइ, ३ मुच्चइ, ४ परिनिव्वाइ एटले शुं ?
.
उ०- १ सिझ्झइ एटले परिणामनी निर्मळतावडे कर्मनुं ओछु करखं, आत्मप्रदेशथकी कर्माश पुनलो घटाडवा ते २ बुझ्झइ एटले वस्तु स्वरूपनुं तदनंतर ज्ञान थवुं ते ३ मुच्चइ एटले कर्मपुद्गलों आत्मप्रदेशी क्षय थवं, कर्म सत्तानो नाश थवो, फरी तेवो बंध कदी न पडे तेवा परिणाम ते ४ परिनिव्वाइ एटले आत्मा ठरणपणाने पाम्यो, मिजस्वरुप आलंबि समाधिष्ठ थयो ते.
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२० प्र० - बुद्धे, मुत्ते, पडिनिव्वुडे, अंडगडे शब्दोनो भावार्थ
कहो ?
उ०- १ बुद्धे एटले आत्मा संपूर्ण ज्ञानस्वरूपी थयो ते. २ मुत्ते एटले सर्व कर्मयी मुकाणो माटे मुत्ते. ३ पडिनिव्वुडे एटले सर्व कर्म शिथिलभूत एटले जरजरित थयां ते ४ अंडगडे एटले अंतकृते कहेतां संसारनो अंत कर्यो भवे स्थिति सदंतर नाश करी ते.
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बिचार रत्नसार.
२१ प्र० - चार प्रकारे धर्म केवी रीते छे ? ते तेना फळ परिणाम सहित यथार्थ समजावो.
उ०- १ आचार धर्म ते रुडा आचारनुं सेवन करवुं जेथी अनाचारो त्याग थाय. २ दया धर्म ते सर्व प्राणीमात्र आत्मवद जाणी सर्व प्रत्ये समान मैत्रीभाव दर्शावी, यथाशक्ति उपकारादि करी, तेमनुं निरंतर भलुं चिंतवनुं, पण अंतम कदापिकाळे अपराधी उपर पण बुरु चिंतववाना द्वेषिपरिणाम न राखे, तेम बेपरवाह प्रवृत्ति पण न दाखवे. ३ क्रिया धर्म ते सामायिक, पोसह, प्रतिक्रमण, पूजादि शुभ क रणी विधिए आदर सहित करे, जेथी कर्मनो काट उतरे, भवसंतति घटे, परंपराये मुक्ति मार्गे जोडाय अने ४ वस्तुधर्म ते जे थकी वस्तु एटले आत्म स्वरूपानुगत पूर्ण बोध उपजे, स्वरूपाचरण स्वरूपरमण थाय अने शुभाशुभ समस्त कर्म निर्जरे तेवो सर्वोत्तम धर्म, एम ए धर्मना चार प्रकार वस्तुगते परमात्माए प्रकाइया छे, अने तेना कारणरूप चार व्यवहार धर्म ते दान, शियळ, तप अने भाव धर्मो छे, आ चार धर्मवडे अनाचार दूर थाय, लौकिकयश प्रतिष्ठा पामे, अन्य तीर्थिओ पण जैनधर्मनी प्रशंशा करे, जैनाचार अनुमोदे; माटे आचारः प्रथमो धर्मः इति वचनात् ; दमाधर्मवडे हिंसक कर्म प्रवृत्ति टळे, शुभ पुण्य पुष्ट करी परंपराये जीव मुक्तिने योग्य थायः ए रीते फळ परिणाम पूर्वक धर्मना
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चार प्रकारने यथाशक्ति सविनय सेवम करी कोइ परस्पर दुढ़वाय नहि, एम जे उत्तम प्राणी यथार्थ स्याद्वाद रीते जाणीने पाळे ते सुलभबोधी थइ वहेलो सिद्धि बरे; एवीज रीते जे माणी क्रियाविधि आदरे, ध्यानपूर्वक उपयोग शुद्ध राखे, ते प्राणीना सर्व मनोवांछित पूर्ण थवा साथे शीघ्र परमात्मस्वरूपने पामे.
२२ प्र० -त्रण प्रकारना कर्मनुं स्वरूप समजावो ?
उ०- द्रव्य कर्म ते ज्ञानावरणयादि आठ कर्मोनी पुदगलदलिक वर्गणा, २ नोकर्म ते औदारिकादि पांच शरीर. ३ भावकर्म ते आत्मानी अनादि काळनी प्रदेशे लागेली रागद्वेषनी अशुद्ध परिणति; ते मध्ये द्रव्यकर्म तथा नोकर्म पुद्गगलाश्रित छे, भावकर्म आत्माश्रित छे; पहेलां बे कर्म विनाशी छे केमजे अनादि अनंत अभव्याश्रि अने भव्याश्रि अनादि तथा सादि सांत भांगे आत्मप्रवृत्तिरूप होवाथी छे, तथा हर्षोल्लास ते भावकर्म आश्रित छे. अहिं
थकी आवात विशेष स्पष्ट थशे तेथी कहीए छीएः- के जेम एक चोखा नामना धान्यनी कोठी छे, तेमां धान्य जे छे ते द्रव्य कर्म, अने कोठी ते नोकर्म, अने चोखाने लागेलो जे मिणो ते समान भावकर्म चीकासरुप आत्मानी अशुद्ध परिपति जाणवी.
२३ प्र०- अरिहंतादि नव पदनो भावार्थ तथा ते प्रत्येकनुं
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तन्मय ध्यान करतां थकां शुं? शुं ? गुण निपजे ते मिन्न भिन्न कहो ?
३०-अरिहंतादि पंचपरमेष्ठिमहाराजनुं स्मरण करतां उद
यकर्मनु निवारण थाय; अरिहंतादिनुं द्रव्यथी शरण करे तो द्रव्यथी उदय आवतां सर्व पाप निष्फळ थाय, विपाक वेदना पण अल्प थाय, इत्यादि घणो गुण निपजे, सर्व द्रव्यपापनो नाश थाय, एम आत्मा आत्मानुं स्मरण करे, ध्यानगत् वज्रपिंजरवत् पोताने स्वरूपे परिणमे, त्यारे सर्व कर्मनो नाश करे, एम आत्मस्मरण तथा निमित्तस्मरण, स्वरूप जाणवू; हवे अरिहंतने संभारतां, समरतां, परिणमतां आत्माने जे गुण निपजे ते कहिए छीए, १, अरि एटले रागद्वेषरूप भावशत्रु तेनो नाश थाय, अने वीतराग स्वरूप प्राप्त थाय, २ तेम सिद्धपदनुं तन्मय ध्यान धरतां आत्मा निष्पन्न अरुपि परमात्मभावने पामे, ३ तेम आचार्यपदनुं ध्यान धरतां शुद्ध पंचा चार प्रवर्तन शुलभ उदय आवे, भवांतरे आचार्य गणधरादिपद पामे, ४ उपाध्यायपदनुं ध्यान धरतां शास्त्रार्थ सूत्रार्थ सुलभ थाय, अध्यापक शक्ति भवांतरे प्रगटे, साधुपदन ध्यान धरतां मुक्तिमार्गनी साधना सुगम थाय, सुलभबोधिपणुं प्रगटे, वळी चारित्र सुकर थाय, गजसुकुमालनी पेठे शीघ्र मुक्तिपद पामे; ६, दर्शनपद आराधतां सम्यक्त्व निर्मळ करे, वस्तु प्रतीति दृढ थाय, परमात्मस्वरूपनो
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अवगाढ पुष्ट परिचय निपजे, ७ ज्ञानपद आराधतां बोधशुद्धि थाय, तच्चभासन प्रकाश विस्तरे, ८ चारि'त्रपद आराधतां निरतिचारपणे पंच महाव्रतनी शुद्ध प्रतिपालना पूर्वक सामायकादि पांच भावचारित्र परिगति थाय, स्वरूप रमणता सुलभ थाय, ९ तपपद आराधतां इच्छा निरोध थाय, समस्त पौगलिक पीपासा टके, तृष्णा दाह उपशमे, अने ममत्वभाव मळ गळी जाय इति भाव.
२४ प्र० - कर्मनो उदय तथा बंध जीवने केवी रीते थाय छे ? ते स्पष्ट समजावो.
उ०- बांध्यां कर्म उदय आवे छे; जेवे रसे बांध्यां होय, तेवेज रसे तथाविध द्रव्य क्षेत्र काळ भाव पामीने, प्रदेशे तथा विपाके भोगवे ते भोगवतां जेवां नवां बंधाय पण समभावे वेदेतो निर्जरा थाय, अने विषम भावे एटले रागद्वेषादि मलीनभावे वेदे तो नवां बंधाय तथा विषमभावे भोगवीने पछी पश्चात्ताप करे तो कर्मबंधनो रसघात करी चीकास मटाडे, ते उदयकाळे सुगमतायी खरी जाय, अने जो कर्म विषमभावे भोगवे, दुर्ध्यान करे तो, उदयकाळे अत्यंत दोहिलां भोगवीने खपावे; वळी वेदतां थकां नवां कर्मनो गाढ बंध करे.
२५ प्र० - बोध अने समाधिनुं स्वरूप समजावो.
उ०- सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, रत्नत्रयी सुगम प्राप्ति ते बोध; अने अहिं तेम भवान्तरने विषे निर्वेदन
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पणे तेनी सुलभता ते समाधि, एटले चित्तनी स्थिरता
विश्रांतिभाव जाणवो. २६ प्र०-वैराग्य अने संवेगमां शो फेर ? उ०-संसार एटले विषय कषायादि महा मलीनताना का
रणरुप शरीर, स्वजन परिवार, भोग वैभवादिथकी विरक्त बुद्धि एटले रागनो त्याग तेने वैराग्य कहीए.
अने एकांत मोक्षनीज अभिलाषा, शास्वत स्वाभाविक चिदानंदघनमय परमात्मप्राप्तिनीज इच्छा तेने संवेग कहीए; अने एवा संवेगे करीने सहित होय
तेज खरासंवेगी जाणवा. २७ प्र०-दान, शील, तप अने भाव ए चार कया साधनना
बळवडे प्राप्त थाय ? 3०-दान, धनबळयी । शील, मनबळयी । तप, तनबळ
. वडे। अने भाव, सुज्ञान बळे. २८ प्र.कई वस्तुनी प्राप्ति खरा भाग्योदयवडे थाय ? उ०-१ सद्गुरुनी देशना, २ सुदेवनी सेवना, ३ अने
सुधर्मनी आराधना. २९ प्र०-तिर्यक परिचय अने ऊर्ध्व परिचय कोने कहिए ? उ.-धर्मास्तिकायादि पांच व्यो जे सप्रदेशी छे, तेनी
तिर्यक् परिचय संज्ञा छ; अने अप्रदेशी एक का
ळद्रव्यने ऊर्च परिचय संज्ञा छे.. ३० प्र०-धर्मनुं स्वरूप चतुर्विध कयुं छे ते केवी रीते ?
३०-१ वस्तुनो मूळ स्वभाव ते धर्म, २ क्षमादि दशविध
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यति धर्म, ३ दर्शन ज्ञान चारित्ररुप रत्नत्रयीधर्म,
४ छकाय जीवनी रक्षारुप धर्म. ३१ प्र०-मुनिने चतुर्विध संयम छे ते शी रीते ? उ०-१ प्राण संयम, ते षट्कायजीववधनी अविरति टळी
माटे, २ इंद्रिय संयम ते पांच इंद्रियोना विषय विकारोने टाळे माटे, ३ कषाय संयम ते त्रण कषायनी चोकडीना उदय मट्या माटे, ४ मन
संयम ते द्रव्य तथा भाव मनना विकल्प संवर्या माटे. ३२ प्र०-द्रव्य मन अने भावमननो अर्थ समजावो. 3०-द्रव्य मन ते पांच इंद्रियोना विषयरुप, मनोवर्गणा
दलिकने अवलंबन मनन शक्ति, मनोयोगद्वाराए चिंतन परिणाम, निर्विकारी निर्विकल्पी शक्ति विशेष ते केवळीने पण होय. भावमन ते व्यक्ताव्यस्त संकल्प विकल्यरुप विकारी मोहजनित, शुभाशुभ
परिणामरूप छे. ३३ :०-स्वभावे तथा विभावे आत्मानुं परिणमन थाय त्यां
शुं शुं फळ निपजे ? उ०-आत्मा स्वभावे परिणभे तिहां सम्यकत्व गुण निपजे,
तेना फळ ज्ञान अने आनंद ए बे उपजे; अने ज्यारे आत्मा देहगेहादि परभावे परिणमे तिहां मिथ्यात्व निपजे; तेना फळ विषय कषायरूप मलीन परिणति, चतुर्गति भ्रमणरूप संसार संतति छे. सुख दुःखरूप छे, एम जाणी उत्तम जीवोए विभावदशानो त्याग करी जेम बने तेम सत्संगे रही स्व
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आलंबन, स्वभाव परिणमन, शुद्धोपयोगे करवा प्र
यत्न करवो. ३४ प्र०-जीवना द्रव्य गुण पर्यायना घातक कोण छे ? उ०-१ अज्ञानपणुं ते आत्मद्रव्य घातक छे; २ मि
थ्यात्व ते आत्मगुण घातक छे, ३ अविरति ते आत्मिक सुख पर्याय घातक छे, ४ तथा अज्ञान अने मिथ्यात्व ते आत्मानुं जीवपणुं दाबे छे, आत्मस्वभाव परिणति रुंधे छे, अने अविरति दोष,
आत्मिक सुख रुंधे छे. ३५ प्र०-जीव द्रव्यनिर्जरा अने भावनिर्जरा केवी रीते करे ?
उ०-जीव शुद्ध ज्ञानोपयोगे भावनिर्जरा करे छे, अने
- वैराग्यभाव उदासीनताए द्रव्यनिर्जरा करे छे. ३६ प्र०-पौद्गलिक इच्छा तथा मूछोभावे करी जीव शुं पुष्ट
करे ? उ०-इच्छाए अज्ञानपणुं, अने मूर्छाए मिथ्यात्व पुष्ट करे. ३७ प्र०-गुण पर्यायना घातक कोण ? तेनुं स्वरूप कहो. उ०-आत्माना गुणपर्यायना घातकः-१ ज्ञानावरणीय, २
दर्शनावरणीय, ३ मोहनीय, ४ अंतराय ए चार घनवाती कर्म छे अने शेष वेदनीय आदि मूळ तो अघाती छे, पण मोहमिश्रित थये ते पण घातकपणे परिणमे छे, ते मध्ये अतिप्रबळ मोह कर्म छे, तेनी अठ्ठावीस प्रकृतियो छे ते मोह, राग अने द्वेष ए त्रण भागे व्हेंचीए त्यां मोहशब्दे मिथ्यात्व मोहनीय जाणवी, राग, द्वेष शब्दे चारित्र मोहनीय जाणवी.
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प्रथमनी मिथ्यात्वमोहनीयनी त्रण प्रकृति छे, ते निर्मळ सभ्यक्त्व गुणनी घातक छे, अने बीजी चारिमोहनीय कर्मनी पचीस प्रकृतियो छे, ते मध्ये क्रोध मान ए बे चार चोकडीनी लेतां आठ थान, अने नव नोकषायमांयी अरति, शोक, भय अने दुगंछा ए चार गणतां सर्वे मळी ए बार प्रकृति द्वेषना घरनी वा अथवा रागद्वेष जनित छे, अने शेष माया लोभादि आठ कषाय अने हास्य, रति, अने त्रण वेद ए पांच मळीने तेर प्रकृतिओ रागना
घरनी छे. ३८ प्र०-शरीरगति, परिणामगति, श्रमागति, जे रीते परिणमे
छे ते रीते कहो ? उ०-१ शरीरनीगति औदयिकभावे वेदनीय मध्ये छे, २
परिणामगति, विषय कषायनी प्रवृत्ति मध्ये इष्टानिष्टरूपे छे, श्रद्धानी गति, तव अतत्त्व विवेचन
कर्णरुपे छे. ३९ प्र०-जीवना द्रव्य, गुण, अने पर्याय शाथी समरे एट
सुधरे ? उ०-दर्शन, ज्ञान, अने चारित्र गुणे करी अनुक्रमे समरे. ४० प्र०-ते शी रीते छे, ते विस्तारथी स्पष्ट समजावो ? उ०-आमा द्रव्य असंख्यात प्रदेशी छे, तेनो जिन
वचन प्रतीते तथा अनुमाने करी अनुभव करे ते दर्शन; तथा परोक्ष अने प्रत्यक्षे जे प्रतीतात्मक
धर्म भासन थयो, जे आत्मद्रव्य दर्शन द्वाराए 97
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विचार रत्नसार.
भास्यो दिठो ते ज्ञान; ते सम्यकदर्शन गुणे करी
आत्मद्रव्य समरे, सम्यकदर्शन ण हेतु ते द्रव्य दर्शन; तथा ते प्रतीतात्मक धर्मरूप अनंत गुणनुं जाणपणुं थयुं ते गुण हेतु सम् ज्ञान जाणवू तथा द्रव्य अने गुणरूपे जे उपरोगना पलटणपणा रूप परिणमन थाय तेने पर्याय कहिये; ते पर्यायनो हेतु स्वरूपाचरण चारित्र गुण हेतु छ; अर्थात् जीवना पर्याय चारित्र गुणे करी समरे, अने ज्ञान गुणे जीवना गुण समरे, तथा दर्शनगुणे आत्म
द्रव्य समरे, सुधरे ए भाव जाणवो. ४१ प्र०-जन्म, जरा, अने मरण- दुःख केम टळे ? उ०-शुद्ध रत्नत्रयीनी प्राप्तिए; ते आवी रीते के जीवे
पूर्वं सम्यक्त्व पाम्या पहेलां अनंत पुद्गल परावर्तन काळ सुधी जन्म कर्या ते हवे सम्यकदर्शन पाम्यो; माटे उत्कृष्ट कदाच जन्म करे तोपण अर्ध पुद्गल परावर्तन काळ उपरांत जन्म न करे, माटे दर्शनगुणे जन्मनी पीडा टळे; तथा जरा जे शुभाशुभ कर्म उदयागते आवे छे ते सुखदुःखरूप वेदावे, वेदनीय विपाक, सम्यक्ज्ञान गुणे टळे; अने स्वरूपा चरण एटले शुद्ध व्रताचरण रूपे चारित्र गुणे मरण पर्याय, गत्यंतर जवू टळे. एटले चारित्रगुणे मरण वेदना टळे सारांश जे सम्यकदर्शने जन्मनी, ज्ञान गुणे जरावस्थानी, अने चारित्र गुणे मरणनी वेदना टळे छे, ए भाव जाणवो.
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४१ प्र० - योगप्रत्ययिक सत्तागत, मिथ्यात्वप्रत्ययिक अने अविरतिप्रत्ययिक बंधकृतकर्मों शी रीते टळे ?
उ०- अशुभ योगे बांधेलां कर्म तप संजमादि शुभ क्रिया व्यापारखडे, सत्तागत कर्मों शुद्धोपयोगे, स्वद्रव्य पर्याय परिणाम वडे, स्वभावाचरण शुद्ध ध्यानालंबनवडे निर्जरे: सम्यक दर्शनवडे मिथ्यात्व प्रत्यइयां टळे, अने अविरति प्रत्यइयां, विरति परिणामे टळे, ते विषे कहां छे जेः
-
दुहा.
आगमे अध्यातमतणा, कह्या वणा प्रबंध; द्रव्यगुणयोगे परिणमे, तो सोनुं अने सुगंध.
४३ प्र० - कषाय, प्रमाद, इंद्रियविषयराग, अने योग प्रत्यइयां बांधेलां कर्म टाळवाना उपाय कया ? उ०- कषाय प्रत्यइयां, उपशमादि समताभावे टळे; प्रमादे बांधेलां अप्रमाद दशावडे टळे; विषय राग प्रत्यइयां तपस्यावडे टळे; अने योग प्रत्यइयां अयोगी दशाए शैलेशीकरणे प्रवर्ततां टळे.
४४ प्र० - निश्चयनय अने व्यवहारनय जीवने शुं गुणकारी छे ? उ०- सम्यकदृष्टि जीव श्री जिणप्रणीत स्याद्वादना जाण, जैनशैलिना उपयोगी बोधवान भव्यप्राणीओने निश्चयनय दृढता, आस्तिकना करणहेतु छे; अने व्यवहारनय ते जीवना पर्याय शुभाशुभ कर्म रूपे जे गर्या छे, तेने संभवाना हेतुरूप छे; व्यवहारनय के उद्यम है, अने निश्चयनय केडे चित्तनी स्थि
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रता, दृढता छे; एम ए बे नयो आत्मद्रव्यने समावामां समकाळे गौणता मुख्यताए गुणकारी छे; माटे एमांथी एकपण नयने उत्थापे के एकांते निषेधे तो जीव एकांतवादी मिथ्यात्वी जाणवो, एम श्री जिनेश्वर भगवंतनी वाणी छे, ते यथार्थ सदहवी.
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४५ प्र० - निश्रय अने व्यवहारनुं सम्यक् स्वरूप स्पष्ट समजावो ? उ०- श्री जिनवाणी प्रतीते ग्राहिने पट् द्रव्यना यथार्थ -
पणे गुणपर्याय धारे, अनुभव प्रत्यक्षे स्वरूपने वेदे, तथा गुणपर्यायसुं बिलेखन करे, तथा पुद्गलादिक कर्म पर्यायां तदाकार न परिणमे, पांच इंद्रियना भोग विषयो इष्टानिष्टरूप न वेदे, पोताना स्वरूपने भेद रत्नत्रयीरूपे आराधे, तेने व्यवहार सम्यक्त्वी कहिये ; तथा पोताना गुण गुणी पर्याय अभेदरूपे रत्नत्रयरूपे, निर्विकल्प समाधि परिणमे तेहने निश्चयसम्यक्त्वी कहीए; त्यां व्यवहार सम्यक्त्व ते निश्चय सम्यक्त्वनुं कारण छे; अने निश्चय सम्यक्त्व ते केवळ ज्ञानं कारण छे.
४६ प्र० - पूर्वोक्त उभय सम्यक्त्वीने व्यवहार प्रवृत्तिए शुं लाभ थाय ?
उ०- नवतच्व, एद्रव्यादिकतुं आस्तिक श्रदान, देव गुरु धर्मं यथार्थ श्रद्वान, तदा विशेष प्रकाशे करी तच्चातवनुं नय मार्ग विशेष रीते अवलंबन थतां
श्रीकांत
परंपराए
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विचार रत्नसार.
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वस्तु व्यवहारसम्यक्त्व जे पूर्वे कां छे, ते रूपने
मेळवी आपे.
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४७ प्र० - धर्म, कर्म, पुण्य अने पाप केवी रीते तेना भिन्न भिन्न फळ शा शा छे ? ते उ०- जीव शुकोपयोगे वर्ततां एटले पोताना द्रव्यगुण पर्यायी तन्मयपणे परिणमे त्यां ते धर्म करे, अने रागद्वेषमय अशुद्धोपयोगे वर्ततां कर्म बांधे, एम शुक्रोपयोगे धर्म अने अशुद्धोपयोगे कर्म निपजे छे, तथा शुद्धोपयोगे शुभयोगे पुन्य बांधे, अर्थात् मन वचन कायाना योग प्रशस्तभावे तथाविध गुणानुरागे पूजा, सामायक, प्रतिक्रमण, पोसह, सिद्धांत श्रवण, अभ्यास, मनन, दानादि शुभ योगे प्रवर्ततां जीव पुण्यानुबंधी पुण्यनो रस ढाळे तेमज वळी अशुभ मन वचन कायानां योगे विषयादि प्रवृत्तिए, अप्रशस्तभावे, तदाकार अभिरूपे परिणमतां जीव निविड पापबंध करे, हवे तेनां फळ कहिये छीए: - पुन्यथी शुभ गति, शुभ सामग्री, शाता, अनुकुलतादि शुभ संयोग जीव पामे, तथा शुद्धोपयोगी धर्मवडे कर्मनी निर्जरा करी मुक्तिपद पामे; तथा अशुद्धोपयोगे वर्ततां पाप बांधे, तेयी जीव संसारमां घणो काळ रहे, घणा भव करे, अशुभोपयोगे कठीन पापबंध करीने जीव ज्यां त्यां घणी अशाता पामे; सारांश जे पापे अशाता, पुण्ये शाता, कर्मे संसार अने धर्मे मोक्ष थाय छे.
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थाय छे, अने बराबर कहो.
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४८ प्र०-अल्प पापबंध अने अल्प कर्मबंध शी रीते थाय ?
ते तेनी चौभंगी सहित कहो. उ०-पांच इंद्रिय अने त्रण योगना अशुभ व्यापारमां
तदाकारपणे न परिणमे, सखेद प्रवर्ते तो अल्प पापबंध थाय; ते आलोयणे निंदागहीं करतां छूटे; तथा शुद्धोपयोगे जे कर्म बंध नीपजे ते भोगवे छुटे; पाप प्रवृत्ति करतां तीव मलीन परिणामे तन्मय थतां तीव्ररसे घणां निविड कर्म बांधे; अने घणी अशुभ योगनी हलचले पाप पुद्गल घणां मेळवे, पण तदाकारपणे तीव्र कषाय अनुबंध न होय तो शिथिल बंध करे; एम कोइ जीवने पाप घj अने कर्मबंध अल्प, कोइने कर्मबंध बहु अने पाप अल्प, कोइने पाप घणुं अने कर्मबंध पण वणो, अने कोइने पापबंध कर्मबंध एके नहि; एम कर्म
बंध अने पापबंध आश्रि चौभंगी जाणवी. ४९ प्र०-धर्म, कर्म अने भर्म शाथी नीपजे ? उ०-शुद्धोपयोगे धर्म अने क्रियाए कर्म अने मिथ्यात्वे
भर्म निजे. ५० प्र०-पाप, पुण्य अने धर्म ए एक वस्तु के के जुदी ? उ०-धर्म, पुण्य अने पाप ए वणे वस्तुभिन्न, गतिभिन्न,
उपयोगे भिन्न अने फळपणे भिन्न भिन्न छे; धर्म क्षमादि दशविध यति धर्मरूप छे, शुद्धोपयोग परिणति ए संपररूप छे, अने तेनुं फळ भोक्ष छे; पुण्य नव प्रकारे बंधाय छे शुभ परिणामे करी, ते
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बेताळीश भेदे अनुकुळपणे शाताफळरूपे भोगवाय छे, पुण्य पौद्गलिक जड वस्तु सोनानी बेडी रूप विनाशी संसार हेतुरूप होवाथी मुनिने निश्चयनय त्याज्य छे; पाप अशुभ परिणामे अढार प्रकारे बंधाय छे, बीयासी प्रकारे प्रतिकुळपणे अशाता फळरूपे दुःखदायिपणे लोढानी बेडी समान भोगवाय छे, ते तो सर्वथा प्रकारे हेय छे. एम धर्म स्वभाव जनित आत्मिक छ; अने पुण्य पाप कर्म जनित पौद्गगलिक छे; धर्म उपादेय छे सर्वथा प्रकारे, शुभ कर्म व्यवहारे; अपवादे उपादेय छे, निश्चय स्वरूपे हेय छ; अने अशुभ कर्म तो स
वथा प्रकारे बंने नये हेय एटटे त्यागवा योग्य छे. ५१ प्र-धर्म जीवने शाथी निपजे ? । उ०-ज्यां सुधी जोयना परिणाम संकल्प विकल्पमा वर्ते
छे, त्यां सुधी शुभाशुभ कर्मबंध निपजे, अने ज्यारे निर्विकल्प दशामा परिणमे, प्रवर्ते त्यारे शुफ धर्म प्रगटे, एम विकल्पे कर्म लाभ अने निर्विकल्पे धर्म
लाभ जाणवो. ५२ प्र०-स्वाभाविक रत्नत्रयी गुणर्नु लक्षण स्वरूप कहो ? उ०-बोधप्रकाश अने विलक्षण विचक्षणताए ज्ञानवें
स्वाभाविक लक्षण जाणवू; दृढ आस्तिकता, प्रतीतात्मक श्रद्धानगुण ते स्वाभाविक दर्शन लक्षण जाणवू; तथा चित्तनी स्थिरता, अनुकुळता, स्वरूप रमणता ते स्वाभाविक चारित्र लक्षण जाणवू; एम
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ए सामान्यपणे रत्नत्रयीनुं वस्तुगते लक्षण जाणवु, विशेष प्रकारे तो, वस्तु अनंत धर्मात्मक सामान्य अने विशेष स्वभाववंत समकाळे छे, तेमां जे विशेषात्मक धर्म एटले वस्तुने जाति क्रियादि अनेक विशेषणोयुक्त यथार्थ जाणवी ते ज्ञानगुण; अने वस्तु सामान्यावबोध ते दर्शन गुणः तथा स्वपर वचण भेदज्ञानरूप जे विवेक, सदाचरण, अपि तु, स्वरूपाचरण ज ज्ञानना फलरूप विरति परिणति गुण छे ते चारित्र लक्षण जाणं.
५३ प्र० - धर्म सांभळवो, जाणवो, अने आदरखो ते केवी रीते ? उ०- वीतरागनी वाणी स्याद्वादरूपे छे तेने आत्मस्वरूप
प्ररूपणानी मुख्यताए, जे धर्मनो सद्गुरु महाराज उपदेश करे छे, ते धर्मने अत्यादर सहित सांभळवो, स्वसमय एटले स्वशास्त्रानुसार अने परसमय एटले परशास्त्राaata एम स्वपरज्ञान परीक्षापूर्वक जेम शुद्धाशुद्ध धर्मनो प्रकाश भासन थाय, तेम ते शुद्ध रत्नत्रयी आराधनरूप धर्मने विवेक बुद्धिए जाणवो, तथा जेने पोताना द्रव्यगुण पर्याय षोतानाज शुद्धात्म द्रव्य गुण पर्यायपरिणतिरूपे परिणम्या छे, तेनो प्ररूपेलो धर्म आदरवो इतिभाव
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५४ प्र० - चेतना एटले शुं ?
उ०- ज्ञान दर्शन स्वभावरूप आत्मलक्षण एटले सुखदुःखनं जे भान थवुं, चेतनुं एटले सुखे दुःखे जे चेते तेने चेतना कहिये ते जीवनुं लक्षण छे. हवे ते चेतनाना
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मूळ बे मेद छे:---१ ज्ञानचेतना, २ अज्ञानचेतना, ते मध्ये अज्ञानचेतना बे प्रकारे छे ते १ कर्मचेतना, २ कर्मफळ चेतना, तेमां कर्मचेतना ते रागद्वेषादिने विषे जीवनुं परिणमन जाणवू, अने शुभाशुभ कर्मफळनुं वेदवू ते कर्मफळ चेतना जाणवी; ज्ञानचेतनानो कोइ भेद छे नहि, ते आत्माना शुशोपयोगरुप शुफ परिणति स्पर्शन ज्ञानरूप छे, ते सम्यगदृष्टि आत्माने होय छे, अने अज्ञानचेतना अशुद्धोपयोगना घरनी विभाविकपरिणतिरूप मोहितमिथ्यादृष्टि जीवने होय छे, ज्ञानचेतना जीवने प्रगटे त्यारे ते कर्मचेतना तथा कर्मफळ चेतनारुप
अज्ञानचेतना टळे. ५५ प्र०-त्रणे काळे जीव जे पापकर्मनो बंध करे छे तेना
निवारण हेतु कया ? उ०-गया काळना पापकर्म ते प्रतिक्रमणे मटे; अने वर्त
मानकाळना पापकर्म ते आलोयणे मटे; अने अना
गतकाळना पापकर्म पञ्चख्खाणे टळे. ५६ प्र०-चार प्रकारे व्यवहार छे ते कया १ उ०-१ अनुपचरित समूतव्यवहार ते अनंत ज्ञान,
अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य आदे दइने आत्मानी अनंत गुणात्मक शुद्धतारूप जाणवो, २ उपचरित · सद्भूत व्यवहार ते क्षयोपशमिकज्ञानदर्शन, चारित्रादिरूप जाणवो, ३ अनुपचरित्त असमूत व्यवहार ते जीवमा अनादि कर्मसंबंध ए
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टले ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मपुद्गलोर्नु आत्मप्रदेशे अवस्थान छे ते जाणवो, ४ उपचरित असद्भूत व्यवहार ते लौकिक मान्यतारूप देशाचार रुढिरूप, ज्ञाति, पंच विगेरेना कल्पित कायदा, नियमरूप, तथा अनादिकाळयी जीवने लागेली परवस्तुनेविषे मारापणानी बुद्धिरूप स्त्री, पुत्र, बंधु, माता, पिता, स्वजनपरिवार, मित्र, शत्रु, घर, हाट, वस्त्रादि सर्व परिग्रह ममतानी मिथ्या कल्पनारूप उपचरित अस
द्भूतव्यवहार जाणवो. ५७ प्र०-त्रिविध कर्मनुं स्वरूप समजावो ? . उ०-१ द्रव्यकर्म ते ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मपुद्गलो
जे आत्मप्रदेशे लागेला छे ते, २ भावकर्म ते रागद्वेषादि आत्मानी अशुभविभाविक परिणति, ३
नोकर्म ते औदारिकादि पांच शरीररूप जाणवां. ५८ प्र०-चतुर्विध दयानुं स्वरूप कहो ? उ०-१ द्रव्यदया ते मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवने होय ते
परपौद्गलिकभावरूप परहस्ते वेचाणी, रागद्वेष हणाइ ते नथी जाणतो एवी जे अनुपयोगरूप नाम मात्र दयास्वरूप ते द्रव्यदया एक रीते परदयामां पण अंतर्भवे छे, २ परदया ते खटकाय जीवरक्षारूप विरतिवंत जीवने होय ते सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि बनेने संभवे छे, ३ भावदया ते शुद्धात्मोपयोगरूप सम्यग्दृष्टिने ज होय, केम जे पोतानो आत्मा दयारूपज छे एम जाणीने ते प्रवर्ते छे, ४ स्वदया ते सम्यगदृष्टि मुनि, क्षपकश्रेणि आरुढने होय छे.
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५९ प्र० - त्रिविध मोक्षभेद समजावो ?
उ०- १ भावमोक्ष सम्यगृष्टिने होय, २ द्रव्य मोक्ष सा'चुने होय, ३ गुणमोक्ष ते तेरमा चौदमा गुणस्थानि केवली भगवंतने होय.
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६० प्र० - त्रिविध चेतना केवी रीते कोने होय ? ते कहो. उ०- १ कर्मचेतना सजीवने, २ कर्मफळ चेतना एकेंद्रियादिकने, ३ ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टिनेज होय. ६१ प्र० - त्रिविध संसारी जीवनुं स्वरूप समजावो ?
.
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उ०- १ भवाभिनंदी जीव ते जेने संसारने विषे देह, गेह, स्त्री, पुत्र, धनादि परिग्रह उपर तन्मय राग आनंद वर्तवारूप संसाराभिमुखपणुं मस्तपणे होय, विषय कषायादिमलीन परिणतिमां अक्यता वर्ते, अने धर्मध्यानादि साधनमा भेदभाव रहे एवं भवामिनंदीपणं मिथ्यादृष्टि मोहमूढ जीवोने होय छे, तेनां नाम: - लोभि, कृपण, दयामणो, कपटी, मत्सरी एटले अदेखो, विकण एटले सदा भयवान, अज्ञानि जेनां सघळां आरंभ कामो निष्फळ थाय छे एवो ते कठोर जाणवो, २ पुद्गलानंदि जीव ते सम्यक्त्वने कहिये, केम जे तेने शुभाशुभ कर्मोदयो पुद्गलने विषे रति वेदावे एटले उपरथी सारां लागे, पण अंतर्म सुखरूप वेदवापणुं न होय, खेद थाय, केम जे संसारभां तेने कांइपण खरेखरा आनंदरूप नथी, एम एणे जिनवचनानुसार अंतरंग प्रतीतिपूर्वक जाण्यं छे माटे तेने संसार प्रवृत्ति करतां अनादि भववा
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सना आवी जवारुप पुद्गलानंद होय पण भवाभिनंदिपं टक्युं छे. माटे सम्यग्दृष्टि जीवने पुद्गलानंदि कहिये, ३ आत्मानंदि जीव ते जेने केवळ आत्मिक आनंद, शुद्ध रत्नत्रय धर्मे, तन्मयपणे, स्वरूप लीनताए, समस्त व्याकुळता रहित, सहजस्वभाव विलासिपणारूप मुनि महात्माओने - योगीश्वरोने होय छे. ६२ प्र० - सद्गति अने दुर्गति ते शाथी थाय छे ? ते विस्तारथी स्पष्ट समजावो.
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उ० - शुभोपयोगे सद्गति, अने अशुभोपयोगे दुर्गति, अशुभोपयोगे संसार लाभ अने शुद्धोपयोगे एटले स्वभाव परिणतिए तन्मयपणे परिमणतां मुक्ति थाय, कारण के शुभ प्रकृतिने उदये जीवना योग शुभ वर्ते, तेथी धर्म हेतु शुभ क्रिया साधना करे, तेथी पुण्य बांधे अने तेथी सद्गति थाय छे; तथा अशुभोपयोगे अशुभ कर्मनो उदय थतां योग अशुभ वर्ते, तेथी अशुभ क्रिया विषयादि सेवे तेथी पाप बंधाय छे, अने तेथी दुर्गति थाय छे; ते माटे पुण्य पाप शुभाशुभयोगने आयत छे, अने धर्माधर्म ते शुद्धाशुद्ध उपयोगने आयत छे, अर्थात् राग, द्वेष, मोहजनित अशुद्धोपयोगे अधर्म छे, तेज मिथ्यात्व छे; अने अशुद्धोपयोग ते रत्नत्रयरूप शुद्धात्म परिणति, वीतरागभाव तेज धर्म छे, अने तेज सम्यक्त्व छे.
६३ प्र० - रोगातंक ते शुं ? अथवा रोग अने आतंक एटले शुं ?
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उ०- घणो काळ रहे ते रोग कहिए, अने तत्काळ प्राणघात करे ते आतंक
फेर ?
६४ प्र० - बळ, वीर्य, अने पराक्रममा शुं उ०- शारीरिक शक्ति ते बळ, अने आत्मिक शक्ति ते वीर्य अने शुभाशुभ कर्मोदयानुसार पराक्रम जाणवुं. ६५ प्र० - सम्यकत्वी अने मिथ्यात्वीने मोहादिकर्मबंध स्थितिमां शो फेर छे ?
उ०- सम्यक्त्व ते जीवनी सत्तारुप स्वद्रव्य तत्त्वमूत छे, ते ज्यारे पोतानो समय पामीने पडे तोपण तेने मिथ्यात्व पर्याय, द्रव्यगुणरूपे न परिणमे तेथी तेने मोहादिकर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बंधाती नथी, माटे तेने मिथ्यात्व पर्याय परिणमतां तीव्रकषायोदये पण सम्यक्त्व प्राप्तने एक कोडाकोड सागरोपम माठेरो स्थितिबंध थाय छे, एम समजापुल छे, पछीतो ज्ञानवंत बहुश्रुत कहे ते सत्य, अने अनादि गाढ मिथ्यादृष्टिने तो तित्रकषायोदये उत्कृष्ट सित्तेर कोडाकोडी सागरोपमनो मोहनीयबंध पडे छे.
६६ प्र० - हवे पुगल ते कर्म छे, अने जीव ते पण कर्म छे, ते शी रीते ?
उ०- पुद्गल परमाणुं विभागरूपे परिणमे त्यारे द्रयणुकादि स्कंधकर्म निपने; अने जीवपण पोतानो स्वभाव म्हेंलीने विभावरूपे परिणमे त्यारे ते पण कर्मरूप थइ पुगल कर्मवर्गणाने ग्रहे, तेथी जीव पण परमार्थे
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विचार रत्नसार.
कर्मरूप जड अजीवज कहेवाय; ते ज्यारे सम्यक्त्व पामे त्यारे पोतापणुं ओळखे, परथी पोताने न्यारो लखे अने तेथी ते परंपराये अकर्मरूप थाय छे, माटे तेने पुद्गलकर्म पुद्गल प्रत्यइयां उदयआश्रि रह्यां पण
आत्मप्रतइयां गयां ए भाव जाणवो. ६७ प्र०-चार प्रकारे नव तत्त्वतुं स्वरुप विस्तारथी कहो ? उ०-१ नामथी एटले जीव अजीव पुण्य पापादि नव
तत्त्वनां नाम सूत्रथी गाथानुसार जाणे, २ गुणथी एटले जीवाजीवादि नव तत्त्वना गुण भेदादिक अर्थयी जाणे; लक्षण, स्वरूप लक्षणथी एटले जीवनुं लक्षण चेतना, अजीवनुं लक्षण अचेतनपणुं इत्यादि लक्षण स्वरूपे नव तत्त्व ओळखेः ४ परिणामथी एटले जीव जीवरूपे परिणमे, अजीव अजीवरूपे परिणमे इत्यादि नवे तत्त्व आप आपरूपे परिणमे
ते परिणामथी घोथो भेद जाणवो. ६८ प्र०-नवे तत्त्वोनुं ढंक लक्षण स्वरूप कहो. उ०-१ जीव असंख्यात प्रदेशी, अनंत गुणमय ते शुद्ध
चेतनागुण ते जीवनुं लक्षण जाणवू, २ वर्णादि पांच अजीवना गुण ते जेम धर्मास्तिकायनो गुण चलण सहायकता, आकाशास्तिकायनो गुण अवगाहन दान समर्थता, काळनो गुण समयवर्तना लक्षण अने पुद्गलास्तिकायनो सडण, पडण, नाश, मिलण, विखरणादि वर्ण गंध रसादिरूप जाणवो, ३ तथा उर्ध्वगति, इंद्रियसुख, शाता आपे ते पुण्यनो
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विचार · रत्नसार.
P-
AVM
गुण, ४ अधोगति, संक्लेशरूप अशातादि दुःख आपे ते पापनो गुण, ५ शुभाशुभ कर्मर्नु आवq ते आस्रवनो गुण, ६ शुझोपयोगे शुभाशुभ कर्म आश्रवनो निरोध ते संवरनो गुण, ७. नर्वा कर्म पूर्व कर्मनी साथे मळीने बंधाय ते बंधनो गुण, ८ शुभाशुभकर्म, आत्मप्रदेशथी साडन थाय, देशथकी ते निर्जरे ते निर्जरानो गुण, ९ आत्मप्रदेशथी सर्वाशे
कर्म पुद्गलोनो क्षय ते मोक्षनो गुण जाणवो. ६९ प्र०-केवा श्रावकने स्वसमय परसमयना जाण कहिये ? उ०-जीवाजीवादिक नवतत्त्वने यथार्थ जाणे एटले
जीव निर्जरा, संवर अने मोक्षने उपादेयरूपे जाणी आदरे, अने अजीव पुण्य, पाप, आस्रव, अने बंधने हेयरूपे जाणी तेनो त्याग करे तथा नव तत्त्पने चार प्रमाणे, साते नये, चार निक्षेप, द्रव्यभाव भेदे, स्याद्वादशैलिए षड् द्रव्यादि तेना गुण पर्यायना यथार्थ स्वरूप भासन पूर्वक जेणे भले
प्रकारे जाण्या छे तेने ज्ञानी श्रावक कहिये. ७० प्र०-कर्ताए कर्म अने क्रियाए बंध ते शी रीते ? २०-जेवो कर्ता होय तेवु कर्म निपजे, तथा ज्यां जेवा
हेतु त्यां तेवी क्रिया थाय; अने ते शुभाशुभ क्रियाए शुभाशुभ कर्म बंध नीपजे; का छे के:
दहो. कर्ता परिणामी द्रव्य, कर्मरूप परिणाम; क्रिया परजायकी फरे, वस्त एक त्रय नाम.
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HAHTET
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माटे श्री जैन दर्शन, उपयोगे तथा अक्रियभावे छे. जैन दर्शन श्रद्धान शुद्धोपयोगे छे, अने शुद्धोपयोग आत्मभावे छे, अक्रियभावे छे, अने बीजा योगे क्रिया धर्म छे, एम स्याद्वाद शैली पूर्णतारूप सर्वोत्कृष्ट सर्वोत्तम रीते महा कल्याणदायक श्री जिनशासन जयवंतुं वर्ते छे, तेने हे चेतन !!! तुं अत्यंत
आदरपूर्वक स्विकार ! ७१ प्र०-संवरतत्त्वतुं स्वरूप द्रव्यथी अने भावथी कहो ? उ०-योग प्रत्ययिक कर्मने मुनि तप संजमादिके करी
निर्जरावे छे, अने बीजां आवतां कर्मनो रोष करे छे; तथा अशुशोपयोग प्रत्ययिक कर्मने रत्नत्रयीरूप आत्मिकधर्मने विषे प्रणमावी शुशोपयोगे करी आत्मसत्ताने शुद्ध करी कर्म मळयी मुक्त थाय छे. एम योगसंवर आराधक मुनि, उदय आवतां कर्मने निष्फळ करे, रोके ते द्रव्यसंवर अने उपयोग संवरे करी मुनि आत्मसत्ता शोधे एटले प्रदेशथी कर्म क्षय करे ते भावसंवर, अर्थात् योग संवर ते द्रव्य
अने उपयोग संवर ते भाव. ७२ म०-छद्मस्थ सम्यकदृष्टि, प्रत्यक्ष स्वरूप केम देखे ? उ०-परोक्ष प्रत्यक्ष अनुभवगोचर अनुमान प्रमाण प्रतीते
प्रत्यक्ष वस्तु स्वरूप देखे एटले माने, ते आवी रीतेः-पोताना परिणाम जे शुभाशुभ कर्म जनित छे ते रागद्वेषद्वारे, सम्यक् बुद्धिमार्गे ते परिणामने पोते यथार्थ लखे; ते प्रत्यक्ष देखवू कहिये ते परिणाम आत्मद्रव्यथी शाथी उठे छे ? तो के
बुद्धिमार्गे ।
यथार्थ ल
ते
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जीव परिणामे द्रव्य छे, तेने संगे जीवने बुद्धिपूर्वक निज परिणाम देखायाः-वादळे ढांकेलो सूर्य मेघ घटाए आच्छादित छे, तोपण सूर्यप्रभा प्रगट अनुमाने करी जाणी लोको दिवस अने रात्रिनो विभाग समजी शके छे, तेथी. सूर्य दीठो जेम कहिए. तेम आत्मा पण जिन वचन प्रतीतरूप अनुमान परिणामद्वाराए निर्मळ बुद्धिगम्य दीठो कहिए; वळी जेम धूम्र दिठे अग्नि दिठो कहीए तेम परोक्ष प्रत्यक्ष आत्मा, सम्यग्दृष्टि, वीतराग वचननी प्रतीते यथार्थ अनुभवरूपे देखे छे, तेनी शुद्धि, प्रतीति, श्रद्धान छे, एवीज रीते आत्मानुं जे यथार्थ भासन जाणपणुं थाय तेने सम्यग्ज्ञान कहिये; अने जेवो निज स्वरूपे एकांते वस्तुगवे जीव द्रव्य निष्कलंक जाण्यो, तेवोज रागद्वेष विकल्प रहित परिणमे तेवारे स्वरूपाचरण चारित्र प्रगटे पूआइसु वयसहियं पूणं जिणेहिं निद्दिई, मोहंकोहविहीणो, परिणामो अप्पणोधम्मो ॥१॥ ए स्वरूप चोथा गुणठाणेथी मांडीने आगळ विशुद्ध, विशुद्धतर, विशुद्धतम यथायोग्य पामीये. पाठान्तरे
(६३ प्रश्न) ७३ प्र-निर्जरानुं स्वरूप, द्रव्यथी तथा भावथी सम्यग्दृष्टि
. अने मिथ्यादृष्टिने जेम होय तेम कहो. ... उ०-निर्जरा एटले कर्मनु साटन करवू, खपाव; ते मध्ये
मिथ्याष्टिने निर्जरा, आस्रवबंधपूर्वक होय; सम्यग
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विचार रत्नसार.
दृष्टिने संवरपूर्वक क्रयभावनिर्जरा होय; केमजे तेने ज्ञानशक्ति अने वैराग्यनं बळ छे तेथी, त्यां ज्ञानशक्ति ते शुद्ध स्वरूपनो अनुभव, अने वैराग्यबळ ते . अशुद्धोपयोगनुं निवारण; हवे ज्ञानोपयोगे भाव निर्जरा शी रीते थाय ? ते देखाडे छे : - राग, द्वेष मोहादि मलीन परिणतिने घटाडवी ते भाव निर्जरा अने कर्मवगणानुं घटाडवं थाय त्यां द्रव्य निर्जरा जाणवी, एटले जे उदय आवे ते निर्जरे, तेवां पाछां न बंधाय, बंध अल्प अने निर्जरा घणी; एवी रीते ज्ञानशक्तिये वैराग्यबळे सम्यग्दृष्टि, द्रव्य भाव निर्जरा करे छे; मिथ्यादृष्टिने कर्म निर्जरा अल्प अने फरी बंध घणो थाय छे. मार्गानुसारी सन्मुखभावी पण कर्म निर्जरा अवसरे अल्प बंध करे, तोपण वस्तुगते. सत्ता एटले कर्म शक्तिनी निर्जरा तो सम्यगृष्टिने ज थाय छे. ( प्रश्न पा. ६४ )
७४ प्र० - आत्मप्रदेशे गुण पर्यायनी घटना शी रीते छे ? उ०- आत्माना असंख्यात प्रदेश छे; एकेक प्रदेशे अनंता
ज्ञानादि गुणो, अनंत शक्ति छे, वळी एकेक प्रदेशे उपयोग पलटणरूप ज्ञानादि गुणोना अनंत पर्यायो छे, आवी शुद्धात्मप्रदेशे घटना जाणवी; अने अशुद्ध आत्मप्रदेशे पूर्वोक्त गुण पर्यायो एकेक प्रदेशे रहेली अनंत कर्म वर्गणायुक्त छे; तेथी अशुद्ध संसारीपणे वर्ते छे. ( पा. प्र. ६५ )
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७५ प्र० - दर्शन, ज्ञान, चारित्रनी प्राप्ति, आत्माना द्रव्य गुण
पर्यायक सिद्ध करो.
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विचार रत्नसार.
उ०- आत्मद्रव्यमां द्रव्यनी शक्ति ते सम्यग्दर्शन, गुणनो प्रकाश ते सम्यग्ज्ञान, अने पर्यायनुं ठरणपणुं अर्थात् स्थिरता ते सम्यक् चारित्र जाणवुं, एमजं दर्शन गुणे द्रव्य शक्ति प्रगटे, ज्ञानगुणे गुणो प्रकाशे अने चारित्रगुणे स्थिरता गुण एटले स्वरूप रमणता प्रगटे, वधे.
७६ प्र० - उपयोग एटले शुं ? से केटला छे, वगेरे फळ भेद स्वरूप स्पष्ट कहो.
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30- चेतनानुं शुक्राशुद्ध परिणमन, तेने उपयोग कहिये. ते बे प्रकारे छे, एक शुद्ध अने बीजो अशुद्ध; शुद्धोपयोगे सिद्धिमति एटले मोक्ष थायः अने अशुद्धोपयोगना बे भेद छे, एक शुभ अने बीजो अशुभ त्यां दान पूजादि परिणाम ते शुभोपयोग कहिये, तेणे करी पुण्यबंध थाय, अने तेथी सद्गति पामे, अने हिंसादि पापपरिणाम ते अशुभोपयोग कहिये, तेथी पापबंध थाय, अने तेथी जीव दुर्गति पामे. (प्र. ६८ )
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७७ प्र० - पूर्वोक्त शुद्धाशुद्धोपयोग सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि आश्रि केवी रीते होय ? ते समजावो.
उ०- शुद्रोपयोग सम्यकत्व पाम्या पंछी होय छे, माटे ते सम्यकदृष्टिने जाणवो, ते चोथा गुणठाणाथी बारमा सुधी शुभोपयोग मिश्रित होय छे, पछी तेरमे पूर्ण पद थाय छे; अशुद्धोपयोग सर्वे संसारी मिथ्यादृष्टि जीवोने होय छे, ते मध्ये मिथ्यादृष्टिने
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annarranRAAAAAAAnmonary
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शुभ क्रिया होय पण शुभोपयोग नहि; केमजे शुभोपयोग तो शुद्धना घरनो छे, ते तो सम्यग्दृष्टिने अणइच्छकरूपे निर्वछकभावे होय छे, अने मिथ्यात्वीने शुभोपयोग शुभ क्रियारूप, शुभाचाररूप होय पण नियाणारूप एटले पौद्गलिक सुख वांछारूप होय,
ते माटे अशुभ जाणवो. (प्रत्यन्तरमा प्र. ६९) ७८ प्र०-सम्यग्दर्शननु स्वरूप अनुमाने तथा लक्षणे सिद्ध
करो. उ०-श्री वीतराग देवना वचननी दृढ प्रतीति एटले श्री
जिने भाख्युं तेज सत्य. ते कदापि काळे अन्यथा न होय, भले मारी बुद्धिमां नथी आवतुं तोपण वीतराग देवने मिथ्या कथन करवानुं कंइ पण प्रयोजन दिसतुं नथी, जेवू पोते केवळज्ञाने दीर्छ छे, तेवुज योग्य प्राणियोने केवळ हित बुद्धिए परमकरुणाभावे प्रकाश्युं छे, माटे सुइनी अणी जेटला प्रदेशमां अनंता जीवो पण तेज वचन प्रतीतिरूप आगम अने अनुमान प्रमाणे सम्यक्त्वी माने छे, तेवीज रीते आत्मा पण साक्षात् दीठो माने छे, वळी जीव चेतना लक्षणवंत छे, चेतना ते सुख दुःखतुं भान, अने सुख दुःखनो अनुभव वेदनीय कर्म द्वारे प्रत्यक्ष छे, तेथी ते लक्षणे सुख दुःखनो जाणनार आत्मा छे, एम प्रतीति करे छे. एम अंश प्रत्यक्षे सर्व प्रत्यक्ष थयो; जेम एक मोटा टोपमा एक खांडी भात रंधायेल तैयार थयो छे, ते काचो
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छे के चढी गयो छे, ते जाणवा माटे. ते टोपमाथी एक चोखो तपासी जोतां सर्वनी खात्री थाय छे,
तेम लक्षणेलक्षित सम्यग्दर्शननुं स्वरूप जाणवू.. ७९ (पा. प्र. ७०)प्र०-सम्यग्दृष्टि देशविरति तथा सर्वविरति
महात्माओ सम्यग्दर्शनवडे आत्मानो अनुभव केवी
रीते करे ? उ०-जेम वस्तु विचारतां, ध्यान धरतां मन विश्राम पामे
छे, रस स्वाद सुख उपजे छे, परिणाम ठरे छे, ते अनुभव प्रत्यक्ष जाणवू, जेम साकरना एक गांगडाने चाखी जोतां हजार मण साकरनो अनुभव थाय छे, तेम सम्यग्दृष्टि जीव अंसे आत्माने वळी
केवळी सदृश प्रत्यक्ष अनुभवे. तेथीज कयु छे जेःअंसे होय इहां अविनाशी पुद्गल तमासीरे चिदानंद घन सुजश विलासी, केम होय जगनो आसीरे. ए गुण वीरतणो न विसारु, संभारु दिन रातरे;
पशु टाळी सुररूप करे जे, समकितने अवदातरे. १ ८० (पा. म.७०)प्र०-मुनिने सम्यग्दर्शननाबळे आत्मा स्वरूप
प्रत्यक्ष अनुभवगोचर केवी रीते होय ? . उ०-ज्यां द्रव्य गुण पर्याय एकीभूत अभेद रत्नत्रयरूपे
मुनि प्रणमे, त्यां स्वरूप निजपद कंद प्रत्यक्ष देखे,
स्वरूप रमण सुखास्वादन अनुभवे. ८१ प्र०-दर्शन अने ज्ञानमां मूळ शुं फेर छे ? तथा छद्म
स्थ सम्यग्दर्शनी अने केवळदर्शनी ए बेना देखावामां शो फेर ?
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MarAnmowne
उ०-छद्मस्थने प्रथम देखq एटले दर्शन उपयोग अने पछी
जाणवू एटले ज्ञानोपयोग होयछउमथ्थाणं दंसणपुत्वनाणं ॥ दर्शन ते सामान्यवबोध, अने ज्ञान ते विशेपावबोध जाणवोः दर्शन ते सामान्यावबोध छे. झात्काररूप प्रतिभास थाय थोडो काल रहि पछे ज्ञान माहे मले. ज्ञान विशेषावबोध छे घणो काल रहे ते माटे. आत्मदर्शन जेणे कर्यु " तेणे मुंद्यो भवभय कूपरे " एम श्रीयशोविजयजीए पण का छे. तथा “ प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे तो देखे परमनिधान जिनेशर.. एवं श्री लाभानंदजीए पण कयुं छे. छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि आत्मस्वरूपने देखे, पण साक्षात् करामलकवत् एटले हाथनी हथेलीमा रहेला पाणीमांजे हथेळीनी रेखाओ स्पष्ट देखाय तेम साक्षात् असंख्यात प्रदेशी, अरूपी आत्माने केवळदर्शनी ज देखे, पण छद्मस्थ तो प्रतीते, अनुमाने अनुभवे, स्वरूपे देखे एटले जिनवचनप्रतीते आत्मद्रव्य स्वरूप दिलं, अनुमाने चेतनालक्षणगुणे प्रत्यक्ष दिठो, अनुभवे ते परिणमनपर्यायरूपे अने स्वरूपे ते अभेदरत्नात्रयात्मकनिजपदकंद दिठो. ए रीते आत्मस्वरूपनुं
दर्शन छद्मस्थ सम्यग्दृष्टिने संभवे छे. ८२ प्र०-मुनिने त्रणयोग रत्नत्रयरूपे केवी रीते परिणमे छे ? उ०-मनयोगे दर्शन श्रद्धानरूपे छे, जे वस्तुना निर्धारथी
चळे नहि; वचनयोगे ज्ञान भणQ, यथार्थ उपदेश करे छे, सत्य प्ररूपणा ज्ञानरूप परिणमन होय,
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तथा काययोगे षट्कायनी दयारूपे जयणापूर्वक प्रवर्तन छे. जयंचरेजयंचिट्ठे, इत्यादि.
८३ प्र०-मुनि, रत्नत्रयना शुद्धारावनथी जन्म जरा अने मरगणना भय शी रीते टळे ?
उ०- सम्यग्दर्शनथी घणा जन्म मटे, सम्यग्ज्ञानयी जरा दुःख जे वेदना ते मटे, तथा सम्यग्चारित्र गुणे मरण भय टळे, एम ऋण गुणे जन्म जरा मरणना भय मटे.
८४ (७१) प्र० - आगमप्रमाण, अनुमानप्रमाण, उपमाप्रमाण, अने प्रत्यक्षप्रमाणे, आत्मानी सिद्धि दाखवो, अने ते प्रत्येक प्रमाण मानतां जे फळ थाय ते कहो.
उ०- १ आगमप्रमाणे, षड्द्रव्य, षड्कायस्वरूपे जे वीतरागे भाख्या छे ते वचनोने तहत्ति करी मानवां, पण संदेह के उक्तायुक्तपणुं न कर; ते मानतां आत्माने प्रतीतिरूप सम्यक्दर्शन धर्मनी पुष्टि थाब; २. अनुमानप्रमाणे लक्ष्य लक्षणे निर्धार थाय, जेम सुख दुःख वेदतां आत्मानुं चेतना लक्षण जणाय छे, तथा जेम धूम्र दिठे अग्नि- होयानी प्रतीति थाय छे, अहिं आत्माने वस्तुगते अनुभवीने वस्तुना गुणनो अंशे प्रत्यक्ष अनुभव थाय, ३ उपमा कहेवी ते, जेम " आजने काळे सम्यक्त्व पाम्यो ते जाणे केवलज्ञान पाम्यो " एम ए मानतां आत्माने विनयगुणनी पुष्टि थाय ४ प्रत्यक्ष प्रमाणे जेवां परमात्माए कह्यां छे, तेवांज अत्रे पुण्य पापनां
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प्रत्यक्ष फळ देखीए छीए; इत्यादि जाणवू, ए मानतां आत्माने भववैराग्यता गुणनी पुष्टि थाय, विषय कषायथकी निवर्ते. एणी रीते चार प्रमाणे आत्माने
गुण नीपजे. ८५ प्र०-त्रिविध कर्मरोग कयो ? उ०-१ द्रव्यकर्म ते आठ कर्मनी वर्गणा, २ भावकर्म ते
अशुद्धोपयोग एटले आत्मानी रागद्वेषादि अशुद्ध परिणति; ३ नोकर्म ते औदारिकादि पांच शरीर, द्रव्यकर्मनी समीपे कारण कार्यभावे रह्यां माटे तेने नोकर्म कहिये; ते त्रण कर्मरोगना वैद्य श्री परमात्मा तथा गणधरादि महात्माओ छे; तेओ पण त्रिविध औषधरूप त्रण प्रकारनी देशना आपे छे१ यथार्थवाद, २ विधिवाद, ३ चरितानुवादः तेनो अर्थः-१ यथार्थवाद देशनामध्ये जीवाजीवादिक स्वरूप धायों, परिणम्यां तेथी वस्तु तत्त्वनो प्रकाश थाय, तेणे करी, भावकर्म रोग मटे, रागद्वेषादि विपर्यासपणुं टळे, अज्ञाननो उच्छेद थाय, २ विविवाद देशना मध्ये देशविरतिपणुं, सर्वविरतिपणुं इत्यादि क्रियानो आदर, शुभोपयोगे आचरतो, प्राणीनो द्रव्यकर्म रोग नाबुद थाय, अनादि कर्मकाट उतरे, आत्मप्रदेश निर्मळता निपजे, तेयी जीवने . घणी शांति प्रवर्ते, ३ तथा चरितानुवाद देशना मध्ये शरीर संबंधी काम भोग विषयकषायादि मलिनतानुं निवर्तन थाय, जेम जंबुस्वामी, सुदर्शन
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शेठ, मेतार्यजी आदि महात्माओना चारित्र सांभळे थके परम वैराग्य शांत रस प्रगटे, तेथी नोकर्मनो
रोग टळे. ८६ प्र०-दर्शनादि अनंत चतुष्क प्राप्तिना कारण तथा स्थान
कहो. उ०-१ धर्म रूचिथी सांभळवो, तथा ज्ञानाभ्यासमां उद्यम
रूचि होय तेटलाथी सम्यग्दर्शन गुण प्रगटे; २ तत्त्वातत्त्वगवेषक बुद्धि होय तेथी सम्यग् ज्ञानगुण प्रगटे, ३ पांच इंद्रिय विषय विकार, क्रोधादि कषाय, पांच प्रमाद इत्यादिनी जे त्याग बुद्धि होय तेथी चारित्रगुण निपजे, ४ वस्तुगते, स्वरूपानुभव लग्नता, तल्लीनता होय तेथी वीर्यगुण प्रगटे हवे ते चारेनां स्थान कहे छेः-दर्शनगुणवें स्थान चक्षु, ज्ञानगुणर्नु स्थान हृदय, चारित्रगुणनुं स्थान चरण, अने उत्साह
इच्छादिरूप वीर्यगुणतुं स्थान बाहु छे. .८७ प्र०-अहिंसानुं स्वरूप तथा तेना विविधभेदो दृष्टांत सहित
समजावो. उ० मूल जूनी हस्तलिखित प्रतिमां हिंसाना भेदो संबंधी प्रश्न छे. स्वरूप हिंसा, अनुबंध हिंसा, द्रव्य हिंसा, भाव हिंसा, बाह्य हिंसा, परिणाम हिंसा, योग हिंसा, इत्यादि हिंसाना घणा भेद छे. साधुजी नदी उतरे छे पण मोक्षवर्ति (मुख्यताए) हिंसाना परिणाम नयी तेथी ते स्वरूप हिंसा जाणवी. तथा सभ्यगदृष्टिने देव पूजा, गुरुवंदना, साधुने आहारदान इत्यादि कार्ये
हिंसा अल्पबंधरूप छेते माटे ते स्वरूप हिंसा कहेवी, 100
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~~~
arrrrrrror
विचार रत्नसार. ~...................
m रागद्वेष परिणामे जे मंदबुद्धिथी छकाय जीवोने हणे ते तरतमअध्यवसाये महाकर्मबंध करे तेना अशुभ विपाक उदये. आवे ते अनुबंध हिंसा जाणवी. अनुपयोगे द्रव्यहिंसा अने तीव्र परिणामे भाव हिंसा थाय. स्वरूप हिंसामांहे बाह्य हिंसा तथा योग हिंसा भळे छे. तथा एक जीवमे हिंसा अल्प पण उदयकाले दुःख विशेष पामशे ते शेणे ? दुष्ट अध्यवसायना अभावे उदय आव्यां कर्म निष्फल करे छे. द्रढ प्रहारीनी पेठे. इत्यादि चोभंगीओ अहिंसा अष्टक ग्रन्थमध्ये विस्तारे छे. यथा एकस्याल्पाहिंसा ददाति काले तथा फलमनल्पं अन्यस्यमहाहिंसा स्वल्पफला
भवतिपरिपाके इत्यादि । 3०-१ स्वरूप आहिंसा, ते जीववध न करवो, तेनुं बीज
नाम बाह्य अहिंसा के योग अहिंसा पण छे, २ हेतु अहिंसा ते जयणाए प्रवर्तन, छकाय जीवन रक्षा प्रवृत्ति, ३ अनुबंध अहिंसा ते रागद्वेषादि म. लिन अध्यवसाय, तीव्र विषय कषायना परिणाम हिंसानो त्याग जेथी फळ विपाकरूपे आकरो कर्म बंध न पडे ते, ४ द्रव्यअहिंसा एटले अनुपयोग हिंसानो त्याग, ५ परिणाम अहिंसा के भाव अ. हिंसा ते उपयोग पूर्वक परिणमीने इरादाथी जे हिंसा करवी तेनो त्याग इत्यादि अनेक भेद जाणवा, हवे क्रिया फळ भेदरूप चौभंगी देखाडे छे:-१ हिंसा अल्प, फळ विपाक अल्प, २ हिंसा अल्प, फळ विपाक तीव्र, ३ हिंसा तीव्र, फळ विपाक अल्प,
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४ हिंसा तीव्र, अने फळ विपाक तीव्र, ए भेद जीवना अध्यवसाय भेद विषेशे, विपाक फळनो पण भेद जाणवो, अहिं जमाली, द्रढमहारी, चिलाती पुत्र कुर्ग जी इत्यादि दृष्टांतो यथासंभवे भाववां. ८८ प्र० - इच्छादिक ऋण योगनुं स्वरूप समजावो.
उ०- १ इच्छायोग ते शुभ करणी व्रतादि आदवानी उत्साह इच्छा, दश प्रकारे यतिधर्म आदरवानी इच्छा २ शास्त्रयोग ते हेय, ज्ञेय अने उपादेय मध्येथी उपादेय ते अंगीकार करवं ते प्रमाणे शास्त्रानुसार विधिपूर्वक व्रतादि पाळवं ते, ३ सामर्थ्ययोग ते कोइ आत्मा, ज्ञान अने वैराग्यनी प्रबळ शक्तिये अनंत काळ भोगववा योग्य जे कर्म तेने थोडा काळमां भोगवी क्षय करे; योगदृष्टिसमुच्चय ग्रन्थे त्रण योगनी व्याख्या करी छे. श्री गजसुकुमालजीनी पेठे, कां छे जेः
दुहा. क्रियायोग अभ्यास हे, फळ हे ज्ञान अबंध; दोनुंकुं ज्ञानी भजे, एकमति मतिअंध. इच्छा शास्त्र समर्थता, त्रिविध योग हे सार इच्छा निज शक्ति करी, विकल योग व्यवहार शास्त्रयोग गुणठाणको, पूरण विधि आचार; पद अतीत अनुभव कह्यो, योग तृतीय विचार रहे यथाबळ योग में, ग्रही सकळ नय सा; भावजैनता सो लहे, चहे न मिथ्याचार.
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८९ प्र० - द्रव्य, गुण, पर्याय, शाथी बगड्या छे ?
उ०- द्रव्य, ज्ञानावरणीदि कर्मना आवरणे, तथा गुण, रागद्वेष विभावपरिणतिए, अने पर्याय, मनोयोग कल्पनाए विकारभावने पाम्या छे.
९० प्र० - मति तथा श्रुतज्ञानी अने अज्ञानी जे जिनवाणी सांभळे तेने शी रीते परिणमे ?
उ०- मति अज्ञानीने विकल्परूपे तथा डामाडोळपणे परिमे, तथा मतिज्ञानीने निर्विकल्पपणे तथा निर्धारतारूपे परिणमे श्रुत ज्ञानीने वैराग्यरूपे तथा आस्तिकपणे परिणमे, श्रुत अज्ञानीने विषयरूप तथा नास्तिकरूपे परिणमे, एटले ( माटे) सम्यग्दृष्टि जीवो जिनवाणी सांभळवाना अधिकारी जाणवा.
९१ प्र० - जीव कर्म साथे केवी रीते मळेल छे ? ते दृष्टांत सहित समजावो.
उ०- द्रव्यार्थिकनये जीव, तुंबीमृत्तिका न्याये कर्म संगाथे मळेल छे, एटले जेम तुंबडी उपर माटीनो थर लाग्यो होय पण तुंबडीनी अंदर कई बगाड न होय तेम आत्माने कर्मनो संबंध जाणवो, तथा पर्यायार्थिकनये आत्मा, कर्म संगाथे खीरनीरपरे, एकरूपे लोलिभूत थयो थको चतुर्गति भ्रमण करे छे.
९२ प्र० - सोळ संज्ञा ते कइ अने तेमांथी कया जीवने केटली होय ते कहो ?
उ०- १ आहार, २ भय, ३ मैथुन, ४ परिग्रह, ५ क्रोध, ६ मान, ७ माया, ८ लोभ, ९ ओव, १० लोक,
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११ सुख, १२ दुःख, १३ मोह, १४ वितिगिच्छा, १५ शोक, १६ धर्म, ए सोळ संज्ञाओमाथी पेहेली दस संज्ञा एकेन्द्रियने, तथा ओघ सिवाय बाकीनी पंदर बेन्द्रियादिकने होय अने पंचेन्द्रियने सोळे
संज्ञा होय. ९३ प्र०-क्रोधादि दोषोनी मुख्यता जीवभेद विशेषताए कहो. उ०-चारगतिमां, क्रोध, नरकमां, मान मनुष्यमां, माया
तिर्यंचमां अने लोभ देवगतिमां मुख्य होय छे हवे मनुष्य जातिमां क्रोध रजपुतने, मान क्षत्रियादि कुळवानने, माया गणिका तथा वणिकने, लोभ ब्राह्मणने, राग स्नेही मित्रादिने, खेद तथा द्वेष ते कायर क्लेशी, अदेखा, तथा दीनदुःखीआ सोगीने होय, शोक जुगारीने, चिन्ता चोरनी माताने, भय
ते कायरने तथा कृपणादिने विशेष होय. ९४ प्र०-धर्म अने कर्म विषे यथायोग्य खुलासो करो. उ०-धर्म ते आत्मभावे शुद्धोपयोगे होय, अने कर्म ते
अशुद्धोपयोगे करणी क्रियाए तथा शुभाशुभभावे भवितव्यताए थाय; कर्म ते क्रियाए अने धर्म ते अक्रियारूपे होय. जेवी शुद्धोपयोगनी तीव्रता तेवी
धर्मनी वृद्धि जाणवी. ९५ प्र०-जिनना चार निक्षेपाना स्थान शरीरमा क्यां छे ? उ०-नाम जिननुं स्थान जीभमां छेस्थापना जिननुं चक्षुमां
द्रव्यजिन- मनोयोगमां, केम जे श्रद्धा मनमध्ये छे तेथी; अने भावजिननुं स्थानक हृदयमा छे.
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-..anirnaryaveena.na-..
-..-mana..........
.
९६ प्र०-द्रव्येंद्रिय तथा भावेंद्रियनो भेद समजावो तथा ते
शाथी भरेल छे ? ते कहो. उ०-द्रव्येंद्रिय ते आकार विशेष जाणवी ते मळ, मूत्र,
रुधिर, मांसादि अशुभ पुद्गलथी भरी छे; भावेंद्रिय ते इंदियद्वाराए उपलब्ध विकारी ज्ञान ते रागद्वेषादि
विकारोथी भयुं छे. ९७ प्र०-आहारादि चार संज्ञान स्वरूप सविस्तर कहो. उ०-१ आहारसंज्ञाथकी जीव अनादिकाळनो पुद्गल खान
पानादि वासनाथी निरंतर भरेलो अतृप्त वर्ते छे, २ भयसंज्ञाए चारे गतिमां सदा कंपतो रहे छे, ३ भैथुनसंज्ञाए इंद्रिय विषयभिलाषिपणे भमतो फरे छे, ४ परिग्रहसंज्ञाए धन, स्त्री, पुत्रादिनी निरंतर ममताए मेळवू मेळवू करी रह्यो छे, तेणे करीनेज सदा कषायतापे तपेलो, संसारमा ढोकळांनी पेठे सीजाय छे, छतां सुख मानी रह्यो छे, ए चार संज्ञामध्येथी पहेली आहारसंज्ञा ते वेदनीय कर्मजनित छे, शेष त्रण मोहनीयजनित छे, वळी आहारसंज्ञाए शरीरपरत्वे हिंसादि अनेक पापकर्म हेतु प्रवर्ते छे, हिंसाथी कर्मो घणां थाय छे, एथी पापबंध वधे छे, अने तेथीज अशाता वेदनीय प्रबळ पामे छे; तथा भयसंज्ञाए कल्पना कर्मयोगे व्यक्ताव्यक्तकर्म बंधाय छे; तथा मैथुनसंज्ञाए विषयना अने परिग्रहसंज्ञाए कषाय वृद्धिना घणा तीव्र कर्म बंधाय छे; एम चारने जोरे जीव अधोगतिए
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जाय छे, संसार परिभ्रमण घणो थाय छे; वळी बीजी रीते विचारीए तो आहारसंज्ञाए शरीरपुष्टि तेणे करी हिंसक प्रवृत्ति, तेणे करी दुःख प्राप्ति, तेथी आर्तध्याननी वृद्धि तेथी दुर्गतिमां अनंतोकाळ जीव भमे छे, माटे उत्तम जीवोने आहार अने निद्रा अल्पज होय छे, एमज भयसंज्ञाए कल्पनाजाळ वधे छे, तेथी रागद्वेषादि मलिनपरिणति वधे छे, तेथी अष्टकर्मनो निविडंबंध थाय छे, चतुर्गतिभ्रमण वारंवार थाय छे; तेमज मैथुनसंज्ञाए विषय सेवे, तेथी पोताना रत्नत्रयी गुणने आवरे, तेथी जीव संसारमा सर्वत्र हीणअकल, मूढ़, दरिद्री थयो थको घणी अशाता सर्वत्र पामे; एवी रीते परिग्रह संज्ञाए कषायबंध घणो थाय, तेथी संसार दी थाय, एम आ संसारना मूळ हेतुरूप जीवने आ महा बाधककारी अनादिकाळनी लागेली भववासना डाकणोरूप चार संज्ञाओ छे, तेने जेम बने तेम उत्तम जीवे ज्ञान ने वैराग्य शक्तिये, परमात्माना शरणे जइने वश करवानो प्रयत्न करवोए चारमाथी पहेली बे आहार अने भय संज्ञा साधुने छठ्ठा सातमा गुणठाणाथी निवर्तेछे. मैथुमसंज्ञा नवमे गुणठाणे निवर्ते छ; अने परिग्रह, लोभ, ममतादि दसमे गुणठाणे निवर्ते छे; माटे गुणठाणानी विशुद्ध परिणति पामवा माटे ए चार संज्ञानी मंदता थवी जोइए; तेनी तीव्रताए जीव निगोद सुधी जाय छे अने मंदताए उर्ध्वगतिए चढे छे; केम जे जीवने
HEREHHHHI
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विचार रत्नसार.
मूळ ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए मुख्य गुण छे; तेमां दर्शन तो सामान्य अवबोधरूप होवाथी ते विशेष अवबोधरूप ज्ञानगुणमां समाय छे, तेथी ज्ञान अने चारित्र बे रह्यां, तेमां ते निमित्त कारण, अने चारित्र ते उपादान कारणरूप छे ते उपादान कारण सेवनरूपे चार संज्ञानी मंदताए जीव उंचो
चढे छे. ९८ प्र०-सिद्धना जीवने अनंता गुण छे, ते समपणे छे के
विषमपणे छे ? उ०-निरावरणआश्रयी समगुणे छे, पण आप आपणा
गुणना पर्याय धर्माश्रयीविषमपणे छे. ९९ प्र०-प्राणेकरी जे जीवे तेने जीव कहिए तो सिद्धने
जीव केम कहेवामां आवे छे ? 3०-सिद्धने द्रव्यप्राण नथी, पण भावप्राण चार छे, तेनां
नामः-१ अनंतज्ञान, २ अनंतदर्शन, ३ अनंतसुख, अने ४ अनंत वीर्य; ए चार भावप्राणे सिद्ध जीवे छे, तेथी सिद्धने जीव कहीए, ए भावप्राण आवरणे द्रव्यप्राण सांपडे छे, ते कर्मजनित छे. केम जे स्वाभाविक अनंतदर्शनरूप भावप्राणने आवरणे इंद्रियप्राण थया, तेमज स्वज्ञानरूप भावप्राणने आवरणे श्वासोश्वास प्राण उपज्यो, स्वाभाविकसुखरूप भावप्राणने आवरणे आयुप्राण उपज्यो; स्वाभाविक अनंतबळ. वीर्यप्राणने आवरणे मनोवळ, वचनबळ, कायबळ, ए विभाविक प्राण उपज्या. ए अधिकार अध्यात्मसार ग्रन्थ मध्ये कह्यो छे,
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विचार रत्नसार.
०० प्र०-लेश्या कया कर्मयोगे छे ? उ०-लेश्या, योग प्रत्ययिक नामकर्मजनित छे, अने शुभा
शुभ परिणामरूप लेश्या भावकर्मजनित छे. ०१ प्र०-वीस विहरमान तीर्थकरो संबंधी जघन्य, मध्यम,
अने उत्कृष्ट, समकाळे जन्म दीक्षा, ज्ञानादि हकी
कत सविस्तर समजावो. उ०-महाविदेहक्षेत्रमा श्री विहरमान तीर्थकरो केवळीपणे विचरे छे, वळी कोइ बाळकपणे, कोइ राज्यावस्थाए, कोइ गर्भमां होय, त्यारे जघन्यकाळे अढीद्वीपमा १६० विजयमां १६८० होय, हवे हाल वीस प्रभु छे, ते जेवारे जन्मथकी एक लाख पूर्व आयुना थाय त्यारे बीजा प्रभु जन्मे, वळी गर्भमां पण होय, एम गर्भना तीर्थकर प्रभु न गणाय, तेथी चोरासी लाख पूर्वायुमां तीर्थकरना जीवो बाल्यावस्थामां, युवास्थामां, राज्यावस्थामां तथा श्रमणावस्थामां तथा केवळी अवस्थामां सर्वे मळी ८३ तीर्थकरो होय, ते संख्याने वीसगुणा करीए त्यारे १६६० थाय, ते मध्ये वीस विचरता भेळीए त्यारे १६८० थाय, अने ज्यारे उत्कृष्टपणे अढी द्वीपमा १७० प्रभु केवलिपणे विचरे छे, त्यारे एकएकना अवतारमाहे ८३ तीर्थकर उपजे, तेने १६० गुणा करिए त्यारे १३२८० थाय तेमां १७० वर्तता भेळीए त्यारे १३४५० थाय. एटलं अंचलगच्छ नायके कयु छे, जिम सांभळ्यु तिम लख्युं छे.
पछे तो जेम केवलज्ञानीए प्रकाश्युं तेम सत्य. 101
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विचार रत्नसार.
गाथा-सत्तरिसयमुक्कोसं, जहन्नयं वीस विहरमाण जिणा; .
समयखित्ते दस वा, जम्मपइ वीसदसगं वा ॥ ए प्रवचन
सारोफार ग्रन्थनी गाथा जाणवी. तथा दोहराथी गाथानो भाव जाणवो.
विहरमान जिन चैत्यवंदन. विवरो ए गाथातणो, कवि लेज्यो संभाल; सित्तरिसो जिनवर हुवे, कहे के अइ काल. चढते काळ उत्सर्पिणी, वारे अष्टम जिन; एकसो सित्तर जिनवर हुवे, एणीपरे सुणो सज्जन. २ पांच विदेहे मेळवी; साटसो विजय उप्पन; भरतखत दस मीळे, सित्तेरसो होय जिन. पडते काळे अवसर्पिणी, सोलम जिन लगे हुंत; भरतवरते जिन हुवे, साठसो विदेह लहंत. ४ केवळी कइ बाळ परण्या, वयणे एहज सोया आठमा जिनयी सोलम लगे, विरह विदेह न होय. ५ सोलमा जिन साथे सहु, मुक्ते जाय जिन भाण; विरहसमे सहु क्षेत्रमां, अक्षर एह पिछाण. ६ सत्तरमा जिन होय भरह, पंच औरवत मली दशा समयक्षेत्र दश कह्या, लेहवा एह अवश्य. सत्तर अढारह जिन वचे, जन्मे वीश विदेहः वीस एकवीसमा वचे, संयम केवळ देह. भरतैरवत दश मळे, मध्यम सांप्रत त्रीशः चोवीशमा जिन शिव गये, विदेह विचरे वीश. ९ अनागत चोवीशी सातमा, आठमा वच्चे निर्वाण; विरह पडे सह क्षेत्रमां, अष्टमे न होय जिनभाण. १०
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विचार रत्नसार.
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आठमा की नथी वळी, एम सित्तेरादि थाय; परंपरा पूर्वे जेम कही, लेवी एम सदाय. दशवीशना एॠण समे, जिनवर जन्म कहात; भरतैरते दिन हुए, पांच विदेहे रात. आगमे एणिपरे भाखियुं, च्यवन जन्म अधरातः भरतैरवत रजनि होय, दिवस विदेह विख्यात. त्रीश सिंहासन सहु, दोय मेरु पंच लाभ; दो दो पूर्व पश्चिमे, एक दक्षिण उत्तर साध चार जन्म एक विदेह प्रत्ये, पांचे मळीने वीशः भरतैवते दश हुए; एक समये जन्म लहीश. वीश वोश जन्मे विदेहे सही, साठसो विजय पुरायः लाख चोराशी पूर्वायु तस, धनुष्य पांचशें काय. चढते दोय पडते त्रणे, आरे धर्म कहाय; भरतैखत ते सही, विदेहे धर्म सहाय. परावर्तन काळ भरहेरवय, लेखो इहाथी लेय; चोथो नित्य विदेहमां, आणंदरुचि भणेय. जिनवर ए नित्य समरतां, लहिये संपद कोड, पंडित पुण्यरुचि गुरु, शिष्य कहे करजोड. १०२ प्र० - चक्रवर्तिना १४ रत्न कया अने ते क्यां उपजे ? उ०- १ चक्र, २ असि, ३ छत्र, अने ४ दंड ए चार
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रत्नो आयुधशाळामां उपजे ५ मणि रत्न, ६ कांगणी रत्न, ७ चर्म रत्न, एत्रण निधानमां निपजे. ८ पुरोहित ९ सेनापति, १० गायापति, ११ वार्धिक, ए चार रत्नो पोताने नगरे उपजे. १२ स्त्री
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८.४
विचार रत्नसार. रत्न ते राजकुळे उपजे, गजरत्न अने अश्वरत्न ए
बे वैताढ्य पर्वत उपर उपजे. १०३ प्र०-नव निधान ते कया अने ते क्यां प्रगटे ? उ०-गंगानदीने तटे नवनिधाननी नव पेटी प्रगटे छे,
ते प्रत्येक पेटी १२ योजन लांबी, नव योजन पहोळी, अर्ध योजन उंची, ते योजन आत्मांगुल प्रमाण जाणवा, अने नवनिधि मंजुसने आकारे छे, बैडर्यमणिरत्नमय कमाड छे, तेना तथा तेमांनी वस्तुनां नाम कहे छे:-१ नैसपिक, तेमां नगर निवेस ग्रामादि उत्पादक विधि छ; २ पांडक, तेमां धान्य बीजादिकनी सर्व संपत्ति छे; ३ पिंगळ, तेमां नर नारी हय गयनां विविध आभरणो छ ४ महापद्म, तेमां चउदे जातिनां रत्नो छे; ५ मल्लि, तेमां विविध प्रकारनी सुगंधि पुष्पादि विगेरे वस्तुओ छे; ६ काळ, तेमां त्रिकाळ ज्ञाननां पुस्तको छे ७ महाकाळ, तेमां सोनु, रुघु, झवेरात, लोह विगेरे सर्व द्रव्य असूट छे; ८ माणक नामे तेमां राजनीति, युझनीति अने सर्व हथीयार युद्धनी नीति छे ९ सुखनिधि, तेमां चतुर्विध नाटकादि संगीत शास्त्रादिना ग्रंथो छे; ते प्रत्येक निधाने एक हजार व्यंतर देवो अधिष्ठायक छे, तेनुं आयु एक पल्यो
पमनुं छे. १०४ प्र०-प्रभु ज्यां पारणुं करे त्यां धनवृष्टि देवताओ केडली
करेछे ?
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विचार रत्नसार.
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उ०- जघन्यथी साडाचार लाख अने उत्कृष्टयी साडीबार क्रोड सोनैया वरसावे.
अद्धतेरस कोडी, उक्कोसा तत्थ होई वसुधारा । अद्धतेरस लक्खा, जहन्निया होई वसुधारा ॥ १ ॥ १०५ प्र० - चउद मोटी विद्यानां नाम कहो ?
उ०- १ नभोगामिनी, एटले आकाशमां गमन करवानी विद्या, २ परशरीर प्रवेशिनी, ३ रूप परावर्तिनी, ४ स्तंभिनी, ५ मोहिनी ६ सुवर्ण सिद्धि, एटले सोनुं बनाववानी विद्या, ७ रजत सिद्धि, एटले रुपुं बनाववानी विद्या, ८ रससिद्धि, एटले रसकूपिकादि रस करवानी विद्या, ९ बंध मोक्षिणी, एटले गमे तेवा बंधनमांथी मुक्त करवानी विद्या, १० शत्रु पराभविनी, ११ वश्य करणी, १२ भूतादि दमिनी, एटले सर्व अग्निना उपद्रवने समावनारी विद्या, १३ सर्व संपत्करी, १४ शिवपद प्रापिणी.
१०६ प्र० - आचार्य महाराज आत्मस्वरूप पंच प्रस्थानने घ्यावे एटले शुं ?
उ०- ध्याननी पांच अवस्था साधवामां सावधान आचार्य भगवंत, पंचपद आराधे छे, तेनां नाम. १ अभय, ते अरिहंतनुं ध्यान, २ अकरण, ते सिद्धनुं ध्यान, ३ अहमिंद्र, ते आचार्यनुं ध्यान, ४ तुल्य एटले उपाध्यायनुं ध्यान, ५ कल्प एटले साधुनुं व्यान, ते समान अवस्थाए पंच प्रस्थानमय आचार्यजी छे.
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१०७ प्र०-जीवने मिश्रगुणठाणुं चढतां के पडतां कोने केवी
रीते आवे ते कहो. उ०-अनादि मिथ्यात्वी होय तेने चडतां न आवे. केमजे
ते प्रथम उपशम सम्यक्त्व पामे, ग्रंथिभेद करी चोथे आवे, माटे अनादि मिथ्यात्वी पहेलेथी चोथे आवे, माटे तेने त्रीजु मिश्र चढतां न आवे, अने सादि मिथ्यात्वी जीव सम्यक्त्व पामीने पडयो होय ते पाछो क्षयोपशम सम्यक्त्व पामे, तेने त्रीजुं चढतां
पडतां आवे. १०८ प्र.-समोहिया, असमोहिया, मरण ते कोने कहीए ? उ०-समोहिया मरण ते जीव अहिंथी नीकळे त्यारे सम
काळे सर्व प्रदेशे नीकळी परभवे जाय, जेम सीधो दडो फेंकतां दडाना प्रदेश एक वखते दडा साथेज जाय छे तेम जाणवू; अने असमोहियामरण ते जीवना प्रदेश श्रेणिबद्ध आगळयी जाय, एटले अहिं तथा परभवे आत्म प्रदेशनी मरणावसरे श्रेणि मंडाय ते जेम पतंगनी दोरी हाथने अने पतंगने
लागेली छे तेनी पेठे जीव प्रदेश नीकळे ते. १०९ प्र०-जीवनो शुझोपयोग गुण जे सम्यक्त्व, तथा ठरण
गुण ते चारित्र तेने आवरवाने कोण बळवत्तर छे ? उ०-आत्मोपयोग गुण, आत्मवस्तु जीवन गुण जे सम्य
क्त्व छे, तेने आवरवाने मिथ्यात्व समर्थ छ; अने एन परिणमनसुख एटले स्थिरता गुण आवरखाने अविरति समर्थ छे; माटे मिथ्यात्वोढये समकित न
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विचार रत्नसार.
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पामे, अने अविरति उदये चारित्र गुणस्थान न पामे, पण ज्यारे जीवने तथाविध परिणमन उपयोग एकाग्रता थाय, त्यारे ते सुखरूप ज्ञानचारित्रमय
संपूर्ण धर्मने पामे. ११० प्र०-द्वादशांगीना केटला पदो छे ? उ०-" कोटीशतं द्वादशश्चै व कोट्यो लक्षाण्यशीति
अधिकानिचैव पञ्चशदष्टौ च सहस्र संख्यामेतत्श्रुतं पञ्चपदननामि " ॥ १ ॥ एटला पद छे, " एकावन्नं कोडीओ, लक्खा अढे व सहस्स चुलसिही। सयछक्कं साढा, एकवीस पयगंथा ॥१॥'
एटला एक पदना श्लोकनी संख्या जाणवी. १११ प्र०-चौद पूर्वना नाम तथा ते प्रत्येकना पदनी संख्या कहो ?
उ०-१ उत्पाद पूर्व, पदसंख्या ११ क्रोड, २ अग्रायणीय
पूर्व, तेमां ९६ लाख पद छे, ३ वीर्यप्रवाद पूर्व तेमां ७० लाख पद छे, ४ अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, तेमां ६० लाख पद छे, ५ ज्ञान प्रवाद पूर्व, तेमा ३६ क्रोड पद छे, ६ सत्य प्रवाद पूर्व, तेमां एक क्रोड अने ६० लाख पद छे, ७ आत्म प्रवाद पूर्व, तेमां ३६ क्रोड पद छे, ८ कर्मप्रवाद पूर्व, तेमां एक क्रोड आठ लाख पद छे,, ९ प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व तेमां ८४ लाख पद छे, १० विद्या प्रवाद पूर्व तेमां ११००१५००० पद छे, ११ कल्याण प्रवाद पूर्व, तेमां ६२ कोड पद छ, १२ प्राणवाद पूर्व, तेमां एक क्रोड ५६ लाख पद छे, १३ क्रियाविशाल
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८.०८
विचार रत्नसार.
-uruwaran
पूर्व तेना नव क्रोड पद छे, १४ लोक बिंदुसार तेमां साडातेर क्रोड पद छे, त्यां एक पदमा ५१८८८४०
अक्षर छे. ११२ प्र०-बीजे गुणठाणेजिननामकर्मसत्तावंत जीव केम न
आवे ? २०-क्षयोपशम समकिती, जिननाम बांधी पडतां पहेले
आवेछे, तेने सत्ताए १४८ प्रकृति होय छे, कर्मग्रंथनी अवचूर्णिमध्ये कयुं छे. संतेअडयालसयं जाउवसमविजिणु बियतइय.-अस्यार्थ. सत्ता ए कर्मनी प्रकृति. १४८ मिथ्यात्व गुणठाणामांडी यावत ११ अगियारमा सुधी होय, पण बीजे बीजे गुणठाणे जिन नामकर्म विना १४७ प्रकृति सत्ताए होय ते केम ? तेनो अभिप्राय कहे छे. चोथे गुणठाणे . क्षयोपशम समकित छे ते जिन नामकर्म बांधे ते बांधीने पाछो पडे. समकितथी पडेतो ते मिथ्यात्वे आवे पण बीजे बीजे गुणठाणे नावे. तेमाटे मिथ्यात्व गुणठाणे १४८ प्रकृति होय अने सासादन गुणठाणुं ते उपशम भाव आश्रयी छे, अने उपशम समकित छतां जिन नामकर्म न बांधे. चोथे गुणठाणे ज्यां सुधी उपशम समकित होय त्यां सुधी जिन नामकर्म न बांधे. स्तोतकाल माटे, क्षयोपशम तथा क्षायिकसमकित छते जिननाम बांधे ते पाछो वमे ते क्षयोपशम समकितथी पडतो जिन नामकर्मवाळो प्रथम गुणस्थानके आवे पण बीजे जीजे नावे. तिहां १४८ प्रकृति सत्ताए होय तेथी
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विचार रत्नसार.
ते तेमज क्षायिकसमकितीने तथा क्षयोपशमसमकितीने बीजं त्रीजुं न होय पण उपशमसमकिती पडतां बीजे बीजे आवे तेने जिननामनो बंध नथी; बीजे बीजे सत्ताए १४७ प्रकृति होय, उपशम समकित आखा भवमां पांच वखत आवे छे, तेमां चारवार श्रेणिगत अने पांचमीवार पडतां आठमे गुण
ठाणे अटकी क्षपकश्रेणि मांडीने केवळज्ञान पामे. ११३ प्र०-क्षयोपशम, उपशम अने क्षायिक सम्यक्त्वनुं स्वरूप
तेना भेद सहित टुंकमां कहो. उ०-क्रोधादि चार अनंतानुबंधी चारित्रमोहनी प्रकृति अने
मिथ्यात्वमोहनीनी त्रण प्रकृति, ए सातने उपसमावे त्यारे उपशमसमकित अने सातेनो क्षय करे त्यारे क्षायिक अने सात प्रकृतिना उदयनो क्षय करे अने उदयमां न आवेलां उपशमावे तेने क्षयोपशम सम्यक्त्व कहे छे. हवे ते विषे जे कांइ विशेष जाणवा योग्य छे ते कहे छे:---
दुहो. चार खपे त्रण उपशमे, पंच क्षय उपशम दोय; पद् उपशम एक एम, क्षयोपशम त्रिक होय.
अथवा क्षयोपशम वरते विविध, वेदक चार प्रकार क्षायिक उपशम युगल युत, नवधा समकित धार.
दुहानो खुलासोःसात प्रकृति मध्ये चार चारित्रमोहनीनी छे. त्रण प्रकृति 102
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८१०
विचार रत्नसार.
मिथ्यात्वमोहनीनी छे. ते मध्ये छ पहेली ते वाघण जेहवी छे, एक सम्यक्तमोहनी ते कुतरी सरीखी छे. तेहनो विवरो. ए सात प्रकृति जिहां उपशमे तिहां उपशम समकीत कहिए. ए साते प्रकृति सत्तामाहिथी क्षय करे तिहां क्षायिक. समकीत. ए सातमांहिथी कांईक खपे कांई उपशमे तिहां क्षयोपशम समकित कहिए. ज्यां ए सातमांनी चार खपे, बे उपशमे, अने एक वेदे ते पहेलो भेदः तथा ए सातमांनी पांच खपे, एक उपशमे अने एक वेदे ते बीजो भेद; एम बे प्रकारे क्षयोपशम वेदक छे; तथा हवे त्रण प्रकारे क्षयोपशम समकित छे, ते कहे छे ते आवी रीते:-१. चार खपे त्रण उपशमे, २ पांच खपे बे उपशमे, ३ छ खपे एक उपशमे; एम ए त्रिविध क्षयोपशमसमकित अने पूर्वोक्त द्विविध वेदक भावनी मळी क्षयोपशम पंचविध स्वरूप का; हवे क्षायिकवेदकनो एक भेद ते किम ? छ खपावे, एक वेदे ते क्षायिकवेदक कहिये. तथा छ उपशमावे अने एक वेदे ते उपशमवेदक कहिये तथा सातने क्षये क्षायिक अने सातने उपशमे, उपशमिक एम सम्यक्त्व नव प्रकारे का. ११४ प्र०-मोहनीयकर्मनुं लक्षणस्वरूप कहो. उ०-१ जे विभ्रमपणे आत्मस्वरूपने विपरीत जाणे, जेम
छीपने रू' कहे ते मिथ्यात्व मोहनी, २ मिश्रमोहनी ते कांइक डामाडोळपणे, संदेहयुक्त, अनिर्धारपणे जाणे, पण आत्मज्ञान प्रते पामवा न दे ३ सम्यक्त्व मोहनी ते सम्यग् वस्तु उपर मोह उपजावे, देवगुरुआदिपर मारापणारूप ममता करावे,
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विचार रत्नसार.
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जिनवचन मध्ये शंकाकंखादि कांइक विभ्रमतारूप चित्त मलिनता करावे ते तथा अनंतो छ अनुबंध
कर्मविपाकरस जेनो तेने अनंतानुबंधि कषाय कहिये. ११४ प्र०-सापेक्ष अने निरपेक्ष ते केवी रीते ? उ०-सापेक्ष एटले अपेक्षा सहित एटले कार्य पडे त्यारे
कदाच प्रसंगने लइने ताडना तर्जनादि करवू पडे तोपण ते अंतरी के बहारथी निर्दयपणे, अविचारी रीते न करे, जीवने कोइ व्यथा न उपजे तेनी संभाळ राखीने काम जेटलो आक्रोशादि होय ते करे, अने तेथी विपरीतपणे, निर्दय रीते निष्कारण गमे तेम माटुं बोले तथा करे ते निरपेक्षव्यवहार जाणवो; वळी धर्मने विषे सापेक्ष एटले वस्तु स्वरूपनी अपेक्षा राखीने उत्सर्गने तथा निश्चयने पामवा माटे जे अपवाद के व्यवहार- सेवन कर, ते, अने ते थकी रहित एकांत व्यवहारप्रवृति, अविवेके आचरे ते निरपेक्ष जूठो व्यवहार जाणवो, अने ज्यां व्यवहार जूठो छे, त्यां धर्म तो होयज क्यांयी ! !! कयुं छे जे:वचन निरपेक्ष व्यवहार जूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो; वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार फळ,
सांभळी आदरी कांइ राचो. ११५ प्र०-समहाष्टिनुं स्वरूप उपादान अने निमित्तथी कहो.
उ०-सम्यक्दृष्टिने उपादानपणे रागद्वेषनी हलचलधारानुं
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८१२
विचार रत्नसार.
समपणुं थयुं, परिणति मध्यस्थ थइ तथा निमित्तपणे पुण्य पापना उदय काळे हर्ष के खेद न करे,
मध्यस्थ साक्षिरूप रहे. ११६ प्र०-जिननी चार निक्षेपे भक्ति शी रीते करवी ? उ०-पवित्रताथी एकाग्रचित्तेआशातना टाळी, जिननुं
नाम जपीए ते नाम निक्षेपे जिनभक्ति, २ स्थापना निक्षेपे जिनप्रतिमाजीनी अष्ट प्रकारी, सत्तर भेदी
आदि पूजा भक्ति विधिथी करतां भावपूजा तन्मय थइ परिणमे ते, ३ तथा व्यनिक्षेपे जिनभक्ति ते, जिनना जीव तेना गुणे भावे जिनना जीव जाणी तेमनी भावथकी वंदनादि करवू ते, ४ तथा भाव निक्षेपे जिनभक्ति से, त्रिगडे बेटा समोसरणे अनेक भव्यजीवोने प्रतिबोध आपता एवा जेम हाल श्री सीमंधरादि स्वामी छे तेमने वंदना नमस्कार गुण
स्तुति इत्यादि करवी ते. ११७ प्र०-जीवने कर्म संबंधी करज तथा कर्म जनित भाव
दरिद्रपणुं केम टळे ? उ०-जीव अनादि काळनो राग द्वेष मोहे परिणमे छे,
तेने देवू तथा दरिद्रपणुं बेउ वधे छे; ते टाळवानो उपाय ए छे जे समकित गुणनी प्राप्ति थए, शुद्ध रत्नत्रय धर्म प्रगटवाथी टळे; ते आवी रीते के दर्शनगुण थए द्वेषभाव टळे समभाव प्रगटे, तेथी ज्ञान गुण प्रगटे माटे, तेथी पुद्गलादि परवस्तु उपर मोह टळे, वैराग्य प्रगटे, तेथी चारित्रगुण प्रगटे, तेथी
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विचार रत्नसार.
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मोहनुं दरिद्रपणुं जाय, चरण ठरण गुण प्रगटे. तथा कर्मनुं देवु एटले करज टळे. ते आवी रीते केदर्शनगुणे जन्म करवा रूप भवपरंपरा मटे, ज्ञानगुणे जरानी वेदना मटे, चारित्रगुणे मरण भय मटे, तेथी अमरपद पामी सिफिवरे, एम दर्शनगुणे ज्ञान चारित्र बेउ अनुक्रमे प्रगटे अने ए रत्नत्रयना लामे जन्मजरामरणादि भय टळे, जेम कोइ निर्धनने लक्ष्मी घणी मळे, त्यारे तेनुं देवं अने दरिद्रपणुं बने टळे छे, रत्नत्रय प्राप्तिथी आत्मधर्मरूप धन प्रगटे, रागद्वेष मोहरूप दरिद्रपणुं जाय,
अने जन्म जरा मरणरूप करजना भय टळे. ११८ प्र०-मोहराजानो मूळ मंत्र कयो ? अने तेथी जीव छ
प्रकारे घणा कर्मों बांधे छे ते केवी रीते ? उ०-रागद्वेष ते जीवना परिणाममां वर्ते छे, तेथी कर्म
बांधे, ते उदय आवे त्यारे आर्त्त अने रौद्र ध्यान थाय; तेथी विषय कषाय सेवे, तेथी तेने घणा कर्म बंधाय, तेथी भव परंपरा जीवने टळे नहि; ए मो
हनो मूळमंत्रबीज जाणवो. ११९ प्र०-सम्यग्दृष्टिनो शब्दार्थ तथा लक्षण कहो. उ०-सम्यक् कहेतां यथार्थ, दृष्टि कहेतां श्रमान, सम्यग
ज्ञान ते यथार्थ जाणवू, सम्यक् चारित्र ते यथार्थ आचरवू, तथा उदयकाळे सम्यक् प्रकारे सहन करे अने स्वरूपे जोवू ए लक्षण. सम्यग्दृष्टि श्रावक साधुना जाणवां.
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८१४
विचार रत्नसार.
१२० प्र० - गुणग्राही, गुणगवेषी, सहजकारी (सहायकारी) ते शुं १
उ०- १ गुणग्राही एटले जे जीव सद्गुरू पासे सूत्र सिद्धांत सांभळीने घणी प्रशंसा करे, कीर्ति करे, गर्वादिकना कोइ कर्म औदयिक अवगुण देखीने तेने द्वेष न उपजे, केमके जो खेद के अरूचि थाय तो भक्ति विनयादि रूचिकर मन भग्न थइ जाए, तेथी आगळ गुण थतो अटके, अने होय ते पण कदाच वमी नांखेः २ गुणगवेषी एटले गुर्वादिमांहे कोइपण उपकारादि गुण होय ते संभारीने आक्रोशादिकने ठीधे खेदाय नहि; कदाच माटुं लागे पण पार्छु तेमयी हित बुद्धि, प्रीति, विश्वास, कृपादि अनेक निस्पृहपणे करेला उपकारने संभारी मन निर्मळ याय, अवगुण, दृष्टिमां न आवे, तेथी विनयादि भक्ति चूके नहि; ३ सहायकारि ते गुर्वादिकने अन्न, पाणी, वस्त्र, औषधादिथी घणी सहाय करे; पोते गांठयी, खरचे, गांठे न होय तो कोइ योग्य जीव पासेथी लावीने गुरुनी सहाय करे; तथा सेवा, भक्ति, वैयावच्च, पोते जाते त्रिकरण शुद्धि करी महा शाता उपजावे, प्रसन्नता करावे, जेने परिणामे पोताने अनंत पापनी निर्जरा अने ज्ञानादिकनी परम शुद्धि तथा वृद्धि थाय; जेम शिष्योमां गुर्वादि उपर अंतरंग प्रेम, भक्ति, रुचि, विशेष रसिकता सहित दीप्तिमान् दिन प्रतिदिन अधिकने अधिक थतां जाय. तेम उत्तम
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विचार रत्नसार.
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परमारथी, शुभमति, एकांत निस्पृही, निर्ममत्वी, निरभिमानी, संपूर्ण रीते सरळ, प्रौढपणे गंभीर, परमसमान, दृष्टिमंत, दयालु, कृपालु, पोताना आश्रितोने विषे पूर्ण विश्वासी, सर्वमिथ्याघ्रम रहित थया थका सदानंदपणे प्रवर्तमान होय पण हा ! इति खेदे आ विषम काळना प्रभावे उपर कह्या तेवा सुशियो तथा सुगुरुओ मळवा दुर्लभ छे, अने ज्यां
होय त्यां तेओ निश्चय कल्पवृक्ष समान जाणवा. १२१ प्र०-शाता, अशाता, सुख, दुःख विषे निमित्त तथा
उपादान कारण समजावो. उ०-शाताऽशातासुखदुःखयोश्चायं विशेषः शाताऽशाताऽ
नुक्रमेण उदयप्राप्तानां वेदनीयकर्मपुद्गलानां अनुभवरूपं तथा सुखदुःखेन परोदीर्यमाणवेदनीय अनुभवरूपं. शातादि पूर्वोक्त चारे अनुक्रमे उदयप्राप्त शातादि वेदनीय कर्मना पुद्गलोनो शाता, अशाता, सुख, दुःखरूप अनुभव छे; तथा सुख दुःखने उदयमां लावनारा उदीरणारूप जे मूळ हेतु ते वेदनीयकर्म अनुभवरूप शातादि उपादान कारण छे; अने शाता अशाता उदय आव्यां जे कर्मपुद्गलो तेनुं वेदg, भोगवq ते अशुभ उपादानरूप छे, अने सुख, दुःख तेहना फळ छे, ते फळ पाक्यां एटले उदय आव्यां ते वेदनीयकर्मर्नु भोगव, ते भोगवटो निमित्तरूप थयो, अर्थात् सुख दुःखने भोगवतां थकां जो हर्ष शोक करे, मदोन्मतता के सूर्णा
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करे तो फरी तेवांज शाता अशातारूप वेदनी कर्म बांधे, ते बंध उपादान कारण जाणवुं, अने पूर्वोक्त हर्ष शोकादि प्रवृत्ति ते निमित्त थयुं जाणवुं, एम कारण कार्ये निमित्तथी उपादान अने उपादानथी निमित्त एम जेवां वृक्ष तेवां फळ तथा जेम बीजमांथी वृक्ष अने वृक्षमांथी बीज नीपजे छे तेम कर्मयी शाता अशातादि जीव पामे छे, अने फरी अज्ञानपणे समभावे न रहेवाथी एवांज बांधी संसार परंपरामां भमे छे; शाता अशाता आत्माश्रित जीवविपाकी प्रकृति छे, अने सुख दुःख पुद्गलाश्रित होवाथी पुद्गलविपाकी प्रकृति छे.
१२२ प्र० - वेदना केटला प्रकारनी; कइ, तेनुं स्वरूप दृष्टांतथी समजावो.
उ०- १ वेयणादुविहा, अम्भोपगमिया उक्क्कमियाः स्वयमभ्युपगम्यते वेद्यते यथा साधवः केशलुञ्च नातापनादिभिः वेदयन्तीति अभ्युपगमिकी वेदना, उपक्रामिकी तु स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन च उदयं उपनीतस्य वेद्यस्य अनुभव इत्यर्थः, जे वेदनीयकर्म काळ परिपाके स्वयमेव सहज उदय आवे ते समभावे वेदीने खपावे ते उपक्रामिकी, अने २ जेम साधुमहाराजा केशलोच आतापनादि परिषह वेदनाने पोते उदीरity उदीरी समभावे वेदी कर्मनी निर्जरा करे छे ते वेदनाने अभ्युपगामिकी कहिये. तथा पाठान्तरे जूनी प्रतिमा नीचे प्रमाणे छे एक वेदनी कर्म काले पाकीस्वभावे उदय आपे ते समभावे वेदीने खपावे
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ते अभ्युपगामिनी वेदना अने एक उदीरणाई करी उदय लावीने वेद कर्मना पुद्गल समभावे वेदी खपावे
ते उपक्कामिकी वेदना जाणवी ए भाव, १२३ प्र०-देशना शुरू स्याद्वादे जैनधर्मनी छे एम क्यारे
कहेवाय ? उ०-जिनवचनानुसार देशना चतुर्विध छे:-१ कारण
कार्यरूप, २ निमित्त उपादान सहित, ३ द्रव्य भाव
युक्त, ४ निश्चय व्यवहारनययुक्त. १२४ प्र०-बावीस परिषहमां शीत केटला अने उष्ण केटला ?
शीत अने उष्ण ते शुं ? अनुकुळ अने प्रतिकुळ केटला, अष्ट कर्मना विभागे कया कर्मना कया कया
परिषहो छे ? उ०-स्त्री अने सत्कार ए बे शीत एटले मनने शाता
कारी माटे अनुकुळपरिषहो छे, बाकीना उष्ण एटले मनने संतापकारी माटे प्रतिकुळ छे; एम आचारांगे तृतीयाध्ययनेचुरेटीकामध्ये कह्यु छे. तथा उत्तराध्ययनसूत्रमा कयुं छे. हवे ज्ञानावरणीयना क्षयोपशमे प्रज्ञा अने ज्ञानावरणना उदये अज्ञान ए बे छे; वेदनीयना उदयेः-१ क्षुधा, २ पिपासा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ डंस, ६ चर्या, ७ मळ, ८ सज्जा, ९ वध, १० रोग, ११ तृण स्पर्शः मोहनीयना उदयेः-१ अचेलक, २ स्त्री, ३ अरति; ४ आक्रोश, ५ याचना, ६ निसिहिया, ७ सत्कार अने ८ सम्यकत्व परिषह ते मिथ्यात्वमोहना उदये
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होय; तथा अलाभ ते अंतरायना उदये होय ते सर्वे मुनिमहाराजा शुद्धात्मोपयोगस्वरूप विचारी महा वैराग्यभावने भावतांथकां सम्यकप्रकारे सहे पण अस्थिरता के खेदादि काई न करे, त्यां परिषह एटले समस्त प्रकारे समभावे सहवं, जे कर्मोदये आवे ते; अने उपसर्ग ते स्वकृत या परकृत पीडा जे प्रगटे ते समभावे सहेवी, अथवा मतांतरे उप एटले समीपे अने सर्ग एटले आवीने उपजे जे ते
उपसर्ग स्वाश्रित छे अने पराश्रित परिषह छे. १२५ प्र०-बंध, उदय, उदीरणा अने सत्ता ए चारमा केटली
आत्मिक अने केटली पौद्गलिक छे ? उ०-उदय अने सत्ता पौद्गलिक; बंध अने उदीरणा आ
त्माश्रित छे. १२६ प्र०-अष्ट पुद्गल वर्गणानुं अल्प बहुत्व कहो. उ०-आठ वर्गणामांहे औदारिकना थोडा; तेथी अनंत
गुणा वैक्रिय, तेथी घणा आहारक, तेथी घणा तैजस, तेथी घणा भाषाना, तेथी घणा श्वासोच्छ्वासना, तेथी घणा मनना अने तेथी घणा कार्मणनी
वर्गणाना पुद्गलो जाणवा. १२७ प्र०-बाबीश परिषह पैकी कया कया परिषहो कया कया
कर्मथी उपजे छ ? उ.-ज्ञानावरणीथी २, मोहनीना ८, वेदनीना ११, अंत
रायनो १, ए कर्मथी उपजे. अत्र गाथा दसणमोहेदंसण परिसहोपनाणनाणं पढममि । चरिमेअलाभ परिसहसत्तेव चरित्तमोहंमि ॥१॥
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अक्कोसे अरईईत्थी, निसिहिआचेव जायणाचेव, सक्कारपुरस्तक्कारो, ईक्कारसवे यणिज्जमि ॥ २ ॥ पंचेवअणुपुथ्वी, चरियासिज्जात हेवजल्लेय । वहरोगतणुफासा, सेसेसुनत्थिवियारो ॥ ३ ॥ इति भाव. १२८ प्र० - उपसर्ग अने परिषहमां शो फेर छे ?
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उ०- उपसर्ग ते आत्मकर्मजनित छे, उपसमीपे स्रष्टुं उपसर्ग ते माटे, तथा परिषह ते परजनित छे. परना निमित्तथी कह्या ते सहेवुं ' परिसमन्तात्सह्यते इति परिषह ' इति उपसर्ग परिषदनो अर्थ विचारखो इति भाव.
१२९ प्र० - चार प्रमाणे करी वीर परमात्मा मळ्या क्यारे गणाय ? ते सिद्ध करो.
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उ०- जूनी प्रतिमां नीचे प्रमाणे पाठ छे. " तद्यथा अथ प्रमाण च्यार अनुयोगसूत्रे कह्या छे, अनुमान प्रमाण १, उपमान प्रमाण २, आगम प्रमाण ३, प्रत्यक्ष प्रमाण ४; ते मध्ये आज श्री वीर स्वामी प्रत्यक्ष प्रमाणे किम मले ? ते थापना निक्षेपाथी मले ते किम ? समभाव शांत मुद्रापर्यकासननो उत्पादे अने रागद्वेषनो विनाश एहवी असलनी नकल ( थापना ) जिनप्रतिमा ते देखीने भावथी श्रीवीरस्वामी प्रत्यक्ष प्रमाणे मिले. जिन प्रतिमा ते जिन सरिखी ते जिनप्रतिमानी भक्ति जिनभावे कीधाना फल श्रावकने महानिसिथसूत्रे कहां छे. ' अयंकएसढो, इति वचनात्, तिहवारे जिन प्रतिमानी भक्ति कीधी
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ते जिननी कीधी इम 'कारणे कार्योपचारात् । इम जिननी स्थापनाथी आज प्रत्यक्ष प्रमाणे श्री वीर मल्या कहीए 'अत्र संदेहोनास्ति' इति भाव." तथा छापेली प्रतिमां नीचे प्रमाणे पाठ छे. ___ अविरोध, अस्खलित, अविसंवादि, निःस्वार्थ, एकांत, दयामय, संपूर्ण सत्य, मधुर, प्रिय, गंभीर, अमर्म प्रकाशक, सर्वज्ञ अने सर्वदर्शिपणाना लक्षणोए पूर्ण, तथा मुद्राकारे शांत सुधारसमय रागद्वेषादि चिन्ह रहित इत्यादि अनेकशास्त्रवचन गोचर वीरपरमात्मा आगमपणे सिद्ध करीए. २ अनुमान प्रमाणे जेम धूम्र दिठे अग्निनो निश्चय थाय तेम पूर्वापर महात्माओना तिहासिक संबंध तेना विधविध उत्कृष्ट सदाचार प्रवर्तक पुरूषोना प्रमाणोए ज्यारे ऐंसी ने, वातो अनुभवथी सत्य सिद्ध थाय तो तेनी शेष दस वातो पण सत्यज मानी लेवाय छे, अने होय छे पण तेमज एवीज रीते श्री वीर परमात्माना अनेक वचनो अत्यारे बीजा अन्य दर्शनिना वचनो करतां सत्य, अविरोधी, अने प्रमाणभूत थाय छे, तो कोइक सूक्ष्म, अगम, अगोचर वात छद्मस्थ मंदबुद्धिना ग्राह्यमां न आवी शके, तोपण बीजी घणी वात मळे छे तेने अनुमाने ते पण सत्यज होवी जोइए; एम वीरप्रभुना वचनो पण युक्ति तथा न्याय सिफ़ सत्य होवाथी वीरपरमात्मा अनुमानपणे पण सिफ़ थया; ३ उपमा प्रमाणे पुरिससिहाणुं एटले तप तेजे तथा
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परिषह उपसर्ग सहन करवामां निर्भय, साहसिक, केसरि सिंहसमान पराक्रमी, वीरपरमात्मा उपमा प्रमाणे पण सिद्ध थया जाणवा; ४ प्रत्यक्ष प्रमाणे जिनप्रतिमा जिन सरखी होवाथी वीरपरमात्मास्थापना निक्षेपे सिझ थया, कारण जे समभाव, शांत मुद्रा, विशुद्ध पर्यकासन इत्यादिनो उत्पाद, रागद्वेषनो व्यय, अने मूळस्वरूपे ध्रुव, सच्चिदानंद धनमय एवी असलनी नकल श्री जिन प्रतिमाजी छे ते देखी भावथी श्री वीरपरमात्मा प्रत्यक्ष सिद्ध थया जाणवा; स्थापनाजीनी भक्ति ते साक्षात्नी
बराबरज छे, कारणे कार्य उपचारे सत्य छे. १३० प्र०-जीव अष्टकर्मवर्गणादलिक केवी रीते वहेंची आठे
कमने आपे छे ? उ०-समय समय जीव कर्मवर्गणा ग्रहे छे, ते आठे कर्मने
वहेंची आपे छे ते आवी रीतेः-सर्वथी थोडां आयुकर्मने, तेथी विशेषाधिक नाम अने गोत्रने, ते बेउमां मांहोमांहे सरखां; तेथी १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ तथा अंतराय ए त्रणने विशेषाधिक पण मांहोमांहे सरखां दळ आपे, तेथी मोहनीयने संख्यातगुणाधिक, तेथी वेदनीयने अधिक; एम वेदनीयकर्मने सर्वथी अधिक दळ मळे छे, केम जे वेदनीय विपाक जीवने थोडा दळे प्रगटपणे जणाय
नहि तेथी. इति भगवतीसूत्रे का छे. १३१ प्र०-जीव विग्रहगति करे तो तेनो उत्कृष्ट काळ केटलो ?
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उ०- त्रसनाडी बहार एकेंद्रियथावर कायजीव विदिशीए उपजनारने पांच समय लागे छे.
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१३२ प्र० - अभिसंधिवीर्य अने अनभिसंधिवीर्य ते शुं ? उ०- अभिसंधि वीर्य ते उपयोग पूर्वक आत्मवीर्यः अने अनुपयोग आत्मवीर्य ते अनभिसंधिवीर्य.
१३३ प्र० - समकिती श्रावकने गृहस्थपणे छठ्ठे गुणठाणं स्पर्शे के नही ?
उ०- सम्यग्दृष्टिए देशविरति गृहस्थावास छतां कोइ जाणस्ये जे ते चोथा पांचमां गुणठाणावालाने निर्मल अध्यवसाए ध्यानदशाए शुभयोगे शुभ धर्मध्याने छठ्ठा सातमा गुणठाणाना परिणाम आवे पछे ते कालान्तरे अंतर्मुहूर्तमात्र रहने पछे मटी जाय. पोताना गुणठाणा माफक परिणाम रहे एवं कहे ते असत्य स्वमति कल्पना पण कोइ ग्रन्थोक्त नहीं. तत्रोत्तरं चोथा पांचमाथी भावचारित्र गुण आवे चढते १३ मा १४ सुधी चढीने मरुदेव्यादिनापरे पुण्याढ्य राजानीपरे सिद्धिवरे पाछो ते गुणठाणा फरसीने पडे नहि. गृहस्थवासी गमे तेवो उत्कृष्ट श्रावक होय, तोपण तेने गुणठाणं पांचमुंज होय छे; पण छ सातमुं न कहेवाय; केमजे गुणठाणानी प्राप्ति कषायना क्षयोपशमने आधीन छे, अने अध्यवसायनी निर्मळता ते निज परिणतिने आधीन छे, ते परिणति पोताना अव्यवसायनी निर्मळताए कषायनो क्षयोपशम करीने अधिक उंचा गुणठाणानी परिणतिरूप
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करे तो अधिक गुणठाणी कहेवाय, नहि तो भावनी
शुद्धाशुद्ध तारतम्यता कहेवाय. १३४ प्र०-सम्यक्त्व मोहनीयने कोण वेदे, अने क्या सुधी वेदे,
अने तेनुं स्वरूप शुं ? - उ०-क्षयोपशम समकितीने समकित मोहनीनो उदय होय
अने उपशमिक अने क्षायिकने ते न होय; तेमज वेदकने एक समयनोज अतिसूक्ष्म काळ होवाथी गणत्रीमां ली, नथी, सम्यक्त्व मोहिनी ते क्षयोपशमीने होय तथा उपशमीने सत्ताए होय, तेथी प्रदेशे अने रसे अनुक्रमे, ते संकाकखादि सहज विभ्रमता वेदे, कोइक जिनप्रणीत सूक्ष्म अर्थभाव मध्ये
मुंझाय ते सम्यक्त्वमोहनीयतुं स्वरूप जाणवू. १३५ प्र०-उत्सर्ग जने अपवादनुं शुं स्वरूप छे ? उ०-उत्सर्ग ते व्यवहारमार्ग अपवाद ते निश्चयमार्ग यथा
सायुने पृथ्वं कायादि षट्कायनी विराधना निषेधी छे. कदाचित् कारणे नदी उतरवी पडे तथा आहारादिकने अर्थे गुरुदेव वंदनाने अर्थे चालता विराधना थाय ते उत्सर्ग. ते माटे अपवावादे पञ्चक्खाण महाव्रतना होई अने कांइक अण कारण पडे उत्सर्गमार्ग होय, तथा वाचानान्तरे कोइक ग्रन्थे उत्सर्ग ते उत्कृष्टो निश्चयमार्ग कह्यो छे. अने अपवाद ते कोमलमार्ग माटे व्यवहारमार्ग को छे, तेहनो स्वरूप आगे लख्यो छे ए भाव. उत्सर्ग मार्गनी चर्चा घणी छे, पण इहां तो अल्पबुद्धिए जेहबु जाण्युं तेहQ लख्युं छे. इति भाव.
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१३६ प्र० - दीवा प्रमुख ज्योतिमय पदार्थोंना प्रकाश पडे छे, ते दीवामध्ये रहेला अनिकाय जीवना पर्याय छे ?
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उ०- दीवा मध्ये जे अन्निना जीव छे, ते मांहेज परिमी रह्या छे, पण दाढकरूप पर्याय छे ते बाहेर नीळे नहि, तथा दीवाना प्रकाशरूप पुद्दल जे बाहेर दीसे छे, तेतो विस्रसा पुद्गलनी पर्याय छाया छे. तथा दीवानी बाहेर जे प्रकाशरूप पुद्गल दीसे छे ते, तथा प्रकाशरूप पुद्गलना निमित्ते, अपर विस्रसा पुद्गल श्रेणिबद्ध जमाव थाय छे ते अचित्त दीसे छे. पण ते अग्निकाय जीवना पर्याय नहि, तेना (अग्निना) गुण पर्याय तो दाहक रूपे छे, ते ज्यां व्यापे त्यां बाळी भस्म करे; माटे बाहिर पडतो प्रकाश विस्रसा पुद्गल पर्याय (अचित) जाणवा; जेम आरसीमां मुख जोतां आपणा शरीर समान सर्व प्रतिबिंबित पुद्गल दीसे छे, ते कांइ आपणा शरीरना पर्याय, आरसीमां जतां नयी, पण ते आरसीनुं निमित्त पामीने त्यां शरीर मुखादि जेवा विस्त्रसा पुद्गल, तत्काल श्रेणिबद्ध तद्रूप परि
मिने जमाव थाय छे, पण ते जीवना पर्याय न जाणवा; एवीज रीते शरीरनी छाया विगेरे विस्त्रसा पुद्रलजमाव जाणवो, तेम दीवा प्रमुखना प्रकाशादिमां पण जाणवुं.
*
* श्रीमद् देवचन्द्रजीए दीवाना प्रकाशने विस्वसा पुद्गल मानी अचित को छे. आ बातमां ये मत छे. केटलाक मुनियो श्रीमद देवचन्द्रजीनी पेठे दीपकना प्रकाशने विस्वसा पुल मानी अचित गणे छे
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१३७ प्र०-वक्ता तथा श्रोताना चौद चौद गुण कया कया
छे ते कहो. उ०-वक्ताना चौद गुणो:-१ आगमोक्त सोळबोलना
जाण, २ शास्त्रार्थ विस्तारवंत, ३ वाणीमां मीठाश, ४ प्रास्ताविक अवसर ओळखे, ५ सत्य बोले, ६ सांभळनारना संदेह छेदे, ७ बहु शास्त्रवेत्ता गीतार्थ उपयोगी होय, ८ अर्थ विस्तारी संवरी जाणे, ९ व्याकरण रहित कठिनभाषा के अपशब्द न बोले, १० वाणीए सभाने रीझावे, ११ वाणी सांभळीने श्रोता रसस्वाद पामे, १२ प्रश्नार्थवंत, १३ अहंकार रहित, १४ संतोषादिधर्मवंत. श्रोताना चौद गुणो :
१ भक्तिवंत, २ प्रियभाषी, ३ निरभिमानी, ४ सांभअने रात्रे उपाश्रयमां दीपकना प्रकाशमां पुस्तको वांचे छे. शरीरपर प्रकाश पडे छे ते अदाहकविलसा पुद्गलरूप छे एम माने छे. अनन्त परमाणुओनो स्कंध बने छे तेनी अवश्य छाया होय छे. अग्निकायनां पुद्गलोनी, मणिनी छायानी पेठे छाया पडे छे. दीवानी चारे तरफ प्रकाश मय विस्नसा पुद्गलो छे, तेन अग्निना छाया-प्रतिबिंब पुद्गलो छ माटे छाया प्रतिबिंब पुद्गलो छे ते विस्त्रसारूप होई अचित्त छे. अन्य सचित्त मनुष्य वगेरे छकायना प्रतिबिंब छाया पुद्गलोनी पेठे-ए प्रमाणे आगमोक्तयुक्तियो अनेक जणावे छे. श्रीमद् देवचन्द्रजी बहुश्रुत गीतार्थ द्रव्यानुयोगी हता. तेमना गुरुआनो परंपरापण ए मान्यतावाळी होवी जोईए. तपागच्छमां पण केटलाक मुनियोनी तेवी मान्यता तथा प्रवृत्ति संभळाय छे. बीजा पक्षवाळाओ दीवाना पुद्गलोनी उजेही माने छे. तेओ ग्रन्थना पाठनी साक्षी आपे छे. ( तत्त्वं केवलिगम्यम् ). शो. बु. सू.
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ळवा उपर रुचिवंत, ५ चपळता रहित एकाग्र चित्ते सांभलीने धारे, ६ जेवा सांभळ्या तेवा प्रगट अक्षर कही देखाडे तेवो स्मरण शक्तिवंत, ७ प्रश्ननो जाण, ८ विस्तारित शास्त्रार्थ रहस्य समजे, ९ धर्म कार्ये आळसु न होय, १० धर्म सांभळतां निद्रारहित होय, ११ तात्त्विक बुद्धिवंत होय, १२ दातार होय, १३ धर्म सांभळनारा उपर प्रेम होय तथा तेनी पछवाडे तेना गुण प्रशंसे, १४ निंदा, विकथा, वाद, विवाद,
कदाग्रह, ममतादि रहित विनयी सुशील होय. १३८ प्र०-पुराणो केटलां छे ते जणावो. उ०-पुराण अढार छे तेना नाम. १ ब्रह्मपुराण, २ पद्म
पुराण, ३ विष्णुपुराण, ४ शिवपुराण, ५ भागवतपुराण, ६ नारदपुराण, ७ माकैडपुराण, ८ अग्निपुराण ९ भारतपुराण, १० ब्रह्मावर्तपुराण, ११ लिङ्गपुराण, १२ वराहपुराण, १३ स्कंधपुराण, १४ वामनपुराण १५ कर्मपुराण, १६ मत्स्यपुराण, १७ गरुडपुराण,
१८ ब्रह्मांडपुराण. ए पुराणना नाम जाणवा. १३९ प्र०-पुद्गल परमाणुमां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शब्दादि गुणो
छे; तेमां शब्दगुण ते क्याथी आव्यो, शक्ति होय तेनी व्यक्ति संभवे छे पण अहिं शक्तिरूपेज परमाणुमां शब्दगुण देखातो नथी, छतां शब्दवडेज काने सांभळीए छीये ते जीवनो गुण छे के
पुद्गलनो ? उ०-परमाणुमां बे स्पर्श छे, कर्मवर्गणामां चार स्पर्श छ
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विचार रत्नसार.
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ते शीत, उष्ण, स्निग्ध, अने लखो, अने औदारिकादिशरीरमां आटे स्पर्श छे तो बीजा चार स्पर्श हलको, भारी, संवाळो अने खरबचडो एक्यांयी आव्या ? तेनो उत्तर जे संबंध बे प्रकारना छे:१ समवाय संबंध अने संयोगसंबंध, त्यां समवाय संबंध ते सहचारी वस्तु गुणपर्यायादि जेम षट् द्रव्यमां छे तेम जाणवो; अने संयोगसंबंध ते all fea भिन्न पुलो मळे थके प्रयोगे अपर नवीन गुण के भाव प्रगटे ते, जेम खारानी साथे हळदरनो संयोग थये रताशगुण नीपजे तेम जाणवुं; एवीज रीते आत्मा अने पुद्गलने संयोगे शब्दनामा गुण प्रगट्यो तेम वर्णादिगुणवंत कर्म परमाणुमां चार स्पर्श समवायसंबंधे पुद्गलाश्रित हताज, अने पछी जीवशरीरादि संयोगसंबंधे आठ नीपज्या.
१४० प्र० - जीव परभव आयु केवा परिणामे बांधे ?
उ०- योग, कषाय, ध्यान अने लेश्या ए चारना शुभा - शुभ यथायोग्य एकत्र संयोगे, जीवने परभवायु बंधाय छे.
१४१ प्र० - षद्रव्यना क्षेत्रकालभावादि त्रीस भेद कया, तथा प्रकारांतरे पण द्रव्यादिक चार भेदनुं स्वरूप कहो.
उ०- षद्रव्य मांहेला प्रत्येकना पांच पांच गुण छे ते आ प्रमाणे
१. धर्मास्तिकाय:- १ द्रव्यथी एक, २ क्षेत्रथी लोकम
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विचार रत्नसार.
माण, ३ काळी अनादि अनंत, ४ भावयी अरूपी (अवर्णादि),
५ गुण चलणसहायक.
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२. अधर्मास्तिकायः - १ द्रव्यथी एक, २ क्षेत्रथी लोकममाण, ३ कालथी अनादि अनंत, ४ भावथी अरूपी (अवर्णादि), ५ गुण स्थिरतासहायक.
३. आकाशास्तिकाय:- १ द्रव्यथी एक, २ क्षेत्रथी लोकालोकप्रमाण, ३ कालयी अनादिअनंत, ४ भावधी अरूपी ( अवर्णादि ), ५ गुण अवकाशदानसमर्थ.
४. काळ:- १ द्रव्यथी अनेक एटले अनंताअनंत, २ क्षेत्रथी मनुष्य लोक मध्ये, ३ कालथी अनादिअनंत, ४ भावथी अरूपी ( अवर्णादि ), ५ गुण नवा, पुराणा, वर्तना
लक्षण.
५. पुद्गलास्तिकाय:- १ द्रव्यथी अनेक एटले अनंता, २ क्षेत्रथी लोक मध्ये, ३ काळथी अनादिअनंत, ४ भावथी रूपी एटले वर्णादियुक्त, ५ गुण पुरण, गलण, मिलण, विखरण, सडण, पडण, विध्वंसन, धर्मलक्षण.
६. जीवास्तिकाय:- १ द्रव्यथी अनेक एटले अनंत, २ क्षेत्रथी लोक मध्ये, ३ कालथी अनादिअनंत, ४ भावथी अरूपी ( अवर्णादि ), ५ गुण चेतनाउपयोगवंत.
एवी रीते षट्द्रव्यना द्रव्यादि अपेक्षाए, त्रीश भेद दर्शाव्या प्रकारांतरे, प्रकारांतरे निश्चयव्यवहारनये द्रव्य क्षेत्र काल भावे कथंचित् सप्रदेशी, कथंचित् अप्रदेशी, एम भजनाए विध विव अपेक्षाए अनेक मेद स्वरूप विस्तारित ग्रंथांतरथी गुरुगम्य जाणी लेवं. जूनी प्रत्यन्तरे नीचे मुजब छे.
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पुनरपि द्रव्यथी क्षेत्रथी कालयी भावयी स्युं ? ते कहे छे १ द्रव्ययी अप्रदेशी, बीजुं क्षेत्रथी अप्रदेशी २, चीजें कालथी अप्रदेशी ३, चोथे भावथी अप्रदेशी ४, हवे क्षेत्रथी ते नियमा अप्रदेशी ते द्रव्ययी स्यात् समदेशी अप्रदेशी ४. हवे कालथी स्यात् सप्रदेशी अप्रदेशी. कालयी पण भजना, क्षेत्रथी स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी, हवे भावथी स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी एणी रीते लेजो ए भाव, हवे जे द्रव्यथी सप्रदेशी ते क्षेत्रथी समदेशी छे, जे कालथी सप्रदेशी छे ते भावथी सप्रदेशी छे ४. हवे सप्रदेशी ते क्षेत्रथी स्यात् सप्रदेशी, अप्रदेशी ते द्रव्यथी समदेशी नियमा ते द्रव्यथी स्यात् सप्रदेशी स्यात् अमदेशी ते द्रव्यथी समदेशी होइने अप्रदेशी पण छे. हवे अप्रदेशी कालथी स्यात् समदेशी, समदेशी स्यात् अप्रदेशी, कालथी स्यात् समदेशी स्यात् अप्रदेशी, ते क्षेत्रथी स्यात् समदेशी स्यात् अप्रदेशी, हवे भावथी स्यात् समदेशी स्यात् अप्रदेशी भावथकी भजना भावथकी स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी ने कालथी पण स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी इति भाव.
१४२ प्र० - षट् द्रव्यना गुणपर्यायनुं शुद्धाशुद्ध स्वरूप यथार्थ विस्तारे समजावो.
उ०- षद्रव्यमध्ये प्रथम जीवद्रव्य लइए, ए जीव बे प्रकारे छे, एक शुद्ध अने बीजो अशुद्ध द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मादि सर्व कर्मकलंके रहित शुद्ध निष्पन्न; स्वरूपी सिद्धालये अनादि तथा सादि अनंत भांगे, लोकाग्रे बिराजता सिद्धपरमात्माओना
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जीवद्रव्य शुद्ध जाणवा; तथा कर्मावरणे सहित मलिन आत्मप्रदेशी, रागद्वेषादि भाव मलिन परिणतिवंत चतुर्गति भ्रमण लक्षणरूप अशुद्ध जीवव्य जाणवा; हवे तेना गुण अने पर्याय विषे लखीए छीए:-जीवना गुण पण बे प्रकारे छे. १ शुद्ध, २ अशुद्ध, त्यां शुद्धगुण ते केवळज्ञानादि अ. नंतगुणलक्ष्मीरूप परमशुद्धक्षायिक भावना गुण ते तथा मतिज्ञानादि दश भेद शुद्धाशुफ क्षायोपशमिक भावना गुण ते अशुद्ध जाणवा. हवे जीवना पर्याय पण बे मेदे छे, एक व्यंजनपर्याय अने बीजा अर्थ पर्याय, वळी व्यंजन पर्याय पण बे भेदे छे, एक शुद्ध अने बीजा अशुद्धः त्यां शुद्ध व्यंजन पर्याय ते चरम शरीर प्रमाण. किंचित् उणी अवगाहनावंत, सिद्धावस्थावंत ते शुद्ध व्यंजन पर्यायवंत जीव जाणवा; तथा नरनारकादि चतुर्गतिरूप अशुद्ध व्यंजनपर्याय जाणवा, अर्थ पर्याय पण बे भेदे छे:--एक शुद्ध अने बीजा अशुद्ध त्यां आपणी गुणश्रेणि मध्ये षड्गुणहानिवृधिरूपअगुरुलघुपर्याय ते शुभअर्थपर्याय, अने मतिज्ञानादि अवलोकन अवस्थिति एक अक्षरने अनंतमे भागे पर्यायरूप जे ज्ञानादि चेतन. उपयोग स्थिति ते अशुद्ध पर्याय जाणवो, तथा उत्पाद व्ययप्रवरूप जीवना शुभाशुद्ध द्रव्यगुणपर्याय जाणवा, जेम मतिज्ञान उपयोगनो व्यय, श्रुतज्ञानोपयोगनो उत्पाद अने ज्ञानगुण ध्रुव ते शुद्ध भेद;
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तथा मनुष्यगतिनो व्यय, देवगतिनो उत्पाद अने जीवद्रव्य तो शाश्वत ध्रुवरूपे छे, ते अशुझमेद जाणवो. हवे पुद्गलद्रव्यना मुणपर्याय विचारीए, त्यां ते पुद्गलद्रव्य पण बे भेदे छे, एक शुद्ध अने बीजो अशुद्ध, आकाशप्रदेशे रहेल शुद्ध अविभागी अच्छेद अभेदरूप परमाणुओ ते शुद्ध पुद्गलद्रव्य, अने द्रयणक व्यणुकादि परमाणुओना बनेला जे स्कंधो ते अशुद्ध पुद्गलद्रव्य, हवे पौद्गलिक गुण पण बे भेदे छे, एक शुद्ध अने बीजो अशुद्ध, त्यां शुफ ते निर्विभागी वीसगुणयुक्त पुद्गलद्रव्यगुण जाणवा. वीसगुणादि सहित अनंत गुणमिश्रित द्वयणुकादि स्कंधरूप मुख्य गमन रूपान्तर गुगनी गौणता अने सत्तागुणनी मुख्यता तेने अशुफपुल गुण कहीए, वळी पुद्गलपर्याय पण शुफ अने अशुद्ध एम बे भेदे छे, ते पण व्यंजन अने अर्थना भेदे द्विविध छे, त्यां शुरू आकाशप्रदेशे अविभागी षट्गुणहानिवृद्धिरूप शुद्ध परमाणु पर्याय ते अने अशुद्धव्यंजनपर्याय ते स्थूल सूक्ष्म परिणामरूप द्वयणकादि स्कंध पर्याय ते; वळी शुद्धअर्थपर्याय ते पोतानी गुणश्रेणि मध्ये घट्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमन पर्याय ते, तथा अशुद्धअर्थपर्याय ते द्वयणुकादि स्कंधरूप गुणविगति, तीव्र मन्द तारतम्यभेद परिणमन पर्याय ते; जेम पूर्व स्कंधनो व्यय, वर्तमाननो उत्पाद
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विचार रत्नसार.
अने पुद्गल द्रव्य तो शाश्वत छ, एटले जेम सोनानो कंदोरो भांगीने सोनाना बाजुबंध कराव्या त्यां कंदोरानो .व्यय, बाजुबंधनो उत्पाद अने सोनु ते ध्रुव. हवे धर्मास्तिकायना द्रव्य गुण पर्याय विचारे छे. धर्मास्तिकाय शुफद्रव्य लोकप्रमाण, असंख्यात प्रदेशी, अखंड, एक आकृतिरूप अरूपि शुद्धव्यंजन पर्यायरूप धर्मास्तिकायदव्य जाणवू, तथा पोतानी गुणश्रेणि मध्ये षद्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमन करे त्यां शुद्ध अर्थपर्याय धर्मास्तिकायना कहिये, गुण ते जीव पुद्गलने गतिसहायकरूप, तथा उत्पादव्ययध्रुवपणे पदगुणहानिवृद्धिरूप पर्याय जाणवाः-जेम चलणगतिनो उत्पाद, स्थितिनो व्यय अने द्रव्यसत्ता ध्रुव शाश्वत जाणवी, एवीज रीते अधर्मादि बीजा त्रण द्रव्योर्नु पण किंचित स्वरूप लखीए छीए:---अधर्मनो गुण जे पुद्गलने स्थितिसहायक, असंख्यातप्रदेशी, लोकप्रमाण, अखंड, पद्गुणहानिवृद्धिरूप परिणाम, ते शुफ पयीय, त्यां अखंडआकृतिरूप शुद्ध व्यंजनपर्याय जाणवो अने ज्यां षट्गुणहानिवृद्धि करे त्यां शुद्ध अर्थपर्याय जाणवो, जेम स्थितिनो उत्पाद, गतिनो व्यय, अने द्रव्यसत्ता ध्रुव जाणवी, काळ द्रव्यनो गुण वर्तना लक्षण, पंचद्रव्यनो वर्तना पर्याय सर्व द्रव्यनो पर्याय, असंख्यात लोकप्रमाण शुद्ध पर्याय कहीए. वर्तमान समयनो व्यय, अनागत समयनो
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कालद्रव्य
उत्पाद, द्रव्य सत्ता ध्रुव, उपचारे एक आकृति ते शुद्ध व्यंजनपर्याय हवे आकाशद्रव्यनो गुण अवकाशदानलक्षण, लोकालोकप्रमाण, अनतप्रदेशी, घटाकाशनो उत्पाद, पूर्ववटाकाशनो व्यय अने द्रव्य सत्ता ध्रुव जाणवी तथा लोकालोक प्रमाण अखंडआकृतिरूप शुद्धव्यंजनपर्याय कहीये, एम षद्रव्यनुं पर्यायादि किंचित् स्वरूप कहिने तेमां जे कांड विशेष जाणवा योग्य छे ते कहे छे:--
गाथा -- परिणामी जीवमुत्ता, सपएसा एगखित्त किरियाय. णिचंकारणकत्ता, सव्वगय इयर अध्पवेसे ( १ )
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१ जीव अने पुद्गल परिणामी, शेष चार अपरिणामी, २ जीवद्रव्य ते जीव चेतनरूप अने शेष पांच अजीव अचेतन जडरूप छे, ३ पुद्गल रूपी मूर्तिमंत छे, शेष पांच अरूपी छे, ४ काल, अप्रदेशी छे, शेष पांच सप्रदेशी छे, धर्म, अधर्म अने आकाश ए त्रण एक अने शेष ऋण अनेक, ६ आकाश क्षेत्र छे, अने शेष पांच क्षेत्री छे, ७ जीव अने पुल बे सक्रिय छे, शेष चार अक्रिय छे, ८ जीव अने पुद्गल बे व्यवहारथी अनित्य शेष चार नित्य छे, ९ जीव अकारणरूप अने शेष पांच कारणरूप छे, १० जीव कर्ता अने शेष पांच अकर्ता छे, ११ आकाश सर्वगत छे, अने शेष पांच असर्वगत छे.
•
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विचार रत्नसार. mmmm १४३ प्र०-वेदना संबंधी चौभंगी कहो.
उ०-१ अल्पवेदना अल्पनिर्जरा ते देवताओने, २ महा
वेदना अल्पनिर्जरा ते नारकीने, ३ महावेदना महानिर्जरा ते अप्रमत्त साधुने, गजसुकुमालनीपरे; ४. अल्पवेदना महानिर्जरा ते शैलेशीकारकमहात्मा
चौदमा गुणठाणी परमात्मस्वरूप सन्मुखी जाणवा. १४४ प्र०-सम्यक्त्व अने मिथ्यात्वनी चौभंगी भिन्न भिन्न जी
वाश्रित कहो. उ०-अनादिअनंतमिथ्यात्व अभव्यने, २. अनादिसांत
मिथ्यात्व भव्यने ३. सादिसांतमिथ्यात्व प्राप्त
सम्यक्त्ववमनारने; ४. सादि अनंत भांगो शून्य छे. १४५ प्र०-व्रतअंगीकार तथा पालनमां सिंहपणा तथा शिया
ळपणानी चौभंगी दृष्टांत सहित कहो. उ०-१. सिंहपरे व्रत ग्रहे अने सिंहनी परे पाळे ते
जंबुस्वामी स्थूलभद्रादिनी परे; २. सिंहपरे ग्रहे अने शियाळनीपरे पाळे, ते मरिचादिवत् ३. शियाळपरे ग्रहे अने सिंहनी परे पाळे, ते मेतार्यमुनिआदिवत्, ४, शियाळपरे ग्रहे अने शियाळपरे पाळे
ते अंगारमर्दकाचार्य, कुलवालुकादिवत् जाणवा. १४६ प्र०-चार अनुयोग ते कया. - 3०-१. द्रव्यानुयोग ते षद्रव्य विषयक गुणप्रर्याय स्वरूप
कथनयुक्त आत्मद्रव्य विवेचनमुख्याधिकारः २ धर्मकथानुयोग, ते सता, सती महात्माओनां चरित्रोन
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विचार रत्नसार.
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कथन स्वरूप; ३. गणितानुयोग ते द्वीप, समुद्र, क्षेत्रादिनु, क्षेत्रफळादिमापर्नु गणित कथन स्वरूप ४. चरणकरणानुयोग ते क्रियानुष्ठान चारित्रादि व्रत
पच्चखाण नियमादि विधि कथनस्वरूप. १४७ प्र०-जीव दुर्लभबोधिपणुं केटला कारणे पामे ? उ०-छहिठाणेहिंदुल्लभबोहिमाणकम्मपकरंति अरिहंताणंअव
नवयमाणे ॥१॥ अरिहंतपन्नत्तस्सधम्मस्सअवनंवयमाणे ॥२॥ आयरियाणं अवनंवयमाणे ॥३॥ उवज्झायाणं अवनंवयमाणे ॥४॥ चाउवनस्ससंघस्स अवन्नवयमाणे ॥५॥ समद्दीठीदेवाणं अवनंवयमाणे ॥ ६ ॥
१ श्रीअरिहंत, २ तथा तेमनो भाखेलो जे धर्म तथा तेमनी प्रतिमाजी तथा तेमना वचनरूप जे सिद्धांत इत्यादिक अरिहंत संबंधी अवर्णवाद निंदा, द्वेषादि करवारूप अविनयादि कारण थकी; ३ जिन आज्ञाकारी, जिनशासनस्थंभरूप श्रीआचार्यभगवंतनो अवर्णवाद करवा थकी; ४ श्रीसूत्रसिद्धांतना पारगामी आचार्यपदने योग्य, अनेक शिष्योने सारणावारणादि हित शिक्षा, सूत्रसिद्धांतार्थ अभ्यासना दाता श्रीउपाध्यायजी भगवंतनो अवर्णवाद करवा थकी; ५ ज्ञाने करीने एकांत मोक्षमार्गनाज साधक श्रीसाधु मुनिमहाराजानो अवर्णवाद करवा थकी; ६ जिन आज्ञाकारी सुशील श्रीअरिहंतादिकने पण पूजनिक एवो श्रीचतुर्विधसंघ तेनो अवर्णवाद करवा थकी, जीव दुर्लभबोधिपणं पामे, अर्थात्
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विचार रत्नसार.
अनंतकाळ संसारपरिभ्रमण करतां थकां पण धर्म सामग्रीनी जोगवाइ पामवी महादुर्लभ थइ पडे, तो पछी धर्म प्राप्तिनी दुर्लभतानी वातनुं तो कहेवुज शुं ? १४८ प्र०-आठ प्रकारना आत्मा ते कया ?
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उ०- १. द्रव्यात्मा एटले असंख्यातप्रदेशी शुरूजीवद्रव्य स्वगुणपर्यायसहित सत्ताए छे ते शुद्ध द्रव्यात्मा, अने तेना ज्ञानदर्शनादि उपयोगे रहित ते अशुद्धद्रव्यात्मा कहीये; २ कषायात्मा, सोळ कषाय तथा नव नोकषाय प्रवर्तमान जीव ते कषायात्मा; ३ मनवचनादि योगप्रवर्तमान आत्मा ते योगात्मा; ४ ज्ञान अज्ञानादि उपयोगी आत्मा ते उपयोगात्मा; ५ ज्ञानात्मा एटले जीवाश्रित सच्चिदानंदघन ज्ञानस्वरूपे प्रवर्तमान आत्मा ते; ६ दर्शनात्मा ते सम्यग्दृष्टिजीव ते; ७ चारित्रात्मा ते सत्तागत स्वरूपरमणरूपस्थिरतागुणे प्रवर्तमान जे जीव ते; ८ वीर्यात्मा, मन वचन कायादिना बळ पराक्रमरूप अशुद्ध वीर्यात्मा कहीए, पण आत्मसत्तागत रहेल अनंतशक्तिनी स्फुरतिए शुद्धात्मोपयोगे प्रवृति करी अनादि अनंतकाळना कर्म मळने निकंदन कररूपशक्तिनी व्यक्ति ते शुद्धवीर्यात्मा कहीए.
१४९ प्र० - पूर्वोक्त अष्टविध आत्माओमांथी कइ गतिमां केटला होय ते कहो.
उ०- नारकी तथा देवताओ मध्ये सात आत्मा होय, पण चारित्रात्मा न होय; तथा एकेंद्रिय मध्ये छ आत्मा
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संभवे पण ज्ञानात्मा अने चारित्रात्मा नहिः तथा तिर्यचपंचेद्रिय अने मनुष्यगतिमध्ये आठे आत्मा होय; तथा पंचमगतिमध्ये एटले श्रीसिद्धपरमात्माने अनंतगुणभाजनरूप शुद्ध जीवद्रव्य ते श्रीसिद्ध भगवंतनुं छे, तेने विषे चतुर्विधआत्मा छे, ते ज्ञानात्मा,
दर्शनात्मा, उपयोगात्मा तथा शुद्ध द्रव्यात्मा. १५० प्र०-अष्टविध त्रसजीवो छे ते कया ? ते दृष्टांत सहित कहो. उ०-१ अंडजा ते पक्षीआदि; २ पोतजा ते गजादि;
जरादि ते गवादि; ४ रसजा ते कीटकादिः ५ स्वेदजा ते यूकादि; ६ संमूछिम ते पतंगादिका ७
उद्भिज ते गिंगोडादि; ८ उत्पादिका ते देव नरकादि. १५१ प्र०-जीवना दस प्रकारना परिणाम ते कया ? उ०-१ गति, २ इंद्रिय, ३ कषाय, ४ लेश्या, ५ योग,
६ उपयोग, ७ ज्ञान, ८ अज्ञान, ९ दर्शन, १०
चारित्र. इति पनवणा सूत्रना १३ मां पद मध्ये छ। १५२ प्र०-जीवपरिणमन केटला प्रकारे छे ? उ०-" बंधण १ गई २ संठाणा ३ भेय ४ वन्न ५ गंध
६ रस ७ फास ८ अगुरुलघु १० परिणामा ए दसढुतिअजीवा ॥१॥
१ बंधन, २ गति, ३ संस्थान एटले आकृति, ४ जाति, ५ वर्ण, ६ गंध, ७ रस, ८ स्पर्श, ९ अगुरु
लघु, १० शब्द; ए दस रीते परिणमे छे. १५३ प्र०-अंतर्मुहूर्त कोने कहीए ?
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उ०-" जीवेणकहविफासियं, अंतमुहुत्तंपिजेणसमत्तं । निय
माअवदपुग्गल, परियट्टोचेवसंसारो” ॥१॥ पुद्गलानांपरावर्त्तः पुद्गलपरावर्त्तः, अपकृष्टः किश्चिन्यूनोऽईपुद्गलः परावतः अर्द्धपुद्गलपरावतः अथ अन्तर्मुहूर्त्तनुं प्रमाण. अन्तर्मुहूर्त अष्टसमयो वटिद्वयं यावदित्यर्थः तन्चसम्यक्त्वोपशमिकं अत्रक्षेत्रपुद्गलपरावर्त्तनाधिकारः न द्रव्यादि पुद्गलपरावर्तेत्युपदेशकम् । __एक चपटी वगाडीए अथवा आंख मींचीने उघाडीए तेटला वखतमां असंख्यातासमय थाय तेवा नव समयथी मांडीने एक मुहूर्त जे एक सामायिकनो काल बेघडी प्रमाण छे, तेमां एक समय ओछो, तेटला कालने अंतर्मुहूर्त कहीए, अर्थात् जघन्यथी नवसमय, उत्कृष्ट बे घडीमां एक समय ओछो, अने ए बेनी वचमां जेटला समयनी संख्या ते सर्वे मध्यमअंतर्मुहूर्त जाणवाः एवी रीते अंत
मुहूर्तना असंख्याता भेद थाय छे. १५४ प्र०-जातिस्मरण ते शुं ? तेना केटला भेद अने तेमां
. केटला भवनुं ज्ञान थाय ? 3०-अत्रगाथा " पुव्वभवासोपिछई, एकदोतिनिजावनवगंवा उवरितस्सअविसओ, सभावओजाईसमरणस्स ॥१॥
कोइपण वस्तु शब्दरूपादि जे पूर्वे भवांतरमां गाढ परिचितअभ्यास सहवासरूप थएल होय एवा घर, हाट, वाडी, वस्त्र, भूषणादि आकृति मात्र देखतां, शब्द मात्र सांभळतां थकां, पूर्वभवसंबंधि जे
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अचानक सर्व सांभरी आवे, अने तेथी पोते पूर्व कोण हतो तथा क्यां एवीरीते वगेरे समस्त निजपणानुं भान थइ आवे तेने जातिस्मरण कहे छे; ते बे प्रकारे छे, एक शुझक्षयोपशमानुसार ते पूर्वभवना सम्यग्दृष्टि गाढ धर्माभ्यासी महात्मा
ओने थाय ते, जेम श्रीवज्रस्वामी प्रमुखने, अने बीजुं अशुद्धक्षयोपशमानुसार ते पूर्वभवना मोहादि विषय कषायादि चेष्टादि स्मरण रागद्वेषजनित निरर्थक जाणवू, जातिस्मरणमां जघन्यथी एक बे त्रण भव हेखे, मध्यम चार पांच छ आदि अने उत्कृष्ट
नव भव सुधी देखे ( इति पनवणादि वचनात् ), १५५ १०-पुण्य अने धर्ममा शुं फेर ? । 3०-पुण्य ते शुभकर्मपुद्गल प्रकृति छे, ते जीवना शुभ
परिणामे एले सुपात्रने अन्नपानादि भक्ति नमकारादि करने करीने नव प्रकारे बंधाय छे, तेना नाम अन्नपुण्णे १ पाणपुण्णे २ लेहणपुण्णे ३ सयणपुण्णे ४ वत्थपुण्णे ५ मनपुण्णे ६ वयणपुण्णे ७ कायपुण्णे ८ नमोक्कारपुण्णे ९ ए नव भेद पुण्यना
कह्या अने बैंतालीस प्रकारे शातादिरूपे भोगवाय छे; * जूनी प्रतिमां चउद रत्ननो प्रश्न छे तेना उत्तरमां गाथा--" चक्कअसिछत्तदंडा, आयुहसालाइंदुतिचत्तारि ।
चम्मगणिकागणीनिहि, सिरिगेहेचक्कीणोडंति ॥१॥ सेणावईगाहावई, पुरोहियवडूढईनीययनगरे । थीरयणरायकुले, वेअइढतटेगयतुरया ॥ २ ॥
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ज्यारे धर्मतो शुझात्मपरिणतिरूप चित्तनी निर्मळता,
विषयकषायादिरहित शुद्धज्ञानानंदीआत्मारामरूप छे. १५६ प्र०-बारउपयोगमां रूपी केटला अने अरूपी केटला, .
अने ते शा माटे ? उ०-केवलज्ञान अने केवलदर्शन ए बे आत्मगुणरूप
होवाथी अरूपी छे; अने शेष दस आत्मपुद्गलाश्रित
मिश्रित होवाथी रूपी छे. १५७ प्र०-पांच समकितमां, रूपी केटला अने अरूपी केटला?
ते कारण सहित कहो. उ०-पांच मध्ये एक क्षायिक ते शुझात्मगुण प्राप्ति भणी
अरूपी छे, अने शेषचार पुद्गल उपष्टंभी अल्पका
लिक किंचित् पराधीनता भणी रूपी छे. १५८ प्र०-छआवश्यकमध्ये केटला रूपी अने केटला अरूपी ?
तथा तेमां संवरमा केटला अने निर्जरमां केटला ? उ०-सामायिकादि पांचआत्मगुण भणी अरूपी छे, अने
एक प्रतिक्रमण आवश्यक पापनिंदा, गर्हारूप आत्म सन्मुखी पण मंदता भणी रूपी छे तथा सामायिक चवीसत्थो तथा वांदणा ते त्रण संवरतत्वमा छे;
अने शेष त्रण निर्जरातत्वमा छे. १५९ प्र०-सवार्थसिद्ध विमानना देवताओ अने विजयविमानना
देवताओ केटला भवमां सिद्धि पामे. उ०-" सव्वदाओनियमाएगंमिभवंमिसिज्झईअवस्सं । वि
जयादिविमाणेठ्ठियं, संखिज्जभवाओनायव्वा ॥ १॥
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विचार रत्नसार.
अर्थ--सर्वार्थसिद्धविमानवासि देवताओ निश्चयथी एक भवमां सिद्धि पामे छे. अने विजयादि विमान
वासि देओनी स्थिति संख्याताभवनी होय छे. १६० प्र०-श्रावक जघन्य पदे केटला लाभे ? उ०-क्षेत्रपल्योपमने असंख्यातमे भागे इति आवश्यक
नियुक्तौ जंबू द्वीपमध्ये 'कीटिकाबहव्य अथवा नराबहवः तत्रोत्तर यदासमूछिमाणां विरहः तदाकीटिका
स्तोकानराबहवः १६१ प्र०-चार सामायिक ते कया, अने ते प्रत्येकमां कयु सम
कित तथा गुणठाणुं होय ते कहो. उ०-१ श्रुतसामायिकमां दीपकसमकित अने पहेलु
गुणठाणुं होय, ते अभव्यने पण होय; कारण जे जिनवचनानुसार प्ररूपणा करे तेथी परने मार्ग दीपावे, धर्म पमाडे पण पोताने अंधारूं होय, अपितु श्रद्धा, पाप, त्रासादि न होय तेथी, २ दर्शन सामायिक सम्यग्दृष्टि चोथागुणठाणीने होय, ३. देशविरतिसामायिक पांचमें गुणठाणे श्रावकने होय, ४ सर्वविरतिसामायिक ते छठेसातमेगुणठाणे वर्तता मुनिमहाराजने होय, ए सर्व गुणठाणानी परिणतिरूप
कषायना क्षयोपशमने लीधे होय छे. १६२ प्र०-छकाय जीवोनी महाविराधनारूप पांच स्थान कया
कह्या छे ? उ०-१ घंटी स्थान, २ चूला स्थान ते रसोडु, ३ पाणी
आरु, ४ वासिंदु, ५ उखण मूसळादि खांडण 106
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विचार रत्नस.र.
पीसण स्थान, ए पांच छकाय हिंसानां स्थान, त्यां उत्तमजीवो निःशुकपणे न वर्ततां अतियतनाए वर्ते छे, तेथी आकरो कर्मबंध पडतो नथी.
१६३ प्र० - आत्मस्वरूप सूचक केटलांएक अन्वय अने व्यतिरेकभावे विशेषणो कहो.
उ०- असंख्यातप्रदेशी, अनंतज्ञानमयी, अनंतदर्शनमयी, अनंतचारित्रमयी, अनंतदानमयी, अनंतवीर्यमयि अनंतलाभमयी, अनंतभोगमयी, अनंतउपभोगमयी, अरूपी, अखंड, अगुरुलघुमयी, अक्षय, अजर, अमर, अशरीरी, अत्येन्द्री, अणाहारी, अलेशी, अनुपाधिक, अरागी, अद्वेषि, अक्रोधी, अमानी, अमायी, अलोमी मिथ्यात्वरहित, अविरतिरहित, कषायरहित, योगरहित, अयोगी, सिद्धस्वरूपी, संसाररहित, स्वात्मसत्तावंत, परसत्ता रहित, परभाव अकर्ता, स्वभाव कर्ता, परभाव अभोक्ता, स्वभाव भोक्ता, क्षायिक वेत्ता, स्वक्षेत्रावगाहि, परक्षेत्र अनावगाहि, लोकप्रमाण अवगाहनवंत, धर्मास्तिकायथी भिन्न, अधर्मास्तिकायथी भिन्न, आकाशास्तिकायथी भिन्न, पुद्गलयी भिन्न, परकालथी भिन्न, स्वद्रव्यवंत, स्वक्षेत्रवंत, स्वकालवंत, स्वभाववंत, अवस्थानपणे स्वगुणी अभिन्न, कार्यभेदे भिन्न, अवस्थितसत्तावंत, परिणमनसत्तावंत, द्रव्यास्तिकपणे नित्य, पर्यायास्तिकपणे नित्यानित्य, द्रव्ययणे एक, गुण पर्यायपणे अनेक, अनंतद्रव्यास्तिकधर्मवंत, अनंत पर्यायास्तिकधर्मवंत इत्यादि स्वसंपदामयी, चेतन
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विचार रत्नसार.
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लक्षणे लक्षित, स्वसंपदा पूर्ण, परसंगे परिणम्यो थको संसार उभो कर्यो, स्वज्ञानादिगुणे परिणम्यो थको सिद्धता करे, एवा आत्मद्रव्ययी ओळखाण अनंतनये, अनंत निक्षेपे थाय. ए रीते जे आत्मप्रतीति करे तेने जैनमार्गी जैनमार्गमां गणे छे, एवो आत्मा अनेकांतपणे जैनमार्गी छे; एनी जे प्रतीति ते सम्यग्दर्शन, एनुं जे ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान, एमां जे रमवुं ते सम्यक्चारित्र कहीए.
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१६४ प्र० - द्रव्यास्तिकनयना छ सामान्य स्वभाव कहो. उ०- १ अस्तित्वं, २ वस्तुत्वं, ३ द्रव्यत्वं, ४ प्रमेयत्वं, ५ प्रदेशत्वं, ६ अगुरुलघुत्वं.
१६५ प्र० - वस्तुना अग्यार विशेष स्वभाव कहो.
उ०- १ नित्य, २ अनित्य, ३ एक, ४ अनेक, ५ सत्य, ६ असत्य, ७ वक्तव्य, ८ अवक्तव्य, ९ भेद, १० अभेद, ११ परम स्वभाव.
१६६ प्र० - प्रकारांतरे बीजा नव आत्मवस्तुस्वभाव कहो.
उ०- १ स्वप्रदेश, २ अप्रदेश, ३ चेतन, ४ अचेतन, ५ मूर्तिमंत, ६ अमूर्तिमंत, ७ कर्तृत्व, ८ भोक्तृत्व, ९ परिणामिक.
१६७ प्र० - षड्व्यमध्ये प्रत्येकना चार चार गुण छे ते कहो. उ०- १ धर्मास्तिकायना - अरूपी, अचेतन, अक्रिय अने गतिसहायक.
2 अधर्मास्तिकायना - अरूपी, अचेतन, अक्रिय, अने
स्थिरसहायक.
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विचार रत्नसार. २ आकास्तिकायना-अरूपी, अचेतन, अक्रिय, अने
अवकाशदानवंत. ४ पुद्गलास्तिकायना-रूपी, अचेतन, सक्रिय, अने
पूरणगलण. ५ कालना-अरूपी, अचेतन, अक्रिय, अने वर्तना.
६ जीवना-अरूपी, चेतन, सक्रिय, चेतनालक्षणवंत. १६८ प्र.-पर्यायास्तिकनयना छ भेद कहो, तथा तेनुं किंचित्
विशेषकथन गुणपर्यायस्वरूप कहो. उ०-१ पर्यायत्वं, २ भव्यत्वं, ३ सिद्धत्वं, ४ अभव्यत्वं,
५ कारणत्वं, ६ कार्यत्वं. वळी प्रकारांतरे गुणपर्याय स्वरूप कहे छे:--
द्रव्यव्यंजनपर्याय असंख्यप्रदेशत्वं, गुणपर्याय गुणांतरभेद क्षात्यादिभेद, गुणव्यंजनपर्याय, एक गुणना अनंतपर्याय, स्वभाव पर्याय, ते षट्गुणहानि वृधिरूप, अने विभावपर्याय ते नर नरकादिपर्यायास्तिक सामान्य पारिणामिक, अखंड, अलख, असहायी, सक्रियना अनंतगुणपर्याय समुदायनो
बादर द्रव्यभेद कहीए. १६९ प्र०-द्रव्य अभेदी ते शुं ?
उ०-द्रव्यना बे भाग न थाय माटे. १७० प्र०-भेद द्रव्य ते केम ? उ०-गुण गुणना करनार जुजुवा भणी भेदस्वरूपी कहीए.
जेम केः-ज्ञान गुण, दर्शन गुण, चारित्र गुण, सुख
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गुण, दान गुण, लाभ गुण, भोग गुण, वीर्य गुण,
इत्यादि अनंतगुणभेदे भेदस्वरूपी कहीए. १७१ प्र०-सम्यक्त्वनां पर्यायनामो कहो.. उ०-आस्ता, श्रझा, प्रतीति, निर्धार, रूचि, अभिलाष,
बहुमान, अर्थिपणुं; तत्त्वइहा, गुण अद्भुतता, गुण गुणी आश्चर्यता, तद्विरहाकारकता, वस्तु प्रेम, तत्त्वार्थ
सदहणा, इत्यादि. १७२ प्र०-सम्यग्ज्ञाननां पर्यायनामो कहो. उ०-अवलोकन, भासन, परिच्छेदन, विवेचन, अमूर्ति
चेतनत्वं, सर्ववेत्ता, अप्रतिपातित्वं. निरावरणत्वं, ज्ञाय
कता, स्वरूपओळखाण, स्वरूपानुभव इत्यादि. १७३ प्र०-सम्यक्चारित्रनां पर्याय नामो कहो.
उ०-स्थिरता, तत्त्वरमण, निश्चयत्वानुभूति, परमक्षमा, परममार्दव, परमआर्जव, परमनिर्लोभता, अकामता, अनासंगता, सुख, स्वरूपविलास, ठरणता, संतोष, समता, स्वरूपस्वादता, स्वरूपानंद, सहजता, स्वा
धीनता, इत्यादि. १७४ प्र०-सम्यक्त्वनी दशरुचि कहो. उ०-१ निसर्ग रुचि, २ उपदेश रुचि, ३ ज्ञान रुचि,
४ सूत्र रुचि, ५ बीज रुचि, ६ अभिगम रुचि, ७ विस्तार रुचि, ८ क्रिया रुचि, ९ संक्षेप रुचि,
१० धर्म रुचि. १७५ १०-सम्यक्त्वनां पांच लक्षण कहो.
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उ०-१ सम एटले उपशम कहेतां पारमार्थिक अकषायि
पणुं एटले अपराधिशत्रुनुं पण चित्तमां अंतरंग परिणामे कदी माटुं चिंतवे नहि, २ संवेग ते एकांत शुद्धपरमात्मस्वरूपसुखनीज अभिलाषा, ३ निर्वेद ते संसार थकी उदासीनता तीव्रउद्विग्नता, ४ अनुकंपा, ते प्राणीमात्रने आत्मवत् लेखी कोइ उपर पण मारातारापणानो भिन्नभाव न गणे, लुखा व्यवहारे वतै, अंतरंगथी सदा न्यारो लखे छतां सर्वउपर आप समान दया भाव दृष्टि, ५ आस्तिकता ते शुञ्ज जिनवचन उपर एकांत
दृढ चित्त प्रतिबंधरूप श्रद्धा, गाढ सत्य मान्यता. १७६ प्र०-आत्मा बंधक छे, अबंधक छे, भोक्ता छे, अभोक्ता
छे, कर्ता छे, अकर्ता छे ते शुं ? उ०-निश्चयनये अबंधक, व्यवहारनये बंधक, एमज
भोक्ता कर्तादि व्यवहारे आत्मा जाणवो, अने निश्चये एटले मूळस्वरूपे अपरिणामिकपणे एटले स्वरूपपरिणामे अभोक्ता, अकर्ता, स्वरूपभोक्ता
स्वरूप कर्ताज कहिये. १७७ प्र-त्रणआत्मानुं मूळस्वरूप कहो. .. उ०-१ बहिरात्मा ते देहादिकने आत्मबुद्धिए अहंभावे
एकांते बाह्यदृष्टिए पोतारूप समजे, जेवू देखे तेवुज माने, पण अंतरंगदृष्टिए कई विचारे नहि के समजे नहि ते एकांतमिथ्यादृष्टि पहेलेगुणठाणे जाणवा, २ अंतरात्मा ते आत्मा अने देहादिक
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पौगलिक भावने भिन्नभिन्न लखे स्वरूप गवेखे परथी उदासीनता चिंतवे इत्यादिभेदज्ञानी चोथेथी बारमा गुणठाणा सुधी जाणवा, ३ परमात्मा ते अतिनिर्मळ, शुद्धस्वरूपानुभवी, निष्कलंकी निरावरणी सच्चिदानंदघनस्वरूपमय, अंतरात्माने ध्येय 'व्यानरूप जाणवा. जूनि प्रतिमां त्रण आत्मानं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे.
हवे आत्मानो स्वरूप लखे छे. आत्मा ऋण प्र कारे ते आत्मानो स्वरूप सम्यग्दृष्टिए धारवो जेम स्थिरता थाय ते लखे छे ते त्रण प्रकार ते कया ? एक बहिरात्मा १, एक अंतरात्मा २, एक परमात्मा ३. हवे बहिरात्मा कहे छे. शरीर, कुटुंब, माल, धन, वर, परिवार, नगर, देश, रागद्वेष, मिथ्यात्व, भं मार्यो, में जीवाड्यो, में सुखी कर्यो, में दुःखी कयों, सेविमोहप्रमुख ए सर्व निजस्वभाव जाणे तेहने बहिरात्मा कहिए. तेहने बहिर दृष्टि होइ ते प्रथम मिथ्यात्वगुणठाणे होवे १ अथ अंतरात्मानो स्वरूप कहे छे. प्रथम कर्मबांध्यानो कारण जाणे ते लखे छे मिथ्यात्व ५ अविरति १२ कषाय २५ योग १५ ए सत्तावन हेतु ए जीव कर्मबांधे ते वतां भोगवे ते भोगवता मोहनीकर्मना जोरे दुःख पामे तिहारे इम जाणे जे मारो स्वभाव नहि. किसी वस्तु जाइ तथा मरण आवे तिहारे इम जाणिजे माहरा प्रदेशथी कांड जातो नथी. हुं सर्व वस्तुथी
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भिन्न छं. किवारे कुलाभ पाने तिवारे जाणे जे ए वस्तुथी संबंध टळ्यो छे. वेदनादिक दृष्टि आवें समभावे राखें. परभव पुद्गलादिक आत्माथी भिन्न जावो. छंडवानीखपकरी परमात्मानी वांछा करे. ध्यान सज्झाय विशेष करे. भावना खीणखीण भावे. संवर आदरे. निज स्वभावे जे ज्ञान तेहने विशेषे इम मन रहे ते अंतरात्मा ध्यान करवा. परमात्माने जोग्य चोथा गुणठाणाथी बारमा गुणठाणा सुधि अंतरात्मा जाणवो, एहवो जे अंतरात्मा ओलखे तिवारे पर - मात्मा पामे, परमात्मानो स्वरूप लखिए छीए. साक्षात् पोतानो स्वरूप देखे कर्मनी उपाधि रहित ते परमात्मा तेरमे तथा चौदमे गुणठाणे होय. तथा सिद्ध जाणवा ए परमात्मा ध्यान योग्य, अंतरात्मा व्याववा योग्य तां ध्येय ते परमात्मा व्यान ते एकाग्रता एम आत्माना स्वरूप जाणवा इति भाव.
१७८ प्र० - सद्दहणा, फरसणा अने प्ररूपणा, संबंधी अष्टभंगी दांत सहित कहो.
उ०- सद्दहणा, फरसणा अने प्ररूपणा, एटले जाणे आदरे अने पाळे, ते भांगे श्री गौतमादि महात्मा जाणवा, २ सहहणा, फरसाणा, पण प्ररूपणाए असमर्थ ते जे सामान्य साधु उपदेश देवाने असमर्थ छे, पण पोते पाळे छे तेने जाणवो; ३ सद्दहणा पण फरसाणा, प्ररूपणा नहि, ते अनुत्तर विमानवासी देवने, जाणे न आदरे पण पाळे ते भांगे जाणवुं ४ सदहणा
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तथा प्ररूपणा पण फरसाणा नहि ते संवेगपाक्षिकने. जाणे, आदरे पण पाळवा असमर्थ ते भांगे जाणवुं. ५ फरसणा पण सद्दहणा ने प्ररूपणा नहि, ते बाळ तपस्वी प्रमुखने न जाणे पण आदरे अने पाळे ते भांगे जाणवुं; ६ प्ररूपणा होय पण सदहणा अने फरसणा नहि, ते आदरे पण न जाणे अने न पाळे ए भांगो असंजयति संन्यासी आदिने; ७ फरसणा तथा प्ररूपणा होय पण सद्दहणा नहि, ते न जाणे पण आदरे पाळे ते भांगो पासत्थादिकने तथा अभव्यदीपकसमकितीने पण होय; ८ असदहणा, अप्ररूपणा ते अनादिमिथ्यात्विने; न जाणे न आदरे न पाळे ए भांगो जाणवो, ते निगोदिया प्रमुख एकेंद्रियादिकने होय.
१७९ प्र० - श्रीतीर्थकर प्रभुना दानाधिकार संबंधी छ अतिशयो
वर्णवो.
उ०- प्रतिदिन एकक्रोड अने आठलाख सोनैया आपे, ते सोनैयो आठरति के मतांतरे असीरतिनो पण को छे; छ घडी दहाडो चढतां आपवा मांडे ते पोणाबेपहोर सुधी जमवानी वेळा पर्यंत मनवांछित दान सौने भाग्यप्रमाणे प्रभु आपे, सोनैयामां प्रभुनुं तथा प्रभुना मातपिताना नाम होय, ते एक दिवसना दानना सोनैया नवहजार मण थाय, चालीस मणनुं एक गाडुं भरतां कुल २२५ गाडां भराय, ते गाडां तथा मण वगेरे सर्व
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AAAAAAA
माप जे जे समयमां प्रभु थया होय ते ते समय तथा ते ते देशना जाणवा; संवत्सरी दानना सोनैया सर्वे इंद्रोना आदेशे वैश्रमण देवता आठसमयमां निपजावी प्रभुना गृहभंडारमा भरे, हवे ते दानना छ अतिशय कहे छेः-१ तीर्थकरना हाथने विषे सौधर्मेंद्र एवी स्थिति करे के जेथी प्रभु दान देतां थाके नहि, जोके प्रभुतो अनंत शक्तिना धणी छे, तोपण आ उत्सव अवसरे ए प्रथमइंद्रनो अधिकार लहावो लेवारूप छे, ते अनादिनी एवी मर्यादा जाणवी; इशानेंद्र सुवर्णमय रत्नजडित छडी, दंड लइ उभो रहे अने चोसठइंद्र सिवाय बीजा सामानिक प्रमुख देवोने दान लेतां निवारे, अने याचकना भाग्यानुसार इशानेंद्र तेना मुखे बोलावे अने २ चमरेंद्र तथा बळीन्द्र प्रभुनी मुठीमां वधारे होय तो पाडी नांखे, अने ओर्छ होय तो पूरूं करी आपे, सामानी प्राप्तिने अनुसारे मळे, ३ भुवनपतिदेवता भरतक्षेत्रना मनुष्यने तेडी आवे, ४ अने वाणव्यंतर देवो तेमने पाछा मूकी आवे, ५ ज्योतिषी देवो विद्याधरोने प्रभुना दाननी खबर आपे, ६ तथा प्रभुना पिता त्रण मोटी दानशाळा करावे, एकमां भरतक्षेत्रना मनुष्यने अन्नपानादि खाद्य वस्तु आपे, बीजीए वस्त्र आपे, अने त्रीजीए आ
भरण आपे. १८० प्र०-हवे साधु सन्झाय करे छे. शुभयोगे व्रतादिकनी
शुभक्रिया करे छे तथा शुझोपयोगे, शुभ स्वभावे
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man.noraman
'अप्पाणंभावेमाणेविहरई ' इम आत्मध्यान करे छे ते सर्व कर्म खपावाने अर्थे ते किहा कर्म खपावे, खपाववानां तो त्रण कर्म छे, उदयकर्म अने बंधकर्म ने सत्ताकर्म. उदीरणाकर्म तो उदयना पेटा मध्ये गवेखीए, तथा कर्म ते मध्ये उदय सेणे खपावे छे, तथा सत्ताकर्म सेणे शोधे छे, इति बंधकर्म किम मटे ? उ०-शुभयोगे पांच महाव्रत संवररूपक्रियाए नवा बंध
पडे ते कर्मनिवारे ते माटे बंधकर्म निवारे ते व्रतादिक शुभक्रियाए तथा पांच प्रकारना सज्झाय ध्याने उदयकर्म खपावे छे, ते निष्फल करे छे, तथा शुनोपयोगे आत्मध्याने सत्ताए जे कर्म छे ते सोधे खपावे. इम मुनि आत्मगुणे निर्मल करी सिद्धि वरे
ए भाव. १८१ प्र०-ज्ञानीने आस्रव ते संवररूपे केवी रीते परिणमे छे. उ०-ज्ञानीने शुझोपयोगे आत्मपरिणामे आस्रवना कारण
ते संवररूपे थाय छे आचारांग सूत्रना चोथा अध्ययने द्वितीयोद्देशके समकितना अध्ययन मध्ये
"आसवा ते परिसवा ” एवी गाथा छे, १८२ प्र०-हवे श्रीजीवामिगमसूत्र मध्ये निर्लेपपदे श्रीगौतमे पुछयुं
के स्वामिन् ? पांच स्थावरना जीव हमणा वर्तमा
नमा जेटला छे ते निर्लेप थाशे गत्यन्तरे जाशे ? उ०-एक वनस्पतिकायविना पांचकायना जीव निलेप
थाशे. पृथ्वीअप्पतेउवाउत्रसकायना जीव सर्वस्था
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नान्तरे निर्लेप थाशे, पण वनस्पतिकायनिगोदगोलकना जीव निर्लेप “ नत्थितत्थअत्थिअणंता जीवा जेहिंनपत्तोतसाई परिणामो। उवयन्तियचयंतियपुणोवितत्थेवतत्थेव ॥१॥ एणे न्याये वनस्पतिकायना
जीव निर्लेप न थाय ए भाव. १८३ प्र०-बादरअप्पकाय उपरदेवलोकमां क्यां सुधी छे ? तथा
तेउकाय केटले सुधी छे ? उ०-बादरअप्पकाय बारमादेवलोक सुधी अने बादरतेउकाय
तीर्छा मनुष्यलोकरूपअढीद्वीपमांहे, उंची मेरुपर्वतनी
चुलिका सुधी. १८४ प्र०-सातमी तथा छट्ठी नरकमां, कुंभिमां उपजवानुं थाय .. छे के आलियामां थाय छे. उ०-सातमी तथा छठ्ठी नरके आलीया छे. जेम नदीनी
भेखडे बील होय छे एटले मूलां छे ते उपर शरीर
विधाय तिवारे पडे एम सांभळ्युं छे ए भाव. १८५ प्र०-साधुनां १४ उपगरणो ते कया कया. . उ०-पत्तंपत्ताबंधो, पायठवणंचपायकेसरिया ।
पडलाईरयत्ताणं, गोच्छओपायनिज्जोगो ॥१॥ तिन्नेवयपत्च्छागा, रयहरणंचेवहोइमुहपत्ती । एसोदुवालसविहो, उवहीजिणकप्पियाणंतु ॥ २ ॥ एएचेवदुवालस, मत्तगअइरेगचोलपट्टोउ। एसोचउदसरुवो, उवहिपुणत्थेरकप्पंमि ॥ ३ ॥
पत्तं कहेतां पात्रं, २ पत्ताबंध ते झोळी, ३ पायठवणं ते कांबळीनो कडको, ४ पायकेसरीया ते
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चरवळो, ५ पडलाइ ते गोचरीए जातां पात्रा उपर कपड़े राखे ते, ६ रयत्ताणं ते पात्रवींटवानुं लूगडं, ७ गुछओ ते कंबलमयखंड पात्राउपर वांटेछे ते, ए सात पात्राना उपगरणो जाणवा, तथा ८, ९, १० बे सुतराउ कपडां, अने एक उननुं मळी त्रण कपडां राखे, ११ ओपो, १२ मुहपत्ति, ए बार जिन कल्पिने होय, तथा १३ मातरीउं, १४ चो
लपटो. एवं चउदस्थविरकल्पने जाणवा. १८६ प्र०-श्री युगप्रधानआचार्यना विहार शोभा लक्षण कहो. उ०-काव्यं. येषांहिवस्त्रे न पतंति यूका,
न राष्ट्रभङ्गो न च देशचिन्ता । गदाः प्रणश्यतिपदोदकेन,
युगप्रधाना (मुनिवृन्दपूज्याः) ॥१॥ उत्तम शारीरिकसौंदर्यबळयुक्त, आचार्यना छत्रीस गुणे सहित; तथा ज्यां विचरे त्यां अढीयोजन प्रमाण मरकीप्रमुखनो उदद्रव न थाय; उत्कृष्टपणे दशविध यतिधर्म पाळतां पळावतो, निजकाळने विषे सर्वथी श्रेष्ठपुरुष एकावतारी महात्मा युग प्रधान आचार्य
भगवंत जाणवा. १८७ प्र०-नीचे जणावेला शब्दोनो अर्थ कहो.
भावना, अध्यात्म, मुनि, मैत्री, कारुण्य, मध्यस्थ,
अने प्रमोद भावनाओ. उ०-जूनि प्रतिमां नीचे प्रमाणे लखेल छे.
दुर्गतौप्रपतज्जन्नूनधारयतीतिधर्मः, संयमादिदशविधसर्वज्ञोक्तोभवति ॥१॥
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हवे - आत्मानं भावयतीतिभावना, आत्मानंअधिकृत्य करोतीति अध्यात्मं मन्यते जगतः तत्त्वं स मुनिः प्रकीर्तितः सम्यक्त्वमेतन्मौनं सम्यक्त्वतत्त्वमेव ॥ १ ॥ इतियोगबिन्दुग्रन्थे हरिभद्रसूरिणा अध्यात्मभावनाचबुधकथिता यथा ॥
परहितचितामैत्री, परदुःखविनाशिनीतथाकरुणा । परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥ १ ॥ ए भाव, वे छद्मस्थजीवानां ध्यानंकथितं, अंतमुदुत्तमित्तं, चिंतावत्थाणमेगवत्थमि, च्छछउमत्थाणंज्झाणं, योगनिरोहोजिणाणंतु इतिध्यानम् ।
आत्माप्रत्ये भाववुं अने आत्मचिंत्वन करवुं ते भावना, आत्माने अधिकारीपणे कार्य करनार ते अध्यात्मपंचास्तिकायरूपजगततवने जे यथार्थ माने तेने मुनि कहीए, परहित चिंता ते मैत्री भावना; परदुःख विनाशनी इच्छा ते कारूण्य भावना, परसुखदिठे संतोष तथा प्रमोद आणे ते प्रमोद भावना, पर दोषनी उपेक्षा ते मध्यस्थ भावना. १८८ प्र० - वर्तमानचोवीसजिनना मातपितानी गति कहो. उ०- उसभपियानागेसु, सेसाणंसत्त हुंतिईसाणे ।
अठ्ठय सणकुमारे, माहिंदे अट्ठ बोधव्वा ॥ १ ॥ अठ्ठणं जणणीओ, तित्थयराणं ढुंति सिडिओ । अठ्ठय सणकुमारे, माहिंदे अठ्ठबोधव्वा ॥ २ ॥
प्रथमतीर्थंकरना पिता श्री नाभिराजा ते नागकुमार मध्ये, बीजायी आठमा सुधीना प्रभुना पिताओ बीजा
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rrrrrrrrrrrrrrrratrnanamaAnnormanAnanAmAnamnara.
विचार रत्नसार.
འཆབ་འབཀའའབཀབ་འགའགགའའའའའའའལ་ འབབཀབ་འསའབ इशान देवलोके, अने नवथी सोळ सुधीना प्रभुना पिता त्रीजा सनत्कुमारदेवलोके, अने सत्तरथी चोवीस सुधीना पिता चोथा महेंद्रदेवलोके प्राप्त थया छे. प्रथमना आठजिननी माताओ मोक्षे, नवथी सोळसुधीना जिननी माताओ त्रीजा सनत्कुमार देवलोके, अने शेष सत्तरथी चोवीस सुधीना आठ
जिननी माताओ चोथा महेंद्रदेवलोकने प्राप्त थएल छे. १८९ प्र०-श्रीजिनवाणीश्रवण, चारघातीकर्मना क्षयोपशमे केवी
रीते थाय ? उ०-१ अंतरायकर्म तथा दर्शनावरणीयकर्मना क्षयोप
शमे जिनवाणी सांभळवानी रुचि थाय, २ दर्शनावरणीय तथा ज्ञानावरणीयकर्मना क्षयोपशमे वाणी कान सांभळे तथा समजे, अने ३ मिथ्यात्वमोहनीयना क्षयोपशमे जिनवचन आत्मस्वरूप ज्ञानरूप
यथार्थसहहणामां आवे. १९० प्र०-श्री जिनवाणीनुं ध्यानरूप एकाग्रप्रणमन महाफल
दायक क्यारे थाय ? उ०-धर्मान्तरायना क्षयोपशमे संयमफलपामीने एकाग्रता
रूपध्यानमांहि सिद्धि वरे, तथा चारकर्म क्षायिक भावे थये थके केवळज्ञान अने केवळदर्शनादि
अनंतलक्ष्मी प्रगट करी महानंदपद पामे. १९१ प्र०-चारप्रकारनी बुद्धिनुं स्वरूप ढंकमां दृष्टांत सहित
समजावो.. ३०-१ औत्पातिकी बुद्धि ते मतिज्ञानावरणीयकर्मना क्षयो
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विचार रत्नसार
पशमे क्यांय पण न दिउं होय न सांभळ्युं होय छतां सहज स्वभावे पोतानी बुद्धिने जोरे समयसूचककार्य करी शके, ते अभयकुमार तथा रोहानी परे, २ वैनयिकी ते गुर्वादिकनो विनय बहुमान करतां मतिज्ञानावरणीयकर्मनो क्षयोपशम थइने बुद्धि उपजे ते नागार्जुनादिकनी परे, ३ कार्मणिकी ते विज्ञान, कळा, व्यापारादिनो अभ्यास करतां करतां जे बुद्धि प्रगटे ते, ४ पारिणामिकी ते वृद्ध अनुभवी पुरुषोनी संगते रहेवाथी तथा वयना परिपाके जे बुद्धि उत्पन्न धाय ते.
१९२ प्र० - जातिस्मरणज्ञान अने विभंगज्ञान ते शामां समाय छे ? उ० - जातिस्मरणज्ञाननो मतिज्ञानमां समावेश थाय छे, अने विभंगज्ञाननो अवधिदर्शनमां समावेश थाय छे. १९३ प्र० - राशिगतसूर्य प्रश्नः
उ०- मेषराशिनो सूर्य होय त्यारे कन्याराशिना सूर्यनी तथा चन्द्रनी चाल उत्तरभणी थाय, तथा तूलाराशि थकी मांडी मीनराशि सुधिना चन्दनी चाल दक्षिणदिशा तरफ थाय छे.
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१९४ प्र० - मिथ्यात्व अविरतिना हेतुनो प्रश्नः,
30 - जेहवो आत्मानो शुद्धोपयोग वस्तु आवरवाने जेम मिथ्यात्वबलवत्तर छे, तेम आत्माना परिणमन सुख निवारखाने अविरति बलवत्तर छे, अविरतिनो उदय टळवाथी आत्मानुं विरतिपरिणमन थाय छे ने तेथी सुखमय आत्मा स्वस्वरूपे परिणमे छे.
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विचार रत्नसार. www.r
एहने आत्मिकएकाग्ररूप परिणमे तिवारे ए सुखरूप
सुखमय संपूर्णधर्म पामे ए भाव । १९५ प्र०-भावकर्म, द्रव्यकर्म, अने नोकर्म ते शुं? उ०-अनादिअशुद्धोपयोगरूप विभावतांइं रागद्वेषमोहरूप
आत्मा परिणमे ते भावकर्म, ते आकर्षणेकर्मरूप वर्गणा बंधाय ते द्रव्यकर्म, ते वर्गणा जेवारे पांच शरीररूपे परिणमे ते नोकर्म कहिए. एम त्रण प्रकारे
कर्मनी वक्तव्यता जाणवी. १९६ प्र०-अविरतिसमकिती, देशविरति तथा प्रमत्त अप्रमत्तादि
मुनि सम्यक्त्व वमी मिथ्यात्वे जाए तो तेओ प्र
त्येककर्मनी स्थिति उत्कृष्ट केटली बांधे ? उ०-अविरतिसमकिती, वमीने मिथ्यात्वे उत्कृष्ट स्थिति
आयुवर्जिने शेष सातकर्मनी एकपल्योपमने असंख्यातमेभागे अंतर्मुहूर्त्तन्यूनएककोडाकोडीसागरोपममांहे बांधे, तथा देशविरति उत्कृष्ट नव पल्योपमन्यूनएककोडाकोडीसागरोपम उत्कृष्ट बंध करे, पण तेथी अधिक न करे. जूनि प्रतिमां नीचे प्रमाणे छे. सम्यकदृष्टिजीव मिथ्यात्वने उदये समकितवमीने पाछो मिथ्यात्वगुणठाणे जाय तोपण आयुवर्जित सातकर्मनी स्थिति पल्योपमने असंख्यातमेभागे ऊणी एककोडाकोडीसागरनो बंध करे, उत्कृष्टो बंध एटलो करे, देशविरति नवपल्योपम ऊणा एककोडाकोडीसागरनो बंध उत्कृष्टो करे
तथा मुनिपणु पामीने पडे पाछो मिथ्यात्वे जाय, 108
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तोपण आयुवर्जित सातकर्मनो स्थितिबंध नबसमगरे ऊणा एककोडाकोडीसागरोपमनो उत्कृष्ट बंध करे तथा उपशमश्रेणिथी पडीने मिथ्यात्वे जाय तेपण आयुवर्जित सातकर्मनी उत्कृष्टि स्थिति बांधे तो नव हजारसागरोपममें ऊंणी एककोडाकोडीसागरनो उत्कृष्टो
बंध करे इति भुवनभानुचरित्रे का छे. १९७ प्र०-जीव मार्गाभिमुखथइ समकित क्यारे पामे ? उ०-भवितव्यताने योगे अकामनिर्जराए कर्मखपावतां बे
पुद्गलपरावर्तकाल संसार रहे, त्यारे जीव आस्तिकपणे जिनमार्गसन्मुखी थाय, पछी त्यांथी संसारपरिभ्रमण करतो जीव उंचो आवे त्यारे ते मार्गपतित दोढपुद्गलपरावर्तसंसार रहे त्यारे जिनोक्त मार्गे रुचिवंत थाय; वळी कर्मयोगे त्यांथी पडी संसारभ्रमण करतो ज्यारे एकपुद्गलपरावर्तकालसंसार रहे, त्यारे जीव मार्गानुसारीपणुं पामे, त्यां भित्रादिकष्टि प्रगटे, न्यायसंपन्नविभवादि पांत्रीशगुणयुक्त थाय, त्यां जिनोक्त मार्गे चाली मिथ्यात्व मंद करतो करतो नदी गोळपाषाण न्याये घंचना घोळ परिणामे (एटले जेम नदी कांठेयी छुटो पड्यो एक पत्थर, ते जेम पाणीनी छोळमां अथडातो कुटातो पोतानी मेळे गोळ थइ जाए एम) ज्यारे जीव अर्धपुद्गलपरावर्तकाल मांहे आवे स्यारे आर्यदेश, संज्ञीपंचेन्द्रियमनुष्य उत्तम जैनकुल संपन्न थइ सद्गुरु उपदेशे के सहजस्वभावे कोइ निमित्तपामीने यथाप्रवृत्तिकरण लही उज्वल आत्म
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वीर्योल्लास थकी अपूर्वकरणे रागद्वेषनी ग्रंथि भेदी मिथ्यात्वमोहनीयनी सातप्रकृतिने उपशमावतो अंतरकरणमा थइ अनिर्वृत्तिकरणे आवी सम्यग्दृष्टि थाय, त्यारे जीवने मार्गप्राप्त कहीए, वस्तु सत्ता धर्म अंशे प्रगट कर्यो त्यां तेनी केवी दृष्टि वर्ते तो कां छे के:
काव्य.
अंशे होय इहां अविनाशी, पुद्गल जाल तमाशी, चिदानंदघन स्वरूप विलासी, केम होय जगनो आसी; ए गुण वीरतणो न वीसारुं संभारुं दिन रातरे, पशु टाली सुररूप करे जे, समकितने अवदातरे. १९८ प्र० - साधुने जे त्रणयोग छे ते रत्नत्रयगुणे प्रणम्या छे ते केवी रीते ?
१
उ०- मनोयोग ते सम्यग्दर्शनगुणे दृढासक्तिकरूपे परिणमे छे, तथा वचनयोग ते जिनवाणीमांहे ज्ञानगुणे प्रणम्यो छे, तथा काययोग ते चारित्रगुणे " जयंचरे जयंचिठ्ठे जयंमासे जयंसये " इत्यादिकरूप प्रगट्यो छे तेथी यावज्जीवसुधि सावद्ययोगयी निवर्त्तीने मुनि संयमयोगे परिणमे छे. इतिभाव
१९९ प्र० - संसारमां जीव भव्यअभव्यादि त्रणप्रकारना छे ते कया ? तेनुं स्वरूप दृष्टांतसहित स्पष्ट समजावो.
उ०- १ भव्य, २ अभव्य, ३ भव्याभव्य अथवा जातिभव्य; त्यां भव्य त्रणप्रकारे छे:- निकटभवी, मध्यमभवी, अने दुर्भवी; निकटभवी सोहागण स्त्री समान, ते जेम सोहागणी स्त्री पतिसमागमे छ मासमां गर्भ
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प्राप्त थइ पुत्रप्राप्ति फळ लहे, तेम निकटभवी सद्गुरु उपदेश योगपामी शुद्ध श्रद्धा लही, शुक्र चारित्र पाळी तत्काळ सिद्धि वरे; बीजा मध्यमभवि ते कोइ स्त्रीने पति समागमे बे चार वर्षे गर्भ रही पुत्रप्राप्ति थाय तेम मध्यमभवी थोडा संख्याता भवमां सिद्धि वरे, अने त्रीजा दुर्भवि ते जेम कोइ स्त्रीने घणे कष्टे घणे काळे पतियोगे गर्भ रही पुत्र प्राप्ति थाय तेम धर्मविराधक, पडवाइ बहुलकर्मी भारेकर्मीपणाने लीधे घणे काले, घणे कष्टे, घणे उपदेशे कर्मरखपावी सिद्धि वरे. २. अभव्यस्वरूप वांझणी स्त्री समान जाणवू, एटले जेम वंध्यादोषवंत स्त्रीने पतिनो समागम छतां पुत्र प्राप्ति थायज नहि, तेम अभव्यने मुक्तिगमन योग्यतास्वभाव न होवाथी गमे तेटली धर्म सामग्रीनी जोगवाइ मळे, तोपण शुम श्रद्धारूप खरेखलं संसार थकी उद्विग्नपणं, स्वपरओळखाणपणुं भेद ज्ञान न थाय पण पौद्गलिकआशीभावे चारित्रादिक पाळे, नवमा ग्रैवेयक सुधी जाय छे, पण तेनु सपळु फोक निष्फळ जाय छे, केम जे तेना ज्ञानक्रियादि मोक्षने अर्थे यथार्थ न होय तेथी. ३. तथा भव्याभव्य जीवने सत्ताए भव्य समान योग्यता धरावे छे, तोपण कोइ भवितव्यताज ज्ञानीए एवी दिठेली के तेनो स्वभाव व्यवहारराशिमां आववारूप न थाय, अत्र गाथा
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" सामग्गी अमावाओ ववहारराशीअप्पवेसाओ। भव्वावितेअणंता जे सिद्धिसुहनपावंति ॥ १॥"
अर्थात् ते अव्यवहारराशियोज जीव रह्यो थको अनंताअनंतकाळ बाळविधवा स्त्रीनी परे सूक्ष्मनिगोदादिमां जन्ममरण करतो रहे, जेम बाळविधवा स्त्रीने सुकुलीनताने लीधे कदी पण भरथारनो योग
न थाय तेथी पुत्र प्राप्ति न संभवे एम जाणवू. २०० प्र०-अध्यात्मसारग्रन्थमां त्रणप्रकारना जीव कह्या छे ते
कया ? उ०-भवामिनंदी ते मिथ्यादृष्टि १ बीजो पुद्गलानंदी, से
चोथा पांचमां गुणठाणावाळा सम्यग्दृष्टि, २ आत्मा
नंदी ते मुनि, ३ इतिभाव. २०१ प्र०-वैराग्यना त्रणप्रकारनुं हुंक स्वरूप कहो. उ०-दुःखगर्भित वैराग्य, त्यां जीव संसारमा नानाविध
दुःख क्लेश पामतो विषयकषायथी विरक्तबुद्धिवाळो थइ धर्मसन्मुखी थाय पण सम्यग्ज्ञान न होवाथी पार्छ पौगलिकसुख मळतां वैराग्य नष्ट थवानो संभव छे; तेने दुःखगर्भितवैराग्य कहीए; पण ते जो धर्म साधन करतां थकां सद्गुरु उपदेशयोगे भेदज्ञान पामे तो पछी तेनो वैराग्य सत्य स्थायी ज्ञानगर्भित कहेवाय, एटले ज्ञानगर्भित वैरागी परमार्थे संसारनो एकांत त्यागी होय, लूखी वृत्तिए संसारमा रहे अने पूर्णमोक्षाभिलाषी होय; ज्यारे मोहगर्भितवैरागी कोइ स्त्री, पुत्र, . धनादि
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वस्तुना अभावे मोहमयविषयकषाययुक्तमलिन परिणतिवंत थयो थको मोहितदुःखना भारने लीघे संसारथी उद्विग्न रहे, पण ते साचो दुःखगर्भित वैराग्य भांगे पण न गणाय.
२०२ प्र० - चतुर्विध संसारीप्राणीनुं स्वरूप दृष्टांतथी समजावो. उ०- १ सघनरात्रि समान, एटले घन कहेतां जे मेघनी घमघोर घटाए आच्छादित थएली अमासनी रात्रिमां कांइपण सूझ न पडे तेम जीवने गाढमिथ्यात्वना उदये तीत्रमोहनी प्रबलताए कंइपण हिताहित सत्यासत्य के कृत्याकृत्यनी सूझ न पडे. तेवा प्रथम गुणठाणी भवामिनंदी मिथ्यात्वदृष्टि जीव जाणवा; २. अघनरात्रि समान ते जेम मेघनां वादळां रहित रात्रिमां घटपटादिक सूझे, तेम जीव कांइक मिध्यात्वनी मंदताए मोहादिकना किंचित्क्षयोपशमे धर्ममार्गसन्मुखी मार्गानुसारीजीव अवनरात्रि समान जाणवा; ३ सघनदिन समान ते जेम वादळांए आच्छादित सूर्यवाळा दिवसमां निर्मळ रात्रि करतां विशेष स्पष्ट घटपटादि पदार्थों सूझे छे, तेम मिथ्यात्वनय क्षयोपसमादि गुणेकरी सम्यग्दृष्टि चोथा गुणठाणाथी बारमा गुणठाणा सुधीना परमात्माना मार्गप्राप्त ज्ञानिमहात्माओ जाणवा; ४ अने अघनदिन समान एटले मेवरहित निर्मळसूर्यवंत दिवसनी परे पूर्णज्ञान प्रकाशवंत केवळज्ञानी भगवंतो
जाणवा.
२०३ प्र० - संसारीजीवने आठ दृष्टि कहि छे तेना नाम कहो.
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उ०-१ मित्रा, २ तारा, ३ बला, ४ दीपा, ५ स्थिरा,
६ कांता, ७ प्रभा, ८ परा, ए आठ दृष्टि कहि
तेनो विस्तार योगदृष्टिसमुच्चयथकी जाणघो. २०४ प्र०-सर्वपदार्थमात्रमा चारकारण छे ते दृष्टांतथी कहो. उ०-१ उपादानकारण ते जेम घटमां मृत्तिका, २ नि
मित्तकारण ते जेम बटनी उत्पत्तिमां चक्र, दंड, चीवरादि छे तेम जाणवू; ३ असाधारणकारण ते जेम वट निष्पन्न करवामां कुंभार हेतुभूत छे तेम जाणवू ४ अपेक्षा कारण ते वस्तु जेम छे तेमनी तेम रहे. पण तेना आलंबने, सहायताए आश्रये आपणुं कार्य करीए, जेम बट नीपन्यो तेमनो तेम रहे पण तेहनी साहाये जलभरणपानरूप काम नीपजे, तथा जेम सूर्य दीपे छे, तेनी साहाये आपणा काम करीए छीए तेम जाणवू; वळी बीजां पण वण कारण कयां छेः-समवायिकारण ते सहचारी संबंध कारण जेम घटनुं उपादान मृत्तिका छे तेम; २ असमवायिकारण ते असहचारी भिन्ननिमित्त, जेम घटनी उत्पत्तिमा कुंभार छे तेमः ३ निमित्तकारण
ते चक्रदंडचीवरादिरूप जाणवू. २०५ प्र०-सर्ववस्तु, द्रव्यार्थिकनय अने पर्यायार्थिकनय वडे
प्ररूपाय छे. ते मांहेथी सातनय ते कया ? . उ०-१ नगम, २ संग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र, ५
शब्द, ६ समभिरुढ, ७ एवंभूत. ए सात नय तेहना उपनय ए विस्तारनयचक्रथी जाणवो, तथा
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कषाय उपने पूर्वकोडिनुं पाल्युंचारित्र क्षय करे ते उपर गाथा. आचारंगनी दीपिका मध्ये छे यतः " सामणमणुचरंतरस, कसायजस्सउक्कडाहुति, मन्नामिईलपुप्फव, निष्फलंतरससामण्णम् ॥ १ ॥ जंअजियंचरितं, देणएविपूव्व कोडीए तंपिकसायमित्तोहारेईनरोमुहुतेण ॥ २ ॥ "
२०६ प्र० - आंबिल एटले शुं ?
उ०- आवश्यकनी टीका मध्ये कां छे के आय कहेतां ओसामण काढयुं होय ते मध्येथी जेम अन्न काढीए तेरी काढीने आहार करवो, अने जे आम्ल जे खाटोरस षट्विगय ए बे वर्जिने ते आंबिल कहिए. २०७ प्र० - नियाणानो प्रश्न.
उ०- नियाणानव प्रकारे दशाश्रुतस्कंध मध्ये कह्या छे, तथा जे नियां समकितनुं छे, अने बीजुं अव्रतनुं छे ए बे मध्ये जे समकितनो घात करी नियां बांधे ते समकित पामवो दुर्लभ करे, तथा अविर - तनुं भोगप्रतियुंनियाणं बांधे ते भोग पूरा थये व्रत उदये आवे जेम द्रोपदीना जीवे भोगप्रतियुं नियां बांधयुं ते पांच भर्त्तारी थइ. भोग पुरा थया पछी व्रत उदये आव्युं ते माटे अविरतिआसरी नियां कहीये. पण ते समकितनो नयी. इत्यर्थः
२०८ प्र० - चार प्रकारना सामायिक कया ?
उ०- १ श्रुतसामायिक, २ समकित सामायिक, ३ देशविरति - सामायिक, ४ सर्वविरतिसामायिक. ते मध्ये श्रुतसामायिकनो
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लाभ ते भव्यमिथ्यात्विने होय अभव्यने पण द्रव्यथी श्रुतनो लाभ थाय, तथा समकितसामायिक ते सम्यग्दृष्टिने होय पांचमे गुणठाणे देशविरतिसामायिकनो लाभ होय, सर्वविरतिसामायिक ते छठ्ठा
गुणठाणाथी मुनिने होय. २०९ प्र०-व्यवहार अने निश्चय समकितीनुं हुंक स्वरूप कहो. उ०-जिनवाणी प्रतीतेग्रहीने प्रत्यक्षस्वरूपने वेदे, गुण
पर्यायनो विलंछन करे, भेदरूप रत्नत्रयने आराधे, तेने व्यवहारसमकिती कहीए, तथा जेने जिनवाणी गुण पर्यायअभेदरूपरत्नत्रये द्रव्य द्रव्यरूपे निर्विकल्प समाधिपणे परिणमे तेने निश्चयसमकिती कहीए, ते आगळ जतां व्यवहारे प्रवर्ततां वस्तुधर्मरूप
शुमात्मनिश्चयपरिणतिरूप समकितने मेळवे. २१० प्र०-कया ज्ञानथी अने कइक्रियाथी मोक्ष थाय ? उ०-क्रिया बेप्रकारनी छे:-१ योगक्रिया ते शुभाशुभ
बंधरूप छे, अने उपयोगक्रिया ते पोताने स्वरूपे परिणमे, त्यां कर्म निर्जरा थाय, योगक्रिया जाते आस्रवरूप होइ कर्मबंध निपजावे, अने उपयोग क्रिया ते स्वरूप प्रकटावे, एटले योगक्रिया कर्म ग्रहण त्यागरूए सुलट पुलट छे, परंतु सर्वथा मोक्षार्थे नथी, केम जे सर्वथा मोक्षरूप धर्म ते शुद्धोपयोगे छे, माटे उपयोगशून्यक्रिया आस्रवरूप मोक्षनी एटले आत्मस्वरूपनी कत्तरणी एटले आच्छादन करनारी छे. ( नाश करनारी छे.)
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२११ प्र० - नवअनंताए जे जे पदार्थों छे ते कहो.
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उ०- प्रथमना त्रणअनंते कोइ पदार्थ न होवाथी शून्य छे, अने चोथेअनंते अभव्यजीवराशि छे, पांचमे अनंते मध्यम भांगे सम्यक्त्व पडवाइ छे, वळी तेहज पांचमे अनंते शुद्ध सिद्धना जीवो छे, पण ते पूर्वोक्त पडवाइओथी अनंतगुणा जाणवा, पछी छट्टो अनंतो शून्य, सातमुं शून्य पछी आठमे अनंते सर्वे निगोदीयाजीवो, तथा तेथी अनंता अनंतगुणा पुद्गलपरमाणु, तेथी काळ, तेथी सर्व आकाश प्रदेश, तेथी केवळज्ञान तथा केवळदर्शनना पर्याय, ए सर्वे एक एकथी अनंतगुणा पण आठमे अनंते छे, नवमेअनंते कोइ वस्तु विशेष नथी, माटे शून्य जाणवो.
२१२ प्र०- सर्व समतिमा पहेलु कयुं समकित उत्पन्न थाय छे ? उ०- सिद्धान्त आगममांहि प्रथम क्षयोपशम सम्यक्य पामे, उपशमनो तंत नहि ते श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणनी कीवेली समकिन पचवीसी मध्ये कहां छे, जे पहिलो क्षयोपशम सम्यक्त्व पामे उपशमनो तंत नहि तथा कर्मग्रन्थमध्ये पहिलो उपशम समकित पामे त्यारपछी क्षयोपसमकित पामे. उपशमनो तंत नहि एहवो आचार्यनो मत छे. अथ त्यारपछी कालसित्तरी ग्रन्थमध्ये कालिकाचायें त्रण जुदा कह्या छे. तथा कलंकी थास्ये ए अधिकार पण कालसित्तरी मध्ये छे.
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२१३ प्र०-स्थावर पर्याप्तानी निश्राए अपर्याप्त जीव केटला होय?
उ०-पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति प्रत्येक एटले स्थानके एकेका पर्याप्तानी निश्राए असंख्याता अपप्ति होइ पण सूक्ष्म निगोदीया पर्याप्तानी निश्राये अनंता अपर्याप्ता न होइ, ते अनंता अपर्याप्तानां शरीर जूदा तेहनो पण आयु बसेंछपन आवलिनु होय पण अपर्याप्तो मरे इम नहोय. सर्वे क्षुल्लक भविया छे ते माटे तथा पर्याप्ता- आयु एटलं पण तेटला मांहे पर्याप्ति पुरीने मरे एहq धाय छे. इति तत्त्वम्.
२१४ प्र०-व्यवहारराशियोजीव निगोदमां जाय तो त्यां उत्कृष्ट
केटलो काळ रहे ?
उ.-ते क्षेत्रथकी अढीपुद्गलपरावर्तनकालप्रमाण पछी
सूक्ष्मबादरनिगोदमां आवी वळी जाय तो उत्कृष्ट अढीपुद्गलपरावर्तन, वळी त्यांथी नीकळी एकेंद्रियादि चक्रमां भ्रमण करी पाछो जायतो वळी उत्कृष्ट एटलो काळ रहे एम आव जा करतां सर्व काळ तिर्यंचगति आश्रिने गणीए तो उत्कृष्ट असंख्याता पुद्गलपरावर्तन काळ रहे, ते केटला ? स्तोके एक आवलीना असंख्यातमे भागे जेटला समय थाय तेटला असंख्याता प्रमाण पुद्गल परावर्तन जाणवा. एम पन्नवणा मध्ये तथा कायस्थितिस्तोत्रनी टीका मध्ये
कह्यु छे.
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८६८
विचार रत्नसार:
२१५ प्र० - दर्शननी क्षपक श्रेणि कया
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गुणठाणाथी मांडे अने चारित्रनी क्षपक श्रेणि कया गुणठाणाथी मांडे ? उ०- दर्शननी क्षपक श्रेणि ते चोथा गुणटाणाथी मांडे, चारित्रनी क्षपक श्रेणि आठमांथी मांडे.
२१६ प्र० - ज्ञानावरणीय कर्मनो जघन्य अने उत्कृष्टबंध केटलो ? उ०- कर्मनोबंध जवन्यथी एक समयनो, जवन्य स्थिति ते अंतर्मुहूर्ताइ भोगवे, उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय कर्मनी वीस कोडाकोडी इम ए रीते छे. २१७ प्र०- सर्व जीवोनी मूळ भूमिका कइ ?
उ०- भव्य, अभव्य, सर्व जीव सूक्ष्म निगोदथी नीकव्या छे. मूल भूमिका ते जाणवी.
२१८ प्र० - जघन्य अने उत्कृष्ट योगनो काल केटलो छे ? उ०- मनोयोगनो जघन्यकाल एक समयनो, उत्कृष्ट अंतमुहूर्त्तनो काल एम वचनयोगनो पण काल ए रीते छे एम धार्युं छे.
२१९ प्र० - वस्तुने विषे षड्गुण हानि वृद्धिनुं स्वरूप कामां
कहो.
उ०- गुण पर्याय सहित जे वस्तु तेने द्रव्य कहीए, ते उत्पाद, व्यय अने ध्रुवरूप ऋण अवस्थाए सहित छे, परिणामी छे, ते परिणमन उत्पाद व्ययरूप पर्यायरूपे परिणमन, जघन्य, मध्यम, अने उत्कृष्ट स्वरूपे छे, तेने लइने वस्तुमां षड्गुण हानि वृद्धि - रूप अगुरुलघु पर्याय जे दरेक वस्त मात्रमां निरंतर वर्ते छे, ते निपजे छे, ते आवी रीतेः-.
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विचार रत्नसार.
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संख्यातगुण वृद्धि, २ असंख्यातगुण वृद्धि, ३ अनंत गुण वृद्धि, ४ अनंत भाग हानि, ५ असंख्यात भाग हानि, ६ संख्यात भाग हानि; एम द्रव्ययी द्रव्य परिणमन षड्गुण हानि वृद्धि रूप अगुरुलघु पर्याय सिद्धां पण छे.
२२० प्र० - आठ कर्मनी वर्गणा अने कार्मण शरीरमां शो फेर छे ? उ०- कार्मण शरीर ते नामकर्मनी प्रकृति ते नामकर्मनी वर्गणारूपे कार्मण शरीर जाणीए, बाकी बीजा सात कर्मनी वर्गणा ते एहने विषे छे इम आधाराधेय भावे छे. जेम कणनी गांठडी पिण वस्त्रमिन्नतिंम कर्मोंनी वर्गणा जुदी ते किम जाणीहूं ? जिम के - वली भगवंतने ज्ञानावरणीयादि चार कर्मनी वर्गणा मूलथी गइ पण तोहि कार्मण शरीर छे त्यारे ते अनुमाने अन्य कर्मनी वर्गणामिन्न, कार्मण शरीर ते भिन्न, इंम कार्मण शरीरनो स्वरूप जाणवो, पछी तो जेम तीर्थकर देवे कनुं ते सत्य सद्दह्यो छे. इति भाव ।
२२१ प्र० - चतुर्विध बंध हेतु पूर्वक कहो.
२२२ प्र० - केवळी रीते ?
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उ०- योग अने कषाय प्रतैया बंध चार प्रकारे छे, त्यां एकला योगनी हलचले प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंध थाय छे, अने कषाये करी स्थितिबंध अने रसबंध निपजे छे.
भगवंतने योग प्रतैयो शाताबंध छे, ते शी
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विचार रत्नसार.
उ०-केवळी भगवंतने काइ शुभ संकल्परूप व्यवहार नथी,
तेमने एक शुक्ल लेश्यानो उदय छे, ते योगद्वारे परिणमे छे, अने योगनुं परिणमन ते औदयिक भावे जइ परिणमे, केम जे पुद्गलने पुद्गलनो विश्राम छे, तेथी ते लेश्याए योग प्रत्यइक एक साता प्रकृतिनो एक समयनो बंध छे, ते बीजे समये संक्रमे, अने बीजे समये खेखे अर्थात् उत्तम पुद्गल ग्रहे, बीजे
समये तेने वेदे अने वीजे समये खेखे एटले खपावे. २२३ प्र०-सम्यग्दृष्टिने अने मिथ्यादृष्टिने शुभाचार अने शुभ
उपयोग केवी रीते होय छे ? उ०-मिथ्यादृष्टिजीवने शुभाचार होय पण शुभोपयोग
न होय, अने सम्यग्दृष्टि जीवने शुद्धोपयोग होय तेहने शुभोपयोग आचरणरूपे होय पण आदर न होय अने मिथ्यादृष्टि जीवने शुभाचाररूप होय पण अशुझोपयोगना घरनो अशुभोपयोग होय पण अशुभोपयोग उपचारे कहिए इति भाव, हवे चोथे गुणठाणे सम्यग्दर्शन पामे अनंतानुबंधिया रागद्वेष
तथा गिथ्यात्वमोहनोक्षय तथा क्षयोपशम थाय. २२४ प्र०-भामंडल करवानी शी जरूर छे ? उ०-आणंद श्रावकनी संधि खरतरगच्छे मुनिश्रीसारनी
कीधी गाथा त्रणसेने एकासीमी छे ते मध्ये अष्टप्रतिहार्य अधिकारे देवता भामंडल किम करे छे ? तत्र गाथा-तेज अरिहंत अतिघणो ए, खमी न शके नरनारी । ते तेज लइ सुख करे ए, पुंठे भामंडलसार ॥१॥ परमउदारिक शरीरना तेज
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विचार रत्नसार.
विशेष छे ते तेजना पुगल संहरीने प्रभुने पुंठे
भामंडल करे इति भाव । २२५ प्र०-आनन्द श्रावकने पांचसे हलवडे भूनि खेडवानुं
मान केवी रीते हतुं ? उ०-तत्र गाथा-क्षेत्र खेडयुं हल पांचस्ये, मुझने अवि
रति एतिरे । घरघरनी पण मोकली, एक सानी वरती जे तिरे ॥ १ ॥ तेनी वरतीनो अर्थ लखीए छीए. दशमिः हस्तैरेकोवंशः विंशत्यावंशेः एकोनितनं पञ्चशतैःनिवर्त्तनैः एकंदल इदृशी हलभूमिका पञ्चशतभूमीघरधरीत्री जावी एतद भूमिका घर रहेवानी छे टांकी पांचसे हलभूमीका हल खेड्वानी छे उघाडी
इतिभाव। २२६ प्र०-कर्मचतुर्थकतपनी विधि केवी रीते छे ? उ०-पूर्व न १, चतुर्थ ८०, प्रान्ते अठ्ठम इति तपो
दिन ६६, पारणक दिन ६२, उभयदिन मलीने दिन १२८ इति कर्मचतुर्थतपयतोवसुदेव हिंडौसापउमाअज्जिया, तेनीज्जाएसयासोओ। कम्मचउत्थं उक्वणा, दुगितिरित्ताणी सठिचउत्थाणिति ॥ १ ॥ ते पदमाआर्याए ते त्रणे आर्याइनेसमीपेकर्म चउत्थतप कीधो, इति शान्तिनाथ भवाधिकारे, इंदुषेणबिंदुषेण
भवाधिकारे गुणीकाने भवे ए तप कीधो इतिभाव। २२७ प्र०-धर्मचक्रवाल तपनी विधि केवी रीते छे ? उ०-अठ्ठम १, एकांतर चतुर्थ ३७, प्रांते अष्टमं इति
धर्म चक्रवाल तपनी विधि जाणवी, अथ विधिः प्रथम
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विचार रत्नसार.
षष्ठं ततः एकान्तरोपवास ६ इति प्रकार द्वयेन धर्मचक्रवाल तपनीविधि तत्र प्रथम प्रकारे दिन सर्वाय ८२ द्वितीय प्रकारे दिन सर्वाय १२३. २२८ प्र० - तीर्थंकरनी माता चउद स्वप्नने मुखमां पेसतां देखे ? उ० - शान्तिनाथ चरित्राधिकारे तीर्थंकरनी माता १४ स्वप्न मुखमांहे पेसता देखे यतः चतुर्दश महास्वप्नान् सुख सुप्ता तदाचसा मुखे प्रविशतोपश्यन्ती तत्तस्याकारधारिणः, इतिश्री उत्तराध्ययने भाव विजयनी टीका मध्ये तथा शान्तिनाथ चरित्राधिकारे कथं छे. आवश्य चूर्णो पञ्चाशकवृतौ योगशास्त्रवृत्तौ नवपदप्रकरण वृत्तौ, श्राद्धदिनकृतौ श्रद्धविधि प्रमुखे छे । २२९ प्र० - श्रावकनो दिगवत संबंधी प्रश्न ?
उ०- प्रथमं सामायिक पश्चात् इर्यावथिकी श्रावकने दिग्व्रत होय पण साधुने नहीं मेरुरुचक जवा माटे इत्यर्थः ।
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२३० प्र० - चोथे गुणठाणे सम्यकत्व गुण प्रगटे अने खार, वैर, अने झेररूप अवगुण टळे ते शी रीते ?
उ०- सर्व गुणमां अग्रेसरी गुण सत्य स्थायी गुण, परंपराए, परमात्म स्वरूपने पमाडनार, ज्ञान व्रतादि अनेक गुणने खेंची लावनार, अने ते गुणना प्रतिपक्षी अनेक दोषने टाळनार, जीवने परम हितकारी सदा सर्वदा एक सम्यग् दर्शनरूप समकित गुण छे, ते गुण प्रगटे थके खार टळे, सम्यग् ज्ञानगुणे वैरभाव टळे, अने मिथ्यात्व मोह अने चारित्रमो
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विचार रत्नसार.
हना नाशवडे झेर टळे, वळी मुनिने छठा गुणठाणाथी आगळ विषयराग उदयमाथी टळे. विषय, कषाय, उत्सूत्रप्ररूपणा दोषो दूर थाय; अने रागद्वेष अने मोह सत्तामाथी टळतां आत्मा परमात्मा वीतराग स्वरूपी केवळज्ञानी केवळदशी आदि अनं
तगुणी अनंतसुखमय बने छे. १३१ प्र०-उद्वेगता, अस्थिरता, असाता, आकुळता ए चार
जीवने शाथी उपजे छे ? | उ०-१ अज्ञान अने मिथ्यात्वना उदये उद्वेगता, २ वेदनी
कर्मना उदये अशाता, ३ अविरति तथा चारित्र मोहना उदये आकुळता अने ३ वीयाँतरायना उ
दये अस्थिरता जीवने उपजे छे. १३२ प्र०-१ अपात्रदान, २ कुपात्रदान, ३ पात्रदान, ४ सु
पात्रदान ते कोने कहीए ? उ०-१ अपात्रदान ते नानादि पशु तथा बंदिवानादिने
आपq ते, तेनुं फळ आ लोकनेविषेज यश प्रतिष्ठारूप लेशमात्र फळ छे. २ कुपात्रदान ते वेरागी सन्यासी, कापडी, तापसादिकने आपq ते, तेनुं फळ परभवे राज्यादिक प्राप्ति करी पापानुबंधिपुण्य बांधी कुगति दळ मेलवी संसार भ्रमण वधारे, ३ पात्रदान ते सम्यगदृष्टि देशविरति साधर्मी प्रमुखने भक्ति बहुमानथी पोषवा ते, तेथी पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करी भवभ्रमण घटाडे, ४ सुपात्रदान ते महामुनि गणधर तीर्थकरादि योगी महात्मारूप . पात्रने बहु
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विचार रत्नसार.
मानथी अन्न पानादिनं दान देतां थकां जीव महा पुण्यानुंबंधी पुण्य उपाजने देव मनुष्यादि उत्तम भव करतां थकां शीघ्र सिद्धि वरे.
२३३ प्र० - छकायनां गोत्रनां नाम कयां ?
उ०- १ रुदिधावरकाय, २ बभीथावरकाय, ३ सिपिथावरकाय, ४ समुइथावर काय, असस्सिथावरकाय, जंगम थावर काय, इन्द्रियथावर कायनुं पृथ्वीकाय गोत्र, पीतवर्ण पुढवीनाम जीव, इन्द्र देवता, बभी थावरनो अपकायगोत्र, श्रेतवर्ण ब्रह्म देवता अपकाय जीव, सिपीथावस्कायनो ते जसगोत्र रक्तवर्ण शिल्य देवता तेउकाय जीव, समुइयावर कायनो गोत्र, वायुकाय, हरितवर्ण समुद्रदेवता वायुकाय जीव, आवशाइथावरकायना वनस्पतिगोत्र, नानावर्ण पातालदेवता, वनस्पति जीव, सात नरकनां गोत्रनी पेठे ए पण जाणवा. २३४ प्र० - दश प्रकारनां सत्य ते कयां ?
उ०- १ जनपद सत्य, २ समय सत्य, ३ स्थापना सत्य, ४ नाम सत्य, ५ रूप सत्य ६ प्रत्येय सत्य, ७ व्यवहार सत्य, ८ भाव सत्य, ९ योग सत्य, १० उपमा सत्य. गाथा
जपावयण समयवणा, नामरूपेपहुच स य । ववहारभाव योगे, दस उमस य ॥
२३५ प्र० - पांच इंद्रियोनी आकृति तेमनो विषय क्षेत्र, तथा विषय विकार, केटला अने कया कया छे ते कहो.
उ०- १ स्पर्शेन्द्रियनो आकार अने प्रकारे छे, नव योजन
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बिचार रत्नसार
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प्रमाण अंतर छेटेथी आवेला पुद्गलोनो अष्ट प्रकारे स्पर्श छे तेना विकारो ९६ छे, २ रसेन्द्रियनी आकृति सरपलो तथा कमळना पत्र सरीखी छे, नव योजन अंतरे रहेला पुद्गलोनो स्वाद वायुथी खेंचाइ आवे थके थाय, तेना छ रसरूप छ वि षयना ७२ विकारो छे, ३ घ्राणेन्द्रियनी आकृति तलना फूल सरखी छे, तेनो विषय क्षेत्रफळ नव योजननो तेना विषय २ अने विकार १२ छे, ४ चक्षुइंद्रिय, तेनी आकृति मसुरनी दाळ समान, एक लाख योजन विषय क्षेत्रफळ, तेना विषय पांच अने तेना विकार ६०, काननो बार योजन आत्मांगुल प्रमाणे चार गाउनो योजन जाणवो. तथा मूर्यनो बिंब तो आत्मांगुल प्रमाणे घणा लाख योजन थाय. ते माटे चक्षुनो एटलो विषय नथी तो सूर्यनो बिंब किं, देखाय छे. तत्रोत्तर सूर्यनो विमान देवका एक योजनना एकसठिया अडतालीस भागनो छे. तेना आपणा गाउ १३०० ने आशरे मोटो विमान छे. ते संपूर्ण आंखे देखातो नथी. पण तेना विमानना तलीयाना तेजनो आभासमान झलक कांति दिसे छे. पण संपूर्ण विमान आंखे न देखाय ते माटे आत्मांगुल प्रमाणेनो लाख योजन विषय कहेवो. श्रोत्रेन्द्रियनी आकृति अगथीआ वृक्षना फूल समान, तेनो १२ योजन विषय क्षेत्र, तेना विषय ३ अने विकार १२ एम एकंदर पांच इंद्रिय विघय २३ अने विकार २५२ ते विकारो रहित मात्र
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विचार रत्नसार.
इंद्रियोना आकार युक्त पोताना आत्मधर्मर्नु एकांते प्रतिपालन करता थका, दशविध संयम धर्मनो उत्तम रीते निर्वाह करता, एवा जे महा मुनि महाराजो, तेमने मारो त्रिकरणशुद्धिये नमस्कार छे. त्रण प्रकारना शब्द शुभ, अशुभ भेदे छ भेद थया. राग अने द्वेष ए चार भेद. चक्षु इन्द्रियथी पांचवर्ण तेने शुभ अशुभ बे भेदे गुणतां दश तेने सचित्त अचित्त ए त्रणे गुणतां ३०, रागद्वेषे गुणतां साठ थाय. सुरभिदुरभिगंधने सचित्तादि त्रण भेदे गुणतां ६ थाय तेने रागद्वेषे गुणतां बार भेद थाय. दशने शुभ अशुभे गुणतां बार थाय. तेने सचित्तादि त्रण भेदे गुणतां ३६ थाय. तेने रागद्वेषे गुणतां ७२ थाय. आठ प्रकारना स्पर्श तेने सच्चित्तादि त्रण भेदे गुणतां २४ थाय, तेने शुभाशुभे गुणतां ४८ थाय. तेने रागद्वेष गुणतां ९६ थाय. सर्व संख्याए २५२ थाय. गाथाबारसहिंतो सोतस्स, सेसाणं नवहिंजोयणेहिंतो।
गिण्हतोपत्तगथ्र्थ, एतो परतोनगिण्हति ॥ २३६ प्र०-पांच इंद्रियोनुं द्रव्य तथा भावथी स्वरूप कहो. उ०-१ द्रव्येन्द्रिय, बे प्रकारे छे सूक्ष्म अने बादर, बादर
ते बाहेर दिसे छे, आकृतिरूप छे ते; सूक्ष्म ते विषय ग्रहणव्यापारे आभ्यंतर प्रवृत्तिरूप, जघन्यथी अंगुळनो असंख्यातमो भाग, अने उत्कृष्ट पूर्वे का छे तेटलो विषय क्षेत्र जाणवू, २ भावेन्द्रियपणुं ते जीवने दर्शनावरणीकर्मना क्षयोपशमे शब्द, रूप, रस,
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विचार रत्नसार.
गंध, स्पर्शादि ग्रहण शक्ति उपजे तेनी उपयोग उपलब्धि ते भावेन्द्रिय कहेवाय छे, अने आकृति ते द्रव्य इंद्रिय जाणवी. एम पन्नवणामां का छेमनुष्य थको सिजे तेने आठ इन्द्रिय जाणवी. नारकी थकी मनुष्य थइ सिजे तेने १६, सोळ इन्द्रिय जाणवी. तियेचथकी तथा पृथिवीथकी मनुष्य थइ सिजे तेने १७, सत्तर इन्द्रिय तथा देवताथकी पृथिवी मनुष्य थइ सिजे तेने १७ सत्तर इन्द्रिय जाणवी. तथा पृथिवी, पाणी वनस्पति माहेथी मनुष्य थइ सिजे तो ९ नव इन्द्रिय तथा इम सर्व विचार पन्नवणा मध्ये कह्यो छे. पण एनो अर्थ आम्नाय
गीतार्थगुरुथी जाणवो. २३७ प्र०-आत्मबोधरूप सम्यक्त्व प्राप्तिमां पांच लब्धिनी आ
वश्यकता छे, ते पांच लब्धिनुं स्वरूप कहो. 3०-१ काळ लब्धि, ते आयुवर्जित शेष सात कर्मनी
उत्कृष्ट स्थितिने घटाडी एककोडाकोडी सागर प्रमाण करे, एवा यथाप्रवृत्तिकरणपूर्वक चर्मावर्ते जीव आन्यो त्यारे काळलब्धि पाकी कहीए; पहेली लब्धि पाम्या पछी छेली एकठी एकसमे प्रगटे. २ इंद्रिय लब्धि ते संज्ञि पंचेंद्रियपणुं; ३ उपदेश लब्धि ते सद्गुर्वादिकना योगे उपदेश पामी बूझे ४ उपशम लब्धि ते निर्मळ परिणामनी धाराए चढतो विषय कषायनी उपशांति भावमां अपूर्वकरणे करी ग्रंथिभेद करे; ५ प्रयोग लब्धि, पछी अंतःकरण पूर्वक अनिवृत्तिकरणना परिणामे रह्यो थको स्वपर भेदज्ञानरूप
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૮૭.
विचार रत्नस र.
सम्यक्त्व पामे, त्यारे वीतराग धर्मनी रुचिपूर्वक प्रतीतात्मक धर्मरूप शुद्ध तत्त्वार्थ श्रद्धाने आत्मस्वरूपनुं दर्शनज्ञान, स्वरूपाचरणरूपे जीवने थाय. २३८ प्र० - आत्मांगुल उच्छेदांगुल प्रमाणांगुलनां मान क्यां केवां छे ?
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उ०- आवश्यक नियुक्तिमां तेनुं मान नीचे प्रमाणे कयुं छे. गाथा - - उस्से हंगुलमेगं, हवइ पमाणांगुलं सहसगुणं । तंचेव दुगणीयंख, वीर सायंगुलं भणियं ॥१॥ आयंगुलनवथ्युं, सरीर मुस्सेहंगुलेण तहा | नग पुढवी विमाणाई, मिणसुयमाणंगुलें ॥२॥ २३९ प्र० - मतिज्ञानना केटला भेद छे ?
उ०- मतिज्ञानना श्रुतनिश्रित अने अश्रुतनिश्रित ते मध्ये श्रुतनिश्रितना ४ भेद अवग्रह, १ ईहा २ अपाय, ३ धारणा ४ अवग्रहना वे भेद १ व्यंजनावग्रह, २ अर्थावग्रह व्यंजनावग्रहना ४ भेद १ स्पशेंद्रिय, २ रसेंद्रिय, ३ घ्राणेंद्रिय, ४ श्रोत्रेंद्रिय, अर्थाग्रहना ६ भेद पांच इंद्रिय छहुं मनएम छ चोक चोवीस अने ४ व्यंजनावग्रहना इम ईहा अपाय धारणा करता एवं २८ एम ऐकेकना १२ भेद थाय १ बहु, २ अबहु, ३ बहुविध, अबहुविधादिक बार भेद तिहां अनेक जीव वाजिंत्रना शब्द सांभले छे ते मध्ये क्षयोपशमिक विचित्रताए करी कोइक जीव घणा शब्दग्रहे ते बहु १, कोइक जीव थोडाग्रहे ते अबहु २, कोइक शब्दना व्यापार मांहे इत्यादिक घणा विशेष जाणे ते बहुविध ३, कोइक थोडा विशेष
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जाणे ते अबहुविध ४, कोइक तुरतग्रहे ते क्षिप्र ५, कोइक शेषग्रहे ते वीर कहीये ६, कोइक धूमादिक लिंगे करी अग्न्यादिक जाणे ते सलिंग ७ तथा जे लिंग विना जाणे ते अलिंग ८, एक संदेहालो जाणे ते संदिग्ध कहीए ९, संदेह रहित जाणे ते असंदिग्ध १०, कोइकवेला कडं ते बीजीवेलाए अणको ते जाणे ते ध्रुव कहीए ११, कोइक वारंवार जणावे जाणे ते अध्रुव १२, एम अवग्रहादिक २८ भेद ते बार गुणा करतां ३३६ भेद थाय एटला श्रुतनिश्रितना भेद तथा अश्रुतनिश्रितना ४ भेद ते १ औत्पातिकीबुझि, २ वैनयिकीबुद्धि, ३ कम्मीया ते कार्मणिकीबुद्धि, ४ परिगामिया ते पारिणामिकीबुद्धि, एवं ते अश्रुतनिश्रित सबै मली मतिज्ञानना ३४० भेद कर्मग्रं
थनी टीका मध्ये कह्या छे.... २४० प्र०-ज्योतिष देवतामां कया जीवो न उपजे ? उ०-पन्नवणा सूचना छठा वक्वंतिपद मध्ये का छे के
ज्योतिषि देवतामांहे संमूछिममनुष्यअसंज्ञियो तथा तिर्यच असंज्ञियो समूच्छिम असंख्यात आयुष्यवाळा युगलिया पंखी तथा अंतरद्वीप युगलिया मनुष्य एटला मांहेथी आव्यो ज्योतिषि देवतापणे
न उपजे. २४१ प्र०-एक योजननुं प्रमाण परमाणुथी मांडीने शी रीते .. थाय छे ? ते कहो.
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उ०-अनंता सूक्ष्म परमाणुए एक व्यवहार परमाणु; आठ
त्रसरेणुए एक उध्वरेणु; आठ उर्वरेणुए एक रथ रेणु; आठ रथ रेणुए उत्तर कुरु युगलीयाना तुरत जन्मेला बाळकनो एक वाळायः एवा आठ वालाग्रे एक महा हिमवन्त क्षेत्र युगलीक बाळ वाळाय; एवा आठ वाळाग्रेः एक महाविदेह क्षेत्र मनुष्य वाळायः एवा आठ वाळाये एक भरतक्षेत्र मनुष्य वाळाय, एवा आठ वाळाये एक लीख, आठ लीखे एक जु, आठ जुए एक जव; आठ जव एक आंगळ; २४ आंगळनो एक हाथ, चार हाथनो एक धनुष, अने बे हजार धनुषे एक कोश, एवा चार
कोशनो एक योजन जाणवो. २४२ प्र०-पविध पल्योपमनुं स्वरूप कहो. 3०-उद्धार, अद्धा, क्षेत्र पल्योपम, सूक्ष्म अने बादर भेदे
करीने छ प्रकारे छे ते आवी रीतेः-१ पूर्वोक्त योजन चार प्रमाणे लांबो पहोळो, अने उंडो कुवो कल्पिए तेने पल्य कहिए, तेनी छे उपमा ते जेने तेने पल्योपम कहिए ते पल्यने देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्रना युगलिक तुर्त जन्मेला बाळकना वाळाय एकना आठ आठ खंड सातवार करीए, ते वाळाय खंडे करी ठांसी ठांसीने भरवो, एवो के ते उपस्थी चक्रवर्तिनी सेना चाली जाय, तथा गंगा नदीनो प्रवाह पूर जोरथी ते उपरथी वहन करे, तोपण एक पण वालाग्र तेमांथी खसे नहि, एवो ठांसीने भरीए, पछी ते वालाग्रने समय समय एक एक
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काढतां जेटला समयमां ते पल्य खाली थाय तेटला कालने एकबादरउद्धारपल्योपम कहिए, ते संख्यातो कहिए. केमके वालाग्रखंडसंख्याता थाय माटे पछी ते वाळायखंडना एक एकना असंख्याताखंड कल्पिए, अने ते कल्पनाखंड समय समय काढतां जेटला काळमां खाली थाय तेटला समयने एक सूक्ष्मउद्धारपल्योपम कहिए, एवा पचीस कोडाकोडीउद्धारपल्योपम एकअढीउद्धारसागरोपम प्रमाणे तिर्छालोके द्वीप अने समुद्र असंख्य छ २ पछी पूर्वोक्त वाळायखंड एक एकने सो सो वरसे काढतां ज्यारे खाली थाय तेटला समयने एक बादरअद्धापल्योपम कहिए, अने ते वाळायखंडना, असंख्याताखंड कल्पिने प्रत्येक खंड सो सो वरसे काढतां जेटला समयमां पल्य खाली थाय तेटला वखतने एक मूक्ष्मअद्धापल्योपम कहिए, तेवा दशकोडाकोडीपल्योपमे एक · सागरोपम, तेवा दसकोडाकोडीसागरोपमे एक अवसर्पिणी ने उत्सर्पिणी काळ; ते बे मळीने वीसकोडाकोडीसागरोपम प्रमाण एक कालचक्र, एवा अनंताकाळचक्रे एक पुद्गलपरावर्तनकाल प्रमाण. आ जीव संसार मध्ये निगोदादिकथी मांडीने जन्म मरण करतो करतो अकाम निर्जराए कुटातो पीटातो, कोइ महापुण्यना उदये शुभपरिणामे करी नदी गोळपाषाणना पंचनाघोळ न्याये करी आ अत्यंतदुर्लभ एवो उत्तम कुळ संयोगवाळो उत्तम निरोगी देहसहित मनुष्यभव पाम्यो छे, छतां
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अनादिकाळना अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व, प्रमादादि रूपभववासनाना जोरे आवी उत्तम योगवाइवाळा मनुष्यभवतुं लेशमात्र पण बहुमान नथी आवतुं, हा ! इति खेदे केवी अफसोसनी वात छे, माटे हे चेतन ! आ परमात्माना वचने करीने हवे चेत! अने जे कुळमां उत्तम कुळना प्रभावे करीने हिंसानो आचारज नथी तेवा अहिंसक कुळनी प्राप्ति छतां श्रीजिनेश्वरभगवंतनो धर्म पाळवामां प्रमादने छोड, अने तारं खरं कर्तव्य आ मनुष्य भवमां शु? छे, तेनो विचार करी विषयकषायनी प्रवृत्तिनो जेम बने तेम संकोच कर, अने तत्त्वमार्गने आदर, सुदेव, सुगुरु, अने सुधमने ओळख; अने ते ओळखाण पूर्वक शुद्धक्रियानुं सेवन कर, अने सरळता, कोमळता, विनयादि गुण धारण करतां शीख जेथी परंपराये तारा आत्मानुं चिरंकाळ कल्याण थशे, तथास्तु शुभंभवतु, शांतिः शांतिः शांतिः। पूर्वोक्त सूक्ष्मअद्धा काळे करी आयुष्यमान, कर्मस्थिति, कायस्थिति, तथा अन्य काळमानादिनुं प्रमाण थाय छे; ३ पूर्वोक्त वाळारखंड स्पा जे आकाश प्रदेश तेने प्रत्येकने समय समय काढतां जेवारे पल्यवाळायथी खाली थाय तेटला काळने बादरक्षेत्रपल्योपम कहिए, अने वाळायने स्पर्या सर्व आकाश प्रदेश पल्यना समय समय खाली करतां जेवारे पल्य निर्लेप थाय एटला काळने सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम कहिए, तेणे करी दृष्टि
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वादमां एकेंद्रिय के प्रसादि जीव संख्यानुमान कराय छे. ए असंख्यातउत्सर्पिणी प्रमाणे इम त्रण सूक्ष्मपल्यो शास्त्रने विसे उपयोगी होइ तिन बादर कह्यां ते सूक्ष्मनो सुखावबोधार्थ इहां प्रायः घणो अद्धापल्योपमनो प्रयोजन छे, इम कोडाकोडी सागरोपमें एककालचक्र तेणे अने ते कालचके पुद्गलपरावर्त होइ ते आठ प्रकारना छे ते त्यांथी जो जो. अस्य गाथा-उझार अखित्तं, पलियतिहा समय वा समय समए किसवहारोदीवोदही, आउसस्साइ परिमाणं
॥१॥॥ पांचमें कर्म ग्रन्थे उक्तं. २४३ प्र०-आत्मसमअवस्थानउपयोगरूप ध्यानदशा केवी रीते
पमाय ? उ०-मोहवशे जीव परभावअनुयायि प्रवृत्ति करे छे. मिथ्या
सुखनी तृष्णाए मूल्यो थको संसार भ्रमण करे छे, ज्यारे मोहस्थिति घटे त्यारे परप्रवृत्ति छुटे, अने ज्यारे परप्रवृति टळे त्यारे विषयथकी विरक्त बुद्धि थाय, अने तेणे करी मनोरोध थाय, केमजे कारण विना कार्य बनतुं नथी, मनने भमवानुं कोई कारण के ठाम न होवाथी ते संकल्प विकल्प श्याना करे ? जेम तृण विनानी भूमिमां एटले उखर भूमिमां पडेलो अग्नि केने बाळे, अर्थात् पोतानी मेळे उपशमी जाय छे, तेम विषय वांछा टळवाथी मन पोतानी मेळेज रुंधाय अने मन रंधायाथी मननी चंचळता मटे, तेवारे मन एकाग्र थइने आ
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त्माने विष प्रवर्त, यतः जोखवेइ मोहखलु, सोविसय विरत्तो मणो णिरुभित्ता। समवठ्ठिदोसाभावे, सो अप्पाणं हवई झाया ॥ १ ॥ इति उक्तं प्रवचनसारे, आत्मभावनानी गाथा-त्रण लखीए छीए. एगोहंहोमिपरे सिं, ण मे परे णत्थि मज्झमिहकिंवि। इय आय भावणाए, रागदोसाविलय जंति ॥ १ ॥ नाणस्सविसुझिए, अप्पा एगतंउ ण संसुद्धो। जम्मानाणंअप्पा, अप्पाणंच अगंवा ॥२॥ आयासामाइए, आयासामाइयस्सअठोत्ती । तेणेव इमंसुत्तं, भासई आयपरिणामं ॥ ३ ॥ ए मूत्रे पण चारिवने आत्मपरिणामरूपज कहीए छीए. पण चाद्यक्रियारूप नथी कडं. तत्र काव्यं-येषांनचेतो ललनासुलग्नं, मग्नं न साहित्यसुधासमुद्रे । ज्ञास्यति ते किंममहाप्रयासानन्धो यथा वारवधूविलासान् · ॥ इत्यर्थः ॥ त्यारे शुद्धात्मोपयोगअवस्थानरूप निर्मळ ध्यानदशानी परम शीतळ शांत सुगंधिनी अनुभवलेहेरीओर्नु आत्मा आस्वादन करे, ते सुख आपणे पौद्गलिक सुखना भीखारीओ शुं जाणीए;
कडं छे जेः-- सघळु परवश ते दुःख लक्षण, निजवश ते सुख लहिए; ए दृष्टे आतमगुण प्रगटे, कहो सुख ते कोण कहीएरे. भविका वीवचन चित्त धरीए. नागर सुख पामर नवी जाणे, वल्लभ सुख न कुमारी; अनुभव विण तेम ध्यानतर्खा सुख, कोण जाणे नरनारीरे. भ. २ विषय भोग क्षय शांत वाहिता, शिव मारग ध्रुव नाम: कहे असंग क्रिया इहां योगी, विमल सुजस परिणामरे. भ. ३
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२४४ प्र० - उत्सर्ग अने अपवाद मार्ग परमार्थे एक आत्मार्थिपणारूप मोक्ष साधक दशाज छे, ते शी रीते ?
उ०- उत्सर्गमार्ग घणो कठीण, घोरतपस्या शुद्धब्रह्मचर्यादि पाळे, जिनकल्पिपणे प्रवृत्ते ते जाणवो, अने अपवादमार्ग ते पूर्वोक्त उत्सर्गनी अपेक्षाए एटले ज्यारे ते उत्सर्गदशामां न टकी शकाय, त्यारे तेमां पाछा स्थिर थवाने माटे, जे कांइक कोमळ मार्गं अवलंबन साधनादि कखं एटले मुनि पंचमहात्रत शुद्ध पाळे, उग्रविहार तपस्यादि करी शरीर गाळे, जेथी विषय कषायादि मोहवासना गाळे, शिष्य, गच्छ, शाखादिनी धारणा करे, ते प्रत्ये परस्पर स्वाध्याय करे करावे, भव्यप्राणीओने धर्मोपदेश आपी स्वपर महानिर्मलता करे करावे, पोते उत्तम मार्गे चाले बीजाने चलावे, अने चालता होय तेने अनुमोदनरूप उपष्टंभ एटले सहायतादि दइ स्थिर करे, इत्यादि अपवादमार्गनुं सेवन करी, मुनि पाछा उत्सर्गमार्गमां लीन रहे छे, एम परमार्थे उत्सर्ग अने अपवादमाग आत्मार्थीज छे, उभय मार्ग शास्त्रानुसार छे, पण जे निष्कारण दूषित मार्गनुं सेवन करे, अने कहे जे अमे उत्सर्गने माटे अपवाद सेवीए छीए, वे चारित्रघातीनी मिथ्या वात छे, केमजे मुनिने कोइ अतिचाररूप दूषण प्रासंगिक लागीजवारूप संभव छे, पण मन थकी अतिचार सेवनकरवरूप प्रमादादि कदापि काळे न
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होय. स्थविरकल्पमां पण आ कालमां सापेक्ष अ
पवादनी मुख्यताए चारित्र छे. २४५ प्र०-पांच नोधम्मीया प्राणी कह्या छे ते कया ? उ०-भट्ठोदेवायच्चो, विसयासत्तो अज्जियापुत्तो । गुरु देवा
यणदुठो, नोधम्मा पंचपन्नत्ता ॥ १ ॥ अस्यार्थः१ भ्रष्ट ज्ञात कुळथी बैठेला जीव; २ देवादिक धर्मखाताना निःशूक मने हराम दानते पगार खानारा पूजारादिक तथा देव गुर्वादिक द्रव्यना खानारा; ३ विषयाशक्त लोलुपी लंपटी; ४ व्यभिचारवडे साध्वीने पेटे अवतरेल पुत्र, ५ देव, गुरुः धर्मादिकनो निंदक, वातक उत्थापक ए पांच अधर्मी एटले नोधम्मिया जाणवा, ते वीतराग भाषित धर्मथी
पराङ्मुख रहे. २४६ प्र०-समूच्छिममनुष्य मरी केटला दंडकमां जाय छे ? उ०-दशदंडकमां जाय छे. ५ पांच थावरमां ३
विकलेन्द्रियमां ९ पंचेन्द्रियमनुष्यमा १० पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां जाय पण युगलियो न थाय. तथा ए दशदंडकमां तेउकाय. वायुकाय ए बे दंडक वर्जिने
बीजा आठ दंडकना आव्या संमूछिममनुष्य थाय. २४७ प्र०-जीवने परभवआयु शी रीते बंधाय छ; अने ते
केटला प्रकारचें छे ? उ०-जीवने आयुकर्म परभवसंबंधिनु आ भव भोगवतां
थकां एकजवार निकाचितपणे त्रण आकर्षे करी सो
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पक्रमि तथा निरुपक्रमिभेदे जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट ३३ सागरोपम सुधीन अध्यवसायनी तारतम्यताए भिन्न भिन्न जीवने नानाविध बंधाय छे; त्यां देवता नारकीने आ भव आयु छमास थाकतां बाकी रहेतां परभवायु बंधाय, तथा युगलिक मनुष्यो तथा तिर्यच तेमज तीर्थकरादि त्रिषष्ठि शलाकापुरुष अने चरमशरीरी एटलानुं आयु निरुपक्रमि बंधाय, शेषने सोपक्रमी आयुबंध होय, त्यां उपक्रम एटले उपघातादि कारण विशेषे आयु बेटे, एवो मंद मंदतरादि परिणामविशेषे जीवे आयुबंध कर्यो होय, तेवो उपक्रम पण आयुना बंधनी साथेज बंधाय छे, एथी जेम तेले करीने वाट सहित संपूर्ण रीते दीवान कोडीउं भरेलुं होय, ते दीवाने कोइपण पवनादि उपघात न लागे तो तो ते ठेठ सुधी सारी रीते बळे छे, नहि तो पवनना एक सखत सपाटार छते तेले अने वाटे ठरी पण जाए, एम सोपक्रम आयुना बंध पण एवांज ढीलां जाणवां, ते व्यवहारे विष, शस्त्र, अकस्मातादि सात कारणे बेटे छे, पण निश्चये तो जीवे तेवीज रीतनुं तेटलाज समयकाळनुं बांधेलं ज्ञानीनी दृष्टिए दीठेलु भोगवे छे, एक समयमात्र पण आधु पार्छ करवाने कोइ पण समर्थ नथी; देव नारकीआदि शिवायना सोप्रक्रमी आयुवंत प्राणीओ घणुं करीने पोताना भव आयुना अंतमां अंतर्मुहूर्त थाकतां परभव आयु बांधे छे, ते बांधतां जीवने अंतर्मुहूर्त लागे छे, ते बंध
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दरमियाने ऋण आकर्ष ( उ ) करे छे, जेम गाय पाणी पीती से बीसामे पीये, तेम जीव पण आयुकना घुटने लेइ आकर्षि बांधे; त्यां मति तेवी गति अथवा गति तेवी मति अनुसारना परिणाम विशेषे बंध पडे.
२४८ प्र० -आकुट्टी, दर्प, प्रमाद अने कल्प ए चार शब्दार्थ कहो. उ०- आकुट्टीकया अनाभोगतया उपेत्यसावद्यकरणोत्साहोत्मिका १, दप्पधावन प्लवनादिकः वल्गनादिकः । हास्यजनको वा नाट्यादिकदपरूपोवा २, प्रमादो रात्रौ दिवाप्रतिलेखनाप्रमार्जनाद्यनुपयुक्तता ३, कल्पकारणे दर्शनादिचतुर्विंशतिरूपेसति गीतार्थस्यकृतयोगी उपयुक्तस्य अयतनतया आधाकर्माद्यादानरूपा ४, इति । अस्यार्थः ।
आकुट्टी एटले अनाभोगे उपयोग रहित सहसात्कारे उद्धतपणे सावद्यकार्य प्रवृत्तिः २ दर्प एटले अहंकारे वा इर्ष्याए चडसाचडसीए नाटक कौतकादि जोवा जतां वाटमां अश्ववृषभादिने खूब दोडाववा वगेरे अयत्नाए निर्दय सावद्य कर्माचरण; ३ प्रमाद एटले रात्रे वा दिवसे प्रमार्जन प्रतिलेखनादि सावध क्रिया अयत्नाए जेम तेम बेदरकारीथी करवी ते ४ कल्प एटले गीतार्थ बहुश्रुतादिना वचन निरपेक्षपणे निष्कारण आवाकर्मादि दूषित आहार ग्रहण करवो वगेरे मार्गथी भ्रष्ट आचार प्रवृत्ति ते.
२४९ प्र० - मिथ्यात्वप्रत्ययिकी १, अप्रत्याख्यानिकी २, परिग्रहिकी
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३, आरंभिकी ४, मायाप्रत्ययिकी ५, ए पांच क्रियावती
जीवोनुं अल्पबहुत्व कहो. उ०-मिथ्यात्वप्रत्ययिकीलियावाळा सर्वथी थोडा; १ ते
थकी अपच्चरूखाणीक्रियावंतजीव असंख्यातगुणा अधिक केमजे तेमां अविरति भळ्या; २ ते थकी परिग्रहिकीक्रियावंतजीवो असंख्यातगुणाधिक जे भणी तेमां देशविरति भळ्या माटे; ३ ते थकी आरंभिकीक्रियावंत असंख्यातगुणाधिक जे भणी सर्वविरति छठ्ठा गुणठाणाना मुनि तेमां भळे तेथीः ४ मायाप्रत्ययिकीक्रियावंत तेथी संख्यातगुणाधिक जे भणी तेमां नवमा गुणठाणावर्ति मुनि वध्या तेथी.
ए भाव पनवणासूत्रमध्ये छे. इति । २५० प्र०-देवगतिने विषे छ लेश्या आसरी अल्पबहुत्व कहो. उ०-१ शुक्ललेश्यावंतदेवताओ सर्वथी थोडा, २ ते
थकी पद्मलेश्यावंत असंख्यातगुणाधिक, ३ तेथी कृष्णलेश्यावंत असंख्यातगुणाधिक, ४ ते थकी नीललेश्यावंत असंख्यातगुणाधिक, ५ ते थकी कापोतलेश्यावंत असंख्यातगुणाधिक, ६ ते थकी तेजो
लेश्यावंत ज्योतिषीदेवो असंख्यातगुणाधिक जाणवा. २५१ प्र०-सोपक्रमिआयुषवंतजीव आयु पुरुं भोगवतां थकां पण
अकाळे चेवजीवियाओववरोविया-॥ मरण पाम्यो एम
कहे छे तेनुं शुं समजवु ? उ०-जेम राजाए कोस. चोरने पकडीने शूळीये के
फांसीए दीधो, त्यां ते जीवे सर्व आयु कर्मनां दल,
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हतां ते आत्मप्रदेशोदये भोगवी, आयुकर्म बांध्यु हतुं तेटलं पूरुं भोगवी लीधु, तथा काळ आसरी अकाळे मुओ एटले जे आयु सुखे समाधे जीव विपाकोदये भोगवीने मरत, ते थोडा काळमां ते आयुना दळने प्रदेशोदये वेदीने खपावीने मुओ तेथी तेने अकाळमरण कहे छे. अर्थात् जेटलं आयुष बांध्यु हतुं तेटलुं प्रदेशोदये भोगवीने पूरूं कीधुं तेथी संपूर्ण आयुषे मुओ तेम कहेवाय अने घणा काळे विपाकोदये भोगववानुं आयु कर्म थोडा
काळमां भोगवीने खपाव्युं माटे अकाळ मरण कहिये. २५२ प्र०-कोने संघनी बहार काढवो तथा कोने दीक्षा न
आपवी जोइए ? उ०-अथ प्रास्ताविक गाथा
जो भणईनत्थिधम्मो, न सामाइयं न चेव वयाई । सो समणसंघबज्झो, कायव्वो समणसंघेण ॥ १॥ अठारसपुरिसेसु, वीसइत्यीसु दसनपुंसेसु । जिणपडीकुतित्थियाओ, पवावेउ न कप्पंति ॥२॥ बालेवुद्वेनपुंसयेय, किवेजडेयबाहिए। तेणेरायावगारिय, उमत्ते य अदंसणे ॥३॥ दासेदुटेअमूढेय, अणंतेजुगए एय । अवबंधए यमिएय, सेहेनिप्फोडीयाइय ॥४॥
एटलाने दीक्षादेवी न कल्पे, २५३ प्र०-सोळ संज्ञाओ कइ ?
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उ०- गाथा-
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आहारभयपरिग्गह, मेहुणतह कोहमाणमायाए । लोहो हलोगसण्णा, दससन्नाहुंति सव्वेसिं ॥ १ ॥ सुहदुहमोहसन्ना, वितिमिच्छाच उद समुणेयव्वा । सोगे तहधम्मसन्ना, सोलस ए हुंति मणुएस ॥ २ ॥ २५४ प्र० - दश संज्ञा कया कया जीवोमां छे.
उ०- गाथा-
उ०- तत्र गाथा-
रुक्खाणजलाहारो, संकोयणीयाभएण संकुयइ | नीयतंतुएण वेढइ, वलीरुक्खेण परिग्गहेय ॥ ३॥ इत्थीपरिरंभेण, कुरुबकतरुणोफलती मेहुणे । तहकोकनदस्सकंदो, हुंकारोमुयइ कोहेण ॥ ४ ॥ माणेण झरईरुदंती, च्छायई वल्ली फलाईमायाए । लोहेबीलपलासा, खिवंतिमूले घणाणुवरिं ॥ ५॥ रयणीए संकोओ, कमलाणं होईलोगसन्नाह । ओहे चईतु मग्गं, चढंति रुखेसु वल्लीओ ॥ ६ ॥ इति १० संज्ञाना उदाहरण ।
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२५५ प्र० - अढार भावदशा तथा अढार द्रव्यदशानुं स्वरूप
कहो.
तिरियामणुआकाया, तह अग्गबीयाय चउरो । देवाय नेरइया - अट्ठारसभावरासीओ ॥ १ ॥
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बेरेन्द्रिय, तेरेन्द्रिय, चोरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, ए चार तथा समूच्छिममनुष्य कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजा
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अंतरद्वीपना, हवे अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज, स्कंधबीज, ए चार वनस्पतिना भेद. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय, एवं चार तथा देवता अने नारकी एवं अढार १८ भावदिशा. आचारांग सूत्रमध्ये शस्त्रपरिज्ञाअध्ययनमांहे भावदिशा वखाणी छे. तथा अढार द्रव्यदिशा. चारदिशि, चारविदिशि, आठदिशि, विदिशिनां आंतरां. ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा
ए १८ द्रव्यदिशा जाणवी. २५६ प्र०-नीलीगलीए रंगेला वस्त्रमा केटला वखतमां जीव
पडे छे ? 3०-नीलीगलीए रंगेला वस्त्रथी मनुष्यससँग तत्काल
कुंथुप्रमुख त्रसजीव घणा उपजे छे. एम रत्नसंचय
ग्रन्थमां कह्यु छे. २५७ प्र०-लब्धिपर्याप्तानुं तथा करणपर्याप्तान के स्वरूप छे ? उ०-पर्या.िद्विधा लब्धिः करणश्च तत्र ये स्वयोगपर्याप्ति
सर्वाअपि समर्था म्रियन्ते न अर्वाम् ते लब्धिपर्याप्ता ये पुनःकरणानि शरीरेन्द्रियादीनि निवर्तन्तः ते करणपर्याप्ता इति, ननुचारयशरीरपर्याप्तौ च शरीरंभविम्यति किं प्राग अभिहितेन शरीरनाम्ना ? नैतदस्ति साध्यभेदात् तथा जयरामकृल बालावबोधमां एम
लस्युं छे. २५८ प्र०-छ पर्यापिनुं स्वरूप है. उ०-जे कर्मना उदयथी ७ पर्याप्ति पूरी कर्या विना
न मरे ते पर्याप्तिनाम में तेणे एकेन्द्रियने चार
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विगलेन्द्रिय तथा असंज्ञीपंचेन्द्रियने भावा होय. संज्ञीपंचेन्द्रियने मन होय. उत्पत्ति प्रथम समयथी आरंभी पर्याप्ति पूरी कर्या विना न मरे. पूरी करीने मरे ते लब्धिपर्याप्तो जाणवो. शरीर इन्द्रिय पर्याप्त पूरी न थाय त्यां सुधी तेने अकरणपर्याप्तो कहेवो. अथवा जे जे पर्याप्ति पूर्ण नथी थइ तेनी अपेक्षाए अकरणपर्याप्तो जाणवो. जे जे पर्याप्ति पूरी करी ते अपेक्षाए करणपर्याप्तो जाणवो. जे कर्मना उदये आरंभेली पर्याप्ति पूरी कर्या विना मरे ते लब्धिअपर्याप्त नामकर्म पुद्गलना उपचयथी थयो पुगल परिणमन हेतु शक्ति विशेष ते पर्याप्ति विषय भेदे छे.
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२५९ प्र० -पर्याप्ति ने प्राणमां शो फेर छे ?
उ०- पर्याप्ति ते उपजतीवेलाए होय अने प्राण ते जावजीव लगे होय.
२६० प्र० - सम्यग्दृष्टिनी केवी दशा होय ?
उ०- गाथा
बंधो अविरइंहेउ, जाणतो रागदोसबंधंच । विरहं इच्छतो, विरई काउं च असमत्थो ॥ १॥ एस असंजयसम्मो, निदंतोपावकम्मकरणंच |
गयजीवाजीवो, अचलियदिट्टीबलिय मोहो ॥ २ ॥ सम्भदसणसहिओ, गिण्हंतोविरइमप्पसत्तिए । चरमो अणुमइमित्तत्तदेसजई || ३ ||
કર્
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ए गाथानो गुरुगमथी अर्थ धारज्यो. सम्यग्दृष्टिने उदयस्थिति प्रतियो। होय. पण आत्मप्रतियोबंध
न होय. २६१ प्र०-छद्मस्थ कोने कहे छे ? उ०-छाद्यते केवलज्ञानदर्शने आत्मनः अनेनेतिछद्म
ज्ञानावरणं दर्शनावरणं मोहनीयान्तरायकर्मोदयेसति तस्य केवलज्ञानदर्शनस्यानुत्पादात् तदपगमानन्तरं चोत्पादात् ज्ञानावरणादिछद्मनि तिष्ठतीतिछद्मस्थः॥ केवलज्ञान विना बाकीनां चार ज्ञान प्रगटतां पण
छद्मस्थ गणाय छे. २६२ प्र०-मुनिने अप्रमत्तदशाए समय समय अनंतगुणविशुद्धि
कही छे ते शी रीते ? उ०-आत्मोपयोग एकाग्रध्यान भणी मुनिने आत्मप्रदेशे
रहेल अनंतीकर्मवर्गणानी निर्जरा थतां आत्मानी
अनंती विशुद्धि समय समय थाय छे. २६३ प्र०-आहारकआहारक मिश्र जीव किम करे ? उ०-जेवारे पूर्वधरे संदेह पुछवा निमित्ते आहारकशरीर
मोकल्यु होय तिहा ज्ञानवंत नहीं तिवारे तिहाथी वली बीजं आहारक करे ते करती वेलाए पूर्वआ
हारक संघाते मिश्र होय ते माटे. इति भावार्थ । २६४ प्र०-सिद्धने अफुसमाण के फुसमाण गति शी रीते
समजवी ? उ०-एक समयमां समश्रेणिना सर्वआकाशप्रदेश, फर
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सतो जीव सिद्धि गतिए जाय, पण वचमां विषम श्रेणिना आकाशप्रदेश न फरसे माटे ते अपेक्षाए सिनी अफुसमाणगति कहिए, तथा समश्रेणिए आकाशप्रदेश फरसतो फरसतो जाय, ते अपेक्षाए क्षेत्रआश्रिफुसमाणगति कहीए, अने एक समयथी बीजा समयना अंतरने न फरसे ते माटे आश्रि अफुसमाण गति कहे छे.
२६५ प्र० - त्रणकारना पुद्गलो दृष्टांतथी समजावो.
उ०- विश्रसा ते स्वभावे कोइ निमित्त पामी तदाकार
थाय, जेम इंद्रधनुष्यादि अभ्रवत्, २ प्रयोगसा ते जीव व्यापारे, उद्यमे करीने जे निपजे, जेम भवन, घटपटादि ३ मिश्रसा ते कांइक सहज स्वभावे अने कांडक प्रयोगे जेम ते माणसे जुनो पटो बांच्यो अथवा जुनी पाघडी बांधी इत्यादिमां पुद्गलों जीर्णप थवं ते स्वभावे कहीए, अने बंधनकर्म ते मनुष्यना प्रयोगवडे थाय छे, एम स्वभाव अने प्रयोगे मळी बनेल वस्तुने मिश्रसा पुद्गल कहे छे.
२६६ प्र० - श्रीतीर्थकरना जन्मादिककल्याणक वखते साते नरके केटलं अजवालुं थाय ते कहो.
उ०- पहेली नरके सूर्यसमान उद्योत, २ बीजीए वादळे ढांकेला सूर्यसमान, ३ त्रीजीए पूनमना चंद्रसमान, ४ चोथीए वादळे ढांकेला चंद्रमासमान, ५ पांचमीए ग्रहोना उद्योत समान, ६ छठीए नक्षत्रना उद्योत समान, ७ सातमीए ताराना उद्योत समान.
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___ अथ प्रास्ताविक गाथा--- कालेसुपत्तदाणं, समत्तविसुद्धिबोहिलाभं च । अंते समाहिमरणं, अभव्वजीवा न पावंति ॥ १ ॥ अखंडियचउत्थो, वयगहणाउ जोय गीयत्थो । तस्स सगासे सण, वयगहणंसोहिगहणं च ॥ २ ॥ कत्थय जीवो बलीओ, कत्थय कम्माई हुंति बलीआई । जीवस्सय कम्मस्सय ॥३॥ कालसहावोनियइ, पुवकयंपुरसकार ए गंता। मिच्छं तंतं चेवओ, समासओ होतिसमत्तं ॥४॥ नव हि जीववहकरणं, करायण अणुमोदिय जोगेहि । कालतिएहिंगुणीएं, पाणीबहदुस्सतेयाल ॥५॥ अस्यार्थः
साधुने पहेलाव्रतना नवकोटी पच्चक्खाण छे पण तेहना भांगा २४३ थाय इम २७ करवाना २७ कराववाना २७ अनुमोदवाने विषे निषेधे इम ८१ थाय ते काले त्रणेगुणेगुणी त्रिगुणाकरतां २४३
भेदे साधुने पञ्चक्खाण होय जावजीवलगे इत्यर्थः । २६७ प्र०-छ प्रकारना पुद्गलनुं स्वरूप कहो. उ०-१ बादर ते खडी माटी पाषण प्रमुख पाया,
केमजे ते पदार्थोने छेद्या थकां तेना खंडो एकमेक न रहे, पण भिन्नभिन्न नजरे देखाय छे, माटे बादर बादर ते पहेलो भेद, २ बादर ते घी, दूध, पाणी, तेल, मध, गोळ, खांड इत्यादिकना पुद्गलने बादर कहिये, केमजे तेमने छेद्यां थकां मिन्न न भाय एकमेक मळेलांज रहे छे. ३ बादरमुक्ष्म ते शरी
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स्नी छाया छतां छायडो धूमाडा वगेरेना पुद्गलो नजरे देखाय छे, पण हाथमां ग्रहवाय नहि, माटे बादरसूक्ष्म, ४ सूक्ष्मबादर ते गंध, रस, स्पर्श शब्दादिकना पुलो आंखे देखाता नथी, परंतु स्पर्शादिके लक्षणे जणाय छे, माटे तेने सूक्ष्मबादर कहिए, ५ सूक्ष्म ते अष्टकर्मवर्गणाना पुलो चार स्पर्शवाळा छे ते नजरे देखाता नथी माटे; ६ सूमसूक्ष्म ते छटो शुद्धपरमाणुपुद्गल ते बे स्पर्शवाळा अत्यंतसूक्ष्म छे माटे ए रीते छ प्रकारना पुल संसारमध्ये व्यापी रह्या छे, जेम छ कायना जीव व्यापी रह्या छे तेम जाणवा.
२६८ प्र० - ज्ञानावरणीयादिकर्मनो बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता केटला गुणठाणा सुधी होय.
उ०- ज्ञानावरणीयनो बंध गुणठाणा १० मासुधी, दर्शनावरणीयनो बंध १० मा सुधी, वेदनीयनो बंध गुणठाणा १२ मा सुधी, मोहनीयनो बंध गुणठाणा नवमा सुधी, आयुकर्मनो बंध गुणठाणा सातमा सुधी, नामकर्मनो बंध गुणठाणा १० सुधी, गोत्रकर्मनो बंध गुणठाणा दशमा सुधी, अंतरायकर्मनो बंध गुणठाणा दशमा सुधी, हवे ज्ञानावरणीयकर्मनो उदय गुणठाणा १२ मा सुधी, दर्शनावरणीयकर्मनी उदय गुणठाणा १२ मा सुधी, वेदनीयकर्मनो उदय गुणठाणा १४ मा सुधी, मोहनीयकर्मनो उदय गुणठाणा १० मा सुधी, आयुकर्मनो उदय गुणठाणा १४ मा सुधी,
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नामकर्मनो उदय गुणठाणा १४ सुधी, गोत्रकर्मनो उदय गुणटाणा १४ मा सुधी, अंतरायकर्मनो उदय गुणठाणा १२ मा सुधी, ज्ञानावरणीयकर्मनी उदीरणा १२ मा गुणठाणा सुधी, दर्शनावरणीयकर्मनी उदीरणा १२ मा सुधी, वेदनीयकर्मनी उदीरणा ६ सुधी, मोहनीयनी १० मा सुधी, आयुकर्मनी ६ सुधी, नामकर्मनी १३ मा सुधी, गोत्रकर्मनी १३ मा सुधी, अंतरायनी १२ सुधी, हवे ज्ञानावरणीय कर्मनी सत्ता गुणठाणा १२ मा सुधी, दर्शनावरणीय कर्मनी सत्ता १२मा सुधी, वेदनीयकर्मनी सत्ता १४मा सुधी, मोहनीयकर्मनी सत्ता ११ मा सुधी, आयुकर्मनी सत्ता १४ मा सुधी, नामकर्मनी सत्ता १४ मा सुधी, गोत्रकर्मनी सत्ता १४ मा सुधी, अंतरायकर्मनी सत्ता १२ मा सुधी होय, एवं बंध उदय उदीरणासत्तानुं स्वरूप कडुं छे. ए सर्व भाव केवलज्ञानी एकजीव स्वरूपे द्रव्य गुणपर्याये छे तेहवा अनंताजीव देखे, एकेक जीवने अनंताकर्म जे रीते छे ते देखे, एकेक जीवने अनंताभव देखे छे. एकेक जीवना अनंताभाव देखे छे, भावते परिणाम इम केवली सर्वभाव अस्तिनास्तिरूपे जीम
छे ते तीम जाणे ते देखे इति भाव । २६९ प्र०-अचित्तमहास्कंध ते शुं ? अने तेनो समुद्घात
तथा केवळीसमुद्घात केवी रीते थाय छे तेनुं स्वरूप कहो.
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उ०-द्विप्रदेशी परमाणुओना स्कंधथी मांडीने असंख्यात
प्रदेशीयास्कंधपर्यंत एकपुद्गलस्कंध थाय, तेणे करी लोक पूराय नहि, वळी अनंतापरमाणुओमळीने जे रकंध बने तेथी पण लोक सघळो पूराय नहि, पण अनंतबादरपरमाणुनो एकस्कंध तेवा अनंतास्कंधमळे त्यारे ते अचित्तमहास्कंधरूप थाय, तेणेकरी चौदराजलोक पूराय ते आवी रीतेते स्कंध विश्रसापरिणामे परिणमीने केवलीसमु
घातनी परे दंडरूप करीने दिशि तथा विदिशिमां विस्तरी खंडुआ पूरी चौदराज संपूर्ण स्पर्शीने पाछो केवलीसमुद्घातनी परे संवरीने स्कंधरूप थाय, ते स्कंध असंख्यातआकाशप्रदेशअवगाहीने रहे; ते अचित्तमहास्कंधक्षेत्रआसरी अढीद्वीपमांही करे, पण ते थकी बाहेर न करे, जेम केवळी केवलीसमुद्घात अढीद्वीपमांहे करे, पण बहार नहि, तेम ए पण जाणवू; तथा केवळी पण केवली समुद्घात करे तेवारे पोताना जे आट रुचक प्रदेश छे ते मेरुना मध्य जे रुचक प्रदेश छे, त्यां जाय, स्थापे, पछी त्यांथी विस्तारीने संपूर्ण चौदराजलोक पोताना आत्मप्रदेशे पूरे, त्यां प्रथम चौदराज प्रमाण सिद्धो उंचो दंडरूपे आत्मप्रदेश विस्तारे पछी
खैयाना चार मंथान भागनी परे कपाट आकारपणे विस्तारे, पछी मांहीना आंतरा पूरे, ए सर्व समु
रातक्रिया केवळी भगवान् जेमनुं आयुष्य अल्प होय अने कर्म घणा रह्या होय तेज केवळीभग
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वान् समुद्घात आठ समयनो करे पण बीजा नहि पछी एम पोताना आत्मप्रदेशे चौदेराजलोकमां रहेल प्राणीमात्रना आत्मप्रदेश साथे मेळवी प्रदेशोदये कर्म भोगवीने दंड, कपाट, मंथानादि अनुक्रमे संवरीने अयोगी थया थका सिद्धि वरे इत्यादि स्वरूप विस्तारे; ग्रंथान्तरथी ( लोकप्रकाशग्रन्थे कडं
छे) गुरुगमथी जाणवू. २७० प्र०-निगोदनुं स्वरूप कहो तथा जीव अने पुद्गलनी
शक्तिनी सूक्ष्मता जिनवचनानुसार दर्शावो. उ०-असंख्यातप्रदेशी लोक ते प्रमाणे गोला पण असं
ख्याता छे, गोलो ते शुं ? असंख्याति निगोदे एक
गोलो इति ते उपर गाथालोएअसंखजोयण, माणेपईय जोयणंगुला संक्खा । पइतं असंखअंसा, पइअमसंखया गोला ॥१॥ गोलो असंख निगोओ, सोअणअसंखपईपएसं । कम्माणंवग्गणाणंता .... .... .... ॥२॥ पइवग्गणाअणंता, अणुअ पइंअणंत पज्जाया । एवं लोगसरुवं, भाविज्ज तहत्तिजिणवुत्तं ॥३॥ अस्यार्थः
चौदराजलोक असंख्याती कोडाकोडी जोजननो छे, ते मध्ये एक जोजन लइए, तेना अंगुल असंख्याता थाय, ते मध्येथी एक अंगुल लीजीए, तेना असंख्यातमा भागप्रमाण, एकभाग लइए, ते मांहे असंख्याता गोळा छे, ते मांहेलो एकगोळो लइए ते एकगोळामांहि असंख्याति निगोद छे, ते
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AAAAAAAMA
मांहेली एकनिगोद लइए ते निगोदमां अनंता जीव छे, ते मांहेलो एकजीव लइए तेमां असंख्याता प्रदेश छे, ते एकजीवने प्रदेशे प्रदेशे अनंतीकर्मवर्गणा छे, ते मांहेली एक कर्मवर्गणा लीजीए ते मांही अनंतापुद्गलपरमाणुआ छे, ते मांहेलो एक परमाणु लीजीए, ते मांही अनंता पर्याय समकाळे परिणमे, एवी जीव अने पौद्गलिक शक्तिनी अत्यंतसूक्ष्मता जाणवी, एवू श्रीवीतराग वचन तहत्ति करी मानीए. हवे निगोदीआ जीवना भवनी संख्या काळ मान विचारे छे:--असंख्यात समयनी एक आवली थाय, २५६ आवलिनो एक निगोदीआ जीवनो क्षुल्लक भव थाय, एक श्वासोच्छवासमांहे चुंवालीससेंने साडीच्छेतालीस आवली थाय तेवा भव निगोदीओ जीव एक श्वासोच्छ्वासमां १७ भव झाझेरा करे, एटले ते जीव सत्तरवार मरे अने अढारमी वार उपजे, केमजे एक श्वासोच्छावसमां १७ भव अने ९४॥ आवळी जेटलो काळ थाय छे ते प्रमाणे गणतां बे घडीमां. ३७७३ श्वासोच्छावस थाय छे, तेटलामां निगोदिआ भव ६५५३६ थाय, ए लेखे एक दिवसमां श्वासोच्छ्वास ११३१९० अने तेमां भव एटला श्वासोच्छ्वास निरोगी युवान पुरुषना थाय, तेवा एक दिवसमां १९६६०८० भव निगोदिओ जीव करे, ते हिसाबे एक मासना श्वासोच्छ्वास ३३९५७०० गणतां निगोदीआ भव ५ क्रोड ८९ लाख ८२ हजार अने ८०० थाय,
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अने एक वरसमां ४ कोड, ७ लाख, ४८ हजार, अने ८०० गणतां तेने विषे निगोदीओ जीव ७० कोडी ७७ लाख ८८ हजार अने ८०० वार जन्ममरणरूप भव करे, एवा भव पूर्वे आ जीवे असंख्यातेकाले असंख्याता अधिक भव कीधा, एम अनंताकाले अनंता भव कीधा, अनंता अतीतकाळमां अनंताअनंत भव कर्या, ते श्री वीतराग परमात्मानु वचन सदहिने, हे चेतन ! तुं मनमां कांइक पापनो त्रास आण अने आ तारा पोताना जीवनी दया चिंतवीने तेने आवा भयंकर जन्ममरणना फेरामांथी मुक्त करवानो श्रीजिन प्रणीत मार्ग छे, तेने अप्रमत्तपणे यथार्थ आदर. इतिभाव. जूनी प्रतिमां नीचे प्रमाणे पाठ छे. तथा एक गोलामांहे असंख्याति निगोद छे. निगोदशरीर एकशरीरे अनंता जीव छे, एटले अनंते जीवे मलीने एक शरीर बांव्युं छे, आप आपणा तेजसकार्मण जूदा छे. औदारिक एक छे. साथे आहारनिहार साथे मरण २५६ आवलीनो आयु भोगवी पर्याप्ति पूरी करीने मरे तेहनी निश्राए बीजा कोइ अपर्याप्ता होय नहीं ते अनंत केटला छे ? जेटला कंदमूल मध्ये अनंता छे ते कंदमूल चौदराज प्रमाणे ढग करीए तेमांहे पण सूक्ष्मनिगोदना एकशरीरना अनंता निकल्या तेमांहे न समाय एहना अनंताअनंत भव घणा छे. तिहांना निकळ्या तेमांहेज समाय, तथा कंदमूलना ते बादरनिगोदिया छे व्यवहारराशि
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मांहि आव्या छे अनंताकंदादिक मांहे छे. तथा जेटला जीव सूक्ष्मनिगोदगोलकमांहेथी निकल्या छे ते व्यवहारराशिमाहे आव्या ते कालादिक लब्धि पामी सिद्धिवरे तेटला अव्यवहारनिगोदमांहेथी नीकळी उंचा व्यवहारराशिमाहे आवे पण व्यवहारराशि तो ओछा न थाय, कदापि मुक्ति जावानो विरहकाल होय तेटला काल सुधी सूक्ष्म अव्यवहारराशि निगोदनो जीव कोइ व्यवहारराशिमां न आवे
एहवं उपमितिभवप्रपंचग्रंथमांहे का छे. २७१ प्र०-बादरसाधारणवनस्पतिकायमांथी जीव मरीने सूक्ष्म
गोळकनिगोदमां जाय तो त्यां केटलो काळ
उत्कृष्ट रहे. उ०-अढीपुद्गलपरावर्तन, मतांतरे असंख्याति उत्सर्पिणी
अवसर्पिणी सुधी पण कर्तुं छे, त्यांथी नीकळी बादर निगोद कंदमूळ मांहि उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी सागरोपम सुधी रहे, एकनिगोदनो गोळो असंख्याताआकाशप्रदेश अवगाही रह्यो छे, तथा अव्यवहारराशिया निगोदीआ जीव जे गोलकमां छे ते भवस्थितिपाकतां उंचा आवे ते एकसमये उत्कृष्ट केटला नीकळे ? तोके जेटला अढीद्वीप मांहीथी सकळकर्म खपावी एकसमये जेटला जीव सिजि वरे, तेटला सूक्ष्मनिगोदमांथी नीकळी व्यवहारराशीमां आवे, ते जघन्य एकसमयमां एक, बे, वणथी उत्कृष्ट १०८, अने तेटलाज सूक्ष्म
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निगोदमांथी नीकळी व्यवहारराशीमां आवे तथा व्यवहारराशीया जीव पाछा निगोदगोळकमां जाय तो ते एकादिथी मांडी उत्कृष्ट अनंता सुधी जाय, एम व्यवहारराशीया नीकळे तो उत्कृष्ट अनंता नीकळे, पण अव्यवहारराशीया तो उत्कृष्ट १०८ नीकळे, तेमां भव्य अने अभव्य बेउ होय ते सूक्ष्म निगोदना अनंता नीकळ्याबाद निगोदमांहे समाय, बीजामांहे नहि, तथा एकसूक्ष्म निगोदमांहे अनंता जीव केटला छे ? तोके त्रण काळना जेटला समय अनंता छे, तेथी अनंता जीव एक निगोदमांही छे, तेथी ज्यारे केवळी भगवंतने सिद्धना जीवनी संख्या पुछीए, त्यारे कहे छे के एक निगोदने अनंतमे भागे सिद्धमां जीवो छे, एम ज्यारे पुछीए त्यारे जवाब मळे, केम जे पूर्वोक्त निगोदअनंतानुं स्वरूप विचारतां ए वात यथार्थ विवेकीने समजमां आवे, माटे उत्तमजीवे श्रीवीतराग परमात्मानुं वचन सदा सर्वदा सद्दहवा योग्य छे, आपणी बुफिनी मंदताने लीधे निरोगी, निर्मम वीतराग प्रभुना वचनमां संदेह लावषो नहि, केम जे एमणे तो पोताना ज्ञानमां दिखें तेज का छे अने तेज सत्य छे. जूनी प्रतिमा नीचे प्रमाणे पाठ छे. व्यवहारराशिया बादरनिगोदमाहे जे अनंता छे ते करी कर्मनी बहु लताए सूक्ष्मनिगोद गोलकमांहे जाये ते सित्तेर कोडाकोडी सागरोपम सुधी तिहां रहे वळी पाछा कंदादिक साधारणमाहे आवे इम संबंधे सूक्ष्मना
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बादरनिगोदमां आवे वली बादरना सूक्ष्ममाहे जाय एम बेस्थानके आवागमन करता जीव उत्कृष्टो रहे तो अढी पुगलपरावर्तनपर्यंत रहे पछी पृथ्वीआदिक स्थानके फरसतो उंचो आवीने मनुष्य थाय, तीहां व्यवहारराशियो भव्यजीव सामग्री मळे बोधिबीज पामी सिद्धिवरे तथा वली कोइ वाचनाए इम कयुं छे जे कंदमूलसाधारणमांहिथी जीव सूक्ष्मगोलकमांहे जाय तो उत्कृष्ट काल रहे तो असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल सुधी सूक्ष्मनिगोदना गोलकमांहे रहे, तिहांथी नीकळ्यो बादरनिगोदमांहे उत्कृष्टशे ७० कोडाकोडी सागर सुधी रहे, एम सर्वे बे निगोद मळी आवागमन करतां उत्कृष्टे अढीपुद्गलपरावर्त सुधी व्यवहार राशियो जीव निगोदमांहि रहे. एकनिगोदनो गोलो असंख्याता आकाशप्रदेश अवगाहि रह्यो छे. तथा अव्यवहारराशिया जे निगोदमांहि छे ते भवस्थितिनी परिपक्वता सुधी उंचा आवे ते एकसमये केटला नीकळे ? जेटला अढीद्वीपमांहिथी सकलकर्म खपावी एकसमये जेटला सिद्धिवरे तेटला सूक्ष्म निगोदमांहेथी निकळी व्यवहारराशिमां आवे एक समये एक, बे, त्रण उत्कृष्टे एकसमये अढीद्वीपमांहे १०८ सिद्भिवरे तेटला सूक्ष्मनिगोदमांहेथी निकळे व्यवहारराशिपणो पामे तथा व्यवहारराशियो निगोदना गोलामांहे जाय तो एकसमये एक, बे, त्रण एम अनंता सुधी जाय ते व्यवहारराशिया निकले
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तो अनंता सुधी एकसमये निकळे पण अव्यवहारिया ते एकसमये उत्कृष्ट १०८ निकळे तेमांहे भव्य अभव्य बे होय. ते सूक्ष्मनिगोदना अनंता निकळ्या बादरमांहि समाय बीजामां नहीं, तथा एक सूक्ष्मनिगोदमाहे अनंताजीव केटला छे ते त्रण कालना समय अनंता छे तेहथी अनंताजीव एक निगोदमाहे छे, तेणेकरी जेवारेजेवारे पुछीए तेवारे जिनेश्वर कहे छे जे “ एकरसनिगोअस्स अणंत तमो भागो य सिधिगओ" एटले सूक्ष्मनिगोदथी बादरनिगोदमांहे निरंतर आवे छे ते ते आवे तो एकसमये १०८ सुधी उत्कृष्टे आवे तथाचोक्तंसिज्झंति य तियाखल, इहय ववहाररासिमझाओ। इतिअणाईवणस्सईमज्झाओ, तित्तियाचेव ॥ १ ॥ इतिश्रीभुवनभानुकेवली चरित्रमध्ये उक्तं. एम निगोदनो
विचार लख्यो छे. २७२ प्र०-सिद्धशिलानुं किंचित् स्वरूप वखाणो. उ०-जेम साबुनो गोळो उपर जाडपणे समो अने नीचे
टेकरारूपे विस्तरतो तेम अथवा उधी उवाडी राखेल अर्धछनआकारे, श्वेत, सुवर्णमय, स्फटिकरत्नमय सरखी निर्मळ मध्ये आठजोजन जाडी परिधिविस्तारमा ४५ लाख जोजन प्रमाणे अढीद्वीपरूप मनुष्यक्षेत्रनी उपरे ढांकण समान, छेडे जातां माखीनी पांख समान पातळी, लोकना अग्रभागे रहेली अतिनिर्मळ सिद्धशिला शोभी रही छे, जेनी उपर १ गाउए एटले एक गाउने छठे भागे अनंता
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"Ann..AN
सिद्धपरमात्माओ बिराजे छे, तेमने मारो त्रिकरण
शुद्धिए नमस्कार हो. २७३ प्र०-अष्टमहासिद्धिना नाम अर्थसहित कहो. उ०-प्रथमलधिमा ते शरीरनुं हलवापणुं थाय जलपुष्प
उपरि तथा कंटकउपर मुनि चाले पण किलामना न पामे १, बीजी वसिमासिद्धि तेहथी सिंह, सर्प, देवमनुजादिक वश्य थाय २, बीजी सत्यसिद्धि परमैश्वर्यपणुं पामे चक्रवर्ति इंद्रादिक थकी अधिकी ऋद्धिविकुर्वे ३, चोथी काम्यसिद्धि तेथी अत्यंत बलसंपदाहोय, पृथ्वीपर्वतादिक उपाडे अचिंतित पराक्रमी होय ४, पांचमी महिमासिफि तेथी मोडं लाखजोजनुं शरीर करे ५, छट्ठी अणिमासिद्धि तेथी नाहनुं कुंथुआ जेवडं रूप करीने भीतमांयी तथा पर्वतमाथी निकळे अने पोते विघ्न न पामे ६, सातमी यत्रकामावसायित्वसिद्धि तेथी जिहां उपयोग दे तिहां जाणे निर्मल श्रुतज्ञान अवधिज्ञानने योगे ७, आठमी प्राप्तिसिद्धि तेथी सकल मोटीवस्तु प्रत्यक्षपणे देखे रूपिवस्तु देखे अवधिज्ञानदर्शन त्रण योगे ८, ए अष्टमहासिद्धि मुनिराजने होय
तेहना शब्दार्थ जागवा. २७४ प्र०-क्षणमात्र सुख अने बहुकाळ दुःख ते शी रीते ? उ०-आ जीव आ संसारना अनुकुळ इंद्रिय विषयना
भोगादिकने विषे लुब्ध थयो थको मधुबिंदुआना दृष्टांते क्षणमात्र मुख अने बहुकाळ दुःख भोगव्या
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करे छे, ए मधना एकटीपानी तृष्णामां पोतानी आसपास अनंतगणं व्यापी रहेलं दुःख हिसाबमां गणतो नथी, तेम स्त्रीसेवनमां जाणे साक्षात् अमृतसार महास्वादिष्ट भोजन प्राप्त न थयुं होय, तेवो लोलुपी थयो थको भुंड सुकरनी पेठे निज स्वरूपने तद्दन विसारीने अथवा उवेखीने खरज खणवाना स्वादना परे अथवा मधुलिप्त खड्गधाराने चाटवानी परे प्रथम सेवन करतां सुख वेदे, अने पाछळथी तत्काळ एकक्षणवारमा शरीर वीर्य क्षय थतां घाभरा जेवो थइपडी निर्माल्य नपुंसकरूप अनुभवे छे, अने त्यारेज ते पोतानी भुंडसुकरपणानी निर्लज्ज बाळचेष्टाने अंतरदृष्टिए धिकारे छे, तेम आ संसारने विषे चक्रवर्ति आदिनां विषयनां उत्कृष्ट पौगलिक सुख नर्कादिकने विषे तेना विपाककाळ आगळ तुच्छ अल्पकालिक क्षणिक छे; छतां हा ! इति खेदे आ भवनी अनादि काळनी विषय वासना जाणताने पण बाळरूप करनार एवी महामोहमय प्रबळताथी चेतनने सावधान रहेवानुं छे, जुओ बारमा ब्रह्मदत्त चक्रवर्तिनुं आयुष्य मात्र ७०० वरसनुं हतुं ते भोगवीने नरके गयो, तिहा ३३ सागरनुं आयु भोगवे छे. तेटलो काल विषयसुख भोगव्या ते उपर केटलं दुःख तेहनी विगत वर्ष १०० दिवस ३६००० थाय तेबारे ७०० वर्षना दिवस २५२००० थाय
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तेहना मुहूर्त ७५६००० ते एकमुहूर्त्तना ३७७३ श्वासोच्छ्वास थाय. ७५६००० ते गुणा करतां २८५२३८८०००० एटले ७०० वर्षना एटला श्वासोच्छ्वास थाय. तथा सागरोपम ३३ ना पल्योपम त्रणसेत्रीसकोडाकोडी थाय तेहना आंक ३३० तेवारे एकश्वासोच्छवास सुधी संसारमध्ये विषयना सुख भोगव्या ते उपरे ११५६९८५ ईग्यारलाख छपन्न हजार नवसेंने पंचासी एटला पल्योपम थाय. सातमी नरके दुःख भोगवे छे एटले "खणमित्त सुखं बहु कालदुरकम्" ए पद सूत्रे कां छे तेहनो ए भावार्थ जाणवो. अने तेटलामां अतिअधर्मपणे निःशुकताथी भोगवेला जे विषयभोगो तेना दारूणविपाको ते सातमी नर
०००००
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ने विषे ज्यां आंख मीचीने उवाडीए एटली वार पण जीवने लेशमात्र सुख नथी तेने विषे जीव एकलो निराधारपणे भोगवी रह्यो छे. माटे ज्ञानी कहेछे जे
प्रभाति.
विषयवासना त्यागो चेतन, साचे मारग लागोरे, तप जप क्रिया दानादिक सहु, गीणति एक न आवेरे; इंद्रिय सुखमे झूल्युं ए मन, वक्र तुरंग ज्युं धावेरे. इत्यादि
एम जाणी आ संसारनां मूळ जे विषय कषाय मोहादि छे तेनो जय करवाने माटे परमात्माना वचनमां ज्ञानपूर्वक विरक्तबुद्धि राखी इंद्रियोनो जय करवो, जेथी विषय त्यागे पंचमहाव्रतादि प्रवृज्या उदय आवे, कपायनी मंदताए गुण
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ठाणानी श्रेणिए चढे अने स्वरूपाचरण चारित्ररूप शुझात्मो
पयोग तीव्र वर्ते. २७५ प्र०-मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्दृष्टिना आचार तथा उपयोगने
सरखावो. उ०-मिथ्यादृष्टिजीवने शुभाचार होय पण शुभोपयोग
न होय, अने सम्यग्दृष्टिजीवने शुझोपयोग होय तेने शुभोपयोग आचरणरूपे होय पण आदरण न होय, अने मिथ्याष्टिजीवने शुभआचाररूप होय, पण ते अशुद्धोपयोगना घरनो अशुभोपयोग होय
छतां तेने शुभोपयोग उपचारे कहिये. २७६ प्र०-युगप्रधानना गुणो कहो. उ०-युगप्रधानना गुणो १४ छे. तत्र गाथा
पडिरुषोतेयस्सि, जुगप्पहाणागमोमहरवक्को । गंभीरोधीमंतो, उवएसपरोयआयरिओ ॥ १ ॥ अपरिस्सविसामो, संगहसिलो अभिग्गहमईय । अविकत्थणोअचवलो, पसंतहियओगुरुहोई ॥२॥
एवं चतुर्दशगुणा भवन्ति। २७७ प्र०-कया ठेकाणे वणयोयो करवी. उ०-भद्रबाबुस्वामी कृत ओघनियुक्तिमा ७२ मी गाथामां
त्रणपोयो क वी कहीं छे. यथाअवस्सगंतुकाओ, जिगोवइलुगुरुवएसेगं ।
तिनिथुई डिलेहा, कालस्सविहिइमोतत्य ॥ १ ॥ २७८ प्र०-तपदान अने अनशननुं शुं फल छे ?
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उ०- तवसंयमेण मुक्खो, दाणेणहुतिउत्तमाभोगा । देवंचणेरज्जं, अणसणमरणेणईदत्तं ॥ १ ॥
२७९ प्र० - अभव्यजीवो शुं नथी पामता.
उ०- इंदत्तं चक्कीत्तं, पंचोत्तरविमाणवासित्तं । लोगता देवत्तं, अभवजीवा नपावति ॥ १ ॥ २८० प्र०—कया अभव्यजीवो थया.
३० - संगमकालयमूरि, कविलाअंगारपालयादोवि । एएसत्तअभव्या, उदाइनिवमारओचेव ॥ १ ॥
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२८१ प्र० - तुच्छनुं स्वरूप कहो.
उ० तुच्छंभत्तंपां, तुच्छानिंदाय तुच्छमारभो । सुच्छा जहा कसाया, ताहं तुतुच्छसंसारे ॥ १ ॥ २८२ प्र०कया जीव अहींथी मरीने महाविदेहमां नवमे वर्षे केवी थाय छे ?
उ०- इहभरहेकेइजीया, मिच्छादिठ्ठीभद्दयाभव्वा । तेरी उणनवमे, वरसे होहंतिकेवलीणो ॥ १ ॥
२८३ प्र० - चमरेन्द्रनो केवो परिवार छे ?
२८४ प्र० - षट्दर्शनना नाम कहो.
९११
उ०- चमरेन्द्रने पांचअग्रमहिषी छे. आठ्ठआठ्ठसहस्त्र दे - वीनो परिवार एम ४० सहस्र देवीओयी भोग भोगवतो विचरे छे.
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उ०- १ बौद्ध, २ नैयायिक, ३ सांख्य, ४ जैन, ५ वैशेषिक, तथा ६ चार्वाकदर्शन ए छ दर्शनना नाम,
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२८५ प्र०-वेसठशलाकापुरुषोना जीयो केटला तथा माता
पिताना जीवोनी संख्या केटली छे ? उ०-त्रेसठशलाका पुरुषोना जीव ५९ छे. तेहनी
विगत-त्रणजीव चक्रवर्तिनी पदवीना ओछा थया तथा एक वासुदेव थया ए ४ जीवो घट्या तेथी ५९ थया. तथा ५९ जीवना माता ६० पिता ५१ कह्या छे तेहनी विगत. २४ जिननी माता, ९ चक्रीनी माता, ९ वासुदेवनी माता, ९ बलदेवनी माता, ९ प्रति वासुदेवनी माता एवं ६० माता जाणवी. हवे पिता ५१ तेहनी विगत, २४ जिनना पिता, ९ चक्रीना पिता, ९ वासुदेव तथा बलदेवना पिता, ९ प्रतिवासुदेवना एवं ५१ पिता जाणवा. एणी रीते पदवी ६३, जीव ५९, माता
६०, पिता ५१ ए रीते अर्थ. २८६ प्र०-श्रीऋषभदेवस्वामी केटला वर्षनो काल गृहस्थाश्रमे
वस्या तथा सर्वायु केटला वर्ष जीव्या. उ०-ऋषभदेवस्वामी वीसलाखपूर्व कुमारपणे रह्या तेहना वर्ष
केटलां चौदलाखकोडाकोडी इग्यारहजारकोडाकोडी वली बसेकोडाकोडी१४११२०००००००००००००००० एटला वर्ष कुमारपणे रह्या त्यारपछी ६३ लाखपूर्व राज्यावस्था भोगवी तेहना वर्षे केटला ? धुंवालीसलाख कोडाकोडी पीस्तालीसहज्जारकोडाकोडी बत्रीसें कोडाकोडी एंसीकोडाकोडी तेहना आंक
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४४४५३२८००००००००००००००० स्यारपछी एकलाखपूर्व दीक्षाकेवलपणे रह्या तेहना केटला वर्ष सित्तेरहज्जारकोडाकोडी पांचसे कोडाकोडी ते उपरे ६० कोडाकोडी तेहना आंक ७०५६००००००००००००००० एटला वर्ष थया. एम सर्वे चोरासीलाखपूर्वनां वर्ष सरखाले ५९ लाखकोडाकोडी २७ हज्जारकोडाकोडी ते उपरे वली ४० कोडाकोडी एटला बर्ष जीच्या. पुटला वर्ष श्रीऋषभदेव सर्वायु जीव्या, एकडा उपर १९ मींडा आवे त्यारे कोडाकोडी थाय. एकडा उपर २१ मींडा आवे त्यारे कोडाकोडीकोडाकोडी थाम. तथा एकडा उपर २९ मींडा आवे तेवारे कोडाकोडीकोडाकोडी थाय. इत्यर्थ ८४ बक्षपूर्वनो
जाणवो. २८७ प्र०-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध, तथा प्रदेशबंध क्वारे
क्यारे नीपजे ? उ०-योगे प्रदेशबंध प्रकृतिबंध नोपजे ते कर्मवर्गणाद
लनो संचय थाय, तथा योगर्ने लेश्या बे एकठ मले त्यारे प्रकृति ने प्रदेशबंध नीपजे, तथा ध्यानकषाय ए बे मले त्यारे स्थितिबंध रसबंध नोपजे तथा जिहां कवायध्यान आवे त्यारे च्यारे भेस
थाय. इत्यर्थः । २८८ प्र०-शास्त्रमा कहेला भारतुं प्रमाण कोष्टक कहो ?
उ०-छसरसवनो एक जव, ३ जक्नी एक गुंजा (च
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णोठी ), ३ गुंजानो एक वाल, सोळवालनो एक गदीआणो, दशगदीआणे एक पल, दोढसोपले एकमण, दशमणनी एकवडी, दश धडीनो एक
भार जाणवो. २८९ प्र०-अढारभारवनस्पति कहेवाय छे त्यां भारतुं प्रमाण
केटलं, तथा ते वनस्पति अढारभार कइ कइ छ
ते कहो. 3०-३ क्रोड, ८१ लाख १२ हजार नवसे सीतोतेर
मणे एकवनस्पतिभार थाय छे, तथा प्रत्येक जातनी वनस्पतिर्नु एक एक पान लइने एकठो ढगलो करीए, ए प्रमाणमां चारभार वनस्पति केवळ फुलमय छे, तथा आठभार वनस्पति फळ फुलपानमय छे. तथा छभार वनस्पति वेलनी छे,
एम एकंदर १८ भार वनस्पति जाणवी. २९० प्र०-मुनिराज कया चोविसपरिग्रहना त्यागी होय. उ०-क्षेत्रवास्तुधनधान्यद्विपदचतुष्पदंयानंशज्जासयनं भाण्डं
कुप्यंचेति बहिर्दश, मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट्कषाय
चतुष्टयंरागद्वेषावाभ्यंतराःचतुर्दश ॥ २९१ प्र०-महारोग केटला तथा तेनो संतानपरिवार केटलो
कह्यो छे ? उ०-चार मोटा रोग कह्या छे:----१ ज्वर, २ भगंदर, ३
कोढ, ४ धातुक्षय. तेनी चार स्त्रीओनां नामः-- तावनी स्त्री तरस, भगंदरनी स्त्री हेडकी, कोढनी स्त्री भूख, धातुक्षयनी स्त्री निद्रा. तथा ते प्रत्येक रोगनां
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ते स्त्रीओने समागमे पचिस पचिस छोकरां रूप नानाविध रोगोनी उत्पत्ति छे, पूर्वोक्त प्रत्येक रोगने २५ गुणा करतां १०० रोग थाय, ते मध्ये आठ बीजा रोग भेळीए तेवारे वैदकशास्त्रमा वर्णवेल १०८ रोगनी संख्या थाय छे. तेनी चिकित्सा निपुण नाडीपरीक्षाना अनुभवी वैद्य यथार्थ करी शके, पण ते सर्वद्रव्यरोग, अने तेना मटाङनार पण व्यवैद्य जाणवा, पण जे थकी ते द्रव्यरोगो उत्पन्न थाय छे ते भावरोग जीवनी विषयकषायरूप अनादिकाळनी मलिन विकारी परिणति छे, तेना वैद्य तो सनत्कुमार सरखा परिणतिवंत महात्माओ गणधर तीर्थंकरादि जाणवा, जे सर्वऔषधना जाण, तथा सर्वरोगना · मटाडनारा छे, माटे हे चेतन ! तुं मिथ्या शारीरादिकनी ममताने छोडीने तेओने शरणे जा, तेमना वचनने आदरथी स्वीकार अने तेमने मार्गे चालतो अनादि
अनंतअव्याबाध सुखने अचलपणे अनुभवीश. २९२ प्र०-एकसौधर्मेंद्रना आउखामां केटली इंजीओ चवे ? उ०-कोडाकोडी दुविसं, पंचासीलक्खाहृतिकोडीओ।
इगुत्तरीसहसाकोडी, चत्तारिसयायतहकोडी ॥१॥ अठ्ठावीसंकोडी, सत्तावन्नंहवंतिलक्खाई । सहस्साचउदससया, च्छासीइंदेगजमित्थि ॥ २॥ इयसंक्खादेवीओ, चवंतिइगइंदजम्मंमि ॥३॥ - इंद्र विषयसुख भोगवतां एकलाख अठावीस
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हजाररूप विकुर्वे, तेनी आठअग्रमहिषीओ प्रत्येक १६ हजाररूप विकुर्वे, त्यारे ते हिसाबे इंद्रनुं आयुष्य जे बेसागरोपमनुं छे तेमां २२ कोडाकोडी ८५ लाख ७१ हजार चारसो अठावीस कोडी ५७ लाख १४ हजार बसो छीयासी उपर आठ गुणी एटली देवांगनाओ एकइंद्रना आयुष्यमांहि घd.
२९३ ० - पांच स्थाघर, विगलेन्द्रि, तथा पंचेन्द्रिय क्यां क्यां होय. उ०- एगेन्दियपंचेंदिीया, उड्ढे अहेयतिरियलोएय । बिगलेन्दियजीवापुण, तिरियलोएस मुणेयव्वं ॥ १॥ पुवीआउवणस्स, बारसकप्पे सतपुढवी । पुढवीजा सिद्धसिला, तेउनरखित्तितिरियलोए ॥ २ ॥ सुरलोए वावीमज्झे, मच्छअनत्थीजलयराजीवा । विज्झेनऊवावि, बाविअभावेजलनत्थी ॥ ३ ॥
२९४ प्र० - नवनियाणानुं स्वरूप तथा ते नियाणाना करनारने केवा हीनफळनी प्राप्ति थाय छे ते कहो.
उ०- १. राजादिक थवानी इच्छा, २. अमात्य थवानी इच्छा, ३. स्त्री थवानी इच्छा, ४. देवभोगनी इच्छा, ५. देवी भोगनी इच्छा, ६. भोग न पामवानुं निवाणुं, ७. श्रावक थवानी इच्छा, ८. दरिद्र थवानी इच्छा, ९ कर्मरहित थवानी इच्छारूपनिवाणुं प्रथमना नियाणाना धणी दुर्लभबोधी थाय, प्रायः धर्म सह नहि, सातमानियाणाना घणीने देशविरति
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उदय न आवे, आठमाना घणीने सर्वविरति उदय न आवे, नवमाना धणीने मुक्ति न थाय.
२९५ प्र० - पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पंचेद्रियपणं, अने त्रसपणं, कायस्थितिए लागलगाट तेने तेज पर्याये रहे तो उत्कृष्ट केटलो काळ रहे ?
उ० १. पुरुषवेद, उत्कृष्ट ६०० सागरोपम झाझेरा; २, स्त्रीवेद, ११० पल्योपम ६ क्रोडपूर्व सुधी; ३, नपुंसकवेद, अनंती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी सुधी; ४, पंचेन्द्रियपणं, १००० सागरोपम झाझेरा; ५, त्रसपणं, २००० सागरोपम झाझेरा;
प्र० २९६ - पांचज्ञान त्रणअज्ञान कालथकी जघन्य तथा उत्कृष्टे केटलो काल रहे.
उ०- मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननोकाल जघन्यथी एकसमय उत्कृष्ट ६६ सागरोपझाझेरो, अवधिज्ञान एकसमय ते केम ? विभंगज्ञान समकित पडवजे तेवारे विभंग फीटी अवधिज्ञान थाय त्यारे एकसमय रहि वली पडे, विभंगज्ञाननो विभंगज्ञानेज आवे एम अवधिज्ञान जघन्यथी एकसमय होय, मनः पर्यज्ञानजघन्यथी एकसमय उत्कृष्टे देशेउणां पूर्वकोडी. एक समय ते किम ? जेवारे अप्रमत्तगुणठाणे वर्ततां मनः पर्यवज्ञान उपजीने जाय, तिहां एकसमय जाणवो, केवलज्ञाननां धणीने सादिअनंतोकाल जाणवो. हवे मतिअज्ञानने श्रुतअज्ञानना भांगा कालआसरी त्रणजाणवा, एकअनादि ने अनंतए अभव्यने १ अनादि
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सांत ते ए भव्यने २, सादि अने सांत ते समकितथी पडी पछे चडे तेहने होय ३, सादि अने सांत छे तेहने जघन्यथी अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टो तो अर्द्धपुद्गल परावर्त्त जाणवो ४. हवे विभंगज्ञाननो काल लखीए छीए . जवन्य तो एकसमय, उत्कृष्ट सागर ३३ झाझेरो, मनुष्यनो आयु पूर्वकोडीनो पाली सातमी नरके उत्कृष्टे आउखे जाय एटले एक पूर्वकोडने तेत्रीस सागर थाय, हवे ए आठे ज्ञाननुं आंतरु कहे छे. मतिज्ञाननुं आंतरु जवन्यथी अंतर्मुहूर्त्तनुं होय, उत्कृष्टे अर्द्धपुद्गलपरावर्त्त माठेरुं होय एम एणे प्रमाणे श्रुतज्ञान अवधिमनः पर्यवज्ञाननुं पण आंतरु जागावं केवलज्ञाननुं आंतरु नथी, हवे मतिश्रुतज्ञाननुं आंतरुं जवन्य तो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट ६६ सागरोपम झाझेरुं होय, हवे विभंगज्ञाननुं आंतरुं जवन्यतो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तो वनस्पतिनो काल इति भाव ।
२९७ प्र० - सत्तरप्रकारना मरणनुं स्वरूप कहो.
उ०- १. समयसमय आयुकर्मदळ खपवारूप भरण, २. संपूर्णायु भोगववारूप मरण, ३. नरकादि गतिनुं चरम मरण, एटले फरी ते गतिए मरण न थाय ते; ४. व्रतीनुं मरण, ५. पतंगीआनी पेठे इंद्रिय विषयासक्त मरण, ६. शल्य सहित लज्जायुक्त मरण, ७. चरमशरीरी मरण, ८. अविरति मिथ्याहबिना बाळ मरण, ९. समकितीव्रतीना मरण, १०. छद्मस्थचारित्रीयाना मरण, ११. देशविरतिश्रावक
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मरण, १२. केवली मरण, १३. फांसी शस्त्र, विषादिक थकी मरण, १४. पक्षीपशुओ पासे शरीर करडाववारूप मरण, १५ अणसणी आराधक मरण, १६ वेयावच्च त्यागपूर्वक अणसणी मरण, १७ पादोपगम मरण ते निश्चल छुटी पडेल झाडनी डाळी
समान कायाने वोसरावारूप मरण. २९८ प्र०-भूमी क्यां सुधी अचित्त होय ? । उ०-१ राजमार्गनी भूमिका पांचआंगळ सुधीनी उपरनी
सचित्त पछी खोदेली अचित्त, २ शेरीनी मूमी सातआंगळ सुधी, ३ घरनी भूमी दश, ४ मळमूत्र भूमिका पंढर आंगळ, ५ गाय भेंस बकरी वगेरे बांधवाना स्थाननी भूमी २१ आंगळ सुधीनी अचित्त, ६ चुला हेठळनी मूमी ३२ आंगळ सुधी अ त्त, ७ कुंभारना निभाडानी भूमी ७२ आंगळ अचित्त, ८ इंटवा अंधःभूमि १०२ आंगळ
अचित्त. इति सुयडांगवृत्तिमध्ये कयुं छे. प्र. २९९-आवलनी छालमा केटला जीव होय. उ०-आवलनी छालमां असंख्यताजीव कह्या छे, ते पन्न
वणाजीना पहेलापदमां कयुं छे. प्र० ३००-नोकारवालिना १०८ गुण ते कया ? उ०-बारगुण अरिहंतनाते अष्टमाहापातिहार्य ज्ञानाति
शय १ वचनातिशय २ पूजातिशय ३ अपायापगमातिशय ४ एवं १२, आठकर्मना क्षयथी सिद्धना
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गुण ८, आचार्यना ३६, “पंचिंदियसंवरणो” इत्यादि गाथा बेथी जाणज्यो, उपाध्यायना २५ इग्यार अंग भणे भावे एम १२ उपांग भणे भणावे तथा चरणसित्तर करणसित्तरि आराधे एवं २५. हवे साधुना २७ गुण ते छत पाले छकायरखवाले १२ पंचेन्द्रियनो निग्रह १७ लोभनिग्रहसंचर १८ क्रोधनिग्रहक्षमागुण एवं १९ भावविशुद्ध २० पडिलेहणाविशुद्ध २१ संग्रहयोगयुक्त २२ मनवचनकायनुं कुशलपणुं २५ शितादिक पीडानो सहवो २६ मरणांत उपसर्गनो सहवो २७ ए सर्व मली १०८ गुण पंचपरमेष्ठिना तेहनी नोकारवाली कहिए इत्यर्थः इति ।
प्र० ३०१ - साधु सोएवसा पंचमहाव्रत पाले अने श्रावक सवाछ वसाए पंचअणुव्रत पाले ते केवी रीते.
उ०- पहेलं प्राणातिपात श्रावकने अणुव्रत सिंहा दया श्रावकने वसा १ | नी होय पांचस्थावर ते सूक्ष्म ने बादर एवं १० ते पर्याप्ताने अपर्याप्ता एवं २० एम एणि रिते साधु सोवसाए पंचमहाव्रतपाले, श्रावकने पांचअणुव्रतमलीने सवाच्छवसा इत्यर्थः तथा वली पांच अणुव्रत श्रावकने होय तेहनो विवरो लखीए छीए, स्थूलबेंद्रियादिक सजीव निरापराध उपेतकरणी न हणे ए प्राणातिपात अणुव्रतनी दया वसा १ | नी होय ते लख्य के तेहथी जो जो, तथा बीजा अणुव्रत मध्ये आपणे काजे स्वसाधुने समस्तजीव रक्षा बसा २० सूक्ष्म ने बादर वसा १० काढ्याने परने
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आत्मा अतहापरट्ठाचेव ५ सापराधने निरापराधे करी वसा २॥ अपराधे हणे पण निरापराधे नहीं २॥ सापेक्षने दया निरपेक्षे वसो ११ रहे तथा अत्र गाथा, तसाथावराय जीवा, संकप्पारंभओभवे दुविहा । सावराहनिराबराहा, सावक्खा चेव निरवक्खा ॥ १ ॥ जीव बे प्रकारे सूक्ष्म ने बादर जे मध्ये सूक्ष्मना १० भेद तथा १० बादरना, सूक्ष्मना १० ते पांच स्थावर पर्याप्ता ने अपर्याप्ता, एवं १० नी दया श्रावकने न होय, एवं १० बादर ते किहा ? बेइंद्रि १ तेंद्रि २ चौरेंद्रि ३ पंचेन्द्रि ४ ए पर्याप्ता ने अपर्याप्ता एवं भेद ८ पंचेन्द्रिसंज्ञीनो ९ ने असंज्ञीनो १० एवं भेद बादरना थया, ते मध्ये श्रावकने संकल्पी न मारवु आरंभे जयणा एवं ५ भेद रह्या, ते मध्ये अपरावे हणे निरपराधे नहीं एटले २॥ वसा रह्या, ते मध्ये सापेक्ष अने निरपेक्ष निर्दयपणे न हणे एवं १। बसानी दया श्रावकने त्रसजीवनी रही इति प्राणापातनी जीवदया १। वसानी इति । मृषावादअणुव्रत २ समस्तमृषावादनियम साधुने २० वसा सूक्ष्म ने बादर करतां वसा १० उपयोगे अनुपयोगे “ अतद्वापरट्ठा ” आत्मपर एवं ५ स्वजन परजन करतां एवं २॥ धर्म अपर अधर्म परमार्थे । तत्र गाथासुहुमबायरमलीय, अप्पाणपरमेयगं भवे दुविहं । सयणं परगं च तहा, धम्मत्थं केवलपरमत्थं ॥१॥
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पांच मोटकाजूठा ते सूक्ष्म ने बादर एवं १० ते उपयोगे ने अनुपयोगे एवं २० वसानुं मृषावाद साधु न बोले पण श्रावकने १ | वसानुं मृषावाद श्रावकथी पले इति भाव । अथ अदत्तादानअणुव्रत ३ समस्त अदत्तविरमणसाधुने २० वसा सूक्ष्म बादर भेद थइने वसा १० सराजनिग्रह ने निराजनिग्रहथी ५ आत्मनिमित्त परनिमित्ती २॥ याच्युं तथा अणयाच्युं १ | वसा तत्र गाथा-
सुदुमघुलमदिन्नदाणं, निवरायदंडकारियं । रायनिगहकारियंपुण, दुविहंकहियं गुरुजणेहिं ॥ १ ॥ नविराहनिगहकरं, अप्पाणं भेयगं दुविहं । दिन्नमदिन्नंच परं, भासियवं निउणबुद्धिहिं ॥ २ ॥
अदत्त पांच स्थूलजीव अदत्त १ जिन २ गुरु ३ स्वामी ४ सागारिअदत्त ५ ते सूक्ष्म ने बादर एवं १० उपयोगे तथा अनुपयोगे एवं २० वीसगुणी ए इति । हवे मैथुनअणुव्रततुर्य ४ साधुने समस्त मैथुनविरमण २० मनवचन काया ३ एवं १० स्वदारा परस्त्री करतां एवं पांच वेश्या तथा परस्त्री २ ॥ कुमारी तथा अपरस्त्री १ । तत्र गाथामणवय काय मेहुण, मविनिययअविरई । ईत्थीओवेसापरत्थीओ, कुमारीपरईत्थीनियमो य ॥ १ ॥ स्वदारा १ परस्त्री २ वेश्या ३ दासी ४ कुमारी ५ एवं ते मनवचन तथा कायाए करी एवं १० ते सुपने तथा जागृतपणे एवं वीस २० बसानो शी
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यल साधु पाले तिहां वसा १। नुं होय श्रावकने इति । अथ परियहअणुव्रत पांचमुं साधु ते समस्त विरमण २० अभ्यन्तरने बाह्य करतां १० “ अतट्ठा य परछा " ए बे भेदे ५ स्त्रीपिहरआत्मनिठान २॥ स्त्री आत्मदत्त एवं वसा १ । तत्र गाथा-- अब्भंतरबाहिर परिगहो परसकीयगाचेवईत्थी। पियअप्पोईत्थी नियदत्तनीउय ॥१॥ धनधान्य १ खेतवत्थु २ रुपुंसोनु ३ कुवइते वासण ४ द्विपद चतुष्पद एवं ५ ते बाह्यने अभ्यंतरे १० ते इच्छामु रूपे २० ते मध्ये श्रावकने वसा १ । परिग्रहपले इति पूर्ण । अथ गाथा-- तसाथावरायजीवा, संकप्पारंभओ भवे दुविहा। सावराहानिरावराहा, सावक्खा चेव निरवक्खा ॥१॥ इति प्राणातिपातविरमणं । सुहुमबायरमलीयं, अप्पाणपरमेयगं भवे दुविहं । सयणं परंगंचतहा, धमत्थं केवलपरमत्थं ॥१॥इति।२॥ सुहमथुलमदिन्नदाणं, निवरायदंड कारियं । रायगहकारियंपुण, दुविहंकहियंगुरुजणेहिं ॥१॥ नविराह० १ इति ३, मणवयकायमेहुण० १ इति ४ । अभं० १,५ । स्वजनकाजे धर्मकाजे मुकी परकाजे बोलवानियम ए मृषावादअणुव्रत समस्तमृषा नियम २० सूक्ष्मने बादरभेदे १० आत्मकाजे परकाजे ५ स्वजनपरकाजे २॥ धर्मपरकाजे १। एवं द्वितीय, हवे तृतीयअणुव्रत राजनिग्रहकारिज परायु
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विचार रत्नसार.
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अणदिg लेवा नियम समस्तअदत्तादानपच्चख्खाण २० सूक्ष्मबादरभेदे १० सराजनिग्रह निराजनिग्रह ५ आत्मकाजनिग्रह परकाजनिग्रह २॥ पियारी दिधी पियारीअणदीधी १। एवं राजनिग्रह पडे तेहनो पञ्चक्खाण ते सराजनिग्रहमांहि बे भेद एक आत्मराजनिग्रह परराजनिग्रह कहिए, हवे ते आत्मराजनिग्रह ते मोकळो, परराजनिग्रह- पच्चक्खाण, हवे परराजनिग्रहना बे भेद ते किया ? एक पियारी दीधी, पीयारीअणदीधी परकीयवस्तु आणी आपे ते कोइनी दृष्टि वंची न लीये एटले सवावसो त्रीजा बतनो जाणवो, अथ चतुर्थ स्वदारासंतोष परदारा विवर्जनारूप ए मांहे सर्व फलामणी छे, समस्त मैथुनविरमण मनवचनकाया १० स्वदारा परस्त्री ५ वेश्या अपरस्त्रीमांहे बे भेद ते किया ? वेश्याने अपरस्त्री ते मध्ये वेश्यानो नहीं पले, अपरस्त्रीनो पलसे एवं २॥ अपरस्त्रीमांहि बे भेद छे ते किया ? कुमारी अने परणी अपरस्त्री ते कुमारी नहीं पले परणीस्त्रीनो पलसे कुमारीश्या माटे मोकळी ? जे विवाह मल्यो छे परण्या नथी ने ते उपरे स्त्रीनो अभिलाष धरे ते माटे एटले सवावसो रह्यो. “ आणंद श्रावकस्य सपादो विशेषाधिकः ” अथ पांचमे आपणोपरिग्रह स्त्रीयादिकनो करी आपणे कार्ये आण्यो होय ए परिग्रहअणुव्रत तिहां समस्तपरिग्रहविरमण २० अभ्यन्तर ने बाह्य परिग्रह विश्वा १० परआत्म एवं ५ स्वीपिहर आत्मा एवं २॥
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परपरिग्रहनो आमनियोग अनेसु कहीए
स्त्रीआत्मा एवं स्त्रीआत्मादत्तआत्मा १। अभ्यन्तर परिग्रह क्रोधमानादिकनो नहीं पले अने बाह्य परिग्रह १० प्रकारनो ते ते पलसे एवं १० बाह्य परिग्रहमांहि बे भेद ते किया ? एक आत्मपरिग्रह अने परपरिग्रह ते मध्ये आत्मपरिग्रहनो नहीं पले, परपरिग्रहनो पलसे एवं ५ वली परिग्रहमां बे भेद ते किया ? आत्मानयोग अने स्त्रीपिहरआत्मनियोग अने स्त्रीपिहरआत्मनियोग ते शुं कहीए ? जे वाणोतरादिकनो जे गर्व ते आत्मनियोग पलसे अने स्त्रीना पिहरनो जे परिग्रह ते आत्मनियोगनो नहीं पले एवं २॥ स्त्रीना पिहरनो परिग्रह तेहना बे भेद ते किया ? एक स्त्रीदत्त अने अस्त्रीदत्त एवं १। सवावसो थयो इति पंचाणुव्रतानि एम श्रावकने ५ अणुव्रते १। सवावसानो होय ते विवरण
का. इति संपूर्ण । ३०२ प्र०-संसारमा सार शुं ? उ०-संसार पोतेतो निःसार छे, एटले संसार जे विषय
कषायनी परिणति तेमां आत्माने काइपण सारभूत नथी, अने अधर्म मार्गमां सम्यग्दर्शनरूप धर्म सार छे, तेमां पण सम्यगज्ञान सार छे, वळी तेमां पण सम्यक्चारित्र सारभूत छे, तेमां निर्वाणपद
जे मोक्ष ते सारभूत छे. ३०३ प्र०- चौदपूर्वी आहारकशरीर केटलीवार करे ?
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उ०-गाथा
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चतारियवाराओ, चउदसपुव्वी करेइ आहारं । संसारंमिवसंतो, एकभवे दुन्निवाराओ ॥ १ ॥
३०४ प्र० - आहारकशरीरनुं जघन्य अने उत्कृष्ट आंतरुं केटलं ? समयोजहन्नमंतरं, उक्कोसेणंजावछमासा ||
उ०- आहारसरीराणं, उक्कोसेणं तु नवसहसा ॥ २॥ ३०५ प्र० - पांच प्रकारना समकित जिनेश्वरे कया प्ररुण्या छे ? उ०- खईउ खओवसमीयं, वेयगमुवसामीयं च सासाणा । पंचविहं समत्तं, परुवियंजिणवरंदेहिं ॥ १ ॥ ३०६ प्र० - क्षेत्र अने कालमाथी सूक्ष्म कोण छे. उ०- मुदुमोयहोइकालो, ततोसुहुमतर हवइखित्ते । अंगुसेठीमित्ते, उसप्पिणीओअसंखिज्जा ॥ १ ॥
३०७ प्र० - अभव्य, दुर्भाव्य, अने निकटभव्य, ए त्रणने ग्रंथि - भेदथी पाछा पाडवामां मुख्य हेतु कोण छे ? उ०- अनादिमिथ्यात्वनी वासनाएं पतितपणुं ते अभव्यने होय तथा विषय लालसाए पतितपणं दुर्भव्यने होय, कर्मवर्गणामांयी कोइककर्मोदये पतितपणं पतितपणं निकट भवीने यथाप्रवृत्तिकरणग्रंथिदेश थकी कोइ कर्मना उदये पतित थाय, पण विषयवासनाए के लालसाए नहि, आमा अभव्यने मंदता यथाप्रवृत्तिकरणे करी तीव्रभाव एटले उत्साहने पामे, निकटभवीनी मंदता क्षयोपशमभावने पामे.
३०८ प्र० - यथाप्रवृत्तिकरणनो शब्दार्थ कहो.
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उ०- यथा एटले जेवा कर्म उदय आवे तेवा प्रवृत्ति एटले वेदने खेखे, करण एटले शुभ परिणामे करी, अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरणमां जीव अकाम निर्जराए तथा कषायनी मंदता पूर्वना औदयि ककर्मने खपावे, पण नवा रागद्वेषप्रत्ययिक बंध न करे एम यथाप्रवृत्तिकरणमां जीव अकाम निर्जराए तथा कषायनी मंदताए पूर्वना औदयिककर्मने खपावे, पण नवा रागद्वेष प्रत्ययिक बंध न करे एम यथाप्रवृत्तिकरणे तो अभवीजीव पण असंख्यातीवार गंठीदेश सुधी आवे, पण ते गंठीने भेदवाना अपूर्वकरणरूपी परिणाम न थाय तेथी पाछो पडे, इहां गंठी ते अनादिरागद्वेषनी निविडगांठ, जेम कोइ वृक्षना काष्टमखनी निविडगांठ भेदी न जाय, तेम आत्मानो पुल उपर तन्मय एकीभावरूप ममता ते ग्रंथि जाणवी. ते अपूर्वकरणपरिणामविशेषे भेद प्रारंभ ने अते भेदाने अनिवृत्तिकरण पामे ए सर्व क्रियाअंतर्मुहूर्तनी त्यारपछी मिथ्यात्वनो जाणवो. उपशम समकितनुं थवं ते अंतरकरण एकसमयनो इति ४ करणनो भावार्थः ।
३०९ प्र० - सम्यक्त्वनी प्राप्तिए शुं पामे शुं समरे.
उ०- समकित पामे थके जीवनो शुद्धोपयोग समर्यो, ते उपयोग समरे, जीव समर्यो, जीव समरे योग समर्यो, योग समरे परिणाम समर्या, परिणाम समरे अध्यवसाय समर्या, वळी बीजी रीते कहीए तो
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जीवत्व समरे शुद्धोपयोग समरे, अने तेथी शुद्ध श्रद्धानरूप समकित पामे, तेथी योग समरे, तेथी व्रतपच्चक्खाणादि रुडी रीते उदय आवे तेथी परिणाम सारा थाय, तेथी अप्रमत्तता जीवने आवे, अने तेयी जीवना अध्यवसाय समरे, अने शुक्लध्यान प्रगटे, अने तेने योगे क्षपकश्रेणिआरोही कर्मक्षय करी केवळ ज्ञान पामी मुक्तिपद वरे, एम
परिपाटि सुधारा अने बगाडानी उलट पुलट जाणवी. ३१० प्र०-पर्याप्ति अने प्राणमां शुं फेर ? उ०-भवोप्तत्तिकाले अंतर्मुहूर्तमां जीव जे करे ते पर्याप्ति,
पछी जीवेत्यांसुधी सहचारी रहे ते प्राण कहिए, अर्थात् भवभव प्रत्ये उपग्रहण थाय ते पर्याप्ति अने
सहचारी भवोपग्राही संबंध ते प्राण जाणवा. ३११ प्र०-परमाणु अने प्रदेशमां शुं विशेष ? 3०-स्वाभाविक ते परमाणु, अने विभाविक ते प्रदेश, जे
परमाणु स्कंधने वळग्यो छे, त्यांसुधी प्रदेश कहेवाय,
छुटो पडे तेने परमाणु कहिए. ३१२ प्र०-श्रीआदीश्वर भगवान् सिद्धाचळजी पूर्वनवाणुं वार
आव्या तेनी अंक संख्या लखो ? उ०-६९ कोडाकोडी ८५ लाख ने ४४ हजार कोडवार
आव्या, एने पूर्वनवाणुवार कहिए. ३१३ प्र०-पांच शरीरनो शब्दार्थ कहो. उ०-पनवणानी टीका मध्ये का छे, यत उदारं प्रधान शरीरमौदारिकं तीर्थकरगणधरमधिकृत्य तथा उदा
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रंसातिरेकयोजनसहस्रमानत्वादौदारिक, वैक्रियंविधा भवधारणीय उत्तरक्रियं च यदेकंभूत्वा अनेकंभवति अनेकंभूत्वा एकंचभवति शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं
वैक्रियं ॥ उक्तंच ॥ कजंमि समुप्पन्ने, सयकेवलिणाविसुद्धलदिए। जएत्थआहारिज्जइ, भणियंआहारकं तंतु ॥१॥ अथतैजसं सव्वस्ससिद्धरसाइं, आहारपाकजणगंच । तेयगलफिनिमित्तं, तेयगं होइ नायव्वं ॥१॥
भुक्ताहारपरिणमनकारणं ३॥ अत्यंतशुभवक्रियत्वात् इत्याहारकं ४। कर्मणाजातंकार्मणं कर्मपरिणामंच आत्मप्रदेशसहक्षीरनीरवत् , कर्मणो विकारः कार्मणं इतिवा, यदुक्तं यतः ॥ कम्मविगारोकरमण, मट्टविहचित्त कम्मनिप्पन्न ।
सव्वेसिं सरीराणं, कारणभूत्तमुणेयव् ॥१॥ ३१४ प्र०-मिथ्यात्व अने चारित्रमोहनो तात्त्विक अर्थ कहो. उ०-शुद्धआत्मादि नवतत्त्वने विष जे विपरीतबुद्धि तेज
मिथ्यात्व; निर्विकारी आत्मज्ञानथकी विपरीत प्रवर्तन, अर्थात् वीतरागचारित्रने विषे मुंझवण, विकळता ते
चारित्र मोह. ३१५ प्र०-रागद्वेष ते कर्मजनित छे के जीवजनित छे. उ०-एकदेशे शुद्धनिश्चयनये ते कर्मजनित छ, अने अ
शुद्धनिश्चयनये जीवजनित छे, पण वास्तविक रीते शुद्ध परम अर्थ ग्रहतां वस्तगते. रागद्वेष ए नथी पुद्गल म यी जीवनो स्वभाव मूळरूपे,
पण प तिकमायकी एक नवीन वर्ण117
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विचार रत्नसार.
शंकर उत्पत्ति छे, तेथीज जे जीव रागद्वेषी छे तेओ वर्णशंकररूप देखाव संसारमा करे छे, अने तेओने
बाळलीलावंतभवनाट्यने विषे मग्न जोइ रह्या छे. ३१६ प्र०-श्री युगप्रधान आचार्यजी महात्माना चार मुख्य अ
तिशय कया ? उ०-१ जेमना वस्त्रमा जू न पडे, २ ज्यां विचरे ते देशनो
भंग न थाय, ३ तथा ते देशमां चिंता न उपजे,
४ तेमना पग धोइने पीए तेना सर्व रोग नाश पामे. ३१७ प्र०-उत्सेधांगुल, आत्मांगुल, अने प्रमाणांगुल नो अर्थ
कहो, तथा तेणे करी कइ कइ वस्तुओ मपाय छे
ते पण कहो. उ०-१ उत्सेधांगुल एटले स्वदेशे, स्वक्षेत्र, स्वकाळे पोतार्नु
जेवडं शरीर होय तेना प्रमाणनो एकआंगुल जाणवो तेणे करी शरीरादिक मपाय छे. २ आत्मांगुल ते उत्सेधांगुलथी बमणो जाणवो, अने तेणे करी घर, हाट वगेरे मपाय छे, ३ आत्मांगुलथी हजारगुणो प्रमाणआंगुल जाणवो, तेणे करी पृथ्वी,
पर्वत, विमानादि मपाय छे. ३१८ प्र०-भावना, अध्यात्म मौनपणुं, मुनि अने सम्यक्त्व
तेनो टुंक तात्त्विकशब्दार्थ कहो. उ०-१ आत्माने ज्ञानादिकेकरी भावीए ते भावना, २
आत्माने अधिकारी करीने जे करीए ते अध्यात्म ३ सत्य यथार्थ जिनवचनानुसार बोलवं, ते खरं मौन एंटले मुनिप] जाणवं. तथा जगततत्त्वने
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विचार रत्नसार.
पंचास्तिकायने यथार्थ माने तेने मुनि कहीए, अने
जे मुनिपणुं छे तेज खलं सम्यक्त्व कहिये. ३१९ प्र०-दीक्षाने अयोग्य केवा प्राणीओ कह्या छे. उ०-१८ प्रकारना पुरुष, २० प्रकारनी स्त्रीओ, तथा
१० प्रकारना नपुंसक जातिना प्राणीओने दीक्षा आपवाने जिनराजे वर्जन कर्यु छे, तेमां प्रथम १८ प्रकारना पुरुष कया ते कहे छे:-१ बाळ, २ वृद्ध, ३ क्लीब ते नपुंसक, ४ जड ते मूर्ख, ५ रोगिष्ट, ६ चोर, ७ राजानो अपराधी, ८ उन्मत्त, ९ अंध, १० दास एटले कोइनो गोलो प्रमुख, ११ दुष्ट कषायवंत एटले अत्यंतकोधी मानी वगेरे, १२ मूढ ते मोहमयी, १३ करजदार, १४ हीनजातिवंत, १५ विद्यादिक कोइपण गूढस्वार्थरागवंत, १६ भिक्षुक मागीखानार निर्लज्ज प्रमुख, १७ चोरीने के भरमावीने के अन्य कोईपण अयोग्य प्रकारे मेळवेला शिष्यने, १८ हीनसत्त्ववंत ते बीकण प्रमुख, ए रीते ए अढारदोषवंत पुरुष तथा १९ गर्भवती स्त्री तथा २० स्तनपान करनार बाळकवंत स्त्री ते धावप्रमुखस्त्री एम ए बे युक्त वीशदोषवंत स्त्री जातिना प्राणीओ दीक्षाने अयोग्य कह्या छे, वळी एज रीते दशप्रकारना नपुंसक
पण ग्रंथांतरथी जाणी लेवा. ३२० प्र०-कोइ जे अल्पसंसारी छे ते कया लक्षणथी जाणीये. उ०-अल्पआहार, अल्पनिद्गा, अल्पआरंभ, तथा अल्प
कषाय होय ते नियमा अल्पसंसारी जाणीये.'
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विचार- रत्नसार.
AAR -
३२१ प्र० साम,दाम, भेद अने दंड एचार नीतिनोटंक शब्दार्थकहो. 3०-१. साम ते प्रेमवाळु मधुर वचन, २ दाम ते दंड
आपीने झघडो मटाडवो संतोषवो ते; ३ भेद ते शत्रुवर्गमां कोइ छळभेदकरी लांच रुशवतादिके पुरुषोने फोडी शत्रुनी अंदरने अंदर फाटफुट पडाक्वी ते, अथवा एकपक्षनी सामे बीजापक्षनी तरफेण करीने भेद पडाववो ते ४ दंड पूर्वोक्त त्रणथी
न, माने तो छेवटे युद्धादि करी शिक्षा आपवी ते. ३२२-आजकाल कोइने पण सम्यक्त्वगुण प्रगट्यो छे, तेनी
कोइ पण शीघ्र जणाय एवी कोइ परीक्षा रीति छे.
तेनी खात्री शी रीते करी शकाय ? उ०-वीतसगपरमात्मा श्रीअरिहंत जिनेश्वरदेवनुं नाम सांभ
मतां जे जीवने रोमांच खडा थाय, तीव्र शोकावस्थामा पम जेमनुं गुण स्वरूप सांभळतां, मुद्रा नीहाळतां तमाम शोक दुःख पीडादि भूली जइने अंतरंग असे बहार अत्यंत हर्षोल्लास प्रगटे, ए परमात्मा उपर
परिणतिनुं शीव्र परखाय एबुं खास लक्षण चिह्न छे. इति श्रीविचाररत्नसारग्रन्थसिहान्तना प्रश्नः । पं. श्री देवचन्द्रजीकृत प्रश्न समाप्तम् ॥
श्रेयं भूयात् संवत् १८७५ ना वर्षे माहसुदि २ दिने बुधवारे लि. पं. श्रीरूपचन्द्रजीगणि तच्छिष्य रत्नचन्द्रेण श्रीमत्खरतरगच्छे. भट्टारकक्षेमशाखायां श्रीअहमदावादे घांचीनीपोल मध्ये श्रीसंभवनाथप्रसादात् लिपीचक्रे अधिकहीननामिथ्यादुष्कृतम् । ग्रन्थांकं. २५२७ ॥
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर ग्रन्थः
॥ अथ छुटक प्रश्नोत्तर लिख्यते ॥ श्री खरतरगच्छे पं. प्र. महाराज श्रीदेवचंद्रजीने श्रावके प्रश्न कर्या तेना उत्तर दिधा ते प्रश्नोत्तर अमोए देवचंद्रजी महाराजनी चोपडीमांहे दीठा ते लख्या छे. राधनपुरना संघे प्रश्न पूछयुं जे श्रावक सूत्र वांचे अथवा न वांचे ? तेहनो उत्तर-आगम रीते जे छे ते लिखीए छीए, जे सूत्र नंदीसुत्रमध्ये जेटलानां नाम छे तथा ठाणंगे पण सूत्र ४ नां नाम छे ए सूत्रमध्ये श्री ४५ योगनी विधि श्री अनुयोगद्वारचूर्णिमध्ये छे तेहथी प्रीछज्यो तथा अनुयोगद्वारसूत्र मध्ये सूत्र भणवानी विधिना बोल छे. ते चूर्णीमध्ये ए अधिकार छे. तथा योगवही सूत्र भणवा ए परमार्ग छे श्रीउत्तराध्ययम सूत्रे कह्यो छे. ॥ गाथा ॥
सबगुरूकुलेनिबे, जोगवह उवहाणवं । पीयंकरे पीयंवाई, चेसिकं लघुमरिहइ ॥ १ ॥
इहां योगवंत उपधानवंत तें शीखवा योग्य छे तथा श्रीठाणांगे " तिहिठाणेहिंसंपन्ने अणगारे अणाइयं अणवदग्गंदीहम चाउरंत संसार कतार बिइयएज्झा तं. अणिद्राणयाए, दिठिसंपन्नयाए, जोगवाहियाए " इहां जोग वहेवाना अक्षर छे. केइक दुर्मतिजीव इहां योगशब्दे मनवचनकायाना योग कहे. तेहने कहीए जे मनवचनकाया विना संज्ञी जीव कोण छे ? तो योगवाही ए पद किम उपजे ? तथा शुभयोगपणे ते शुभपद
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श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
तो सूत्रमध्ये दीसतो नथी. तथा ठाणांगसूत्रमे दशमेठाणांगे कयुं छे. " दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभहत्ताएकम्मं पगरेंति तं. अनिदाणयाए, दिठीसंपन्नयाए, योगवाहीययाए, खंतीखमणयाए, जीइंदियाए, अमाइल्लयाए, अपासत्थयाए, सुसामन्नयाए, पवयणवछल्लयाए, पवयणउज्झावणयाए तथा उत्तराध्ययने पण कां छे.
नीयावत्ती अचवले, अमाइ अकुतूहले । विणीय विणएदंते, जोगवं उवहाणवं ॥ १ ॥
इत्यादि वचन अनेक छे. बत्तीसयोगसंग्रहमध्ये पिणसूत्र भणवानो मनोरथ को नयी तथा सर्व सूत्रे श्रावक लट्ठा कह्या छे, पण आचारांगादिकसूत्रना पारगामी किहांइं कह्या नथी. तथा उत्तराध्ययने १३ मा अध्ययनमांहे गाथा छे. जे ॥
महत्थरूवा वयणप्पभूआ, गाहाणुगीयानरसंघमजे । जं भिरकुणो सीलगुणोववेया, इहज्जयंतेसमणोमिजाओ
·
ए गाथामे को एहवी गुणवंत गाथा ते भिक्षु भणे ते माटे हुं पिण श्रमण थयो इहां पण सूत्र भणवाना अधिकारी मुनि दीसे छे, तथा सुगडांगे १४ मा अध्ययने को छे. गंथं विहाय इहसिखमाणा, उठायसुबंभचेरे वसिज्जा । उवयकाराविणुयंसिरके, जे छेएवि पमायंनकुज्जा ॥१॥
ए गाथाई पण ग्रंथ छे. ते मुनि योग्य छे इंम छे. इंम अनेक सूत्रे पाठ छे. तथा समवायांग सूत्रे" सेण अंगट्ठायाए पढमे
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
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अंगेदोसुअवंधापणवीसं अज्झयणापंचासी उदेसणकाला, पंचासीसमुदेसणकाला," इंम सर्व आगमनाउद्देशासनाकालग्रहण कह्या छे. ते पिण कालग्रहण ते जोगवह्ये थाय ते माटे योग वह्या विना सूत्र भण्या नथी कह्या. इंम नंदी तथा भगवतीसूत्र मध्ये पाठ छे. तथा व्यवहारसूत्रे सर्व आगमनना भणवानो पर्याय कह्यो छे. दीक्षाथी वीस वरस पर्याय, सर्व आगम भणे तथा निशीथ सूत्रमांहे कह्यो छे.” जेमिरकु अणत्थियंवागारत्थियं वा वाएइयं तंसाइज्जइं तस्सचाउम्मासीयंपरिहारठाणं." इहां जे गृहस्थने वाचनादे अथवा ग्रहस्थने वांचतां अनुमोदन करे तेहने च्यार मासनो पाल्योचारित्र जाय. इत्यादि प्रगटाक्षर छे ते माटे गृहस्थने सूत्र भणवो वांचवो नहीं. तथा प्रश्नव्याकरण सूत्रे कह्यो छे.” तं सवं भगवं तित्थगरसुभासि दसविहं चउदसपुवेहं पाहुडत्थपवेदिअं महारिसीणंसमप्पदिनं देविदंनारदाणभासीअत्थं" इहां पण साधुने मूत्र दीधो, अर्थे देविंद्रनरिंद्रने दीधो. तथा कोइ कहेसे जे सुबुद्धीमंत्रीये च्यार महाव्रतरूपधर्म कह्यो ते माटे अम्हे कई छ तेतो सुबुद्धीमंत्रीये वातरूप उपदेस कह्यो, पण अंगादिक वांच्या नथी. ज्ञातासूत्रे सुबुझीमंत्रीने अधिकारे दीक्षा लीधा पछे आचारांगादि भण्या, जो गृहस्थपणे आचारांदि भण्या होत तो दीक्षा लीधा पछे स्याने भणे ? ते विचारज्यो. तथा वली कोइक कहेस्ये जे श्रावक सुअपरिग्गहिआ, कह्या छ तेतो फक्त शब्दे आवश्यकादिक तथा अर्थनोधारणतेपिणश्रुत छे. ते माटे सुअपरिग्गहिआ कह्या छे. शुभज्ञानी समकिती देशविरतीने कहा छ, आचारांगादि सूत्र नी ना छे तथा ठाणंगे तो” अवायणिज्जापन्नत्ता तंजहा अविणीए, विगयपडिबद्धे अबुसिआ पाहुडे, विगयवडिबद्धेनो अर्थ
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श्री देवचंदजीकृत घटक प्रश्नोत्तर.
ठाणंगे टीकामे उपधानतप विना विगयप्रतिबद्ध ते अवांच नीक छे. ते माटे योग उपधानवंतने सूत्र भणवा का छे. तथा कोइक कहेस्ये जे यतिलिंगे योगवह्या विना सूत्र वांचे छे ते किम वांचे छे ? तेहनो उत्तर जे योगवह्या विना जे सूत्र बांचे तेहने अरिहंत आणानी विराधना छे. जो पोताने छंदो करे तेने कोण कहे ? पण जो पोताने तथा श्रोताने लाभना अर्थ होय ते तो आज्ञा प्रमाणे वर्ते. श्रीअनुयोगद्वार टीकाए जे अविधिकरी सूत्र वांचे ते पोते ज्ञानावरणीयकर्म चीकणो करे छे, अने जे सांभले छे ते दर्शनावरणीय कर्म चीकणो करे छे. तथा साठिसो प्रकरणे को.
उस्सुतभासगाणं, बोहीनासोअनंतसंसारो । पाणचरवि धीरा, उस्सुत्तं तं न भासंति ॥ १ ॥
इमजाणी उत्सूत्र न बोलवो तथा जीतव्यवहारे सर्वने योगवहीनेज सिद्धांत भणवा एहनी हुंडी तथा हीरप्रश्न तथा विधिप्रपाप्रमुख अनेकग्रंथे अधिकार छे. इहां कोइकधन्नो अणगार स्वामी प्रमुखनो दृष्टांत देइने कुयुक्ति करे ते पोताना आत्माने अहित करे छे. धन्नोअणगारप्रमुखआगम व्यवहारे छे तेहने जीतनो निर्धार नही, पण हवणां तो जीतनो व्यवहार छे ते भाटे योगवही सिद्धांत वांचे तेपिंग नयप्रमाणसप्तभंगी निक्षेपातथाद्रव्यभावतथा निमित्त उपादान उत्सर्ग अपवादनाजाण हुवे ते प्रश्नव्याकरणमे बोल का. तेहनो जाण हवे ए सिद्धांतनो उपदेश करे ए मार्ग छे. मुख्यपणे अर्थना कथक आचार्य, सूचना दायक उपाध्याय गुणवंतने आज्ञा छे, बीजा
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
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साधुने पिण उपदेश देवानी प्रवाहरीति नथी, तो गृहस्थलिंगे उपदेश करे ते किम पालवे ? घणुं स्युं लखीइं? आगमगंभीरमुखे मिल्या अनेकअर्थ कहेवाये इंम पीछज्यो.
तथा कटुकमती कहे छे जे पोरसीप्रमुखपच्चक्खाणे जो पहोरथी वधतो काल थाय तो दोष छे तेहनो उत्तर जे पच्चक्खाणनी शुद्धि ६कही तिहां तीरीयसमदायकालं ए पाठ आवश्यकनियुक्तिप्रवचनसारोद्धार पच्चखाणभाष्यने विषे छे. वली भगवती टीकामध्येखंदाधिकारे तीरइतिपूर्णेपि भवद्धो स्तोककालावस्थानातए पाठ छे.
तथा केइकगच्छना चउसठ अठम तपने अधिकारे आगल पाछल बे एकासणां करे तेवारे चउत्थादिक तप थाय ते माटे अनेक कुयुक्ति करे छे तेहनो उत्तर श्रीभगवती टीकामध्ये खंदाधिकारे चउत्थंचउत्थेणं विचतुर्थभक्तंयावद्भक्तंत्यज्यते यत्रचतुर्थमियंचोपवासस्यसंज्ञाएवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति
तथा केइक संडासां पूजवो मानता नयी तिहां श्रीभगवतीसूत्र टीकामध्ये एवनिसीइयवंति निषितव्यं उपवेष्टव्यं संदसकममिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः
तथा श्रीनवानगरना संघे महं० अमरचंदशेठ जादवजी सा मदन महं० रायचंद भं० डोसा महं० भीम महं० माहवीजे प्रमुखे नवानगरथी पूछाव्या तेहनो आगमशाखें उत्तर लीखीइं छे. प्रश्न पुछ्युं जे देवता शय्यामे उपजे ते देवतानो मूलगो शरीर शय्यामे रहे के नरहे ? तेहनो उत्तर जे देवता शय्यामे उपन्या पछी रहे नही देवता देवलोक मध्ये जे कार्य करे ते मूलगे रूपे करे छे. तिहां श्रीरायपश्रेणिसूत्रे का छे." तयाणंसेसुरीयाभेदेवे तेसिं सरिसीवव
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
गाणंदेवाणं अंतीयेएयम]सोचा निसम्महतुठेजाव सणिआउ अभ्भुठेइ अभ्भुठियत्ता उववायसभाए पुरिच्छिमिल्लेण दारेणं निग्गछेइ जेणेवदारे तेणेवउवागच्छति हरयंअणुप्पदाहिणीकरमाणे पुरिखिमिलेणं तोरणेणं अणुप्पविसति" इत्यादि पाठे नवावैक्रिय कर्या विना सर्व पाठ छे ते माटे शय्यामध्ये कोई देवतानो शरीर न रहे तो शय्या खाली रहे छे, ए पाठ जीवाभिगम मध्ये विजयदेवाधिकारे छे. तथा भगवतीसूत्रे चमरोत्पातअधिकारे सौधर्मेंद्रे वज्र मुक्या पछी श्रीवीरनिआसातना जाणी तेवारे वज्रने लेवा माटे उत्तखैक्रिय अणकरे पडतो मुक्यो इहां पण उत्तरक्रियनो पाठ नथी तेमाटे देवलोकमध्ये मूलगेरूपेज प्रवर्ते पण उत्पात शय्यामध्ये मूलगोरूप रहे ए पाठ कीहाई नथी.
तथा बीजे प्रश्नेसंगमाने देवलोकथी मूलगेशरीरे काढियो छे जेसंगमानी देवांगनाए इंद्र आगल विनती करी जे अम्हने सी आज्ञा के तेवारे इंद्रे का जे तुम्हे मेरु जावो अने वली पाछा इहां सुखे आवज्यो पिण संगमाने देवलोकमध्ये आणस्योमा इंणेकरी जाणीये छे जे ते मूलगो शरीर तिहां रह्यो हवे तो देवांगनाने स्याने जावो पडे तेमाटे मूलगा शरीरे काढ्यो छे. ए कल्पकिरणावलिमध्ये अधिकार छे.
तथा केवलीसमुद्घात जे केवलीने छ मासनो शेष आउखो हवे ए अवसरे केवलज्ञान उपजे ते नियमा समुद्घात नियमा करे तेहथी अधिक आउखा वाला केवलीने समुद्घातनी भजना छे. करे अथवा न करे ए अधिकारपन्नवणा टीका तथा गुणस्थानक्रमारोह टीका मध्ये छे. ॥३॥
तथा पुष्प परोवानो पाठ पंचासकमध्ये तथा हीरप्रश्न मध्ये
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
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प्रगट छे तेपण तुम्हे जोज्यो तथा विचरतां तीर्थकरने फूले पूजे हमे शंका आणे तेहनी बुद्धिनो दोष छे, उववाइमध्ये अप्पेगरंयापूयणवत्तीया ए वचन छे ते ए पदनी टीका पूजनंपुष्पमालादिना ए अर्थ कह्यो छे, अभयदेवसूरिकृत टीकामध्ये पाठ दीसे छे.
तीर्थंकरसचित्तने अडके नहीं इंम कहे तेपण समझता नथी. केवलीना पगथी तीतरनां बचां कुकडानां बचां पारेवानां चां मरे तोपण संपरायकी किरिया न लागे ए पाठ भगवतीसूत्रमध्ये प्रगट छे ते जोजो तो भक्तो फूल चढावे तेमध्ये स्यो दोष छे ? !
तथा बुचे पाणी पीतां अरधो पाणी कलसीयामे रहे ए मध्ये समूर्छिम उपजवानो तंत दीसतो नथी. पन्नवणा टीकाने आसयैइम जणाय छे पिण ए चालकरवो नहीजी.
तथा राते तो अपकायजीवनी तमसकायथी वृष्टि थाय छे अगासे थाए तो निरधार दीसे छे अने ते वृष्टि में बीजा जीव तो जाण्या नयी अने किहांइक ग्रंथे अन्यजाति मध्ये उपजता पण ह्या छे. योगशास्त्र टीकामे ए चरचा लिखी छे, ते माटे उपजता पिण जणाय छे, शीतस्पर्शने योगे रसीया उपजवानी हा दीसेतो छे पिण घणेकाल गये योनिपलटे उपजे परभाते रविकिरण उवडे ते हणाय छे ए जाणवो पिण आगमरीते तमसकायिया ठरे छे.
तथा आहारकशरीर करे प्रदेशत्रीछे भागे जे दिशे केवलीने निर्धार ते दिशे नीकले छे, दसमाद्वारनो कांइ प्रयोजन नयी कहां पाठ पण नथी अने मुख्यपणे हृदय प्रमुख आगला
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श्री देवचंद्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
प्रदेशथी निकले छे इम अधिकार छे ए अधिकार चरितानुवाद मध्ये छे अने कर्मग्रंथना आशयथी पिण इम जणाय छे.
तथा महीयपुइए ए पाठनो अर्थ नंदीटीकामें नथी ते नंदीटीका तो अम्ह पासे नयी पण अनुयोगद्वार आवश्यक वृतिमध्ये ए पाठना अर्थ कह्या छे तेहथी जाण्या छे. नंदी टीका मध्ये बीजो कोइ अर्थ लीख्यो नथी सुगम माटे स्युंलीखे ए रीते धारज्यो.
तथा अष्टापदना चैत्यनो तथा बिंब भराव्यानो अधिकार आवश्यकनियुक्तिमध्ये तथा बावीसहजारीमध्ये छे तथा भगवती टीकामध्ये विरपरचीयो सिगोयमा ए आलावामें अधिकार छे.
तथा चक्रवर्तिने कोइकने मिथ्यात्वगुणटाणो छे अने भरतादिक जीवोने चोथो छे वली परिणाम वधे तो मुनिपणो सातमो तथा छटो गुणठाणो थाय पण पांचमो फरसे नहीं ए अधिकार पदवीना लाभना अधिकार पन्नवणाटीकाप्रमुखे ते वली अवसरे संभारकुंजी.
पलाल्याधानमध्ये अनंताजीव उपजे ते ए प्रत्येक छे तेम मध्ये साधारण किम उपजे तथा सहोकिंसलयखलु उगवमाणोअणंत उ भणीओ” इहां पहिला अनंतकाय छे ते मध्ये पछी प्रत्येक उपजे इंम पिण छे तेहनो उत्तर जे मनुषणीना शरीरे योनि मध्ये असंख्यातासमूर्छिमनीयोनिचलू छे पिण अवसरे गर्भज जीव पण उपजे छे ते माटे अन्यनी योनिपणो थाय छे. सुगडांगसूत्रे पृथवीप्रमुख स्थावरमध्ये अपप्रमुखस्थावर तथा समूर्छिमनी योनि कही छेजी..
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श्री देवचंद्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
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तथा साधुजीने चोथे कर्मग्रंथ मध्ये भगवती २५ मे शतके लेश्या छ दीसे छे ते माटे तेजससमुद्घाते परने बालवाने तेजो लेश्या मूके ते काले कृष्णलेश्या पण हवे बीजी पिण हवे जां सीम शासनकामे करे तां सीम प्रशस्त लेश्या हवे पछी परिणाम पलटे अप्रशस्तपणे परिणमे तो अप्रशस्त लेश्या पिण हवे इंम धारवोजी. ए प्रश्ननी शाखतो पुस्तकथी जोइ लैजो.
नवानगरना श्रावक भणसाली डोसाए प्रश्न पूछ्या तेना उत्तर लख्या छे:--समवसरणमध्ये फूलनी वृष्टि थाय छे ते उपर साधुजी किम चाले छे तेहनो उत्तर तंदुलवेयाली पयन्नानी टीका मध्ये लिख्या छे. ते कोइक आचार्य कहे छे जेविचे मारग रहे छे. जिम वाडी मध्ये जेम क्यारी करे छे तिम मारग रहे छे. पिण ए उत्तर पंचागीने लेखे ठहरतो नयी ते वली एहज टीका मध्ये कह्यो छे. जे फूलतो सर्वत्र व्यापीने वृष्टि करी छे ते उपर साधु चाले छ तिहां ते टीका मध्ये पूछ्यु छे. जे फूलने किलामना उपजे के न उपजे ? तिहां इंम उत्तर छे, जे कोइक समवसरणे देवना विकुा फूल करे से तो अचित्त छे अने समवायांगने पाठे सचित्त फूल छे पण देवताने सामर्थे वेदना थाती नथी तथा कदापि थाय तो पण साधुजीने प्राणातिपातकी क्रिया न लामे तथा जिनभक्ते हिंसानो बंध न थाय इम जाणवो, गुरु साहमा सूत्र सुण्याना फल उत्तराध्ययनमध्ये कह्यो छे. ते श्रीअरिहंत विचरता ते गुरुतत्त्वमध्ये छे उपदेशक माटे. तथा वली पूच्यो जे समवसरण उपाडे तेवारे फूलनो किम थाय छे ? तेहनो उत्तर जे फूल सचित्त छ तेतो कमलाय एटले देवता विखेरी
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
नाखे छे, अने प्रभु विहार पछी पण विखेरी नाखे छे. तथा फूल समोसरणमाहे सचित्तनी मुख्यता छे. इंम जाणजोजी. तथा तीजे प्रश्न पूछयो जे प्रभुनी माताए सरोवर दीठो ते किहां छे. ते कल्पनी टीकामध्ये तथा जंबूदीवपन्नत्तिनी अपेक्षाये तो चुलहेमवंत उपर पद्मद्रहते जणाय छेजी. जेम कमलप्रमाण ए रीतनो सर्व वर्णव्यो छेजी तथा पांचमे प्रश्ने जे व्यवहार रासी मध्ये जेटला जीव मोक्ष जाय तेटला अव्यवहारीनिगोदमांयी नीकले ए पाठ छे तेहना उत्तर माटे लिखीये छे जे अव्यवहारीनिगोदमध्ये पिण भव्य तथा अभव्य बे जीव छे. व्यवहारराशिमध्ये पिण भव्य अभव्य बे जातिना जीव छे. ते मध्ये भुवनभानु केवली चरित्रे भवभावनीटीका तथा उपमि - तिभव प्रपंचामध्ये अनादिनिगोदथी अभव्य नीकली व्यवहारराशिमध्ये आवे छे ए प्रगट अक्षर छे. ते माटे इहां पूछस्ये जे भव्यजीव तो व्यवहारराशिमांथी अवसरे मोक्ष जाय छे. तिणे वधे नही पिण अभव्य जे व्यवहारीया थया ते तो व्यवहाररा शिमध्ये छता पांमीये तेहनो उत्तर जे घणो काल तो भव्य नीकले छे अने कोइक वेला १० जीव मोक्ष जाय तेवारे अव्यवहारीनिगोदथी १० जीव नीकले ९ भव्य १ अभव्य इम पण निकले छे. केइक कहस्ये जे ए रीते करतां व्यवहारराशि वधती जणाय छे. तेहनो उत्तर जे मूल तो इंम वधे नहीं कदापि कोइ कला उपजे तो पिण अल्प माटे गिण्या नथी. तथा ॥
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सिज्जंतिजित्तीयाकिर, गुणयोगेणंविवहाररासीओ। एइतितित्तियाकिर, अणाइनिगोयरासीओ ॥ १ ॥
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श्री देवचन्द्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
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sri संख्यानो नियम कह्यो छे पण भव्य अभव्य नियम नयी ते माटे पंचांगीनी रीते इंम जणाय छे पछी तो श्री केवलीनां जाण्यामे हुवे ते प्रमाण छेजी तथा समवसरण मन्ये. फूलनी वृष्टि थाय छे ते सचित्तफूलनी छे श्री यशोविजय उपाध्यायजी प्रतिमाशतकमध्ये पण ए घणो चच्र्थ्यो छेजी इंम सहवो जे कारणे प्रशस्तमार्ग जे करे ते मध्ये आ स्रव नथी ए सूत्रनी परिपाटी छेजी कोइक प्रगटाक्षरमार्ग तो उत्तराध्ययन सूत्रे मृगी पुत्राव्ययने को ले.
अपसत्थेहिदारेहि, सबओपिहीयासवो । अज पज्झाणजोगेहि, पसत्थदमसासणो ॥ १॥
इत्यादिक अनेक आचारादिसूत्रे घणा पाठ छे ते जोइ लेजो तथा पं. ज्ञानकुसलनो प्रश्न जे सूत्रे द्रव्य छ कह्या छे. तथा विशेषावश्यक मध्ये पांचज द्रव्य कह्या छे. तेहनो स्वरूप लिखीये छे. जे वस्तुगते विचारतां हालनो वस्तुपणो पिंडरूप द्रव्यपणो नथी. ते माटे अस्तिकायपणो नथी. अस्तिकायपणो बहुप्रदेश मिले बहुपरमाणु मिले थाये ते कालने नथी. कोइक कालना रेणु असंख्याता माने छे. लोकाकाशप्रदेशप्रमाण माने छे पिण ए वात प्रमाण नथी. जे रेणुआमान्यां अस्तिकायपणो थाय कदापि रेणुआने भिन्नद्रव्य मानीये तो कालद्रव्य असंख्याता धाये. अने सूत्रे कालद्रव्य अनंतो मान्यो छे ते माटे रेणुआनो मानवो तो संभवे नहीं तथा सूत्र परपाटीये श्रीजीवामिगमसूत्रे पण इंम दिसे छे. " जे किमयं भंते कालोत्तिवृच्चइ गोयमा जीवाचेव अजीवाचेव" एटले जीव
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श्री देवचन्द्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
अजीवनी वर्तनालरकण कांइक पर्याय वर्तना ते काल जाणवो. ए सूत्र वचन छे. तथा उत्तराध्ययने २८ अध्ययने” अनंताणिय दबाणिकालो पुग्गलजंतवो" ए पाठ छे ए पाठे कालद्रव्य अनंता कह्या ते जीवअजीवद्रव्य अनंतानी जुदी जुदी वर्तना तेहने कालद्रव्य मानीने अनंतद्रव्य कह्या छे ते माटे कालद्रव्य छठो वस्तुगते जूदो नथी. अने पर्याय ते वस्तुनो आरोप करीये तो एहने द्रव्यपणे कहीये. जिम घटद्रव्य ते घट छे. ते पुद्गलनो बंध छे. ते विभाग पर्याय छे ते पिण उपचारे द्रव्य कहीइ छे. तिम ए पिण जाणवो. तथा कोई पूछे जे काल ए छतो छ के अछतो छ ? उत्तर-जे कालवर्तनारूप पर्याय पंचास्तिकायमध्ये छतो छे, पण पंचास्तिकायथी भिन्न नथी. ते माटे इंम कहेवो. अने जे भगवतीसूत्रे छठो कालद्रव्य छे ते अढीद्वीपप्रमाण ज्योतिश्चक्रने वारे जे व्यवहारकाल तेहने कालपणे मानीने ए वचन कह्यो छे. ते माटे व्यवहारनये छ कहीजे, निश्चयनये तो पंचास्तिकाय छे. तथा तत्त्वार्थटीका मध्ये कयुं छे जे द्रव्यास्तिकायनयन गवेषीये तो पर्यायास्तिकायने द्रव्य मानीये तेवारे कालद्रव्य कहीये, तेमाटे ए श्रद्धा राखवी. तथा सिद्धांतना आलावा तथा द्रव्यानुयोगनीपरिणति सर्व इम ठरे छे. तथा धर्मसंग्रहणीमध्ये बे मत कह्या छे. तत्त्वार्थकारे पिण" सोऽनंतसमय" ए सूत्रसदहवो ते काल छ द्रव्य अनंतसमय रूप छे इम को तथा श्री हेमाचार्ये पिण कालना रेणुक कथा ते पाठ जो जो॥ लोकागप्रदेशस्याभिन्नाः कालाणवस्तुयेभावानां । परिवर्त्तापिमुख्यः कालसउच्यते ॥१॥ (?)
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श्री देवचद्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
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इम पाठ छे पण मूलद्रव्यानुयोगमध्ये नजर देतां तथा जीवामिगम अनुयोगद्वारसूत्र तथा पन्नवणा भगवतीना अल्प बहुत्व विचारतां कालद्रव्य जूदो नथी पंचास्तिकायनी वर्त्तना छे, तिहां कोई पूछस्ये जे जेवारे पंचास्तिकायनीवर्तनाने काल मानीये तेवारे कालने एकलो अरूपीपणोठहरे नहि जे पुद्गलास्तिकायनी वर्तना रूपी जोईये, तेहनो उत्तर जे पुद्गलनी वर्तना मुख्यपणे रूपी संभवे पिण वर्त्तना ते पिंड नहीं वर्णादिक तथा अगुरुलघुनो पलटण उत्पादव्ययरूप छे ते व्यक्तअवस्था थाये नही तेमाटे अरूपीज बहु यतिये गिण्यो तथा कोइक पूछस्ये जे काल जेवारे जीवनी वर्तना गवेषीये तेवारे कालने चेतनपणो आवस्ये तेने कहे छे जे जेवारे पर्यास्तिकनयनी भेद व्याख्या करे तेवारे चारित्रादिक गुणमध्ये ज्ञानगुणनी नास्ति कहीइं जे सर्वगुणस्वरूपे अस्ति छे पररूपे नास्ति छे तो वर्त्तनापर्यायने चेतनपणो किम कहेवाये ? तेमाटे कालद्रव्यने पिण अचेतनज कयो, इम कालने उपचारे निक्षेपा द्रव्यादिक च्यार गुण पर्याय सर्व कहेवा, पिण मूलव्याख्याये काल ते पंचास्तिकायनी वर्त्तना छे. सूत्र तथा नियुक्ति तथा भाष्यकार सर्व गीतार्थ तथा गणधर सर्वनी एहिन व्याख्या छेजी, तथा पुछे जे द्रव्य छ छे के पांच छे ? ते जीवाभिगमसूत्रे तो द्रव्य पांच कया छे अने भगवतीप्रमुखमध्ये द्रव्य ६ कयां छे, पिण सूत्रना वचन विरोधी हुवेज नही तेहनो परमार्थ धारवो पण जिहां उत्तराध्ययन भगवती तथा टीकाप्रमुख सर्वत्र जिहां ६ द्रव्य एहवो पाठ तिहां नियमापंचास्तिकायनी वर्त्तना तेहने उपचारे मिन्न व्याख्याये भिन्न द्रव्य कह्यो ते सर्वत्र उपचार जाणज्यो तथा कोइक कहेस्ये जे एहनी साख किहां छे तेहने कहीये
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श्री देवचन्द्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
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जे जीवाभिगम तथा महाभाष्यथी वधती साख कोनी मागो छो ? पूछरये जे एटले ठेकाणे ६ द्रव्य कह्या छे तो पांच किन मनाय ? तेहने कहीये जे जीवाभिगम तथा भाष्यकारे ते ए अक्षर सर्व जाण्या हता तेहथी अजाण्या नही. अनुयोगद्वारे अनादिसिद्ध कह्या ते पण ए उपयोगेज कह्या छे, तथा वाच्यवाचकभावे कालनो नियम जूदो कह्यो छे तेमाटे द्रव्य जूदो वाच्यमां संभववो घटे छे, तेहने उत्तर संवरतत्त्वेवाचक नाम जूदो कह्यो छे, तेहनो वाच्यज्ञान चारित्रादिक पण छे तेमाटे संवरपदार्थ कह्यो पण संवर ते जीवनी परिणति छे पण पिंडपणे जीवथी संवर जूदो नहीं. तथा वली कहेस्ये जे संवरने द्रव्य कह्यो नथी पण द्रव्यथी प्राणातिपातादिक कह्या. तथा प्राणातिपातादिविरमण पण द्रव्यभाव आगम मध्ये कह्या, तेमाटे ए सर्वथी काई द्रव्य जूदो थाय नहीं तथा कोइक पूछस्ये जे ए ५ समान छठो द्रव्य कह्यो, तिहां उत्तर जे पंचमहाव्रत भेलो छठो रात्रीभोजनव्रत कयो, पिण अपेक्षाए कह्यो, तेमाटे रात्रीभोजन कांई मूलगुण महाव्रतरूप न थाये. सर्व गुण, सर्व पर्याय, सर्व परिणाम, सर्वेवाच्यवाचकभाव, संयुक्त छे. तेमाटे भिन्नपिंडी द्रव्यपणो न पामे अने पर्यायने द्रव्य कहीये एहवे नये पिण जैन बोले, ए दीक्षा लेवा माटे कालने छठो द्रव्य कह्यो ते रीते कहीये, यावत्मात्र अमिलाप्यभाव होवे ते वाच्यवाचकभावसंयुक्तज होवे, तेमाटे द्रव्यपणो न पामे, जिम धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायनो देशपणो तथा पुद्गलास्तिकायनो देशपणो कदापि खंधथी जूदो नथी, अने अजीवना भेद करतां जूदो कह्यो, तेमाटे ते रीते एपण मानज्यो. प्रवचनसारोद्धारमध्ये तथा पंचकारणमध्ये जे वसंतादिकना
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श्री देवचंद्रजीकृत छूटके प्रश्नोत्तर.
ऋतुस्वभावादि बोल्या ए सर्व व्यवहारनय तथा आदित्यादिगति परिछित्तिरूप बाह्यकाल लेइने बोल्या छे, ते परमार्थे नथी ते श्रीभगवतीसूत्रे प्रश्न छे. जे केटलीक वनस्पति उष्णकाले फले ते स्वामि कीम छे ? तेवारे श्रीवीतराग कहे छे ए जीवने उष्ण फरसी पुद्गलनो आहार घणो लेवराय छे. तेमाटे उनाले फले छे. तिहां जीवनो उदीतकर्मकारण छे, पिण एकांत कालनी मुख्यता नथी. वली काल अपरिणामी अकर्ताद्रव्य छे ते स्याने परमध्ये परिणमे स्याने परकार्य करे, तेमाटे वृक्षादिकनो जीव पुद्गलद्रव्य छे तेमाटे ते फलजीव पुद्गल मध्ये एहनी वर्तना मान्यांज सर्व समो पडे, पिण भिन्नद्रव्य मान्यां कोई समो पडे नहीं, वली कोइक पूछस्ये जे धर्मास्तिकायपण अपरिणामी अक्रिय अकर्ताद्रव्य छे ते किम चलणसहायी थाय छे ? तेहनो उत्तर जे गति परिणामी जीवद्रव्य तथा पुद्गल द्रव्यने सहायी थाय छे पिण ते धर्मास्तिकायरूप छे. अने काल ते अस्तिकाय नयी. तथा भावप्रकरणे "कालोऽतिकलनं काल एव द्विधा वर्त्तना लक्षणः १ समयावलिकादिलक्षणश्च अतस्तववर्त्ततेभवंति भावास्तेनतेन रूपेण तान् प्रतियोजकत्वं वर्तना सा लक्षणंलिंगंऽस्येतिवर्तना लक्षणः अयं समस्तद्रव्यक्षेत्रभावव्यापीति.” १ एहनो अर्थ जेवर्ते थाये ते रूपे प्रतियोगी सहकारीपणे ते वर्तना कहीये, ते वर्तमानज छे लक्षण जेहनो ते वर्तनालक्षण काल कहीये. द्रव्य धर्मादिक क्षेत्र सर्वना प्रदेशभाव सर्व द्रव्यना गुणपर्याय ते मध्ये व्यापकपणे छे. एटले पंचास्तिकायनी वर्तना तेहज निश्चयकाल कयो, ए मध्ये जूदा कालद्रव्यनी ना थई. बीजो समयावलिकालक्षण ते व्यवहारकाल जाणज्यो. ते समय वर्तमान एक छतो भिन्नद्रव्य मानीये
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श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
तो ते समयनो क्षेत्र कहां मानीये, जिहां मानीये तिहां एक प्रदेश मध्ये रह्यो जोइये. तेवारे सर्वलोक अलोक मध्ये उत्पादव्ययनी वर्तना किम थाये ? तेमाटे पंचास्तिकायनी वर्तना ते कालज मान्यो पूरवे कही नवजीरणता एपण कालनोलक्षण स्थूल छे. नवजीरणधर्म खंधनो छे अने कालनी वर्तना सर्वद्रव्य मध्ये छे ते पुद्गलपरमाणु तो नवजीरण थतो नयी तेवारे ए व्यवहारकालनी अपेक्षाए जाणवो, तथा नवजीरणता पुगलपरमाणुनोपर्याय छे इम लिख्यो ते ए परमाणु तो एकलानो पर्याय छे नही, खंधनो उत्पन्न पर्याय छे, जिम शब्दपणो छे तिम छे, अत्र तेहने एम क्रे तमाटे वर्त्तमान समय एक छे ते सर्व जीव पुद्गलादिकमें वर्ते छे, ते माटे कालद्रव्य अनंतो कहेवाय छे, जो अणुकादिक कोइ काल मानीये तो "जीवापुग्गलसमवा" ए गाथा द्रव्यानुयोगना अल्पबहुत्वनी भगवती टीकामध्ये छे. तथा पन्नत्रणासत्रे " एसिणंभंतेतीणंपुग्गलाणं" इत्यादि प्रश्नसूत्रे उत्तर कह्यो छे " सबथोवाजीवा पुग्गलाअनंतगुणा अद्धासमया अनंतगुणा सव्वदवाविसे साही या" ए पाठ छे, तेह जीव अनंता, तेही पुद्गल अनंतगुणा, तेहथी कालसमयअनंतगुणा, ते सर्वथी काल अनंतगुणो, द्रव्यवर्त्तना गवेखीये तोज पूरखे ( पालवे ) जो काल भिन्नद्रव्य मानीये तो पूखे जे कारणे जे एक आकाशप्रदेशे अनंताकाल द्रव्य मानीये तो पूखे जे कारणे जे एक आकाशप्रदेशे अनंताकाल द्रव्य मानीये तो अस्तिकायपणो वई (टळी ) जाये, अने एक आकाशप्रदेशे एकएक काल द्रव्य मानीये तो असंख्यातो द्रव्य थाय, पण अनंतो न थाय तेवारे सूत्रनो अल्पबहुत्व किम मिले ? तेमाटे जीव तथा पुद्गल धर्म अधर्म आकाशनीवर्त्तना मान्यांज
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श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
पूखे ए सूत्रनो पण एहज आशय छे, जिहां "छदवापन्नत्ता" इत्यादिक सूत्र पण व्यवहारकालने उपचार मानी छ कला ए आशयसहित छे, तेमाटे एहि आशय सिद्धांतकारनो छे. सिद्धांतवादी पण इमज कहे छे इहां जूदो पोतानी मतिना दोषे समझण विना सिद्धांतवादीपणो जुदो माने तेहने संसार बधे, अने सिद्धांत अनुयायी सिद्धांतवादी श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणथी वधतो बीजो कोइ नथी, सिद्धांतनी खरी आज्ञा प्रमाणजीव छे. तेहथी वधतो हीनो चित्तमां विकल्प करे तेहने संसार वधे इम धारज्यो, एटले आवलिकादि व्यवहारकाल ते सर्व लौकिक छे. परमार्थे पंचास्तिकायनीवर्त्तनाने काल कहीये छे. पण जूदो नथी, अने कालद्रव्य को वे उपचारे छे, तिहां वली पूछे जे उपचार वस्तुनी छती राखीने को छे के वस्तु पांचज छे ? तेहनो उत्तर जे वस्तुपणे मूलसूत्रने प्रमाण पांचज वस्तु छे. छठो वस्तुपणे नथी, अने पंचास्तिकायमध्ये स्वकालरूप एक स्वभावपर्याय छे, तेहने काल मान्यो छे. ते स्वकालरूप पर्याय ते पंचास्तिकायमध्ये छतो छे. तेमाटे छत्तानो उपचार छे. इहां कोइ पूछस्ये जे छतो तेहने उपचार छे किम कहीये ? तेहनो उत्तर जे, जिम छे तेहथी वती अवस्था कहेवी ते उपचार, जे वर्त्तना ते पर्याय स्वभाव हृतो तेहने द्रव्यपणो कहेवो ते उपचार छे एटले द्रव्यपणो अछतो छे, इम धारवो, तथा अजीवना १४ भेदमध्ये तथा ५६० भेदमध्ये अछतो होवे तो किम गण्यो ? तेहनो उत्तर जे धर्मास्तिकायदेश १ अधर्मास्तिकायदेश २ ए भेद अछता छे, पण ए भेद मध्ये गण्या छे तेमाटे ए भेद सर्व वस्तुगति तथा उपचार ए वे मेलीनेज प्ररूप्या छे, पांचसेसाठ भेदमध्ये
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श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
बीजा पण उपचारी भेद घणा छे, सिद्धांतनो भाष्यकारनो आशय एकज छे, अने व्याख्याभेद छे. तथा कोइ कहेस्ये जे कोइक गीतार्थ पोतानो आशय पोषे, ते तो जे पोष्यानो आशय पोषे ते गीतार्थ नथी. गीतार्थने तो सिद्धांतना सर्व आलावा अबाधक रहे ते अर्थने मुख्य कहे. बीजा कोइक ग्रंथे अर्थ का हुवे तो ते कहे पण तेपणे कहे ए रीत छे. इहां पंचास्तिकाय मध्ये, स्वकाल तेहज काल छे, पण जूदो नथी, उत्पाद व्यय ते सर्व द्रव्यमां समये समये थाय छे. ते समय जूदो मानीये तेवारे सिद्धनो तथा धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायमा आकाशमां काल भिन्न द्रव्यथी उत्पादव्यय मानवो पडे. तेवारे सिद्धादिकनो उत्पादव्यय परअपेक्षाये ( थाय) ते परअपेक्षाये उत्पादव्यय मानतां उत्पादव्यय ध्रुवता ते द्रव्यनो लक्षण ( परापेक्षाए थाय ) जे लक्षण होवे ते स्वरूपेज होवे परअपेक्षाये थाय नहीं ( स्वस्वरूपेणलक्षणंनपरस्वरूपेणलक्षणं ) तथा तुझे सूनी साक्षी मागी ते जीवाभिगममध्ये "किमिदंभंते अद्धासमत्तिकच्चे गो० जीवाचेव अजीवाचेव " ए पदमध्ये ए आव्यु छे तथा जिहां छ द्रव्य कथा तिहां लगतोज पूछयो जे " कतिणंभते अत्थिकायापन्नत्ता ? गो० पंचअत्थिकाया पन्नत्ता " ए पदमध्ये अस्ति ते छतानो नाम छे, तेटला छता पिंडपणे केटला छे ? तो कां जे पांच छे. एटले एथी तो अक्षर स्यो मागो छो ? तथा उपचार हस्ये तो किवारे कैलोक थई जस्ये, सिद्धमे संसारीपणो थास्ये ते एहवी कल्पना स्याने करीये ? जे वणीये तथा पूर्वाचार्ये जे उपचार कर्यो ते करीये. पण नवा न कल्पीये. अने कोइक उपचार करीये ते पण कोइक कार्य माटे करीये. सूक्ष्मनिगोदी याने सिद्ध
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श्री देवचन्द्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
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कह्या ते उपचारे, इंम अनेक उपचार छे. ते केटला लिखीये, असत्स्थापनादिक ए सर्व उपचार छे, पण कार्य माटे छे. तथा कोइक चांपी बोलाय ते मध्ये कोइ जीवने लाभ नहींजी. तेमाटे एटलो बोलवानो मन करीये, पण खींचाताण मध्ये न पेसीये. तथा श्रीभगवतीसूत्रमध्ये धर्मास्तिकायना नामपर्याय कह्या छ, तिहां धर्मास्तिकाय कहीये प्राणातिपातसंवर कहीये. इंम अढारसंवर ते धर्मास्तिकायनां नाम कह्या. तथा अढार पापस्थानने अधर्मास्तिकायनां नाम कह्यां. ते पण सर्व उपचारे कह्यो छे. तेमाटे एहवा उपचार सूत्रे अनेक छे तेमाटे पंचास्तिकायनी वर्तना तेहजने काल कह्यो छे. अत्र श्रीतीर्थकरदेवे पण छ द्रव्य कह्या, तेपण आशय मध्ये एहज उपयोगे कह्या छे. बीजो कोइये नवे ए आशय न कह्यो. " अणागयद्धाजीयद्धा जीवाजीवइ " इत्यादिक जोज्यो. तथा श्रीजिनाशय । भिन्न कह्यो नथी. वीरमुखथी सुधर्मास्वामीए अर्थ इमहीज धार्यों हतो. ते परंपराये चउदपूर्वधारी भद्रबाहु स्वामी नियुक्ति मध्ये पण एहज. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण तेपण दशपूर्वधर छे. ए वात गणधरसाधशतक गणधरदोढसावृत्ति तथा कल्पचूर्णि मध्ये सुणी छे. व्याख्यात छे. तेह सुखे करीये. पण आशयमूलगो राखीने करीये. इम धारवो तेमाटे ए व्याख्या ए रीतेज करज्यो. जे वस्तुपिंडपणे पांच छे, अने पांचना स्वकालपर्यायने कालद्रव्य कही बोलाव्यो छे, ते आरोपेज छे. ए आरोप ते जिम निश्चयअर्थावग्रह एक समयनो छे अने व्यवहारे अर्थावग्रह असंख्यात समयी लोकने बोधवा माटे मान्यो, तिम मानज्यो. तथा वली जे प्रमाणप्रत्यक्ष मध्ये वस्तुगते केवलज्ञान ते सर्व प्रत्यक्ष मान्यो. अवधिमनः
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श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
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पर्यवने देशप्रत्यक्ष मान्यो. वली लोकव्यवहारे उपचार करीने घोढा इंद्रियसन्निकर्षथी जे ज्ञान थयो तेहने पण व्यवहारे प्रत्यक्ष मान्यो. ए बे रीत नंदीसुत्रादिक मध्ये छे. तेपण कारणे छे. तिम कालनी बे व्याख्या कारणे छे. पण मूल व्याख्याने निजराखीने सर्व व्याख्या करीये. ए रीते कल्याण छे. तथा विशेषावश्यके “नतुपश्यतिक्षेत्र कालावसौ तयोरमूर्त्तत्वादवधिश्वमूर्त्तविषयत्वात्, वर्त्तनारूपंतुकालंपश्येत्तव्यपर्यायत्वात्, तस्येति” इहां पुगलनीवर्त्तनानी अपेक्षायेकालने रूपीगवेख्यो छे. तथा बावीसहजारीमध्ये तथा “ कालस्यवर्त्तनादिरूपत्वात्, द्रव्यपर्यायत्वात्, द्रव्योपक्रमएवोपचारात्, " श्रीभगवती सूत्रे १३ मे शतके उसे ४ थे कालस्पर्शनाधिकारे नत्थिइकेणवि ए अधिकारे टीकामध्ये पुद्गलादिकनी वर्तना तेहिज काल गवेष्यो छे. राधनपुरथी पं. वीरचंद गणीए पूछ्युं तेहनो पडत्तरजे वैक्रियशरीर करे तेवारे, अथवा आहारकशरीर करे तेवारे सर्वप्रदेश आहारकशरीर मध्ये छे. पण औदारिक मध्ये नयी. तेहनो उत्तर जे आहारकवैक्रियलब्धिकाले ठाणांगवृत्ते त्रण शरीर छे. तथा कर्मग्रंथ कम्मपयडीमध्ये पण उत्तरवैक्रिय तथा आहारक करता उदयस्थानक नामकर्मनां कह्यां छे. " आहारक संयतानां उदयस्थानानि भवति तद्यथापंचविंशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् " " तत्र आहारकमाहारकोपांगसमचतुरस्रसंस्थान उपघातं प्रत्येकइति पंचप्रकृतयः प्रागुक्तायां मनुष्यगतिप्रायोग्याया मेकविंशतौ प्रक्षिप्यते मनुष्यानुपूर्वीचापनीयते ततोजातापंचविंशति " रित्यादिपाठे, आहारकवालाने औदारिकोदय दीसतो नयी. वली जो एहने औदारिकउदय होवे तो संवयणनो पण उदय जोइये. तेमाटे ते आहारकशरीरकाले औदारिक उदय
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
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दीसतो नयी. तथा कोइ पूछस्येजे औदारिकशरीर छतो देशादेतो दीसे छे ते एहनो आशय छे, जे आहारकनो अंत मुहूर्त नान्हो जणाय छे ते लोकने खबर पडे नहीं. तथा जो ए शरीर मध्ये आत्मप्रदेश छे तेपण तैजसकार्मणशरीरी छे, पण औदारिकावगाही नयी अने जो ए शरीरे आत्मप्रदेश सर्वथा न मानीए तो आहारकशरीरनो संकेलो संभवे नहीं. तथा तिहां उत्तर सांभलतांज आहारक टली जाय छे अने आत्मप्रदेशो औदारिकशरीरमध्ये समाय छे तथा कोइक पूछस्ये जे मूलगे शरीरथी जास्ये. आहारक जाइ तां सीम आत्मप्रदेशनी श्रेणि छे ते तैजसकार्मणवंत छे, जे सभी अवगाहनापन्नवणा सूत्रे पांचराजनी कही छे कार्मणनी अवगाहना १४ राजनी कही छे उत्कृष्टथी जघन्य अंगुलने असंख्यात भे भागे कही छे, अने आहारक करतां शरीरादि पर्याप्ति नवी करवी पडे छे ते कर्मग्रंथटीकामध्ये कां छे. “शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्यसप्तविंशतिः" इत्यादि तथा जे आहारकनी अवगाहनामुंड हस्ते छे तेमाटे मध्यप्रदेशे तैजसकार्मण छे इंम जाणवुं तथा औदारिकशरीरवंत प्रथमयी आहारकपुद्गलग्रहे तेपण औदारिकशरीरथी लेतो नथी, जे औदारिक आहारकबंधन नथी तेपण आत्मप्रदेशगत आहारकनामकर्मनी प्रकृति तेपण कार्मणवर्गणारूप जे उदय थइ तेहने उदये आहारकसमुद्घात करे, तेणे प्रदेश बाह्य नीकले. ते प्रदेश तैजसकार्मणशरीर छे. ते शरीरथी नवा आहारकवर्गणाना पुद्गल आहारे ते सर्वप्रदेशे आहारे ते पछे सर्व प्रदेशे आहारकशरीर छे एक अष्टप्रदेश ते अचल छे तथा श्रेणिगत प्रदेश सर्वने तैजसकार्मण शरीर छे ते पछे आहारकशरीर उदय छे इंम जणाय छे, इहां किहां औदारिक उदय मान्यो. हवे तेजो प्रशस्तआचार्य वचन
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
ए तेजोप्रदेवोदयरूप गणवो. पण विपाकी नथी. तथा वैक्रिय शरीने पण इंगहोज जाणवो. हां - चक्रवर्ति भोगकाले ६४ हज प क छे
तिन थे भोग मूलगेरूप करे छे से मूसो आदारिक शरीर छ ? तिहां इंम छे जे चक्रवर्ति ६४ हजाररूप करे छे ते बहुरूपिणी विद्यानी पेरे औदारिक शरीरनाज छे पण वैक्रिय नयी तथा श्रीभगवतीसूत्रे “पडाओपडसहस्सं घडाओघडसहस्सं पाठे घडा एकमांथी हजारेबंध घडा काढे ए पण वैक्रिय नथी अवकरीया भेदे घडामांथी घडा काढे छ तिम औदारिक शरीरमांथी औदारिक शरीर काढे छे ए अक्षर पण ग्रंथांतरे दीठा छे पण ते ग्रंथ पासे नथी. आहारक कर्याथकां पूर्वशरीरमध्ये आत्मप्रदेश छे ते तैजसकार्मणशरीरी छे पण औदारीक शरीरी नथी अने आहारक करे तेपण इहां ३ वर्गणानो करे छे. तथा आहारकशरीरी करतां औदारिकमिश्र मान्यो छे ते पूर्वग्रहीत औदारिक पुद्गल जे छ, अने नवा ग्रह्या जे आहारक पुद्गल ते भेला थया माटे मिश्र छे परं आहारकथी औदारिक ग्रहण नथी. आहारक मूकतांकाले पण प्रथमथी औदारिकपुद्गल ते कामणथी लेवराइ छे इंम जणाय छे, पछे तो आगम अनंत छे. तथा तुम्हे विष्णुकुमार आश्री लिख्युं ते वैक्रियशरीर करतां
औदारिक शरीर ते पण वैक्रिय माहेज समाणो छे अने ते औदारिक पुद्गल ते वैक्रियने उदयबले वैक्रियपणे परिणमे, पुद्गलनो पलटणस्वभाव छे तेमाटे जे वैक्रियसमुद्वात करतां सोल जाति रत्नना पुद्गल तेह पलटावी वैक्रियपणे परिणमावी लेवे छे, अने जे वैक्रियशरीर धणा करे छे तेहने औदारिक मध्ये जे प्रदेश छे तेहनी बे परिपाटी छेजी मूलगा शरीर पण पलटीने
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छूट प्रश्नोत्तर
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वैक्रिय थयो छे, अने लोक औदारिक जेहवो देखे देतो शक्ति विशेष छे, जिम इंद्र कालिकाचार्यपासे निगोदस्वरूप पूछवा आव्या वृद्धद्विजरूप करीने ते शरीर वैक्रिय हतो पण लोके औदारिकपणे दीठो, आचार्ये पण पछे उपयोग दीधे जाण्यो तिम मनुष्य वैक्रिय करे ते मूल शरीर पण वैकिय छे, अने बीजा शरीर तेपण वैक्रिय छे. ए वैक्रियसमुद्घातनी उत्कृष्ट अवगाहना लाख योजननी छे तेमाटे अने जे लाख योजनथी उपरांत छे ते तो मूल शरीरे तथा अंतरालवर्त्ती प्रदेश सर्वमध्ये तैजसका र्मणशरीर छे, समुद्घातगत केवली शरीरपरे पण औदारिकशरीर नथी. जे उत्तवैक्रियकाले औदारिकना उदयनी ना कही छे कर्मग्रथने विषे तेमाटे इहां कोइ कहे जे एकरूपे ३ शरीर का छे पण रूपभेदे वैक्रियादिक हवे. तेहने उत्तर. जे कर्म उदय न हवे ते सर्व प्रदेशेज हवे पण कोइ प्रदेश हवे कोइ प्रदेशे न ढवे इंम हवे नही. यद्यपि शुभनामकर्म अशुभनामकर्म तेना " भुवरिसिराइमुहं" ए पाठे नामि सीम नाभिथी हेटले अशुभ इंम उदय को छे परं तिहां तच्चार्थ टीकाकारे कह्यो छे जे नाभिपर्यंत शुभनो विपाकोउदय अने नाभिथी हेटल शुभनामकर्मनो प्रदेशोदय छे अशुभो उदय छे डंम जाणवो. पण कर्म उदय हवे ते थोपा चीकणा लखानो फेर हवे पण कोइ प्रदेशे न हवे इंम न हवे, तेमाटे इंम जाणवुंजी. तथा तुम्हे पूछयुं जे मनुष्यगतिमार्गणा तथा तिर्यंचगतिमार्गणा मध्ये औदारिकद्रिक कि वज्रऋषभना राचसंघयण ए पांच ५ प्रकृति मूलओ पंचनथी तो औदारिकमिश्रकाययोगनी मार्गणाए चोथे गुणठाणे ७५ प्रकृतिना बंध तेमध्ये ए ५ प्रकृति गवेषी ते स्यूं ? तेहनो उत्तर परंपराइ इंम
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छटक प्रश्नात्तर.
सांभल्यो छे, मनुष्यगति तिर्यंचगति मार्गणामां उत्तरवैक्रिय करे ते काले वैक्रिय करतां वैक्रियद्विक देवद्विक न बांधे पण उत्तरवैकिय काल गवेख्योज नयी उपाधिकृत ते कारणिक छे. ते गवेखता नथी, इम जणाव्यो छे, अने जे मनुष्यतिर्यंच उत्तरवैक्रियपणे वर्त्तमान ते वैक्रिययी वैक्रियद्विक न बांधे, तेवारे औदारिकद्विकनरद्विक बांधे, अने औदारिक प्रत्ययि प्रथमसंघयण पण समकितीपणा माटे बांधे, ते जीव वैक्रियशरीर मूकतां वली औदारिकशरी थातां औदारिकमिश्रकाय योगी थाई. ते कोइककाल सीम ए पांच प्रकृति बांधे. ते ए आशय जणाववाने ए पांच गवेखी छे, वैक्रिय मूकतां औदारिक मिश्र थाई ए सिद्धांतनो मत छे. संभावाने सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयनो आशय छे, ए अक्षर किहां दीठा नथी, परंपरामध्ये सांभल्यो छे तथा जयसोम पन्यासे कर्मग्रंथ विषमपदपर्यायना पत्र १०-१२ कर्या छे ते मध्ये लिख्यो छे तिहां वृहद्वंधस्वामित्वटीकानी साख लिखी छे. ए पण एकवार जीर्णश्रुतवर पासे धारयो छे पण अक्षर दीठा नयीजी. ए प्रश्नपडुत्तर तथा कडुआमती शा लावा ए प्रश्न पूछयोजे, आत्माना मध्ये आठप्रदेश किम रह्या छे ? अथवा सावरण छे, निरावरण छे ? तेहनो उत्तर. आठ प्रदेश छे ते च्यार उपर छे, ने च्यार हेटल छे. ते निर्मल छे. निरावरण छे. तेहनी साख लिखीइं छे. मध्यात्मप्रदेशाशकस्य न कर्मबंधः यदुक्तं श्रीआचारांगटीकायां लोकविजयाध्ययने प्रथमोदेशकस्यादौ " तदनेन पंचदशविधेनापियोगेनात्माऽष्टौ प्रदेशान्विहायतप्तभाजनोदकवदुद्वर्त्तमानैः सर्वैरेवात्म प्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टवाकाशदेशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यध्नाति तत्प्रयोगकर्मेत्युच्यते" एहवा पाठथी आठ प्रदेशनिरा
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
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वरण छे. सिद्धसमान छे. केवलज्ञानादिक अनंतगुण निरावरण छ, तिहां वळी पूछयो जे आठप्रदेश निरावरण, केवलज्ञानमयी छे तो लोकालोक कां जाणता नथी ? तिहां उत्तर जे पंचास्तिकाय मध्ये जड च्यार अस्तिकाय छे. ते अकर्ता छे, जे सर्वप्रदेशे कार्य भिन्नभिन्नपणे करे छे, अने जीवद्रव्य कर्ता छे. ते एक जीवना असंख्याता प्रदेश बधा मिलीने जाणवारूप कार्यने करे छे, ते सर्व प्रदेश मिल्या जाणपणो करी शके तेमाटे आठ प्रदेश निरावरणा छे पण केवलज्ञानमयी छे पण सर्व पदार्थ जाणी न शके जे आठ निर्मला पण असंख्याता सावरण. छे तेह प्रदेशे तो केवलज्ञानादिगुण अवराणा छे. ते प्रवृत्ति करी शकता नथी. आठ प्रदेशे सवे भाव जाणी शके नहीं. वली कोइ पूछस्येजे ए आठ प्रदेश निरावरण केम रह्या ? तेहनो उत्तर जे भगवती सूत्रे जे “एअइ वेअइ चलई फंदई से बंधई" ते जे प्रदेशचलपणे वर्ते ते बंधाये तेमाटे ए आठ प्रदेश निश्चल छे. तत्त्वार्थवृत्तौ "क्रियावत्वं पर्यायोपयोगिता प्रदेशाष्टकनिश्चलता एवंप्रकाराः संति भूयांसः" तथा भगवती सूत्रे अनादिअनंत संबंध कह्यो छे, तिणे ए आठ प्रदेश अचल छे, बीजा सर्व प्रदेश कटाहगत तेल उकालतां जिम तेल उपरनो नीचे आवे छे, नीचाथी उपर आवे छे तिम सर्व प्रदेश चली रह्या छे. प्रदेशने चलवे वीर्यनी चलता छे. जेकेइ एकला वीर्यनी चलता माने ते न घटे, जे द्रव्यनोक्षेत्र जे प्रदेश ते मुकीने गुणने अन्यक्षेत्रे जवो घटे नहीं, ए तत्त्वार्थकारनो आशय छे. तिहां कम्मपयडीमध्ये वीर्यविभागने अधिकारे आत्मप्रदेशे वीर्यनो तरतमपणो कह्यो छे. ते क्षयोपशमज ए रीते छे. परंकोइ प्रदेशनो वीर्यकोइ मध्ये आव्यो
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श्री देवचंद्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
नथी. तिहां कोई पूछे जे, कार्याभ्यासे सर्व प्रदेशनो वीर्य मिली कार्य करे छे, ते इहां आत्मानो कर्त्तापणो सर्व प्रदेश मिल्यांज छे. ते माटे सर्व प्रदेशनो वीर्य स्वस्व प्रदेशे रह्यो साहाय्य करे छे, पण परक्षेत्रीगुण थाय नहीं. तथा वली पूव्योजे "अक्खरस्स अणंतमो भागो निचुग्घाडीयो चिठइ तेएस्यूं छे ? तेहनो उत्तर जे आत्माने असंख्यात प्रदेशे अक्खर कहेतां ज्ञानगुण तेहनो अनंतमो भाग जेम तेनो अंश तथा श्रुतनो अंश ते सदा उघाडो छे. ते क्षयोपशमी छे, एटले ए अनंतमोभाग जे उघाडो थयो छे, ते एकेन्द्रियथी मांडी पंचेन्द्रियपर्यंत वेत्तापणो करे छे. वली कोइ पूछस्येजे ए अनंतमोभाग जे उवाडो ते सदा उघाडो ? तेहने उत्तर जे अनंतमो भाग उघाडो तेतो वली अयथार्थपरभावानुयायी प्रवृत्तिकार तो जे मतिज्ञानावरणी बंधाणी तेहने उदये अवराय छे, पण जे आत्मानो वीर्यक्षयोपशमी छे ते वली बीजा मतिज्ञानांशने क्षयोपशम करे छे, इंम संतति रीते सदा ज्ञाननो अनंतमोभाग प्रतिप्रदेशे क्षयोपशमी उघाडो पामीये छे. तेहनी साखश्रीविशेषावश्यकथी लिखीये छीए तत्रद्याक्षर शब्देनाविशेषितंएवज्ञानं अभिप्रेतंतथापिरूदिवशात् ” तथाषाप्यऽक्षर शब्दोवर्णएववर्तते इत्यादि पाठयी जोइ लेज्यो. सर्व प्रदेश क्षयोपशम प्रतिपादकंसूत्रं इत्यादि तथानंद्यां तदपिवाक्षर द्विधाज्ञानं आकारादिवर्णजातं च इहां नंदीटीकामध्ये अधिकार घणो छे. वर्णश्चश्रुतं ए विशेषावश्यक वचनथी श्रुतज्ञाननो अनंतमो अंश गवेख्यो छे. ते श्रुतज्ञाननो क्षयोपशम ते सर्व प्रदेशीय हवे ए कम्मपयडी प्रमुखथी जोइ लेज्यो. तेमाटे अक्षरनो अनंतमोभाग ते सर्व क्षयोपशमी छे जो सर्व प्रदेशे
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श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
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न हुवे तो सर्व प्रदेशने इंद्रियज्ञान वेत्तापणो किम थाये ? तेमाटे इम सदहवोनिर्धार छे. इहां इंद्रियक्षयोपशमना माननो अधिकार छे, तेह मध्ये युक्ति अनेक उपजे. पण नव भेदे धावा ते सर्व आगम रीते सापेक्ष छेजी. अथवा “ यद्यपि अमिलाप्यानां भावानामनंतभागं एवश्रुतनिबद्धस्तथापिप्रसंगतः सर्वेऽप्यमिलाप्याः श्रुतविषयं न जानंति इति उच्यते” ए पाठ भगपती टीका मध्ये आठमे शतके उद्देशे २ छे. सा. हरखचंद दल्ला प्रश्न पूछयो मकसूदावादथी जे पुद्गलपरमाणुने विषे वर्णादिक परिणमे छे ? तेहनो उत्तर " कारणमेवतदंत्यसूक्ष्मनित्यश्वभवति परमाणु: एकरसवर्णगंधाद्विस्पर्शः कार्यलिंगीच" ए तत्त्वार्थवृत्तिनो वचन छे, जे सर्वखंधनो अंत्य कहेतां छेहलो कारण छे एटले व्यणुकादि सर्वखंध परमाणुथी नीपजे पण परमाणुनो कोइ. कारण नथी ए अनादिअनंत शास्वत सिद्धद्रव्य छे ते सुक्ष्म छ तेहनो परमार्थ जे एक जीवनो एक प्रदेश, तथा आकाशनो एक प्रदेश तथा परमाणु एक सर्वनी अवगाहना तुल्य छे. पण एक आकाशप्रदेशमध्ये एक जीवना असंख्याता अने अनंताजीवना अनंताप्रदेश मावे, एक प्रदेशे कर्मवर्गणापणे परिणम्या अनंता परमाणु समाइ रहे. ते माटे आकाशप्रदेशथी आत्मप्रदेश समाय वे सूक्ष्म छे, अने आत्मप्रदेशथी परमाणु समाय ये सूक्ष्म छे, तेमाटे सर्वथी परमाणु सुक्ष्म छे, तथा ते परमाणु द्रव्यपणे नित्य छे. ते एक परमाणुमे एकवर्ण, एक रस, बे फरस हवे, ते मध्ये फरस लूखो तथा चीकणो, उन्हो तथा ताडो, ए च्यार महिला बे हवे. लुखो उन्हो ए बे अथवा लुखो ताडो ए बे अथवा चीकणो उन्हो ए बे, अथवा चीकणो टाढो ए में ए रीते हवे. तेजे परमाणु श्वेत वर्ण हवे ते विश्रसापरि.
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९६०
श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
णामेज कालो थयो. श्वेतपणानो व्यय कालापणानो उत्पाद, इत्यादिक धारवो, तथा तुम्हे पृछ्यो जे ए परमाणु में पूरणगलन ते किम छे ? तेहनो उत्तर. एकपरमाणु में जे वर्णादिक गुण हवे ते एकगुणो हवे. ते समयमांते संखगुण थाय. अथवा असंखगुण थाय, अथवा अनंतगुण थाय, अथवा अनंतगुणो हवे, ते असंखगुण संखगुणा एकगुण थइ जाये. कोइक समये वर्ण इंम थया, कोइक समे वर्ण ते प्रमाणेज रहे तो गंधादिक वधे घटे, कदाकाले वर्णादिक च्यार तेढ प्रमाणे तेहनो तेज रहे. पण अगुरुलघुगुणतो एकसमयथी बीजे समये षद्गुणहानि अथवा वृद्धिपणे नियमापरिणमे ते पूरणगलनतानियमा छे पण अगुरुलघुनी पूरणगलनतागवेखी नयी. वर्णादिकनी जे गवेखी छे तथा परमाणुमध्ये एक परमाणु अन्यथी मिलवारूप स्निग्धता छे तेपण घटेवधे छे " द्वाभ्यांद्वाभ्यां अधिकाभ्यां संबंधः " ए तत्त्वार्थनो वचन छे. ते रस शब्दे तीखा कडुआ मांहिली नवी, तथा फरस मांहिलो नथी. जे रस मध्ये स्वाद धर्म छे, पण मिलवानो धर्म नथी. तथा फरस मांहिला स्निग्धता लेवे तो "रुखस्सरुखेण दुयाहिण्ण" एटले लुखो परमाणुओ बीजा लुखा परमाणुथी द्विगुण अधिकने मिले ए पाठ न ठरे किम तेमाटे मिलवो कारणरूपज स्निग्धता ते पूरणगलनगुणनी छे ते पण घटेवधे छे, जे पुराणुं ते पूरण, घटे ते गलन थयो, तथा एक परमाणु एक लाभे अस्तिकाय कहेवाय छे ते स्यामाटे जे अन्य परमाणुथी मिलाय तेहनो कारण पूरण गलननी आद्रता ते परमाणुमध्ये छे. तेमाटे अस्तिकायना छे. जे अगुरुलघुनी हानिवृद्धितो सर्व द्रव्यमां छे तेमाटे तेहनी पूरणगलनता गणवी नही जे वर्णादिक ४ नी तथा
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
AMARAVINAurvem
पूरणगलननी जे हानिवृद्धि ते पूरणगलनपणे लेवी ए रीते ते वळी पुद्गलद्रव्य छे, तेपण नित्यादिक अनंतस्वभावी छे, अनंतगुणपर्यायी छे, सदाकाल छे. कडकमतीगच्छे सा लाद्धा कृत प्रश्नमे वीरस्वामीनो जीव सातमीनरकथकी सिंहपणे उपन्यो ते किम ? तेहनो उत्तर “सप्तम्याः उद्वृत्तः तिर्यंच्येव उत्पद्यते” प्रायोमत्स्येण तथा श्रीविशेषावश्यकमध्ये “ सत्तममहिनेरईया ते उववाउ अणंतरुवटा नयपावेइम[सं” इतिवचनात् तिरिंजंचमध्ये उपजेमत्स्यतोकाइनियामकनही. तथा सिंहथी नरके गये पण सर्वसिंह नरके जाये ए नियम नथी. उक्तंच “वालादाढीपरकीहवंति नरगागयाउ अइकूराजंति पुणोनिरएसुबहुल्लेणं न उण नियमो” ते माटे नियम नथी मनुष्य मरी चक्रवर्ति थया ते किम घटे ? तथाच कल्पटीकायांसमयसुंदोपाध्यायैः "सुरनेरइएहिचियहवंतिहरि अरिहंचक्किबलदेवाइत्युक्तत्वात्कथंमनुष्योमृत्वाचक्रवर्तिर्जातः" तत्रोत्तरं “ यथास्मिनक्षेत्रेदशाश्चर्याणिजातानि तथा तस्मिनक्षेत्रेइदमाश्चर्यमव्येगणितमस्ति पुनस्तत्रनागकुमारतस्तीर्थकरोजातोस्तिइदं विस्तारार्थिनादेवभद्कृतवीरचरित्रंद्रष्टव्यं " तथा स्त्रीपंचानुत्तरविमानआश्री पूज्यु तेहनो उत्तर. जे "श्रीनेमिनाथस्य सप्तमेभवे स्वयंवरा यशोमती भार्या, तथा द्वावपि अपराजितेमहाविमानेदेवत्वेनोत्पन्नौ” इति भवभावनाटीकायां. तथा स्त्रीने वज्रऋषभनाराचसंहननंअस्ति “तत्राक्षराणिपंचसंग्रह कम्मपयडीग्रंथे नामकर्मोदयभंगाधिकारमनुध्यस्त्रीषुषट्संहननं तस्यभंगकाकृता, दिगंबराम्नायेपि गोमठ्ठसारे एवमेववाक्यं च मणुस्सणीसु छसंघयणा इतिवाक्यात्, तथादिग्पटीयत्रिभंग्यांयोनिमतीस्त्रीक्षपकश्रेणिस्वरूपं तवप्रथमंनपुंसकवेदसत्ताक्षयः पश्चातुपुरुषवेदसत्ताक्षयः उदितवेदस्यप्रांतेक्षतिरितिनीतिः” दंडकने अधिकारे संक्षेप विस्तर व्याख्या
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९६२
श्री देवचंद्रजीकृत छटक प्रश्नोत्तर.
दिखाडवाने अर्थे ए कथन करयो छे. राधनपुरी श्राविका आणंदबाईकृत प्रश्नोत्तराणिपुलाकचारित्रीयाने श्रुत जघन्य नवमा पूर्वना तीनवस्तु उत्कृष्ट नवपूर्व पुरां श्रीभगवती २५ मे शतके कह्यो छे, ते पुलाकचारित्रीयाने द्रव्यलिंग तीन कह्या छे, गृहलिंग, अन्यलिंग, स्वलिंग. ते गृहलिंगी अन्यलिंगी पूर्वकिमभणे ? तेहनो उत्तर जे श्रीभगवतीसूत्रेकह्या छे जे " भावलिंग पडुच्चनियमासलिंगेहुज्झा " ए पाटना आशयथी जे जे द्रव्यथी तीनलिंग कथा ते वैक्रियलब्धिकरतां कारणे साधु गृहस्थलिंग अन्यलिंग करेपरे ते साधु छे. पण गृहस्थ नथी. तथा बीजे प्रश्ने भगवतीमूत्रे बंधनो उदयनो नीम छे. परं सत्तानो नाम नथी. ते भगवतीसूत्रे सर्वअधिकार समकाल कहे ते नियामक नथी. परं पन्नवणा तथा समवायांगे सत्तानो पाठ छे. तथा तीजे प्रश्ने धर्मलाभनो पाठ किहां छे? तेहनो उत्तर जे भवभावना टीका तथा उपमितिभवप्रपंचादिक ग्रन्थे पाठ छे. चोथे प्रश्ने आलोयणनो तुम्हे कह्यो ते किहां कह्यो छे ? तेहनो उत्तर जे परंपरा जीत दीसे छे. तथा नांदि मांडे तिहां अखीयाणां मुकवानो अधिकार विधिप्रपाप्रमुखविधि ग्रंथमे छे. तथा स्त्रीनी असज्झाई चोवीसपहोरनो मान, आवश्यकनियुक्ति तथा प्रवचनसारोद्धारटीका मध्ये छे. तथा तिर्यचणीनी असल्झाइनो जीत दीठो नथी. तथा सिद्धांतरासामध्ये कह्यो छे. तिर्यंचणीनी असज्झाइकालेदुहली धातु झरे छे. पण रुधिर झरतो नथी. ते माटे धातु झरे, असिज्झाइ नथी तथा मनुष्यने धातु झरवा काले पाणीयेसुचि करे ते समूच्छिमनी उपज टालवाने परं असिज्झाइ नथी. तियेचना धातुप्रमुखमलथी समूछिम उपजे नहीं. अने जे कुयुक्ति करी जे जीत
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श्री देवचंद्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
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उथापे तेहने जीतनी श्रद्धा नथी पण आगमनी आज्ञाये इंम छे जे गीतार्थनो करयो जीत मानवो तिहां साख छे. असढाइन्नवणज्झ, गीअत्थअवारीयंतिमज्झत्था । आयरणाविहुआणंति, वयणओसुबहुमन्नंति ॥१॥
ए वचनथी उत्तम आचार्ये जे जीत करयो ते प्रमाण छे. तथा चूर्णिकार टीकाकारना कीधा जे बीजा ग्रंथ ते मध्ये जे वचन ते पण पंचांगीनेपरे प्रमाण करवो इति. तथा थिरादनासंघे सा टोकर प्रमुखे पूछ्यो प्रश्न तेहनो उत्तर जे तुम्हे पूछ्युं जे पुस्तकनी आगमनी पूजा किम छे ? केटला प्रकारनी छ तेहनो उत्तर जे जलनी तो पूजा पुस्तकनी नथी अने परंपरागत ज्ञानपूजानी गाथा छे ते गाथा । नमंतसामंतमहीवनाहं, देवेहिंपुज्झंसुविहीयपुवं । भत्तिहिमुत्तित्तेमणिदामएहिं, मंदारपुप्फपसवेहि
नाणं ॥१॥ तहेवसवामणिमुत्तिएहिं, सुगंधपुप्फेहिंवरंसुएहिं । पूयंति वंदति नमंति नाणं, नाणंसलाभायभवक्ख
याय ॥२॥ आशयथी मणि कहेतां रत्नजाति, पुप्फ कहेतां फूलजाति असुकवस्त्रजाति मोतीनीजातिना पूजाना अक्षर छे. तथा श्रीपालचरित्रे तथा नवपदप्रकरण श्रीरत्नप्रभसूरिकृतमध्येसिद्ध चक्रनी पूजामध्ये ज्ञानपदनी पूजा अष्टप्रकारी करी छे. तथा शत्रुजयमहात्ममध्ये धनेश्वरसूरिजीए सोनाने कमले ज्ञानपूजानो
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९६४
श्रीदेवचन्द्रजीकृत छुटक प्रश्नोत्तर.
अधिकार छे. तथा रूपानाणे सोनहीये गौतमपदनी पूजानो अधिकार छे. तथा ज्ञानपंचमीनी कथामध्ये तथा पूजापटल, श्री तत्त्वार्थकारकृत छे, तेमध्ये वासपूजा, नाणानीपूजा, मोतीनी, वीटणानी, दीवानी, धूपनी, एटली पूजा लिखी छे. तथा जीतकल्पचूर्णिमध्ये जिहां आचार्यादिक पुस्तक वांचे तिहां वासपूजा वीटणा निमित्त वस्त्रपूजा रूपा सोनाना फूल तथा नाणो तथा श्रीफल तथा दीप तथा धूपनी पूजा ज्ञाननी करवी पण गुरु आचार्य ते सचित्तने अडकता नथी जे पुस्तकथी गुरुने अडकवो पडे तेह पुस्तकने तो वासनी तथा सोनारूपाना फूलनी तथा नाणानी रत्ननी तथा लूगडानी एटली पूजा करवी ए जीत छे. धूपपूजा श्रावक पोते गुरुने अडकवा विना करे तथा गुरुपूजा गुरुने नव अंगे रत्नेकरी नाणेकरी सोनारूपाने फूले करी करवी ए अधिकार हीरप्रश्नमध्ये साखसहित छे. तथा गुरुने तथा पुस्तकने वधाववाने चोखे तथा मोतीए तथा सोनारूपाने फूले वधाववा एटलानो जीत छे वधतो जीत नथी. तथा गृहलीनो अधिकार श्रीविशेषावश्यकमध्ये गणधरस्थापना अधिकारे इंद्राणीए करी छे. ए सर्व पंचांगीने रीते लिख्यो छेजी. “यत जेणेव वसायसभाणेव उवागच्छति लोमहत्थगपरामुसति पोत्थयरयणं लोमहत्थएणं पमज्झतिदिवएदगधाराअगेहिवरेहिं गंधेहिं यमलेहिं अचेति" ए पाठथी पाणीनी धारा फूलनी पूजानो अक्षर सूरीयाभने अधिकारे छे. शाह लाधाजीना पूछ्या प्रश्ननो उत्तर तुम्हे पूछयुं जे वायुकायने वैक्रियशरीर छे ते लब्धिप्रत्ययी छे भवप्रत्ययी नथी जे पन्नवणानो वचन छे तिरिगति मनुष्यने लब्धिप्रत्ययी वैक्रियज हुवे तेमाटे वायुकाय ते तिरियंचना ४८ भेदमध्ये छे. तथा जे पूंठलेभवे जे
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श्रीदेवचन्द्रजीकृत छूटक प्रश्नोत्तर.
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वैक्रियदुग बांध्यो हवे एहवो पंचेंद्री तिरियंच मनुष्य मरीने बादरएकेन्द्रिपर्याप्तामे उपन्या छे. औदारिकशरीरने उदये भोगवता पछे लब्धिरूप उदय थाइ. तथा सर्व विजयमध्ये ३२ हजार देश छे आर्य २५ जणाय छे पण अक्षर दीठा नथी. तथा महानिशीथे सुमतिभ्रष्ट थया ने परमाधर्मि थया ते अनेक पुद्गलपरावर्त संसारभम्यो ते जे समकीतितो अर्धपुद्गलपरावर्त संसारभमे अधिकोभमे नहीं ते किम मिल्यो ? एहनो पडुत्तर जे पडवाइने अर्धपुद्गलपरावर्त कह्यो ते कालपुद्गलपरावर्त लीधो छे अने जिहां अनेक पुद्गलपरावर्त कह्या छे ते कालपुद्गलपरावतमध्ये द्रव्यपुद्गलपरावर्त अनेक थाइ. तथा अभव्यजीव आश्री श्रीभुवनभानुकेवलीचरित्रमध्ये अव्यवहारराशिमध्येथी निकल्या ए पाठ दीठो ते अव्यवहारमध्ये अभव्य छे इम ठहरया छेजी. तथा मासआश्री लिख्यो ते आचारांगटीकामध्ये तथा आचारांगचूर्णिमध्ये तथा निशीथचूर्णिमध्ये एहज अर्थ करयो ते बीजे कोणे नवो कल्पायेजी. तथा जे साधु अव्यापकपणे जे असुज्झताआहारादिक करे तेहने बंध नहीं आत्मानो कापणो स्वरूपानुयायी हवे तेवारे जे हिंसादिक ते प्रशस्त छे अने प्रशस्तआस्रवनी आलोयण नथी वंदित्तुमध्ये "आयरियमप्पसत्थे” इत्यादि पाठ जोज्यो. ए चर्चा मुहडामुहडे कहेवराइं.
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॥ कर्मसंवेधप्रकरण ॥
॥ ६० ॥ नमः ॥ श्रीमज्जिन कुशलसूरि सद्गुरुभ्योनमः ॥ सिरिवीरनाहनाणं । वंदिअपम्भठकम्मरयगणं । गुणमग्गणठाणेसु अ । भणामि कम्माणसंवेहं ॥ १ ॥ नाणंतरायदुगभंग । दंसेइक्कार खीणमोहंजा । केवलदुगेअभावो । वेअणसंता अहरकाए ॥ २ ॥ गोयंम्मि सत्तभंगा । अठयभंगाहवंतिवेअणीए । पण नव नव पण भंगा | आउचउक्केवि अणुक्कमसो ॥ ३ ॥ चउछमुदन्निसत्तसु एगेच उगिणसुवे अणीअभंगा । गोएपणचउदोतिसु । एगठसुन्निक्कंम्मि || ४ || अट्ठच्छाहिगवीसा । सोलसवीसंचबारछो । दोचउसुतीसुइक्कं । मिठाइ आउएभंगा ॥ ५ ॥ दोदोतिन्निअदोदो । दुगछग दुगसंतखीणमोहंजा । गुणपञ्चईयाभंगा | मग्गठाणे सुणेया ॥ ६ ॥
दर्शनावरणीयभंगाः
म. ग. पंचें १ त्रस १ यो. ३ चक्षु अचक्षु द. २ शुक्ल १ भव्य १ संज्ञी १ आहा १ ॥
१२
वेद ३ कसाय ४ ||
ज्ञान ४ अ. द. १ क्षाय
११
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मार्गणास्थानेषुभंगाः
अज्ञान ३ लेश्या ५ अ- ४ नाहारक १ अ. १ गति
३॥
१३
यथाख्यात १
९ केवल २
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९६८
कर्मसंवेधप्रकरण.
था. ५ इंद्रिय ४ अभ. १ २ उपशम १ असं.१ मि.१ सा.१॥१३ सामायक १ छेदोप. २ ' ५! सूक्ष्म संपराय १ परिहारविशुद्धि १ २ वे. स. मिश्र. देशवि. ३
मार्गणासुवेदनीयभंगाः
म. ग. पंचेन्द्रिय १ त्रस १ क्षायिक अनाहारक १॥ ५८ केवल २ यथाख्यात १॥ सूक्ष्मसंपराय ? शेषमार्गणा ५३
बावीसइक्कवीसा। सत्तरस(स)तरसेवनवपंच। चउतिगदुगंचइक्कं। बंधठाणाणिमोहस्स ॥ ७॥ छबावीसेवेअति । हासदुगअरइदुगनतमगुणीआ। चउगवीसिअसंढा । अणिछिदुगभंगसंतरतिगे ॥८॥ पंचाइसु विणुजुअलं। भंगेकं मोहणिज्झउदयाइं । इग दो चउ पण छ सग अड नव दस इयपयाइं नव ॥ ९ ॥ दसबावीसे नवइग । वीसेसत्ताई उदयठाणाणि । छाइनवसत्तरसे। तेरेपंचाइअठेव ॥ १० ॥ चत्तारिआइनवबंधएसु उक्कोससत्तमुदयंसा पंचहिबंधगेपुण उदउदुण्हंमुणेयवो ॥ ११ ॥ इत्तोचउबंधाई इकिक्कुदयाहवंतिसब्वेवि बंधोचरमेवितहा उदयाभावेविवा
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कर्मसंवेध प्रकरण.
९६९
होज्झा ॥ १२ ॥ इक्कगळक्किक्कारस दससत्तचउक्कइक्करांचेव एए चउवीसगया चोविसदुगिम्मिकारा ॥ १३ ॥ मिछेसगाइचउरो सासणमी से सगाइतिन्नुदया छपंचचउरचउगाइ चाउचाउ उदयापमत्तंता ॥ १४ ॥ चउराइतिनिपुब्वे दुगइक्कोबा यरेइगोसुदुमे भंगाणंचपमाणं णिनाय ॥ १५ ॥ इक्कछडिक्कारिक्कारसेवइक्कारसेवतिन्निएएचवीस गया बारदुगिपंचइक्कंम्मि ।। १६ ।। अठगचउचउचउरट, गाय चउरोय हुंतिचोवीसा, मिछडअपुवंतो, बारसपणगंच अनियट्टी ॥ १७ ॥ अट्टीबत्तीसं बत्तीसं सहिमेवचाचन्ना चोआलदोस वीसा, गुणेसुपयसंखचोवीसा ।। १८ ।।
मार्गणासु गोत्र भंगा:
गति. २ इंद्री ४ थाव. ५ असं. १२
मार्गणासुआयुः कर्मभंगा:
मनुष्यगति
नरकगति
५
गतिदेव २ वे. ३ ले. अज्ञान ३ . ४ अवि. १ ५ तिर्यंचगति
अभ. १ मि. १
१९
म. ग. १ पंचेंद्रिीय १ त्रस. १ भव्य अनाहारक १ ॥५
सा. १ छेद. १ परि. १ |
सूक्ष्म १ ।
यो ३ चक्षु १ अचक्षुद. शुक्ल १ संज्ञी. १ आहा. ८
देसवि. मिश्र । २
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१
देवगति
इन्द्रिय. ४ पृ. १ अप. १ वनस्पति १
तेज. १ वायु. १
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m
पंचेंद्री १ स १ योग ३ २८ क. ४ दर्श. २ लेइया. ६ अज्ञा. ३ अच १ मि. १ २ भव्य १ अभ. संज्ञी. १ ॥२५
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कर्मसंवेधप्रकरण.
९७०
केवल. २ यथाख्यात १।३
ज्ञान ३ अद. उपशम ५
क्षयोपशम १
क्षायिक १
मनप. ज्ञान १
सास्वादन १
२
४
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ज्ञान. ३ सम्यक्त. ३ ।
केवल २
सामा. ३ मनज्ञान १
देशविरति १
सास्वादन
सूक्ष्म. १ यथाख्यात १
मिश्र
असंज्ञी १
आहारक
अनाहारक
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अ. द.
१२
२६
२
१६
V
B
पु० २३ स्त्री० २३ | नपुं० २३
यतिकसायचउगुण बारसतेजुअलदुगणचउवीसा चउरुदयंजाति अपयगुणी आहुतिपयमेआ ॥ १९ ॥ उवसामगखवगे पुणवीसं चोवीस सतरभंगाय वेयगिसोलसकेवल दुगेअहरकायगेनत्थि ॥२०॥ सुमेगंसे से अमग्गण ठाणेसुगुणभवानेआ चउवी सगायभंगा पयसंखा उदयपच्चइआ ॥ २१ ॥ इतिउदयं || अठयसत्तयछचउ तिगदुगए गाहि आभवेवीसा तेरसबारिक्कारस इत्तोपंचाइ एगूणा ॥ २२ ॥
१
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कर्मसंवेधप्रकरण.
९७१
संतस्सपयडिठाणाणि ताणिमोहस्सडंतिपन्नरस गुणउदयबंधठाणे भणामिसंतंससंवेहं ॥२३॥ तिन्नेगेएगेगंतिग मी सेपंचचउसुतिगपुर, इक्कारबायरंम्मि, सुहुमेचउतिनिउवसंते ॥२४॥
-
मार्गणास्थानेशुमोहोदयभंगाः
म. ग. १ पं. १ त्रस चो.५२) सामायक छेदोप. मति- चो.२० १ यो. ३ वे. ३ क. ४ मं. १७ ज्ञान. च.१ अच.१ शुक्त. १ भव्य. १ संज्ञी १ आ- परिहारविशुफि. चो.१६ हारक १ ॥१९॥
सूक्ष्मसंपराय इंन्द्रीय ४ पृ.अप. वन. चो.१२/ असंज्ञी. १॥८
अविरति तेज १ वायु १ अभ. चो. ८
लेश्या ३ आदि मि. ४
लेश्यातेज १ पन्न देव-नारकी चो.२४
क्षयोपशम चो.१६ तिर्यंच
उपशम
चो.२० देशविरति
क्षायिक ज्ञान ३ अ. द. ४ चो.३६
---
३२
22. ०
| मिश्र
अज्ञान ३
सास्वादन
चो. ४
केवल २ यथाख्यात |१॥२
अनाहारक
चो.२०
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९७२
कर्मसंवेधप्रकरण.
गुणस्थानेशु मोह सत्तास्थानानि.
| २८१२७१२६ | अप्र. | २८१२४।२३।२२।२१
२८ अपू. | २८१२४।२१ २८१२७१२४ अनि. २८१२४।२१।१३।१२।
|११।५।४।२।१ २८१२४।२३।२२।२१
सूक्ष्म. २८१२४।२१।१ |२८१२४।२३।२२।२१
उपश. १८१२४।२१ २८१२४।२३।२२।२१
छवीसतिगंदसगे नवगेबावीसछक्कअडगेज इगवीसाइसत्तग सत्तेछवीसविणुएए ॥ २५ ॥ तेछपणगेछस्सगवीसविणुचउक्किइगचउडवीसं अडचउइगवीसतेरस बारसइक्कारसंचदुगे ॥ २६ ॥ दुगतिगछगसगवीसं तेरसदुगंविणुइगेयसमसंता छवीसतिगवीसे इगवीसेअटवीसंति ॥ २७ ॥ विणूछब्बीसंइगवीसछक्क, सत्तरसेतेरसेनवेपंच, सगवीसविणापणगे, अडचउइगवीसतेरतिगं ॥ २८ ॥ अडचउइगवीसतिगं इक्कारसपंचउचउगबंधे तिगबंधाइसुतिगसंत, संतदुगखवगपच्चइआ ॥ २९ ॥ नरतसपणंदिसुक्का, चक्खुदुआहारभवसंन्नी, सुयोअकसाएवेऐ, सवेबंधुदयसंतसा ॥३०॥ बावीसिगवीसिबंधे, भूजलड्गविगलतरुअसंन्नीसु, सगअडनवदसउदये, संतेअडसगछहिअवीसा ॥ ३१ ॥ गइतसमिछदुगवीसअठछवीसता, बंधेदुवीससंते छावोसिगसेसपुव ॥३२॥ नाणतिगओहिदंसे, बावीसिगवीसहीणअड्बंधे दसविणुउदयासंते, तेरसकेवलदुगेनत्थि ॥३३॥ लेसतिगदेवनि थे, अवि
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कर्मसंवेधप्रकरण.
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रइअणहारगेदुवीसतिगं, छाईपणेगवीसाई, अछगुदयातेअअन्नाणे ॥३४॥ संतेचउवीसचउ तेउपम्हासुनवगजाबंधे चउराईदसउदये इगवीसडवीस जा संते ॥३५॥ मणसामाइयछेए नवओइगजावबंधइउदए इगसत्तंजासंते, छवीससगवीसविणुसेसा ॥३६॥ परिहारेनवबंधो चोराइसत्तवेअइसंते, इगदुगतिगचउअडजुअवीसा सुहमेनबंधस्स, ॥३७॥ उदयइगसतेइग, चउअडयअवीसइग, अहरकाएअणुदयइगसंतविणा, देसेबंधस्सतेरेव ॥३८॥ पंचाईअडउदए संतेइगदुतिचउटजुयवीसा तिरीएवीसओतेरपणओ दसएगवीसओरिमा ॥३९॥ उपसमगेसत्तराई इगजाबंधेयएगओअडजा, चउअडवीसासंते खवगे बंधुदयएमेव ॥४०॥ संतेदुगवीसाइ छगविणुसवेअवेअगेबंधो सतराईनवणओ नवजादुतिचउडवीसंता ॥४१॥ मीसेसतरसंबंधो सगअडनवउदयचउसगठयआवीसा वीसासंतंसापुण सासाणेबंधइगवीसं ॥४२॥ उदयएसगठनवगं संतेअडवीसमग्गणाटाणे, बंधाइतिगमोहस्स भणिअंभंगायपुवुत्ता ॥४३॥ तेवीसपन्नवीसा छवीसाअठवीसागुणतीसा तीसेगतीसमेगं बंधटाणाणिनामस्स ॥४४॥ चउपणवीसासोलस नवबाणईसयायअडयाला एयालुत्तुरछायाल सयायइकिकबंधविही ॥४५॥ धुवबंधिनवगतिरिदुग एगिंदीअजाइउरलतणुहुंड थावरमपझ्झमथिर असुभमणाइझ्झदुगबंधे ॥४६॥ एगिदिगमणजुग्गो थूलओपरित्तइयरवाजोगे बंधइमिच्छेअणिरय सुहमओदेवविणुदुगइ ॥४७॥ परघुस्सासक्खेवे पणवीसंइच्छपरित्तथूलाओ थिरसुभजसइयरेसुं भंगठयतिगाइपच्चइया ॥४८॥ बायरसाहारणओ सुहमपत्तेअईयरओभंगा जसविणुचउइगजुग्गा दुगइआवीसमिच्छत्ते ॥४९॥ तेवीसंबंधठाणे थावरएगिंदिविणुठविझ्झतसं उवरिमजाइमुअणा छेवठोरलवंगंच ॥५०॥ चउभंगाजाइहिंचउहिं तिरी
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कर्मसंवेधप्रकरण.
आणतिरिदुगविहीणं मणुदुगजुत्तमणुए एगंभंगापणअपइझे २५ । २५भं॥ ॥ ५१ ॥ बायरपरित्तपणवीस मज्झेआयावजुअलवी संति अहवाउज्जोअजुअं भंगाअडदुगणइगजुग्गा ॥ ५२ ॥ वनवणंदितसच परवावे उविदेवदुगसुगइ समथिरइयरळगेवा देवडवीसेटपुव्वंता ||५३ || मिच्छेदसअपसत्थेदिं इगभंगोनिरयजुग्गअडवीसे षिवविअलेपणवीसे कुखगइप झत्तपरिचदुदुसरं ||५४ || असमतही नववीसा भंगाचोवीसवियलपञ्चईया बंधइतिरिनरमिच्छा 'घुवतिरिपरवाय उरलदुगं ।। ५५ ।। तसचउपणंदिवीसे, संघयणागिइसुज्यन्नतमदुतयं थिरमथिरंवाळकं, खगईइगसव्वगुणतीसं ॥५६॥ यस समयदुगणा संघयणगुणायआगइगुणआ छयालसयटभंगा ति एम एवमेव ॥ ५७|| देवडवी से जिणजुअ भंगठगसम्मओअपुव्वंजा विअलपणंदी यतिरिजुग्ग गुणती से जो अजुअतीसं ॥ ५८ ॥ पुव्विवभंगसामीअ नरगुणती से सजिणअडभंगा सुरअडवीसे साहार भंगमिगनरअपुव्वंजा ॥५९॥ आहारती सजिणजुअ बंधइसुमुणीअएगजसपगइ एगविहबंधठाणे, अपुव्वओसुमठाणंजा ||३०|| इगविगलथावरे अडविसिगतीस एगविणुपंच, देवे सुती सगुणतीस छवीसपणवीस वीसा ॥ ६१ ॥ तसजोअकसाऐसुं चक्खुदुआहारभष्वनरसंन्नी पंचदीयविएसुं सव्वेदेसेनवडवीसा || ६२ || तिरिअ विरयअन्नाणे आइतिलेसेअभव्वअणहारे मिच्छअसंन्निसुठाणा णेयाइगतीसगविणा || ६३ || एगविणातेउए तिवीस छब्वीसहीणपमाए सासाणे अडवीसतिअं इगतीसजयंचपरिहारे || ६४ || नागणचउओहिदंसे, उवसमषवगेअछे असामाइए आइतिबंध विणायण एगविणावे अगे || ६५ || अहखायकेवलदुगे अबंधसुहुमेएगविहबंधो गुणती सतीसनिरये मीसे अडवीसगुणतीसं ॥ ६६ ॥
सुक्का एतेवी सगळवी सहीणाय तेउएभंगानिरविगलसुहमतिगेहीणागविणुपम्माअतिरिसक्का ॥ १ ॥ इति मा० बंधस्था० ||
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कर्मसंवेधप्रकरण. २३२५२६२८ २९ ३० ३१ १
| बंधाप्रा. एकेन्द्रिय
बेन्द्रिय तेन्द्रिय
___vvv ४७
सव
-
चोरिन्द्रिय तिर्यचपंच
४६०८४६०८ मनुष्य
४६०८८ देवता नारकी
४२५१६ ९९२४८४६४१ १ १ १३९४५ इगविगलथावरेसुं अजिणविउव्वाअनाणतिरिएK मिच्छअसंनीअभब्वे अजिणाहारा सजिणअजए ॥ ६७ ॥ अविगलविउविनिरए अविरयजासम्मनाणुवहिदंसे चरणतिदेसेसुरजा अहरकायदुकेवलेनस्थि ॥ ६८ ॥ देवपरित्तबायर तिरीअनरासेसयासुठाणभवा भंगामग्गणठाणे बंधठाणाणनेयव्वा ॥ ६९ ॥ अणहारेनिरयभवा आहारगतणुभवायनोभंगा मणनाणेसामईआभंगसंखामुणेयव्वा ॥ ७० ॥ मिच्छेतेवीसाइ । साणाइसुअठवीसओबंधे। छतिन्निदोतिदोदो। चउपणसेसेसुजसबंधो ॥ ७१ ॥ मिच्छेअजिणाहारा । अवियलनिरछेवडंडसासाणे । दुहगतिसंघयणागिइ। चउविणुदुगइज्जमीसद्गे ॥ ७२ ॥ सजिणासमत्ताओ, देसदुगेदेवजायसाहारा अपमत्तदुगेभंगा अनिआट्टिदुगेयइक्किकं ॥७३॥ देवभवादेसद्गे अपमत्तदुगेअदेवनरजग्गा,
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बंधस्थानानिमार्गणासु
म. प. त्र. यो. ३ वे. ३ क. ४ दर्श. २ आ
हाभ. संज्ञा. १ शुक्ल ॥
१६
था. ५ इग १ विग. ३
ति. १ मि. असंअभ.
८ अज्ञा. ३
सम. ३ अवधि ७ ६.
नाण ३
देव. १
नारकी १
२३
४
४ २५
20
४
२५
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०
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२६
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९२४० ४६३२
९९२४० । ४६३२
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९२४८ ४६४१
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९२१६ | ४६१६
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९ १
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१३९१७
१३९२६
३५
१३८५० १३८३२
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कर्मसंवेधप्रकरण.
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सामाय. छद्मस्थ ३ परि, १ .
ॐ
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देस.. मिश्र.
०
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सासा.
०
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UVOVVVauvouvon
६४०० ९२४८ । ४६४१ ९२२४ / ९६१७ ९२४८ । ४६४०
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कर्मसंवेधप्रकाण.
० १३९४२ ० १३८७७
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०
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| लेश्या ३ लेश्या ते अनहारक के. २ यथा लेश्या प. लेश्या. शु..
०
1880 ०
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८२२४ ४६१७ १
० १३८५२
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| अवि.
२५
९२४८ । ४६४० । ०
०
१३९४१
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कर्मसंवेधप्रकरण.
बंधस्थान २३ २५ २६ २८ २९ ३० मिथ्यात्व ४ २५ १६, ९९२४० ४६३२
०
सासा
८६४००
०
मिश्र अवि
प्रमत्त
अप्रमत्त
अपूर्व
० mm ० ०
अनिवृत्ति
सजिणाहाराभंगा, अनिअष्टिदुगे अइक्विछ॥७३॥ वीसिगवीसाचउवीसगाउ, एगाहीआअइगतीसा उदयठाणाणिभवे नवअठ्ठ पहुंतिनामस्स ॥ ७४ ॥ एगबियालिक्कारस तित्तीसाछस्सयाणितित्तीसा बारससत्तरससया णहिगाणिबिपंचसीईहिं ॥७५॥ अउणित्तीसिक्कारस सयाणहिअसतरपंचसठ्ठीहिं इक्किक्कगंचवीसा दठ्ठदयतेसुउदयविही ॥५६॥ नामधुवोदयतिरिदुग थावरएगिदिदु
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भगणाइज्जं सुहमेयरदुहअजसेण थूलपज्जत्तजसपंच ॥ ७७ ॥ एगिदिअइगवीसे, अदुथावरइगबितसथूलजुअं पज्जेजसअजसेणय, अजसापज्जेविगलनवगं ॥७८॥ नामधुवोदयतिरिदुग पणिदितसथूलओअ इगभंगोलद्धिपज्जे असमत्तदुभगणाइज्जअजसेण करणअपज्जेपज्जे असमत्तगचउगसेअरेण तिरिदुगठाणेनरदुग खेवेनवभंगपुदिव ॥ ८० ॥ नामधुवमणुअपणतस थूलपज्जत्तसुभगआइज्जं जसवीसेभंगेगं कम्मणगेकेवलीअजिणे ॥१॥ जिणजुअइगवीसंते भंगेगंतत्थमणुअइगवीसे अनरदुसुरदुगजोगे अडनिरयेअसुहइगभंगो ॥८२॥ एगिंदिअ इगवीसे पुविविणुउरलहुंडउवघाया पत्तेगेअरवादस थुलपवणेविउव्विइगं ॥८३॥ इगचउवीसेसपरिघ पणवीसंथूलओपरित्तिअरे जसअजसेचउसुहुमे परित्तजुअभंगअडगंति ॥५॥ एवंनवेउब्वे अडसाहारेपसत्थइगभंगो देवेअडनिरयेइग भंगाइगवीसउदउव्व ॥८६॥ इगपणवीसेउसास अहदुउज्जोअबारपुट्विंव पवणेइगइगवीसे विअलेतिरिपुस्विअवहारे ॥७॥ उरलदुगडंडछेवठ्ठ परित्तउवघायसहिअनवभंगा तिरिइगवीसेपुव्वी हरखिवउवघायपत्तेअं ॥८॥ उरलदुगागिइछक्के छगसंघयणेसुअन्नतमदुतयं संवयणागिइगुणिया अडभंगादुसयअडसीइ ॥८९॥ अपजत्तेइगअसुहो एवंमणुए सुदुसयगुणनवइ बायरइगछव्वीसे आयवउज्जोअ अन्नछगं ॥९०॥ वेउव्विअपणवीसे तिरीएपरघासुगइजुअअ एवंनराभंगा पणवीसुदउज्वनेअव्वा ॥९१॥ विअलछवीसेकुखगइ परवाजुअअठ्ठवीसभंगछगं तिरिछव्वीसेपरघा खगइसुअअन्नतमएगा ॥९२॥ पुवुत्तदुसयअडसीखगई दुगुणा वेउव्विसगवीसेतिरीयेउसासेवा उज्जोएभंगसोलसगं ॥९३॥ तिरिअव्वउरलमणुए वेउवेसत्तवीसउस्सासे खित्तेअडउज्जोए इगआहारेदुभंगसुहा ॥९४ । सुरसगवीसेउसास उज्जोएवासोलइगनिरये
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कर्मसंवेधप्रकरण.
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उसासेअपसत्थो १२०१२२८ गुणतीसेतिरिअजादुगुणा ।।९५।। विअलेतिरिअडवीसे उसासोज्जोअअन्नतमखेवे वेडब्बीअतिरीएपुण सगवीसेसुसरऊसासे ॥१६॥ ऊसासेउज्जोए खित्तेवासोल मणुअ अडवीसे ऊसासएपणसय छसयरिवेउबीए ॥९७॥ आहार २ देव १६ निरए १ अठावीसुव्वभंग २९ तीसुदये वियलट्ठावीसेखिवसास १ सरअन्नच उभंगा ॥९८॥ भासाअपज्जत्ताणं सासोज्जोएसुभंगदुगमेव भंगाद्वारसविअले सोसासेतिरिअगुणतीसे ॥९९।। सुसरेवादुसरेवा सहीएबावन्निगारसयभंगा वणसयछसयरि मुसरेसोज्जोएतिरिअगुणतीसे ॥१००॥ वेउब्विअसगवीसे सोसासोज्जोअसरपुंअडभंगा मणुएउज्जोअविणा बावनिक्वारसयभंगा १०१ वेउविअसगवीसे ऊसासोज्जोअसरयुअं एगंसुहभंगंआहारे एवंदेवेसुअडभंगा ३० ॥१०२॥ उज्जोअरहीअतिसे उज्जोएणेवहोदुइगतीसं भंगाबारसविअले बावनिक्कारसयतिरिए ३१ ॥१०३।। केवलिअसमुग्याए वीसे सुषिवज्जउरलदुगरिसहं उबवायंपत्तेअं सट्टाशंदेइयछवीसुदओ ॥१०४॥ एसुहवंतिअतीसं परवा १ ऊसास ९ खगइसुरयोए वयणनिरोहेसरविणु २९ गुणतीसडवीससासविणा २८ ॥१०५॥ इगलीससत्तवीसा इगतीसाजिणवराणतिछज्जुआ योगनिरोहेते ितीसगुणतीसगानेआ ॥१०६।। मणुअगईजाइतस बायरंचपद्यत्तनुभगआइज्जू जसतिछपरंइयनव अडजिणरहीआअयोगगुणे ॥१०७॥ उदयभंगासम्मत्ता ॥बंधेउदयस्थानानि॥ तिपणछअहिअवीसेउदया ९ इगवीसओअङ्गतीसा एवंगुणतीसतीसे चउवीसविणाधअडबीसे ॥१०८॥ इगतीसेएगेपुण तीसमबंधेसुसेसदसट्ठाणा चउपणवीसयरहिआ भंगानेआयपुव्वत्ता ॥१०९॥ तिरिगइक्कसायअन्नाणअचखुअविरयअभब्वचउसेसे मिछअसंन्नीअसंढे १८ उदयानववीसअढविणा ॥११०॥ तेचउवीसविणाअड
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PO
२० २१ २४ २५
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प्रायोग्रउदय. एकेन्द्रिय बेन्द्रिय तेन्द्रिय चौरेन्द्रिय प्रा. तिर्यंच तिर्य. वैक्रि
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४४४/ 200 ४ ४७४४30
मनुष्य
२८९
४८४४/ 30530
मनुष्यवक्री
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आहा
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केवली
देवता
नारकी
सव
२३।२५।२६
२३।२५।२६ २१।२४ २५ २६ २७
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३१।१ अबंध
२८|२९|३०|३१ २१।२५।२६।२७।२८।
२९ ३० ३१ २१।२४ २५ २६ २७ २८|२९|३०|३१
३० २०/२१।२६।२७ २८ २९ ३०|३०|३११९१८
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४२ ११३३ ६०० ३३ १२०२ १७८५ २९१७ ११६५ १
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नाणतिगचक्खुओहिवेअदुगे उवसमवेअगसन्नीपम्हाअसुए असमपणवीसा ॥ १११ ॥ विगले छगतेनिरये इगपणसगअटनवहिआवीसा देवेते ६ तीसयुआ सुहमेपरिहारगेतीसं ७ ॥ ११२ ॥ पण सगअडनवसहिआ वीसातीसंमणे १ दुसामईए २ देसेइगतीस - युआ ६ गुणतीसतिमीसमणवयणे ७ ॥ ११३ ॥ सव्वेभव्वे १ नरतस पणंदिखवरो सुनच्छिचउवीसं इगवीसाईज्झा सगवीसाइगथावरेपंच ११ ॥ ११४ ॥ दसचउपणदीसविण केवलदुगिसुद्धसंजमेउदया वीसिगवीसंनवअड ४ अणहारेसेस ८ आहारे ॥ ११५ ॥
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सासाणेइगचउपण छनववीसायतीसइगतीसा विणुअडनवतणुयोए सुक्वाएतेअचउवीसा ३ ॥११६॥ इतिमार्गणासुउदयस्थानानि ॥ अथमार्गणासुभंगकाः॥ मणुआइचउगईसु । तिगईविणुनिअगईभवाभंगा एगेंदिअबायाला पुढवीगुण चत्तअविउव्वा ६ ॥११७॥ तावविणावणउदगे तेउसज्जोअहीणसविउव्वा पवणेविअलेविअला तसेसुएगिदिभंगविणा ८ ॥११८॥ इगविगलविणासगले कसायचउगे जिणभंगविणा ससुएभंगावयणे मणवेएतेअविगलविणा ७ ॥११९॥ इगविगलनिरयजिणविणु पुरिसेइत्थीसुहारविणुतेविआहारतिछसुरविणु संढेतिगनाणुवहिदंसे ॥१२०॥ इगविगलंदिअजिणविणु पज्जचउगइभवायसामईए छेएनरपज्जुसुहा मणपरहारेअणाहारा ॥११॥१२१॥ सुहमेदुसयरितीसा सजिणाहक्खायगेअअन्नाणे २ मिछाभवेहारग तिछविणासव्वभव्वेसु ७ ॥१२२॥ केवलदुगिजिणज्झुग्गा तिरिनरसुहेदेससंयमेभंगा मिछुभ्भवपज्जत्ता इगविगलविणाविभंगंम्मि ४ ॥१२३॥ अजिणाहाराअजए साहारालेसतिगअचक्खू सुचक्खुसु इगबितिइंदियजिणविणु वेअगितिनागुव्व ७ ॥ १२४ ॥ खवगेतेजिणजुत्ता मीसदुगेठाणगायसन्नीसु जिणविणुपणंदिभंगा अडवीसंजानरअपज्जा ४ ॥१२५॥ संघयणागइपणविणु विउविविणुतिरिअज्जअसन्निसु सेलेससमुग्घायग तणुअपज्जअणाहारे २ ॥१२६॥ पम्हासुनिरयइगजिण विगलविणतिउगेअइगजुत्ता सुक्कासुसजिणइगविण नाणुव्वाहारविणुवसमे ४ ॥२७॥ नवअडविणुतणयोए मिच्छेआहारतित्यविणुबीए बायर२ विगल ६ गतिरि ८ नर ८ सुर८ पज्जाहुतिबत्तीसं ॥१२८॥ दोपुणबायरपज्जा पणवीसेअठ्ठदेवपच्चईया छब्बीसे ५८२ एगिदिय १३ अपज्ज ५ विणुनवइगुणतीसे ॥ १२९ ॥ तिसेतिरि ११५२ नर ११५२ सुर ८ जा इगतीसेतिरयजायपज्जत्ता तईए अणेगविगला
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2nd ४ >>h nib •
28588 ४४१६४६४०
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| मार्गणासुउदय २० २१ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ स्थानानि मनुज १ तिर्यच १
७५४ ११६४ देवता १ नारकी १ एकेन्द्रिय विगल पंचेन्द्रिय । १२८ ० २६५७८ २७११९६ १७७३ २८९९ ११५३
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जलवण
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१ वेदक ११५ ज्ञा.३अ. द. नपुंसक १
८४०००
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वचन
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मनपर्याय १
१ ७४ ७४ १४५ २ ९५ केवल २ १
१ १ १ २ २ १ १ १ १२ अज्ञान रेमिछ १० ४१ ११ ३२६०० ३११२०० १७८२ २९१५ ११६४ ० ०७७७६ १ अभव्वा५ विभंग
१६ १६ २४ १७६९ २८९६ ११५२, ० सामा. छे. २ ० ० ० २ ० २ ७६ ७६ १४६ परिहार १ सूक्ष्म. १
ur
tabi
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यथारख्यात
देशविरति
२ ० २ १८४ २२० ३६२ १४४ अविरतति । ० ४१ ११ ३२६०० ३११२०० १७८२ २९१५११६४ |
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०७७७६
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चक्षु
अचक्षुलेशा ३
तेज
पद्म
भव्य
उपशम
क्षायिक
मिश्र
सा.
• २६५८१ २६११९८ १७७६ २९०४ ११५६ ०४१ ११३३ ६०० ३२१२०२ १७८४ २९१६ ११६४
०३०१० ३१५९० ३१११९५ १७७१ २८९८ |११५२ २६ ०२५५७८ २५११९५ १७७१ २८९८ ११५२ २७ ०२५५७८ २६११९५ १७७२ २८९९ |११५३ १४२११३३६०० ३३१२०२ १७८५ २९१७ ११६५ २७ ०२५५७८ २५११९४ १७७० २८९७ ११५२ १ २८
०२६५७८२७११९६ १७७३ २८९९ ११५३
१७७० २९९७ ११५२
९ |२३१२ |११५२
० ३०
०
० ३२
r
८५८२
७६५७
० ७७८३
१७७०८
(७६७०
०७६७६
१ १७७९१
० ७६६८
१७६८३
०५८१९ ।
४०९७
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संज्ञी
1. २७ . २६/१२७८ २६११९६ १७७२ २८९८ ११५२
४ ६७५
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आहार
१
० ० ११ ३३६०० ३३१२०२ १७८५ २९१७ ११६५
० ०७७४६
१
१
४५
अनाहार
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का. यो.१
१ ४२ ११ ३३६०० ३३१२०२ १७८५ २९१७ ११६५
० ०७७८९
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अजएमेवदेसेवि ॥१३०॥ सुरनिरयदुहगतिबिणा सुहसाहारामणुअजाछट्टे अणहाराअपमत्ते पुढेसंघयणतिविणाते ॥१३१॥ इक्किक्कगंचपरओ ठाणाइगवीस माइनवमिच्छे चउवीसविणासम्मे गुणतीसतिमीसिसासाणे ॥१३२॥ इगवीसाइसत्तग सगढ़वीसविणुएगतीसंजा देसेसगवीसाई पणपणवीसेणयुत्ताते ॥१३३॥ इगतासविणुपमाए गुणतीसदुअप्पमत्तगिअपुवा खीणंजातीसेगं अयोगिनवअठ्ठदुगठाणा ॥१३४॥ योगीजिणेवीसदुगं बावीसग छंचअठ्ठठाणाई अपज्जत्तभवाभंगा विविखिआनत्थिमयभेआ॥१३५॥ तिदुनउईगुणनवई छलसीअसीइगुणसीइ अठयछपन्नत्तरिनवअठ्ठयनामसंताणि ॥ १३६ ॥ तिनईसव्वेसम्मे जिणवझुवसंतजावदुनऊई आहारचेगविणुगुण नवइअडसीईजिणरहिआ ॥ १३७ ॥ निरयसु
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दुगअहवसुरदुग रहिआछलसीइअहअसीईयूआनिरयसुरछक्क असई उचलिआते छक्केण ॥ १३८ ॥ तेअनरदुअडसयरी उवसमसंतानिरयतिरिदुचऊजाई थावरआयव दुग साहारणविणासीई ॥ १३९॥ जिणविणुतेगुणसीई ते आहारगविहीणछस्सयरी जिणविणुतेपणसयरी अडनवसंताविव ॥ १४० ॥ तेवीसतिगेपणगं अडवीसेच उगसत्तगुणती से तीसे इगतीसइग इग बंधेअठसंतंसा ॥ १४१ ॥ उदये सत्तास्थानानि ॥ दुगअडपणसगनवसग अडनवनवपणतिगतिगंचकमा वीसाइसुउदए संतठाणाणिने आणि ॥ १४२ ॥ तिदुनउईगुणनऊई अटयछलसीअसीईअडसयरी अविश्यपणले सासुअतिनउई विणुमिल अन्नाणे १० ॥ १४३ ॥ तेविणुगुणनवई इगथावरविगलामणे सुतिरिए असव्वेतसपणभव्वे अणहारेनवडविणुयोए १८ ।। १४४ ।। अडसयरिविणामणुए ११ नवठविणुदसकसायचचक्खुदुगे सुक्काहारगसंत्रीअ वेएसय १३ नाणुवहिदंसे ॥ १४५ ॥ छलसीअडसरी विणुअडपवे अगदेसदेव परिहारे उवसमगेतिदुनवाई गुणनवईचे अडसीई ५ ॥ १४६ ॥ युंआसीगुणसीई छपणसयरीहिं सुहमसामईए छेएनवट्टसहीआ खवगाह क्खावगेनेआ ५ ॥ १४७॥ तिनवईचउविणुकेवल दुगिछठाणादुसासणेमीसे दोनवईअडसीईगुणनवईयुआयतेनिरए ५ ॥ १४८ ॥ अडसीछलसीसीई अडसरी मिछसंभवाभव्वे १ छगदुगदुगचउपंचसु दुसुअडतिसुचउछगमेगं ॥१४९॥ उदरसुदीरणाए सामित्ताएनविज्जईविसे सो मूत्तूणयइगुयालं सेसाणंसव्वपयडीणं ॥ १५० ॥ नवउदओअयोगे उईरणातेरमेअवुछिन्नामणुआउवे अणीए उईरणा अपमत्तंजा ॥ १५१ ॥ से साणंपयडीणं छेअसमयाउआलिगामोत्तं पडगही आणयसमगं अप डिग्गही आणविसमति ॥ १५२ || अविभागवग्गफडग अंतरariचकंडगायकमा लोगासंखगुणाते योगठाणादलनिमित्तं ॥१५३॥
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४१0622 ००४
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१४६
Y
| गुणस्थानेषुउदय- २० २१ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१
स्थाना. मिथ्यात्व ० ४१ ११ ३२६०० ३११२०० १७८२ २९१५ ११६४ सासादन
२) ८५८२
९२३१२ ११५२ मिश्र. अविरत.
० २५५७६ २५११९४ ७७० २८९७ देशविरत.
| २१४८ २२० ३६२ प्रमत्त. & अमप्रत्त.
अपूर्व. अनिवृत्ति. सूक्ष्मसंपराय. उपशांतमोह. क्षीणमोह. सयोगि. अयोगि.
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morrornrannow
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सुहमनिगोआइखणप्पजोगवायरविगल अमणमणा अपज्जलहुपढमदुगुरू पज्जहसीअरोअसंखगुणो || १५४ || असमत्ततसुक्को सो पज्ज जहनिअरएवटइठाणा इगओणंपएसा-अभव्यओणंतगुणीअदला ।। १५५ । । सिद्धाणणंतभाए उरलाई वग्गणातीअंगुणओ सव्वेते अगमाई चउफासविहीणणंतगुणा || १५६ || 'धुवअधुवायअचित्ता सुन्नापत्ते अबायरेसुतुमे गुरुखंधेअदगाहो ऊणणंगुलअसंखंसो ||१५|| जंजाइलद्वदलीअ तंसोसव्वदेसवाईणं तत्तोअघायचाणं रसभेएअप्पचहुगंति ॥ १५८ ॥ अप्पेपयडी बंधे योगठाणेगुरूअगेगुरूओ लहुएलहुओगंधो दलमाणेदव्यमाणमिणं ॥ १५९॥ अवगाहणायखित्तं फुसणाअंगुलअसंखभागोअ सुहमा
२९
उदयेसत्तास्थानानि.
२३।२५। ५९२।८८।८६ । २०२७९।७५
२६
२८
३०
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३१
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८०८७८ २१ ८ ९३।९२।८९।८८८६ | ४९२।८९।८८ ८०१७८५७६
८६
२४ ५९२।८८।८६८०८७८
७ १३।९२।८९ २५ ७९३।९२।८९।८८८६ । ८०१७८
८८।८६१८०
७८ २६ ९ ९३।९२।८९।८८८६ | ७९३।९२।८९ ८०१७९।७८।७५ ८८।८६।८० २७ ७९३।९२।८९।८८१८६ |
८०१७६
२८ ८ ९३ ९२।८९।८८।८६ ।
१८६।
७९।७५१८०
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८ ९३।९२।८९
८८|८०|७९ २९ ९ ९३।९२।८८८६८०
७६।७५
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३० ९९३ ।९२।८९।८८१८६ |
८०१७९१७६।७५
३१ ५९२|८८ १८६८० १७६
९ ३८०।७६।९ ८ ३७९१७५१८
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गुरूआलोओ कालोठिईठाणमाणंच ॥१६०॥ अंतरमबंधकालो अणुदयकालोअसंतकालोय सव्वाणुणंतभागे लोगस्सअसंखमेभागे ॥१६१॥ मोहेवसमोमीसो चउवाईसुअठकम्मसुअसेसा भावापुणजहसंभव मग्गणठाणेसुनेअव्वा ॥१६२॥ चउद्गतिगपणचउतिग, तीसातीसासगठ दुगवीसा, वीसगुणवीसतेरस बारसभावागुणठाणे ॥१६३॥ थोवाणुगाउखंधे नामेगोएसमोअअहिओअ तत्तोविग्यावरण दुअहिओमोहेतओअहीओ ॥१६४॥ तत्तोवयवे अणिज्जं अहिअंगुणमग्गणासुयोगाओ उद्धरीअंसमयाओ कम्मसंवेहगंथमिणं ॥१६५ ।। इयकम्मबंधबद्धा तव्वेअणओअसुहदुहंपत्ता तत्थयसमभावत्थं कम्मसरूवंविभावेज्जा ॥१६६॥ परमप्पानाणंपुण झाणठाणंचसिवपयनिहाणं तंपुणकम्मविवेगे कम्मविवेगोअतन्नाणे ॥१६७॥ अप्पगहोपरचाओ मज्जत्थत्तंचधम्मज्जाणंच आयमसुकंहवई कम्मसरूवस्सनाणेण ।।१६८॥ अग्गाहणीअपुवाओ उद्धरीआपगईसंगहागंथा तत्तोदेविदेणं कम्मगंथाकयासुकया ॥१६९॥ ततोऊद्धरिऊणं बंधाईसुकम्मभंगसंवेहं सिरिजिणचंदमुनिसर रज्जेभणीअंसमासेणं ॥१७०॥ सुविहियखरयरगच्छे ॥ युगवरजिणचंदसुरिसाहाए पाठगपुन्नपहाणा तस्सीसासुमइसागरापुज्जा ।। १७१ ॥ वरसाढुरंगवायग तस्सीसापाठगासुयसमुद्दा सिरिएयसारअज्जा पुज्जाविज्जानिहाणाणं ॥१७२।। सुयवायगागुणहा नाणधम्मा सुनाणधम्मधरा निवईणविसंपुज्जा रायहंसागणिप्पवरा ॥१७३॥ तस्सीसेणयभणीअं देवचंदेणआयसरणट्ठा नाणच्छं(पाययेपाय) सावगवरदेवरायस्स ॥१७४ ॥ इतिश्रीकर्मसंवेधभंगप्रकरणं समाप्त ॥ शुभंभवतु ॥ कल्याणमस्तु॥ सं. १९७१ वर्षे द्वि. आषाढ सुदि १ दिने श्रीजेसलमेर महादुर्गमध्ये लिखितं भोजक किशोरचंद
श्रीमद विक्रमपरवास्तव्य.
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॥ प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि॥
( आगमसारनो अन्तर्भाग-जूनी आगमसारनी प्रतियोमां आ विषय छे.)
ऐनमः संवत् १८०० ना वर्षे पूजाउपरि फूलनी चर्चा ते उपरे श्रीपंडित श्रीदेवचंद्रजीकृत प्रश्नोत्तराणि लिख्यते ॥ तथा कोइ पूछे जे प्रतिमानी पूजा तो पहेला आश्रवमध्ये लखी छे तेतो तुम्हे मृषावाद बोलो छो इहां प्रश्न व्याकरणसूत्रमा पाठ इम छेनही तिहां पाठ छे ते लिखीये छे ॥ अविजाणओ परिजाणओ विसयहेउ इमेहिंकारणेहिंकिंते करीसणपोरकरणीवा विवप्पणीकूवसरतलागचितिवेतिखाति आरामविहार, थूभपागार, दारगोपूर अट्टालगचरीय सेतुसंकमपासायविकप्पभवणघरसरणिलेणआवणचेइयदेवकुलचित्तसभाएवाआयतणवसई भूमिघरमंडवाणंकएहीसंति इहां पांच थावरना पांच आलावा छे तेहने छेहडे कोहा माणा, माया, लोभा, हिंसा, रती इत्यादि पाठ छे. ते जे जीव इंद्रीना सवादने माटे चेईअकहेतां प्रतिमादिक करे ते आश्रवखाते ए पाठ छे पण प्रजानो पाठ नयी ते मृषा स्ये (शा माटे) बोलो छो तथा प्रश्न व्याकरणसूत्रे बीजे संवरद्वारे जे आलावो छे ते लिखीये छे. खवगयवत्ति आयरीय उवज्झायसेह साहंमीएतवसिसिसबुढ़कुलगणसंवचेईयटेनिज्झरठी वेयावच्चं अणस्सी
ओदशविहंबहुविहंकरेई एआलावे आचारज प्रमुखचेईय कहेतां जिनप्रतिमानो वैयावच्च करे निइजरानाअर्थी अणस्सीओ कहेतां जस कीर्तिनी वांछारहितथको वैयावच्च दश प्रकार तथा अनेक
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प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि.
प्रकारनो करे, इहां चईय कहेतां प्रतिमा छे तो खोटी कलपना स्यामाटे करो छो ? तथा बीजे प्रश्न पूछयो जे अहिंसानां ६० नाम कयां छे अभओसव्वस्सविअनावाओचुरकायवित्तीपूयाविमलप्पभा निम्मलकरीत्ति एव माइणीनियगुणनिम्मियाइं पज्जयनामाणिहुँतिअहिंसाए ॥ तिहां प्रतिमा तथा पूजानो नाम नथी तेहनो उत्तर तिहां अहिंसानो नाम जाणो तेहनो अर्थ देवपूजा छे पूजा एहवो दयानो नाम छे तो अजाण्योइमस्ये प्ररुपणाकरो छो ? बीजं पूजातो श्रीअरिहंत प्रतिमानी ते तो विनय तथा वेयावच्च ते आभतर तपना भेद छे. ते तप मोक्षनो मार्ग छे. श्रीउत्तराध्ययन सूत्रे २८ मे अध्ययने तप ने मोक्षनां च्यार कारण कयां ते मध्ये गण्यो छे. तथा तो पस्ये पुछयो जे बोलनी खबर नहवे ते विचारी बोलीये. तथा श्रावके कोणे देहरा कराव्यां ? तथा प्रतिमा पूजी ? तेहनो उत्तर श्रीसमवायांगसूत्रे तथा नंदीसूत्रे सर्व आगमनो नूंध छे तेमध्ये ए पाठ छे तिहां उपासकदशानो नोध छे ते आलावो छे ते लखीये छे. सेकिंतउवासगदसाओ उवासगदसासूर्णसमणोवासगाणं नगराईउज्झाणाई चेइआइवणसंडाई समोसरणाइंरायाणोअम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइ आपारलोईया इढिविसेसा भोगापरीआउ सुअपरिग्गहीआ तवोवहाणाइसीलव्वयगुणवेरमणपच्चख्खाणपोसहोववासपडिवज्झणापडिमाओ उवसग्गसंलिहणाओ भत्तपच्चरकाणयाउवगमणं देवलोगगमणं सुकुलपञ्चायापुणबोहिलाभो अंतकिरीयाआवरिज्झंति ए पाठ छे. इहां चेइयाइशब्दे देहरा तथा जिन प्रतिमा जाणज्यो. इहां चेइय एहनो अर्थ बीजो थाये नही, जेवननो अर्थ करे तेतो उद्यानवनखंडनो पाठ जूदो छे. कोइ साधुनो अर्थ करे ते
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~~~rrrrrrrrrrrrane
प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि. ९९५ धम्मायरीया ए पाठ जूदो छे. ज्ञाननो अर्थ करे ते सुयए पाठ जुदो छे. तेमाटे चेइय शब्दे जिनप्रतिमानो अर्थ छे. तथा तुम्हे पुछो जे द्वारकां राजग्रहमें देहरा तथा प्रतिमानो पाठ किहां छे ? तेहनो उत्तर नंदीसूत्रे अणुत्तरोववाइ तथा अंतगडना नोंधनो पाठ जोज्यो. तथा तुम्हे कहेस्यो इतला बोल उपासकदशाप्रसुखे दीसता नथी तेहनो उत्तर जे नंदी तथा समवायांगमे जे पाठ तेहनो कोण उत्थापि शके ते जोज्यो. तथा पुछ्युं जे किणे श्रावके प्रतिमा पुंजी छे ? तेहनो उत्तर घणे श्रावके प्रतिमा पुंजी छे. ते पाठ श्रीभगवतीसूत्रे तुंगीया नगरीना श्रावको वरणव्या तिहां अभिगयजीवाजीवा इत्यादिक पाठ घणा छे. तिहां एहवो पाठ छे. असहिइझदेवासुरनागसूवनजरकररकसकिनरकिंपुरिसगरुलगंधव महोरगादीएहिं देव गणेहिं निग्गंथाओपावयणाओ अणतिकम्मणिज्झा निग्गंथे पावयणेनिस्संकीयानिक्वंरखीयालठ्ठागहीयठ्ठा इत्यादि जे श्रावक कोई जातिना देवतानो सहाज वांछता नथी तो कोई बीजा देवतानी पूजा किम करे ? एहवा श्रावक जे देवने देव बुद्धि मानता हवे तेहनेज पूजे ते श्रावक थिवर आव्या तेवारे एकवार सर्व एकठा मिल्यां एहतो विचार कह्यो जे एहवानिग्रंथनो नाम सांभल्यानो पिण महा लाभ छे तो तेहने वांदवा जातां सेवा करतां तो महानिर्झरा महापर्यवसान कहेतां मोक्ष थयो इम विचारी पोते पोताने घरे गया पछी सूत्रे पाठ छे व्हायाकयबलिकम्माकयकोउयमंगलपायछित्ताशुद्धाप्पावेसाइपवरपरिहीआ अप्पमहग्वाभरणालंकीयशरीरा सयाओगिहाओपडिनिरकमति तिहां नाद्या ते अंबोल कीचा, कयबलिकम्माते देवपूजा कीधी कयकोउयमंगल ते तिलकादिक कर्या पछी वस्त्र पेहरीने
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१९६
प्रतिमापुष्पपूजासिदि.
vvvAAM
आभरणअलंकार पहेर्या, घरयी निकल्या ए रीते सिद्धार्थ राजा तथा रुखभदत्त, सुदरशन शेठ इम सुभद्द पुत्र श्रावकसंखपुष्कली श्रावक कार्तिक शेठ वांदवा गया छे तेवारे कयबलिकम्मा तथा पछी घरे आवी साहमीवछल करीने दीक्षा लेवा निकल्या तेवारे न्हाया कयबलिकम्मा ए पाठ छे, इत्यादिक श्रावक अन्य देवनी पूजा न करे गोत्रज न पूजे, अरिहंत देवनेज पूजे, तथा कोइ कहेस्ये कयबलिकम्मा पाठ कठीयारा प्रमुख अनेक थानके छे तेमां स्याना छे ? पोते जेहने देवबुद्धे माने ते तेहने पुंजे तथा देवदत्त बालके कीम पुंजा करी हशे तेतो बालकने मावीत्रे पुंजा करावी तो कां न करे ? आज पण बालक पुंजा करता दीसे छे तो कयबलीकम्मा ए पाठनो बीजो अर्थ शाने करो छो ? तथा दीक्षा महोच्छव घणा दीसे छे पण तिहां देहरा प्रतिमानो पाठ नथी. तेहनो उत्तर जे दीक्षाने उतावला थयो तेवा, साधुने वहोराव्या रह्या नथी तो देहरा कराववा तो घरे स्याने रहे ? अने पहेला देहरा प्रतिमा छे तेतो नंदीसूत्रे आगमनो घणो पाठ जोस्यो तो सर्व समो पडशे तथा तुम्हे पुछयु जे तीर्थकरग्रहस्स्छपणे छतां साधु साध्वी श्रावक श्राविकाए वांद्या नथी तेनो उत्तर घणा वांद्या छे. ते पाठ ज्ञातासूत्रमां छे. तथा तुमे लख्यो जे प्रतिमा एकेन्द्रिदल छे तेहवो वचन संसारनो जेहने भय नहुवे ते बोले ? जे कारणे श्रीभगवतीजी तो जिणपडीमा कही बोलावी छे. देहराने सिद्धायतन कही बोलाव्यो तो तुमे कठोर वचन स्याने बोलो छो तथा तुमे दिसीवंदना करो छो ते दीसी तो अजीव छे तो कीम वांदो छो ? तिहां तुम्हे कहेस्यो जे अम्हारा मनमें तो सिद्ध छे तो जिनपडिमा वांदता पिण अमारा मनमा सिद्ध ले. तथा
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प्रतिमापुष्प पूजासिद्धि.
९९७
सूत्रमध्ये गुरुनी पाटनी आशातना टालवी कही छे, ते पाट अजीव छे. तेपीण सर्व गुरुनो बहुमान छे, प्रतिमाने बहुमानें सिद्धनो बहुमान छे तथा सुधर्मा सभामांहि जिननी दाढा छे ते वंदनी पूजनीक छे, तेतो अजीव स्कंध छे तथा तुमे लख्यो जे परदेशी राजाए प्रतिमा कां न करी ? ते परदेशी श्रावक थया पछी केटलोक जीव्या छे ते तथा सर्व श्रावक एकज करणी करे ए स्यो नियम छे ? तथा परदेशीए तथा आणंद श्रावके कोइक साधुने पडिलाभ्या नयी तेमाटे तुझे साधुनी वीहराव्याने दोष मानस्यो ? ए विचारी ज्योज्यो तथा लख्युं छे जे सुरीयाने जे प्रतिमा पूजी ते राजधानीना मंगलीक माटे पूजा करी तेतो खोडं बोलो छो, ए पाठ सूत्रमें नथी. सूत्रमें तो एहवो पाठ छे " हीयाए सुहाए खेमाए निस्सेसाए आणुगामीयत्ताए भविस्सइ निश्रेयस कहेता मोक्षभणी ए अर्थ छे तथा पच्छा शब्दे जे इहलोकनो अर्थ छे इंम कहे छे ते मूढ छे, दर्दुर देवताने अधिकारे पछा शब्दे आवता भवनो अर्थ छे. तथा आचारांगसूत्रे जस्सपूद्दियिनो तस्सपछायिनो इहां पूर्व शब्दे पूंटलो भव पछा शब्दे आवतो भव लीधो छे. तथा ए भवे समकितनो लाभ ते घणो छे तथा तीर्थकर बांधाना फलनो पाठ उवायि मध्ये तथा पंचमहात्रत पाल्यानो पाठ आचारांग मध्ये तिहां पण हियाए इत्यादिक पाठ छे ते बे ठेकाणे लाभ मानो होतो जिनप्रतिमा ठामे ना स्याने कहो छो अने किहां जिनप्रतिमा पूजानो पाप को नयी अने होय तो देखाडो तुमे लिख्युं जे भगवंते हिंसानी ना कही छे तेतो अमे किहां कहुछं जे हिंसा करवी, पण भगवंते किसे सूत्रे प्रतिमा पूजानी ना कही नयी प्रतिमानी १७ प्रकारनी पूजा सूत्रे कही छे. तथा तुमे
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प्रतिमापुष्पपूजासिमित
प्रतिमानी पूजा हिंसा गणो छो ते इम नथी. प्रतिमानी पूजा तो विनय तथा वेयावच्च धर्ममां छे. तथा पूजा हिंसामे गणी तो ठाणांगे नदी में पडती साध्वीने साधु काढे तेमां हिंसा गणी नहीं, तथा आचारांगसूत्रे बीजा साधु अजाणे पण शर्करानी भूले लूण वीहरीने. पछे जाणे जे लूण वीहराव्यो ते जाणी ते पोते खाये ते पोते पीये तथा बीजा साधुसंभोगीने आपे ते खायेपीए तथा साधु विषमवाटे वेलने रूपने लताने गूछाना अवलंबी उत्तरे जे ए पाठ आचारांगसूत्रे छे तथा भगवती सूत्रमे साधुना हरस काढे तेहने क्रियाकर्म लागे नहीं. तथा मल्लिनाथजी पूतलीमे कवला मुक्या तेमाटे धर्म माटे हिंसा करी तथा सुबुद्धि मंत्रिए पाणी पलटाव्यो ते धर्म माटे करी पिण मंदबुद्धी न कह्या ते भगवतीसूत्रे २५ मे शतके साधु शासन माटे तेजोलेश्या मुके तेहने आराधक कह्यो, तथा जंबूद्वीपपन्नत्तीए निर्वाण महोछव कर्यो छे थूभकर्यातेजिणभत्तिए धम्मेत्तिए पाठ छे. इंम केटला पाठ लीखीये ? अनेक पाठ छे॥ तथा नंदी सूत्रे जे आगम कह्या ते उत्थापीने ३२ मानो छो ते केनी आज्ञा छे ? तथा आवश्यक सूत्रपडिकमणा विना साधुपणो श्रावकपणो हुवेज नही ते तुम्हे आवश्यक सूत्रपडिकमणो मानता नथी तो श्रापकपणो ने साधुपणो केम धरो छो ? धरावो छो ? श्रीभगवतीसूत्रे साधु साध्वी श्रावक श्राविका पंचमाआराना छेहडा पर्यंत कया छे ते तुमारी श्रद्धा हिवणां साधु साध्वी कोण छे ? तथा सूत्रे आचारज उपाध्याय कुलगणनीनिश्राये विचरे ते आराधक ते तमे . कोनी निश्राये विचरो छो ? ते लिखज्यो, तथा श्रीभगवतीसूत्रे गाथा छ । पढमोगीयत्थवीहारो बीयोगीयत्थयनिसीओभणीओ इत्तोतइयविहारो
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प्रतिमापुष्प पूजासिद्धि.
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नाणुन्ना ओजिणवरेहिं ॥ १ ॥ एहनो अर्थ गीतार्थ होय ते पोते विहार करे अथवा गीतार्थनी निश्राये विहार करवो एथी तिजो विहार अरिहंते आज्ञा दीधी नथी ते माटे तुमे किस्या गीतार्थनी निश्राये विहार करो छो, तथा योग उपधानवहीने सिद्धांत भणे तेपण श्रावक आचारांगादिक सूत्र भणे नही ते निशीथमां कह्यो छे जे भिक्खुअन्नत्थीयं वागारत्थियंवावायणं वायजत्तं साइज्जति तस्सचोमासीयपरिहारठाणं जे ग्रहस्थने सूत्र वंचावे अथवा वांचताने अनुमोदे तेहने चारमासनो पाल्यो चारित्र जावे तथा प्रश्न व्याकरणसूत्रे अहकेरिसी यं पुणसवनुभासियां जत्थदवेहिंगुणेहिंपज्जवेहिं कम्मे हिं बहुविहेहिं आगमेहिं नामरकाय निवाय उवसग्ग तद्वि समास संधिपद जोग उणादि की रियावी हीणसर धाउ सर विभत्ति बन्न जुत्तं भासियवं तथा अनुयोगद्वारे ७ नय ४ निक्षेपाकाल तिन, लिंग तीन, जाण्या पछी उपदेश देवो ते मारग नथी इत्यादिक अनेक बोल छे. ते गीतानी सेवनाथी पामीये इतिभद्रं ॥ जे केइ श्री जिनप्रतिमानी पूजा मध्ये फूल पूजानी शंका करे तेहने कहीये जे श्री रायपसेणीसूत्रे १७ भेद पूजाना पाठ छे. पुप्फारुहणं १ मालारुणं २ तहवन्नयारुहणं ३ तथा पुप्फपगिहपुप्फपगरं एतली पूजा फूलनी छे ८ तेमाटे पूजा फूलनी ते प्रमाण छे. तथा श्रीभगवतीमूत्रे पण सूरीयाभनी पेरे पूजानी भलामणना पाठ अनेक छे. तथा ज्ञातासूत्रे द्रौपदीने अधिकारे १७ प्रकारी पूजाना पाठ छे. तथा समवायांगसूत्रे चोत्रीस अतिशयने अधिकारे " जलय थलय भासुरसद्भवन्नणंजाणुस्से हप्पमाणमित्तेणं पुप्फपूजोवयारकरेइ इत्यादि पाठ छे" इहां समवायांग सूत्रमे देवता मनुष्यनो नाम को नथी. तथा श्रीउववाईसूत्रे
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१०००
प्रतिमापुष्पपूजामिकि.
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०२.० २.
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कोणिकने अधिकारे श्रीवीर समोसर्या तेवारे अनेकजन चंपाथी निकल्या जे "अप्पेगइयावंदणवत्तियाए अप्पेगइयापूयणवत्तियाए अप्पेगइयासुयंसुयस्सामो अप्पेगइयाविउलाइ अठ्ठाओहेओआई असिणाइगहिस्सामो” इत्यादि पाठ छे. तिहां पूयणवत्तीयाए ए पाठनो अर्थ टीकामध्ये पूजनंपुष्पमालादिना इंम कह्यो छे. इहां श्रीतीर्थकरने पूप्फनी पूजा दीसे छे ए पाठथी श्रीभगवतीसूत्रे पण छे. तथा नंदीसूत्रे श्रुतज्ञाने पाठे जेम अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पन्ननाणदंसणधरेहिं तिल्लुकनिरक्खीय महीअपूईणहं पाठनो अर्थ टीकाकारे पिण महीय शब्दे चंदनादि पुइएहिंपुप्फमालादिके करीने ए पाठ अनुयोगद्वारमध्ये पण छे. इंम पुप्फपूजाना अनेक पाठ छे, ते माटे संका न करवी. वली केइक इंम कहे छे जे फूल वेचाता जडे ते चढायवां पण पोते चूंटी चढाववां नही तेपण अजाण्यु कहे छे जे “ श्रीजीवाभिगमसूत्रे “ततेणंसेविजएदेवेपोत्थयरयणंगिण्हइ पो.र. गि. पोत्थयरयणंमुयति पो.२त्ता पोत्थयरयणविहाडेति पो. २ त्ता पोत्थयरयणंवाइए पो. २ त्ता धम्मियंववसायंपिगेण्हेतिध.२ त्ता पोत्थयरयणंपडिनिख्खमति पो. २त्तासीहासणतोअम्भुतिसी.२ त्ताववसायसभातोपुरथिमिल्लेणंदारेणंपडिनिख्खमइ प.२ त्ताजेणेवणंदामुक्खरणीतेणे व उवागच्छति २ ताणंदापुख्खरिणं अणुप्पयाणिकरमाणे पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं अणुपविसति २ त्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणेपडिरूवेणं पच्चोरुहति २ त्ता हत्थपादं पख्खालेति ह. २ त्ता एगमहंसेतंरजतामयं विमलसलिलपुण्णमत्तगयमहामुहागिइ समाणंभिंगारं पगिण्हति प.२त्ता जाइंतत्यउप्पलाइपउमाइजावसत्तपत्ताइंसहस्सपत्ताइताइंगिण्हंति २ त्ता गंदातोपुख्खरिणिओपच्चुत्तरेइ प.२ त्ताजेणेवसिद्धापतणेतेंणेवपाहारेत्थगमणाइतएणतंविजयंदेवंचत्तारि सामाणियसाह
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प्रतिमापुष्पपूजा सिद्धि.
33
स्सी ओजाव अण्णे बहवेवाणमंतरादेवादेवीउ अप्पेगतियाउप्पलहत्थगताजावसतसहस्रसपत्त हत्थगयाविजयदेवं पिट्ठओअणुगच्छइरत्ता इहां फूल चूंटी लीधां छे. ए आलावे विजयदेवे पोते वावडी में उतरीने फूल चूंटी लीवां तथा सामानिक देवता तथा बीजे देवताये पिण फूल पोताना हाथथी लीधां छे इहां कोइ पूछस्ये जे तिहां कोइ माली नथी ते माटे पोते लिधां तेदनो उत्तर जे माली नथी पिण देवता चाकर लोक घणा छे तेहनेज पासे कां न मंगावे जो पुष्प आण्यानो विधि होवे तोपण पोताना हाथथी लीधानो विधि छे तेमाटे पोते वावडी मध्ये उतरी लीधां छे तथा श्रीरायपसेणीसूत्रे सूरीआभाधिकारे
" ततेण से सूरियाभेदेवे पोत्थरयणंगिण्हइ, पो. र. ग. ता पोत्थरयणंमुयइ, पोत्थरयणंविहाडे, त्ता २ पोत्थरयणंवाए ति, त्ता २ धम्मियववसायंगिण्इ, २ त्ता पोत्थरयणं पडिणिकखमति २ ता सीदासणाओअब्मट्ठेइ २ त्ता ववसायसभाओ पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं पडिणिकखमइ २ त्ता जेणेव गंदापोरकरिणि तेणेव उवागच्छइ २ त्ता णंदापोकखरिणी पुरत्थिमल्लेणं तोरणेणंति सोयाणपडिरूवेणं पच्चरुहत्ति २त्ता हत्थपायंपकखालेइ २ त्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए एगंसेयमहंरययामयं विमलसलि लपुणं मत्तगयमुहागितिसमाणमिगारं पगिण्हंति पच्चोरुहइ २ त्ता जाईतत्थउप्पला - इंजावसयस हरसपत्ता इंगिण्हंति णंदाओ पुक्खरिणीओ पञ्च्चोरुes २ ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेगमणाए तणं तं सूरियाभेदेवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव सोलसआयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णेयबवेरियाभविमाणे जाव देवा देवीओअप्पेगइया उप्पलहत्थगया जावसत्तसहस्सपत्त हत्थगया सूरियाभं देवंपिठ्ठओसमुणुगच्छंति ततेणं सूरियाभं देवं बहवे आभिओगिय
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प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि.
देवाय देवीओय अप्पेगइयाकलसहत्थगयाओ जावअप्पेगइया धू वकडच्छहत्थगया हतुट्ठाजावजासूरियाभं देवंपिओसमणुगच्छंति तेतेणं णे सूरियाभेदेवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिंजावअण्णेहियबहूहिंसूरियाभविमाणवासीहिं देवहिं देवीहियसद्धिंसंपरिवुडेसबढीए जावणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छइ सिझायणं पुरथिमिल्लेणं दारेण अणुपविसंति २त्ता जेणेव देवछंदए जेणेव जिण पडिमाउ तेणेव उवागच्छइ जिगपडिमाणंआलोए पणामंकरेति २त्ता लोमहत्थगंगिव्हइ २ ता जिणपडिमाणं लोमहत्थएणं पमज्झइ २ त्ता जिणपडिमाऔसुरभिणागंधोदएणण्हाणेति हाणित्तासरसेणं गोसीसचंदणेणंगायाणं अलिप्पड् २ ता जिणपडिमाणअहियाइंदेवदूसाई जुयलाई णियंसेइ २ ता पुष्फरुहणं मल्लारुहणं चूण्णारूहणं गंधारुहणं वणारुहणं चुरुहणं वत्थारुहणं आमरुहणं करेइ करेत्ताआसत्तासत्तविउलवववग्धारियमल्लदामंकलावं करेइ२ त्ता कयग्गहगहित्तकरयल पम्भट्ट विप्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फ पुंजोवयारकलियं करेति करेत्ता जिपडिमागं पुरतोअच्छेहिसण्हेहिंसेएहिरयणामएहिं अच्छरसतंदुलेहिं, अट्ठमंगले आलिहइ तंजहासत्थियजावदप्पणतयाणं तरचणचंदप्पहरयणवइवेरुलियविमलदंडकंचणमणिरयणभत्तिचित्तकालागुरुपवरकुंदरुक्क तुरुवकधूवमपमतगंवत्तामाणचिति ववहिविणिमुयंत वेरुलियमयंकडछयंपग्गहियपयतेणचूनाऊण जिणवराणं असयविसुद्धगंधजुत्तेहिंअपुणरत्तेहिं महावित्तेहिं संथूणइ सत्तकृपयाहिं पच्चोसरूहइ २त्ता वामंजा'अंचेइ दाहिणं जाणंधराणितलंसिनिहट्टतिक्खूत्तोमुद्धाणं धरणितलंसि णिब्बोडेत्ति २ ता इसंपच्चूण्णमइ इसिंपच्चूणमित्ता करयलपरिग्गहियंसिरसावत्तं भत्थएयंजं एवंवयासी णमोत्थुणअरिहंतागंजावसंपत्ताणवंदति णमंसइ २ त्ता
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प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि. ए रायपसेणीसूत्रे पाठ छे सूरीयामे पोते हाथे फूल ग्रुटी लीधां छे, सामानीक प्रमुख पासे मंगाव्या नथी. तथा जंबुद्धीपपन्नतीमे जन्माभिषेक जेणेवरखीरोदसमुद्दे तेणेव आगमखीरोदगं गिएहति २ त्ता जाइंतत्थउप्पलाई पउमाइ जावसहस्सपत्ताई तावगिण्हंति २त्ता इत्यादि सूत्रमे पाठ हाथना चूट्या फूल लेवाना छे. तथा कोइक कहेसे जे एतो चूटया नथी सहेजे पड्या लीधा छ तेहने कहीये छे, जे हज्जारगमे सहेजे चूट्या वावडीमध्ये हवेज नही, तथा निगाइने अधिकारे निगाइ राजाए
आंबानी मांजरीयो पोते चुटी लीधी तेवारे कटक बधे चुंटी लीधी ते पाठ उबवायीमध्ये जोजो अन्नयाणुजुत्तनिग्गओपेछइ कुसुमाचूअराइणायेगामंजरागहीयाएवंरकंधावरेणंलयतेणं मंजरीपत्त पवाललयाइ कठ्ठाविसेसो कओ पडिनियत्तओपुच्छइ कहे सोरुक्खोअमच्चणादंसाओ कहए सयावेत्योभणइ तुम्हेहिं एगामंजरीगहीयापच्छसव्वणंगहेतेणं एवंकओ ॥ इहां गहीय शब्दे चूट्यानो अर्थ छे, तथा कोइ कहेस्ये जे एतो देवताये कर्यों छो ते श्रावके करयानो किहां पाठ नथी तेहने कहीये जे जो देवतानी करणी ताहरे न करवी तो शक्रस्तव किम करे छे ? तथा स्नात्र केम मानो छो ? स्नात्र नो कलस ढोलो छो ते देवतानी करणीज छे, तथा भूरीयाभनी पूजानी भलामण द्रौपदीने पाठे छे. देव अने पूजाकरणी तथा मनुष्यनो पाठ एकज छे तेमाटे देवतानी करणी श्रावक करे ए श्रद्धाप्रमाण छे. तथा जे फूल चुटवानी ना कहे ते बीटनी जीवनि कामना माटे तेवारे फूलनी पूजा किम करी शके ? अने फूलनी पूजानो तो मूत्रे पाठ छे. तथा जे पूजाने हिंसामें गणे तेहने कहीये जे श्री प्रश्नव्याकरण मृत्रे प्रथम संवरद्वारे अहिंसाना ६० नाम कह्यां
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प्रतिमापुष्पपूजा सिद्धि.
छे तिहां पूजा ते दया कही छे. ते पाठ लिखीइ छे. अभउसव्वस्सविअनाघाओ चुरकापव्वत्तीपूयाविमलप्पभानिम्मलकरत्ति एवमाइणिनियगुणनिम्मियाइपज्झायनामाणिहुंति अहिंसाए भगवइ ए इत्यादि पाठे पूजा ते अहिंसामे गणी छे, तो तुम्हे हिंसामे किम गणो छो ? तथा भगवती सूत्रे “ शुभयोगपडुच्चअणारंभा " ए पाठ शुभयोग प्रवृत्तिने आरंभनी ना कही छे. विनय तथा वेयावच्च ते तपना भेद छे. तप ते मोक्षमार्गमध्ये श्रीउत्तराध्ययने २८ मे अध्ययने कह्यों ते तुमे हिंसामें केम कहो छो ? तथा विवहारसूत्रे सिद्धवेयावच्चेणं महानिज्ज - रामहापज्झवसाणंभवति” तेमाटे सिद्धवैयावच्च ते पूजा छे तथा कोइ पूछे जे श्रावके प्रतिमा किहां पुंजी छे तेहने केहवो जे श्रीभगवतीसूत्रे तूंगीया नगरीने श्रावके पुंजा करी छे. शंख पुष्कलीये पूजा करी छे तथा समवायांगसूत्रे द्वादशांगीनी बूडीने अधिकारे उपासकदशानी ढूंडीमध्ये दश श्रावकनां चैत्य एहवो पाठ छे. ए पाटमे चैत्य तो साबु थाय नहीं, ज्ञान थाय नहीं, वृक्ष थाय नहीं ते सर्वना पाठ जुदा छे, तथा नंदीसूत्रे पिण पाठ छे तथा नंदीमध्ये जे आगम कह्या ते सर्व माने तेज सम किती जाणवो. श्रीअनुयोगद्वारसूत्रे नियुक्तिनी हा कही छे ते निर्युक्तिमध्ये पूजाना अनेक अधिकार छे, तथा तंदूलवेयालीपयन्नानी टीकामध्ये समवसरणना फूल सचिन ते उपर साधु साध्वी चाले. प्रवचनसारोद्वार टीकाये पण ए मत छे तथा कोइ कहेस्ये जे फूलने प्रोइ नहीं तेहने कहीये जे हीरप्रश्नमध्ये को छे ते ॥ श्राद्वदिनकृत्य तथा पंचासकमध्ये फुल प्रोवानो पाठ छे तेह हीरप्रश्नमध्ये जोइ लेज्यो ||
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|| गुणठाणाअधिकार ॥
( आगमसारान्तर्गत )
प्रथम गुणठाणानो विचार लखीइं छे. प्रथम मिथ्यात्वगुठां १, सास्वादनगुणठाणं २, मिश्रगुणठाणं ३, अविरत समकित गुणठाणं ४, देशविरति गुणठाणं ५, प्रमत्तगुणठाणं ६, अप्रमत्तगुणठाणं ७, अपूर्वकरण गुणठाणं ८, अनिवृत्तिबादर गुणठाणं ९, सूक्ष्मसंपराय गुणठाणं १०, उपशांतमोह गुणठां ११, क्षीणमोह गुणठांणुं १२, सयोगीकेवली गुणठां १३, अयोगिकेवलि गुणठाणुं १४, अरिहंतनाभाख्या वचन साचा करी सहेनहिं ते मिथ्यात्व गुणठाणो कहीइं, तेहना भेद पांच छे. अभिरगाहिय मिथ्यात्व जे लीधो हठ मुकी सके नहीं १, अनमिग्रहिक मिध्यात्व जे देव तथा कुदेव तथा गुरु तथा कुगुरु धर्म, अधर्म सरिखा करी मांने परीक्षा बुद्धीनहीं २, अमिनिवेशमिथ्यात्व जे खोटाने खोडं जाणे पण हठ मुकि सके नहीं ३, सांशयिक मिथ्यात्व जे केवलिनाभाख्या वचन तेमां संशय उपजे पूरीपरतीत आवे नहीं ४, अनाभोग मिथ्यात्व जे कोई जांणपणं उपजे नहि एकेंद्रीविकलेंद्रीनी पेरे तथा श्रीठाणां
सूत्रे मिथ्यात्वना दसबोल कह्या छे, जीवने अजीव करी माने ते मिथ्यात्व १, तथा अजीवने जीव करी माने ते मिथ्यात्व २, तथा धर्मने अधर्म करी माने ते मिथ्यात्व ३ तथा अधमने धर्म करी माने ते मिथ्यात्व ४, मोक्षनोमार्ग ज्ञानदर्शन चारित्रतपः तेहने मोक्षमार्ग न माने ते मिथ्यात्व ५, तथा मोक्षनो मार्ग नथी संसारनो हेतु छे तेहने मोक्षमार्ग करि माने ते मिथ्यात्व ६, तथा मोक्ष गया नथी तेहने मोक्ष माने
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गुणठाणाअधिकार.
ते मिथ्यात्व ७, जे मोक्ष गया तेहने मोक्ष न माने ते मिथ्यात्व ८, जे साधु विषयविकार त्यागी तेहने असाधु माने ते मिथ्यात्व ९, तथा जे साधु नथी तेहने साधु करी माने ते मिथ्यात्व १० ते मिथ्यात्वनी चाल तीन प्रकारनी छे देवगत मिथ्यात्व ते कुदेव सरागि तेहने देव करी माने १, बीजो गुरुगत जे कुगुरुने गुरु करी माने त्रीजो पर्वगत मिथ्यात्व संसारिपर्वने धर्मनापर्व करी माने ते मिथ्यात्व ते मिथ्यात्वनी स्थिति तीन प्रकारनी छे. अनादि अनंतनी अभव्य जीवने, अनादि सांत भव्यजीवने, सादिसांत पडवाइने, ते जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्ऋष्टी अर्द्धपुद्गलपरावर्त्त काईक उणी छे. बीजु गुणठाणुं सास्वादन ते कोईक जीव उपसमकितथी पडतो मिथ्यात्व गुणठाणे पोतो नथी वचे छआवलिका रहे ते सास्वादन गुणठाणुं कहीइं. तेहनो दृष्टांत छे कोई पुरुष खीरखांड वृत जमीने तुरत वमतो होइं ते वमतां कांईक स्वाद आवे तिम समकितिथी पडतां पिण कांइक वासना रहे तेहने सास्वादन कहिइं २ वीजो गुणठाणो मिश्र कोइ जीव क्षयोपशम समकितथी पडी मिश्रमोहनीने उदये मिश्रगुणठाणे आवे अथवा मिथ्यात्वथी निकली समकित गुणठाणे आवतां वचे मिश्रमोहनीने उदये मिश्र गुणठाणे आवे ते जीव अंतमुहूर्त्तकालसीम रहे एहने समकित मिथ्यात्वदृष्टि कहीइं. एहनो दृष्टांत कहे छे जे कोई जीव नालियरदीपमां वसतो होइं ते नालियरखाई तेहने अनदीठे राग न उपजे तेम द्वेष पण न उपजे तिम ए जीवने जिनधर्म साचो सांभलतां राग पण न उपजे द्वेष उपजे नही एहवा जीवने मिश्रगुणठाणुं कहीइं एहनी स्थिति अंतमुहूर्तनी ३ चोथो अविरत समकित, तेहना बे भेद छेत्रण छे, तेहनो
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गुणठाणाअधिकार.
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पेहलो भेद उपसमसमकित जे जीव अनादि मिथ्यात्व संज्ञी पंचेंद्री पर्याप्तो कोई कारण पामीने संसारथी उभगे नरक निगोदथी ते पामे, जनममरणना दुःखथी बीहे तेवारे ए सर्व संसार खोटो जाणे, धर्म जाणवानी रुचि धणी करे, दयापाले, दनदे, तप करे, श्रावकनां बार व्रत पाले, साधुना महाव्रत पाले ते जीव यथाप्रवृतिकरणे वर्तता कहीइं, एतली करणीसुधी भव्य तथा अभव्य जीव आवे, नवग्रैवेयकसुधी जाए पण समकित पाम्यो नथी ते माटे लेवामां नावे, तोपण कोई जीव वैराग्य परिणाम सहित संसारने असार जाणतो साचा धर्मनी परीक्षा कस्तो सातकर्मनी थीति उत्कृष्टी खपावे, एक कोडाकोडी सागरोपम बाकी थीति सातकर्मनी रहे तेवारे अपूर्वकरण करे तेवारे एक ज्ञान मार्ग साचो करी माने, बुद्धिमुक्ष्मभाव जाणवानी विशेष थाइं तेवारे पछे एक आत्मा पोताना शरीरने विषे रह्यो, पण अशरीरिछे, अरुपी छे, अविनासी छे, अनंतज्ञानमयी अनंतदर्शनमयी, अनंतचारित्रमयी,अनंतअगुरुलघुमयी, अनंततपमयी, अनंतवीर्यमयी, निर्मल अलेप अखंड छे, तेहना प्रदेश असंख्याता छे, प्रदेशे २ अनंता गुण अनंता पर्याय छे, उपयोग लक्षण ते माहरो धर्म छे, ए धर्म जे जे करतां प्रगट थाये, गुणीश्री, अरिहंत, सिद्ध, आचारज, उपाध्याय, साधु तथा सिद्धांत तेहनो विनय तथा वैयावच्च करवो, अरिहंतना आगम प्रमाणप्रतीत राखे ते समकित कहीइं, ते समकितना तिन भेद छे उपसम समकित १.क्षयोपशम समकित २ क्षायकसमकितः तिहां अनंतानुबंधिकषाये मिथ्यात्वमोहनी, मिश्रमोहनी, समकितमोहनी एसातप्रकृति उदये आवे ते खपावी अने उदये नथी आवी ते विपाकेउपसमावी छे, प्रदेसे उदये छे, समकितमोहनी उदय
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१००८
गुणठाणाअधिकार,
आकरो छे तेणे समाकितमां अतिचार लागे छे तेहने क्षयोपशम समकित कहीइं, एहनी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त छे उत्कृष्टि ६६ साछठिसागरोपम केतलाएक मनुष्यभव अधिक एतली स्थिति रहे ए समकितने पांच अतिचार लागे तेहनां नाम ॥ संका जे आगममां कह्यो ते साचो पिण कांईक संदेह उपजे १, अतिचार ॥ कंखा बीजा मतना शास्त्र तथा देव हरिहरादिक सरागि तथा ते मत गुरुसविकारे तेहने काईक रुडापणे जाणि वांछा करिए २ अतिचार, वितिगछाजे धर्मअरिहंतनो कह्यो करीइं पण एहनो फल थासे के नही थाय अथवा जिन सासनथी बीजा काईक बीजा मतनी करणी रुडी छे एहवो परिणाम आवे ते त्रीजो ३ अतिचार पसंस जे परमतनी परसंसा करे जे बीजा मतना देव तथा लिंगीयाता कष्टकरणी तथा कोई चमत्कार देखीने ते उपरे राग आवे तेहने पगे लागे तेहना गुण बोले ए चोथो ४ अतिचार जाणवो ॥ संथवो जे बीजा मतना देव तथा गुरु तथा ते मतना जे सेवक तेहनो परिचय मेलाप घणो करे बीजा मतनी वात करे सांभले पांचमो आतिचार ॥ ए क्षयोपशम समकित एक जीवने असंख्यातीवार आवे अने वली असंख्यातीवारजाए, जे आगमने आधारे राखे तेहने रहे तेपछे क्षायिक समकित थाई ते क्षायिकनो अर्थ लिखीइं छे. अनंतानुबंधी च्यार ४ मिथ्यात्व मोहनी १ मिश्रमोहनी २ समकितमोहनी ३ ए सात प्रकृति सर्वथा जे जीव खपावीने निरमलीपरतीतकिधी ते क्षायिकसमकिती कहीइं. ए आव्या पछे जाय नहीं. ए समकितवाला जीवने दस जातिनी रुचि उपजे ते लिखीइं छे. निसर्गरुचि नव तत्व ९ छे द्रव्य तेहना ४ निक्षेपा सातनय पोतानी बुद्धियी
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गुणठाणाअधिकार.
साचा जाणे ते निसर्गरुचि १ अभिगभरुचि जे जिनागमनासूक्ष्म अर्थ जाणवानी रुचि गुरुना मुखथी उपदेशथी जाणे ते उपदेशरुचि २ श्रीअरिहंतकेवलीना कया वचननी आणा प्रमाण करे ते आणारुचि ३ सूत्ररुचि जिनसूत्र सांभलतां साचा मारगनी परतीत उपजे समकित पामे ४ बीजरुचि सिद्धांतनुं एकपद सांभलतां बधाबोलनुं जांणपणुं आवे श्रद्धासमीथाई ५ अभिगमरुचि जे ११ अंगादिक ८४ आगम तथा नियुक्तिभाष्य चूर्णिटीकाना अर्थ जाणे सर्व बोलना परमार्थ जाणवानी रुचि ६ विस्ताररुचि ६ द्रव्यनाभाव ४ निक्षेपेसातनये करी च्यार प्रमाणे करी जाणे ७ क्रिया रुचि जे जीव जिनशासननी क्रिया साची करी सूत्रमा कही ते रीते करे आधीपाछी न करे ८ संक्षेपरुचि, जे जीव सिद्धांतनां जांणगीतार्थ आगमने अनुसारे जे अर्थ कहे ते साचा करी माने ९ धर्मरुचि, आतमानो धर्म ज्ञानदर्शन चारित्रमयी अरूपी आतमानो परिणाम भावदया प्रमुख गुणी श्री अरिहंतादिकनो बहुमान वेयावच्च ते धर्म करी माने बीजा बाह्य तपबाह्य किरिया जे आगमना कडा परमाणे करे ते धर्मनो कारण करी माने ते धर्मरुचि समकित मोक्षमार्ग मूल छे, समकित विना जे करणि ते संसार खाते छे (पण) मोक्षमारगनी न जाणे ए चोथो गुणठाणो कह्यो ४ पांचमो देशविरति गुणठाणो इहां जीवने व्रतपच्चरखाण आवे जघन्ये एक नवकारसीपच्चरकाण तथा कंदमूलना पच्चखाण साची श्रद्धा सहीत थया होवे तेहने श्रावक कहीइं उत्कृष्टे इंद्रीसुखनी वांछा विना श्रावकनां बारव्रतपाले ते उत्कृष्टो श्रावक कहीइं बारव्रतनां नाम १ स्थूलप्राणाति पात विमरण, जे त्रस जीवने निरापराध हणे नहि २ स्थूलमृषावाद विरमण, जे मोटका पांच
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१०१०
गुणठाणाअधिकार.
कन्यालीक १, गवालीक २, भौमालिक ३, थापिणमोसो ४, कुडीसाख नबोले ५ ॥ ३ थूलअदत्तादान विरमण, जे चोरी कीधे राजा दंडे तथा च्यार रुडां माणस ठबको दे अथवा पोताने भय लागे अथवा सामाना जीवने वास्को पडे ते मोटी चोरी करवी नहि ४ थूलमैथुन विरमणव्रत, जे परस्त्री मनुष्यणी तथा तिर्यंचणी तथा देवतानी भोगववी नहीं. पांच इंद्रीना स्वाद घणा मगनपणे सेवे नहीं ५ थूलपरिग्रह विरमण जे धनादिक नव भेदनो परिग्रहनो पच्चखांग करे, ईछा परिमाण करे अथवा पोता पासे जे धन होई ते राखी बीजानो पच्चरकाण करे ६ दिक् परिमाणवत जे च्यार दिश तथा ऊंचो तथा नीचो दिसी जावानो मान करे ७ भोगोपभोग परिमाण व्रत जे नीम साचवे पन्नर कर्मादान न करे, जे पोताने खावेपीते तथा वस्त्रोन मान राखे ८ अनर्थ दंड विमरणव्रत, ते जे मोटका पाप रंगवां खेतर खेडवां, भाठी जे चूना प्रमुखनी करवानां पच्चरकाण करे ९ सामायिकवत जे जवन्य २ घडी सुद्धी संसारनां काम मूकी कुटुंब धननो राग तजी कोइथी द्वेष न करवो एहवो समपरिणाम राखवो ते सामायिक कहिई १० देसावगासिकबत जे बे घडीथी च्यार पोहोस्थी उणुंकाल दिसतुं मानकरिथीरचित्तसमतापणे रहेq ते देसावगासिकवत जाणवू ११ पोषधवृत च्यार पोहर अथवा आठ पोहोर सूधी समतापणे साधुपेरे श्रावकवरते, मन वचन काया समताई राखे ते पोषधव्रत कहीइं १२ अतिथिसंविभाग बारमुंबत जे श्रावक जे ते साधुने विहरावीने पछे जिमबुं जो तेहवा साधुनो योग न मिले तो सावर्मिक श्रावकने जीमाडीने जमवा बेसबुं बेठा पछे थोडीसीकवार साधुजीनी वाटजोवी इंम करतां
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गुणठाणाअधिकार.
१०११
साधूजी नाव्या तो एहवी भावना भाववी जे धन ते श्रावक जे साधुजीने वहोरावीने जिमता हस्ये इंम करतां चिंतवी जिमवा बेसे ए बारव्रत धरे ते श्रावक कहीइं श्रावकने जवन्य ३ वार उत्कृष्टे ७ वार चैत्यवंदन करवं, अरिहंतदेवसिद्ध भगवंतने वंदना करवी तथा नित्य पडिक्कमणुं बे वार करवू जो नित्य न थाये तो पाखीनो पडिकमणुं नियमा करवू तथा पच्चरकाण प्रभातना नोकारसी, अवस्य साचववी, रात्रिचउ विहार तिविहार दुविहार ए ३ मांहि एक पच्चराण अवस्य करवू ए पांचमा गुणठाणानी स्थितिः जवन्य अंतमुहूर्त उत्कृष्ट उणी पूर्वकोडी वर्षनी जाणवी. ए जीव अढार पाप स्थानक आलोइने निर्मल थयो चारित्रफरसे ते कहे छे, अथ अढारे पाप स्थान लिखीइं छे. कोइ भव्य जीव अवसर पामीने जैनागम सूणतां संसारथी उभग्यो थको मोक्ष सुखनो अभिलाष करे पण आलंबन विना कार्य नीपजवो दुक्कर छे तेथी प्रथम देवतत्त्व श्री वीतराग अनंत ज्ञानमय अनंतदर्शनमय शुद्ध स्वरूपी आत्म रुद्धिभोगी आत्मालंबी अत्मपरणामी जेहने अवलंबीने अनंता जीव अव्याबाध सुख वरे ते देवतत्व तेहने सेववे सर्व जीव संसारभयथी छुटे तथा निग्रंथपंच महाव्रतधारी संवरस्वरूपी एक निर्मल मोक्षमार्गने विषे जेहनी दृष्टि छे, शरीर इंद्रीय, कषाय, जोगनी प्रवृत्तिजापता मुनिराज अतीतकाल विषय संभालता नथी, वर्तमानविषे रमणता नथी, अनागतकाल विषयनी आसंसा नथी, पोताना अनंतगुणपर्याय निर्मल करवाने उत्कृष्ट उद्यमवंत छे ते साधु महात्मा गुरुपणे धारवा, तथा धर्मतत्व जे जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशी स्यावाद रीते पोतानी गुणीय परणति ते धर्म श्री
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१०१२
गुणठाणाअधिकार. सिद्ध भगवानने प्रगट छे, श्री अरिहंते उपदिस्यो आचार ते धर्म साधवाने ज्ञानांदिक पंचाचार पाले छे, श्रीउपाध्यायजी ते धर्मनी घोषणा करे छे, साधुनिग्रंथ ते धर्म साधवाने राज्य तजी इंद्रिय विषय तजी वनमां साधु टोला मध्ये अथवा एकला वासी वनवासी गुफानिवासी परवतनी शीला उपर उनाले आ तापना शीतकाले नदीने तटे शीत खमे छे, जघन्यथी अव्यापकपणे रागद्वेष वारता समतामईकृतसंपन्नचारित्रसंपन्नविचरे छे तथा देशविरति ते सुद्धधर्म प्रगट करवा वारते देसविरत लेइ सर्वविरतीनी इहा करतो संसार कार्य ते निर्विषयीनी पेरे उदासीनपणे करे छे, सम्यग्दृष्टि ते धर्मनी इहा करतां काईयासिद्धीलंमो कईयासवेगुणनिरावणा कईयाअवाबाहं सुहंसमुहंमयेसिजे ॥१॥ कईयापुग्गलरहियो रमामिसिवमयल निरुवमसहावो,पासंतोसत्वपयं भुजंतोअप्पणोभावं।
ए भावना भाविने धर्मनो अभिलाष करतां संसारप्रवृत्ती तप्त लोहपट्ट धरवानी रीते करी छे संसारसंपदा बालक रमवानां धूलवर समान जाणे छे, ते धर्म प्रगट करवानी रुचि सर्व जीवे करवी, का ते धर्म आठ कर्म आवस्यो छे ते आठ कर्मने क्षये प्रगटे ते आठ कमनो क्षम, पापस्थान आलोचतां थाये ते पापस्थाननी आलोयणा करवी जे माहरे जीवे संसार भमतां स्वस्वरूपनी भूले हसा पापस्थान करयो आपना ज्ञानादिक प्राण हा ते भावहिंसा अने रागद्वेषे असंयमे परना प्राण हण्या ते द्रव्यदि सा ते लौकिक रीते पृथ्वीकाय अपकाय
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गुणठाणाअधिकार.
तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय हण्या, संताप्या छेद्या भेद्या, तपाव्या, परने संक्लेश उपजाव्यो, परणति संकल्पे प्रवर्ते हे श्रीवीतराग तुमें सर्व जाणो छो, ते हिंसाने धर्म करी मान्यो हिंसामध्ये राच्यो ए रीते हिंसा जो ते. ए भावे पाछले अनंतेभवे जे जे हिंसा परणति करी, करावी, करतां, अनुमोदि मने वचने कायाए ते सर्व श्रीप्रभुजीनीसाखे गुरुसाखे मिच्छामिदुकडं ए प्रथम पापस्थान १ हवे बीजो पापस्थान ते मृषावाद जे जूढं बोलवू, लौकिक संसारमध्ये लोकोत्तर धर्मकार्यमध्ये ते पिण भाव मृषावाद स्वस्वरूपशुद्ध अध्यात्मभाव पोतानी परणतिने पोतानी न माने, शरीर इन्द्रिय धन कुटुंब ते परभाव संसार हेतु दुष्टता मूल तेहने पोताना कहे क्रोधेमृषा बोले, भयेमृषा बोले, लोमेमृषा बोले ते सर्व माहरे जीवे संसार भमतां चार गतीमांही जे मृषावाद बोल्या होय, बोलाव्या होय, बोलता अनुमोद्या होय, ते मने वचने कायाए ते सर्व श्रीप्रभुजीनीसाखे गुरुसाखे आत्मसाखे मिच्छामिदुक्कडं २ हवे त्रीजो पापस्थानक अदत्तादान ते जे पारकी वस्तु अणदीधा लेवी ते लौकिक जे संसारी असंयमीना धनकंचन द्विपद चतुःपद आदिक अणदीधा लेवा, लोकोत्तरते जे चैत्यउपगरण पूजाउफ्गरण चारित्रउपगरण तेहनो चोखो ते द्रव्य बाह्य वस्तुनो लेवो भाव तप जीवपर पुद्गल खंधादिकनो आत्मानेविषे ग्राहकतारुप परिणमन करयो हवे, कराव्यो, हवे, करतां अनुमोद्यो हवे, ते मन वचन कायाए ते सर्व श्रीप्रभुजीनी साखे गुरुसाखे आत्मसाखे मिच्छामिदुकडं ३ हवे चोथो पापस्थान मैथुन जे कामी भोगीपणे इंद्री विषे पुद्गलना वर्णादिकनो भोगववो लोकोत्तर धर्मलिंगे धर्मी महाजन साधु साची धर्मोपकरण चैत्यादिने विषे इंद्रीनी पो
व श्रीप्रभुजीनी पापस्थान मैणून लोकोत्तर धमालानी पो
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१०१४
गुणठाणाअधिकार.
षणा करवी ते वली द्रव्यथी वेद ३ उदये जे कामविकारीपणे भोगविलासादिक, भावथी आत्मपरणति परभोगीपणे पर वस्तु अशुचिपरिणाममध्ये रमणीकता ते माहारे जीवे, एकेन्द्रिपणे बेरिन्द्रिपणे, तेरिन्द्रिपणे, चोरिन्द्रिपणे, पंचेन्द्रिपणे फरसन १ रसन २ घ्राण ३ चक्षु ४ श्रोत्रेन्द्रिय ६ इन्ट्रीना वीस विषये वांच्छ्य । सेव्या सेवाया सेवता अनुमोद्या होई ते मन वचन कायाए करी श्रीप्रभुजीनी साखे आत्मसाखे मिच्छामिदुक्कडं ४ हवे पांचमो पापस्थान परिग्रह जे कोई आत्मधर्मयी अन्यभाव संरक्षण परिणामे राखवा ते लौकिक परिग्रह द्विपद चतुःपद धनधान्य गृहखेत्र वस्त्रप्रमुख, लोकोत्तर परिग्रह सम्यक्त्वनो हेतु मोक्षकारण श्री अरिहंतनो चैत्य तथा जिनचिंत्र तथा ज्ञाननो कारण पुस्तक नवकारवाली प्रमुखचारित्रना उपगरण तेहने ममत्वभावे गृहे द्रव्य परिग्रह पुद्गल खंधादि ममत्वभावे ग्रहे भावपरीग्रह क्रोधादिक अशुद्ध परिणाम परभावस्वामित्वग्राहकत्वादिक परिणति ते परिग्रह राख्यो हवे परद्रव्यनी इच्छा करे हवे, परिग्रह सुख मान्यो हवे, परिग्रह वासते धर्मआचरण करच हवे ते परिग्रह पापस्थान मने वचने कायाए करी सेव्यो होये सेवतां अनुमोद्यो होवे ते श्री अरिहंतनी साखे गुरुसाखे आत्मसाखे भिच्छामिदुक्कडं ५ हवे छट्टो पापस्थानक क्रोधतप्त परिणाम क्षमानो रोचक ते लौकिक भाई पिता प्रमुख कुटुंब उपर तथा अन्य जीव उपर क्रोध परिणाम लोकोत्तर देवगुरु साथर्मिक उपर क्रोव परिणामते द्रव्यतः तथा सकठोरता भाव तथा रुद्र परिणान ते जो कोई रीतनो अप्रशस्त क्रोध कर्यो होवे कराव्यो होवे करता अनुमोद्यो होवे तेथी त्रिभुवनपति निरंजन देवनीसारखे गुरूसाखे आत्मसाखे मिळामिक ६ दवे सातमो
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पापस्थान मान, अहंकार रुपनो, धननो, राज्यनो, परिवारनो, बलनो, तपनो, विद्यानो, कुलनो तथा गुणी नहीं ते गुणीनो मान आचार्य उपाध्याय साधुपणानो अभिमान संसारकार्य यशाभिart मा धर्मकार्ये यात्राचैत्य प्रमुखनो कराव्या रखवाल्या - नोमान कर्यो हवे, लौकिक बाह्यलोकोत्तर गुणनो गुणीथी, महत्व कर्यो हवे ते सर्व मने वचने कायाई करि कर्या हवे कराव्यो ढोवे करता अनुमोधो होवे ते श्रीप्रभुजीनी साखे आत्म साखे मिळामिदुक्कडं ७ हवे आठमो पापस्थान माया कपट नियsि वक्ता जे कोइथी वचननो द्रोह ठगाई करवी ते माया अलौकिक संसारी संबंधथी लोकोत्तर आचार्य साधु साधर्मकथी धर्म पद्धतिनो कपट करवो ते द्रव्यतः कोइने वचवो भावतः आर्जवता रहित परिणामे जे माहरे जीवे कर्यो कराव्यो करता अनुमोद्यो ते मने वचने कायाये करी श्रीजगवत्सल परम करुणानिधिनी साखे गुरु यथार्थवादिनी साखे, आत्म साखे मिछामि दुक्कडं ८ हवे नवमो पापस्थान लोभ, लालच परिणाम इच्छा गृवता ते लेकिक बाह्य पोताने इष्ट वस्तु तेहनी लालच जे घणी जडे इंद्रीय सुख प्रमुख आवे एहवो परिणाम ते लोभ ते लोकोत्तर धर्मलिंगे धन विषय जसनो लाभ वांछे तथा द्रव्यतः कयुं जे भावतः परभावाभिलाष सर्व ते जे माहारे जीवे कर्ये कराव्यो करता अनुमोद्यो ते मने करि वचने करि कायाये करि श्रीप्रभुजीनी साखे गुरु साखे आत्म साखे मिछामिदुक्कडं ९ हवे दसमो पापस्थान रागप्रीत परिणाम वाल्हारसे जीव पोताने विषे पोषणीये लौकिक तथा लोकोत्तरथी द्रव्य तथा भावथी ते राग परणति अनंती आत्माथी उपनी अन्य द्रव्यने विषे रागनी रीजते माहारे जीवे करी
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गुणठाणाअधिकार.
करावी करतां अनुमोदि ते सर्व मने करी वचने कायाए करी श्रीअरिहंतनी साखे गुरुनी साखे मिछामिदुक्कडं १० हवे अग्यारमो पापस्थानक द्वेष अप्रीति परिणाम जीव तथा अजीव उपर पोतानी विषयादि इष्टताये अपूरातां जे असूहामणां ते लौकिक उपर द्वेषः तथा लोकोत्तर उपर द्वेष जे कर्यों होवे कराव्यो होवे करताप्रत्ये अनुमोद्यो होवे ते मने वचने कायाये करी ते श्रीसर्वजनी साखे गुरु साखे मिछामिदुक्कडं ११ हवे बारमो पापस्थान कलह विढवाड कोईथी द्रव्य वासते जस वडाई वासते आक्रोश कुवचनादिक करवा तथा धर्म मध्येनामार्ग वासते कुयुक्ति पोतानो मत थापवाने जे कलह करवे प्रशस्त करतां अप्रशस्त थयु होवे ते सर्व मने वचने कायाए करी कर्यु कराव्युं अनुमोद्यं ते देवसाखे गुरुसाखे आत्मसारखे मिच्छामिदुक्कडं १२ तथा तेरमो पापस्थान अभ्याख्यान कुडोआल देवोद्वेषे तथा हास्ये गुणीना गुण ओलववा, आगलाने सहसाकारे हिणो वचन कहेवो तथा वस्तुगते लोपीने फरकार कखो ते लौकिक अन्यजीवने संसारी रीते लोकोत्तर अरिहंत सिझ आचार्य उपाध्याय साधु साधर्मिक देशविरति समकिती तेहनी औदयि चाल देखी कलंक देवो ते अभ्याख्यान कर्या होवे कराव्या होवे करतां अनुमोद्या होवे ते मने वचने कायाए करी श्रीप्रभुजीनीसाखे गुरुसाखे आत्मसाखे मिच्छामिदुक्कडं १३ हवे चउदमो पापस्थान परपरिवाद पारकी निंद्या ते द्वेषे पारका अवगुण कह्या, कोइना अपजस वासती पारकी कुथली करी अथवा सामा मनुषने खिसाणो पाडवा वासते जे निंद्या करी ते मध्ये लौकिक ते जे संसारी जीवनी लोकोत्तर गुणी जैनमार्ग अवलंबतां मार्गानुसारिथी मांडी सिद्धभगवान लगे जे अवर्णवाद
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बोलवो ते बोल्यो होवे बोलाव्यो होवे बोलताने अनुमोद्यो होवे ते मन वचन काया करीने श्रीप्रभुजीनी साखे गुरु साखे आत्म साखे मिछामिदुक्कडं १४ पन्नरमो पापस्थान रति तथा अरति उपजे असाता दुःखवियोग हानि प्रमुख उपजे ने अरति आकुलता किहांइ सुहाय नही ते अरति लौकिक विषेनी ऊणी असुहामणे तथा लोकोत्तर आगम सुणतां देवयात्राये तप सामायकपोसह भगवो प्रमुख ते मध्ये अरति करि होवे तथा रति, इंद्री विषे - मध्येरीझ सुहामण रक्तता विश्राम ते रति लौकिक तथा लोकोत्तर चैत्य पुस्तकादिकनी शुद्धता देखीने जे इंद्री विषे रीझ पांमे ते रीझ ए नवां कर्म बांधवाने आकरिचिकणता जे माहरे जीवे करी, करावी, करतां अनुमोदी ते मने वचने का - या करी श्री परमात्मानी साखे गुरुनी साखे आत्म साखे मिछामिदुक्क १५ दवे सोलमो पापस्थान पैशुन्य पारकी चाडी करवी ते जे द्वेषे थाये आगल्या जीवनेकष्ट असातानो हेतु राजा तथा आचार्यादिक अधिक आगले तेहना छता अथवा अछता दोष कही तेहनो आश्रय भांजवो ते पैशुन्य कहिये ते जे माहारे जीवे करचो कराव्यो करतां अनुमोद्यो मनेवचने कायाए करी श्रीप्रभुजीनी साखे, आत्मसाखे गुरुसाखे मिछामिदुक्कडं १६ हवे सत्तरमो पापस्थान माया मृषा कपटे परने ठगवा वास्ते मितुं बोले, कोइ कपटलिंग बगलानी पेरे देखाडीने गुणी नहि ने गुणी रीते वंदाववो, पूजावको मनाववो कराववो अथवा लौकिक वचने व्यापार प्रमुख मध्ये कपटे मृषा बोले तथा धर्मचाले जैनागम मध्ये कपट रीते प्रवृत्ति करवी ते लिंगी जीव प्रमुख करवां ते जे माहारे जीवे करयां कराव्यां करतां अनुमोद्या ते मने वचने कायाए करी श्रीप्रभुजीनी साखे
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गुरु साखे आत्म साखे मिछामिदुक्कडं १७ हवे अढारमो पापस्थान मिथ्यात्व जे कुदेव विषयी कर्माधीन परग्रहता पुन्यप्रकृति भोगि तेहने देव माने, कुगुरु चारित्रधर्म रहित जे अन्य लिंगी तथा स्वलिंगी गुणभ्रष्ट परगृहनो लोभी अढार पापस्थान भरया ते गुरु करी माने, धर्म ययार्थ आत्मपरणति विना अथवा तेहना साधन विना धर्म माने तथा जीवादिक नव तत्त्व जिम वस्तुधर्मे वस्तुपणे पोतानी परगति छे षद्रव्ये जिम पोतानी परणति गुणपर्याय स्वभाव स्याद्वाद रीते जिम छे तिम न सद्दहे कल्पित रीते सद्दहे तेने मिथ्यात्व कहे छे, तेहना मूल भेद ५ अभिग्रहमिथ्यात्व खोटोकदाग्रह झाल्यो मूंके नहि १ अनभिग्रह मिथ्यात्व गुणअवगुणना परख्या विना सर्व सरिखा माने २ अभिनिवेश मिथ्यात्व जाणीने खोटो कदाग्रह खेंचे ३ संशयमिथ्यात्व जे सर्व संशय मध्ये रहे ४ अनाभोग मिथ्यात्व जे कांइ जाणे नहि तथा साध्य साधननिमित्त तथा उपादान उत्सर्ग अपवाद विपर्यास रीते करि एहवी अशुद्ध सद्दहणा जे वेदांतादिकनी ते सर्व मिथ्यात्व जाणवो, ते जे सेव्यो होवे, सेवाव्यो होवे सेवतां अनुमोद्यो होवे मने वचने कायाए करीने ते श्रीप्रभुजीनी साखे गुरुसाखे आत्मसाखे मिच्छामि दुक्कडं, ते मिथ्यात्व जीवने महादुःखकारी छे, अनादि संसारनो बीज छे, लोकोत्तर श्रीजिनेंद्रनो कयो शुद्धमार्ग जीव पामे नही ते मिथ्यात्व महापापस्थान छे ते थकां धर्म करणी पिण साधक न थाये ते माटे मिथ्यात्वनो पश्चात्ताप घणो करवो ते मिथ्यात्व टलतो नथी ते जे पूर्व जीवे गुणीनी आशातना तथा गुणनो अनादर कर्यों छे ते महागुणी अरिहंत देव तेहनी भक्तिने काजे उत्तम भव्यजीवे जे धनादिक रह्यो थको
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गुणठाणाअधिकार.
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पोताना आत्माने तथा अन्य संसारी जीवने सिण (स्नेह) सरागता, परिग्रहता हिंसादिकनो हेतु थाये तिणे गुणीनी भक्ति जोडतो निरधिकरणी थाये ते माटे जे अरिहंतनी भक्ति कारजे कों जे धनादिक ते देवको कहिये ते जे खायो होवे अथवा पोते विणसाड्यो होवे अथवा उवेख्यो होवे ते सर्व देवकाना दूषण थयो ते माटे देवका दोषनी आलोषणा करवी ते लखीये छे जे माह्यरे जीवे एकेंद्री पृथवीकायपणे जिनबिंबादिकनी आसातना करी अथवा पृथवीकायपणे मूक्या जे शरीर तेहथी जे गुणी अथवा गुणीनी थापना चैत्यादिक तेहने व्याघात थयो तथा अपकायपणे पाणिमे चैत्य वहराव्या पड्या जिन बिंब वहाव्या तथा अग्निकायपणे जे चैत्यबिंबादिक बाल्या होवे, तथा वायुकायपणे चैत्य पड्यो होवे तथा वनस्पतिकायपणे जे चैत्य मध्ये रुखडा झाड खापणे उगीने चैत्य पड्या होवे, त्रसकायपणे चैत्यमध्ये मालादिक करी रह्या हवे पंखीने भवे चैत्य तथा जिनबिंब उपर बेसी असमंजस आचरण करयां होवे, तथा देवकाव्य मनुष्यपणे जाणि तथा जाण्या विना खाधा होवे अथवा अवधि वावर्या होवे तथा देवका उपर अन्याय हुंकम कर्या होवे, अथवा देवकी वस्तु वावरीने पोताना यश बोलाव्या होवे, देवका दोकडा व्याजे राखे थोडो व्याज भरी आप्यो होवे अने घणो लाभ लीयो होवे, तथा बीजो पण देवथी इंद्री सुख यशवडाई प्रमुख जे करी होवे तथा अरिहंत देव प्रते सांसारिक कामे मान्या ईछा होवे ते मने वचने कायाए करी मिछामिदुक्कडं. हिवे माहारे ए कार्य अशुद्धाचरणरूप न करवू आज पछी माहारो आत्मा अनंतगुणमयी प्रगट करवानी रुचि करवी श्रीअरिहंतनो को मार्ग तहत्त करी सद्दहवो,
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१०२०
गुणठाणाअधिकार.
अन्य सर्व मिथ्या, श्रीवीतरागे कह्यो निग्रंथे आचर्यों समकिती जीवे सदह्यो श्रीगणधर देवे आगम मध्ये गुंथ्यो शुद्ध धर्म माहरो तथा सर्व जीवनो हित छे ते माहारे प्रमाण ते सद्दहवो. ते जाणवो ते आदरवो ते नीपजाववो. जे समये समये गुणस्थान चढी कर्मक्षय करी संलेशी अंते पोतानी सिद्ध संपदा प्रगट थास्ये ते समयसार मानवो अने जेने ए मारगनी परतीत प्रगटी तेने शरणे रहेवो तथा साध्य शुद्धसत्ता साधन गुणठाणे चढी ते रत्नत्रयी परणमवी ए मार्ग माहरो सदा अविहड होज्यो इति ॥
॥ दूहा ॥ परम अध्यात्मने लखे, सद्गुरुकेरे संग; तिणकुं भव सफलो होवे, अविहड प्रगटे रंग. १ धर्मध्यानको हेत यह, शिव साधनको खेत; ऐसो अवसर कब मिले, चेत सके तो चेत. २ वक्ता श्रोता सम मिले, प्रगटे निजगुणरूप; अक्षय खजानो ज्ञानको, तीन भूवनको भूप. ३ एह पत्र अनुपहे, समझे जे चित्तलाय; देवचंद्र कवि इंम कहे, निज आतम थिर थाय. ४
इति अढार पापस्थान जाणवा. सारु. हवे छठो गुणठाणो प्रमत्त साधु एहवे नामे कहीये जे प्रत्याख्यानी चोकडीनो उदय टल्यो सर्व विरति प्रगटी, संयम साधन माटे पौद्गलिक भावे ग्रहेपण पुद्गलने भोगिपणे पुद्गलीक थाय नही. स्वरूपरमणी आत्मधर्म थिरता रुप सर्वपरभाव उपर अग्राहकतारूप चारित्रधर्म प्रगट्यो छे ते साधु उत्सर्ग अपवाद मार्गेपंचमहाव्रत पाले छे, तिहां द्रव्यभाव पंच महावत सहित पांच समिति तीनगुपतिना दश
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गुणठाणाअधिकार.
१०२१
यतिना धर्मना पात्रथका निराशंसी एक आत्मा निरमल करवाना उद्यमथकी विचरे ते पंच महाव्रत तिहां पहेलो, महाव्रत सव्वाओपाणाईवाया ओविरमणं" विवहारे छकायना जीवना द्रव्य प्राण १० हणे नही हणावे नहीं हणताने अनुमोदे नही मन वचन कायाए करीने निश्चयथी ज्ञानदर्शन चारित्र सुख प्रमुख भावप्राण पोताना परना कर्म आवरणपणे हणे नहि, हणावे नहि, हणतां अनुमोद्ये नहीं, तथा बीजे महात्रते, सव्वाओ मोसा वायाओ वेरमणं द्रव्यत कोधि मानने भये लोभी सूक्ष्मबादर लौकिक तथा लोकोत्तर जूनुं पोते बोले नही बोलावे नहि बोलता अनुमोद्ये नहि मन वचन कायाए करी भावथी सर्व द्रव्य पर्यायनो यथार्थ जाणवो, सत्य भासनरूप ज्ञायकता शक्ति साधिं ज्ञान सत्यपणे पाले तथा श्री वीतरागना आगम प्रमाणे अर्थ भाव छे तेहनी सझाय करि जेहथी पोताना ज्ञानदर्शन चारित्र निर्मल थाये ते भाषा बोले. त्रीजो महात्रत सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं जे द्रव्य ते त्रणतुस मात्र पण अण दीधो लेवे नही, लेवरावे नही, जे लेवे तेहने सारो कहे नही, मने वचने काया करीने लौकिक चोरी जे संसारी जीवनी वस्तु चोरी लेवी, लोकोत्तर चोरी जे तीर्थकर आणमे जे न लेवानो को ते लेवो ते चोरी न करे, भावथी आत्मानी ग्राहकता शक्ति ते स्वरूप ग्रहणरूप कार्यना कर्ता छे ते अनादिनी परभाव ग्राहकता करी रघं छे ते निवारीने स्वरूप ग्राहकपणे परणमावे, ते अदत्तादान विमरणत्रत थयो ते अदत्तादान चार भेदे छे ते तीर्थंकर अदत्तजे तीर्थकरनी आणामें न लेवो को सर्व परभाव ते लेवे १ बीजो गुरुअदत्त जे गुरु परंपरा विनामूत्र अर्थ कहेवा २ तीजो स्वामी अदत्त जे वस्तुंनो जे
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१०२२
गुणठाणाअधिकार.
धणी होवे तेहनी अण दीधी जे वस्तु लेवी ते ३ चोथु जीव अदत्त जे कोइ जीवे एम कयो नथी जे माहरा प्राणहणो अने पोतानेइंद्रीसवाद माटे परजीवना प्राणहणे ते जीव अदत्त ४ तथा प्रशस्त काम करतां कोइ जीवना प्राणघात थाये ते श्रीभगवंते हींसा कही नथी, ते विनय तथा वैयावच्च मांगण्यु छे ए द्रव्यभाव अदत्तादान त्रिविधि त्रिविधिपणे होवे. चोथे महावते सव्वाओ मेहूणाओ वेरमणं जे द्रव्यथी पांच इंद्रिना त्रेवीस विषे सेवे नहीं, सेवतां अनुमोदे नहीं, मनुष्य तिर्यच देवताना विषयनी वांछा न करे, न करावे, अनुमोदे नही, भावथी जे आत्मा द्रव्य आत्म गुणनो भोगी छे ते पण करम करवा माटे परभावने भोगवे ते भाव मैथुन छे, ते सर्व परभाव भोगीपणे भोगवे नहीं, ते आत्मानिः कर्मा करवा माटे परभाव साधनपणे ग्रहे पण अभोग्य अग्राह्यपणे अरमणिक माने जे माहरो आत्मा आत्मानंदनो भोगी ते परभाव अनंत जीवे अनंतवार लेइ भोगवीने वम्यो ते मने ग्रहवो भोगववो घटे नही ए अनंत जीवे अनंतीवार भोगवीजे अँठ जडचल तेहने हुँ भोगवू नहीं इम सर्व परभाव भोगीपणो तजी स्वभाव भोक्तापणे रहेवो ते द्रव्यथी भैथुनना कारणरूपी खंध तथा रूपी खंध मिल्या जीवनो, खेत्रथी भैथुन तीन लोकने विषे इंद्रीना सवादनी ईच्छा, कालथी मैथुन दिवस तथा रात्री, भावथी मैथुन रागथी तथा द्वेषयी ते सर्वथी सेववो नहीं तेहनी वाड नवे पालवी १ वाडे जे थानके स्त्री पशु पंडक रहे ते थानके ब्रह्मचारी रात्रीये रहेवू नहीं. बीजी वाडे स्त्री साथे हासि तथा कामकथा करवी नहीं, बीजी वाडे जे पीठ पाटले स्त्री बेठी होये ते पाटले बे घडी लगे ब्रह्मचारी पुरुषे बेसवू नहीं, स्त्रीये
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गुणठाणाअधिकार.
१०२३
तीन पहोर लगे बेसवुं नहीं, चोथी वाडे स्त्रीनं रूप नजर जोडीने जो नहीं. पांचमी वाडे जिहां स्त्री भरतार काम भोग भोगवता होवे ते भीतने अंतरे ब्रह्मचारीये राते रहें नहीं, तेहना शब्द काने पडवा देवा नहीं. छठ्ठी वाडे गृहस्थपणे जे भोग भोगव्या ते संभारखा नहीं. सातमी वाडे सरस आहार जेहथी काम दीपे ते आहार करवो नहीं, आठमी वाडे अतिमात्राए आहार करवो नहीं, नवमी वाडे शरीर सिणगार लूगडाना तथा घरेणानो करवो नहीं, सनान उगटणा न करवा, एक्ली स्त्री साथे एकलं वाटे चालवु नहीं, तथा नानुं बालक तथा बालिकाथी एक शय्याए सुबुं नहीं, सात वरस पछी, पांचमे महात्रते सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं जे द्रव्यथी परिग्रह सूक्ष्मवादर राखे नहीं रखावे नहीं राखे तेहने अनुमोदे नही जे संयम पाळवा माटे सुखे सिझाय थाये
माटे उपगरण १४ राखे, कारणे अधिको जोइए तो गृहस्थनाथका पाडेरुं वावरे एथि थिरकल्पीनो विवहार छे, जिनकल्पी कोई उपगरण न राखे, अपवादे दस उपगरण राखे, बार कषाय उदय टल्या तेहने छठो गुणठाणो कहीये साधु कहीये. पण ५ परमाद सेवे निद्रा १ विकथा २ आहार ३ अल्पविषय ४ मानादिक ५ ए अल्प सेवे अनाभोगे जाणे, सेवे नहीं, ए छठ्ठा गुणठाणानी स्थिती जघन्ये एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूत ए गुणठाणे तीन चारित्र, सामायक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि ए तीन चारित्र छे. तेहनो स्वरूप जे परभाव परत्यागे स्वरूप एकत्वते चारित्र कहीये, ते मध्ये जे तजवा योग्य भाव तजे ते द्वेष विना अने रत्नत्रयीज आत्मधर्म ते ग्रहे स्वधर्म माटे पण लौकिकादिक इष्टता राग विना एहवो समपरिणाम ते
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१०२४
गुणठाणाअधिकार.
rand
सामायक कहींए, तथा जे सामायक मध्ये संज्वलनना तीवोदये जे आकरा अतिचारे अथवा बार कषायने उदये असंजमपरिणाम फरसे जे पूर्व पर्याय छेदीने अभिनव निर्मल पर्यायनो अंगीकार करखो ते छेदोपस्थापनीय कहीये, अने छेदोपस्थापनीयचारित्र भरत ५ तथा ऐखत ५ ते मध्ये प्रथम चरम तीर्थकरना साधुजीने होवे तथा तीर्थकर तथा गणधरजीना शिष्य नव पूर्वथी उपरांत श्रुतवंत मध्य युवानवयि प्रथम संवयणे अढार मासनो उग्रतप ते अप्रमादी निद्रा रहित नवजणा वनवासी थका जे तप करे ते परिहार विशुद्ध चारित्र कहिजे, दशमे गुणठाणे शुक्लध्यान सुक्ष्म लोभनो उदय छे ते सूक्ष्म संपराय चारित्र कहिजे, तथा सर्वथा कषायनो उदय नथी ते यथाख्यात चारित्र कहीये ते मध्ये ११ मे गुणठाणे उपशांत यथाख्यात छे १२, १३, १४ मे गुणठाणे क्षायिक यथाख्यात छे, हवे सातमो अप्रमत्त गुणठाणो लिखीये छे, छठे गुणठाणे जे भाव साधुजीना कह्या ते सर्व होवे पण पांच प्रमाद न होवे, ते माटे अप्रमाद ए छठे गुणठाणे वरततो साधुजन शासनने कामे लब्धि फोर वे पण सातमे गुणठाणे वरततो साधु लब्धि न फोरवे, एहनी स्थिति जघन्य एक समे उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तनी छे. छठे तथा सातमे गुणठामे मिलीने साधु देशे उणी पूर्व कोडी रहे. श्री भगवती सूत्रे ए बे गुणठाणानी देशे उणी पूर्व कोडी स्थिति जूदी कही छ. ते व्यवहार नये छे समे तथा बे समे बच्चे गुणठाणो पलटे ते गवेख्यो नथी तेमाटे अंतर्मुहूर्तनी स्थिति कही. छठे बे गुणठाणे सामायक तथा छेदोपस्थापनीय तथा परिहार विशुद्धि चारित्र छे, तथा सातमे गुणठाणे साधु लब्धि फोरवे नहीं अने छठ्ठा गुणठाणाना सावु जिनशासनने काजे लब्धि
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फोरवे तेनुं साधुपणुं जाय नहीं ७ आठमो अपूर्वकरण गुणठाणो जे जीव भावनाभावतो आत्मानो स्वरूप अनंतज्ञानमयी, अनंतदर्शनमयी, अनंतचारित्रमयी, अनंतदानमयी, अनंतलाभमयी, अनंतभोगमयी, अनंतउपभोगमयी, अनंतवीर्यमयी, अनंतअन्याबाधसुखमयी, परमआनंदमयी, अरूपी, अवेदी, अकषाई, अलेसी, अशरीरी, अनाहारी, सर्वआनंदरूप माहरो धर्म छे ए शरीर, आहारतेढुनहीं, एहवी भावनामांहे परणम्यो जीव शुक्लध्याननो पेहलो पायो ध्यावे, इहां पांच अपूर्वकरणकरे पूर्वे किंवारे नकरयां होय ते करे तेहना नाम पहेलो अपूर्वकरण थितिघात जे जीव कने असंख्याता थित स्कंधना थोकडा हता ते करमथिति सघली खपावी अथवा उपशमावी बीजो अपूर्वसंघात जे करमना रस चीकणास हती ते खपावी पातलं करवू वीजो अपूर्वगुण श्रेणि जे जीवने सत्तामांहे करमदल हता ते सर वे विखेरी नाखवा, चोथो अपूर्वगुणसंक्रम आत्माना गुणमे रमवो पांचमो अपूर्व जे नवोस्थितिबंध न करखो एहवा परिणामथी कषाय खपावीने आतमा शीतल परिणामे परणम्यो करम निजरा करे ते ए गुणठाणे जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतमुहूर्तनी स्थिति छे, ए गुणठाणे चारित्र सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय ए बे छे ८ नवमो गुणठाणो अनिवृत्तिबादर छे ते शुक्ल ध्याननो पहेलो पायो तेथी आवे, ए गुणठाणे वर्तता जीव एक अध्यवसाये जेटला होवे तेटला सर्वनो एक सरखो परिणाम एक सरखो संवर, एकसरखी निर्जरा, एहने सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय ए बे चारित्र होवे, एहने अंते तीन वेद जाये तथा तीन कषाय संजलनो क्रोधमान माया लोभ जाये ए गुणटाणे संख्याता जीव होये ए गुणठाणानी स्थिति जघन्य
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गुणटाणाअधिकार,
एक समय उत्कृष्ट अंर्तमुहूर्त्तनी छे. ९ दशमो गुणठाणो सूक्ष्म संपराय इहां सूक्ष्म संजलनो लोभ उदय होवे. इहां बे जातना जीव पामीये, उपशम श्रेणि तथा क्षपक श्रेणि करमने उपशमावे द्वेषखपावतो जाए क्षपकश्रेणि कर्म मोहनीने खपावे, ए गुणठाणे एक सूक्ष्म संपराय चारित्र होवे, ध्यान शुक्ल होवे परिणाम निरमल होवे, ते अवेदी छे एहनी स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंर्तमुहूर्त्तनी छे. १० इग्यारमो गुणठाणो उपशांतमोह तिहां जे जीव उपशमश्रेणि आठ्ठमेळतो बोलना परणामशांत मोह कर्मनी प्रकृतिउपशमावतो जाय, तेहनो उदारथीज उपशमावानो छे ते नवमे आवी मोहप्रकृति उपशमावी दशमे लोभ उपशमावीने कषायना उदयरहीत छे ते इग्यारमे आवे ते यथाख्यात चारित्र पामे, एहने चोवीस संपरायकी क्रिया उतरी एकइरियावहिकी क्रिया रहे. प्रकृति तथा परदेश ए बे बंध रह्या छे हेतु न बांछे, बंब एक सातावे दनीनो छे, ध्यान शुक्छे छ गुणठाणे जे जीव मरण पाम्या पछी चोथे गुणठाणे आवे ते देवता लवसत्तमीया थाए, एकावतारी थाए, अथवा कोइक जीव अगीयारमे गुणठाणे उपशांत जहा ने जई पाछो पडे ते इग्यारमाथी दशमे आवे दशमाथी नवमे आवे नवमेश्री आटमे आवे, आटमेथी सानमे आवे सातमेथी ने आवे, इहांयी पालो पडे नचढे तो पालो पांच गुणठाणे आवे, पांचमाथी चोथे आवे, जोक्षायक समकिती होए तो चोथे गुणठाणे के अने उपशम समकिती होए तो चोथाथी पडी बीजे सास्वादन गुणठाणे थईने पहेले मिथ्यात्व गुणठाणे आवे, कोई एक जीव अंर्तमुह रहे, कोइक जीव देश ओगोअर्ध पल परावर्त्त मिथ्यात्वीपणे रहे. पछे
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गुणठाणाअधिकार.
समकित पामे, एअगीयारमो गुणठाणो एक जीव च्यारवार पामे, एक जीव एकभवमांहि बेवार पामे, एहनी स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंर्तमुहर्तनी छे. एअगीयारमो, हवे बारमो क्षीणमोह गुणठाणो ते जे जीव आठमा गुणठाणायी कर्म खपावतो तीव्र वीरज निरमल उपयोग शुद्ध शुक्ल ध्यानने बले नवमे दशमे गुणठाणे मोहनी कर्म खपावी बारमे गुणठाणे आवे, एहशुद्ध शुक्ल ध्याननो बीजो पायो एकत्ववितर्क अप्रविचार ध्यावे, एहथी आयु बले घनघाती तीन कर्म ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय अंतराय खपावे, एहनी स्थिति अंर्तमुहूर्तनी छे. १२ तेरमो गुणठाणो सयोगी केवली जे जीव बारमाने अंते ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय, ए खपे केवलज्ञान केवलदर्शन प्रगटे, लोक अलोकना सर्व भाव अतीतकाल अनागतकाल वरतमानकाल सर्व प्रत्यक्ष आत्मबले इन्द्रिय विना जाणे देखे, इहां जे अंतगड केवली होवे ते केवली समुदवात करीने मोक्ष जाय अने जे केवलीनो आऊखो वणो होवे ते अनेक जीवने उपगार करतां अनेकदेशना देता विचरे देशे उणीपूर्व कोडी लगे विचरे तथा जे तीर्थंकरदेव केवलीपणे विचरे ते चोत्रीश अतिशय तथा आठ प्रातिहारज विराजमान थका नवा सोनाना कमले पग थापता चाले, योजनप्रमाण मांडलेसमोसरणे सोनाने सिंहासने तीन छत्र माथे वीराजता बे पासे चामरनी जोड विझता हजार धजा इंद्रधजा लहेकता देशना देता जवन्य बहोतेर वरसने आऊखे उत्कृष्टे चौरासी लाख पूरवने आऊखे विचरे, अनेक जीवने धरम उपदेश दे, गणधर थापना करे, साधु साध्वी श्रावक श्राविका ए च्यार संव थापे, द्वादशांगी सिद्धांत प्ररूपे, अने सामान्य केवलीने
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गुणठाणाअधिकार.
अतीशय नहोवे ते छेडे आवरजीकरण करे पछी जो आऊखो अने बीजा करम सरखा होवे तो केवली समुद्घात न करे, अने जो आऊखेथी करम घणा होवे तो केवली समुद्घात करे तेहने आठ समयलागे. ए तेरमा गुणठाणानी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूतनी छे उत्कृष्टे देशे उणीपूर्व कोडी वर्षनी छे १३ चउदमे गुणठाणे अयोगी केवली ते जे जीव तेरमे गुणठाणे जोगरोध करवा मांडे, सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाते शुक्ल ध्याननो बीजो पायो ध्यावतो ते चउदमे गुणठाणे चढे तिहां प्रथमथी बादर मनोजोग रोके पछी बादर वचनजोग रोके पछी बादर कायाजोग रोके पछी मूक्ष्म मनोयोग रोके पछी सूक्ष्म वचनजोग रोके पछी सूक्ष्म कायाजोग रोके शरीररहित थाए जेटलो देहमान होवे जघन्य बे हाथनो उत्कृष्टो पांचसे धनुषनो बीजे भागे घटाडे, तेवारे जघन्य बत्रीस आंगुलनी उत्कृष्ट तीनसेतेत्रीस धनुष बत्रीस आंगुलनी अवगाहना रहे, तेवारे आत्मा अयोगी अक्रिय, अलेसी, अनाहारी, अशरीरी, शुक्ल ध्याननो चोथो पायो थईने अवाती करम च्यार, वेदनीकर्म १ आउखोकर्म २ नामकर्म ३ गोत्रकर्म ४ नो क्षय करीने मोक्ष जाय ॥ इतिश्री चउदमुं गुणस्थानकं संपूर्णम् ॥
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চ বম
१
२
६
श्रीमद् देवचन्द्र प्रथमभागनुं अशुद्धि शुद्धिपत्रक.
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२५
१
१४
१८
१
१०
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१९
२५
२५
२५
२५
२९ १४
३३
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अशुद्धि.
सागरोपग
जीवाने
वीजुं
पहेलो
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१७
१९
२०
२०
२१
२४
२४
९
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प्रकृति
२५
१५
सुतत्यो
१५ निजुत्ति
प्रमाणखद्य
शिष्यं
संगृह
द्वयणुक
निश्रय
अनगत
घोदा
नाणीहि
विना
१९ सुतत्थो
२३
सुतत्थो
संसारे
भांग
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शुद्धि.
सागरोपम
जीवोने
बीजुं
पहेला
अने
प्रमाणखंद्य
शिष्य
संग्रह
दूयणुक
निश्चय
अनागत
घोडा
नाणीहिं
विणा
प्रवृत्ति
- सुत्तत्थो
निज्जुत्ति
सुत्तत्थो
सुत्तत्थो
संथारे
भांगो
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शुद्धि.
बीजो
३७
२४
२४
२५ १८
(२) अशुद्धि. बीजी धर्मास्तिकानो धर्मास्किाय इक्विक्वमि मुहूर्त्तमा कहेवू सव्वगुण निश्चथी व्रतत्याग ढालीने अनमी क्रियानुवृत्ति राखवो उवराइ वन्हिदिशा उत्तराध्यन निरवेद्य परच्छ अनेअने यणाहा आराधक सहा प्रमुए
धर्मास्तिकायनो धर्मास्तिकाय इक्किक्कम्मि मुहूर्त कहेवो सव्वगुणा निश्चयथी त्यागवत टालीने अनामी क्रियानिवृत्ति राखवी उववाह वन्हिदसा उत्तराध्ययन निर्वेद परमत्थ अने अणाहा आचार सहाव
६३ ६७
५ १२
६८
१३
प्रमुखे
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पृ.
पं.
* + 5582200022
-MROAvors,
नयचक्र. अशुद्धि. अव्यावाबाधा वर्णादि धर्मना तथाप्रवृत्ति मतांत्रीओ भरणादिक प्रतिप्रदेशे तदन्यं अत्यंत विसरी परिणामिक क्रियारित्वं तिरोभाव्यभाव सत्वं उत्पत्ति इत्येव . अस्त्वि परिणमयी
शुद्धि. अव्याबाधा वरणादि धर्मनी यथाप्रवृत्ति मतांतरीओ आभरणादिक प्रतिप्रदेश तदन्त्य अन्त्य विखरी पारिणामिक क्रियाकारित्वं तिरोभावाभाव सत्त्वं उप्पत्ति
९७७ १०० २ १०० १०० २०
इत्येवं
momoranormom
अस्तित्व परिणमइ
१०३
2022
भवेन
कुंभ
१०३ १०५ १०५
भयेन कुंभः द्वितीयो
द्वितियो
१६
एकैकन
एकैकेन
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•
(४) अशुद्धि. पर्यायसत्वेन संकेतिकेन
शुद्धि.
م م
पर्यायासत्वेन सांकेतिकेन
१०७
م
११०
१९
१११
م س
१११
११२
م
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ه م
थर्का आण्या गुपर्याय तृतयो स्याद्राद्ध प्रदेशादिनां कायं उत्पादव्यय घटापटादि घटा दिष्ववि
थकां आण्यु गुणपर्याय तृतीयो स्याद्वाद् प्रदेशादीनां काय उत्पाद घरपटादि
११८ ११९७ १२० २२ १२३ ११ " १४
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ਬਦ
संयु
ه م
१२५ १२६ १२९ १३० १३१
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दिष्वपि संयुक्त उत्पादः गुणिलक्ष्यः
सौने
९ ९ १२
उत्पाद गुणीलक्ष सोने उथ्थत ग्रकाश छिन्न
उत्थित प्रकाश च्छिन्न पुरण योग्यतारुप
१३५ १३६ १३७
२५ १२
योग्यरुप कर्म ।
धर्म
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शुद्धि.
१३९ १४२
सर्वैरेवा
अशुद्धि. सवैरवा पूर्ण
१० १०
पुरण
२०
१४४ १४५
पटगुण
षड्गुण नियुत्ति निज्जुत्ति जाणिज्झा जाणिज्जा निरक्खेवनिरिखवे निरकेवंनिरिकवे पज्झाया पज्जाया त्यर्थः त्यर्थ ज्ञानी
ज्ञान वर्तन
वर्तमान
१४६
१४७
१५१
तेम
१५२
वस्तू
जातः
, १५३
२१ १२
विषे लौकिका
वस्तु जाताः विष लोकिका त्रेधा द्वादशसार ऋजु अवक्रम
विधा
.
द्वादशार
उज्जु
6. etit : n
८. com
वक
अवक्र वक्क तएव मात्मीय
तदेव मात्मीय ऋजु
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पृ.
१५८
35
34
34
१६२
336
१६३
113
१६५
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१६६
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353
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39
पं.
१८५ १८६.
९
१२
१३
१७
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१०
११
१३
१४
१२
१७८ २०
१८१
१८३
२१
२०
६
११
२१
२५
१८
१०
२१
२२
२४
४
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( ६ )
अशुद्धि.
तस्यार्जु
गाही
ति
ऋजु
इन्द्रन
शकन
व्यंज्यते
वाच्यर्नोथन
ऋजू
देशा
भेको
पणे
दिनयांतर
प्रवृति
लंबि
सद्दश्या
दश
पण
निज्झरा
अयोगी
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शुद्धि.
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तस्यर्जु
गाही
त्ति
ऋजु
इन्दन
शकन
व्यज्यते
वाच्येनार्थेन
檢
दंशा
मेकः
पणो
दीन्यवांतर
प्रवृत्ति
लंबी
साहश्या
दस
तथा
निज्जरा
अयोगि नांबाधनिरुपाधिनि-नाबाधनिरुपाधिनि
धिरूपं चरित्रानयाशा- रूपचरितानायासा
पयडिआ
उव्ववाइ
पइठ्ठिआ उववाह
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पृ.
""
""
१८८
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ܕ,
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२००
१८
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२१
V
२०१
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२०६
२
२१३ २२
२१५
१५
6
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( ७ )
अशुद्धि.
वग्गो
तत्शिष्य
द्वादशसार
उवज्जाय
श्रीज्ञानसार.
उपेक्षते
शरी
समभिरुढेनः
एवंभूतेनः
समाधान
साधरुचिमतोः
स्थाप्य
द्रव्यं
न्नमयं
निक्षेपानां
तेज
चारित्रादिनां
प्राप्नोति
पूर्ण अगमनो
मम
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समभिरूढतः
एवंभूततः
समाधाय
साधन रुविनतो
संस्थाप्य
द्रव्ये आत्मानंतानंदसंप- आत्मानमनंतानं
दसंपन्नं
निक्षेपाणां
तेजो
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शुद्धि.
वग्ग
तच्छिष्य
द्वादशार
उवज्झाय
उपेक्ष्यते
शरीर
चारित्रादीनां
सुखं प्राप्नोति
पुरण
आगमतो
मम न
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पृ.
२१६
२१८
""
73
""
37
२२०
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२२१
२२३
31
२२९
२४२
२४३
""
२४६
पं.
१४
१
२५३
२५६
५
११
२१
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१३
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२३९
mr
८
२१
१२
૮
१
११
१९
६
20
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( ८ )
अशुद्धि.
ज्ञानपात्रः
द्रव्येन
असंगाहि इत्यादि
आश्रव
वर
अत
ज्योति
भिन्तं
हेत
तत्र
विष्टा
उपशांताद्वा
अध्यवसानानि
आगाबलेन
शुद्धात्मानंदने
परिष्ट
अस्व
अतीत
जइतव्यं
तां
मुद्यतां
भृंगो
स्वरुपं
द्वंद्वं
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शुद्धि.
ज्ञानपात्रं
द्रव्ये
आस्रव
नर
अतः
ज्योतिः
भिन्नं
हेतुः
ส
विष्टा
उपशान्ताद्धा अध्यवसायानि
आगालेन
शुद्धात्मनंदने
पटिष्ठ
अश्व
अनागत
जेतव्यं
स्तां
मूढतां
गंधासक्तो भृंगो
स्वरूपे
द्वंद्व
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२५७ २६१ २७३
१० २३
१८
अशुद्धि. सुगमा यशःनाम
आश्लेषेन चित्र: यावती एकादशमम मता भावाभिमि गुनित्वं
शुद्धि. सुगमा यशोनाम आश्लेषण चित्रैः यावत् एकादशम् वन्तः भावानि
२७८
"
२८४
मुनित्वं
तत्
२८५ २९६
२९७
स्तत् क→ धर्मादीनां तुलयानामपि ऽअनादिने चक्रमयी सैव ज्ञानाविष्ट
३०२
कर्ता धर्मादिनां तुलयानापि ऽअनादीन चक्रमाया तदेव ज्ञानाधिष्टः
१४
कृष्टा
२० ३१४ . . २०
निवृत्तः पंचदशमम् ज्वसनादि व्यवहार रोदयिक भयः
निवृत्तः पंचदशम् ध्वंसनादि व्यवहारे रौदयिक
३२३ ,
१५ २१
भय
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शुद्धि.
पृ. ३२५ ३२९
(१०)
अशुद्धि. निर्धार श्रितं
पं. २२
९ १८
निर्धारे
सृतं
भद्रः
भद्र
३३०
३
आत्मीय
.
महा
३३१ ३३२
३
30
आत्मी तहा कार्तस्वरद् अनवछिन्ना दीनतां ममात्मतः द्यौव्यात्व आत्य अयं हन्त्रया दुःखामां बाह भवन्ति
कात्तस्वरवद् अनवच्छिन्ना दीनता ममात्मनः प्रौव्यत्व आत्म अहं हन्ध्या दुःखानां
३३०
बहि
भवति
522 vMcM222
दग
१
मावर्दि
भावद्धि दष्टि
दृष्टि
मुनि
"
.
मुनिः योगिनो न प्रत्यक्षं माण
योगिन प्रत्यक्ष मान धर्म
३४६
३४७
३५१
१५
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२३ १८ २०
, ३५३
" ३५४ ३५५ ३५६
अशुद्धि. दिष्टता यस्मं भवांभोवौ व्याघातः तानिश यदौ विष कश्चिवन् सर्व विरितः लोकानुयायी णार्थिन स्तोका साक्षिकं
शुद्धि. द्विष्टता यस्य भवांभोधौ व्याघाताः तानिशं यथौ विषं कश्चिद्
सर्प
विरतः
22 2vror AM
लोकानुयायिना णार्थिनो स्तोकाः साक्षिकः धर्मों
धर्म
, ३६२
साधुः
साधु क्षयोपमो मार्गोपिदेशक परिग्रहावेशात् कथंभूतअनुभवः प्रयासा
३७३ २१ ३७४८
क्षयोपशमो. मार्गोपदेशकम् परिग्रहग्रहावेशात् कथंमूतोऽनुभवः प्रयासः सद्गुरु तत्व्याप्ति सर्वोत्तमों
360 ३८१. २४
तत्वयाप्ति सर्वोत्तमा
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ॐ
पृ.
३८२
३८४
35
३९७
४०७
१३
४१६ १२
४२२
૯
२२
31
४३०
४३५
४३९ ४४२
35
55
"3
56
315
""
पं.
१४
१४
२२
४५७
४.
१
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१६
१६
२२
४४४
२१
४५४ १२
२३
१५
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( १२ )
अशुद्धि.
कस्मात
ध्यायया
धैः
त्वोपयोगसाध्यं
परिणत
ज्ञानैवात्मा
भवतां
साधकः
गुरुगुणषत्रिंशिका.
भोजनका ति विणओ
ਰਂਤ
कुवंते
मेहं
रीइ
भायय
धिनूणं
प्यस्सावि
प्रभाववना
सूरिवराणां
देवनंदीथे
असमान
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शुद्धि.
कस्मात्
ध्याय्याया
सावधैः
त्वोपयोगः साध्यः
परिणतं
ज्ञानमेवात्मा
भूयास्व
साधकौ
भोजनजाति
विणए
चउ
कुव्वंते
मेहणं
राइ
भाय
वित्तूणं
अस्सावि
प्रभावना
सूरिवराणं
देवनंदीये
समान
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पृ. ४५८ ४५९
पं. २५ १७
अशुद्धिलेष्य एहकले रागदिक
शुद्धि. लेष एकले रागादिक
४६२ ४७०
कम
कर्म
काकताल.
काकाताली मय पवि १
'मद
५७२
पवित्र ३ च्यार
च्यार
सुषेय
सुध्येय
७३
१०
वले
चले
वटी
वली
आपण
४७५
२०
वैदिक
आपण वैदक बहुत तत्त्वातत्व
२२
बुहत तत्त्वतत्त्व सूषिम चोद समकितरै तीस अविधि
चोभेद समकितरो तीन अवधि दुरित वनमें मोहनीना
दुरति
वनमय मोहनीन मुष
४८६
९
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शुद्धि
१८ २५ २४
सुष जीवदया . मिथ्याग्रह मुखथी
अशुद्धि सुप जीपदया मिथ्याग्रथ सुषयी केर साने साझ ध्रम मुझाय षड्या मन वशील विंध्योजात भारण केकीर
स्त्रीने साधे
धर्म
२२
मुझाय खंड्या मानव शील. विंध्यो न जात वारण केकी
१०
५१४
१५
स्मरणिक आदेय छे . गंधषेमे सूद्रा
रमणिक .. आदे अछे. गंधप्रेमे
नवि
५२०८ ५२१ ३ ५२८ २०
नित तास उदयाचलि
नास
उदयावलि
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पृ.
५२९
५३९
१५
. ५४७
१६
५५१
१२
५६० १०
५६१
१६
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19
पं.
- ४
""
५७३
५७५
५७९
"
५६८
१
५६९
९
५७१ ११
५७२
१५
२४
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१३
१४
१०
४
१०
५८५ १६
५८९
१२
६०० ६०२
6
७
२२
www.kobatirth.org
( १५ )
अशुद्धि.
जीवे
शिशि
सथिर
बाबा रे
सवर
षोडश
व्यय
थानपात्र
गुणरागा
अलेष
वाय
निये
आदरे
घात
भडता
मनपर्य
कुभकरण
षष्ठमो
कर्मग्रन्थः
विरोप
उसन्न
उवगं
सस्थान
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शुद्धि
जावे
शशि
अथिर
वधारे
संवर
षोडशदळ
अव्यय
यानपाव
गुणखाण
अलष
काय
निचे
आहरे
थात
जडता
मनपर्यव
कुंभकरण
षः
विशेष
ओसन्न
वंग
संस्थान
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६२८ ६३२
(१६) अशुद्धि. नम्यो तीर्थकरने अपर्यावस्थामें मार्ण गाम कमुरल
शुद्धि. 'नम्या तीर्थंकर न अपर्याप्त अवस्थामें मार्गणामें कम्मुरल
६३४
६३९ ६४४ ६४६ ६४८
भय
मई
६४९
rurrrrrr-27
किहा जीवमें मार्गणा
किण्हा जीव मार्गणामें
तिरि
तिरि
८५८
असत्याअमृषा पहेली मनोयोग
ur
लद्धि
६८१
मध्यय नयामा
असत्यामृषा (सर्वत्र) पहेलो मनोयोगे लब्धि मध्यम नवमा चतुर्यः कर्मग्रन्थः समेतः समातः सदद्वारं
चतयों
20..
कर्मग्रन्थ
समेत
समातम् सद्वारं निदो अध्रुवोदयी. आवलीनी
७१.
२०
अब्रुवोदयी आवलिनो
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पृ.
૭૮
७३५
९
७५२ १०
१०
"
"
30
""
७८०
७८१
७९०
७९५
99
७६१ २३
७६३
१
७६७ १४
७६९
१६
७७२
७७४
७७५
13
૮૦
पं.
८१४ ន
१०
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१४
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२
७९८. ११
८०७
x m
१२
२१
८
२१
४
www.kobatirth.org
( १७ )
अशुद्धि.
पत्ते
अवुव
मोटा
न्हाना
प्रवरां
सत्रार्थ
श्वरान्
भवे
सेवम
विकल्य
कर्ण
निश्रय शुद्धोपयोगे
निश्चयनय
एटटे अगुद्धोपयोग विभाग
पुव्व
विषेशे
विषयाभिलाषी
पश्चशद्
ननामि
स्तोत
गर्वादेक
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शुद्धि
पज्जे
अध्रुव
मोटी
न्हानी
प्रवरा
सुकार्थ
धरात्
भव
सेवन
विकल्प
करण
निश्चय
अशुद्धोपयोगे
निश्चयनयथी
एटले
शुद्धोपयोग
विभाव
पु
विशेषे
विषयाभिलाषी
पञ्चाशड्
नमः मि
स्तोक गुर्वादिक
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पृ. ८१७
पं. २
(१८) अशुद्धि. वेद
वेदनीय परिसहोपनाणनाणं परिसहपन्नाअनाण
वेव
चेल
" my to your
राएं
कम्म
पिछइ
CY
मणि
२२ २४
पुरस्कारो य सम्मत्तं स्रष्टं पुरिससिहागुं पुरिससिंहाणं कम्म अवन्न
अवनं जीव
अजीव संमयोई समयोच्च सम्यक्त्वोपशमिकं सम्यक्त्वौपशमिकं
पिच्छ। गणि रयण वेअइट निर्जर
निर्जरा सव्वदाओ सव्वष्ठाओ देओनी देवोनी अत्येन्द्रि
अतीन्द्रिय अनावगाहि अनवगाही
व्यपणे सत्य असत्य स्वप्रदेश सप्रदेश
स्यगं वेयद
८४२
Mi Max 2
द्रव्ययणे
८४३
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पं.
१५
१६
९
९
२१
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२१
८६२ १९
८६४
३
पृ.
८४७
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33
33
"9
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33
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""
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17
=
35
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१७
२०
१९
દ
१८
२४
३
९
१६
१०
ܗ ܗ
om
११
१३
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( १९ )
अशुद्धि.
संस
उदद्रव
वत्थुगि
च्छछउभ
अट्टगं
जीवने
मिथ्यात्वनय
कसाय
अजियं
चरितं
सम्यक्य
समकिन
क्षयोप
स्तोके
वीस
मिथ्यात्व
सुख
मूर्ति
निकर्तन
दल
तपयतो
वृत्तौ दिनकृतौ
इथिक
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शुद्धि.
शंसय
उपद्रव
वत्युम्मि
छउम
अङ्गणं
जीव
मिथ्यात्वना
कसाया
अज्जियं
चरितं
सम्यक्त्व
समकित
क्षयोपशम
तोके
त्रीस
मिथ्यात्व
सुरवर
मुभि
निवर्तनं
ह
तपत्रतं
वृत्तौ
दिनकृत्ये
इर्यापथिकी
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(२०)
अशुद्धि.
शुद्धिः
रुदि
इंदि
बभी
बंभी
इंदि
इन्द्रि शिल्य जपा
शिल्प
जण रुवे
रुपे
जोए
१
704 2023 2 vvvor or 9 9 00..
योगे अने चर्मावते उच्छेदांगुल पमागांगुलं दुगणियं वीरसागुलं यमाणंगुलेणं अर्थाग्रहना आयंगुलन वासमय
अनेक चरमावर्ते उत्सेवांगुल पमागंगुलं दुगुणियं वीरस्सायंगुलं पमागंगुलेणं अर्थावग्रहना आपंगुलेन वास सय
किस
केस
सस्साइ आकुट्टिकया त्साहोत्मिका कदर्य कल्प योगीउप
तसाइ
आकुट्टिका साहात्मिका कंदप्प कल्पः योगोप
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शुद्धि.
पृ. , ८९०
पं. १२ १९
(२१) अशुद्धि. रुपा उमत्ते अमूढेय लोहोह
रुपः
उम्मत्ते य मूढेय लोहोय
८९१
२
वली
वल्ली
सन्नाए
सन्नाह भावदशा द्रव्यदशा स्वयोग पर्याप्ति समर्था
८९२
१५
भावदिशा द्रव्यदिशा स्वयोग्य पर्याप्तीः समर्थ्य
"
१६
२१
८९३ ८९५ ८९६
बलिय दलिय आश्री समयआश्री पुरसकार पुरिसक्कार गुणिएं गुणिए पाणीवह पाणीवह दुरसतेयाल दुरायतेयाल ११ मा सुधी १२ भा सुधी पइसमसंखया पइअंसमसंखया यतिया जत्तिया इति तितिया
तत्तिया प्रणयोयो त्रणथोयो
८९८
११
९०६
१२
इंति
.
MKM
4
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•
९१६
१३
वाति
2000 2.2x03
(२२) अशुद्धिवावी गेविइझे निवाणुं निया वणस्स पादोपगम सचित्त अचित्त अंधः असंख्यता प्राणातिपात सवाच्छ निगह अंगुसेठी सयकेवलि कारणं भूतं उद्देशासना आगमनना बडिबध्ये उगवमाणो प्रपंचा
गेविज्जे निया' निया' वणस्सइ पादपोपगम अचित्त सचित्त अधः असंख्याता प्राणातिपात विरमण सवा छ
निग्गह
अंगुल सेढी सुयकेवलि कारणं तैजसम्
२५
उद्देशाना आगमना पडिबध्धे उम्गममाणो प्रपंच
९४२
कला
वेला
९४४
२४
काल
काल
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(.२३) अशुद्धि. भुवरि निचुग्वाडीओ भागं तत्यः सूक्ष्म
शुद्धि.. मुवरि निच्चुग्वाडीओ भागः तदंत्यः सूक्ष्मो नथी दुयाहिएण तिर्यंचएव अरिह
नवी
दुयाहिण्ण तियच्येव अरिहं
कर्मसंवेध.
Hand wrontaneo:
९६७
अट्ठच्छा छदोसु मिछाइ म.ग. अनहारक वणसय इक्कास्सय षिवज्ज तिछज्जुआ पद्यत्त तिछयरं पुवत्ता
अठछा छदोसु मिच्छाइ म. ग. १ अनाहारक पणसय इक्कारसय खविज्ज वित्थजुआ
तित्थयरं
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पू.
"
$9
९८२
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पं
२४
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३
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7
अशुद्धि
कसाय
मिळअसंनी
पणंदि
नच्छि
दीस
तिछ
विगलंदि
परहारे,
मिछा
तिछ
मिछम्
अज्ज
अविरतति
छेच
तिनुइ
युंआ
मिछ
उदस्सु
पडगही
जएनिअर
ठठाणा
उणु
दलिअ
मज्जत्थ
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शुद्धि.
कसाय
मिच्छ असन्नि
पर्णिदि
नत्थि
दस
तित्य
विगलिंदि
परिहारे
मिच्छा
तित्थ
मिच्छं
अपज्ज
अविरति
पंच
तिनवइ
युआ
मिच्छ
उदयुबु
पडि गहि
जहन्नियर
ठिइटाणा
उणू
दलिआ
मज्झत्थ
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१२
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( २५ )
अशुद्धि.
जाणं
अग्गाहणीअ
ततो
निज्झर
निर्जरा
ग्रहस्छ
श्राविक
णुजुत्त
पेछइ
अमञ्चणादंसाओ
पच्छसव्वण
कठ्ठाविसेसी
उपसमकितथी
अंतमुहूर्त
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कुसुमाचुअराइणा- कुसुमियंचूयंतेणएगा येगा मंजरागहिया मंजरी गहिया
बूद्धि
निरावणा
भुजंतो
६
शुद्धि
खंधावारेणंलयतणं खंधावारेण लयंतेण
पडिनियत्तओ पडिनियत्तो
कहे
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झाणं
अग्गायणी
तत्तो
निज्जर
निर्जरा
ग्रहस्थ
श्राविका
अणुजत्तं
पेच्छड्
कहिं
अमच्चेण दंसणाओ
पच्छासव्वेण
कठ्ठावसेसो
उपशमसमकितथी अंतर्मुहूर्त
""
बुद्धि निरावरण
भुंजतो
५
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प.
१०१५
पृ.
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पृ.
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पं.
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( २६ )
अशुद्धि.
भिछामि
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शुद्धि.
मिच्छामि
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17
अशुद्धि शुद्धि अंगे सूचना.
१ पं. ज्यां “ २९ कोडाकोडी " इत्यादि खपाववानुं कनुं छे त्यां साधिक पल्योपमना असंख्यातमा भाग अधिक २९ को. को. इत्यादि जाणवुं.
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२ पं. ३ १ “ एक कोडाकोडीसागर " स्थाने देशण एक कोडाकोडी सागर वांचं.
पृ.
२ पं. ४ थी ९ " मुहूर्त ” ने स्थाने अन्तर्मुहूर्त वांचवं. पृ. २१ पं. ९ “ अरुपी " स्थाने रुपी अरुपी बन्ने ग्रहण
करवा.
66
पृ. ४० पं. ८ थी १० कोइ एक प्रदेशे असंख्य, अनंत, वा संख्यात अगुरु लघु गुण कह्यो छे " परन्तु प्रति प्रदेशे अनंत अगुरु लघु सर्वदा होय छे अने समय तय प्रदेशोमां परस्पर असंख्यगुण वा अनंतगुण वा संख्यगुण हानी वृद्धि ए परिणमे ए अर्थ ग्रहण करवो.
पृ. ५२ पं. ६ पर्याय ते गुणमां संक्रमावे इत्यादि वाक्यमां मनोयोगज पर्यायी उतारी गुणमां संक्रमावे इत्यादि
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(२७), जाणवू. कारण के द्रव्य, गुण, पर्यायनो परस्पर संक्रम
होय नहि. पृ. ५३ मां जीव अधोगतीए या तीछों केम नथी जतो ?
एना उत्तरमा मुख्य उत्तर जीवनी स्वाभाविक गति
ऊर्ध्वज छे एटलं जाणवू. पृः ९८ पं. १२ "दर्शनगुणते विशेष छ,” ए स्थाने " ज्ञान
गुण ते विशेष छे ” एम जाणवू. पृ. ५५० पं. १७ “ सादि अनादि अडेगतछेदरे " ए पदना
अर्थमा प्रथम " अनादि " ने पछी “ सादि " ए
अनुक्रम राखवो. पृ. ५५४ पं. ९ " त्रिविधवायु आधार छे" ए स्थाने त्रिवि
धवलय आधार छे ” ए अर्थ संभवे. पृ. ५८५ गाथा ७ मीना अर्थमा पर्यायसमासादिकना अर्थमां
ज्यां. ज्यां " सर्व " पद आवे त्यां त्यां " एकयी
अधिक ” वा “ अनेक " एवो अर्थ कखो. पृ. ५९० पं. ६ “ एक कोडाकोडी" ने स्थाने " देशूण
पल्योपमना असंख्यातमा भाग हीन एक कोसाकोडी"
हम जाणवू. पृ. ६३५ पं. १८ " ते आहारपर्याप्त तांइज सास्वादन भावमें
वरते " एम कर्तुं छे परन्तु साहलादनपणं, तो आहार पर्यातिथी आगळ शरीर पर्याप्ति सुधी होय छे कारण के आहारपर्याप्ति तो १ समय मात्र छ ने अवे अपंचेन्द्रिय जीवोने सास्वादनपणुं समय मात्र होय एम कहेवानुं प्रयोजन नहि.
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(२८) पृ. ६५५ गाथा ३१ ना टबामां केवलिने ७ योगमां " असत्य
मनयोग तथा “ असत्यवचनयोग " गणाव्यो छे ते स्थाने असत्यामृषामनयोग तथा असत्यामृषावचन
योग गणवो. पृ. ६६१ पं. १० “ मानकषायीयी क्रोधीसुं मायावी कपटी
अधिकार छ " ए स्थाने मानकषायीयी क्रोधी अधिक छे ने क्रोवीथी मायावी कपटी अधिक छे
एम वांचq. पृ. ६६१ पं. पं. १४ " च्यारगतिमें समक्रीते सर्व जीव छे."
ए स्थाने " चारे गतिमां समकीती जीवने अवधि
ज्ञान होय छे माटे " एम वाचवू. पृ. ७३६ पं. २ " औदारिकथी वैक्रिय सूक्ष्म, भाषाथी उश्वास
सूक्ष्म, ” एमां मध्ये रही गयेलो पाठ आ प्रमाणे जाणवो. औदारिकथी वैक्रिय सूक्ष्म, वैक्रियथी आहारक सूक्ष्म, आहारकथी तैजस सूक्ष्म, तैजसथी भाषा
सूक्ष्म, भाषाथी उश्वाससूक्ष्म. पृ.८०९ " चार वार श्रेणिगत अने पांचमीवार पडतां" ए
प्रमाणे उपशम सम्यक्त्वनी ५ वार प्राप्ति कही छे परन्तु अनादि मिथ्यात्वीने सम्यक्त्वनी प्रथम प्राप्तिमा एकवार अने चारखार श्रेणिमां, ए रीते ५ वार उपशम सम्यक्त्वनी प्राप्ति जाणवी..
तथा आठमे गुणठाणे अटकीने क्षपकश्रेणि मांडीने केवल ज्ञान पामे" एम का छे, परन्तु श्रेणियी फ्डी ७ में अप्रमत्त गुणठाणे आवीनेज क्षपकश्रेणि मांडी शकाय परन्तु ८ मेथी नहि एम जाणवू.
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(१९) घणे स्थाने संयुक्त "B" ने बदले मात्र" " छमायलो छे अने “ निर्जरा " शब्दमां ज्झ छपायलो छे, “निजरा " इत्यादि शब्दमां ज्ज ने स्थाने ज्झ छपायलो छ, ने तेवा घणा शब्दो होबाथी ते सर्व शब्दोनी अदि आपेली. नथी तोपण आ सूचनाथी तेवा शब्दो सुधारीने वांचा.
तथा जे शब्दोनी एकवार शुद्धि आपी छे तेवा प्रकारना बीजा सर्व सरखा शब्दो पण तेवीज शुद्धिवाळा जाणीने वांचवा कारण के तेवा अनेक शब्दो आवेला होवाथी सर्व शदोनी शुद्धि दाखल करतां ग्रंथ वधी जाय छे.
तथा कंइक स्थाने अक्षरो एक बीजा शब्दमा जोडाइ गयेला होवाथी वांचक वर्गने अर्थ समजवो अशक्य थाय ते संभषित छे तो तेरे स्थाने अक्षरो अर्थने अनुसार मेलवीने वांचवा तेमांनां कंइक स्थान
नीचे प्रमाणे छे. पृ. ५०० पं. १ " मन वशील विनागत तेज छे रे " ए स्थाने
" मानव शीलविना गततेज छरे " एम वांचq.. पृ.५०३ पं. ७ " करे जसु वाणि रे” ए स्थाने "करेज
सुवाणि रे" एम वांचq. पृ.५०६ पं. १४ चलचित्तकारि जन विसरे रे" ए स्थाने
" चलचित्त कारिज नवि सरे रे" एम वांच. पृ. ५४४ पं. ४ " मोहनीदलय लीन " ए स्थाने " मोहन्दि
लयलीन " वांचq. पृ.५५३ पं. २१ " कबसें जेम न खंत " एस्थाने “ सब
सेजे मन खंत " एम वांच: इत्यादि.
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