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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
नामधुवबंध नवगं, दंसणं पणनाणं विग्धे परघायं । भय कुच्छ मिच्छ सासं, जिणगुणतीसा अपरिअत्ता १८
अर्थ -- हवे अपरावर्त्तमान प्रकृति कहे छे-नामनी ध्रुवबंधी ९, वर्णादि ४, निर्माण १, अगुरुलघु १, उपघात १, तैजस १, कार्मण १, ए ९, तथा दर्शनावरणी ४, पणनाणज्ञानावरणी पांच, विग्धं - अंतराय पांच, पराघात १, भय, दुगंछा, मिथ्यात्व, उश्वास, जिननाम ए इगुणत्रीस २९, ए अपरावर्त्त - मान जाणवी. अपरावर्त्तमान एटले जे प्रकृति कोनो बंध तथा उदय रोक्या विना पोताना हेतु सद्भावे बंधाय, तथा उदय आवे, ते अपरावर्त्तमान कहीये. ॥१८॥
तअट्ठ वेअं दुजुअल, कर्सीय उज्जीअ गोदुगनिद्दाँ । तसैवीसा उ परित्ता, खित्तविवागाणुओ ॥ १९ ॥
अर्थ - - परावर्त्तमान प्रकृति ९१, कहे छे, जे तणुअट्ठशरीर ३, उपांग ३, संस्थान ६, संघयण ६, जाति ५, गति ४, खगति २, आनुपूर्वी ४, एवं ३३, तथा वेद त्रण ३६, दुजुयल - हास्य रति, तथा शोक अरति ४०, कषाय सोळ ५६, उद्योत ५७, आतप ५८, गोत्र बे ६०, वेदनीय बे ६२, निद्रा पांच ६७, त्रस थावरना दसकानी मळी वीस ८७, चार आउखा ९१, ए एकाणुं परावर्त्तमान प्रकृति जाणवी. जे ए बंध तथा उदयमां एकने रोकीने बंधाय अथवा उदये आज ते परावर्त्तमान कहीजे. हवे क्षेत्रविपाकी - क्षेत्र कहेतां आकाश तिहां जेहनो विपाक जे क्षेत्रविपाकी च्यार ४, आनुपूर्वी छे, जे एक भवयी बीजे भव जतां बाटे विपाके
ते
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