________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Y
ध्यानदीपिका चतुष्पदी.
चौगति भमता बहु दुष देषै, नाम धरे बहु कर्म विशेषै, सां० विककेंद्री वलि पांचे थावर, चित्त विना तिरि गति दुष आगर ५ सां० ज्ञान अंक संकोच विथारी, कर्त्ता भोक्ता ए तनुधारि; सां० जयवंतौ त्रयकाल अपंडित, जीव कहे तिण कारण पंडित. ६ सां० एक थकी मांडी दस पर्यंत, जीव भेद जाणौ मतिवंतः सां० शुद्धयें कर एक महंत, निज निज भावे द्रव्य अनंत. ७ सां० जीवराशि सहजे द्विप्रकारी, भव्य अभव्य लषो सुविचारी; सां० परमातम रिद्धिनें जे वरिस्यै, भव्य कह्या ते श्रीजगदी सै. ८ सां कबहि न जाणे आतमकाजै, तेह अभव्य कहा जिनराजे; सां० तीन काल ए भव में वास, न मिटे जनम मरण दुष जास. ९ सां० भव्य तिके शिवपुर योग, दूर करी त्रय कर्म कुरोग; सां० अनादि संयोगी कर्मने जीव, कनकोपल जिम जाणि सदीव. १० सां० भव्य भणी भव सांत अनादि, अभव्य भणी ते अनंत अनादि; सां० जीव समास अने गुणठाण, चवंदै भेद मारगणा जाण. ११ सां० गुणठाणादिक सगलि वाणि, संसारीनी दशा वषाणि; सां० शुद्धये करिए सह हेय, एक शुद्धता छै आदेय. १२ सां०
दूहा. अजीव तत्त्व बीजो हिवै, तेहना पंच प्रकार, धर्म अधर्म नभ काल, अणु पुदगल पंचम धार. शुद्ध रूप पूर्वै कयौ, छठो चेतन दर्वः अस्तिकाय पण काल विणु, भिन्न सहाइ सर्व. पांच अचेतन जीव विणु, अमुरतीक अणुहीन; थिति उतपत्ति विनाश युत, सदाकाल स्वाधीन. वरण गंध रस फरस युत, अणु स्कंध दो भेद; थूलादिक षड भेद घर, पुदगल वसु अ पेद.
२८
For Private And Personal Use Only
१