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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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दृहा. सम्यग दर्शन ज्ञान गुण, वलि तीजो चारित्र; तीन मिल्यां चेतन भणी, शिवमंदिर प्रापति. कर्म कठोर ज तोडिवा, कारण एहि ज तीन; ध्यानसिद्धि गुणत्रय सहित, निफल गुण त्रय हीन. रत्न त्रय विणु ध्यान जे, चाहै मूष कांत; कुसुम आकाशै सिल कमल, वंध्या सुत दृष्टांत. दरसण जे रुचि तत्त्वनी, तत्त्वकथक ते ज्ञान; शुरु द्रव्य श्रधान जे, ते समकित कहवाय. सहज थकी उपदेशथी, प्रापतिकारण दोय; क्षायक उपशम मिश्र ए, समकित त्रय विधि जोय. ५ पंचेंद्री परयापतौ, संज्ञी जीव सुभव्यः काल लबधि पाम्या लहे, समकित श्रद्धा नव्य. ६ सात प्रकृतिनो क्षय थयां, क्षायक उपशम बीय; उपशमीयां क्षय उपशम्यां, मिश्र लहे तव जीव.
ढाल-धरम सुणी राजा प्रतिबूधो ए ढाल. सांभल ज्ञानी समकित वाणी, उपशम आस्तानी सहि नाणी; सांभ० द्रव्य तणा गुण जाण्या पामे,दोष पचीस भणीजै नामै. सां० १ आं० जीवादिक सग तत्त्व पिछाणे, हेयादेयपणो जे जाणैः सां० जीव अनंतौ नित्यता धारी, एक सिद्ध बीजो संसारी. २ सां० नित्य अनंत चतुष्टय धारी, जन्म मरणरा दुष निवारी; सां० निज आत्मीक स्वभाव वहता, जयवंता इम सिद्ध अनंता. ३ सां० त्रस थावर आदिक बहुभेदी, जीव संसारी ए अतिषेदी; सां० भू आदिक थिर पंचधा जाणौ, वली अनेकत्रस भेद वषाणौ. ४ सां०
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