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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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धर्म अधर्म आकासत्रयी, थिर अक्रिय अरूप; सर्वलोक व्यापि धरम, चलण सहाय अनूप. मीन चले जीम नीरमें, जीव धर्मसु तेम; अधर्म द्रव्य थितिकार छै, पंथीनै तरु जेम. जे देवे अवगाहना, ते कही यै आकाश; अनंतप्रदेशी नित्य छे, लोकालोक निवास. नव जीरण पुद्गल भणी, करै जेह ते काल; परावर्तरूपी समय, व्यवहार संभाल. गत आगत व्रतमानता, भजै जांणि ते काल; असंख्यात रेणुक प्रमित, अस्तिकाय विणु भालि. ९
मेघमुनि कांइ डमडोले रे ए. धर्म अधर्म नभ कालने जी, एक अर्थ पर्याय पुद्गल जीव भणी उभै जी, व्यंजन द्रव्य गिणाय. १ भविक जन सांभलि, तत्त्व तत्त्व स्वरूप; जिणथी निज गुण उलसैजी, प्रगटे ज्ञान अनूप. २ भ० जीव भणी पण भाव छै जी, पुद्गलनै दोय भाव; परमाणिक धर्मादिन, जी, समझिज्यो करि मत दाव. ३ भ० धर्म अधर्म चेतनतणा जी, छे असंघ परदेस; कालाणुक असंख्यात छे जी, व्योम अनंत कहेस. ४ भ० एक आदि अनंता लगे जी, पुद्गल देस विचार; व्यंजन पर्याय स्थूल छे जी, सूषिम अरथ संभारि. ५ भ० बंध तत्त्व चोद छे जी, थिति रस प्रकृति प्रदेस; ज्ञानावर्णादिक कह्या जी, अष्ट करम दुष देस. ६ भ०
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