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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
बंध हेतु पण दाषिया जी, मिथ्या अविरति योग; कपाय प्रमाद बसै करी जी, वाधै कर्मनो रोग. ७ भ० उत्कर्षण अपकर्षणा जी, तेह प्रकृतिनो बंध; थिति ते थितिबंध जाणीय जी, फल अनुभव रस बंध. ८ भ०
आठ कर्मनी वर्गणा जी, मेलै बंध प्रदेश बंध तत्त्व ए हेय छै जी, शुद्धातम निज देश. ९ भ०
आश्रव संवर निर्जरा जी, दाष्या भावनमांहि; मोक्ष तत्त्व हिव वर्णबु जी, ते सुणज्यो धरि उच्छाह.१० भ० अष्ट गुणें करि शुद्ध छै जी, अनंत ज्ञायक गुणषांणि; नित्य अरूपी सिद्ध छै जी, साधक दस गुणठाण. ११ भ० लोकालोक देषै अछै जी, समय समयमै जेह; थिति उतपत्ति विनाससुं जी, सिद्ध सुद्ध गुणठाण.१२ भ० द्रव्यार्थिक परज्यायथी जी, जाणि सरदहै जेहा स्व पर विवेचन जे करै जी, समकित धारी तेह. १३ भ० समकित रतन जिणे कयो जी, शिव सुपनो दातार; तप संयम श्रुत सफल छै जी, समकितरै आधार. १४ भ० समकित बिन किरिया सहु जी, हेय अछै निस्संदेहः कर्मरोग औषध अछै जी, समकित किरीया एह. १५ भ० समकितधारी जै अछै जी, शिवपुर साधक सोय; ज्ञान चरण दरसण विना जी, सिव साधक नवि होय. १६ भ० अनुपम सुषनो गेह छै जी, भव अंभोनिधि जिहाज; कर्मवक्ष परसी समो जी, आपे शिवपुर राज. १७ भ० हेय उपादेय जाणिनें जा, जाणिइ निजगुण जेहा नित्य अबाधित पामिसै जी, देवचंद पद तेह. १८ भ०
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