________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
तजि प्रमाद समभाव भाज, हरि हिंसा - परिणाम; हिंसा भवभ्रमकार छे, दुष अनंतनौ धाम. हिंसक जावै नरकगति, वलि निगोदे जाहि; क्षमा ध्यान तप फलतणौ, नास करे क्षणमांहि.
४८५
ढाल - चंद्राउलीनी.
दान ज्ञान फल सहु गमें रे, हिंसारत ते जीव; अनुमत देता लोकने रे, नरकै करस्यै रीव. नरकै करस्यै व रे भाई, नव नव पीडा सहस्यै लाई; हिंसा करतां धर्म न थाय, दुष अनंतानंत नीहाइ जी. १ सांभल समकिती रे, एतौ दुरगतिनी दातारः
शिव मारग वट पार, दाषी केवली रे. आंकणी. निस्पृहता महता गमे रे, उदासीन तनु ताप; हिंसकनै सहु धूल छै रे, ए करै कुल संताप. कुलसंतापे कीर्ति गमावे, नित प्रति विघन कोडि उपजावे; सुष मंगलने दूर नसावे, गति निगोद लघु आयुष षावे जी. २ सा० शिला चढि जल तखा करै रे, ते मूर्खनो स्वामि; धरम बुद्धि प्राणी हणे रे, कहै शास्त्रनो नाम. he शास्त्रौ नाम ते गौला, परभवमें दुष सहसै बहुला; चारित्र ज्ञान दया विणु निबला, नासै हिंसाथी जिन सुकला जी. सांभली० ३
For Private And Personal Use Only
भलो दया- अक्षर भण्यो रे, पापशास्त्र लष कुड; जीव हणै ओषध भणी रे, शुभफलनै धै घड निरंतर. नासे शील दया शम गुण कर, मोह कषाय बधारे बहुपरि; हिंसा जीवदया अंतर, जी० ४ सां०
३३