________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
७४०
कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः
सुधीना बंधस्थानमा जेटली प्रकृतिनुं बंधस्थान वर्ते तेटला भाग पडे, तेमां बंधन संघातनने शरीर नामकर्ममांथी भाग मले, तथा वर्णादि मूल प्रकृतिना भागमां आवेलां दलिया ते पोतानी उत्तर प्रकृतिमांज वहेंचाय. कारणके एक समये सर्व वर्णगंधादि बंधाय छे. तथा गत्यादि पींड प्रकृतिओना भागमां आवेलुं दलिक ते सर्व एकेक प्रकृतिनुंज होय, कारणके एक समयमां गत्यादि एकज प्रकृति बंधाय छे. तथा गोत्र वेदनीय ने आयुष्य एत्रण मूलकर्मनो भाग बंधाती एकेक प्रकृतिनेज मले. ए सर्व वचण जे समये बांधे तेज समये करे छे एटले बंधसमयेज वढ़ेंचे छे ते सर्व कार्य एक समये थाय छे.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सम्म देस (दर) सहविरई, उअणविसंजोअ दंस aar | मोह सम संत खवगे, खीण सजोगीअर गुणसेढी ८२
अर्थ - - हवे ११ श्रेणि कहे छे-तिहां प्रथम सम्म - समकितनी श्रेणि १, बीजी देशविरतिनी श्रेणि २, त्रीजी सब्वविरहसर्व विरतिनी श्रेणि ३, चोथी अण- अनंतानुबंधी सत्तामाथी काढवा खपाववानी ते श्रेणि ४, पांचमी दंस-दर्शनमोहनी ३ खपाववा रूप श्रेणि ५, तथा छठ्ठी ते मोहनीनी २१ प्रकृति शमाववा रुप आठमागुणठाणाथी दसमाना अंतलगें मोहशमरुप श्रेणि ६, सातमी सर्व मोह उपशमी रह्यो एहवी ११ गुणठाणा रूप श्रेणि ७, आठमी खवग - मोहनीनी २१ प्रकृति खपाववारुप आटमाथी दशमापर्यंत श्रेणि ८, नवमी सर्वमोह खप्यो ते रुप क्षीणमोह गुणठाणारुप श्रेणि ९, दशमी सयो
१६०
For Private And Personal Use Only