________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कस्यार्थः
६००९
अर्थ — उन्मार्ग - खोडो मार्ग देखाडे, मार्ग शुद्ध स्वाद्वाद न आवे एडले अशुद्ध मार्ग देखाडे देवदव्व - देहेरानो द्रव्य धन, साधारण दव्पनो हरवो, खावो, वावरे जीय दर्शनमोहनी कर्म बांधे. जिन, तीर्थकर, साधु, चैत्य, देहेरो, संव चतुर्विध, तेहनी प्रत्यनीक जीव मिध्यात्वमोहनी बांधे. ॥ ५६ ॥
दुविपि चरणमोहं, कलायहालाइ विसयविव समणो । बंधइ निरयाउ महारंभपरिग्गहरओ रुहो ॥ ५७ ॥
अर्थ-दुविहं - दोइ भेदें चारित्रमोहनी जीव कर्म बांधे. कषाय कोवादिक हास्यादिक पांच इंद्रोनो विषय तेहथी परवश पडयो एटले जे जीव विषयमें मस्त होवे ते चारित्रमोहनी बांबे. अने महारंभ वावडी, कुआ, तळाव, कोट, बाग, खेत्र प्रमुख मोटा आरंभ करती थी तथा मोटा परिग्रह धन धान्यमें मूर्च्छित थको परिणामे रौद्र ( रौद्रव्यानी ) ते नरक गति ज जाय ॥ ५७ ॥
तिरियाउ गूढहियओ, सदो ससको तहा मणुस्ताउ । पगइतणुकसाओ, दारुई मिगुणो ॥ ५८ ॥
अर्थ-तिनो आपखोबांचे ने जीयातो महागूढ गंठीलो होवे, मूर्ख अज्ञानी होवे, साल ( शल्य सहित होवे, कूड कपट घणो करे से तिर्यचनो आयु बांचे. तिम तेणी रीते मनुष्यनो आउखो बांधे जे जीव प्रकृति स्वभावे तणु-पातळो कषाय जेहने होवे, दान देवानी बुद्धि जेहने होवे, गुणे करी मध्यम गुणी होवे ते मनुष्यायु बांधे ॥ ५८ ॥
77
For Private And Personal Use Only