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कर्मयन्यस्य टवार्थः
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अविरयमाइ सुराउ, बालतवोऽकामनिजरो जयइ। सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुहं ॥५९॥ . अर्म-अविरतिथी लेइ करीने सातमे गुणठाये ताइ जीव देवतानो ज आउखो बांधे, वळी अज्ञानतप करतो जीव, अकामनिर्जरा करतो जीव देवतानो आउखो बांव. सरलचित्त होवे, गर्व न करतो होय ते जीव नामकर्मनी शुभ प्रकृति बांचे अने कपटी अहंकार करतो होय ते नामकर्मनी अशुभ प्रकृति बांधे. ॥ ५९॥ गुणपेही मयरहिओ, अज्झयणज्झावणाई निचं । पकुणइ जिणाइभत्तो, उच्चं नीयं इयरहा उ ॥६॥
अर्थ-गुणग्राही-गुणरागी, मद अहंकार रहित, माननो पक्ष नहीं, भणवाने भणाववानी रुचि घणी होवे जेहने एहयो सरलबुद्धि जीव होवे वळी जे जीव जिन गुरु वचन बहु श्रुतनी भक्ति करतो होय ते जीव उच्चगोत्र बांचे. अने एहथी विपरीतपणे नीच गोत्रकर्म बांये. ॥ ६० ॥ जिणपूआविग्धकरो, हिंसाइपरायणो जयइ विग्छ । इय कम्मविवागोयं, लिहिओ देविंदसूरिहं ॥३१॥ ___अर्थ-जिनपूजा करतां जे अंतराय करे ते अंतराय कर्म बांधे वळी जे हिंसामां तत्पर-उजमाल होवे ते जीव अंतरापकर्म बांवे, एटले करी कर्मनो विपाक करो. एकलो अठ्ठावन प्रकृति कही अने पूर्वला सिद्धांत देखीने देवेंद्रसरि आचार्य लख्यो छे. ॥ ६१ ॥ इति कर्मविपाकनाम प्रथमकर्मग्रंथटबार्यः संपूर्णः ॥१॥
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