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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः विग्यावरणे सुहुमो, मणुतिरिआ सुहुम विगलतिगआऊ वेउवि छक्कममरा, निरया उज्जोय उरलदुगं ॥ ७१ ॥
___ अर्थ-विग्ध-अंतराय पांच, आवरण-ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी ४, ए ९, एम बधी मळी १४, चौद प्रकृतिनो
सुहमो-सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे जघन्य रस बांधे, तथा सूक्ष्मत्रिक .३, विकलत्रिक ३, आउखां ४, वैक्रियछक-देवद्विक २, नरकद्विक २, वक्रियद्रिक २, ए ६, छ मली सर्व १६, प्रकृति मणुतिरिय-मनुष्य ने तिर्यंच जघन्यरसे बांधे, उद्योतनाम, औदारिक २, अमरा-देवता निरया-नारकी जघन्य रसे बांधे॥७१ तिरिदुग नियं तमतमा, जिण मविरय निरयविणिग
थावरयं। आसुहु मायव सम्मो, वसाय थिर सुह जसा सियरा७२ ___अर्थ-तिर्यचद्विक २, नीचगोत्र १, ए ३ प्रकृतिनो जघन्य रस तमतमानारक ७ मीना नारकी बांधे. जिननामकर्मनो जघन्य रस अविरति समकिती बांधे, एकेन्द्री जाति थावरनामकर्म, नरक गतिविना तीन गतिना जीव जघन्य रसे बांधे, आतपनामकर्म आसुहुमा-सौधर्म देवलोक पर्यंतना देवता, जवन्य रसे बांधे, सौधर्म कहेवाथी इशान पिण ग्रहवो, सम्मोवसाय-सातावेदनी १, थिरनाम १, शुभनाम १, जश १, ए ४, प्रकृति समकिती पङो जवन्यरसे बांधे सिवर-एहथी इतर असाता, अथिर, अशुभ, अजश, ए ४, प्रकृति समकिती चढतो होय त्यारे जघन्यरसे बांधे ॥ ७२ ॥
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