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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
दहा. विगकेंद्री अक्रिय छे, ध्यान धारणा हीन; ज्ञाता मुनि चउविधि धरे, शुकुज्ञान गुणपीन. त्रय चोकडी कषायनी, क्षय अथवा उपशांत; प्रथम दोय छद्मस्थने, केवलिने दोय अंत. पृथक्त्ववितर्क विचारयुत, प्रथम शुक्ल ते ध्यान; एक वितर्क विचार विणु, वीय शुक्ल शिव थान. शुद्ध नाम तीय शुकुरो, सूक्ष्मक्रिय प्रतिपातः शुद्ध साध्य शिवपद रमे, उछिने क्रिय बात. जेथ विचारे भिन्नता, ते सविचारवितर्क; निश्चय इक निज आतमा, जाण्या ए वितर्कव्यंजन व्यंजन अंतरे, अर्थातरमे अर्थः योगादिक योगांतरे, संक्रम करण समर्थ. शुद्ध द्रव्य गुणने स्मरे, ध्यानी विगतकषायः तीन योग दमि तीनी गुण, साधै पहिलै पाय. प्रथम शुक्ल परभावथी, मुनिवर विगत अपाय; केई कर्मने उपशमे, किणहीरा क्षय जाय. सात प्रकृतिने उपशमे, उपशम समकित थाय; चउत्थे छे अट्ठम थकी, उपशम श्रेणि चढाय. सत्तायै तितली रही, उदय उपशम मोह केइ पडे भवने क्षये, के अद्धा क्षय लोह. ढाल - सफल संसार अवतार ए हुं गिणं. एहनी ॥ ध्यान निज आतमा सिद्धसम ध्याईये, धोईये कर्ममल नित्य सुख पाईये; दर्शन मोह त्रय चोकडी प्रथमनी, एह शम उपशम्यां ज्योति
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उपसम्मनी. १
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