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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
युनी, ५८ नामकर्मनी छे. एवं ७३ छे. अने. ध्रुवबंधि ४७ अध्रुवबंधी ७३ मिळ्यां १२० एकसोवीस प्रकृति थइ, हवे चउ ४ भंगी अणाइ कहेतां अनादि १, साइ सादि २ तथा अनंत तथा सांत जोडीये, तिवारे अनादिअनंत १, प्रथमभंग अनादि सान्त ए द्वितीयभंग, सादि अनंत ए त्रीजो भंग सादिसान्त ए चोथो भंग, ए चोभंगी जाणवी. ॥ ४॥ पढमबियाधुवउदइसु, धुवबंधिसु तइय वजभंग तिगं। मिच्छंमि तिन्निभंगा, दुहावि अधुवा तुरिय भंगा॥५॥ ____ अर्थ-तिहां ध्रुवउदयी प्रकृतिमध्ये प्रथम १, तथा २, बीजो ए बे भांगा छे-अनादि सान्त भव्यमे २, ए बे भंगा छे. तथा ध्रुवबंधि प्रकृतिनेविषे बीजो वर्जीने तीन भंग छे. तिहां अभव्य आश्रयि अनादि अनंत छे. जे कारणे अनादिकाल बांधे छे, अने ते सदाकाल बांधे तिणे अनंतबंध छे, भव्यजी ने अना दे सान्त छे, ए योग्यतानो सूत्र छे. सादि अनंत ए भंग कर्म स्वरुपे संभवे नहीं. अने सादिसान्त भंग जीव उपशम श्रेणिए चढी इग्यारमे गुणठाणे सर्व प्रकृतिनो अबंध थस्रो, ते वळी पाछो पडीने सर्व बंध करे ते सादि, अने ते जीव वळी कर्म क्षय करीने सिम थाय तिवारे सान्त थाय, ए तीन भंग छे, मिथ्यात्वने ध्रुवोदये तीन एहिज भंग छे, तथा अध्रुवबंध तथा अध्रुवोदयनेविषे एक चोथो भांगो सादिसान्त ए छे. ॥५॥ निमिण थिरै अथिरै अगुरुय, सुहं असुहे तेअ कम्म
चउवन्नों। नाणे तराय दसणे, मिच्छ धुवउदय सगवीसौं ॥६॥
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