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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
मिति ध्रुवत्वेन नित्यस्वभावः नवनवपर्यायपरिणम नादिभिः उत्पत्तिव्ययरूपो नित्यस्वभावः उत्पत्तिव्ययस्वरूपमनित्यम् १
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अर्थ | एक अप्रच्युतिनित्यता बीजी पारंपर्यनित्यता तिहां अप्रच्युतिनित्यता तेने कहिये जे द्रव्य ते उर्ध्व प्रचय तिर्यक् प्रचयने परिणमवे ए द्रव्य तेहिज ए ध्रुवतारूप ज्ञान थाय छे एटले सदा सर्वदा त्रणे काले तेहिज एवं जे ज्ञान थाय छे जे मूल स्वभाव पलटे नही ते अप्रच्युति नित्यता कहियें अने ए नित्यतामां जे उर्ध्व प्रचय कह्यो ते ओलखावे छे जे पहेले समये द्रव्यनी परिणति हती ते बीजे समये नवा पर्यायने उपजवे अने पूर्वपर्यायने व्ययें सर्व पर्यायनी परावृति थइ तो पण ए द्रव्य तेनुं तेज एवं जे ज्ञान थाय ते द्रव्यमां उर्ध्वप्रचय कहियें उपरले समये ते माटे उ प्रचय कहियें.
तथा अनंताजीव सरिखा छे पण सर्वजीव जाणतो ए पण जीव एवो जीवत्वसत्तायेंतुल्य भिन्न जीव सत्तारूप ज्ञान थाय ते तिर्यक्प्रचय कहियें.
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ऊर्ध्वप्रचय ते समयांतरे अनेक उत्पादव्ययने पलटवे पण ए जीव ते तेज छे एवं ज्ञान थाय ए नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो. ए कारणयी कार्यउपनो तेनुं ज्ञान थाय ते नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो. तथा ए कारणयी जे कार्यउपनो वली ज्ञान थयुं ते कारणयी बीजे कारणे बीजुं कार्य थाय एम नवे नवे कार्यउपने पण जीव तेज छे एवं जे ज्ञान थाय, परंपरारूप संतति चाली जाय ते पारंपर्य नित्यता कहिये जेम प्रथम शरी
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